अकबर इलाहाबादी की चुनिंदा ग़ज़ल Akbar Allahabadi Famous Gazal

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अकबर इलाहाबादी की चुनिंदा ग़ज़ल 
Akbar Allahabadi Famous Gazal

काम कोई मुझे बाकी नहीं - अकबर इलाहाबादी

काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा
कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा
 
हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल
तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा
 
Akbar-Allahabadi

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है - अकबर इलाहाबादी

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर
अब शायरी वह है जो उभारे गुनाह पर
 
क्या पूछते हो मुझसे कि मैं खुश हूँ या मलूल
यह बात मुन्हसिर है तुम्हारी निगाह पर
 

हम कब शरीक होते हैं -अकबर इलाहाबादी

हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में
 
मफ़्तूह हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस
मन्तिक़ शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में
 

मुँह देखते हैं हज़रत - अकबर इलाहाबादी

मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं
 
मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?
 
अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं
 

अफ़्सोस है - अकबर इलाहाबादी

अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है
 
इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत
बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है
 

ग़म क्या - अकबर इलाहाबादी

ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ
 
मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली
मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ
 

उससे तो इस सदी में - अकबर इलाहाबादी

उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा
 
बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा
 

ख़ैर उनको कुछ न आए - अकबर इलाहाबादी

ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
 
थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
 

जो हस्रते दिल है - अकबर इलाहाबादी

जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं
 
यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं
 

मायूस कर रहा है - अकबर इलाहाबादी

मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है
 
तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है
 

गांधीनामा - अकबर इलाहाबादी

१)
इन्क़िलाब आया, नई दुन्याह, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।
 
दीद के क़ाबिल अब उस उल्लू का फ़ख्रो नाज़ है
जिस से मग़रिब ने कहा तू ऑनरेरी बाज़ है।
 
है क्षत्री भी चुप न पट्टा न बांक है
पूरी भी ख़ुश्कच लब है कि घी छ: छटांक है।
 
गो हर तरफ हैं खेत फलों से भरे हुये
थाली में ख़ुरपुज़: की फ़क़त एक फॉंक है।
 
कपड़ा गिरां4 है सित्र है औरत का आश्कार
कुछ बस नहीं ज़बॉं पे फ़क़त ढांक ढांक है।
 
भगवान का करम हो सोदेशी के बैल पर
लीडर की खींच खांच है, गाँधी की हांक है।
 
अकबर पे बार है यह तमाशाए दिल शिकन
उसकी तो आख़िरत की तरफ ताक-झांक है।
 
महात्मा जी से मिल के देखो, तरीक़ क्यां है, सोभाव क्या है
पड़ी है चक्कमर में अक़्ल सब की बिगाड़ तो है बनाव क्या है
 
२)
हमारे मुल्को में सरसब्ज़भ इक़बाले फ़रंगी है
कि ननको ऑपरेशन में भी शाख़ें ख़ान जंगी है।
 
क़ौम से दूरी सही हासिल जब ऑनर हो गया
तन की क्यार पर्वा रही जब आदमी 'सर' हो गया
 
यही गाँधी से कहकर हम तो भागे
'क़दम जमते नहीं साहब के आगे'।
 
वह भागे हज़रते गाँधी से कह के
'मगर से बैर क्यों दर्या में रह के'।
 
३)
इस सोच में हमारे नासेह टहल रहे हैं
गॉंधी तो वज्दा में हैं यह क्यों उछल रहे हैं।
 
नश्वो नमाए कौंसिल जिनको नहीं मुयस्सउर
पब्लिक की जय में उनके मज़्मून पल रहे हैं।
 
हैं वफ़्द और अपीलें, फ़र्याद और दलीलें
और किबरे मग़रिबी के अर्मां निकल रहे हैं।
 
यह सारे कारख़ाने अल्लामह के हैं अकबर
क्या जाए दमज़दन है यूँ ही यह चल रही है।
 
अगर चे शैख़ो बरहमन उनके ख़िलाफ़ इस वक़्त उबल रहे हैं
निगाहे तह्क़ीक़ से जो देखो उन्हींह के सांचे में ढल रहे हैं।
 
हम ताजिर हों, तुम नौकर हो, इस बात पे सब की अक़्ल है गुम
अंग्रेज़ की तो ख़्वाहिश है यही, बाज़ार में हम, दरबार में तुम।
 
सुन लो यह भेद, मुल्की तो गाँधी के साथ है
तुम क्याह हो? सिर्फ़ पेट हो, वह क्या है? हाथ है।
 
४)
न मौलाना में लग्ज़ि्श है न साज़िश की है गाँधी ने
चलाया एक रुख़ उनको फ़क़त मग़रिब की आंधी ने।
 
लश्कारे गाँधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं
हॉं मगर बे इन्तिहा सब्रो क़नाअत चाहिए
 
 
क्योंग दिले गाँधी से साहब का अदब जाता रहा
बोले - क्योंग साहब के दिल से ख़ौफ़े रब जाता रहा।
 
यही मर्ज़ी ख़ुदा की थी हम उनके चार्ज में आये
सरे तस्लीीम ख़म है जो मिज़ाजे जार्ज में आये।
 
मिल न सकती मेम्बलरी तो जेल मैं भी झेलता
बे सकत हूँ वर्न: कोई खेल मैं भी खेलता।
 
किसी की चल सकेगी क्या अगर क़ुर्बे कयामत है
मगर इस वक्तस इधर चरख़ा, उधर उनकी वज़ारत है।
 
भाई मुस्लिम रंगे गर्दूं देख कर जागे तो हैं
ख़ैर हो क़िब्ले की लंदन की तरफ भागे तो हैं।
 
५)
कहते हैं बुत देखें कैसा रहता है उनका सोभाव
'हार कर सबसे मियॉं हमरे गले लागे तो हैं'।
 
पूछता हूँ “आप गाँधी को पकड़ते क्यों नहीं”
कहते हैं “आपस ही में तुम लोग लड़ते क्यों नहीं”।
 
मय फरोशी को तो रोकूँगा मैं बाग़ी ही सही
सुर्ख़ पानी से है बेहतर मुझे काला पानी।
 
किया तलब जो स्वहराज भाई गाँधी ने
बची यह धूम कि ऐसे ख़याल की क्याई बात!
 
कमाले प्याेर से अंग्रेज़ ने कहा उनसे
हमीं तुम्हाकरे हैं फिर मुल्कोरमाल की क्या बात।
 
६)
हुक्काम से नियाज़ न गाँधी से रब्तह है
अकबर को सिर्फ़ नज़्में मज़ामीं का ख़ब्त है।
 
हंसता नहीं वह देख के इस कूद फांद को
दिल में तो क़हक़हे हैं मगर लब पे ज़ब्तत है।
 
पतलून के बटन से धोती का पेच अच्छा
दोनों से वह जो समझे दुन्याच को हेच अच्छा।
 
चोर के भाई गिरहकट तो सुना करते थे
अब यह सुनते हैं एडीटर के भाई लीडर।
 
७)
 
नहीं हरगिज़ मुनासिब पेशबीनी दौरे गाँधी में
जो चलता है वह आंखें बंद कर लेता है आंधी में।
 
उनसे दिल मिलने की अकबर कोई सूरत ही नहीं
अक़्लमंदों को मुहब्बबत की ज़रूरत ही नहीं।
 
इस के सिवा अब क्या कहूँ मुझको किसी से कद  नहीं
कहना जो था वह कह चुका बकने की कोई हद नहीं।
 
ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं।
 
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ाइम न रखूँगा
मचेगा ग़ुल ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं।
 
ता'लीम जो दी जाती है हमें वह क्या है, फक़त बाज़ारी है
जो अक़्ल सिखाई जाती है वह क्याह है फ़कत सरकारी है।
 
८)
शैख़ जी के दोनों बेटे बाहुनर पैदा हुये
एक हैं ख़ुफ़िया पुलीस में एक फांसी पा गये।
 
नाजुक बहुत है वक़्त ख़मोशी से रब्त  कर
ग़ुस्साह हो, आह हो कि हंसी सब को जब़्त कर।
 
मिल से कह दो कि तुझमें ख़ामी है
ज़िन्दागी ख़ुद ही इक ग़ुलामी है।
 

वो हवा न रही वो चमन न रहा - अकबर इलाहाबादी

वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे
 
वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही
वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे
 
न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोह्द की जंग रही
सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दैर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे
 
न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे
वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे
 
हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या
ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा कि लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे
 
तेरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मेरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला
ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे
 
ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब
कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे
 
जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर
सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे
 
वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर
मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे
 
ग़म ओ रंज में ‘अकबर’ अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना
किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़्यादा मलूल ओ हज़ीं न रहे
 

सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ - अकबर इलाहाबादी

 
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
लेकिन ख़ुदा की बात जहाँ थी वहीं रही
 
ज़ोर-आज़माइयाँ हुईं साइंस की भी ख़ूब
ताक़त बढ़ी किसी की किसी में नहीं रही
 
दुनिया कभी न सुल्ह पे माइल हुई मगर
बाहम हमेशा बरसर-ए-पैकार-ओ-कीं रही
 
पाया अगर फ़रोग़ तो सिर्फ़ उन नुफ़ूस ने
जिन की कि ख़िज़्र-ए-राह फ़क़त शम्मा-ए-दीं रही
 
अल्लाह ही की याद बहर-हाल ख़ल्क़ में
वजह-ए-सुकून-ए-ख़ातिर-ए-अंदोह-गीं रही
 

जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श - अकबर इलाहाबादी

 
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा
 
वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा
 
क़ैस का ज़िक्र मेरे शान-ए-जुनूँ के आगे
अगले वक़्तों का कोई बादया-पैमा होगा
 
आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत
नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा
 
लाल-ए-लब का तेरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर
डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा
 

जहाँ में हाल मेरा - अकबर इलाहाबादी

जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ
 
ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ
 
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
 
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ
 
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ

हूँ मैं परवाना मगर - अकबर इलाहाबादी

 
हूँ मैं परवाना मगर शम्मा तो हो रात तो हो
जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो
 
दिल भी हाज़िर सर-ए-तसलीम भी ख़म को मौजूद
कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो
 
दिल तो बे-चैन है इज़्हार-ए-इरादत के लिए
किसी जानिब से कुछ इज़्हार-ए-करामात तो हो
 
दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं
बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो
 
गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन
किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो
 
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने
बज़्म में मौक़ा-ए-इज़्हार-ए-ख़्यालात तो हो
 
वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत
वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो
 
कोई वाइज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा
मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो
 

ग़म्ज़ा नहीं होता के - अकबर इलाहाबादी

ग़म्ज़ा नहीं होता के इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
 
जलवा न हो मानी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
 
अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता
 
तश्बीह तेरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
 
मैं नज़ा में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें के तमाशा नहीं होता
 
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बद-नाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
 

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं - अकबर इलाहाबादी

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं
 
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
 
चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़सोस अब वो जी ही नहीं
 
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं
 
इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं
 
आप क्या जानें क़द्र-ए-'या-अल्लाह'
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
 
शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं
 
पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
 

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए - अकबर इलाहाबादी

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए
 
क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए
 
दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए
 
ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए
 
साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए
 
जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए
 
दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए
 
मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शेख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए
 
अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए
 
सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है अकबर तान उड़ाने के लिए

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