मैथिलीशरण गुप्त-पत्रावली Maithilisharan Gupt-Patravali

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

मैथिलीशरण गुप्त-पत्रावली
Maithili Sharan Gupt-Patravali

मैथिलीशरण गुप्त-महाराज पृथ्वीराज का पत्र | Maithili Sharan Gupt

(महाराना प्रतापसिंह के प्रति)

(महाराना प्रतापसिंह स्वाधीनता की रक्षा के लिए वन वन
भटकते रहे पर उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की ।
एक बार कौटुम्बिक विपत्ति के कारण उनका हृदय विचलित हो
गया था । इसी से उन्होंने अकबर के साथ सन्धि करने का
निश्चय किया था । किन्तु बीकानेर के महाराज पृथ्वीराज का
यह पत्र पाकर वे फिर अपने व्रत पर आरूढ़ हो गये थे)

स्वस्ति श्री स्वाभिमानी कुल-कमल तथा हिन्दूआसूर्य सिद्ध;
भूरों में सिंह सुश्री शुचि रुचि सुकृति प्रताप प्रसिद्ध ।
लज्जाधारी हमारे कुशल युत रहें आप सद्धर्म-धाम;
श्री पृथ्वीराज का हो विदित विनय से प्रेम-पूर्ण-प्रणाम ।।
 
मैं कैसा हो रहा हूँ इस अवसर में घोर-आश्चर्य-लीन,
देखा है आज मैंने अचल चल हुआ, सिन्धु संस्था-विहीन!
देखा है, क्या कहूं मैं, निपतित नभ से इन्द्र का आज छत्र,
देखा है और भी हाँ, अकबर-कर में आपका सन्धि-पत्र!
 
आशा की दृष्टि से वे पितर-गण किसे स्वर्ग से देखते हैं?
सच्ची वंश-प्रतिष्ठा क्षिति पर अपनी वे कहाँ लेखते हैं?
मर्यादा पूर्वजों की अब तक हममें दृष्टि आती कहां है?
होती है व्योमवाणी वह गुण-गरिमा आप ही में यहाँ है ॥
 
खोके स्वाधीनता को अब हम सब हैं नाम के ही नरेश,
ऊँचा है आपसे ही इस समय अहो ! देश का शीर्ष देश ।
जाते हैं क्या झुकाने अब उस सिर को आप भी हो हताश?
सारी राष्ट्रीयता का शिव शिव ! फिर तो हो चुका सर्वनाश?
 
हां, निस्सन्देह देगा अकबर हमसे आपको मान-दान,
खोते हैं आप कैसे उस पर अपना उच धर्माभिमान?
छोड़ो स्वाधीनता को मृगपति! वन में दु:ख होता बड़ा है;
लोहे के पींजड़े में तुम मत रहना स्वर्ण का पींजड़ा है !
 
ये मेरे नेत्र हैं क्या कुछ विकृत कि हैं ठीक ये पत्र-वर्ण?
देखूँ है कया सुनाता विधि अब मुझको; व्यग्र हैं हाय! कर्ण ।
रोगी हों नेत्र मेरे वह लिपि न रहे आपके लेख जैसी;
हो जाऊँ दैव! चाहे वधिर पर सुनूँ बात कोई न वैसी ।
 
बाधाएं आपको हैं बहु बिध वन में, मैं इसे मानता हूं,
शाही सेना सदा ही अनुपद रहती, सो सभी जानता हूं ।
तो भी स्वाधीनता ही विदित कर रही आपको कीर्तिशाली;
हो चाहे वित्त वाली पर उचित नहीं दीनता चित्त वाली ।

आये थे, याद है क्या, जिस समय वहाँ 'मान' सम्मान पाके,
खाने को थे न बैठे मिसकर उनके साथ में आप आके ।
वे ही ऐसी दशा में कहिए, आपसे क्या कहेंगे?
अच्छी हैं ये व्याथाएं, पर वह हंसना आप कैसे सहेंगे?
 
है जो आपतित आगे वह अटल नहीं, शीघ्र ही नशट होगी,
कीर्ति-श्री आपकी यों प्रलय तक सदा और सुस्पष्ट होगी ।
घेरे क्या व्योम में है अविरत रहती सोम को मेघ माला?
होता है अन्त में क्या वह प्रक्ट नहीं और भी कान्ति वाला?
 
Maithilisharan-Gupt-Patraval
 
 
है सच्ची धीरता का समय बस यही हे महा धैर्यशाली!
क्या विद्युदवह्नि का भी कुछ कर सकती वृष्टि-धारा-प्रणाली?
हों भी तो आपदाएँ अधिक अशुभ हैं क्या पराधीनता से?
वृक्षों जैसा झुकेगा अनिल-निक्ट क्या शैल भी दीनता से?
 
ऊंचे हैं और हिन्दू अकबर-तम की है महाराजधानी;
देखी है आप में ही सहज सजगता हे स्वधर्माभिमानी!
सोता है देश सारा यवन नृपति का ओढ़ के एक वस्त्र,
ऐसे में दे रहे हैं जगकर पहरा आप ही सिद्धशस्त्र ।।
 
डूबे हैं वीर सारे अकबर-बल का सिन्धु ऐसा गभीर,
रखे हैं नीर नीचे कमल-सम वहाँ आप ही एक धीर ।
फूलों-सा चूस डाला अकबर-अलि ने देश है ठौर ठौर,
चम्पा-सी लाज रक्खी अविकृत अपनी धन्य मेवाड़ मौर!
 
सारे राजा झुके हैं जब अकबर-तेज आगे सभीत,
ऊंची ग्रीवा किये हैं सतत तब वहाँ आप ही हे विनीत!
आर्यों का मान रक्खा, दुख सहकर भी है प्रतिज्ञा न टाली,
पाया है आपने ही विदित भुवन में नाम आर्याशुमाली ।।
 
गाते हैं आपका ही सुयश कवि-कृति छोड़के और गाना!
वीरों की वीरता को सु-वर मिल गया चेतकारुढ़ राना ।
मां ! है जैसा प्रताप प्रिय-सुत जन तू तो मुझे धन्य मानें,
सोता भी चौंकता है अकबर जिससे सांप हो ज्यों सिराने ।।
 
"राना ऐसा लिखेंगे, यह अघटित है, की किसी ने हँसी;
मानी हैं एक ही वे, बस नस नस में धीरता ही धंसी ।।"
यों हीं मैंने सभा में कुछ अकबर की वृत्ति है आज फेरी;
रक्खो चाहे न रक्खो अब सब विध है आपको लाज मेरी ।।
 
हो लक्ष्य भ्रष्ट चाहे कुछ, पर अब भी तीर है हाथ ही में,
होगा हे वीर! पीछे विफल संभलना, सोचिए आप जी में ।
आत्मा से पूछ लीजे कि इस विषय में आपका धर्म क्या है?
होने से मर्म-पीड़ा समझ न पड़ता कर्म-दुष्कर्म क्या है ।।

क्या पश्चाताप पीछे न इस विषय में आप ही आप होगा?
मेरी तो धारना है कि इस समय भी आपको ताप होगा ।
क्या मेरी धारना को कह निज मुख से आप सच्चा करेंगे?
या पक्के स्वर्ण को भी सचमुच अब से ताप कच्चा करेंगे?
 
जो हो ऐसा न हो जो हँसकर मन में 'मान' आनन्द पावें,
जीना है क्या सदा को फिर अपयश की ओर क्यों आप जावें?
पृथ्वी में हो रहा है सिर पर सबके मृत्यु का नित्य नृत्य;
क्या जानें, ताल टूटे किस पर उसकी, कीजिए कीर्ति-कृत्य ।।
 
हे राजन्, क्या आपको यह विदित नहीं, आप हैं कौन व्यक्ति?
होने दीजे न हा! हा! शुचितर अपने चित्त में यों विरक्ति ।
आर्यों को प्राप्त होगी स्मरण कर सदा आपको आत्म्शक्ति;
रक्खेंगे आप में वे सतत हृदय से देव की भांति भक्ति ।

शूरों के आप स्वामी यदि अकबर की वश्यता मान लेंगे,
तो दाता दान देना तजकर उलटा आप ही दान लेंगे ।
सोवेंगे आप भी क्या इस अशुभमयी घोर काली निशा में?
होगा क्या अंशुमाली समुदित अब से अस्तवाली दिशा में?
 
दो बातें पूछता हूं, अब अधिक नहीं, हे प्रतापी प्रताप!
आज्ञा हो, क्या कहेंगे अब अकबर को तुर्क या शाह आप?
आज्ञा दीजे मुझे जो उचित समझिए, प्रार्थना है प्रकाश-
मूंछें ऊंची करूं या सिर पटकूं हाथ होके हताश?

मैथिलीशरण गुप्त-महाराना प्रतापसिंह का पत्र | Maithili Sharan Gupt
(पृथ्वीराज के प्रति)

(पृथ्वीराज का पूर्वोक्त पत्र पाने के पूर्व ही महाराना
सन्धि-पत्र के लिए पश्चाताप कर रहे थे । उस पत्र
को पाकर उन्हें बहुत सन्तोष हुआ । यह पत्र उसी
पत्र के उत्तर में लिखा गया है)
 
निदाघ-ज्वाला से विचलित हुआ चातक अभी,
भुलाने जाता था निज विमल-वंश व्रत सभी ।
अहा! ऐसे ही में जलद सुख का सत्र पहुंचा,
अहो! पृथ्वीराज प्रियवर! कृपापत्र पहुंचा ।
 
दिया पत्र द्वारा नव-बल मुझे आज तुमने;
बचा ली बाप्पा के विमल-कुल की लाज तुमने ।
हुआ है आत्मा का यह प्रथम ही बोध मुझको;
दिखायी देता है न इस ॠण का शोध मुझको ।
 
सु-साथी हैं मेरे विदित कुलदेव ग्रहपति;
बनाये थी मानो मुकुट उनको मध्य जगती ।
पड़ा था छाया में, गहन वन में, मैं तरु-तले;
विचारों के सोते उस विजनता में बह चले ।

उदासी छाई थी, वह समय भी था विकट ही;
क्षुधा-क्षीणा बेटी रुदन करती थी निकट ही ।
वहां क्या था ? राज्ञी विवश मन में धैर्य धरके;
बनाती थी रोटी विरस तृण का चूर्ण करके ।
 
न मिथ्या बोलूंगा, उस समय भी मैं विमन था,
नहीं था मैं मानो शव-सम पड़ा शून्य तन था ।
मुझे सारी बातें स्मरण अब भी स्वप्न-सम हैं,
बताऊं मैं कैसे विधि-नियम जैसे विषम हैं ।
 
भविष्य-चिन्ता ही उस समय थी घोर मुझको;
दिखाई देता था घनतम सभी ओर मुझको ।
हरे! क्या होना है, समझ पड़ता है कुछ नहीं,
न होगी क्या मेरी सफल यह आशा अब कहीं ।
 
मुझे भी औरों के सदृश वह दासत्व सहके,
पड़ेगा जीना क्या पशु-सम पराधीन रहके!
झुकाना होगा क्या सिर अरि-जनों को अब मुझे,
न होगा आत्मा का हनन करना क्या तब मुझे ।
 
न होगी आर्यों की अहह! अब क्या आर्यधरिणी?
हमारी होगी क्या अतल जल में मग्न तरणी?
अनार्यों ही का क्या अब अटल है शासन हरे!
हुआ क्या आर्यों का अब निपट निष्कासन हरे!
 
हमारे भाई ही बनकर विपक्षी जब यहाँ,
मिले हैं तुर्कों से तब भला मंगल कहां?
न होने पाती जो स्फुटित हममें फूट इतनी,
मचाते तो कैसे अरिगण यहां लूट इतनी?

गड़े थे पृथवी में विपुल विजय-सतंभ जिनके,
जिन्होने थे सौ सौ विधीयुत किये यज्ञ गिनके!
बने हैं पापी भी सुकृती सुनके कीर्ति जिनकी,
हुए हैं कैसे हा! पतित हम संतान उनकी ।
 
विचारों में था यों जिस समय मैं व्याकुल बड़ा,
कि भारी चीत्कार श्रवणकर चौंक, जग पड़ा ।
कहूं हा! देखा क्या प्रकट अपनी मृत्यु-घटना,
अचंभा है मेरे हत हृदय का ही न फटना ।
 
बनी थी जो रोटी विरस तृण का चूर्ण करके,
बचाती बेटी को उस समय जो पेट भरके ।
उसे देखा मैंने अपहृत विड़ालीकृत वहां,
न देखा बेटी को अहह! फिर था साहस कहां ।
 
विधात! बाप्पा के अतुल-कुल की हा! यह गति;
किसी ने देखी है अवनि पर ऐसी अवनति!
जिन्हें प्रासादों में सुख सहित था योग्य रहना,
उन्हें खाने को भी वन वन पड़े दु:ख सहना!
 
स्वयँ मैं ही हूं क्या इस विपद का कारण नहीं,
व्रतों के पीछे भी जिस विपद में पारण नहीं ।
नहीं तो रोते क्यों यह शिशु कि है राज्य जिनका,
मुझे चाहे जो हो पर अहह! क्या दोष इनका ।
 
क्षुधा से बेटी का वह तड़पना मैं निरख के;
न हे पृथ्वीराज! स्थिर रह सका धैर्य रखके ।
मुझे आत्मा की भी सुधबुध न हा! रंचक रही,
क्षमा कीजे मेरी यह अबलता-केवल यही ।
 
न सोचा मैंने हा! कि यह सब है दैव-घटना;
स्व-कर्त्तव्य से समुचित नहीं नेक हटना ।
विधाता जो देवे ग्रहण करना ही उचित है;
उसी की इच्छा में सतत शुभ है और हित है ।
 
कहीं सोचा होता धृति सहित मैंने यह तभी,
न होता तो मेरा यह पतन आकस्मिक कभी।
सहारा देते जो तुम न मुझको सम्प्रति वहाँ,
न जाने होता तो उस पतन का अन्त न कहाँ ।
 
तुम्हारी बातें हैं ध्वनित इस अन्त:करण में,
पुन: आया मानो अखिलपति की मैं शरण में ।
यही आशीर्वाणी अब तुम मुझे दो हृदय से,
न छोड़ूं जीते जी यह व्रत किसी विघ्न-भय से ।
 
यही आकांक्षा है, जब तक रहूँ देह-रथ में,
किसी भी बाधा से विचलित न होऊँ स्वपथ में ।
जिसे आत्मा चाहे सतत उसका साधन करूं,
उसी की चिन्ता में रहकर सदा चिन्तित मरूं।
 
तुम्हारी वाणी है अमृत, कवि जो हो तुम अहो!
जिया हूँ मैं मानो मरकर पुन: पूर्व-सम हो ।
सहूंगा दु:खों को सतत फिर स्वातन्त्र्य-सुख से,
करूँगा जीते जी प्रक्ट न कभी दैन्य मुख से ।
 
तुम्हारा 'पत्ता' है जब तक, सहे क्यों न विपदा,
करो मूंछें उंची तब तक सखे! 'पीथल' सदा ।
सुनोगे तुर्कों को न तनु रहते शाह हमसे,
वहीं-प्राची में ही-रवि उदित होगा नियम से ।
 
 

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

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