कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - एक स्थापना

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Parivesh : Hum-Tum - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - एक स्थापना

एक स्थापना
सम्बन्ध के डोरे
कुछ भी नहीं
सच है
कान में तुमने कहा था-
(सिर्फ़ शब्दों का मधुर स्पर्श भर ही याद है)
क्या? अर्थ है मेरी पहेली का?
हटा लो हाथ आँखों से,
न केवल स्वरों से ही बूझ पाऊँगा तुम्हारा रूप,
कुछ अनुमान ही मेरे
कदाचित्‌ छद्म-उत्तर हों तुम्हारे अंध-प्रश्नों का!

अपितु, सारांश मुट्ठी में-
धुरी से चेतना की तीलियाँ फैली चर्तुर्टिक्,
प्राण-गतिमय पलों की आहट,
कि जैसे किसी नन्‍हें फूल की चुप- सान्ध्य-छाया
डूबने से पूर्व
हल्के चरण रखती पास ही से गुज़रती हो
या स्वयं अपनी नियति के जाल में उलझा हुआ पंछी,
विशद आकाश से दो दीन कातर दृष्टियों द्वारा जु़ड़ा-
ज्यों फड़फड़ाए,
और सहता निरर्थक आकाश उसकी तड़प से भर जाए!

किसी संबंध के डोरे
हमें अस्तित्व की हर वेदना से बांधते हैं,
तभी तो-
चाह की पुनरुक्तियाँ
या आह की अभिव्यक्तियाँ-ये फूल पंछी...
और तुम जो पास ही अदृश्य पर स्पृश्य-से लगते,
तुम्हारे लिए मेरे प्राण
बन कर गान
मुक्ताकाश में बिखरे चले जाते।
 

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