मैथिलीशरण गुप्त-द्वापर Maithilisharan Gupt-Dwapar

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मैथिलीशरण गुप्त-द्वापर
Maithilisharan Gupt-Dwapar | Maithili Sharan Gupt

मैथिलीशरण गुप्त-मंगलाचरण | Maithili Sharan Gupt

धनुर्बाण वा वेणु लो श्याम रूप के संग,
मुझ पर चढ़ने से रहा राम ! दूसरा रंग।

मैथिलीशरण गुप्त-श्रीकृष्ण | Maithili Sharan Gupt

राम भजन कर पाँचजन्य ! तू,
वेणु बजा लूँ आज अरे,
जो सुनना चाहे सो सुन ले,
स्वर ये मेरे भाव भरे—
कोई हो, सब धर्म छोड़ तू
आ, बस मेरा शरण धरे,
डर मत, कौन पाप वह, जिससे
मेरे हाथों तू न तरे ?

मैथिलीशरण गुप्त-राधा | Maithili Sharan Gupt

शरण एक तेरे मैं आयी,
धरे रहें सब धर्म हरे !
बजा तनिक तू अपनी मुरली,
नाचें मेरे मर्म हरे !
नहीं चाहती मैं विनिमय में
उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको—एक तुझी को—अर्पित
राधा के सब कर्म हरे !
 
यह वृन्दावन, यह वंशीवट,
यह यमुना का तीर हरे !
यह तरते ताराम्बर वाला
नीला निर्मल नीर हरे !
यह शशिरंजित सितघन-व्यंजित,
परिचित, त्रिविध समीर हरे !
बस, यह तेरा अंक और यह
मेरा रंक शरीर हरे !
 
कैसे तुष्ट करेगी तुझको,
नहीं राधिका बुधा हरे !
पर कुछ भी हो, नहीं कहेगी
तेरी मुग्धा मुधा हरे !
मेरे तृप्त प्रेम से तेरी
बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू,
अलं मुझे सुधि-सुधा हरे !

सब सह लूँगी रो-रोकर मैं,
देना मुझे न बोध हरे !
इतनी ही विनती है तुझसे,
इतना ही अनुरोध हरे !
क्या ज्ञानापमान करती हूँ,
कर न बैठना क्रोध हरे !
भूले तेरा ध्यान राधिका,
तो लेना तू शोध हरे !
 
झुक, वह वाम कपोल चूम ले
यह दक्षिण अवतंस हरे !
मेरा लोक आज इस लय में
हो जावे विध्वंस हरे !
रहा सहारा इस अन्धी का
बस यह उन्नत अंस हरे !
मग्न अथाह प्रेम-सागर में
मेरा मानस-हंस हरे !

मैथिलीशरण गुप्त-यशोदा | Maithili Sharan Gupt

मेरे भीतर तू बैठा है,
बाहर तेरी माया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
मेरे पति कितने उदार हैं,
गद्गद हूँ यह कहते—
रानी-सी रखते हैं मुझको,
स्वयं सचिव-से रहते।
 
Maithilisharan Gupt-Dwapar
 
 
इच्छा कर, झिड़कियाँ परस्पर
हम दोनों हैं सहते,
थपकी-से हैं अहा ! थपेड़े,
प्रेमसिन्धु में बहते।
 
पूर्णकाम मैं, बनी रहे बस
तेरी छत्रच्छाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।

जिये बाल-गोपाल हमारा,
वह कोई अवतारी;
नित्य नये उसके चरित्र हैं,
निर्भय विस्मयकारी।
 
पड़े उपद्रव की भी उसके
कब-किसके घर वारी,
उलही पड़ती आप, उलहना
लाती है जो नारी।
 
उतर किसी नभ का मृगांक-सा
इस आँगन में आया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
गायक बन बैठा वह, मुझसे
रोता कण्ठ मिला के;
उसे सुलाती थी हाथों पर
जब मैं हिला हिला के।
 
जीने का फल पा जाती हूँ,
प्रतिदिन उसे खिला के;
मरना तो पा गई पूतना,
उसको दूध पिला के !

मन की समझ गया वह समझो,
जब तिरछा मुसकाया !
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
खाये बिना मार भी मेरी
वह भूखा रहता है!
कुछ ऊधम करके तटस्थ-सा
मौन भाव गहता है।

आते हैं कल-कल सुनकर वे
तो हँस कर कहता है—
‘देखो यह झूठा झुँझलाना,
क्या सहता-सहता है !’
 
हँस पड़ते हैं साथ साथ ही
हम दोनों पति-जाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
मैं कहती हूँ—बरजो इसको,
नित्य उलहना आता,
घर की खाँड छोड़ यह बाहर
चोरी का गुड़ खाता।

वे कहते हैं—‘आ मोहन अब
अफरी तेरी माता;
स्वादु बदलने को न अन्यथा
मुझे बुलाया जाता !’
 
वह कहता है ‘तात, कहाँ-कब
मैंने खट्टा खाया ?’
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
मेरे श्याम-सलौने की है,
मधु से मीठी बोली ?
कुटिल-अलक वाले की आकृति
है क्या भाली-भोली ।
 
मृग से दृग हैं, किन्तु अनी-सी
तीक्ष्ण दृष्टि अनमोली,
बड़ी कौन-सी बात न उसने
सूक्ष्म बुद्धि पर तोली ?
 
जन्म-जन्म का विद्या-बल है
संग संग वह लाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
उसका लोकोत्तर साहस सुन,
प्राण सूख जाता है;
किन्तु उसी क्षण उसके यश का
नूतन रस पाता है ।
 
अपनों पर उपराग देखकर
वह आगे आता है;
उलझ नाग से, सुलझ आग से,
विजय-भाग लाता है।
 
‘धन्य कन्हैया, तेरी मैया !’
आज यही रव छाया,
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
काली-दह में तू क्यों कूदा,
डाँटा तो हँस बोला—
‘‘तू कहती थी और चुराना
तुम मक्खन का गोला।
 
छींके पर रख छोड़ेगी सब
अब भिड़-भरा मठोला !’
निकल उड़ीं वे भिड़ें प्रथम ही,
भाग बचा मैं भोला !’’
 
बलि जाऊँ ! बंचक ने उल्टा
मुझको दोष लगाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।

उसे व्यापती है तो केवल
यही एक भय-बाधा—
‘कह दूँगी, खेलेगी तेरे
संग न मेरी राधा।
 
भूल जायगा नाच-कूद सब
धरी रहेगी धा-धा।
हुआ तनिक उसका मुँह भारी
और रहा तू आधा !’
 
अर्थ बताती है राधा ही,
मुरली ने क्या गाया,
तेरा दिया राम सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
 
बचा रहे वृन्दावन मेरा,
क्या है नगर-नगर में !
मेरा सुरपुर बसा हुआ है
ब्रज की डगर-डगर में।
 
प्रकट सभी कुछ नटनागर की
जगती जगर-मगर में;
कालिन्दी की लहर बसी है
क्या अब अगर-तगर में।
 
चाँदी की चाँदनी, धूप में
जातरूप लहराया;
तेरा दिया राम सब पावें,
जैसा मैंने पाया।

मैथिलीशरण गुप्त-बलराम | Maithili Sharan Gupt

उलटा लेट कुहनियों के बल,
धरे वेणु पर ठोड़ी,
कनू कुंज में आज अकेला,
चिन्ता में है थोड़ी ।
 
सुबल, विशाल, अंशु ओजस्वी,
वृषभ, वरूथप, आओ;
यमुना-तट, वट-तले बैठकर
कुछ मेरी सुन जायो ।
 
खेल-कूद में ही न अरे, हम
सब अवसर खो देंगे;
भावी जीवन के विचार भी
कुछ निश्चित कर लेंगे ।
 
रखते हो तो दिखलायो कुछ
आभा उगते तारे,
ओज, तेज, साहस के दुर्लभ
दिन हैं यही हमारे ।
 
जावेंगे अवश्य हम अपने
प्रिय पितरों के पथ से;
किन्तु चक्र तो नहीं फंसेंगे;
पूछेंगे निज रथ से ।

मैथिलीशरण गुप्त-कंस | Maithili Sharan Gupt

नियति कौन है? एक नियन्ता
मैं ही अपना आप;
कर्म-भीरुयों का आकुंचन,
एक मात्र यह पाप ।
 
धर्म एक, बस अग्नि-धर्म है,
जो आवे सो छार!
जल भी उड़े वाष्प बन बन,
मल भी हो अंगार!
 
फूंक-फूंक कर पैर धरोगे
धरती पर तुम मूढ़?
तो फिर हटो, भाड़ में जाओ,
पायो निज गति मूढ़ ।
 
मैं निश्चिन्त बढ़ूँगा आगे,
पहने पादत्राण;
बचें कीट-कण्टक, यदि उनको
प्रिय हैं अपने प्राण ।
 
बनता नहीं ईंट-गारे से
वह साम्राज्य विशाल;
सुनो, चुने जाते हैं उसमें
रुधिराप्लुत कंकाल!

मैथिलीशरण गुप्त-उद्धव | Maithili Sharan Gupt

1
(यशोदा के प्रति)
अम्ब यशोदे, रोती है तू?
गर्व क्यों नहीं करती?
भरी भरी फिरती है तेरे
अंचल-धन से धरती ।
 
अब शिशु नहीं, सयाना है वह,
पर तू यह जानें क्या?
आया है वह तेरी माखन-
मिसरी ही खाने क्या?
 
खेल-खिलौने के दिन उसके
बीत गये वे मैया;
यही भला, निज कार्य करे अब
तेरा कुंवर-कन्हैया।
 
उसे बाँधना तुझे रुचेगा
क्या अब भी ऊखल से?
काट रहा है वह सुजनों के
भय-बंधन निज बल से ।
 
उसे डिठौना देने का मन
क्या अब भी है, कह तो?
प्रेत-पिशाच झाड़ने आया
मनुष्यत्व के वह तो!

तेरी गायों को तो कोई
चरा लायगा वन में;
पर उदण्ड-द्विपद-षण्डों का
शासक वही भुवन में।
 
हाँ, वह कोमल है सचमुच ही
वह कोमल है कितना ?
मैं इतना ही कह सकता हूं,
तेरा मक्खन जितना।
 
बना उसी से तो उसका तन,
तूने आप बनाया;
तब तो ताप देख अपनों का
पिघल उठा, उठ धाया।

पर अपने मक्खन के बल की
भूल न आप बड़ाई,
भूला नहीं स्वयं वह उसकी
गरिमा, तेरी गायी ।
 
कितने तृणावर्त तिनके-से
यहाँ उसी ने झाड़े;
मैं क्या कहूं, वहाँ कैसे क्या
मोटे मल्ल पछाड़े!
 
कहाँ नाग-नग, कहाँ रत्न-सा
छोटा तेरा छौना ।
चला कुवलयापीड़ झटकने
नील सरोज सलौना ।

मैथिलीशरण गुप्त-उद्धव | Maithili Sharan Gupt

2
(गोपियों के प्रति)
अहा! गोपियों की यह गोष्ठी,
वर्षा की ऊषा-सी;
व्यस्त-ससम्भ्रम उठ दौड़े की
स्खलित ललित भूषा-सी।
 
श्रम कर जो क्रम खोज रही हो,
उस भ्रमशीला स्मृति-सी;
एक अतर्कित स्वप्न देखकर
चकित चौंकती धृति-सी।
 
हो होकर भी हुई न पूरी,
ऐसी अभिलाषा-सी;
कुछ अटकी आशा-सी, भटकी
भावुक की भाषा-सी।
 
सत्य-धर्म-रक्षा हो जिससे,
ऐसी मर्म मृषा-सी;
कलश कूप में, पाश हाथ में,
ऐसी भ्रान्त तृषा-सी!
 
उस थकान-सी, ठीक मध्य में
जो पथ के आई हो!
कूद गये मृग की हरिणी-सी,
जो न कूद पाई हो!
 
 
तुल्य-दु:ख में हत-ईर्ष्या-सी;
विश्व-व्याप्त समता-सी,
जिसको अपना मोह न हो, उस
मूर्त्ति-मती ममता-सी ।
 
लिखा गया जिसमें विशेष कुछ,
ऐसी लोहित मसि-सी;
किसी छुरी के क्षुद्र म्यान में
ठूंस दी गयी असि-सी!
 
सम्पुटिकता होकर भी अलि को
धर न सकी नलिनी-सी;
अथवा शून्य-वृन्त पर उड़ कर
मंडराई अलिनी-सी ।
 
पिक-रव सुनने को उत्कर्णा
मधुपर्णा लतिका-सी;
प्रोषितपतिका पूर्वस्मृति में
रत आगतपतिका-सी!
 
जो सबको देखे पर निज को
भूल जाय उस मति-सी;
अपने परमात्मा से बिछुड़े
जीवात्मा की गति-सी!
 
चन्द्रोदय की बाट जोहती
तिमिर-तार-माला-सी;
एक एक व्रज-बाला बैठी
जागरूक ज्वाला-सी!
 
अहो प्रीति की मूर्ति, जगत में
जीवन धन्य तुम्हारा;
कर न सका अनुसरण कठिनतम
कोई अन्य तुम्हारा।

मैथिलीशरण गुप्त-गोपी | Maithili Sharan Gupt

राधा का प्रणाम मुझसे लो,
श्याम-सखे, तुम ज्ञानी;
ज्ञान भूल, बन बैठा उसका
रोम-रोम ध्रुव-ध्यानी ।
 
न तो आज कुछ कहती है वह
और न कुछ सुनती है;
अन्तर्यामी ही यह जानें,
क्या गुनती-बुनती है।
 
कर सकती तो करती तुमसे
प्रश्न आप वह ऐसे-
"सखे, लौट आये गोकुल से?
कहो, राधिका कैसे?"
 
राधा हरि बन गयी हाय! यदि
हरि राधा बन पाते,
तो उद्धव, मधु वन से उलटे
तुम मधुपुर ही जाते।
 
अभी विलोक एक अलि उड़ता,
उसने चौंक कहा था-
"सखि, वह आया, इस कलिका में
क्या कुछ शेष रहा था?"

(द्वारकाधीश)

मैथिलीशरण गुप्त-सुदामा | Maithili Sharan Gupt

अरी राम कह, वन-सा यह घर
छोड़ कहां मैं जाऊँ?
उस आनन्दकन्द को कैसे
तेरी व्यथा सुनाऊँ?
 
जगती में रह कर जगती की
बाधा से डरती है?
करनी तो अपनी है धरनी,
असन्तोष करती है?
 
आने-जाने वाली बातें
आती हैं-जाती हैं,
तू अलिप्त रह उनसे, पर से
पर की वे थाती हैं।
 
जिनके बाहर के सुख-वैभव
हैं तेरे मनमानें,
डाह न कर उन पर, भीतर वे
कैसे हैं, क्या जानें!
 
क्या धनियों के यहाँ दूसरी
कुसुम-कली खिलती है?
वही चाँदनी वही धूप क्या
मुझे नहीं मिलती है?
 
मेरे लिए कौन-सा नभ का
रत्न नहीं बिखरा है?
एक वृष्टि में ही हम सबका
देह-गेह निखरा है।
 
क्या धनियों के लिए दूसरी
धरती की हरियाली?
या गिरि-वन, निर्झर-नदियों की
उनकी छटा निराली?
 
शीतल-मन्द-सुगंध-वायु क्या
यहाँ नहीं बहता है?
केवल वातावरण हमारा
भिन्न भिन्न रहता है ।

फिर भी एक पवन में दोनों
आश्वासी जीते हैं,
शुभे, हमारे ही घट का वे
शीतल जल पीते हैं।
 
धनी स्वादु से, दीन क्षुधा से
जो कुछ भी खाते हैं,
किन्तु अन्त में तृप्ति एक ही
वे दोनों पाते हैं।
 
आंगन लीप देहली की जब
पूजा करने आती,
जल, अक्षत, या फूल चढ़ा कर
गुन गुन कर कुछ गाती।

मत्था टेक अन्त में जब तू
मग्न वहाँ हो जाती,
तब न समाकर ऋद्धि जगत में
कहां ठौर है पाती ?
 
आग्रह छोड़ वहां जाने का
वह है यहीं, हृदय में
विघ्न बनूं कैसे मैं जाकर
उसके लीलालय में?
 
अपनी ही चिन्तायों से तू
चैन नहीं लेती है।
जिस पर है भू-भार उसी के
घर धरना देती है?
 
अपने लिये नहीं जो अधुना
वही चाहिए तुझको,
होता तो मिलता, होगा तो
आप मिलेगा मुझको।
 
जिसे किसी ने कभी न चाहा,
वह तूने पाया है,
अरी विपत्ति न कह, यह प्रभु की
ममता है, माया है।
 
वह दुख मेरे सिर-माथे है,
यह अभाव मन-भाया,
कृपया प्रभु की ओर मुझे जो,
ले जाने को आया।
 
ईर्ष्या-लोभ-मुक्त होता यदि,
मन यह तेरा मानी,
तो दारिद्रय-मूर्ति, मैं तुझ पर
आज वारता रानी।
 
उसके घर के सभी भिखारी?
यह सच है तो जाऊँ,
पर क्या माँग तुच्छ विषयों की
भिक्षा, उसे लजाऊँ?
 
प्रभु की दया-भागिनी है यह
दरिद्रता ही मेरी।
यह भी रही न हाय कहीं तो,
फिर सब और अंधेरी ।

विभव-शालिनी इस वसुधा पर
क्या अभाव है धन का,
पाया परम्परागत मैंने
दुर्लभ-साधन मन का ।
 
मैं उस कुल का हूं विश्रुत है
त्याग और तप जिसका,
मुझको न हो, किन्तु तुझको भी
गर्व नहीं क्या इसका?
 
तू तो कोई राज-सुता है
ब्राह्मण के घर आई,
हाय बड़ाई है जो मेरी,
तुझको वही न भाई।

पर मानिनी क्यों भिक्षा का धन
तुझको नहीं अखरता?
क्षात्र दर्प तो ईश्वर से भी
नहीं याचना करता!
 
अपना राजस खो बैठी है
तू मेरे घर आकर,
क्या निज सत्व मुझे भी खोना
होगा तुझको पाकर ?
 
 

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

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