कुँवर नारायण की कविता संग्रह: कोई दूसरा नहीं - नदी बूढ़ी नहीं होती

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: कोई दूसरा नहीं - नदी बूढ़ी नहीं होती

नदी बूढ़ी नहीं होती
बहुतों को पसन्द करती है वह।
उसकी पसन्दें मुझे भयभीत नहीं करती।
बहुतों से अलग
कभी कभी बिल्कुल अपनी तरह
उसके साथ होने की इच्छा को
मैंने खुद से भी छिपाया है :

अज्ञात जगहों में
लम्बी यात्राओं में
उसके और अपने बीच
अनेक काल्पनिक प्रसंगों को
इस तरह रचा है
मानो वह मीनाक्षी नहीं
मेरी कविता या कहानी हो
जिसे जब जैसे चाहूँ
लिख या पढ़ सकता हूँ :

मानो वह अधिकार देती है
कि उसके हंसने को
ऐसा कोई अर्थ दूँ
जैसा देती है कभी कभी धूप
ऊँचाइयों से गिरते झरनों को,
या हवा
लोटपोट फूलों को,
या उसके बोलने को कहूँ
कि वह एक छन्द है जिसके अन्दर
मेरी एक अटपटी इच्छा बन्द है,

या उसके साथ
किसी मामूली-सी चहलक़दमी के किनारे
एक नदी बना दूँ या माँडू का क़िला
और कहूँ कि रूपमती
इस क्षण मैं सैकड़ों वर्षों को जीना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ-

और अचानक उसे बाहों में भर कर चौंका दूँ
एक ऐसे वक़्त
जब वह सचमुच परेशान हो
अपने चेहरे पर गाढ़ी होती झुर्रियों को लेकर
या आँखों पर जल्द चढ़नेवाले चश्मों की चिन्ता से!

हवा से खेलते उसके केश,
एक खुशबू उसे छूते हुए
ठहर गई है स्मृति में उकेरती हुई
एक इच्छा-मूर्ति।

किसी मन्दिर की निचली सीढ़ियों को
छूती कावेरी या तुंगभद्रा-
लहरों को छूते उसके हाथ

पिछली सदियों का प्रमाद
जब यक्षणी के पाषाण-वक्षों तक
उठ आया था बाढ़ का जल
और ठहरा रह गया था वहीं
उसका एक दुस्साहसी पल।

आओ इस भागते उजास को जियें
डूब कर उस एक नाजुक क्षण में
जब सब कुछ होता है हमसे
उदास या प्रसन्न,
एक अपवाद से ज़्यादा लम्बी हो
तुम्हारी आयु
उन शब्दों में
जो तुमसे मिलता जुलता
एक सपना देखते हैं-

कि उस सूर्य-बिन्दु तक उठें
जहाँ से साफ़ देखा जा सके
इस मटमैली सतह को
जिसे हम बार बार सजा कर
धारण करते हैं एक मुकुट की तरह,

एक नए संधि-तट से देखें-
उस अरूप शिलाक्त्‌ चमक को
चिटक कर स्वयं से अलग होते,
तडित्‌-गति से कौंध कर
पृथ्वी में प्रवेश करते,
और एक अमिट अनुभव के सौंदर्य को
किसी भविष्य में घनीभूत होते।

- - - - 
साथ बहें :
जिन तटों को हम छुएँगे बसा जाएँगे।
हज़ारों नाम देंगे
इस उन्माद के वशीभूत होने को,
एक आवेग में बह जाने को कहेंगे जीवन,
अपने ही प्रवाह में नहा उठने को
एक अलौकिक संज्ञा में बाँधेंगे,

और एक दिन
इसी तरह बहते हुए
कभी जंगल, कभी गाँव, कभी नगर से होते हुए
सागर में समा जाने को
ढिठाई से कहेंगे
कि नदी बूढ़ी नहीं होती।
 

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