कुँवर नारायण की कविता संग्रह: तीसरा सप्तक - जाड़ों की एक सुबह

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Kunwar-Narayan-kavita

Teesra Saptak : Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: तीसरा सप्तक - जाड़ों की एक सुबह

जाड़ों की एक सुबह
रात के कम्बल में
दुबकी उजियाली ने
धीरे से मुँह खोला,
नीड़ों में कुलबुल कर,
अल्साया-अलसाया,
पहला पंछी बोला :

दूर कहीं चीख़ उठा
सीले स्वर से इंजन,
भर्राता, खाँस-खूँस
फिर छूटा कहँर-कहँर,
कड़ुवी आवाज़ों से
ख़ामोशी चलनी कर,
सिसकी पर सिसकी भर
गयी ट्रेंन क्षितिज पार :

क्रमश: ध्वनि ड्रब चली,
चुप्पी ने झुंझला कर
मानों फिर करवट ली,
ओढ़ लिया ऊपर तक
खींच सन्नाटे को,
धीरे से उढ़का कर
निद्रा के खुले द्वार :

बह निकली तेज़ हवा
पेड़ों से सर-सर-सर,
काँप रहे ठिठुरे-से
पत्ते थर-थर थर-थर,
शबनम से भीगे तन
सुमन खड़े सिहर रहे,
चितकबरी नागिन-सी
भाग रही शीत रात,
लुक-छिप कर आशंकित
लहराती पौधों में
बिछलन-सी चमकदार,
छोड़ गयी कोहरे की
केंचुल अपने पीछे,
डंसती ठंडी बयार :

तालों के समतल तल
लहरों से चौंक गये
सपनों की भीड़ छंटी,
निद्राल्स पलकों से
मंड़राते चेहरों की
व्यक्तिगत रात हटी;

धीमे हलकोरों में
नीम की टहनियों का
निर्झर स्वर मर्मर कर
ढरता है वृक्षों से
प्राणों में हर-हर भर,
शिशुवत्‌ तन-मन दुलार :

फूलों के गुच्छों से
मेघ-खंड रंग-भरे,
झुक आये मखमल के
खेतों पर रुक ठहरे,
पहिनाते धरती को
फूलझड़ियों के गजरे;

प्राची के सोतों से
मीठी गरमाहट के
फ़ब्बारे फूट रहे,
धूप के गुलाबी रंग
पेड़ों की गीली
हरियाली पर छूट रहे,
चाँद कट पतंग-सा
दूर उस झुरमुट के
पीछे गिरता जाता...
किलकारी भर-भर खग
दौड़-दौड़ अम्बर में
किरण-डोर लूट रहे :
मैला तम चीर-फाड़
स्वर्ण-ज्योति मचल रही,
डाह-भरी, रंजनी के
आभूषण कुचल रही,
फेक रही इधर-उधर
लत्ते-सा अन्धकार ।
 

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