Jaan Nisar Akhtar Tanha Safar Ki Raat - Gazal

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shayari-jaan-nisar
तन्हा सफ़र की रात जाँ निसार अख़्तर - ग़ज़लें(toc)

ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है - Jaan Nisar Akhtar

ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है
अपने-अपने हौसले की बात है
 
किस अक़ीदे की दुहाई दीजिए
हर अक़ीदा आज बेऔक़ात है
 
क्या पता पहुँचेंगे कब मंज़िल तलक
घटते-बढ़ते फ़ासले का साथ है
 
(अक़ीदा-श्रद्धा, बेऔक़ात-प्रतिष्ठाहीन)

फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो Jaan Nisar Akhtar

फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो
 
अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो
 
हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो से मोहब्बत की है
चाँद-तारों से तो कल आँख लड़ी है यारो
 
फ़ासला चन्द क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो
 
किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो
 
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारो
 
उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूँ ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो
 
(फुर्सत-ए-कार=कार्य का अवकाश,
ज़र्रो=कणों)

उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे Jaan Nisar Akhtar

उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िन्दगी राम का बनबास लगे
 
तू कि बहती हुई नदिया के समान
तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे
 
फिर भी छूना उसे आसान नहीं
इतनी दूरी पे भी, जो पास लगे
 
वक़्त साया-सा कोई छोड़ गया
ये जो इक दर्द का एहसास लगे
 
एक इक लहर किसी युग की कथा
मुझको गंगा कोई इतिहास लगे
 
शे’र-ओ-नग़्मे से ये वहशत तेरी
खुद तिरी रूह का इफ़्लास लगे
 
(इफ़्लास=कंगाली)

हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है Jaan Nisar Akhtar

हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है
 
अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है
 
अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं Jaan Nisar Akhtar

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं
 
वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं
 
समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था Jaan Nisar Akhtar

ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था
 
गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था
 
मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था
 
शिगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस कमाल से तूने बदन चुराया था
 
पता नहीं कि मिरे बाद उनपे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था
 
(शिगुफ़्ता=खिला हुआ)

ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं Jaan Nisar Akhtar

ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं
 
पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं
 
हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं
 
ऐ चश्म-ए-यार ! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं
 
ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं
 
इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा !
लोगो ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं
 
दिल्ली ! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं
 
(अक़ीदों=विश्वासों, चश्म=आँख, मेहर-ओ-माह=
सूर्य और चन्द्रमा, अर्ज़-ओ-समा=पृथ्वी और
आकाश, कायनात=सृष्टि, कूचों=गलियों)

वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है Jaan Nisar Akhtar

वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है
कमबख़्त मिले है तो सवालात करे है
 
वो लोग जो दीवाना-ए-आदाब-ए-वफ़ा थे
इस दौर में तू उनकी कहाँ बात करे है
 
क्या सोच है, मैं रात में क्यों जाग रहा हूँ
ये कौन है जो मुझसे सवालात करे है
 
कुछ जिसकी शिकायत है न कुछ जिसकी खुशी है
ये कौन-सा बर्ताव मिरे साथ करे है
 
दम साध लिया करते हैं तारों के मधुर राग
जब रात गये तेरा बदन बात करे है
 
हर लफ़्ज़ को छूते हुए जो काँप न जाये
बर्बाद वो अल्फ़ाज़ की औक़ात करे है
 
हर चन्द नया ज़ेहन दिया, हमने ग़ज़ल को
पर आज भी दिल पास-ए-रवायात करे है
 
(पास-ए-रवायात=परम्पराओं की रक्षा)

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो Jaan Nisar Akhtar

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो
 
कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो
 
दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो
 
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो
 
ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो
 
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो
 
(कू-ए-क़ातिल=बधिक की गली, कूचा-ए-दिलदार=
प्रेयसी की गली, भीक=भीख)

लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं Jaan Nisar Akhtar

लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं
 
मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बन्द आँखों में कई ताजमहल जलते हैं

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं Jaan Nisar Akhtar

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
 
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
 
आँखों में जो भर लोगे, तो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
 
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
 
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
 
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
 
(इल्म=ज्ञान, सौदा=पागलपन, रिसाले=पत्रिकाएँ)

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर Jaan Nisar Akhtar

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
 
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर
 
हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर
 
हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर
 
इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर
 
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
 
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
 
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर
 
(शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम=दुखों की
शिष्टता का पात्र, तुन्द=प्रचण्ड)

ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर Jaan Nisar Akhtar

ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर
एक नदी में कितने भँवर
 
सदियों सदियों मेरा सफ़र
मंज़िल मंज़िल राहगुज़र
 
कितना मुश्किल कितना कठिन
जीने से जीने का हुनर
 
गाँव में आ कर शहर बसे
गाँव बिचारे जाएँ किधर
 
फूँकने वाले सोचा भी
फैलेगी ये आग किधर
 
लाख तरह से नाम तिरा
बैठा लिक्खूँ काग़ज़ पर
 
छोटे छोटे ज़ेहन के लोग
हम से उन की बात न कर
 
पेट पे पत्थर बाँध न ले
हाथ में सजते हैं पत्थर
 
रात के पीछे रात चले
ख़्वाब हुआ हर ख़्वाब-ए-सहर
 
शब भर तो आवारा फिरे
लौट चलें अब अपने घर

ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है Jaan Nisar Akhtar

ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है
किस बला की तुम्हें जादू-नज़री आवे है
 
दिल में दर आवे है हर सुब्ह कोई याद ऐसे
जूँ दबे-पाँव नसीम-ए-सहरी आवे है
 
और भी ज़ख़्म हुए जाते हैं गहरे दिल के
हम तो समझे थे तुम्हें चारागरी आवे है
 
एक क़तरा भी लहू जब न रहे सीने में
तब कहीं इश्क़ में कुछ बे-जिगरी आवे है
 
चाक-ए-दामाँ-ओ-गिरेबाँ के भी आदाब हैं कुछ
हर दिवाने को कहाँ जामा-दरी आवे है
 
शजर-ए-इश्क़ तो माँगे है लहू के आँसू
तब कहीं जा के कोई शाख़ हरी आवे है
 
तू कभी राग कभी रंग कभी ख़ुश्बू है
कैसी कैसी न तुझे इश्वा-गरी आवे है
 
आप-अपने को भुलाना कोई आसान नहीं
बड़ी मुश्किल से मियाँ बे-ख़बरी आवे है
 
ऐ मिरे शहर-ए-निगाराँ तिरा क्या हाल हुआ
चप्पे चप्पे पे मिरे आँख भरी आवे है
 
साहिबो हुस्न की पहचान कोई खेल नहीं
दिल लहू हो तो कहीं दीदा-वरी आवे है

चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए Jaan Nisar Akhtar

चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए
कौन देता है ये गलियों में सदा रात गए
 
ये हक़ाएक़ की चटानों से तराशी दुनिया
ओढ़ लेती है तिलिस्मों की रिदा रात गए
 
चुभ के रह जाती है सीने में बदन की ख़ुश्बू
खोल देता है कोई बंद-ए-क़बा रात गए
 
आओ हम जिस्म की शम्ओं से उजाला कर लें
चाँद निकला भी तो निकलेगा ज़रा रात गए
 
तू न अब आए तो क्या आज तलक आती है
सीढ़ियों से तिरे क़दमों की सदा रात गए

हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे Jaan Nisar Akhtar

हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे
ये शहर मुझ को तो यारो कोई भँवर सा लगे
 
अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई
वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे
 
हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है
ये दौर वो है कि जीना भी इक हुनर सा लगे
 
नशात-ए-सोहबत-ए-रिंदाँ बहुत ग़नीमत है
कि लम्हा लम्हा पुर-आशोब-ओ-पुर-ख़तर सा लगे
 
किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा
कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे
 
वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें
हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे
 
जहान-ए-नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर
सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से Jaan Nisar Akhtar

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से
 
हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो
जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से
 
दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से
 
खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से
 
अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से

एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में Jaan Nisar Akhtar

एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में
 
आज ज़रा ललचायी नज़र से उसको बस क्या देख लिया
पग-पग उसके दिल की धड़कन उतर आई पायल में
 
प्यासे-प्यासे नैनां उसके जाने पगली चाहे क्या
तट पर जब भी जावे, सोचे, नदिया भर लूं छागल में
 
गोरी इस संसार में मुझको ऐसा तेरा रूप लगे
जैसे कोई दीप जला दे घोर अंधेर जंगल में
 
प्यार की यूं हर बूंद जला दी मैंने अपने सीने में
जैसे कोई जलती माचिस डाल दे पीकर बोतल में

हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने Jaan Nisar Akhtar

हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने
कितनी शिकनों को चुना तेरी जबीं से हम ने
 
वो भी क्या दिन थे कि दीवाना बने फिरते थे
सुन लिया था तिरे बारे में कहीं से हम ने
 
जिस जगह पहले-पहल नाम तिरा आता है
दास्ताँ अपनी सुनाई है वहीं से हम ने
 
यूँ तो एहसान हसीनों के उठाए हैं बहुत
प्यार लेकिन जो किया है तो तुम्हीं से हम ने
 
कुछ समझ कर ही ख़ुदा तुझ को कहा है वर्ना
कौन सी बात कही इतने यक़ीं से हम ने

रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है Jaan Nisar Akhtar

रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है
दिल वो मुजरिम है कि ख़ुद अपनी सज़ा माँगे है
 
चुप है हर ज़ख़्म-ए-गुलू चुप है शहीदों का लहू
दस्त-ए-क़ातिल है जो मेहनत का सिला माँगे है
 
तू भी इक दौलत-ए-नायाब है पर क्या कहिए
ज़िंदगी और भी कुछ तेरे सिवा माँगे है
 
खोई खोई ये निगाहें ये ख़मीदा पलकें
हाथ उठाए कोई जिस तरह दुआ माँगे है
 
रास अब आएगी अश्कों की न आहों की फ़ज़ा
आज का प्यार नई आब-ओ-हवा माँगे है
 
बाँसुरी का कोई नग़्मा न सही चीख़ सही
हर सुकूत-ए-शब-ए-ग़म कोई सदा माँगे है
 
लाख मुनकिर सही पर ज़ौक़-ए-परस्तिश मेरा
आज भी कोई सनम कोई ख़ुदा माँगे है
 
साँस वैसे ही ज़माने की रुकी जाती है
वो बदन और भी कुछ तंग क़बा माँगे है
 
दिल हर इक हाल से बेगाना हुआ जाता है
अब तवज्जोह न तग़ाफ़ुल न अदा माँगे है

उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है Jaan Nisar Akhtar

उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है
 
हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं
कभी कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है
 
चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ
हर एक प्यार का भूका दिखाई पड़ता है
 
जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए
वो शख़्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है
 
न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार
ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है
 
लचक रही हैं शुआओं की सीढ़ियाँ पैहम
फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है
 
चमकती रेत पे ये ग़ुस्ल-ए-आफ़्ताब तिरा
बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है

मिज़ाज-ए-रहबर-ओ-राही! बदल गया है मियाँ Jaan Nisar Akhtar

मिज़ाज-ए-रहबर-ओ-राही! बदल गया है मियाँ
“ज़माना चाल क़यामत की चल गया है मियाँ”
 
तमाम उम्र की नज़्ज़ारगी का हासिल है
वो एक दर्द जो आँखों में ढल गया है मियाँ
 
कोई जुनूं न रहा जब, तो ज़िन्दगी क्या है
वो मर गया है जो, कुछ भी सँभल गया है मियाँ
 
बस एक मौज तह-ए-आब क्या तड़प उठी
लगा कि सारा समन्दर उछल गया है मियाँ
 
जब इन्क़लाब के क़दमों की गूंज जागी है
बड़े-बड़ों का कलेजा दहल गया है मियाँ

जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए Jaan Nisar Akhtar

जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए
 
दिल का वो हाल हुआ है ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए
 
इन्हीं गुल-रंग दरीचों से सहर झाँकेगी
क्यूँ न खिलते हुए ज़ख़्मों को दुआ दी जाए
 
कम नहीं नश्शे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए
 
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे Jaan Nisar Akhtar

हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे
 
पसंद-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-वफ़ा है मुद्दत से
ये दिल का दाग़ जो ख़ुद भी भला लगे है मुझे
 
जो आँसुओं में कभी रात भीग जाती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे
 
मैं सो भी जाऊँ तो क्या मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे
 
मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे
 
मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाँव तो पहचानता लगे है मुझे
 
न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है
कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे
 
बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे
 
अब एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिए
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझे
 
हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कुछ कशिश तो रखती है
ज़माना ग़ौर से सुनता हुआ लगे है मुझे

रही हैं दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे Jaan Nisar Akhtar

रही हैं दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे
अदा शनास तो बहुत हैं मगर कहाँ हमसे
 
सुना दिये थे कभी कुछ गलत-सलत क़िस्से
वो आज तक हैं उसी तरह बदगुमाँ हमसे
 
ये कुंज क्यूँ ना ज़िआरत गहे मुहब्बत हो
मिले थे वो इंहीं पेड़ों के दर्मियाँ हमसे
 
हमीं को फ़ुरसत-ए-नज़्ज़ारगी नहीं वरना
इशारे आज भी करती हैं खिड़कियाँ हमसे
 
हर एक रात नशे में तेरे बदन का ख़याल
ना जाने टूट गई कई सुराहियाँ हमसे

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें Jaan Nisar Akhtar

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें
 
आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें
 
अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें
 
और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है Jaan Nisar Akhtar

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है
 
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है
 
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है
 
आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है
 
हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का Jaan Nisar Akhtar

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का
 
बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का
 
ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का
 
फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का
 
तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम Jaan Nisar Akhtar

दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम
इतने मजबूर रहे हैं कभी हालात से हम
 
नश्शा-ए-मय से कहीं प्यास बुझी है दिल की
तिश्नगी और बढ़ा लाए ख़राजात से हम
 
आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से
चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हम
 
इश्क़ में आज भी है नीम-निगाही का चलन
प्यार करते हैं उसी हुस्न-ए-रिवायात से हम
 
मर्कज़-ए-दीदा-ए-ख़ुबान-ए-जहाँ हैं भी तो क्या
एक निस्बत भी तो रखते हैं तिरी ज़ात से हम

जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो Jaan Nisar Akhtar

जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो
हम भी कर सकते हैं ऐसी शायरी ये मत कहो
 
उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो
एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो
 
हम से दीवानों के बिन दुनिया सँवरती किस तरह
अक़्ल के आगे है क्या दीवानगी ये मत कहो
 
कट सकी हैं आज तक सोने की ज़ंजीरें कहाँ
हम भी अब आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो
 
पाँव इतने तेज़ हैं उठते नज़र आते नहीं
आज थक कर रह गया है आदमी ये मत कहो
 
जितने वादे कल थे उतने आज भी मौजूद हैं
उन के वादों में हुई है कुछ कमी ये मत कहो
 
दिल में अपने दर्द की छिटकी हुई है चाँदनी
हर तरफ़ फैली हुई है तीरगी ये मत कहो

एक है ज़मीन तो सम्त क्या हदूद क्या Jaan Nisar Akhtar

एक है ज़मीन तो सम्त क्या हदूद क्या
रोशनी जहाँ भी हो, रोशनी का साथ दो
 
ख़ुद जुनूने-इश्क़ भी अब जुनूँ नहीं रहा
हर जुनूँ के सामने आगही का साथ दो
 
हर ख़याल-ओ-ख़्वाब है कल की जन्नतें लिए
हर ख़याल -ओ-ख़्वाब की ताज़गी का साथ दो
 
छा रही है हर तरफ़ ज़ुल्मतें तो ग़म नहीं
रूह में खिली हुई चाँदनी का साथ दो
 
क्या बुतों का वास्ता, क्या ख़ुदा का वास्ता
आदमी के वास्ते आदमी का साथ दो
 
(हदूद=सीमाएँ ("हद" का बहुवचन),
आगही=ज्ञान, ज़ुल्मतें=अंधेरे)

तुम्हारे हुस्न को हुस्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते Jaan Nisar Akhtar

तुम्हारे हुस्न को हुस्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते
लहू की गर्म बूँदों को चराग़ाँ हम नहीं कहते
 
अगर हद से गुज़र जाए दवा तो बन नहीं जाता
किसी भी दर्द को दुनिया का दरमाँ हम नहीं कहते
 
नज़र की इंतिहा कोई न दिल की इंतिहा कोई
किसी भी हुस्न को हुस्न-ए-फ़रावाँ हम नहीं कहते
 
किसी आशिक़ के शाने पर बिखर जाए तो क्या कहना
मगर इस ज़ुल्फ़ को ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ हम नहीं कहते
 
न बू-ए-गुल महकती है न शाख़-ए-गुल लचकती है
अभी अपने गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ हम नहीं कहते
 
बहारों से जुनूँ को हर तरह निस्बत सही लेकिन
शगुफ़्त-ए-गुल को आशिक़ का गरेबाँ हम नहीं कहते
 
हज़ारों साल बीते हैं हज़ारों साल बीतेंगे
बदल जाएगी कल तक़दीर-ए-इंसाँ हम नहीं कहते

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर Jaan Nisar Akhtar

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर
 
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर
 
बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुर्वाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर
 
शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर
 
सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर
 
उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर
 
और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर
 
शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर
 
यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है Jaan Nisar Akhtar

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है
 
जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार
वो शख़्स मुझ को बहुत बद-नसीब लगता है
 
हुदूद-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा
न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है
 
ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस
कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है
 
उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चराग़-ए-दयार-ए-हबीब लगता है

तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो Jaan Nisar Akhtar

तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो
मैं कोई ग़ैर नहीं हूँ कि छुपाओ यारो
 
इन अंधेरों से निकलने की कोई राह करो
ख़ून-ए-दिल से कोई मिशअल ही जलाओ यारो
 
एक भी ख़्वाब न हो जिन में वो आँखें क्या हैं
इक न इक ख़्वाब तो आँखों में बसाओ यारो
 
बोझ दुनिया का उठाऊँगा अकेला कब तक
हो सके तुम से तो कुछ हाथ बटाओ यारो
 
ज़िंदगी यूँ तो न बाँहों में चली आएगी
ग़म-ए-दौराँ के ज़रा नाज़ उठाओ यारो
 
उम्र-भर क़त्ल हुआ हूँ मैं तुम्हारी ख़ातिर
आख़िरी वक़्त तो सूली न चढ़ाओ यारो
 
और कुछ देर तुम्हें देख के जी लूँ ठहरो
मेरी बालीं से अभी उठ के न जाओ यारो

वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ Jaan Nisar Akhtar

वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ
किसी पे ज़ोर हमारा कहाँ चले है मियाँ
 
जहाँ भी थक के कोई कारवाँ ठहरता है
वहीं से एक नया कारवाँ चले है मियाँ
 
जो एक सम्त गुमाँ है तो एक सम्त यक़ीं
ये ज़िंदगी तो यूँही दरमियाँ चले है मियाँ
 
बदलते रहते हैं बस नाम और तो क्या है
हज़ारों साल से इक दास्ताँ चले है मियाँ
 
हर इक क़दम है नई आज़माइशों का हुजूम
तमाम उम्र कोई इम्तिहाँ चले है मियाँ
 
वहीं पे घूमते रहना तो कोई बात नहीं
ज़मीं चले है तो आगे कहाँ चले है मियाँ
 
वो एक लम्हा-ए-हैरत कि लफ़्ज़ साथ न दें
नहीं चले है न ऐसे में हाँ चले है मियाँ

माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है Jaan Nisar Akhtar

माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है
पर इस में कुछ करिश्मा-ए-अक्स-ए-बदन भी है
 
अक़्ल-ए-मआश ओ हिकमत-ए-दुनिया के बावजूद
हम को अज़ीज़ इश्क़ का दीवाना-पन भी है
 
मुतरिब भी तू नदीम भी तू साक़िया भी तू
तू जान-ए-अंजुमन ही नहीं अंजुमन भी है
 
बाज़ू छुआ जो तू ने तो उस दिन खुला ये राज़
तू सिर्फ़ रंग-ओ-बू ही नहीं है बदन भी है
 
ये दौर किस तरह से कटेगा पहाड़ सा
यारो बताओ हम में कोई कोहकन भी है

लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम Jaan Nisar Akhtar

लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम
लाश ये किस की लिए फिरते हैं इन हाथों पे हम
 
अब उन्हीं बातों को सुनते हैं तो आती है हँसी
बे-तरह ईमान ले आए थे जिन बातों पे हम
 
कोई भी मौसम हो दिल की आग कम होती नहीं
मुफ़्त का इल्ज़ाम रख देते बरसातों पे हम
 
ज़ुल्फ़ से छनती हुई उस के बदन की ताबिशें
हँस दिया करते थे अक्सर चाँदनी रातों पे हम
 
अब उन्हें पहचानते भी शर्म आती है हमें
फ़ख़्र करते थे कभी जिन की मुलाक़ातों पे हम
ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे
ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे
अकारत जाएगा ख़ून-ए-शहीदाँ हम न कहते थे
 
इलाज-ए-चाक-ए-पैराहन हुआ तो इस तरह होगा
सिया जाएगा काँटों से गरेबाँ हम न कहते थे
 
तराने कुछ दिए लफ़्ज़ों में ख़ुद को क़ैद कर लेंगे
अजब अंदाज़ से फैलेगा ज़िंदाँ हम न कहते थे
 
कोई इतना न होगा लाश भी ले जा के दफ़ना दे
इन्हीं सड़कों पे मर जाएगा इंसाँ हम न कहते थे
 
नज़र लिपटी है शोलों में लहू तपता है आँखों में
उठा ही चाहता है कोई तूफ़ाँ हम न कहते थे
 
छलकते जाम में भीगी हुई आँखें उतर आईं
सताएगी किसी दिन याद-ए-याराँ हम न कहते थे
 
नई तहज़ीब कैसे लखनऊ को रास आएगी
उजड़ जाएगा ये शहर-ए-ग़ज़ालाँ हम न कहते थे

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो Jaan Nisar Akhtar

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो
 
जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो
 
संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो
 
ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो
 
जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर
चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा Jaan Nisar Akhtar

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा
 
गुज़र ही आए किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़दम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा
 
चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा
 
मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा
 
ये और बात कि हर छेड़ ला-उबाली थी
तिरी नज़र का दिलों से मोआमला तो रहा

मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ Jaan Nisar Akhtar

मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ
मगर वो लम्हा जब मैं सिर्फ़ अपना हो सा जाता हूँ
 
मैं तुम से दूर रहता हूँ तो मेरे साथ रहती हो
तुम्हारे पास आता हूँ तो तन्हा हो सा जाता हूँ
 
मैं चाहे सच ही बोलूँ हर तरह से अपने बारे में
मगर तुम मुस्कुराती हो तो झूटा हो सा जाता हूँ
 
तिरे गुल-रंग होंटों से दहकती ज़िंदगी पी कर
मैं प्यासा और प्यासा और प्यासा हो सा जाता हूँ
 
तुझे बाँहों में भर लेने की ख़्वाहिश यूँ उभरती है
कि मैं अपनी नज़र में आप रुस्वा हो सा जाता हूँ

ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने Jaan Nisar Akhtar

ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने
वक़्त ख़्वाबों में गँवाया है बहुत दिन हम ने
 
अब ये नेकी भी हमें जुर्म नज़र आती है
सब के ऐबों को छुपाया है बहुत दिन हम ने
 
तुम भी इस दिल को दुखा लो तो कोई बात नहीं
अपना दिल आप दुखाया है बहुत दिन हम ने
 
मुद्दतों तर्क-ए-तमन्ना पे लहू रोया है
इश्क़ का क़र्ज़ चुकाया है बहुत दिन हम ने
 
क्या पता हो भी सके इस की तलाफ़ी कि नहीं
शायरी तुझ को गँवाया है बहुत दिन हम ने

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी Jaan Nisar Akhtar

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
 
उन से यही कह आएँ कि अब हम न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी
 
ऐ नावक-ए-ग़म दिल में है इक बूँद लहू की
कुछ और तो क्या हम से मुदारात बनेगी
 
ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़ हमारी न तिरे सात बनेगी
 
ये क्या है कि बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे
जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी

हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह Jaan Nisar Akhtar

हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हम ने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह
 
ख़ुद-ब-ख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह
 
तेरे बिन रात के हाथों पे ये तारों के अयाग़
ख़ूब-सूरत हैं मगर ज़हर के प्यालों की तरह
 
और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
 
गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में
तेरी ख़ातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह
 
तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह
 
हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी
दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह
 
मुझ से नज़रें तो मिलाओ कि हज़ारों चेहरे
मेरी आँखों में सुलगते हैं सवालों की तरह
 
और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह
 
जुस्तुजू ने किसी मंज़िल पे ठहरने न दिया
हम भटकते रहे आवारा ख़यालों की तरह
 
ज़िंदगी जिस को तिरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह

तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा Jaan Nisar Akhtar

तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा
शिकस्त-ए-ज़ुल्मत-ए-शब मुस्कुरा के देख ज़रा
 
ग़म-ए-बहार ओ ग़म-ए-यार ही नहीं सब कुछ
ग़म-ए-जहाँ से भी दिल को लगा के देख ज़रा
 
बहार कौन सी सौग़ात ले के आई है
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना तू आ के देख ज़रा
 
हर एक सम्त से इक आफ़्ताब उभरेगा
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम तो बुझा के देख ज़रा
 
वजूद-ए-इश्क़ की तारीख़ का पता तो चले
वरक़ उलट के तू अर्ज़ ओ समा के देख ज़रा
 
मिले तो तू ही मिले और कुछ क़ुबूल नहीं
जहाँ में हौसले अहल-ए-वफ़ा के देख ज़रा
 
तिरी नज़र से है रिश्ता मिरे गिरेबाँ का
किधर है मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देख ज़रा

अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए Jaan Nisar Akhtar

अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए
 
हम हैं तिरा ख़याल है तेरा जमाल है
इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए
 
उठने को उठ तो जाएँ तिरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए
 
उन की रविश जुदा है हमारी रविश जुदा
हम से तो बात बात पे झगड़ा किया न जाए
 
हर-चंद ए'तिबार में धोके भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए
 
लहजा बना के बात करें उन के सामने
हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए
 
इनआ'म हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ
जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए
 
इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए

आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं Jaan Nisar Akhtar

आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं
हिस्से में अपने सिर्फ़ ग़ुबार आए ये नहीं
 
कू-ए-ग़म-ए-हयात में सब उम्र काट दी
थोड़ा सा वक़्त वाँ भी गुज़ार आए ये नहीं
 
ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ
हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं
 
आँखों में दिल खुले हों तो मौसम की क़ैद क्या
फ़स्ल-ए-बहार ही में बहार आए ये नहीं
 
अब क्या करें कि हुस्न जहाँ है अज़ीज़ है
तेरे सिवा किसी पे न प्यार आए ये नहीं
 
वा'दों को ख़ून-ए-दिल से लिखो तब तो बात है
काग़ज़ पे क़िस्मतों को सँवार आए ये नहीं
 
कुछ रोज़ और कल की मुरव्वत में काट लें
दिल को यक़ीन-ए-वादा-ए-यार आए ये नहीं

मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है Jaan Nisar Akhtar

मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है
सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है
 
हम ने हर गाम पे सज्दों के जलाए हैं चराग़
अब हमें तेरी गली राहगुज़र लगती है
 
लम्हे लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक
आज की रात तो ख़ुशबू का सफ़र लगती है
 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है
 
सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझ को मिरे ख़ून से तर लगती है
 
कोई आसूदा नहीं अहल-ए-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है
 
वाक़िआ शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ़्तर की ख़बर लगती है
 
लखनऊ क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है
 

नज़्में

ख़ाक-ए-दिल Jaan Nisar Akhtar

(सफ़िया के इंतकाल पर लखनऊ से लौटते हुए)
 
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं
आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ
 
दफ़्न है देख मेरा अहद-ए-बहाराँ तुझ में
दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग
मेरी शादाब तमन्ना के महकते हुए ख़्वाब
मेरी बेदार जवानी के फ़िरोज़ाँ मह ओ साल
मेरी शामों की मलाहत मिरी सुब्हों का जमाल
मेरी महफ़िल का फ़साना मिरी ख़ल्वत का फ़ुसूँ
मेरी दीवानगी-ए-शौक़ मिरा नाज़-ए-जुनूँ
 
मेरे मरने का सलीक़ा मिरे जीने का शुऊर
मेरा नामूस-ए-वफ़ा मेरी मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम मिरे नग़्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट मिरे गीतों का सिंगार
लखनऊ अपना जहाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को
 
अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
दफ़्न हैं इस में मोहब्बत के ख़ज़ाने कितने
एक उनवान में मुज़्मर हैं फ़साने कितने
इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़
अपने बच्चों के लड़कपन को कलेजे से लगाए
अपने खिलते हुए मासूम शगूफ़ों के लिए
बंद आँखों में बहारों के जवाँ ख़्वाब बसाए
 
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
एक साथी भी तह-ए-ख़ाक यहाँ सोती है
अरसा-ए-दहर की बे-रहम कशाकश का शिकार
जान दे कर भी ज़माने से न माने हुए हार
अपने तेवर में वही अज़्म-ए-जवाँ-साल लिए
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
देख इक शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र जलती है
 
जगमगाता है अगर कोई निशान-ए-मंज़िल
ज़िंदगी और भी कुछ तेज़ क़दम चलती है
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़्वाब-गह-ए-नाज़ पे कल मौज-ए-सबा
ले के नौ-रोज़-ए-बहाराँ की ख़बर आएगी
सुर्ख़ फूलों का बड़े नाज़ से गूँथे हुए हार
कल इसी ख़ाक पे गुल-रंग सहर आएगी
कल इसी ख़ाक के ज़र्रों में समा जाएगा रंग
कल मेरे प्यार की तस्वीर उभर आएगी
 
ऐ मिरी रूह-ए-चमन ख़ाक-ए-लहद से तेरी
आज भी मुझ को तिरे प्यार की बू आती है
ज़ख़्म सीने के महकते हैं तिरी ख़ुश्बू से
वो महक है कि मिरी साँस घुटी जाती है
मुझ से क्या बात बनाएगी ज़माने की जफ़ा
मौत ख़ुद आँख मिलाते हुए शरमाती है
 
मैं और इन आँखों से देखूँ तुझे पैवंद-ए-ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं हाए नहीं हाए नहीं
कोई ऐ काश बुझा दे मिरी आँखों के दिए
छीन ले मुझ से कोई काश निगाहें मेरी
ऐ मिरी शम-ए-वफ़ा ऐ मिरी मंज़िल के चराग़
आज तारीक हुई जाती हैं राहें मेरी
तुझ को रोऊँ भी तो क्या रोऊँ कि इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थम से गए हैं मेरे
 
फिर भी इस अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल से मुझे
कोई आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता है
आज सोता ही तुझे छोड़ के जाना होगा
नाज़ ये भी ग़म-ए-दौराँ का उठाना होगा
ज़िंदगी देख मुझे हुक्म-ए-सफ़र देती है
इक दिल-ए-शोला-ब-जाँ साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तू ने कभी अज़्म-ए-जवाँ बख़्शा था!
मैं वही अज़्म-ए-जवाँ साथ लिए जाता हूँ
 
चूम कर आज तिरी ख़ाक-ए-लहद के ज़र्रे
अन-गिनत फूल मोहब्बत के चढ़ाता जाऊँ
जाने इस सम्त कभी मेरा गुज़र हो कि न हो
आख़िरी बार गले तुझ को लगाता जाऊँ
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना

तजज़िया Jaan Nisar Akhtar

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी जब पास तू नहीं होती
ख़ुद को कितना उदास पाता हूँ
गुम से अपने हवास पाता हूँ
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक ख़मोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ़्तुगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी रह रह के मेरे कानों में
गूँजती है तिरी हसीं आवाज़
जैसे नादीदा कोई बजता साज़
हर सदा नागवार होती है
इन सुकूत-आश्ना तरानों में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
इस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
उस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

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