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हिंदी कविता
मज़दूर - सुव्रत शुक्ल | Majhdoor - Suvrat Shukla
जा रहा था राह में,
कुछ पाने की चाह में,
मिट्टी भरी थी सिर पर,
पैरों पर, हाथों पर,
रुके कदम मेरे,
ठिठके नयन मेरे,
है कौन, मिट्टी लपेटे,
आंसुओ को यूं समेटे,
यूं पड़ा घर छोड़।
माथे पर पसीने की लड़ियां,
फटी, सूखी, लबों की पंखुड़ियां,
शायद जाया करता था साथ स्कूल,
शायद मैं रहा उन्हें भूल,
हाथों में हाथ डाले, बैठा करते थे,
चमकते कल के सपने बुना करते थे,
उन चमकते सपनो को,
वह क्यों आया छोड़।
वह मेरा ही सहपाठी था,
सुख दुःख का साथी था,
साथ बेंच पर बैठता था,
मूंछे न थी पर ऐंठता था,
गणित वाले गुरुजी की तरह मास्टर बनेगा,
फिर एक दिन हेडमास्टर बनेगा,
कल उसके पास सब होगा सोचा करता था,
मां बाप को दुनिया की सैर कराएगा सोचा करता था,
अच्छा था वह बड़बोलापना,
वह था बचपना,
उसे आया वहीं छोड़।
आ गया एक मोड़।
सुना उसकी मां गुजर गई,
जिंदगी वहीं ठहर गई,
पिता की उमर गई।
दो बहनों की शादी,
बिक गई ज़मीन, हो गई बर्बादी,
सपने टूटे बिखरे पड़े थे,
वह अकेले था संबंधी हाथ बांधे खड़े थे,
कोई आगे नहीं आया क्योंकि वह गरीब था,
शायद उसका यही नसीब था,
कभी पीठ पर किताबों का बस्ता था,
बिक गया बचपना,कितना सस्ता था,
हालातों से होकर मजबूर ,
वह बन गया आज मजदूर,
ज़िम्मेदारी निभाने को,
घर को चलाने को,
पाई पाई रहा जोड़।
- सुव्रत शुक्ल
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