अकबर इलाहाबादी की चुनिंदा ग़ज़ल Akbar Allahabadi Selected Gazal

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

अकबर इलाहाबादी की प्रमुख रचनाएँ 
Akbar Allahabadi Famous Poetry

जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है - अकबर इलाहाबादी

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ
 
मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ
 
ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ
 
अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ
Akbar-Allahabadi

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी - अकबर इलाहाबादी

 
फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी
 
दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी
 
जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी
 
 
है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी
 
हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी
 
कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी
 

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है - अकबर इलाहाबादी

 
कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।
 
इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।
 
ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।
 
जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।
 
हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा - अकबर इलाहाबादी

 
किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा
 
अव्वल बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा की सूरत में आके मारा
 
आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा
 
ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
 
सोसन की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा
 

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की - अकबर इलाहाबादी

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की
 
ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
 
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
 
ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
 
बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की
 
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की
 
थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की
 
हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा - अकबर इलाहाबादी

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा
 
आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा
 
तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा
 
ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा
 
क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा
 

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से - अकबर इलाहाबादी

 
दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से
 
तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से
 
शेख़ नाफ़ह्म हैं करते जो नहीं क़द्र उसकी
दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से
 
मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से
 
कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में 'अक़बर'
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी - अकबर इलाहाबादी

 
जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ
 
उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
 
ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ
 
मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती में फँसा, जुल्फ़ का सौदा न हुआ
 

ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है - अकबर इलाहाबादी

 
ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
 
फ़ना उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है
 
यह देखते ही जो कासये-सर, गुरूरे-ग़फ़लत से कल था ममलू
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है
 
समझ हो जिसकी बलीग़ समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम उबल रहा है
 
कहाँ का शर्क़ी कहाँ का ग़र्बी तमाम दुख-सुख है यह मसावी
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है
 
उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है
 
मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे - अकबर इलाहाबादी

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे
 
शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे
 
रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे
 
नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे
 
दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह - अकबर इलाहाबादी

 
हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई
 
एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई
 
अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई
 
नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई
 
शब्दार्थ :
नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।
 

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह - अकबर इलाहाबादी

 
हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई
 
एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई
 
अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई
 
नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई
 
शब्दार्थ :
नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।
 

बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक - अकबर इलाहाबादी

 
बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक
 
हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक
 
मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक
 
तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक
 
अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक
 
जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक
 
जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक
 
शब्दार्थ :
हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं;
तेग़= तलवार;
नमू=उठान;
मग़रिब=पश्चिम;
ग़ैरत= हयादारी;
हरारत= गर्मी;
अवाम= जनता;
मुसिर= ज़िद्द करना
हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला

हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ - अकबर इलाहाबादी

 
हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ
कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ
 
मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ
कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ
 
मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है
कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ
 
मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर
कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ
 
मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता
कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ
 
मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है
कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ
 

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब - अकबर इलाहाबादी

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है
 
उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म में बस यही दास्ताँ है
 
कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ है
 
नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है
 
वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं
 
कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं
 
नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है

सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या - अकबर इलाहाबादी

सूप का शायक़ हूँ, यख़नी होगी क्या
चाहिए कटलेट, यह कीमा क्या करूँ
 
लैथरिज की चाहिए, रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा, क्या करूँ
 
खींचते हैं हर तरफ़, तानें हरीफ़
फिर मैं अपने सुर को, धीमा क्यों करूँ
 
डाक्टर से दोस्ती, लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान, बीमा क्या करूँ
 
चांद में आया नज़र, ग़ारे-मोहीब[
हाये अब ऐ, माहे-सीमा क्या करूँ
 

चश्मे-जहाँ से हालते अस्ली छिपी नहीं - अकबर इलाहाबादी

चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए
 
दावा बहुत बड़ा है रियाजी मे आपको
तूले शबे फिराक को तो नाप दीजिए
 
सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात
इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए
 
जिस बुत के दर पे गौर से अकबर ने कह दिया
जार ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Akbar Allahabadi) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!