कंपटीशन - सुव्रत शुक्ल | Compitition - Suvrat Shukla

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Suvrat-Shukla

कंपटीशन - सुव्रत शुक्ल | Compitition - Suvrat Shukla


छोटे -छोटे घरों से,
टपकते छप्परों से,
तिनकों के बने घोसलों से,
ज़िद पर अड़े हौसलों से,
निकलते हैं बच्चे,
कुछ दानों की तलाश में,
कुछ रोटी की तलाश में,
कुछ काम की तलाश में,
कुछ नाम की तलाश में,
यहां से शुरू होता" कंपटीशन "।

माता यहां खुद को मनाकर,
आंखो के आंसू छिपाकर,
दिल को बहलाकर,
माथे को सहलाकर,
शहर भेजती है,
चौराहे पर ,फुटपाथ पर,
तख्ते पर होते किताबों के संगम,
ये याद दिलाते हैं,
यहां से शुरू होता है कंपटीशन।

दस गुणा दस के कमरे में रहकर,
सब्जियों के छौंकने की महक 
और तड़के की आवाज,
कुर्सी पर बैठ कर बिताए सात सात घंटे,
चुभती आंखे,
जागते हौसले,
 बुलंदियों के सपने ,
आंखो के नीचे के काले घेरे,
जागी रातों के बाद सुनहरे सवेरे,
कुल्हड़ की चाय में  बिस्कुट का 
डूबने और तैरने के लिए संघर्ष ,
यहां से शुरू होता है कंपटीशन।

सालों से ख्वाहिशों का गला घोटते हुए,
सपनों को सामने दम तोड़ते देखते हुए,
जेबों में हाथ डालकर, कोचिंग से लौटते,
लाइब्रेरी में बीते हुए ,
सपनों को सीते हुए,
घर जाने की चाह,
पर न जा पाने का गम,
फिर पढ़ना,पढ़ना और पढ़ना
लिखना, लिखना और लिखना,
लिखते लिखते उंगलियों पर छाले पड़ जाते हैं,
दीवारों पर टंगे मानचित्र ,
जलती बुझती ट्यूबलाइट ,
अपने अस्तित्व के लिए लड़ती है,
फिर एक दिन परिणाम आ जाता है,
ट्यूबलाइट बुझ जाती है,
बच्चे घोंसलों को लौट आते हैं,
कुछ जो उड़ना सीख जाते हैं,
शहरों में बस जाते हैं,
कुछ पिता की फटी कमीज,
मां की बीमारी,
बहन की शादी की चिंता में,
लौट आते हैं घर को,
या चले जाते हैं शहर में,
रहने के लिए नहीं, मजदूरी करने।
यहां भी नही खत्म होता कंपटीशन,
 वो बस चलता  रहता है जीवनभर।
               

                           - सुव्रत शुक्ल 


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