कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - लखनऊ

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हिंदी कविता

Kunwar-Narayan-kavita

Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - लखनऊ

लखनऊ
किसी नौजवान के जवान तरीक़ों पर त्योरियाँ चढ़ाए
एक टूटी आरामकुर्सी पर
अधलेटे
अधमरे बूढ़े-सा खाँसता हुआ लखनऊ।
कॉफ़ी-हाउस, हज़रतगंज, अमीनाबाद और चौक तक
चार तहज़ीबों में बंटा हुआ लखनऊ।

बिना बात बात-बात पर बहस करते हुए-
एक-दूसरे से ऊबे हुए मगर एक-दूसरे को सहते हुए-
एक-दूसरे से बचते हुए पर एक-दूसरे से टकराते हुए-
ग़म पीते हुए और ग़म खाते हुए-
ज़िन्दगी के लिए तरसते कुछ मरे हुए नौजवानोंवाला लखनऊ।

नई शामे-अवध-
दस सेकेण्ड में समझाने-समझनेवाली किसी बात को
क़रीब दो घण्टे की बहस के बाद समझा-समझाया,
अपनी सरपट दौड़ती अक़्ल को
किसी बे-अक़्ल की समझ के छकड़े में जोतकर
हज़रतगंज की सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर थकाया,
ख़्वाहिशों की जगह बहसों से काम चलाया,
और शामे-अवध को शामते-अवध की तरह बिताया।
बाज़ार-
जहां ज़रुरतों का दम घुटता है,
बाज़ार-
जहाँ भीड़ का एक युग चलता है,
सड़कें-
जिन पर जगह नहीं,
भागभाग-
जिसकी वजह नहीं,
महज एक बे-रौनक़ आना-जाना,
यह है-शहर का विसातखाना।

किसी मुर्दा शानोशौकत की क़ब्र-सा,
किसी बेवा के सब्र-सा,
जर्जर गुम्बदों के ऊपर
अवध की उदास शामों का शामियाना थामे,
किसी तवायफ की ग़ज़ल-सा
हर आनेवाला दिन किसी बीते हुए कल-सा,
कमान-कमर नवाब के झुके हुए
शरीफ आदाब-सा लखनऊ,
खण्डहरों में सिसकते किसी बेगम के शबाब-सा लखनऊ,
बारीक़ मलमल पर कढ़ी हुई बारीक़ियों की तरह
इस शहर की कमज़ोर नफ़ासत,
नवाबी ज़माने की ज़नानी अदाओं में
किसी मनचले को रिझाने के लिए
क़व्वालियां गाती हुई नज़ाक़त :
किसी मरीज़ की तरह नई ज़िन्दगी के लिए तरसता,
सरशार और मजाज़ का लखनऊ,
किसी शौकीन और हाय किसी बेनियाज़ का लखनऊ :

यही है क़िब्ला
हमारा और आपका लखनऊ।
 

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