कुँवर नारायण की कविता संग्रह: तीसरा सप्तक - ख़ामोशी : हलचल

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Teesra Saptak : Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: तीसरा सप्तक - ख़ामोशी : हलचल

ख़ामोशी : हलचल
कितना ख़ामोश है मेरा कुल आस-पास,
कितनी बेख़्वाब है सारी चीज़ें उदास,
दरवाज़े खुले हुए, सुनते कुछ, बिना कहे,
बेबकूफ़ नज़रों से मुँह बाये देख रहे :

चीज़ें ही चीज़े हैं, चीज़ें बेजान हैं,
फिर भी यह लगता है बेहद परेशान हैं,
मेरी नाकामी से ये भी नाकाम हैं,
मेरी हैरानी से ये भी हैरान हैं :

टिकि-टिक कर एक घड़ी चुप्पी को कुचल रही,
लगता है दिल की ही धड़कन को निगल रही,
कैसे कुछ अपने-आप गिर जाये, पड़ जाये,-
ख़नक कर भनक कर लड़ जाये भिड़ जाये ?

लगता है, बैठा हूँ भृतों के डेरे में,
सजे हुए सीलबन्द एक बड़े कमरे में,
सदियों से दूर किसी अन्धे उजियाले में
अपनों से दूर एक पिरामिडी घेरे में :

एक-टक घूर रहीं मुझ को बस दीवारें,
जी करता उन पर जा यह मत्था दे मारें,
चिल्ला कर गूँजों से पत्थर को थर्रा दें...
घेरी ख़ामोशी की दीवारें बिखरा दें,

इन मुर्दा महलों की मीनारें हिल जायें,
इन रोगी ख़्यालों की सीमाएँ घुल जायें,
अन्दर से बाहर आ सदियों की कुंठाएँ
बहुत बड़े जीवन की हलचल से मिल जायें।
 

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