संदेश - सुव्रत शुक्ल | Sandesh - Suvrat Shukla

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Suvrat-Shukla

संदेश - सुव्रत शुक्ल | Sandesh - Suvrat Shukla

        (रचनाधीनकाव्य”अर्द्धांगिनी”से संकलित)

आंख खुली जब आज सुबह,
 आया था एक संदेश।
पढ़ा उसे मन हुआ प्रफुल्लित,
मिट गए सकल कलेश।।

पहले पहल “प्रभात बधाई”
की ही बात हुई थी।
उसकी अगली लाइन ने,
धड़कन दिल की छू ली थी।।

वह सन्देश उन्हीं का था,
जो हैं दिल की महारानी।
सुबह शाम मेरी जिनसे है,
जो हैं सुघरसयानी।।

बोली थी कल रात यहां,
मैं और मेरे घरवाले ,
दरवाजे खिड़कियां बंद कर,
सब थे सोने वाले।।

तभी लगी थी प्यास मुझे,
मैं रसोई में आई।
मम्मी पापा की कुछ मुझको,
समझ गुफ्तगू आई।।

चरण दबाती पापा के
मम्मी कुछ बता रही थी।
बिटिया की शादी कर दो,
पापा से जता रही थी।।

पापा बोले”वह तो है,
मेरी छोटी सी गुड़िया।
देख देख खुश होता उसको,
जैसे हो छोटी चिड़िया।।

दिल दुःखता है मेरा और,
आखेंभी भर आती हैं।
बचपना गुजार साथ अपने
बेटियां चली जाती हैं।।

डर लगता है मुझे, मेरी
बिटिया जब घर से जायेगी।
तड़पेंगे मेरे प्राण, मुझे,
न नींद कभी आएगी।।

सुनकर बातें उन दोनो की,
मेरी आंखे भी रोयी।
भूल गई पानी लेना ,
रह गई वहीं फिर खोई।।

मम्मी बोली,”समझ रही हूं,
है मेरी भी वह बेटी।
सुनो एक लड़का है जिसका,
प्राण तुम्हारी बेटी ।।

उससे आगे उसके ही ,
कालेज में पढ़ता है।
मेहनत करने वाला वह,
कीर्तिमान नए गढ़ता है।।

हमारी बेटी का प्राणों से,
बढ़कर ख्याल रखेगा।
हमारी याद नहीं आएगी,
इतना प्यार करेगा।।

कभी निकालो वक्त मिलो,
जाओ उनके घर में तुम।
मिल आओ उनके परिजन से,
 रिश्ता कर आओ तुम।।

सुन पापा बोले मम्मी से,
“सुनो! सुनो! भाग्यवान।
समझ रहा मैं भाव तुम्हारे,
मैं भी हूं इंसान।।

तुमने अब तक मेरे संग,
जीवन है साथ बिताए।
कितने मोड़, उतार चढ़ाव,
हमारे आगे आए।।

हंस कर हम दोनों ने मिलकर,
अपना जीवन जीया।
कभी अपमान, व्यंग्य अपनों के,
प्याली भर भर पीया।।

पर तुमसे मैंआज तलक न,
कभी शिकायत पायी।
धन्य हुआ हूं मैं क्योंकि,
तुम जैसी पत्नी पायी।।

अम्मा बाबू के जाने के
बाद तुम्हें पहचाना।
पत्नी थीं मेरी तुम और,
मां बाप तुम्हे ही माना।।

सुनो! अभी कुछ दिन रुक जाओ,
नवमी तो आने दो।
जाऊंगा एक रोज वहां,
वो दिन तोपास आने दो।।

उस लड़के को भली भांति,
मैं भी देखा समझा हूं।।
मेरी बेटी का भविष्य वह 
है,यह भी समझा हूं।।

जाऊंगा जबघर उनके,
अब पानी भी न पीयूंगा।
और उसी दिन अपनी गुड़िया का,
हाथ उसे देआऊंगा।।

इतना कहकर पापा की,
आंखो में मैने देखा।
आंखे थी भीगी,माथे पर,
थी चिंता की रेखा।।

मैं भी तो थी दुःखी मगर,
थोड़ा सा खुश थी मैं भी।
देख निकट परिणय अपना,
कितना खुश थी मैं भी।।

अब शायद कुछ दिन या,
कुछ बीत महीने जायेंगें।
जब तुम और घरवाले तुम्हारे,
ले बारात फिर आयेंगे।।

रस्म बहुत हसीन वह होगी,
जब सिंदूर भरोगे।।
मंगलसूत्र गले डालोगे,
मुझे अपने नाम करोगे।।

आंखो में आंसू होंगे,
जब मम्मी गले लगाएंगी।
बचपन से अब तक सारी,
घटनाएं याद आ जाएंगी।।

दूर किसी कोने में छिपकर,
पापा अश्रु बहाएंगे।
फिर उनको कोई गले लगाया,
फूट फूट फिर रोएंगे।।

मैं छोटी थी मुझको लेकर,
बगिया में जब जाते थे।
इमली, जामुन, महुआ भी,
बिन बिन कर घर लाते थे।।

पापाकेहाथों से हल्दी,
हाथों में लगवाऊंगी।
“पापा पापा” कहकर फिर,
मैं आंसू रोक न पाऊंगी।।

मम्मी मेरी जिन हाथों से ,
रोटी कभी खिलाती थी।
मैं भी खेल खेल करके
उनकी गोदी में आती थी।।

आज उन्हीं हाथो से मेरे,
घूंघट सिर पर कर देंगी।
मुझको चिपका सीने से
“बिटिया बिटिया” कह रोयेंगी।

जो बचपन से अबतक मुझसे,
हर पल हर दिन लड़ता था।
छोटी छोटी बातों से,
मुझसे वह खूब झगड़ता था।।

भैया मेरा मुझको डोली,
में बैठाने आयेगा।
रोकेगा वो रोएं न पर,
खुद को रोक न पाएगा।।

डोली में बैठा कर फिर,
मुझको विदा करा देगा ।
आंखो को हाथो से ढक कर
फूट फूट कर रोएगा।।

मैं रो -रो कर भीतर ही
भीतर में टूटी होंऊगी।
पाऊंगी घर नया तुम्हारा,
पर अपना खोऊंगी।।

रोती हुई देख मुझको,
बाहों में जब भर लोगे।
सच कहती मेरे दुःख हर कर,
स्वर्ग सदृश सुख दोगे ।।

अगले दिन जल्दी उठकर
मंदिर में मैं जाऊंगी।
बैठूंगी फिर पास तुम्हारे,
अर्धांगिनी कहलाऊंगी।।

- सुव्रत शुक्ल

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