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अकबर इलाहाबादी की चुनिंदा ग़ज़ल
Akbar Allahabadi Famous Poetry
हंगामा है क्यूँ बरपा - अकबर इलाहाबादी
हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है
उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है
वां दिल में कि दो सदमे,यां जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है, कि हम हैं तो ख़ुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है
कोई हँस रहा है कोई रो रहा है - अकबर इलाहाबादी
कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है
कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है
कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है
इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है
बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से - अकबर इलाहाबादी
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे
हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में
दिल मेरा जिस से बहलता - अकबर इलाहाबादी
दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार
गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक
वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला
मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर
सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला
गज़ट=समाचार पत्र
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ - अकबर इलाहाबादी
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ
ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ
इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ
अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ
वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ
यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ
अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का - अकबर इलाहाबादी
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का
गर शैख़-ओ-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का
माबद न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना किसी का
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का
इशरत जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का
करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर से अफ़साना किसी का
कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का
आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते - अकबर इलाहाबादी
आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते
पिंजरे में मुनिया - अकबर इलाहाबादी
मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार
हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है
हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल
टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर
शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है
नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज
कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही
हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं
दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया
स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें
क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा
क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया
भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई
पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है - अकबर इलाहाबादी
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर
न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर
एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़ - अकबर इलाहाबादी
एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते - अकबर इलाहाबादी
ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते
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