Gopal Das Neeraj Vanshivat Suna Hai

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gopaldas-neeraj
वंशीवट सूना है गोपालदास नीरज (toc)

किसके लिए ? - Gopal Das Neeraj

किसके लिए ? किसके लिए ?
धारण करूँ अब ये पीताम्बर किसके लिए ?
राधा-
वसन्त-शाय्यानी-सखी
बृज में कहीं खो गई
वंशी
अधर-प्रिया
यमुना कछारों में सो गई
रास फिर रचाए ये नटनागर किसके लिए।
धारण करूँ अब ये पीताम्बर किसके लिए।
रस की मची धूम जहाँ
उड़े वहाँ धूल
आँसू में डूब गए
माला के फूल
थाहूँ फिर सपनों का रत्नाकर किसके लिए
धारण करूँ अब ये पीताम्बर किसके लिए।
 
वंशीवट सूना
है अकेला गोपाल
काल-कौर बने सब
गोपी ग्वाल-बाल
भोगूँ फिर दिन का ये चौथा पहर किसके लिए
धारण करूँ अब ये पीताम्बर किसके लिए।
 

आँसू जब सम्मानित होंगे - Gopal Das Neeraj

आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा।
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।।
 
मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आश़िक रहा जनम से
सुन्दरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये
केवल इस ग़लती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला
मुझको शाप दिया जाएगा।
आँसू जब सम्मानित होंगे।
 
खिलने को तैयार नहीं थी
तुलसी भी जिनके आँगन में
मैंने भर-भर दिए सितारे
उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया
आँख भरी तो झूमके गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से
क्या इस तरह जिया जाएगा।
आँसू जब सम्मानित होंगे।
 
काज़ल और कटाक्षों पर तो
रीझ रही थी दुनियाँ सारी
मैंने किन्तु बरसने वाली
आँखों की आरती उतारी
रंग उड़ गए अब सतरंगी
तार तार हर साँस हो गई
फटा हुआ यह कुर्ता अब तो
ज्यादा नहीं सिया जाएगा।
आँसू जब सम्मानित होंगे।
 
जब भी कोई सपना टूटा
मेरी आँख वहाँ बरसी है
तड़पा हूँ मैं जब भी कोई
मछली पानी को तरसी है,
गीत दर्द का पहला बेटा
दुख है उसका खेल खिलौना
कविता तब मीरा होगी
जब हँसकर ज़हर पिया जाएगा।
आँसू जब सम्मानित होंगे।
 

अपनी बानी प्रेम की बानी - Gopal Das Neeraj

अपनी बानी प्रेम की बानी
घर समझे न गली समझे
या इसे नन्द-लला समझे जी,
या इसे बृज की लली समझे !
 
हिन्दी नहीं यह, उर्दू नहीं यह।
है यह पिया की क़सम,
इसकी सियाही आँखों का पानी,
दर्द की इसकी क़लम,
लागे-किसी को मिसरी-सी मीठी
कोई नमक की डली समझे !
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
इसकी अदा पर मर गई मीरा,
मोहे दास कबीर,
अँधरे सूर को आँखें मिल गईं
खाकर इसका तीर,
चोट लगे तो कली समझे इसे
सूली चढ़े तो अली समझे।
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
बोली यही तो बोले पपीहा
घुमड़ें कि जब घनश्याम,
जल जाए दीपक पै पतंगा
लेके इसी का नाम,
पंछी इसे असली समझे पर
पिंजरा इसे नकली समझे !
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
सूरज की गर्मी, चंदा की ठंडक,
इसमें अनंत वसंत,
अपढ़ पढ़े बन जाए पंडित,
ज्ञानी पढ़े हो संत,
बिन नैया के पार हुए वे
इसको जो मुक्ति-गली समझें!
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
जिसने इसे होंठों पै बिठाया,
हो गया वह बेदीन,
तड़पा, उमर-भर ऐसे कि जैसे
तड़पे बिना जल मीन,
बुद्धि इसे पगली समझे पर
मन रस की बदली समझे !
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
अर्थों में ध्वनि यह, ग्रंथों में गीता,
वेदों में यह रस-वेद,
इक धागे में सबको पिरोए
भेदों में बनके अभेद,
यह है समर्पण, यह है विसर्जन
कैसे इसे रे छली समझे!
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 
मस्ती के वन की है यह हिरनिया,
घूमे सदा निर्द्वंद्व
रस्सी से इसको बाँधो न साधो !
घर में करो ना बन्द
हम जो अर्थ समझे इसका वह
फूंकके बाती जली समझे !
अपनी बानी प्रेम की बानी...
 

प्यार की कहानी चाहिए - Gopal Das Neeraj

आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए।
 
जो भी कुछ लुटा रहे हो तुम यहाँ
वो ही बस तुम्हारे साथ जाएगा,
जो छुपाके रखा है तिजोरी में
वो तो धन न कोई काम आएगा,
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब भी कफ़न में इक लगानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
 
रागिनी है एक प्यार की
ज़िंदगी कि जिसका नाम है
गाके गर कटे तो है सुबह
रोके गर कटे तो शाम है
शब्द और ज्ञान व्यर्थ है
पूजा-पाठ ध्यान व्यर्थ है
आँसुओं को गीतों में बदलने के लिए,
लौ किसी यार से लगानी चाहिए
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
 
जो दु:खों में मुस्कुरा दिया
वो तो इक गुलाब बन गया
दूसरों के हक में जो मिटा
प्यार की किताब बन गया,
आग और अँगारा भूल जा
तेग और दुधारा भूल जा
दर्द को मशाल में बदलने के लिए
अपनी सब जवानी खुद जलानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
 
दर्द गर किसी का तेरे पास है
वो खुदा तेरे बहुत क़रीब है
प्यार का जो रस नहीं है आँखों में
कैसा हो अमीर तू गरीब है
खाता और बही तो रे बहाना है
चैक और सही तो रे बहाना है
सच्ची साख मंडी में कमाने के लिए
दिल की कोई हुंडी भी भुनानी चाहिए।
 

भाव-नगर से अर्थ-नगर में - Gopal Das Neeraj

चलते चलते पहुँच गए हम
भाव-नगर से अर्थ-नगर में
जाने कितने और मोड़ हैं
जीवन के अनजान सफर में।
 
नहीं ज़िन्दगी रही ज़िन्दगी
शब्दों की दूकान हो गई,
ख़ुद पर आए शर्म हमें
मंज़िल इतनी आसान हो गई
अपने ही हाथों से हमने
आग लगा दी अपने घर में
चलते-चलते पहुँच गए हम ॥
 
मोती के लालच मेँ हमने
सिर्फ़ बटोरे कंकड़-पत्थर
हमेँ डूबना था आँसू में
डूबे हम फूलों में जाकर
हम ऐसे लुट गए कि जैसे
डोली लुट जाए पीहर में।
चलते-चलते पहुँच गए हम ॥
 
एक समय वह भी था जब
पूरे गुलशन में हम ही हम थे
गीत हमारे ही गुलाब थे
अश्क हमारे ही शबनम थे
है यश का पैबन्द सिर्फ़ अब
जीवन की मैली चादर में ।
चलते-चलते पहुँच गए हम ॥
 
आँसू के बाग़ों में जिसने
जाकर बोये गीत-रुबाई,
सिक्कों की धुन पर अब नाचे
उसके ही सुर की शहनाई।
सुबह गुज़ारी थी सतजुग में
शाम गुज़रती है द्वापर में
चलते-चलते पहुँच गए हम ॥
 
एक मोड़ था जिसने हमको
गीतों का श्रृंगार बनाया
दूजा है ये मोड़ कि जिसने
कविता को अख़बार बनाया,
मगर तीसरा मोड़ कहां है
देखूँगा आख़िरी पहर में।
चलते-चलते पहुँच गए हम
भाव-नगर से अर्थ-नगर में
 

ठाठ है फ़क़ीरी अपना - Gopal Das Neeraj

गली-गली सपने बेचें, बाँटें सितारे
करें ख़ाली हाथ सौदा, साँझ-सकारे
ठाठ है फ़क़ीरी अपना जनम-जनम से।।
 
कोई नहीं मंज़िल अपनी
कोई ना ठिकाना
प्यार-भरी आँखों में है
अपना आशियाना
धरम-करम कोई नहीं
हमें बाँध पाये
अपने गाँव में भी रहे
बनके हम पराये
बन्धनों से नहीं, हम तो बंधते क़सम से
ठाठ है फ़क़ीरी अपना जनम-जनम से।।
 
वेद न कुरान बाँचे
ली न ज्ञान दीक्षा
सीखी नहीं भाषा कोई
दी नहीं परीक्षा,
दर्द रहा शिक्षक अपना
दुनिया पाठशाला
दुखों की किताब जिसमें
आँसू वर्ण-माला
लिखना तुम कहानी मेरी दिल की क़लम से
ठाठ है फ़क़ीरी अपना जनम-जनम से।।
 
हर तरह के फूल हमने
माला में पिरोये
ख़ुद को देखा हँसी आई
जग को देखा रोये
अमृत-ज़हर जो भी मिला
सबसे भरा प्याला
दिल जला के हमने किया
दुनिया में उजाला।
फूल हम खिलाते चले क़दम-क़दम से
ठाठ है फ़क़ीरी अपना जनम-जनम से।।
 
काम रहा अपना यारो!
सिर्फ़ दिल चुराना,
रोज़-रोज़ जाके आँखें
मौत से मिलाना
मस्तियों के नाम लिख दी
सारी ज़िन्दगानी,
हमसे ही है क़ायम अब तक
गीतों की जवानी।
मौत से न मरते हम तो मरते शरम से।
ठाठ है फ़क़ीरी अपना जनम-जनम से।।
 

चल औघट घाट प यार ज़रा - Gopal Das Neeraj

चल औघट घाट प यार ज़रा, क्या रक्खा आलमगीरी में
जो आये मज़ा फ़क़ीरी में, वो मस्ती कहाँ अमीरी में
अनजान सफ़र में जीवन के दुनिया ये मुसाफ़िरखाना है
अपनी-अपनी बारी सबको इस भोग-भवन से जाना है
चाहे सिक्कों से भर झोली, चाहे सोने के पहन कड़े
वो सब मिट्टी हो जाना है, जो तेरे पास ख़ज़ाना है।
जब तक पड़ाव है पड़ा यहाँ, कुछ प्यार जोड़,कुछ प्यार लुटा
वो स्वाद न छप्पन भोगों में, जो स्वाद है प्रेम-पंजीरी में ।
चल औघट घाट प...
 
कुर्सी की ग़ुलामी करके, तू अपना सिंहासन भूल गया,
मन्दिर-मस्ज़िद में जा-जाकर, उस यार का आँगन भूल गया,
इक यासो-हवस के चक्कर में, ऐसा भूला, यूँ भरमाया,
हर दर्पण में मुखड़ा देखा, पर दिल का दर्पण भूल गया,
दुनिया से लड़ाई बहुत नज़र, अब अपने से भी नज़र मिला,
जो रस है अपनी आँखों में, वो रस न कली कश्मीरी में ।
चल औघट घाट प...
 
कैसे-कैसे, किस-किस रंग में, कलदार की धुन पर तू नाचा,
इस पार नचा, उस पार नचा, मँझधार की धुन पर तू नाचा,
जीवन भर नाचा किया मगर समझा तू सबको नचाता है,
संसार को नाच नचाने में, संसार की धुन पर तू नाचा,
सब ताल-धुनों पर नाच चुका, अब दिल की धुन पर नाच ज़रा,
जो राग है दिल की धड़कन में, वो राग न किसी नफ़ीरी में ।
चल औघट घाट प...
 
तू क़ैद रहा हरदम प्यारे ! कपड़ों में, कभी दीवारों में,
शब्दों में कभी, भाषा में कभी, नक़्शों में कभी, अख़बारों में,
अब तो "घूँघट-पट खोल ज़रा", इस क़ैदे-कफ़स से बाहर आ,
तू ही न रहेगा तू, वर्ना इन मेलों इन बाज़ारों में,
सारा आकाश है ताज तेरा, सारा भूगोल है तख़्त तेरा,
बस छोड़ जहाँगीरी, आजा हम मस्तों की जागीरी में ।
चल औघट घाट प...
 

यह प्यासों की प्रेम सभा है - Gopal Das Neeraj

यह प्यासों की प्रेम सभा है यहाँ सँभलकर आना जी
जो भी आये यहीं किसी का हो जाये दीवाना जी।
 
ऐसा बरसे रंग यहाँ पर
जनम-जनम तक मन भींगे
फागुन बिना चुनरिया भींगे
सावन बिना भवन भींगे
ऐसी बारिश होय यहीं पर बचे न कोई घराना जी।
यह प्यासों की प्रेम सभा है...
 
यहाँ न झगड़ा जाति-पाँति का
और न झंझट मज़हब का
एक सभी की प्यास यहाँ पर
एक ही बस प्याला सबका
यहीं पिया से मिलना हो तो परदे सभी हटाना जी।
यह प्यासों की प्रेम सभा है...
 
यहाँ दुई की सुई न चुभती
घुले बताशा पानी में
पहने ताज फकीर घूमते
मौला की रजधानी में
यहाँ नाव में नदिया डूबे, सागर सीप समाना जी
यह प्यासों की प्रेम सभा है...
 
यहाँ न कीमत कुछ पैसे की
कीमत सिर्फ़ सुगंधों की
छुपे हुए हैं लाख रतन
इस गुदडी में पैबन्दों की
हर कोई बिन मोल पियेगो खुला यहाँ मयखाना जी
यह प्यासों की प्रेम सभा है...
 
चार धाम का पुण्य मिले
इस दर पर शीश झुकाने में
मजा कहाँ वो जीने में जो
मजा यहाँ मर जाने में
हाथ जोड़ कर मौत यहाँ पर चाहे ख़ुद मर जाना जी
यह प्यासों की प्रेम सभा है...
 

बिन खेवक की नैया - Gopal Das Neeraj

उमरिया बिन खेवक की नैया ।
पाल नहीं, पतघार नहीं और तेज़ चले पुरवैया ।।
 
छिन उछरे, छिन गोता खाए,
ना डूबे, ना पार लगाए,
भटके इत-उत बीच भंवर ज्यों भूली साँझ चिरैया।
उमरिया बिन खेवक की नैया ।।
 
धार अजानी, नदी अजानी,
चहुँ दिस पानी ही बस पानी,
इस पर ऐसी रात अंधेरी टिमके इक न तरैया।
उमरिया बिन खेवक की नैया ।।
 
संग न कोई सखा-संगाती,
आय न जाय किसी की पाती,
रंगी या पार लगेगी जाने राम-रखैया।।
उमरिया बिन खेवक की नैया ।।
 
पूँजी सिगरी नई-पुरानी,
तिल-तिलकर जल बिच समानी,
इक जैसे अब दोनों हमको महल मिले कि मड़ैया।
उमरिया बिन खेवक की नैया ।।
 
कैसा पूरब, कैसा पच्छिम?
कैसा उद्गम, कैसा संगम?
वो ही अपना घाट साँस की जहाँ कटे कनकैया
उमरिया बिन खेवक की नैया ।।
 

सोनतरी अभी कहाँ आई - Gopal Das Neeraj

सोनतरी अभी कहाँ आई ?
 
वह जो
तट को छू,
लहर को उछाल गई,
हवा थी,
भूली-बिसरी
किसी अकथ कथा की,
व्यथा थी,
गाई भी रही जो अनगाई!
सोनतरी अभी कहाँ आई ?
 
बहंगी थी,
नौका नहीं,
छन्द, गीत, कविताएँ
जिनके सहारे उतरे किनारे
मात्र शंख-घोंघे थे
हम जिन्हें समझा किए
मोती-मूंगा-सितारे;
उंचाई बनी हर निचाई!
सोनतरी मगर नहीं आई !!
 
हम जिसके लिए,
लड़े, झगड़े,
बुजुर्ग आंधी-तूफ़ानों से;
पता जिसका पूछा किये
सागर, सैलाब, जलयानों से-
तपे प्राण, पुतली पथराई!
सोनतरी किंतु नहीं आई!!
 
हम जिस पर चढ़कर
उतरते पार,
यात्रा सिंगारते
खोलते-
नए-नए क्षितिजों के द्वार,
पछुआ को करती पुरवाई,
सोनतरी वहीं नहीं आई!!
 
आएगी, आएगी-
सोनतरी
आज नहीं,
कल ज़रूर,
तीरथ बनेगा अस्पृश्य तट
बालू चन्दन-सिन्दूर
तेज से बिछुड़ेगी कब तक तरुणाई!
आई लो आई वह सोनतरी आई!!
 

मैंने वह अँगूठी उतार दी - Gopal Das Neeraj

मैंने वह अँगूठी उतार दी!
अपने मिथ्या गर्व का प्रतीक,
दुनिया के दुखों का हेतु,
सबकी ईर्ष्या का प्रमाण-पत्र-
मैंने वह अँगूठी उतार दी!
 
हीरे की अँगूठी थी,
उँगली में चमकती थी तारे-सी
शीशे पर फिसलते पारे-सी
हर नंगी उँगली,
हर रीती कलाई
हर ख़ाली जेब का उड़ाती थी मज़ाक,
सब पर करती थी व्यंग्य,
जैसे वह है शीर्षक
और सब हैं पंक्ति-
मैंने वह अँगूठी उतार दी!
 
चिन्तित रखा उसने मुझे
बस में, ट्रेन में
घर में, बाज़ार में,
सूने में, मेले में,
खुलकर न मिलने दिया इससे या उससे,
दोस्त बनाने दिया नहीं किसी दुश्मन को,
सबको समझती रही चोर,
ऐसी शहज़ोर
मैंने वह अँगूठी उतार दी!
 
जब तक वह रही,
मैं नहीं रहा;
सभा में, गोष्ठी में
गाँव में, कालिज में,
दिन में, रात में,
जो कुछ मैँ बोला,
मैं नहीं, उसने ही कहा;
अनुकृति की कृति,
मैंने वह अँगूठी उतार दी!
 
अब मेरी उंगली है सूनी,
हाथ लगता है कुरूप,
देखती नहीं है अब मुझे कोई दृष्टि,
राजा से बन गया हूँ प्रजा,
छन्द से वाक्य
दृश्य से श्रव्य,
लेकिन खुश हूँ
खुली छत पर सोता हूँ
बेहद्दी भीड़ में आता हूँ, जाता हूँ,
जो कुछ मन में आए वह गाता हूँ;
अपनी आत्मा की उमर-क़ैद-
मैंने वह अँगूठी उतार दी!
 

सबसे ग़रीब इन्सान - Gopal Das Neeraj

(एक प्राचीन बोध-कथा)
 
एक था बियाबान
बियाबान में था एक क़ब्रिस्तान,
क़ब्रिस्तान में रहता था एक मलंग,
पागलों से थे उसके ढंग।
क़ब्रिस्तान में गड़ा था एक पत्थर
जिस पर अंकित थे शब्दाक्षर।
"यहाँ एक अनमोल ख़जाना है गड़ा
सदियों से जो सड़ रहा है पड़ा-पड़ा
कोई भी आये
क़ब्रें खोदे
और ख़जाना ले जाये।"
 
जो भी यात्री उधर से गुज़रता
पागल सबको उस शिलालेख की ओर संकेत करता
कहता-"आओ
क़ब्र खोदो और ख़जाना ले जायो ।"
मगर ग़रीब से ग़रीब
भिखारी ने भी वो ख़जाना नहीं छुआ
सब उससे बचकर निकल जाते
जैसे वो हो कोयी मौत का कुँआ
तभी निकला एक दिन
उधर से एक सम्राट
जो लूट कर ला रहा था
किसी अन्य राजा का राज पाट
अकूत धन उसके पास था
मगर उसका लोभ
विस्तार आकाश का था
पागल ने उसे भी वो शिलालेख पढ़वाया
उसे पढ़ कर सम्राट
खुशी से फूला नहीं समाया
और फिर बिना कुछ सोचे-समझे
उसने पूरा का पूरा क़ब्रिस्तान खुदवाया
मगर हाय री तक़दीर
मुर्दों की हड्डियों के सिवा
उसके हाथ कुछ न आया।
सम्राट जब अपनी
विफलता पर झुंझला रहा था
तब पागल यह कहकर
मुस्करा रहा था-
"दुनिया का सबसे ग़रीब इन्सान
देखने की इच्छा बरसों से थी
मेरे मन में
सो हे सम्राट
तुझे देखकर
पूरी हुई इस निर्जन में
जिसे नसीब न था
एक भी दाना,
एक ग़रीब तक ने
छुआ नहीं ये ख़जाना
उसी के पाने को
होते हुए भी सब ठाठ-बाट
रखते हुए भी सब राजपाट
तूने मुर्दों की कब्रों तक को
किया तबाह
तेरे लोभ की है कोई इन्तिहा,
तुझसे बढ़कर और
कौन ग़रीब होगा ओ शहंशाह।
 

ओरे मन ! - Gopal Das Neeraj

ओरे मन रूप-रसिक !
ओरे मन कामी,
मुझ से भरी जाय नहीं
अब तेरी हामी ।
 
घरनी जो मेरी है
शब्दहीन वाणी
हेम-वरण, रस ग्वालिनि
राधा जग-रानी
करता फिरे उसकी तू दर-दर बदनामी
ओरे मन रूप रसिक ।
 
दिया तुझे जिसने
आकर, रुप रंग,
तानी गगन बीच
बिना डोर के पतंगा
उसे छोड़, सब की तू करे है सलामी।
ओरे मन रूप रसिक ।
 
रस्सी को सर्प करे
मृग-जल को धार
ताने बिना बाना बुने
धागे बिना हार
नाम से करोड़ीमल काम से छदामी
ओरे मन रूप रसिक ।
 
जो मैं नहीं हूँ वो
मुझे तू दिखाये,
नाम तो मेरा बिके
यश तू कमाये
गुरु को बेच गया चेला इक हरामी।
ओरे मन रूप रसिक ।
 

कुछ और दीखे ना - Gopal Das Neeraj

अब तुम्हें छोड़ और कुछ दीखे ना !
 
दृश्य सब अदृश्य हुए
शब्द सकल मौन
खाट ही नहीं है जब
कसे कहाँ दौन
हाँ किसके हिय के जब अपने ही जीके ना ।
अब तुम्हें छोड़ और कुछ दीखे ना ।।
 
साँस कीर्तन है
धड़कन हर थाप
सत्ता समाधि बनी
जीवन सब जाप
हो जाओ प्रिय तुम भी तनिक हम सरीखे ना।
अब तुम्हें छोड़ और कुछ दीखे ना ।।
 
झर-झर नित आँख झरे
गले अंग अंग
इस पर ये कौतुक
तुम हर दम हो संग
साथ छुटे कैसे जब आयु सौत बीते ना।
अब तुम्हें छोड़ और कुछ दीखे ना ।।
 

अब नहीं - Gopal Das Neeraj

अब नहीं, अब नहीं
जीवन की भेंट और अब नहीं।
 
देते हो तुम तो पर
धरूँ कहाँ दान,
राख है मकान
लुटी पूरी दुकान
नाव कहाँ बाँधूँ जब नदिया ही नहीं रही ।
अब नहीं, अब नहीं, अब नहीँ।।
 
रिसता है रिसने दो
यह अनगढ़ पात्र
बनना नहीं है मुझे
इलियट का सार्त्र
पाऊँगा जो कुछ वो खोऊँगा यहीं-कहीं।
अब नहीं, अब नहीं, अब नहीं।।
 
दुख ही था प्रेषक
बना दुख ही पता
कौन यहाँ समझे
यह षोडसी व्यथा
किसे कहूँ बातें जो तुमसे ही नहीं कहीं ।
अब नहीं, अब नहीं, अब नहीं।।
 

ओ हर सुबह जगाने वाले - Gopal Das Neeraj

ओ हर सुबह जगाने वाले, ओ हर शाम सुलाने वाले
दुःख रचना था इतना जग में, तो फिर मुझे नयन मत देता
 
जिस दरवाज़े गया ,मिले बैठे अभाव, कुछ बने भिखारी
पतझर के घर, गिरवी थी ,मन जो भी मोह गई फुलावारी
कोई था बदहाल धूप में, कोई था गमगीन छाँवों में
महलों से कुटियों तक थी सुख की दुःख से रिश्तेदारी
ओ हर खेल खिलाने वाले , ओ हर रस रचाने वाले
घुने खिलौने थे जो तेरे, गुड़ियों को बचपन मत देता
 
गीले सब रुमाल अश्रु की पनहारिन हर एक डगर थी
शबनम की बूंदों तक पर निर्दयी धूप की कड़ी नज़र थी
निरवंशी थे स्वपन दर्द से मुक्त न था कोई भी आँचल
कुछ के चोट लगी थी बाहर कुछ के चोट लगी भीतर थी
ओ बरसात बुलाने वाले ओ बादल बरसाने वाले
आंसू इतने प्यारे थे तो मौसम को सावन मत देता
 
भूख़ फलती थी यूँ गलियों में , ज्यों फले यौवन कनेर का
बीच ज़िन्दगी और मौत के फासला था बस एक मुंडेर का
मजबूरी इस कदर की बहारों में गाने वाली बुलबुल को
दो दानो के लिए करना पड़ता था कीर्तन कुल्लेर का
ओ हर पलना झुलाने वाले ओ हर पलंग बिछाने वाले
सोना इतना मुश्किल था, तो सुख के लाख सपन मत देता
 
यूँ चलती थी हाट की बिकते फूल , दाम पाते थे माली
दीपों से ज्यादा अमीर थी , उंगली दीप बुझाने वाली
और यहीं तक नहीं , आड़ लेके सोने के सिहांसन की
पूनम को बदचलन बताती थी अमावास की रजनी काली
ओ हर बाग़ लगाने वाले ओ हर नीड़ लगाने वाले
इतना था अन्याय जो जग में तो फिर मुझे विनम्र वचन मत देता
 
क्या अजीब प्यास की अपनी उमर पी रहा था हर प्याला
जीने की कोशिश में मरता जाता था हर जीने वाला
कहने को सब थे सम्बन्धी , लेकिन आंधी के थे पते
जब तक परिचित हो आपस में , मुरझा जाती थी हर माला
ओ हर चित्र बनने वाले, ओ हर रास रचाने वाले
झूठे थी जो तस्वीरें तो यौवन को दर्पण मत देता
 
ओ हर सुबह जगाने वाले ओ हर शाम सुलाने वाले
दुःख रचना था इतना जग में तो फिर मुझे नयन मत देता
 

डाल अमलतास की - Gopal Das Neeraj

फिर लो अपत्र हुई डाल अमलतास की
अवधि और बढ़ी ज़रा प्यास की !
फिर लो अपत्र हुई...
 
गये फूल-पंखी सब,
उड़े रंग-सुरंग,
मौन हुए सब के सब
मुक्तक प्रबन्ध;
गली छूटी सुख के रनिवास की।
फिर लो अपत्र हुई...
 
हवन करे भू-अम्बर,
जले सकल गाँव
नहीं पांथ शाला कोई
नहीं कहीं छाँव;
जलन बनी कथा उपन्यास की!
फिर लो अपत्र हुई...
 
कोई मत आओ
इस ठौर, इस गैल
ज़िन्दगी न पत्नी अब
सिर्फ़ है रखैल;
बिखरे हम गड्डी ज्यों ताश की!
फिर लो अपत्र हुई...
 

कारवां गुज़र गया - Gopal Das Neeraj

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
 
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि राह रथ निकल गई,
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई,
फाँस तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्रु बन चले,
छन्द हो हवन चले,
साथ के सभी दिए धुआँ पहन-पहन चले,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
 
(नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।)
 
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार का उठा,
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा,
इस तरफ जमीन और आसमाँ उधर उठा,
थामकर जिगर उठा कि जो मिला नजर उठा,
एक दिन मगरछली-
वह-हवा यहाँ चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम दबी नजर,
देह की दुकान पर,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे!
 
(क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।)
 
आँख थी मिली मुझे कि अश्रु-अश्रु बीन लूँ,
होंठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूँ,
दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूँ,
और गीत यूँ कि रात से चिराग़ छीन लूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि ढह गए क़िले बिखर-बिखर,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
दाम गाँठ के गँवा, बज़ार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
 
(हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!)
 
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।
 
एक रोज एक गेह चाँद जब नया उगा,
नौबतें बजीं, हुई छटी, डठौन, रतजगा,
कुँडली बनी कि जब मुहूर्त पुन्यमय लगा,
इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा,
एक दिन न पर हुआ,
उड़ गया पला सुआ,
कुछ न कर सके शकुन, न काम आ सकी दुआ,
और हम डरे-डरे,
नीर नैन में भरे,
ओढ़कर कफन पड़े मजार देखते रहे,
चाह थी न, किंतु बार-बार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
 

मेरे हिमालय के पासबानो - Gopal Das Neeraj

मेरे हिमालय के पासबानो! मेरे गुलिस्ताँ के पासबानो !
उठो कि सदियों की नींद तजकर तुम्हें वतन फिर पुकारता है !
 
लिखो बहारों के नाम खत वो
कि फूल बन जाएँ ख़ार सारे,
वो रोशनी की लगाओ क़लमें,
ज़मीं पै उगने लगें सितारे,
बदल दो पिछले हिसाब ऐसे, उलट दो ग़म के नक़ाब ऐसे,
कि जैसे सोई कली का घूँघट सुबह को भंवरा उघारता है
मेरे हिमालय के पासबानो!
 
ग़रीबी जो बन के रोज़ ईंधन
उदास चूल्हों में जल रही है,
वह जो पसीने की बूँद गिरकर
ज़मीं का नक्शा बदल रही है
तुम उसके माये मुकुट सजा दो, मुकुट सजाकर दुल्हन बना दो
जो आँसुओं को उबारता है वह ज़िन्दगी को सँवारता है!
मेरे हिमालय के पासबानो!
 
है ज़ोरो-ज़ुल्मत का दौर ऐसा
मना है फूलों को मुस्कराना
इधर है मज़हब का जेलख़ाना
उधर है तोपों का कारखाना
मिटा दो फ़िरकापरस्ती जग से, ढहा दो नफ़रत की हर हवेली
कि एक शोला धधके सारे मकाँ की सूरत बिगाड़ता है!
मेरे हिमालय के पासबानो!
 
बहे न आदम का खून फिर से
न भूख दुनिया की उम्र खाए
क़रीब मंदिर के आये मस्जिद,
न फिर कोई घर को बाँट पाये,
नहीं यह सोने का वक्त भाई । नहीं झगड़ने की यह घड़ी है
वह देखो केसर की क्यारियों को गँवार पतझर उजाड़ता है!
मेरे हिमालय के पासबानो!
 

जवानी है क़लम मेरी - Gopal Das Neeraj

जवानी है क़लम मेरी
मुहब्बत रोशनाई है।
मैं तो शायर हूँ जिसकी
ज़िन्दगी ही इक रुबाई है!
 
जलाकर दिल अंधेरों में
उजाला कर रहा हूँ मैं
हरेक सूनी हथेली पर
सितारे धर रहा हूँ मैं
हैं मेरे यार सब आँसू
ग़मों से आशनाई है।
मैं वो शायर हूँ जिसकी
ज़िन्दगी ही इक रुबाई है!
 
किसी भी ज़ुल्म के आगे
नहीं झुकती क़लम मेरी
भले ही वक़्त रुक जाये
नहीं रुकती क़लम मेरी
लगाकर दाँव मुझ से मौत ने
भी मात खाई है।
मैं वो शायर हूँ जिसकी
ज़िन्दगी ही इक रुबाई है!
 
सितारे जिनसे नाखुश हैं,
उन्हें मैं रोशनी दूँगा
जो जीने को तरसते हैं,
उन्हें मैं ज़िन्दगी दूँगा
जमाने को बदलने की
क़सम मैंने उठाई है।
मैं वो शायर हूँ जिसकी
ज़िन्दगी ही इक रुबाई है!
 

उतरा है रंग बहारों का - Gopal Das Neeraj

फूलों की आँखों में आँसू
उतरा है रंग बहारों का
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 
आंतरिक सुरक्षा के भय से
बुलबुल ने गाना छोड़ दिया
गोरी ने पनघट पर जाकर
गागर छलकाना छोड़ दिया,
रस का अब रास कहाँ
होता है नाटक बस तलवारों का ।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 
काँटों के झूठे बहुमत से
हर सच्ची खुशबू हार गई
जो नहीं पराजित हुए उन्हें
मालिन की चितवन मार गई
हो गया जवानी में बूढ़ा
सब यौवन मेघ-मल्हारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 
यह प्रगति हुई देवालय की
पूजा मदिरालय जा पहुंची
सर्वोदय तजकर राजनीति
तम के सचिवालय जा पहुंची
सब पात्रों का स्वरूप बदला
यूँ घूमा चाक कुम्हारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 
ऐसा अंधा युग-धर्म हुआ
नैतिकता भ्रष्टाचार बनी
विज्ञापन की यूँ मची धूम
रामायण तक अख़बार बनी
सिंहासन तो है संतों का
शासन है चोर बज़ारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 
कमज़ोर नींव, कमज़ोर द्वार
उखड़ी खिड़की, टूटी साँकल
हर तरफ़ मुँडेरों पर बैठे
दुख के काले-काले बादल
अब कौन बचायेगा बोलो
यह घर गिरती दीवारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।
 

रचना आपात काल की - Gopal Das Neeraj

संसद जाने वाले राही ! कहना इन्दिरा गांधी से
बच न सकेगी दिल्ली भी अब जयप्रकाश की आँधी से ।
 
कहना ज़ोर-ज़ुल्म ही केवल
बढ़ा आपके शासन में
भ्रष्टाचार लगा दीमक-सा
हर कुर्सी सिंहासन में
मैले सब के वस्त्र हो गये, हाथ मिलाकर खादी से
संसद जाने वाले राही ! कहना इन्दिरा गांधी से ।
 
बिगुल बजा सम्पूर्ण क्रान्ति का
धधक उठी है फुलवारी
हर स्वर में विद्रोही स्वर है
क़लम बनी है चिनगारी
लगता है तूफान उठेगा फिर कोई इस वादी से
संसद जाने वाले राही ! कहना इन्दिरा गांधी से ।
 
जीवन के वास्ते तरसता
यौवन-भरी बहारों में
मिट्टी की मानिंद बिक रहा
नया ख़ून बाज़ारों में
हाय गुलामी ही अच्छी थी इस झूठी आज़ादी से
संसद जाने वाले राही ! कहना इन्दिरा गांधी से ।
 
जयप्रकाश इतिहास एक है
त्याग और बलिदानों का
उस पर पानी नहीं चढ़ेगा
सत्ता के दीवानों का
अभी समय है शेष, बचा लें वो ख़ुद को बरबादी से।
बच न सकेगी दिल्ली भी अब जयप्रकाश की आँधी से ।

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