कुँवर नारायण की कविता संग्रह: चक्रव्यूह - गंगा-जल

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Kunwar-Narayan-kavita

Chakravyuh : Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: चक्रव्यूह - गंगा-जल

गंगा-जल
फूट कर समृद्धि की स्रोत स्वर्णधारा से
छलकी
गंगा बही धर्मशील,
सूर्य स्थान था
जहाँ से मानव स्वरूप
कोई धर्मावतार
रत्न जटित आभूषित, स्वयं घटित,
हिम के धव श्रृंगों पर
आदिम आश्चर्य बना :
जनता का शक्ति धन
साधन धनवानों का...
उसी चकाचौंध में सज्जनता छली गई,
धर्म धाक,
भोला गजराज चतुर अंकुश से आतंकित
अहंहीन दास बना,
शक्ति के ज्ञान की क्षमता भी चली गई ऐ मुक्त वन विहारी!
गर्दन ऊँची करो,
गंगा का दानी जल
लोक हित बहता है,
वंशज भगीरथ के,
उसका कल कल निनाद
जन वाणी कहता है;
आओ, शक्ति बाँध
कमल वन के इसी क्रीड़ा जल में...
अछूती गहराइयों में उतरें...
अवगुंठित बल से इस धारा प्रवाह में
भय विहीन
विहरें,
देखें तो जीवन की दुर्दम दुख कारा में
सचमुच ही कौन दैत्य
सदियों से रहता है।
 

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