वो होली - सुव्रत शुक्ल | Wo Holi - Suvrat Shukla

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वो होली - सुव्रत शुक्ल | Wo Holi - Suvrat Shukla


फूलों, कलियों, रंगों के बिन ,
तुमने रंगोली बना लिया।
मुझसे रहकर कुछ दूर आज
तन्हा ही होली मना लिया।।

अब तक मेरे संग ही उसके,
त्योहार और खुशी होते थे।
कहने को दूर भले रहते,
पर प्राण संग ही होते थे।।

पहली बार मिले हम थे,
पहली होली जब आई थी।
तुमने गुलाल भर मुट्ठी में,
माथे पर तिलक लगाई थी।

दूजी मुट्ठी में रंग भरा,
बालों में डाल दिया मेरे।
तेरे गालों का लाल रंग,
गालों को लाल किया मेरे।।

मेरे सफेद कुर्ते को फिर,
केसरिया नीला बना दिया।
ओढ़नी को नीला कर डाला,
मुझको सतरंगी बना दिया।।

मुझे इंद्रधनुष करने वाले,
तुम आज कहां हो चले गए।
क्या मेरी याद नहीं आई,
जो छोड़ अकेले चले गए।।

उस दिन मुझको बाहों में भर,
भीतर तक मुझको हिला दिया।
आधी गुझिया तो खाए खुद,
और आधी मुझको खिला दिया।।

उस दिन जब मेरे गांव वाले,
मेरे ऊपर रंग डाले थे।
तुम क्रोधित हो, कपड़ो जैसे 
उनको पटके,धो डाले थे।।

सोचा करती हूं पहले का
है चला गया वो प्रेम कहां।
हर लेते थे तुम सारे दुःख,
तुम नज़र फेरते जहां जहां।।

आ रहा आज कुछ याद मुझे,
तुम पान बना कर लाए थे।
मैं बहुत बार ना-ना भी की,
तुम फिर भी मुझे खिलाए थे।।

जब लाल हो गए होंठ मेरे,
मुखमंडल में लाली छाई।
आ गए निकट फिर मेरे तुम,
पहचानी सी खुशबू आई।।

था अंधेरा कुछ दिखा नहीं,
बस एक मधुर झोका आया।
महसूस हुए शायद तुम थे,
खुद को एक बंधन में पाया।।

बाहों में बंधी तुम्हारी मैं,
आंखों को बस देख रही,
एक पर्वत के पत्थर दिल से,
बहती जलधारा देख रही।।

तुम समझ गए मैं देख रही,
झट से आंसू को छिपा लिया।
फिर " चलते हैं अब देर हुई"
कहकर बातों को घुमा दिया।।

तुम तो डरते थे बिछोह से ,
क्यों याद न मेरी आती हैं?
जीवन में एक बार मिल कर क्या 
ऐसी मोहब्बत की जाती है।
     

  -   सुव्रत शुक्ल


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