कविताएं रामधारी सिंह - Kavitayen Ramdhari Singh 'Dinkar'

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रामधारी सिंह 'दिनकर' की  विविध कविताएं 
Ramdhari Singh Dinkar ki Vividh Kavitayen

प्रण-भंग - रामधारी सिंह 'दिनकर'

विश्व-विभव की अमर वेलि पर
फूलों-सा खिलना तेरा।
शक्ति-यान पर चढ़कर वह
उन्नति-रवि से मिलना तेरा।
भारत ! क्रूर समय की मारों
से न जगत सकता है भूल।
अब भी उस सौरभ से सुरभित
हैं कालिन्दी के कल-कूल।

पूर्वाभास - रामधारी सिंह 'दिनकर'

हाय ! विभव के उस पद में
नियति-भीषिका की मुसकान
जान न सकी भोग में भूली-
सी तेरी प्यारी सन्तान।
सुन न सका कोई भी उसका
छिपा हुआ वह ध्वंसक राग-
‘‘हरे-भरे, डहडहे विपिन में
शीघ्र लगाऊँगी मैं आग।’’

रोटी और स्वाधीनता - रामधारी सिंह 'दिनकर'

(अय ताइरे-लाहूती ! उस रिज़्क से मौत अच्छी,
जिस रिज़्क से आती हो परवाज़ में कोताही।-इक़बाल)
 
(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर, कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
 
Vividh-Kavitayen-Ramdhari-Singh-Dinkar
 
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
 
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
 
(4)
केवल रोटी ही नहीं, मुक्ति मन का उल्लास अभय भी है,
आदमी उदर है जहाँ, वहाँ वह मानस और हृदय भी है ।
बुझती स्वतन्त्रता क्या पहले रोटियाँ हाथ से जाने से ?
गुम होती है वह सदा भोग का धुआँ प्राण पर छाने से ।
 
(5)
स्वातंत्र्य गर्व उनका, जो नर फाकों में प्राण गँवाते हैं,
पर, नहीं बेच मन का प्रकाश रोटी का मोल चुकाते हैं ।
स्वातंत्रय गर्व उनका, जिन पर संकट की घात न चलती है,
तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज हो जलती है ।
 
(6)
स्वातंत्र्य गर्व उनका, जिनका आराध्य सुखों का भोग नहीं,
जो सह सकते सब कुछ, स्वतन्त्रता का बस एक वियोग नहीं ।
धन-धाम छोड़कर जा बसते जो वीरानों, सहरायों में,
सोचा है, वे क्या ज्योति जुगाते फिरते दरी-गुफायों में?
 
(7)
स्वातंत्र्य उमंगों की तरंग, नर में गौरव की ज्वाला है,
स्वातंत्र्य रूह की ग्रीवा में अनमोल विजय की माला है ।
स्वातंत्र्य भाव नर का अदम्य, वह जो चाहे, कर सकता है,
शासन की कौन बिसात ? पांव विधि की लिपि पर धर सकता है ।
 
(8)
स्वातंत्र्य सोचने का हक है, जैसे भी मन की धार चले,
स्वातंत्र्य प्रेम की सत्ता है, जिस ओर हृदय का प्यार चले ।
स्वातंत्र्य बोलने का हक है, जो कुछ दिमाग में आता हो,
आजादी है यह चलने की, जिस और हृदय ले जाता हो ।
 
(9)
फरमान नबी-नेताओं के जो हैं राहों में टंगे हुए,
अवतार और ये पैगम्बर जो हैं पहरे पर लगे हुए,
ये महज मील के पत्थर हैं, मत इन्हें पन्थ का अन्त मान,
जिंदगी माप की चीज नहीं, तू इसको अगम, अनन्त मान ।
 
(10)
जिन्दगी वहीं तक नहीं, ध्वजा जिस जगह विगत युग ने गाड़ी,
मालूम किसी को नहीं अनागत नर की दुविधाएँ सारी।
सारा जीवन नप चुका, कहे जो, वह दासता-प्रचारक है,
नर के विवेक का शत्रु, मनुज की मेधा का संहारक है ।
 
(11)
जो कहें, 'सोच मत स्वयं, बात जो कहूं मानता चल उसको',
नर की स्वतन्त्रता की मनि का तू कह आराति प्रबल उसको ।
नर के स्वतन्त्र चिन्तन से जो डरता, कदर्य, अविचारी है,
बेड़ियां बुद्धि को जो देता, जुल्मी है, अत्याचारी है।
 
(12)
मन के ऊपर जंजीरों का तू किसी लोभ से भार न सह,
चिन्तन से मुक्त करे तुझको, उसका कोई उपचार न सह ।
तेरे विचार के तार अधिक जितना चढ़ सकें चढ़ाता चल,
पथ और नया खुल सकता है, आगे को पांव बढ़ाता चल ।
 
(13)
लक्ष्मण-रेखा के दास तटों तक ही जाकर फिर जाते हैं,
वर्जित समुद्र में नाव लिए स्वाधीन वीर ही जाते हैँ।
आजादी है अधिकार खोज की नई राह पर आने का,
आजादी है अधिकार नये द्वीपों का पता लगाने का ।
 
(14)
आजादी है परिधान पहनना वही जो कि तन में आए,
आजादी है मानना उसे जो बात ठीक मन को भाये ।
ढल कभी नहीं मन के विरुद्ध निर्दिष्ट किसी भी ढांचे में,
अपनी ऊंचाई छोड़ समा मत कभी काठ के साँचे में ।
 
(15)
स्वाधीन हुआ किस लिए? गर्व से ऊपर शीश उठाने को?
पशु के समान क्या खूंटे पर घास पेट भर खाने को?
उस रोटी को धिक्कार, बचे जिससे मनुष्य का मान नहीं,
खा जिसे गरुड़ की पांखों में रह पाती मुक्त उड़ान नहीं ।
 
(16)
रोटी उसकी, जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम है,
अब कौन उलट सकता स्वतन्त्रता का सुसिद्ध सीधा क्रम है?
आजादी है अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,
आजादी है अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ाने का ।
 
(17)
कानों-कानों की सही नहीं, चुपके-चुपके छिप आह न कर,
तू बोल, सोचता है जो कुछ, पहरों की टुक परवाह न कर ।
अब नहीं गाँव में भिक्षु और दिल्ली में कोई दानी है,
तू दास किसी का नहीं, स्वयं स्वाधीन देश का प्राणी है ।
 
(18)
है कौन जगत में, जो स्वतन्त्र जनसत्ता का अवरोध करे ?
रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे?
आजादी केवल नहीं आप अपनी सरकार बनाना ही,
आजादी है उसके विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाना भी ।
 
(19)
गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगों की आवाज बदल,
सिमटी बाँहों को खोल गरुड़ ! उड़ने का अब अन्दाज बदल ।
स्वाधीन मनुज की इच्छा के आगे पहाड़ हिल सकते हैं,
रोटी क्या? ये अम्बरवाले सारे सिंगार मिल सकते हैं ।
 
(ताइरे-लाहूती=आकाश में उड़ने वाला पक्षी या परिंदा,
परवाज़=उड़ान, कोताही=कमी,भूल)
 

ध्वज-वंदना - रामधारी सिंह 'दिनकर'

नमो, नमो, नमो...
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी!
नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!
प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
 
हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार
सत्य न्याय के हेतु, फहर फहर ओ केतु
हम विरचेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
 
तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग
सेवक सैन्य कठोर, हम चालीस करोड़
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान, वीर हुए बलिदान
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

जियो जियो अय हिन्दुस्तान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
 
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
 
हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
 
हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।
 
जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

एक पत्र - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?
 
गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?
 
कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।
 
ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।
 
द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।
 
विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।
 
औ' बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।
 
आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?
 
फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।
 
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!
 
(यह कविता सन 1934 में लिखी गई थी,
जब दिनकर जी सरकारी नौकरी में थे)

बरसों बाद मिले तुम हमको - रामधारी सिंह 'दिनकर'

बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।
 
(यह कविता सन 1938 में लिखी गई थी)

शक्ति और क्षमा - रामधारी सिंह 'दिनकर'

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?
 
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
 
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
 
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
 
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
 
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
 
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
 
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
 
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियो - रामधारी सिंह 'दिनकर'

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो।
श्रवण खोलो¸
रूक सुनो¸ विकल यह नाद
कहां से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?
 
जनता की छाती भिदें
और तुम नींद करो¸
अपने पर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला¸
मुझे परवाह नहीं¸
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।
 
हो कहां अग्निधर्मा
नवीन ऋषियो? जागो¸
कुछ नयी आग¸
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।
 
गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूं साथी¸
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहां-जहां तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ¸
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।

विजयी के सदृश जियो रे - रामधारी सिंह 'दिनकर'

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
 
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
 
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है!
 
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
 
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!
 
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
 
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
 
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
 
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
 
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ
राजा रानी की युग से यही प्रथा है
 
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली
 
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ

कलम या कि तलवार - रामधारी सिंह 'दिनकर'

दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
 
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
 
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली
 
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
 
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर-नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
 
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
 
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार

हमारे कृषक - रामधारी सिंह 'दिनकर'

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
 
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है
 
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं
 
पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना
 
विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती
 
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है
 
दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं
 
दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे
 
दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से
 
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं

मनुष्यता - रामधारी सिंह 'दिनकर'

है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार;
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।
भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम;
बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम ।
लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ?
यह नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञानं का श्रम व्यर्थ ।
यह मनुज, जो ज्ञान का आगार;
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार ।
छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान;
यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान ।
 

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