गुलदस्ता भाग 1 Guldasta Part 1

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गुलदस्ता भाग 1 - अशोक गौड 'अकेला '
Guldasta Part 1 - Ashok Haur 'Akela'

प्रिये पाठको,

आज मै आप के समछ अपनी प्रथम पुस्तक 'गुलदस्ता ' की रचनाएँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ , आशा करता हूँ आप इसे पसंद करेगे। यह रचना मैने सं १९८५ मे लिखी थी।

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आखिर मैं कब तक सोऊंगा

माँ तेरे पावन चरणों में, शीश हमारा झका  रहे । 

वरदान तुम्हारे हाथों में, ममता की साया बनी रहे। 

देश भक्ति के गीत अभी कुछ दिवम यहाँ भी गाने को । 

बैठा हूँ गोद तेरी महिमा, अमृत सा रस पाने को ।

जागू औ आज जगाऊ मैं, सोये हुये वीर जवानों को । 

जो कटे - मरे को शुर वीर, फिर बच्चे बनकर आये जो |

फैली लाली शुभ दिग दिगन्त, जिसने उसका यश-गान किया । 

कोयल भी देखो कूकी है, बुलबुल ने गीत तरासे हैं । 

फूलों में खुशबू तेरी ही जो आज हमारे सोने में 

बस गई उन्हीं की यादों में कर्तव्य बोध का जीवन में 

अब तुम्हें जगाना ही होगा, आखिर मैं कब तक सोऊगा 

अधिकारों की गुमगही में। 

मेरी भटकन जो बनी हुई, आजादी में न दाग लगा बैठे । 

रण-भेरी बजने दो अब, क्रान्ति गीत कुछ गाने दो । 

जीवन में जो कुछ करना है, उसको सपना क्यों रहने दू ।

अब जाग यही कुछ करना है तेरा जो अपना सपना है। 

मेरा अब अपंण जोवन जो, कर्तव्य निभाने आया है। 

मां रयखो मेरी अब लाज आज, बस शरण 'अकेला आया है।  

आँसू देश प्रेम के

गीत १

जीवन के अन्तर्मन का संगीत जगाओ । 

हर दिल में प्रेम प्यार का दीप जलाओ । 

उषा किरण सी करो उजाला अपने मन में । 

आंसों में आंसू देश प्रेम के छलका डालो । 

धरा-गगन तक गूंज उठे जब गान 'एकता' 

यही बनेगा रंग नया अपने झडे का।


गीत २

भारत भूमि एक धरा,  हम एक है भाई ।

प्रेम देश का हमें जगाये, निश दिन भाई।

रंग भेद कोई भी हो श्वास है सबका सम्बल

शब्द भेद कोई भी हो, प्रेम है सबका सम्बल।

"गान-एकता" देश  का प्यार बने जब, 

धर्म भेद को छोड़ सभी मिले गले अब। 

देश-प्रेम का कह "अकेला" प्यार जगाओ, 

आँखों में आंसू देश-प्रेम के छलका डालो। 

धर्म और कौमी एकता

जीवन में क्या भेद-भाव क्या लेना -देना । 

कहते हैं सब धर्म प्यार का जीवन होना । 

त्याग, तपस्या, शान्ति धर्म है । 

तर्पण , अर्पण ही, जीवन का दर्शन है । 

एक वायु है श्वास रूप में, सबके दिल में, 

हिन्दू हो या मुसलमान या सिक्ख, ईसाई। 

एक जलधि है मिला हुआ, सब विश्व विदित है ।

एक सूर्य का तेज, चांदनी चाँद अमर हैं। 

तेरे-मेरे बीच प्रकृति का रूप एक है ।

मिट्टी का जो रूप देखता आया हूँ मैं 

उसमें कोई भेद नहीं है । 

मृत्यु और जीवन के बीच बधे

हर एक विधा कहते हैं भाई 

एक-एकता प्रेम-त्याग का बन्धन ही बस, 

बांध सकेगा सबमें, धर्म, जाति का बन्धन।

जागेंगे और जगायेंगे

यह भेद-भाव या धर्मनीति का झगड़ा क्यों ? 

मैं सोच रहा ....

इस मिट्टी से निकले हम और तुम

जब जननी सबका एक रही 

मिट कर भी मिले जहाँ

वह भी तो पावन मिट्टी ही 

करती  हैं अंगीकार सभी 

क्या रक्खा कोई भेद वहां

बूलबूल का हो गीत या कोयल की हो कूक 

क्या कानों में स्वर आते जो

ऐसी बाते कहते हैं

ये घटा गगन जो छाये हैं। 

क्या करते कोई भेद-भाव

करता है यह सूर्य दूर सबका अंधियारा 

चंदा भी सबको देता मृदुल चाँदनी

फूलों की रंगीनी व खुशबू

क्या इसमें कोई धर्म-जाति का वचन है

हम भी रंग ले अपने मन को फूलों जैसा

भर से मन में खुशबू इनकी 

आँखो में रंगोली हो उषा के नव प्रभात सी

फैले मन में प्रेम दिग-दिगन्त में 

अब न कोई बुनें ये ताने-बाने मतभेदों के

नहीं चलेगी  चाल अब किसी दुश्मन की 

जाग चुके है अब हमें नहीं है सोना 

जागेगे और जगायेंगे हम अपने भारतवासी को।

करे सोई है ज्ञानी

मिट्टी के पुतले है हम

उसमें ही मिलना 

धर्म-धर्म का भेद एक है

प्रेम प्यार से रहना

हर मजहब का घर बनता है

मिट्टी का ही भाई

लेने को बस वायु एक है

पीने को बस पानी

फिर क्यों भेद बना रक्खा है

बता चुके है ज्ञानी 

प्रेम - एकता पाठ एक है

करे, सोई है जानी

कबूतर बैठे कटीली डाल पर

दो कबूतर बैठे कटीलो डाल पर 

समय की पैनी धार पर

बहते हुए, भाबी समय का, एक खाका खींच कर 

बोझिल हृदय से, गुटर गू' कर रहे थे ।

पास ही अवशेष शिकाखण्डों को इमारत

बीते दिनों की ही कहानी 

दर्द अगणित जो दबे थे 

समय को रफ्तार बेगों से ढके

विश्रान्त मुद्रा में पड़े चुपचाप आ हें भर रहे थे ।

आज की यह ऐटमी दुनिया

ढलकती जा रही है। 

शांति के झूठे अनोखे मोढ़े पर

सोचता हूँ कब तक टिकेगा। 

प्रेमियों के प्रम-पत्रों का मैं बाहक

शांति का प्रतीक बन कर

अब निभा ली बहुत दिन तक 

प्रेम से मैं तेरे प्रेमी हृदय का, 

भार अब तक ढो रहा हूँ। 

पर न अब मैं चाहता हूँ 

मुपत में बदनाम होना, 

शांति का हूँ मैं कब तक सहूंगा। 

युद्ध की इन विभीषिकाओं का, 

नपा कोई ठिकाना।

कैसे सह सकेंगे हम, हमारा ही नहीं जब, 

रुप मानव के अन्त मन में सो गई होगी। 

बेहतर है हम सब कबूतर क्रान्ति कर दें 

जान अब प्यारी नहीं हमको, 

अब कोई भुलावा विश्व के इन्सान का 

जिसको है प्यार केवल 

ऐटमी हथियार-जंगों से। 

है नहीं अब प्रेम हमको 

आपके भूठे इरादों से।

बात सुनकर इन कबूतर की हवा 

जो खण्डहरों से जा टकराई 

एक कम्पन जोर से होने लगा । 

पास की सब चेतना 

ब्रम्हबेला सदृश थोड़ा उजाला कर गई। 

भोर की यह तनिक आशा 

आज यदि संचार हो मानव ह्रदय में

एक काया पटल फिर

शान्ति का उद्घोष 

विश्व मानव हृदय में,

 जागरण कर दे । 

जारी है 

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