कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma

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कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी (भाग 2)
Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma (
Part 2)

गिल्लू महादेवी वर्मा | mahadevi verma

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।

परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो!
 
अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छूआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।
 
हमारे बेचारे पुरखे न गरूड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौवा और काँव-काँव करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।
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मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रफ़क गई। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है जो संभवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौवे जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं।
 
काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपटा पड़ा था।
 
सबने कहा, कौवे की चोंच का घाव लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जावे।

परंतु मन नहीं माना -उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लाई, फिर रूई से रक्त पोंछकर घावों पर पेंसिलिन का मरहम लगाया।
 
रूई की पतली बत्ती दूध से भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हे से मुँह में लगाई पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनों ओर ढुलक गईं।
 
कई घंटे के उपचार के उपरांत उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हे पंजों से पकड़कर, नीले काँच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।
 
तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोए, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको विस्मित करने लगीं।
 
हमने उसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हलकी डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया।
 
वही दो वर्ष गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर में झूलता और अपनी काँच के मनकों -सी आँखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परंतु उसकी समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।
 
जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।
 
वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।
 
कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघुगात लिफ़ाफ़े के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता।
 
फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम बसंत आया। नीम-चमेली की गंध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं?
 
गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है।
 
मैंने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की साँस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते, बिल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी।
 
आवश्यक कागज़ -पत्रों के कारण मेरे बाहर जाने पर कमरा बंद ही रहता है। मेरे कालेज से लौटने पर जैसे ही कमरा खोला गया और मैंने भीतर पैर रखा, वैसे ही गिल्लू अपने जाली के द्वार से भीतर आकर मेरे पैर से सिर और सिर से पैर तक दौड़ लगाने लगा। तब से यह नित्य का क्रम हो गया।
 
मेरे कमरे से बाहर जाने पर गिल्लू भी खिड़की की खुली जाली की राह बाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुंड का नेता बना हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता।
 
मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गई थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुन्नट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।
 
मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है, परंतु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिम्मत हुई है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता।
 
गिल्लू इनमें अपवाद था। मैं जैसे ही खाने के कमरे में पहुँचती, वह खिड़की से निकलकर आँगन की दीवार, बरामदा पार करके मेज़ पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया जहां बैठकर वह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफ़ाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर वह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता या झूले से नीचे फेंक देता था।

उसी बीच मुझे मोटर दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाजा खोला जाता गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर उसी तेज़ी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे आते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफ़ाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि वह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा।
 
मेरी अस्वस्थता में वह तकिए पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को इतने हौले-हौले सहलाता रहता कि उसका हटना एक परिचारिका के हटने के समान लगता।
 
गरमियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता न अपने झूले में बैठता। उसने मेरे निकट रहने के साथ गरमी से बचने का एक सर्वथा नया उपाय खोज निकाला था। वह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता।
 
गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया न बाहर गया। रात में अंत की यातना में भी वह अपने झूले से उतरकर मेरे बिस्तर पर आया और ठंडे पंजों से मेरी वही उँगली पकड़कर हाथ से चिपक गया, जिसे उसने अपने बचपन की मरणासन्न स्थिति में पकड़ा था। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैंने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परंतु प्रभात की प्रथम किरण के स्पर्श के साथ ही वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।
 
उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परंतु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही पर बसंत आता ही रहता है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गई है - इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी - इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासंती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है।

नीलू कुत्ता महादेवी वर्मा | mahadevi verma

नीलू की कथा उसकी माँ की कथा से इस प्रकार जुड़ी है कि एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जाती है। उसकी अल्सेशियन माँ उत्तरायण में लूसी के नाम से पुकारी जाती थी। हिरणी के समान वेगवती साँचे में ढली हुई देह, जिसमें व्यर्थ कहने के लिए एक तोला मांस भी नहीं था। ऊपर काला आभास देनेवाले भूरे पीताभ रोम, बुद्धिमानी का पता देनेवाली काली पर छोटी आँखें, सजग खड़े कान और सघन, रोयेंदार तथा पिछले पैरों के टखनों को छूनेवाली लम्बी पूँछ, सब कुछ उसे राजसी विशेषता देता था । थी भी वह सामान्य कुत्तों से भिन्न।
 
अल्सेशियन कुता एक ही स्वामी को स्वीकार करता है। यदि परिस्थितियों के कारण एक व्यक्ति का स्वामित्व उसे सुलभ नहीं होता, तो वह सबके साथ सहचर-जैसा आचरण करने लगता है। दूसरे शब्दों में, आदेश किसी का नहीं मानता, परन्तु सबके स्नेहपूर्ण अनुरोध की रक्षा में तत्पर रहता है। लूसी की स्थिति भी स्वच्छन्द सहचरी के समान हो गई थी।

उत्तरायण में जो पगडंडी दो पहाड़ियों के बीच से मोटर-मार्ग तक जाती थी, उसके अंत में मोटर-स्टाप पर एक ही दूकान थी, जिसमें आवश्यक खाद्य-सामग्री प्राप्त हो सकती थी। शीतकाल में यह दो पर्वतीय भित्तियों का अन्तराल बर्फ से भर जाता था और उससे पगडंडी के अस्तित्व का चिह्न भी शेष नहीं रहता था । तब दूकान तक पहुँचने में असमर्थ उत्तरायण के निवासी, लूसी के गले में रुपये और सामग्री की सूची के साथ एक बड़ा अँगोछा या चादर बाँधकर उससे सामान लाने का अनुरोध करते थे। वंश-परम्परा से बर्फ में मार्ग बना लेने की सहज चेतना के कारण वह सारे व्यवधान पार कर दूकान तक पहुंच जाती। दूकानदार उसके गले से कपड़ा खोलकर, रुपया, सूची आदि लेने के उपरान्त सामान की गठरी उसके गले या पीठ से बाँध देता और लूसी सारे बोझ के साथ बर्फीला मार्ग पार करती हुई सकुशल लौट आती। किसी-किसी दिन उसे कई बार आना-जाना पड़ता था । कभी चीनी मँगवाई और चाय रह गई । कभी आटा याद रहा और आलू भूल गये। पर लूसी को मँगवानेवालों के लक्कड़पन से कोई शिकायत कभी नहीं रही । गले में कपड़ा बाँधते ही वह तीर की तरह दूकान की दिशा में चल देती। उसकी तत्परता के कारण मंगानेवालों में भूलने की प्रवृत्ति बढ़ती ही थी। एक दिन किसी अधिक ऊँचाई पर बसे पर्वतीय ग्राम से बर्फ में भटकता हुआ एक भूटिया कुता दूकान पर आ गया और लूसी से उसकी मैत्री हो गई । उन दोनों में आकृति की वही भिन्नता थी, जो एक तराशी हुई सुडौल मूर्ति और अनगढ़ शिलाखण्ड में होती है, परन्तु दुर्दिन के साथी होने के कारण वे सहचर हो गये ।
 
उन्हीं सर्दियों में लूसी ने दो बच्चों को जन्म देकर अपनी वंश-वृद्धि की, किन्तु उनमें से एक तो शीत के कारण मर गया और दूसरा अपनी ही जीवन-ऊष्मा के बल पर उस ठिठुरानेवाले परिवेश से जूझने लगा । शीतॠतु में प्राय: लकड़बग्घे ऊँचे पर्वतीय अंचल से नीचे उतर आते हैं और बर्फ में भटकते हुए मिल जाते हैं । वैसे तो यह हिंसक जीव कुत्ते से कुछ ही बड़ा होता है, परन्तु कुत्ता इसका प्रिय खाद्य होने के कारण रक्षणीय की स्थिति में आ जाता है।
 
सामान्य कुत्ते तो लकड़बग्घे को देखते ही स्तब्ध और निर्जीव से हो जाते हैं; अत: उन्हें घसीट ले जाने में इसे कोई प्रयास ही नहीं करना पड़ता। असामान्य भूटिये या अल्सेशियन फुते उससे संघर्ष करते हैं अवश्य, परन्तु अन्त: पराजित ही होते हैं। 4-5 दिन के बच्चों को छोड़कर लूसी फिर दूकान तक आने-जाने लगी थी।

एक संध्या के झुटपुटे में लूसी ऐसी गई कि फिर लौट ही नहीं सकी । बर्फ के दिनों में साँझ ही से सघन अन्धकार घिर आता है और हवा ऐसी तुषार बोझिल हो जाती है कि गंध भी वहन नहीं कर पाती। इसी से प्राय: शीतकाल में घ्राणशक्ति के कुछ कुंठित हो जाने के कारण कुत्ते लकड़बग्घे के आने की गंध पाने में असमर्थ रहते हैं और उसके अनायास आहार बन जाते हैं । सवेरे बर्फ पर कई बड़े-छोटे पंजों के तथा आगे-पीछे घसीटने-घिसटने के चिह्न देखकर निश्चय हो गया कि लूसी ने बहुत संघर्ष के उपरांत ही प्राण दिये होंगे । बर्फ पर रक्त के पनीले धब्बे ऐसे लगते थे मानो किसी बालक की ड्राइंग-पुस्तिका के सफेद पृष्ठ पर लाल स्याही की दावात उलट गई हो।
 
लूसी के लिये सभी रोये, परन्तु जिसे सबसे अधिक रोना चाहिए था, वह बच्चा तो कुछ जानता ही न था। एक दिन पहले उसकी आँखें खुली थीं; अत: माँ से अधिक वह दूध के अभाव में शोर मचाने लगा। दुग्ध-चूर्ण से दूध बनाकर उसे पिलाया, पर रजाई में भी वह माँ के पेट की उष्णता खोजता और न पाने पर रोता-चिल्लाता रहा । अन्त में हमने उसे कोमल ऊन और अधबुने स्वेटर की डलिया में रख दिया, जहाँ वह माँ के सामीप्य सुख के भ्रम में सो गया। डलिया में वह ऊन की गेंद जैसा ही लगता था।
 
आने के समय उसे अपने साथ प्रयाग लाना पड़ा । बड़े होने पर देखा कि वह अपनी माँ के समान ही विशिष्ट है। भूटिये बाप और अल्सेशियन माँ के रूप-रंग ने उसे जो वर्णसंकरता दी थी, उसके कारण न वह अल्सेशियन था, न भूटिया। रोमों के भूरे, पीले और काले रंगों के सम्मिश्रण से जो रंग बना था, वह एक विशेष प्रकार का धूपछाँही हो गया था । धूप पड़ने पर एक की झलक मिलती थी, छाँह में दूसरे की और दिन के उजाले में तीसरे की। कानों की चौड़ाई और नुकीलेपन में भी कुछ नवीनता थी। सिर ऊपर की और अन्य कुत्तों के सिर से बड़ा और चौड़ा था और नीचे लम्बोतरा, पर सुडौल। पूँछ अल्सेशियन कुत्तों की पूँछ के समान सघन रोमों से युक्त, पर ऊपर की ओर मुड़ी कुंडलीदार थी। पैर अल्सेशियन कुत्ते के पैरों के समान लम्बे, पर पंजे भूटिये के समान मजबूत, चौड़े और मुड़े हुए नाखूनों से युक्त थे। शरीर के ऊपर का भाग चौड़ा, पर नीचे का पतले पेट के कारण हल्का और तीव्र गति का सहायक था । आँखें न काली थी, न भूरी और न कंजी । उन गोल और काली कोरवाली आँखों का रंग शहद के रंग के समान था, जो धूप में तरल सुनहला हो जाता था और छाया में जमे हुए मधू-सा पारदर्शी लगता था।
 
आकृति की विशेषता के साथ उसके बल और स्वभाव में भी विशेषता थी। ऊँची दीवार को भी वह एक छलाँग में पार कर लेता था । भले का स्वर इतना भारी, मन्द और गूँजनेवाला था कि रात्रि में उसका एक बार भौंकना भी वातावरण की स्तब्धता को कम्पित कर देता था । अन्य कुत्तों के समान खाने के लिए लालायित रहना, प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए पूँछ हिलाना, कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए चाटना, याचक के दीनभाव से स्वामी के पीछे-पीछे घूमना, अकारण भौंकना, काटना आदि प्रकृतिदत्त स्वान-गुणों का उसमें सर्वथा अभाव था।
 
मैंने अनेक कुत्ते देखे और पाले हैं, किन्तु कुत्ते के दैन्य से रहित और उसके लिए अलभ्य दर्प से युक्त मैंने केवल नीलू को ही देखा है। उसके प्रिय से प्रिय खाद्य को भी यदि अवज्ञा के साथ फेंककर दिया जाता, तो वह उसकी ओर देखता भी नहीं, खाना तो दूर की बात है । यदि उसे किसी बात पर झिड़क दिया जाता तो बिना बहुत मनाये वह मेरे सामने ही न आता।
 
विगत बारह वर्षों से उसका बैठने का स्थान मेरे घर का बाहरी बरामदा ही रहा, जिसकी ऊपरी सीढ़ी पर पोर्टिको के सामने बैठकर वह प्रत्येक आने-जानेवाले का निरीक्षण करता रहता । मुझसे मिलनेवालों में वह प्राय: सबको पहचानता था । किसी विशेष परिचित को आया देखकर वह सदर्प धीरे-धीरे भीतर आकर मेरे कमरे के दरवाजे पर खड़ा हो जाता । उसका इस प्रकार आना ही मेरे लिए किसी मित्र की उपस्थिति की सूचना थी। मुझसे “आ रही हूँ” सुनने के उपरांत वह पुन: बाहर अपने निश्चित स्थान पर जा बैठता। न जाने किस सहज चेतना से वह अपरिचित या असमय आये व्यक्ति को जान लेता था तब नितान्त निरपेक्ष और उदासीन भाव से उसकी घंटी बजाना, नौकर का आकर समाचार ले जाना आदि देखता रहता।

कुत्ते भाषा नहीं जानते ध्वनि पहचानते हैं । नीलू का ध्वनि-ज्ञान इतना विस्तृत और गहरा था कि उससे कुछ कहना भाषा जाननेवाले मनुष्य से बात करने के समान हो जाता था । बाहर या रास्ते में घूमते हुए यदि कोई उससे कह देता “गुरु जी तुम्हें ढूंढ़ रही थीं नीलू” तो वह विद्युत गति से चहारदीवारी कूदकर मेरे कमरे के सामने आदेश की प्रतीक्षा में आकर खड़ा हो जाता । फिर कोई काम नहीं है, जाओ‘ कहने के पहले वह मूर्तिवत् एक स्थिति में ही खड़ा रह जाता। कभी-कभी मैं किसी कार्य में व्यस्त होने के कारण उसकी उपस्थिति जान ही नहीं पाती और उसे बहुत समय तक बिना हिले-डुले खड़ा रहना पड़ता ।
 
हिंसक और क्रोधी भूटिये बाप और आखेटप्रिय अल्सेशियन माँ से जन्म पाकर भी उसमें हिंसा प्रवृत्ति का कोई चिह्न नहीं था। तेरह वर्ष के दीर्घ जीवन में भी उसे किसी पशु-पक्षी पर झपटते या मारते नहीं देखा गया। उसका यह स्वभाव मेरे लिए ही नहीं, सब देखनेवालों के लिए आश्चर्य की घटना थी।
 
मेरे बंँगले के रोशनदानों में प्राय: गौरैय्या तिनकों से घोंसला बना लेती है । मुझे उनके परिश्रमपूर्वक बनाये हुए घोंसले उजाड़ना अच्छा नहीं लगता, अत: कालान्तर में उनमें अण्डों और पक्षि-शावकों की सृष्टि बस जाती है । कुछ-कुछ अंकुर जैसे पंख निकलते ही वे पक्षि-शावक उड़ने के असफल प्रयास में रोशनदानों से नीचे गिरने लगते हैं । इन दिनों नीलू उनके सतर्क पहरेदार का कर्तव्य संभाल लेता था। उसके भय से कोई भी कुत्ता-बिल्ली उन नादान उड़ने-गिरनेवालों को हानि पहुँचाने का साहस नहीं कर पाता था । कभी-कभी बहुत छोटे पक्षि-शावकों को पुन: घोंसले में रखवाने के लिए वह उन्हें हौले से मुख में दबाकर मेरे पास ले आता था । जब तक रोशनदान में सीढ़ी लगवाकर मैं उस बच्चे को घोंसले में पहुंचाने की व्यवस्था न कर लेती, तब तक वह या तो बड़ी कोमलता से उसे दबाये खड़ा रहता था या मेरे हाथ में देकर प्रतीक्षा की मुद्रा में देखता रहता । सवेरे नियमानुसार जब मैं मोर, खरगोश आदि को दाना देने निकलती, तब वह, चाहे जाड़ा हो चाहे बरसात, मुझे दरवाजे पर ही मिलता और मेरे साथ-साथ घूमता । पक्षियों के कक्ष में दो फुट ऊंँची दीवार पर जाली लगी हुई है । नीलू दीवार पर दोनों पंजे रखकर खड़ा हो जाता और अपनी गोल आँखें घुमाकर प्रत्येक कक्ष और उसमें रहनेवालों का निरीक्षण-परीक्षण करता रहता । उससे इस नियम में कभी व्यतिक्रम नहीं पड़ा।
 
उसका रात का कर्त्तव्य भी स्वेच्छा-स्वीकृत और निश्चित था। सबके सो जाने पर वह, गर्मियों में बाहर लॉन पर और सर्दियों में बरामदे में तख्त पर बैठकर पहरेदारी का कार्य करता। रात में कई-कई बार वह पूरे कम्पाउण्ड का और पशु-पक्षियों के घर का च़क्कर लगाता रहता। रात चाहे उजाली हो चाहे बादल गरज रहे हों, चाहे आंधी चल रही हो, उसके चक्कर को विराम नहीं था। रात के सन्नाटे में उसके मन्द-गम्भीर स्वर से ही हम अनुमान लगा पाते थे कि वह किस कोने में पहरा दे रहा है ।
 
खरगोश धरती के भीतर सुरंग-जैसे लम्बे और दोनों ओर द्वारवाले बिल खोद लेते हैं । एक रात मेरे खरगोश बिल खोदते-खोदते पड़ोस के दूसरे कम्पाउण्ड में जा निकले और उनमें से कई जो इस अभियान में अगुआ थे, जंगली बिल्ले द्वारा क्षत-विक्षत कर दिये गये। सुरंग से बाहर जानेवालों का जो हाल होता है, उससे भीतर रहनेवाले अनजान रहते हैं, अत: एक के पीछे एक निकलते हुए खरगोशों में सभी को मार्जारी या श्रृगाल का आहार बन जाना पड़ता। किन्तु उनके सौभाग्य से पहरे के नित्यक्रम में घूमते हुए नीलू ने संभवत: पत्तियों की सरसराहट से सजग होकर चहारदीवारी के पार देखा होगा और शीत की कुहराच्छन्न रात की मलिन चाँदनी में भी उसने खरगोशों के संकट को पहचान लिया होगा। उसके कूदकर दूसरी ओर पहुँचते ही बिल्ला तो भाग गया, परन्तु खरगोशों को बाहर निकलने से रोकने के लिए वह रात भर ओस से भीगता हुआ सुरंग के द्वार पर खड़ा रहा।

यह परोपकार नीलू के लिए बहुत महँगा पड़ा, क्योंकि उसे सर्दी लगने से न्यूमोनिया हो गया और कई दिनों तक इंजेक्शन, दवा आदि का कष्ट झेलना पड़ा । वैसे वह शान्त भाव से कड़वी दवा भी पी लेता था और सुई भी लगवा लेता था। एक बार जब मोटर-दुर्घटना में आहत हो मुझे मार्ग से ही अस्पताल जाना पड़ा, तब सन्ध्या तक मेरी प्रतीक्षा करके और कपड़े, चादर, कम्बल आदि सामान अस्पताल में ले जानेवालों की हड़बड़ी देखकर उसकी सहज चेतना ने किसी अनिष्ट का आभास पा लिया।
 
जो भी उस संध्या को मेरे बँगले पर पहुँचा, वह नीलू की विषादमयी निश्चेष्ट मुद्रा देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहा । जब तीन दिन तक उसने न कुछ खाया न पिया, तब डॉक्टर से अनुमति लेकर उसे अस्पताल लाया गया। पट्टियों के घटाटोप में मुझे अच्छी तरह देखने के लिए वह पलंग के चारों ओर घूमने लगा और फिर आश्वस्त होकर प्रहरी की चिरपरिचित मुद्रा में मेरे पलंग के नीचे जा बैठा। दो घंटे बाद बहुत समझाने-पुचकारने के उपरान्त ही उसे घर पहुँचाया जा सका।
 
तब से हर दूसरे दिन अस्पताल न ले जाने पर वह अनशन आरम्भ कर देता। इस प्रकार अस्पताल में भी वह नियमित रूप से मिलने आनेवालों में गिना जाने लगा और डॉक्टर, नर्सें, सब उससे परिचित हो गए।

नीलू को चौदह वर्ष का जीवन मिला था और जन्म से मृत्यु के क्षण तक वह मेरे पास ही रहा; अतः उससे सम्बद्ध घटनाओं और संस्मरणों की संख्या बहुत अधिक है।
 
कुत्तों में वह केवल कजली के सामीप्य से ही प्रसन्न रहता था, परन्तु कजली और बादल एक क्षण के लिए भी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे। परिणामतः नीलू बेचारा एकाकी ही रहा।
 
जीवन के सामान उसकी मृत्यु भी दैन्य से रहित थी। ‘कुत्ते की मौत मरना’ कहावत है, परन्तु यदि नीलू के समान शांत निर्लिप्त भाव से कोई मृत्यु का सामना कर सके, तो ऐसी मृत्यु मनुष्य को भी काम्य होगी।
 
मेरे पास अनेक जीव-जंतु हैं, परन्तु जिसके बुरा मान जाने की मुझे चिंता हो, ऐसा अब कोई नहीं है।

सुभद्रा महादेवी वर्मा | mahadevi verma

हमारे शैशवकालीन अतीत और प्रत्यक्ष वर्तमान के बीच में समय-प्रवाह का पाट ज्यों-ज्यों चौड़ा होता जाता है त्यों-त्यों हमारी स्मृति में अनजाने ही एक परिवर्तन लक्षित होने लगता है । शैशव की चित्रशाला के जिन चित्रों से हमारा रागात्मक संबंध गहरा होता है, उनकी रेखाएँ और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले होते चलते हैं कि हम वार्धक्य की धुँधली आँखों से भी उन्हें प्रत्यक्ष देखते रह सकते हैं । पर जिनसे ऐसा संबंध नहीं होता वे फीके होते-होते इस प्रकार स्मृति से धुल जाते हैं कि दूसरों के स्मरण दिलाने पर भी उनका स्मरण कठिन हो जाता है ।
 
मेरे अतीत की चित्रशाला में बहिन सुभद्रा से मेरे सखय का चित्र, पहली कोटि में रखा जा सकता है, क्योंकि इतने वर्षों के उपरांत भी उसकी सब रंग-रेखाएँ अपनी सजीवता में स्पष्ट हैँ।
 
एक सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी, एक पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनी से प्रश्न करती है, 'क्या तुम कविता लिखती हो ?' दूसरी ने सिर हिलाकर ऐसी अस्वीकृति दी जिसमें हाँ और नहीं तरल हो कर एक हो गए थे । प्रश्न करने वाली ने इस स्वीकृति-अस्वीकृति की संधि से खीझ कर कहा, 'तुम्हारी क्लास की लड़कियाँ तो कहती हैं कि तुम गणित की कापी तक में कविता लिखती हो । दिखायो अपनी कापी' और उत्तर की प्रतीक्षा में समय नष्ट न कर वह कविता लिखने की अपराघिनी को हाथ पकड़ कर खींचती हुई उसके कमरे में डेस्क के पास ले गई । नित्य व्यवहार में आने वाली गणित की कापी को छिपाना संभव नहीं था, अत: उसके साथ अंकों के बीच में अनधिकार सिकुड़ कर बैठी हुई तुकबन्दियां अनायास पकड़ में आ गईं । इतना दंड ही पर्याप्त था । पर इससे संतुष्ट न होकर अपराध की अन्वेषिका ने एक हाथ में चित्र-विचित्र कापी थामी और दूसरे में अभियुक्ता की उँगलियाँ कस कर पकड़ीं और वह हर कमरे में जा-जा कर इस अपराध की सार्वजनिक घोषणा करने लगी।
 
उस युग में कविता-रचना अपराधों की सूची में थी । कोई तुक जोड़ता है, यह सुनकर ही सुनने वालों के मुख की रेखाएँ इस प्रकार वक्रकुंचित जो जाती थीं मानों उन्हें कोई कटु-तिक्त पेय पीना पड़ा हो ।
 
ऐसी स्थिति में गणित जैसे गंभीर महत्वपूर्ण विषय के लिए निश्चित पृष्ठों पर तुक जोड़ना अक्षम्य अपराध था । इससे बढ़कर कागज का दुरुपयोग और विषय का निरादर और हो ही क्या सकता था । फिर जिस विद्यार्थी की बुद्धि अंकों के बीहड़ वन में पग-पग उलझती है उससे तो गुरु यही आशा रखता है कि वह हर साँस को अंक जोड़ने-घटाने की किया बना रहा होगा । यदि वह सारी धरती को कागज बना कर प्रश्नों को हल करने के प्रयास से नहीं भर सकता तो उसे कम से कम सौ-पचास पृष्ठ, सही न सही तो गलत प्रश्न-उत्तरों से भर लेना चाहिए । तब उसकी भ्रांत बुद्धि को प्रकृतिदत्त मान कर उसे क्षमा दान का पात्र समझा जा सकता है, पर जो तुकबंदी जैसे कार्य से बुद्धि की धार गोंठिल कर रहा है वह तो पूरी शक्ति से दुर्बल होने की मूर्खता करता है, अत: उसके लिए न सहानुभूति का प्रश्न उठता है न क्षमा का ।

मैंने होंठ भींच कर न रोने का जो निश्चय किया वह न टूटा तो न टूटा । अंत में मुझे शक्ति-परीक्षा में उत्तीर्ण देख सुभद्रा जी ने उत्फुल्ल भाव से कहा, 'अच्छा तो लिखती हो । भला सवाल हल करने में एक दो तीन जोड़ लेना कोई बड़ा काम है !' मेरी चोट अभी दु:ख रही थी, परंतु उनकी सहानुभूति और आत्मीय भाव का परिचय पाकर आँखें सजल हो आईं । 'तुमने सबसे क्यों बताया ?' का सहास उत्तर मिला 'हमें भी तो यह सहना पड़ता है । अच्छा हुआ अब दो साथी हो गए ।
 
बहिन सुभद्रा का चित्र बनाना कुछ सहज नहीं है क्योंकि चित्र की साधारण जान पड़ने वाली प्रत्येक रेखा के लिए उनकी भावना की दीप्ति 'संचारिनी दीपशिखेव' बनकर उसे असाधारण कर देती है । एक-एक कर के देखने से कुछ भी विशेष नहीं कहा जाएगा, परंतु सबकी समग्रता में जो उदृभासित होता था, उसे दृष्टि से अधिक हृदय ग्रहण करता था ।
 
मझोले कद तथा उस समय की कृश देहयष्टि में ऐसा कुछ उग्र या रौद्र नहीं था जिसकी हम वीरगीतों की कवयित्री में कल्पना करते हैं । कुछ गोल मुख, चौडा माथा, सरल भृकुटियां, बड़ी और भावस्नात आँखें, छोटी सुडौल नासिका, हंसी को जमा कर गढ़े हुए से ओठ और दृढ़ता सूचक ठुड्डी...सब कुछ मिलाकर एक अत्यंत निश्चल, कोमल, उदार व्यक्तित्व वाली भारतीय नारी का ही पता देते थे । पर उस व्यक्तित्व के भीतर जो बिजली का छंद था उसका पता तो तब मिलता था, जब उनके और उनके निश्चित लक्ष्य के भीतर में कोई बाधा आ उपस्थित होती थी । 'मैंने हंसना सीखा है मैं नहीं जानती रोना' कहने वाली की हंसी निश्चय ही असाधारण थी । माता की गोद में दूध पीता बालक जब अचानक हंस पड़ता है, तब उसकी दूध से धुली हंसी में जैसी निश्चिंत तृप्ति और सरल विश्वास रहता है, बहुत कुछ वैसा ही भाव सुभद्रा जी की हंसी में मिलता था । वह संक्रामक भी कम नहीं थी क्योंकि दूसरे भी उनके सामने बात करने से अधिक हंसने को महत्त्व देने लगते थे ।

वे अपने बचपन की एक घटना सुनाती थीं । कृष्ण और गोपियों की कथा सुनकर एक दिन बालिका सुभद्रा ने निश्चय किया कि वह गोपी बन कर ग्वालों के साथ कृष्ण को ढूंढने जाएगी ।
 
दूसरे दिन वे लकुटी लेकर गायों और ग्वालों के झुंड के साथ कीकर और बबूल से भरे जंगल में पहुंच गई । गोधूली वेला में चरवाहे और गाएँ तो घर की ओर लौट गए, पर गोपी बनने की साधवाली बालिका कृष्ण को खोजती ही रह गई । उसके पैरों में कांटे चुभ गए, कंटीली झाडियों में कपड़े उलझ कर फट गए, प्यास से कंठ सूख गया और पसीने पर धूल की पर्त जम गई, पर वह धुनवाली बालिका लौटने को प्रस्तुत नहीं हुई । रात होते देख घरवालों ने उन्हें खोजना आरम्भ किया और ग्वालों से पूछते-पूछते अंधेरे करील-वन में उन्हें पाया ।
 
अपने निश्चित लक्ष्य-पथ पर अडिग रहना और सब-कुछ हंसते-हंसते सहना उनका स्वभावजात गुण था । क्रास्थवेट गर्ल्स कालेज में जब वे आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थीं, तभी उनका विवाह हुआ और उन्होंने पतिगृह के लिए प्रस्थान किया । स्वतन्त्रता के युद्ध के लिए सन्नद्ध सेनानी पति को वे विवाह से पहले देख भी चुकी थीं और उनके विचारों से भी परिचित थीं । उनसे यह छिपा नहीं था कि नव-वधू के रूप में उनका जो प्राप्य है उसे देने का न पति को अवकाश है न लेने का उन्हें । वस्तुत: जिस विवाह में मंगल-कंकण ही रण-कंकण बन गया, उसकी गृहस्थी भी कारागार में ही बसाई जा सकती थी । और उन्होंने बसाई भी वहीं । पर इस साधना की मर्मव्यथा को वही नारी जान सकती है जिसने अपनी देहली पर खड़े होकर भीतर मंगल चौक पर रखे मंगल कलश, तुलसी चौरे पर जलते हुए घी के दीपक और हर कोने से स्नेहभरी बाँहें फैलाए हुए अपने घर पर दृष्टि डाली हो और फिर बाहर के अंधकार, आँधी और तूफान को तौला हो और तब घर की सुरक्षित सीमा पार कर, उसके सुन्दर मधुर आह्वान की ओर से पीठ फेर कर अंधेरे रास्ते पर काँटों से उलझती चल पड़ी हो । उन्होंने हँसते-हँसते ही बताया था कि जेल जाते समय उन्हें इतनी अधिक फूल-मालाएँ मिल जाती थीं कि वे उन्हीं का तकिया बना लेती थीं और लेटकर पुष्पशैया के सुख का अनुभव करती थीं ।
 
एक बार भाई लक्ष्मणसिंह जी ने मुझसे सुभद्राजी की स्नेहभरी शिकायत की, 'इन्होंने मुझसे कभी कुछ नहीं मांगा ।' सुभद्रा जी ने अर्थ भरी हँसी में उत्तर दिया था, 'इन्होंने पहले ही दिन मुझसे कुछ मांगने का अधिकार मांग लिया था महादेवी ! यह ऐसे ही होशियार हैं, मांगती तो वचन-भंग का दोष मेरे सर पड़ता, नहीं मांगा तो इनके अहंकार को ठेस लगती है ।'
 
घर और कारागार के बीच में जीवन का जो क्रम विवाह के साथ आरंभ हुआ था वह अंत तक चलता ही रहा । छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत रख पाती थीं यह सोचकर विस्मय होता है । कारागार में जो संपन्न परिवारों की सत्याग्रही माताएँ थीं, उनके बच्चों के लिए बाहर से न जाने कितना मेवा-मिष्टान्न आता रहता था । सुभद्रा जी की आर्थिक परिस्थितियों में जेल-जीवन का ए और सी क्लास समान ही था। एक बार जब भूख से रोती बालिका को बहलाने के लिए कुछ नहीं मिल सका तब उन्होंने अरहर दलनेवाली महिला-कैदियों से थोड़ी-सी अरहर की दाल ली और उसे तवे पर भून कर बालिका को खिलाया । घर आने पर भी उनकी दशा द्रोणाचार्य जैसी हो जाती थी, जिन्हें दूध के लिए मचलते हुए बालक अश्वत्थामा को चावल के घोल से सफेद पानी दे कर बहलाना पड़ा था । पर इन परीक्षायों से उनका मन न कभी हारा न उसने परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए कोई समझौता स्वीकार किया ।

उनके मानसिक जगत में हीनता की किसी ग्रन्थि के लिए कभी अवकाश नहीं रहा, घर से बाहर बैठ कर वे कोमल और ओज भरे छंद लिखने वाले हाथों से गोबर के कंडे पाथती थीं । घर के भीतर तन्मयता से आँगन लीपती थीं, बर्तन मांजती थीं । आँगन लीपने की कला में मेरा भी कुछ प्रवेश था, अत: प्राय: हम दोनों प्रतियोगिता के लिए आंगन के भिन्न-भिन्न छोरों से लीपना आरंभ करते थे । लीपने में हमें अपने से बड़ा कोई विशेषज्ञ मध्यस्थ नहीं प्राप्त हो सका, अत: प्रतियोगिता का परिणाम सदा अघोषित ही रह गया पर आज मैं स्वीकार करती हूँ कि ऐसे कार्य में एकांत तन्मयता केवल उसी गृहिणी में संभव है जो अपने घर की धरती को समस्त हृदय से चाहती हो और सुभद्रा ऐसी ही गृहिणी थीं । उस छोटे से अधबने घर की छोटी-सी सीमा में उन्होंने क्या नहीं संगृहीत किया । छोटे-बड़े पेड़, रंग-बिरंगे फूलों के पौधों की क्यारियाँ, ॠतु के अनुसार तरकारियाँ, गाय, बच्छे आदि-आदि बड़ी गृहस्थी की सब सज्जा वहाँ विराट दृश्य के छोटे चित्र के समान उपस्थित थी । अपने इस आकार में छोटे साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादु से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा । जिन संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे । पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजनशीला नारी जानती थी कि काँटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है तभी वे टूट कर दूसरों को बेधने की शक्ति खोते हैं । परीक्षाएं जब मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को क्षत-विक्षत कर डालती हैं तब उनमें उत्तीर्ण होने-न-होने का कोई मूल्य नहीं रह जाता ।
 
नारी के हदय में जो गम्भीर ममता-सजल वीर-भाव उत्पन्न होता है वह पुरुष के उग्र शौर्य से अधिक उदात्त और दिव्य रहता है । पुरुष अपने व्यक्तिगत या समूहगत रागद्वेष के लिए भी वीर धर्म अपना सकता है और अहंकार की तृप्ति-मात्र के लिए भी । पर नारी अपने सृजन की बाधाएँ दूर करने के लिए या अपनी कल्याणी सृष्टि की रक्षा के लिए ही रुद्र बनती है । अत: उसकी वीरता के समकक्ष रखने योग्य प्रेरणाएँ संसार के कोश में कम हैं । मातृशक्ति का दिव्य रक्षक उद्धारक रूप होने के कारण ही भीमाकृति चंडी, वत्सला अम्बा भी है, जो हिंसात्मक पाशविक शक्तियों को चरणों के नीचे दबाकर अपनी सृष्टि के मंगल की साधना करती है ।
 
सुभद्रा में जो महिमामयी मां थी, उसकी वीरता का उत्स भी वात्सल्य ही कहा जा सकता है । न उनका जीवन किसी क्षणिक उत्तेजना से संचालित हुआ न उनकी ओज भरी कविता वीर-रस की घिसी-पिटी लीक पर चली । उनके जीवन में जो एक निरन्तर निखरता हुआ कर्म का तारतम्य है वह ऐसी अंतरव्यापिनी निष्ठा से जुड़ा हुआ है जो क्षणिक उत्तेजना का दान नहीं मानी जा सकती । इसी से जहाँ दूसरों को यात्रा का अंत दिखाई दिया वहीं उन्हें नई मंजिल का बोध हुआ ।

थक कर बैठने वाला अपने न चलने की सफाई खोजते-खोजते लक्ष्य पा लेने की कल्पना कर सकता है, पर चलने वाले को इसका अवकाश कहाँ !
 
जीवन के प्रति ममता भरा विश्वास ही उनके काव्य का प्राण है :
 
सुख भरे सुनहले बादल
 
रहते हैं मुझको घेरे ।
 
विश्वास प्रेम साहस हैं
 
जीवन के साथी मेरे ।
 
मधुमक्षिका जैसे कमल से लेकर भटकटैया तक और रसाल से लेकर आक तक, सब-मधुरतिक्त एकत्र करक उसे अपनी शक्ति से एक मधु बनाकर लौटाती है, बहुत कुछ वैसा ही आदान-सम्प्रदान सुभद्रा जी का था । सभी कोमल-कठिन सह्य-असह्य अनुभवों का परिपाक दूसरों के लिए एक ही होता था । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनमें विवेचन की तीक्ष्ण दृष्टि का अभाव था । उनकी कहानियां प्रमाणित करती हैं कि उन्होंने जीवन और समाज की अनेक समस्यायों पर विचार किया और कभी अपने निष्कर्ष के साथ और कभी दूसरों के निष्कर्ष के लिए उन्हें बड़े चमत्कारिक ढंग से उपस्थित किया ।
 
जब स्त्री का व्यक्तित्व उसके पति से स्वतंत्र नहीं माना जाता था तब वे कहती हैं, 'मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है । फिर चाहे यह स्त्रीशरीर के अंदर निवास करती हो चाहे पुरुष-शरीर के अंदर । इसी से पुरुष और स्त्री का अपना-अपना व्यक्तित्व अलग रहता है ।' जब समाज और परिवार की सत्ता के विरुद्ध कुछ कहना अधर्म माना जाता था तब वे कहती हैं, 'समाज और परिवार व्यक्ति को बंधन में बाँधकर रखते हैं । ये बंधन देशकालानुसार बदलते रहते हैं और उन्हें बदलते रहना चाहिए वरना वे व्यक्तित्व के विकास में सहायता करने के बदले बाधा पहुंचाने लगते हैं । बंधन कितने ही अच्छे उद्देश्य से क्यों न नियत किए गए हों, हैं बंधन ही, और जहाँ बंधन है वहाँ असंतोष है तथा क्रांति है ।

परंपरा का पालन ही जब स्त्री का परम कर्तव्य समझा जाता था तब वे उसे तोड़ने की भूमिका बाँधती हैं, 'चिर-प्रचलित रूढ़ियों और चिर-संचित विश्वासों को आघात पहुंचानेवाली हलचलों को हम देखना-सुनना नहीं चाहते । हम ऐसी हलचलों को अधर्म समझकर उनके प्रति आँख मींच लेना उचित समझते हैं, किंतु ऐसा करने से काम नहीं चलता । यह हलचल और क्रांति हमें बरबस झकझोरती है और बिना होश में लाए नहीं छोड़ती।'
 
अनेक समस्यायों की ओर उनकी दृष्टि इतनी पैनी है कि सहज भाव से कहीं सरल कहानी का अन्त भी हमें झकझोर डालता है ।
 
वे राजनीतिक जीवन में ही विद्रोहिणी नहीं रहीं, अपने पारिवारिक जीवन में भी उन्होंने अपने विद्रोह को सफलतापूर्वक उतार कर उसे सृजन का रूप दिया था ।
 
सुभद्रा जी के अध्ययन का क्रम असमय ही भंग हो जाने के कारण उन्हें विश्वविद्यालय की शिक्षा तो नहीं मिल सकी, पर अनुभव की पुस्तक से उन्होंने जो सीखा उसे उनकी प्रतिभा ने सर्वथा निजी विशेषता दे दी है ।
 
भाषा, भाव छंद की दृष्टि से नए, 'झांसी की रानी' जैसे वीर-गीत तथा सरल स्पष्टता में मधुर प्रगीत मुक्त, यथार्थवादिनी मार्मिक कहानियां आदि उनकी मौलिक प्रतिभा के ही सृजन हैं ।
 
ऐसी प्रतिभा व्यावहारिक जीवन को अछूता छोड़ देती तो आश्चर्य की बात होती ।
 
पत्नी की अनुगामिनी, अर्धांगिनी आदि विशेषतायों को अस्वीकार कर उन्होंने भाई लक्ष्मणसिंह जी को पत्नी के रूप में ऐसा अभिन्न मित्र दिया जिसकी बुद्धि और शक्ति पर निर्भर रह कर अनुगमन किया जा सके ।
 
अजगर की कुंडली के समान, स्त्री के व्यक्तित्व को कस कर चर-चर कर देनेवाले अनेक सामाजिक बंधनों को तोड़ फेंकने में उनका जो प्रयास लगा होगा, उसका मूल्यांकन आज संभव नहीं है ।
 
उस समय बच्चों के लालन-पालन में मनोविज्ञान को इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं मिला था और प्राय: सभी माता-पिता बच्चों को शिष्टता सिखाने में स्वयं अशिष्टता की सीमा तक पहुंच जाते थे । सुभद्रा जी का कवि-हृदय यह विधान कैसे स्वीकार कर सकता था ! अत: उनके बच्चों को विकास का जो मुक्त वातावरण मिला उसे देखकर सब समझदार निराशा से सिर हिलाने लगे । पर जिस प्रकार यह सत्य है कि सुभद्रा जी ने अपने किसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने के लिए वाध्य नहीं किया, उसी प्रकार यह भी सत्य है कि किसी बच्चे ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उसकी महीयसी मां को किंचित् भी क्षुब्ध होने का कारण मिला हो । उनके वात्सल्य का विधान ही अलिखित और अटूट था।

अपनी संतान के भविष्य को सुखमय बनाने के लिए उनके निकट कोई भी त्याग अकरणीय नहीं रहा । पुत्री के विवाह के विषय में तो उन्हें अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ा ।
 
उन्होंने एक क्षण के लिए भी इस असत्य को स्वीकार नहीं किया कि जातिवाद की संकीर्ण तुला पर ही वर की योग्यता तोली जा सकती है । इतना ही नहीं, जिस कन्यादान की प्रथा का सब मूक-भाव से पालन करते आ रहे थे उसी के विरूद्ध उन्होंने घोषणा की, 'मैं कन्यादान नहीं करूँगी । क्या मनुष्य मनुष्य को दान करने का अधिकारी है ? क्या विवाह के उपरांत मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी ?' उस समय तक किसी ने, और विशेषत: किसी स्त्री ने ऐसी विचित्र और परंपरा-विरुद्ध बात नहीं कहीँ थी ।
देश की जिस स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जीवन के वासंती सपने अंगारों पर रख दिए थे, उसकी प्राप्ति के उपरांत भी जब उन्हें सब ओर अभाव और पीड़ा दिखायी दी तब उन्होंने अपने संघर्षकालीन साथियों से भी विद्रोह किया । उनकी उग्रता का अंतिम परिचय तो विश्ववंद्य बापू की अस्थिविसर्जन के दिन प्राप्त हुआ । वे कई सौ हरिजन महिलायों के जुलूस के साथ-साथ सात भील पैदल चलकर नर्मदा किनारे पहुंचीं । पर अन्य संपन्न परिवारों की सदस्याएं मोटरों पर ही जा सकीं । जब अस्थिप्रवाह के उपरांत संयोजित सभा के घेरे में इन पैदल आने वालों को स्थान नहीं दिया गया तब सुभद्रा जी का क्षुब्ध हो जाना स्वाभाविक ही था । उनका क्षात्रधर्म तो किसी प्रकार के अन्याय के प्रति क्षमाशील हो नहीं सकता था । जब उन हरिजनों को उनका प्राप्य दिला सकीं तभी वे स्वयम् सभा में सम्मलित हुईं ।

सातवीं और पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनियों के सख्य को सुभद्रा जी के सरल स्नेह ने ऐसी अमिट लक्ष्मण-रेखा से घेर कर सुरक्षित रखा कि समय उस पर कोई रेखा नहीं खीच सका । अपने भाई-बहिनों में सबसे बड़ी होने के कारण मैं अनायास ही सबकी देख-रेख और चिंता की अधिकारिणी बन गई थी । परिवार में जो मुझसे बड़े थे उन्होंने भी मुझे ब्रह्मसूत्र की मोटी पोथी में आँख गड़ाए देखकर अपनी चिंता की परिधि से बाहर समझ लिया था । पर केवल सुभद्रा पर न मेरी मोटी पोथियों का प्रभाव पड़ा न मेरी समझदारी का । अपने व्यक्तिगत संबंधों में हम कभी कुतूहली बाल-भाव से मुक्त नहीं हो सके । सुभद्रा के मेरे घर आने पर भक्तिन तक मुझ पर रौब जमाने लगती थी । क्लास में पहुंच कर वह उनके आगमन की सूचना इतने ऊँचे स्वर में इस प्रकार देती कि मेरी स्थिति ही विचित्र हो जाती 'ऊ सहोदरा विचरिअऊ तो इनका देखै बरे आइ के अकेली सूने घर माँ बैठी हैं । अउर इनका कितबियन से फुरसत नाहिन बा' । एम.ए., बी.ए के विद्यार्थियों के सामने जब एक देहातिन बुढ़िया गुरु पर कर्तव्य-उल्लंघन का ऐसा आरोप लगाने लगे तो बेचारे गुरु की सारी प्रतिष्ठा किरकिरी हो सकती थी । पर इस अनाचार को रोकने का कोई उपाय नहीं था । सुभद्रा जी के सामने न भक्तिन को डांटना संभव था न उसके कथन की उपेक्षा करना । बंगले में आकर देखती कि सुभद्रा जी रसोई घर में या बरामदे में भानमती का पिटारा खोले बैठी हैं और उसमें से अद्भुत वस्तुएं निकल रहीं हैं । छोटी-छोटी पत्थर या शीशे की प्यालियाँ, मिर्च का अचार, बासी पूरी, पेड़े, रंगीन चकला-बेलन, चुटीली, नीली-सुनहली चूड़ियां आदि-आदि सब कुछ मेरे लिए आया है, इस पर कौन विश्वास करेगा ! पर वह आत्मीय उपहार मेरे निमित्त ही आता था।
 
ऐसे भी अवसर आ जाते थे जब वे किसी कवि-सम्मेलन में आते-जाते प्रयाग उतर नहीं पाती थीं और मुझे स्टेशन जाकर ही उनसे मिलना पड़ता था । ऐसी कुछ क्षणों की भेंट में भी एक दृश्य की अनेक आवृत्तियां होती ही रहती थीं । वे अपने थैले से दो चमकीली चूड़ियाँ निकालकर हँसती हुई पूछतीं, 'पसंद हैं ? मैंने दो तुम्हारे लिए, दो अपने लिए खरीदी थीं । तुम पहनने में तोड़ डालोगी । लायो अपना हाथ, मैं पहना देती हूँ ।' पहन लेने पर वे बच्चों के समान प्रसन्न हो उठतीं।
 
हम दोनों जब साथ रहती थीं तब बात में एक मिनिट और हँसी में पांच मिनट का अनुपात रहता था । इसी से प्राय: किसी सभा-समिति में जाने के पहले न हँसने का निश्चय करना पड़ता था । एक दूसरे की ओर बिना देखे गंभीर भाव से बैठे रहने की प्रतिज्ञा करके भी वहाँ पहुंचते ही एक-न-एक वस्तु या दृश्य सुभद्रा के कुतूहली मन को आकर्षित कर लेता और मुझे दिखाने के लिए वे चिकोटी तक काटने से नहीं चूकतीं । तब हमारी शोभा-सदस्यता की जो स्थिति हो जाती थी, उसका अनुमान सहज है ।

अनेक कवि-सम्मेलनों में हमने साथ भाग लिया था, पर जिस दिन मैंने अपने न जाने का निश्चय और उसका औचित्य उन्हें बता दिया उस दिन से अंत तक कभी उन्होंने मेरे निश्चय के विरुद्ध कोई आग्रह नहीं किया । आर्थिक स्थितियाँ उन्हें ऐसे निमंत्रण स्वीकार करने के लिए विवश कर देती थीं, परंतु मेरा प्रश्न उठते ही वे कह देती थीं, "मैं तो विवशता से जाती हूं, पर महादेवी नहीं जाएगी, नहीं जाएगी ।'
 
साहित्य-जगत में आज जिस सीमा तक व्यक्तिगत स्पर्द्धा ईर्ष्या-द्वेष है, उस सीमा तक तब नहीं था, यह सत्य है । पर एक दूसरे के साहित्य-चरित्र-स्वभाव सम्बंधी निंदा-पुराण तो सब युगों में नानी की कथा के समान लोकप्रियता पा लेता है । अपने किसी भी परिचित-अपरिचित साहित्य-साथी की त्रुटियों के प्रति सहिष्णु रहना और उसके गुणों के मूल्यांकन में उदारता से काम लेना सुभद्रा जी की निजी विशेषता थी । अपने को बड़ा बनाने के लिए दूसरों को छोटा प्रमाणित करने की दुर्बलता उनमें असंभव थी ।
 
वसंत पंचमी को पुष्पाभरणा, आलोकवसना धरती की छवि आँखों में भरकर सुभद्रा ने विदा ली । उनके लिए किसी अन्य विदा की कल्पना ही कठिन थी।
 
एक बार बात करते-करते मृत्यु की चर्चा चल पड़ी थी । मैंने कहा, 'मुझे तो उस लहर की-सी मृत्यु चाहिए जो तट पर दूर तक आकर चुपचाप समुद्र में लौट कर समुद्र बन जाती है ।' सुभद्रा बोली, 'मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियां गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे । अब बताओ तुम्हारी नामधाम रहित लहर से यह आनंद अच्छा है या नहीं ।
उस दिन जब उनके पार्थिव अवशेष को त्रिवेणी ने अपने श्यामल-उज्ज्वल अंचल में समेट लिया तब नीलम-फलक पर श्वेत चन्दन से बने उस चित्र की रेखाओं में बहुत वर्षों पहले देखा एक किशोर-मुख मुस्कराता जान पड़ा ।
 
'यहीं कहीं पर बिखर गई वह छिन्न विजय माला सी !'
 
('पथ के साथी' में से)

दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त) महादेवी वर्मा | mahadevi verma

मैं गुप्त जी को कब से जानती हूं, इस सीधे से प्रश्न का मुझसे आज तक कोई सीधा-सा उत्तर नहीं बन पड़ा। प्रश्न के साथ ही मेरी स्मृति अतीत के एक धूमिल पृष्ठ पर उंगली रख देती है जिस पर न वर्ष, तिथि आदि की रेखाएँ हैं और न परिस्थितियों के रंग। केवल कवि बनने के प्रयास में बेसुध एक बालिका का छाया-चित्र उभर आता है।
 
ब्रजभाषा में जिनका कविकंठ फूटा है उनके निकट समस्यापूर्ति की कल्पना-व्यायाम अपरिचित न होगा। कवि बनने की तीव्र इच्छा रहते हुए भी मुझे यह अनुष्ठान गणि की पुस्तकों के सवाल जैसी अप्रिय लगता था, क्योंकि दोनों ही में उत्तर पहले निश्चित रहता है और विद्यार्थी को उन तक पहुंचने का टेढ़ा-मेढ़ा क्रम खोज निकालना पड़ता है। पंडित जी गणित के प्रश्नों के संबंध में जितने मुक्तहस्त थे, समस्याओं के विषय में भी उतने ही उदार थे। अतः दर्जनों गणित के प्रश्नों और समस्याओं के बीच में दौड़ लगाते-लगाते मन कभी समझ नहीं पाता था कि गणित के प्रश्नों का हल करना सहज है अथवा समस्या की पूर्ति।

कल्पना के किसी अलक्ष्य दलदल में आकंठ ही नहीं, आशिखा मग्न किसी उक्ति को समस्या रूपी पूँछ पकड़कर बाहर खींच लाने में परिश्रम कम नहीं पड़ता था। इस परिश्रम के नाप-तोल का कोई साधन नहीं था, पर सबसे अधिक अखरता था किसी सहृदय दर्शक का अभाव। कभी बाहर बैठक की मेज पर बैठ कर, कभी भीतर तख्त पर लेट कर और कभी आम की डाल पर समासीन होकर मैं अपने शोध-कार्य में लगी रहती थी। उक्ति को पाते ही सरकंडे की कलम की चौड़ी नोक से मोटे अक्षरों की जंजीर से बांधकर कैद कर देती थी। तब कान, गाल आदि पर लगी स्याही ही मेरी उज्ज्वल विजय का विज्ञापन बन जाती थी।
 
ऐसे ही एक उक्ति-अहेर में मेरे हाथ में ऐसी पूंछ आ गई जिसका वास्तविक अधिकारी मेरे ज्ञात-जगत की सीमा में नहीं था। ‘मेघ बिना जलवृष्टि भई है।’ अवश्य ही यह समस्या किसी प्रकार पंडित जी की दृष्टि से बचाकर ऐसी समस्या के बाड़े में प्रवेश पा गई जो मेरे लिए ही सुरक्षित थी, क्योंकि साधारणतः पंडित मेरे अनुभव की सीमा का ध्यान रखते थे। बचपन में जिज्ञासा इतनी तीव्र होती है कि बिना कार्य कारण स्पष्ट किए एक पग बढ़ना भी कठिन हो जाता है। बादल पानी बिना बरसाए हुए रह सकते हैं, परंतु पानी तो उनके बिना बरस नहीं सकता। उस सम लक्षणा-व्यंजना की गुंजाइश नहीं थी, अतः मन में बारंबार प्रश्न उठने लगा, बादलों के बिना पानी कैसे बरसा और यदि बरसा तो किसने बरसाया ?
 
प्रयत्न करते-करते मेरे माछे और लगा पर स्याही से हिंदुस्तान की रेलवे-लाइन का नक्शा बन गया और मेरे सकंडे की कलम की परोक टूट गई, पर वह उक्ति न मिल सकी जो मेघों के रूठ जाने पर पानी बरसाने का कार्य कर सके।

अतीत के अनेक राजा रानियों और घटनाओं को मैं कल्लू की माँ की आँखों में देखती थी। विधि निषेध के अनेक सूत्रों की वह व्याख्याकार थी। मेघ रहित वृष्टि के संबंध में भी मैंने अपनी धृतराष्ट्रता स्वीकार उसी की सहायता चाही। समस्या जैसे मेरे ज्ञान की परिधि के परे थी, आकाश के हस्ती नक्षत्र का नक्षत्रत्व वैसे ही उसके विश्वास की सीमा के बाहर था। वह जानती थी कि आकाश का हाथी सूंड में पानी भर कर उंडेल देता है तब तक कई-कई दिन तक वर्षा की झड़ी लगी रहती है। मैंने सोचा हो-न-हो मेघों की बेगार ढोने वाला ही स्वर्ग का बेकार हाथी समस्या का लक्ष्य है। पर इस कष्टप्रद निष्कर्ष को सवैया में कैसे उतारा जाय ? इसी प्रश्न में कई दिन बीत गए। उन्हीं दिनों सरस्वती पत्रिका और उसमें प्रकाशित गुप्त जी की रचनाओं से मेरा नया-नया परिचय हुआ था। बोलने की भाषा में कविता लिखने की सुविधा मुझे बार-बार खड़ी बोली की कविता की ओर आकर्षित करती थी। इसके अतिरिक्त रचनाओं से ऐसा आभास नहीं मिलता था कि उनके निर्माताओं ने मेरी तरह समस्या पूर्ति का कष्ट झेला है। उन कविताओं के छंदबंध भी सवैया छंदों में सहज जान पड़ते थे और अहो-कहो आदि तुक तो मानो मेरे मन के अनुरूप ही गढ़े गये थे।
 
अंत में मैंने ‘मेघ बिना जलवृष्टि भई है’ का निम्न पंक्तियों में काया-कल्प किया।

हाथी न अपनी सूंड में यदि नीर भल लाता अहो;
 
तो किस तरह बादल बिना जलवृष्टि हो सकती कहो ।
 
समस्यापूर्ति के स्थान में जब मैंने यह विचित्र तुकबंदी पंडित जी के सामने रखी तब वे विस्मय से बोल उठे, ‘अरे, यह यहां भी पहुंच गए। उनका लक्ष्य मेरी खड़ी बोली के कवि थे अथवा काव्य, यह आज बताना संभव नहीं। पर उस दिन खड़ी बोली की तुकबंदी से मेरा जो परिचय हुआ उसे मैं गुप्तजी का परिचय मानती हूं। उसके उपरांत मैं जो कुछ लिखती उसके अंत में अहो जैसा तुकांत रख कर उसे खड़ी बोली का जामा पहना देती। राजस्थान की एक गाथा भी मैंने हरिगीतिका छंद में लिख डाली थी, जिसके खो जाने के कारण मुझे एक हंसने योग्य कृतित्व से मुक्ति मिल गई है।
 
गुप्त जी की रचनाओं से मेरा जितना दीर्घकालीन परिचय है उतना उनसे नहीं। उनका एक चित्र, जिसमें दाढ़ी और पगड़ी साथ उत्पन्न हुई-सी जान पड़ती है, मैंने तब देखा जब मैं काफी समझदार हो गई थी। पर तब भी उनकी दाढ़ी देखकर मुझे अपने मौलवी साहब का स्मरण हो आता था। यदि पहले मैंने वह चित्र देखा होता तो, खड़ी बोली की काव्य-रचना का अंत उर्दू की पढ़ाई के समान होता या नहीं, यह कहना कठिन है।
 
गुप्त जी के बाह्य दर्शन में ऐसा कुछ नहीं है जो उन्हें असाधारण सिद्ध कर सके। साधारण मझोला कद, साधारण छरहरा गठन, साधारण गहरा गेहुआं या हल्का सांवला रंग, साधारण पगड़ी, अंगरखा, धोती, या उसकी आधुनिक सस्करण, गांधी टोपी, कुरता-धोती और इस व्यापक भारतीयता से सीमित सांप्रदायिकता का गठबंधन-सा करती हुई तुलसी कंठी।

अपनी बात (अतीत के चल-चित्र) महादेवी वर्मा | mahadevi verma

समय-समय पर जिन व्यक्तियों से सम्पर्क ने मेरे चिन्तन की दिशा और संवेदन को गति दी है, उनके संस्मरणों का श्रेय जिसे मिलना चाहिए उसके सम्बन्ध में मैं कुछ विशेष नहीं बता सकती। कहानी एक युग पुरानी, पर करुणा से भीगी है। मेरे एक परिचित परिवार में स्वामिनी ने अपने एक वृद्ध सेवक को किसी तुच्छ-से अपराध पर, निर्वासन का दण्ड दे डाला और फिर उसका अहंकार, उस अकारण दण्ड के लिए असंख्य बार माँगी गयी क्षमा का दान भी न दे सका।
 
ऐसी स्थिति में वह दरिद्र, पर स्नेह में समृद्ध बूढ़ा, कभी गेंदे के मुरझाए हुए दो फूल, कभी हथेली की गर्मी से पसीजे हुए चार बताशे और कभी मिट्टी का एक रंगहीन खिलौना लेकर अपने नन्हें प्रभुओं की प्रतीक्षा में पुल पर बैठा रहता था। नये नौकर के साथ घूमने जाते हुए बालकों को जब वह अपने तुच्छ उपहार देकर लौटता, तब उसकी आंखें गीली हो जाती थीं।
 
सन् 30 में उसी भृत्य को देखकर मुझे अपना बचपन और उसे अपनी ममता के घेरे हुए रामा इस तरह स्मरण आये कि अतीत की अधूरी कथा लिखने के लिए मन व्याकुल हो उठा। फिर धीरे-धारे रामा का परिवार बढ़ता गया और अतीत-चित्रों में वर्तमान के चित्र भी सम्मिलित होते गये। उद्देश्य केवल यही था कि जब समय अपनी तूलिका फेर कर इन अतीत-चित्रों की चमक मिटा दे, तब इन संस्मरणें के धुँधले आलोक में मैं उसे फिर पहचान सकूँ।

इनके प्रकाशन के सम्बन्ध में मैंने कभी कुछ सोचा ही नहीं। चिन्तन की प्रत्येक उलझन के हर एक स्पन्दन के साथ छापेखाने का सुरम्य चित्र मेरे सामने नहीं आता। इसके अतिरिक्त इन संस्मरणों के आधार प्रदर्शनी की वस्तु न होकर मेरी अक्षय ममता के पात्र रहे हैं। उन्हें दूसरों से आदर मिल सकेगा, इसकी परीक्षा से प्रतीक्षा रुचिकर जान पड़ी।
इन स्मृति-चित्रों में मेरा जीवन भी आ गया है। यह स्वाभाविक भी था। अँधेरे की वस्तुओं को हम अपने प्रकाश की धुँधली या उजली परिधि में लाकर ही देख पाते हैं; उसके बाहर तो वे उन्नत अन्धकार के अंश हैं, वह बाहर रूपान्तरित हो जाएगा। फिर जिस परिचय के लिए कहानीकार अपने कल्पित पात्रों को वास्तविकता से सजाकर निकट लाता है, उसी परिचय के लिए मैं अपने पथ के साथियों को कल्पना का परिधान पहनकर दूर की सृष्टि क्यों करती ! परन्तु मेरा निकटता-जनित आत्म-विज्ञापन उस राख से अधिक महत्व नहीं रखता, जो आग को बहुत समय तक सजीव रखने के लिए ही अंगारों को घेरे रहती है। जो इसके पार नहीं देख सकता, वह इन चित्रों के हृदय तक नहीं पहुँच सकता।
 
प्रस्तुत संग्रह में ग्यारह संस्मरण-कथाएँ जा सकी हैं। उनसे पाठकों का सस्ता मनोरंजन हो सके, ऐसी कामना करके मैं इन क्षत-विक्षत जीवनों को खिलौनों की हाट में नहीं रखना चाहती। यदि इन अधूरी रेखाओं और धुँधले रंगों की समष्टि में किसी को अपनी छाया की एक रेखा भी मिल सके, तो यह सफल है अथवा अपनी स्मृति की सुरक्षित सीमा से इसे बाहर लाकर मैंने अन्याय किया है।

दो शब्द पथ के साथी महादेवी वर्मा | mahadevi verma

साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत-अनागत युगों में हो सकता है; पर उनके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा।
 
पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भान्त नहीं। देश-काल की सीमा में आबद्ध जीवन न इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई संघर्ष न हो और न यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष न रहें।
 
एक कर्म विविध ही नहीं, विरोधी अनुभूतियाँ भी जगा सकता है। खेल का एक ही कर्म जीतने वाले के लिए सुखद और हारने वाले के लिए दुःखद अनुभूतियों का कारण बन जाता है।
 
जो हमें प्रिय है, वह हमारे हित के परिवेश में ही प्रिय है और अप्रिय है, वह हमारे अहित के परिवेश में ही अपनी स्थिति रखता है। यह अहित, प्रत्यक्ष कर्म से सूक्ष्म भाव-जगत् तक फैला रह सकता है। हमारे दर्शन, साहित्य आदि विविध साधनों से प्राप्त संस्कार, हमें अपने परिवेश के प्रति उदार बनाने का ही लक्ष्य रखते हैं पर, मनुष्य का अहम प्रायः उन साधनों से विद्रोह करता रहता है।
 
अपने अग्रजों सहयोगियों के सम्बन्ध में, अपने-आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है; पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगता मेरे लिए संभव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखाई देते हैं, उससे वे बहुत उज्जवल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनकी कुछ झलक पा सकेंगे।
 
महादेवी वर्मा
प्रयाग
श्रावणी पूर्णिमा
1956

निराला भाई/जो रेखाएँ न कह सकेंगी महादेवी वर्मा | mahadevi verma

एक युग बीत जाने पर भी मेरी स्मृति से एक घटाभरी अश्रुमुखी सावनी पूर्णिमा की रेखाएँ नहीं मिट सकी है। उन रेखाओं के उजले रंग न जाने किस व्यथा से गीले हैं कि अब तक सूख भी नहीं पाए - उड़ना तो दूर की बात है।
 
उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ बैठी थी, "आप के किसी ने राखी नहीं बाँधी?" अवश्य ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधन-शून्य कलाई और पीले, कच्चे सूत की ढेरों राखियाँ लेकर घूमने वाले यजमान-खोजियों का चित्र था। पर अपने प्रश्न के उत्तर में मिले प्रश्न ने मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया।
 
'कौन बहन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी?' में, उत्तर देने वाले के एकाकी जीवन की व्यथा थी या चुनौती यह कहना कठिन है। पर जान पड़ता है किसी अव्यक्त चुनौती के आभास ने ही मुझे उस हाथ के अभिषेक की प्रेरणा दी जिसने दिव्य वर्ण-गंध-मधु वाले गीत-सुमनों से भारती की अर्चना भी की है और बर्तन माँजने, पानी भरने जैसी कठिन श्रम-साधना से उत्पन्न स्वेद-बिंदुओं से मिट्टी का श्रृंगार भी किया है।
 
मेरा प्रयास किसी जीवंत बवंडर को कच्चे सूत में बाँधने जैसा था या किसी उच्छल महानद को मोम के तटों में सीमित करने के समान, यह सोचने विचारने का तब अवकाश नहीं था। पर आने वाले वर्ष निराला जी के संघर्ष के ही नहीं, मेरी परीक्षा के भी रहे हैं। मैं किस सीमा तक सफल हो सकी हूँ, यह मुझे ज्ञात नहीं, पर लौकिक दृष्टि से नि:स्व निराला हृदय की निधियों में सब से समृद्ध भाई हैं, यह स्वीकार करने में मुझे द्विविधा नहीं। उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को जो दृढ़ता और दीप्ति दी है वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी।
 
दिन-रात के पगों से वर्षों की सीमा पार करने वाले अतीत ने आग के अक्षरों में आँसू के रंग भर-भर कर ऐसी अनेक चित्र-कथाएँ आँक डाली है, जिनसे इस महान कवि और असाधारण मानव के जीवन की मार्मिक झाँकी मिल सकती है। पर उन सब को सँभाल सके ऐसा एक चित्राधार पा लेना सहज नहीं।

उनके अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने के असफल प्रयासों का स्मरण कर मुझे आज भी हँसी आ जाती है। एक बार अपनी निर्बंध उदारता की तीव्र आलोचना सुनने के बाद उन्होंने व्यवस्थित रहने का वचन दिया।
 
संयोग से तभी उन्हें कहीं से तीन सौ रुपए मिल गए। वही पूँजी मेरे पास जमा कर के उन्होंने मुझे अपने खर्च का 'बजट' बना देने का आदेश दिया।
 
जिन्हें मेरा व्यक्तिगत रखना पड़ता है, वे जानते हैं कि यह कार्य मेरे लिए कितना दुष्कर है। न वे मेरी चादर लंबी कर पाते हैं न मुझे पैर सिकोड़ने पर बाध्य कर सकते हैं, और इस प्रकार एक विचित्र रस्साकशी में तीस दिन बीतते रहते हैं।
 
पर यदि अनुत्तीर्ण परीक्षार्थियों की प्रतियोगिता हो तो सौं में दस अंक पाने वाला भी अपने-आपको शून्य पाने वाले से श्रेष्ठ मानेगा।
अस्तु, नमक से लेकर नापित तक और चप्पल से लेकर मकान के किराए तक का जो अनुमान-पत्र मैंने बनाया वह जब निराला जी को पसंद आ गया, तब पहली बार मुझे अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान पर गर्व हुआ। पर दूसरे ही दिन से मेरे गर्व की व्यर्थता सिद्ध होने लगी। वे सबेरे ही आ पहुँचे। पचास रुपए चाहिए - किसी विद्यार्थी का परीक्षा-शुल्क जमा करना है, अन्यथा वह परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा। संध्या होते-होते किसी साहित्यिक मित्र को साठ देने की आवश्यकता पड़ गई। दूसरे दिन लखनऊ के किसी तांगे वाले की माँ को चालीस मनीआर्डर करना पड़ा। दोपहर को किसी दिवंगत मित्र की भतीजी के विवाह के लिए सौ देना अनिवार्य हो गया। सारांश यह कि तीसरे दिन उनका जमा किया हुआ रुपया समाप्त हो गया और तब उनके व्यवस्थापक के नाते यह दानखाता मेरे हिस्से आ पड़ा।

एक सप्ताह में मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे अवढर दानी को न रोका जावे तो यह मुझे भी अपनी स्थिति में पहुँचा कर दम लेंगे। तब से फिर कभी उनका 'बजट' बनाने का दुस्साहस मैंने नहीं किया। पर उनकी अस्त-व्यस्तता में बाधा पहुँचाने का अपना स्वभाव मैं अब तक नहीं बदल सकी हूँ।
 
बड़े प्रयत्न से बनवाई रजाई, कोट जैसी नित्य व्यवहार की वस्तुएँ भी जब दूसरे ही दिन किसी अन्य का कष्ट दूर करने के लिए अंतर्धान हो गईं, तब अर्थ के संबंध में क्या कहा जावे जो साधन मात्र है।
 
वह संध्या भी मेरी स्मृति में विशेष महत्व रखती है जब श्रद्धेय मैथिलीशरण जी निराला जी का आतिथ्य ग्रहण करने गए।
 
बगल में गुप्त जी के बिछौने का बंडल दबाए, दियासलाई के क्षण प्रकाश क्षण अंधकार में तंग सीढ़ियों का मार्ग दिखाते हुए निराला जी हमें उस कक्ष में ले गए जो उनकी कठोर साहित्य-साधना का मूक साक्षी रहा है।
 
आले पर कपड़े की आधी जली बत्ती से भरा, पल तेल से खाली मिट्टी का दिया मानो अपने नाम की सार्थकता के लिए ही जल उठने का प्रयास कर रहा था। यदि उसके प्रयास को स्वर मिल सकता तो वह निश्चय ही हमें, मिट्टी के तेल की दूकान पर लगी भीड़ में सब से पीछे खड़े पर सब से बालिश्त भर ऊँचे गृहस्वामी की दीर्घ, पर निष्फल प्रतीज्ञा की कहानी सुना सकता। रसोईघर में दो-तीन अधजली लकड़ियाँ, औंधी पड़ी बटलोई और खूँटी से लटकती हुई आटे की छोटी-सी गठरी आदि मानो उपवास-चिकित्सा के लाभों की व्याख्या कर रहे थे।

वह आलोकरहित, सुख-सुविधा-शून्य घर, गृहस्वामी के विशाल आकार और उससे भी विशालतर आत्मीयता से भरा हुआ था। अपने संबंध में बेसुध निराला जी अपने अतिथि की सुविधा के लिए सतर्क प्रहरी हैं। वैष्णव अतिथि की सुविधा का विचार कर वे नया घड़ा ख़रीद कर गंगाजल ले आए और धोती-चादर जो कुछ घर में मिल सका सब तख़्त पर बिछा कर उन्हें प्रतिष्ठित किया।
 
तारों की छाया में उन दोनों मर्यादावादी और विद्रोही महाकवियों ने क्या कहा-सुना यह मुझे ज्ञात नहीं, पर सबेरे गुप्त जी को ट्रेन में बैठा कर वे मुझे उनके सुख-शयन का समाचार देना न भूले।
 
ऐसे अवसरों की कमी नहीं जब वे अकस्मात पहुँच कर कहने लगे, ''मेरे इक्के पर कुछ लकड़ियाँ, थोड़ा घी आदि रखवा दो - अतिथि आए हैं, घर में सामान नहीं है।''
 
'उनके अतिथि यहाँ भोजन करने आ जावें' सुन कर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है। जो अपना घर समझ कर आए हैं, उनसे यह कैसे कहा जावे कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा।
 
भोजन बनाने से ले कर जूठे बर्तन माँजने तक का काम वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते हैं। तैतीस कोटि देवताओं के देश में इस वर्ग के देवताओं की संख्या कम नहीं, पर आधुनिक युग ने उनकी पूजा-विधि में बहुत कुछ सुधार कर लिया है। अब अतिथि-पूजा के पर्व कम ही आते हैं और यदि आ भी पड़े तो देवता के अभिषेक, श्रृंगार आदि संस्कार बेयरा आदि ही संपन्न करा देते हैं। पुजारी गृहपति को तो भोग लगाने की मेज पर उपस्थित रहने भर का कर्तव्य सँभालना पड़ता है। कुछ देवता इस कर्तव्य से भी उसे मुक्ति दे देते हैं।
 
ऐसे युग में आतिथ्य की दृष्टि से निराला जी में वही पुरातन संस्कार है जो इस देश के ग्रामीण किसान में मिलता है।
 
उनके भाव की अतल गहराई और अबाध वेग भी आधुनिक सभ्यता के छिछले और बँधे भाव-व्यापार से भिन्न है।
 
उनकी व्यथा की सघनता जानने का मुझे एक अवसर मिला है। श्री सुमित्रानंदन जी दिल्ली में टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे। इसी बीच घटित को साधारण और अघटित को समाचार मानने वाले किसी समाचार-पत्र ने उनके स्वर्गवास की झूठी ख़बर छाप डाली।
 
निराला जी कुछ ऐसी आकस्मिकता के साथ आ पहुँचे थे कि मैं उनसे यह समाचार छिपाने का भी अवकाश न पा सकी। समाचार के सत्य में मुझे विश्वास नहीं था, पर निराला जी तो ऐसे अवसर पर तर्क की शक्ति ही खो बैठते हैं। वे लड़खड़ा कर सोफे पर बैठ गए और किसी अव्यक्त वेदना की तरंग के स्पर्श से मानो पाषाण में परिवर्तित होने लगे। उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आँसू की बूँदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो प्रतिमा से झड़े हुए जूही के फूल हों।

स्वयं अस्थिर होने पर भी मुझे निराला जी को सांत्वना देने के लिए स्थिर होना पड़ा। यह सुन कर कि मैंने ठीक समाचार जानने के लिए तार दिया है, वे व्यथित प्रतीक्षा की मुद्र में तब तक बैठे रहे जब तक रात में मेरा फाटक बंद होने का समय न आ गया।
 
सबेरे चार बजे ही फाटक खटखटा कर जब उन्होंने तार के उत्तर के संबंध में पूछा तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे रात भर पार्क में खुले आकाश के नीचे ओस से भीगी दूब पर बैठे सबेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं। उनकी निस्तब्ध पीड़ा जब कुछ मुखर हो सकी, तब वे इतना ही कह सके, 'अब हम भी गिरते हैं। पंत के साथ तो रास्ता कम अखरता था, पर अब सोच कर ही थकावट होती है।
 
प्राय: एक स्पर्धा का तार हमारे सौहार्द के फूलों को वेध कर उन्हें एकत्र रखता है। फूल के झड़ते या खिसकते ही काला तार मात्र रह जाता है। इसी से हमें किसी सहयोगी का बिछोह अकेलेपन की तीव्र अनुभूति नहीं देता। निराला जी के सौहार्द और विरोध दोनों एक आत्मीयता के वृंत पर खिले दो फूल हैं। वे खिल कर वृंत का श्रृंगार करते हैं और झड़ कर उसे अकेला और सूना कर देते हैं। मित्र का तो प्रश्न ही क्या ऐसा कोई विरोधी भी नहीं जिसका अभाव उन्हें विकल न कर देगा।

गत मई मास की, लपटों में साँस लेने वाली दोपहरी भी मेरी स्मृति पर एक जलती रेखा खींच गई है। शरीर से शिथिल और मन से क्लांत निराला जी मलिन फटे अधोवस्त्र को लपेटे और वैसा ही जीर्ण-शीर्ण उत्तरीय ओढ़े हुए धूल-धूसरित पैरों के साथ मेरे द्वार पर आ उपस्थित हुए। 'अपरा' पर इक्कीस सौ पुरस्कार की सूचना मिलने पर उन्होंने मुझे लिखा था कि मैं अपनी सांस्थिक मर्यादा से वह रुपया मँगवा लूँ। अब वे कहने आए थे कि स्वर्गीय मुंशी नव-जादिक लाल की विधवा को पचास प्रति मास के हिसाब से भेजने का प्रबंध कर दिया जावे।
 
'उक्त धन का कुछ अंश भी क्या वे अपने उपयोग में नहीं ला सकते?' के उत्तर में उन्होंने उसी सरल विश्वास के साथ कहा, ''वह तो संकल्पित अर्थ है। अपने लिए उसका उपयोग करना अनुचित होगा।''
 
उन्हें व्यवस्थित करने के सभी प्रयास निष्फल रहे हैं, पर आज मुझे उसका खेद नहीं है। यदि वे हमारे साँचे में समा जावें तो उनकी विशेषता ही क्या रहे!
 
इन बिखरे पृष्ठों में एक पर अनायास ही दृष्टि रुक जाती है। उसे मानो स्मृति ने विषाद की आर्द्रता ने हँसी का कुमकुम घोल कर अंकित किया है।
 
साहित्यकार-संसद में सब सुविधायें सुलभ होने पर भी उन्होंने स्वयं-पाकी बन कर और एक बार भोजन करके जो अनुष्ठान आरंभ किया था उसकी तो मैं अभ्यस्त हो चुकी हूँ। पर अचानक एक दिन जब उन्होंने पाव भर गेरु मँगवाने का आदेश दिया तब मैंने समझा कि उनके पित्ती निकल आई हैं, क्यों कि उसी रोग में गेरु मिले हुए आटे के पुये खाए जाते हैं और गेरु के चूर्ण का अंगराग लगाया जाता है।
 
प्रश्नों के प्रति निराला जी कम सहिष्णु हैं और कुतूहल की दृष्टि से मैं कम जिज्ञासु हूँ। फिर भी उनकी सुविधा-असुविधा की चिंता के कारण मैं अनेक प्रश्न कर बैठती हूँ और मेरी सद्भावना में विश्वास के कारण वे उत्तरों का कष्ट सहन करते हैं।

मेरे मौन में मुखर चिंता के कारण ही उन्होंने अपना मंतव्य स्पष्ट किया, ''हम अब सन्यास लेंगे।'' मेरी उमड़ती हँसी को व्यथा के बाँध ने जहाँ का तहाँ ठहरा दिया। इस निर्मम युग ने इस महान कलाकार के पास ऐसा क्या छोड़ा है जिसे स्वयं छोड़ कर यह त्याग का आत्मतोष भी प्राप्त कर सके। जिस प्रकार प्राप्ति हमारी कृतार्थता का फल है उसी प्रकार त्याग हमारी पूर्णता का परिणाम है। इन दोनों छोरों में से एक मनुष्य के भौतिक विकास का माप है और दूसरा मानसिक विस्तार ही थाह। त्याग कभी भाव की अस्वीकृति है और कभी अभाव की स्वीकृति पर तत्वत: दोनों कितने भिन्न हैं।
 
मैं सोच ही रही थी कि चि. वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ''तब तो आपको मधुकरी खाने की आवश्यकता पड़ेगी।'
 
खेद, अनुताप या पश्चाताप की एक भी लहर से रहित विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता हुआ निराला जी का उत्तर आया, ''मधुकरी तो अब भी खाते हैं।'' जिसकी निधियों से साहित्य का कोष समृद्ध हैं उसने मधुकरी माँग कर जीवन निर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर आने वाले युग विश्वास कर सकेंगे यह कहना कठिन है।
 
गेरु में दोनों मलिन अधोवस्त्र और उत्तरीय कब रंग डाले गए इसका मुझे पता नहीं, पर एकादशी के सबेरे स्नान, हवन आदि कर के जब वे निकले तब ग़ैरिक परिधान पहन चुके थे। अंगौछे के अभाव और वस्त्रों में रंग की अधिकता के कारण उनके मुँह, हाथ आदि ही नहीं, विशाल शरीर भी ग़ैरिक हो गया था, मानो सुनहली धूप में धुला गेरु के पर्वत का कोई शिखर हो।

बोले, ''अब ठीक है। जहाँ पहुँचे किसी नीम, पीपल के नीचे बैठ गए। दो रोटियाँ माँग कर खा लीं और गीत लिखने लगे।'
 
इस सर्वथा नवीन परिच्छेद का उपसंहार कहाँ और कैसे होगा यह सोचते-सोचते मैंने उत्तर दिया, '''आपके संन्यास से मुझे इतना ही लाभ हुआ कि साबुन के कुछ पैसे बचेंगे। गेरुये वस्त्र तो मैले नहीं दिखेंगे। पर हानि यही है कि न जाने कहाँ-कहाँ छप्पर डलवाने पड़ेंगे, क्यों कि धूप और वर्षा से पूर्णतया रक्षा करने वाले नीम-पीपल कम ही हैं।''
 
मन में एक प्रश्न बार-बार उठता है - क्या इस देश की सरस्वती अपने वैरागी पुत्रों की परंपरा अक्षुण्य रखना चाहती है और क्या इस पथ पर पहले पग रखने की शक्ति उसने निराला जी में ही पाई है?
 
निराला जी अपने शरीर, जीवन, और साहित्य सभी में असाधारण हैं। उनमें विरोधी तत्वों की भी सामंजस्यपूर्ण संधि है। उनका विशाल डीलडौल देखने वाले के हृदय में जो आतंक उत्पन्न कर देता है उसे उनके मुख की सरल आत्मीयता दूर करती चलती है।
 
उनकी दृष्टि में दर्प और विश्वास की धूपछाँही द्वाभा है। इस दर्प का संबंध किसी हल्की मनोवृत्ति से नहीं और न उसे अहं का सस्ता प्रदर्शन ही कहा जा सकता है। अविराम संघर्ष और निरंतर विरोध का सामना करने से उनमें जो एक आत्मनिष्ठा उत्पन्न हो गई है उसी का परिचय हम उनकी दृप्त दृष्टि में पाते हैं। कभी-कभी यह गर्व व्यक्ति की सीमा पार कर इतना सामान्य हो जाता है कि हम उसे अपना, प्रत्येक साहित्यकार का या साहित्य का मान सकते हैं, इसी से वह दुर्वह कभी नहीं होता। जिस बड़प्पन में हमारा भी कुछ भाग है वह हममें छोटेपन की अनुभूति नहीं उत्पन्न करता और परिणामत: उससे हमारा कभी विरोध नहीं होता।

निराला जी की दृष्टि में संदेह का वह पैनापन नहीं जो दूसरे मनुष्य के व्यक्त परिचय का अविश्वास कर उसके मर्म को वेधना चाहता है। उनका दृष्टिपात उनके सहज विश्वास की वर्णमाला है। वे व्यक्ति के उसी परिचय को सत्य मान कर चलते हैं जिसे वह देना चाहता है और अंत में उस स्थिति तक पहुँच जाते हैं जहाँ वह सत्य के अतिरिक्त कुछ और नहीं देना चाहता।
 
जो कलाकार हृदय के गूढ़तम भावों के विश्लेषण में समर्थ हैं उसमें ऐसी सरलता लौकिक दृष्टि से चाहे विस्मय की वस्तु हो, पर कला-सृष्टि के लिए यह स्वाभाविक साधन है।
 
सत्य का मार्ग सरल है। तर्क और संदेह की चक्करदार राह से उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। इसी से जीवन के सत्यद्रष्टाओं को हम बालकों जैसा सरल विश्वासी पाते हैं। निराला जी भी इसी परिवार के सदस्य हैं।
 
किसी अन्याय के प्रतिकार के लिए उनका हाथ लेखनी से पहले उठ सकता है अथवा लेखनी हाथ से अधिक कठोर प्रहार कर सकती है, पर उनकी आँखों की स्वच्छता किसी मलिन द्वेष में तरंगायित नहीं होती।
 
ओठों की खिंची हुई-सी रेखाओं में निश्चय की छाप है, पर उनमें क्रूरता की भंगिमा या घृणा की सिकुड़न नहीं मिल सकती।
 
क्रूरता और कायरता में वैसा ही संबंध है जैसा वृक्ष की जड़ों में अव्यक्त रस और उसके फल के व्यक्त स्वाद में। निराला किसी से सभीत नहीं, अत: किसी के प्रति क्रूर होना उनके लिए संभव नहीं। उनके तीखे व्यंग की विद्युत-रेखा के पीछे सद्भाव के जल से भरा बादल रहता है।
 
घृणा का भाव मनुष्य की असमर्थता का प्रमाण है। जिसे तोड़ कर हम इच्छानुसार गढ़ सकते हैं, उसके प्रति घृणा का अवकाश ही नहीं रहता, पर जिससे अपनी रक्षा के लिए हम सतर्क हैं, उसी की स्थिति हमारी घृणा का केंद्र बन जाती है। जो मदिरा के पात्र को तोड़ कर फेंक सकता है, उसे मदिरा से घृणा की आवश्यकता ही क्या है! पर जो उसे सामने रखने के लिए भी विवश है, और अपने मन में उससे बचने की शक्ति भी संचित करना चाहता है वह उसके दोषों की एक-एक ईंट जोड़ कर उस पर घृणा का काला रंग फेर कर एक दीवार खड़ी कर लेता है, जिसकी ओट में स्वयं बच सके। हमारे नरक की कल्पना के मूल में भी यही अपने बचाव का विवश प्रयत्न है। जहाँ संरक्षित दोष नहीं, वहाँ सुरक्षित घृणा भी संभव नहीं।
 
विकास-पथ की बाधाओं का ज्ञान ही महान विद्रोहियों को कर्म की प्रेरणा देता है। क्रोध को संचित कर द्वेष को स्थायी बना कर घृणा में बदलने के लंबे क्रम तक वे ठहर नहीं सकते। और ठहरें भी तो घृणा की निष्क्रियता उन्हें निष्क्रिय बना कर पथ-भ्रष्ट कर देगी।

निराला जी विचार से क्रांतिदर्शी और आचरण से क्रांतिकारी है। वे उस झंझा के समान हैं जो हल्की वस्तुओं के साथ भारी वस्तुओं को भी उड़ा ले जाती है उस मंद समीर जैसे नहीं जो सुगंध न मिले तो दुर्गंध का भार ही ढोता फिरता है। जिसे वे उपयोगी नहीं मानते उसके प्रति उनका किंचित मात्र भी मोह नहीं, चाहे तोड़ने योग्य वस्तुओं के साथ रक्षा के योग्य वस्तुएँ भी नष्ट हो जावें।
 
उनका मार्ग चाहे ऐसे भग्नावशेषों से भर गया हो जिनके पुनर्निर्माण में समय लगेगा पर ऐसी अडिग शिलाएँ नहीं है, जिनको देख-देख कर उन्हें निष्फल क्रोध में दाँत पीसना पड़े या निराश पराजय में आह भरना पड़े।
 
मनुष्य की संचय-वृत्ति ऐसी है कि वह अपनी उपयोगहीन वस्तुओं को भी संगृहीत रखना चाहता है। इसी स्वभाव के कारण बहुत-सी रूढ़ियाँ भी उसके जीवन के अभाव को भर देता है।
 
विद्रोह स्वभावगत होने के कारण निराला जी के लिए ऐसी रूढ़ियों पर प्रहार करना जितना प्रयासहीन होता है, उतना ही कौतुक का कारण।
 
दूसरों की बद्धमूल धारणाओं पर आघात कर उनकी खिजलाहट पर वे ऐसे ही प्रसन्न होते हैं जैसे होली के दिन कोई नटखट लड़का, जिसने किसी की तीन पैर की कुर्सी के साथ किसी की सर्वांगपूर्ण चारपाई, किसी की टूटी तिपाई के साथ किसी की नई चौकी होलिका में स्वाहा कर डाली हो।
 
उनका विरोध द्वेषमूलक नहीं पर चोट कठिन होती है। इसके अतिरिक्त उनके संकल्प और कार्य के बीच में ऐसी प्रत्यक्ष कड़ियाँ नहीं रहतीं, जो संकल्प के औचित्य और कर्म के सौंदर्य की व्याख्या कर सकें। उन्हें समझने के लिए जिस मात्रा में बौद्धिकता चाहिए उसी मात्रा में हृदय की संवेदनशीलता अपेक्षित रहती है। ऐसा संतुलन सुलभ न होने के कारण उन्हें पूर्णता में समझने वाले विरल मिलते हैं। ऐसे दो व्यक्ति सब जगह मिल सकते हैं जिनमें एक उनकी नम्र उदारता की प्रशंसा करते नहीं थकता और दूसरा उनके उद्धत व्यवहार की निंदा करते नहीं हारता। जो अपनी चोट के पार नहीं देख पाते वे उनके निकट पहुँच ही नहीं सकते, अत: उनके विद्रोही की असफलता प्रमाणित करने के लिए उनके चरित्र की उजली रेखाओं पर काली तूली फेर कर प्रतिशोध लेते रहते हैं। निराला जी के संबंध में फैली हुई भ्रांत किंवदंतियाँ इसी निम्नवृत्ति से संबंध रखती है।

मनुष्य-जाति की नासमझी का इतिहास क्रूर और लंबा है। प्राय: सभी युगों मे मनुष्य ने अपने में से श्रेष्ठतम, पर समझ में न आनेवाले व्यक्ति को छाँट कर, कभी उसे विष दे कर, कभी सूली पर चढ़ा कर और कभी गोली का लक्ष्य बना कर अपनी बर्बर मूर्खता के इतिहास में नए पृष्ठ जोड़े हैं।
 
प्रकृति और चेतना ने जाने कितने निष्फल प्रयोगों के उपरांत ऐसे मनुष्य का सृजन कर पाती हैं, जो अपने स्रष्टाओं से श्रेष्ठ हो। पर उसके सजातीय, ऐसे अद्भुत सृजन को नष्ट करने के लिए इससे बड़ा कारण खोजने की भी आवश्यकता नहीं समझते कि वह उनकी समझ के परे है अथवा उसका सत्य इनकी भ्रांतियों से मेल नहीं खाता।
 
निराला जी अपने युग की विशिष्ट प्रतिभा हैं, अत: उन्हें अपने युग का अभिशाप झेलना पड़े तो आश्चर्य नहीं।
 
उनके जीवन के चारों ओर परिवार का वह लौहसार घेरा नहीं जो व्यक्तिगत विशेषताओं पर चोट भी करता है और बाहर की चोटों के लिए ढाल भी बन जाता है। उनके निकट माता, बहन, भाई आदि के कोमल साहचर्य के अभाव का ही नाम शैशव रहा है। जीवन का वसंत ही उनके लिए पत्नी-वियोग का पतझड़ बन गया है। आर्थिक कारणों ने उन्हें अपनी मातृहीन संतान के कर्तव्य-निर्वाह की सुविधा भी नहीं दी। पुत्री के अंतिम क्षणों में वे निरूपाय दर्शक रहे और पुत्र को उचित शिक्षा से वंचित रखने के कारण उसकी उपेक्षा के पात्र बने।
 
अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों से उन्होंने कभी ऐसी हार नहीं मानी जिसे सह्य बनाने के लिए हम समझौता कहते हैं। स्वभाव से उन्हें वह निश्छल वीरता मिली है, जो अपने बचाव के प्रयत्न को भी कायरता की संज्ञा देती है। उनकी वीरता राजनीतिक कुशलता नहीं, वह तो साहित्य की एकनिष्ठता का पर्याय है। छल के व्यूह में छिप कर लक्ष्य तक पहुँचने को साहित्य लक्ष्य-प्राप्ति नहीं मानता। जो अपने पथ की सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बाधाओं को चुनौती देता हुआ, सभी आघातों को हृदय पर झेलता हुआ लक्ष्य तक पहुँचता है, उसी को युग-स्रष्टा साहित्यकार कह सकते हैं। निराला जी ऐसे ही विद्रोही साहित्यकार हैं। जिन अनुभवों के दंशन का विष साधारण मनुष्य की आत्मा को मूर्च्छित कर के उसके सारे जीवन को विषाक्त बना देता है, उसी से उन्होंने सतत जागरुकता और मानवता का अमृत प्राप्त किया है।

किसी की व्यथा इतनी हल्की नहीं जो उनके हृदय में गंभीर प्रतिध्वनि नहीं जगाती, किसी की आवश्यकता इतनी छोटी नहीं जो उन्हें सर्वस्व दान की प्रेरणा नहीं देती।
 
अर्थ की जिस शिला पर हमारे युग के न जाने कितने साधकों की साधना तरियाँ चूर-चूर हो चुकी हैं, उसी को वे अपने अदम्य वेग में पार कर आए हैं। उनके जीवन पर उस संघर्ष के जो आघात हैं वे उनकी हार के नहीं, शक्ति के प्रमाणपत्र हैं। उनकी कठोर श्रम, गंभीर दर्शन और सजग कला की त्रिवेणी न अछोर मरू में सूखती है न अकूल समुद्र में अस्तित्व खोती है।
 
जीवन की दृष्टि से निराला जी किसी दुर्लभ सीप में ढले सुडौल मोती नहीं हैं, जिसे अपनी महार्धता का साथ देने के लिए स्वर्ण और सौंदर्य-प्रतिष्ठा के लिए अलंकार का रूप चाहिए। वे तो अनगढ़ पारस के भारी शिला-खंड हैं। न मुकुट में जड़ कर कोई उसकी गुरुता सँभाल सकता है और न पदत्राण बनाकर कोई उसका भार उठा सकता है। वह जहाँ हैं, वहीं उसका स्पर्श सुलभ है। यदि स्पर्श करने वाले में मानवता के लौह-परमाणु हैं तो किसी ओर से भी स्पर्श करने पर वह स्वर्ण बन जाएगा। पारस की अमूल्यता दूसरों का मूल्य बढ़ाने में हैं। उसके मूल्य में न कोई कुछ जोड़ सकता है, न घटा सकता है।
 
आज हम दंभ और स्पर्धा, अज्ञान और भ्रांति की ऐसी कुहेलिका में चल रही हैं जिसमें स्वयं को पहचानना तक कठिन है, सहयात्रियों को यथार्थता में जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर आने वाले युग इस कलाकार की एकाकी यात्रा का मूल्य आँक सकेंगे, जिसमें अपने पैरों की चाप तक आँधी में खो जाती है।
 
निराला जी के साहित्य की शास्त्रीय विवेचना तो आगामी युगों के लिए भी सुकर रहेगी, पर उस विवेचना के लिए जीवन की जिस पृष्ठभूमि की आवश्यकता होती है, उसे तो उनके समकालीन ही दे सकते हैं।
 
साहित्यकार के जीवन का विश्लेषण उसके साहित्य के मूल्यांकन से कठिन है। साहित्य की कसौटी सर्वमान्य होती है, पर उसकी उर्वर भूमि आलोचक के विशेष दृष्टिबिंदु को फूलने-फलने का आकाश दे सकती है। एक कविता का विशेष भाव, एक चित्र का विशेष रंग और एक गीत की विशेष लय, किसी के लिए रहस्य के द्वार खोल सकती है और किसी से टकरा कर व्यर्थ हो जाती है। पर जीवन का इतिवृत्त इतनी विविधता नहीं सँभाल सकता। एक व्यक्ति का कर्म समाज को या हानि पहुँचा सकता है या लाभ, अत: व्यक्तिगत रुचि के कारण यदि कोई हानि पहुँचाने वाले को अच्छा कहे या लाभ पहुँचाने वाले को बुरा तो समाज उसे अपराधी मानेगा। ऐसी स्थिति में कर्म के मूल्यांकन में विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता पड़ती है।

असाधारण प्रतिभावान और अपने युग से आगे देखने वाले कलाकारों के इतिवृत्त के चित्रण में एक और भी बाधा है। जब उनके समानधर्मा उनके जीवन का मूल्यांकन करते हैं तब कभी तो स्पर्धा उनकी तुला को ऊँचा-नीचा करती रहती है और कभी अपनी विशेषताओं का मोह उन्हें सहयोगियों में अपनी प्रतिकृति देखने के लिए विवश कर देता है। जब छोटे व्यक्तित्व वाले किसी असाधारण व्यक्तित्व की व्याख्या करने चलते हैं, तब कभी तो उनकी लघुता उसे घेर नहीं पाती और कभी उसके तीव्र आलोक में अपने अहं को उद्भासित कर लेने की दुर्बलता उन्हें घेर लेती है।
 
इस प्रकार महान कलाकारों के यथार्थचित्र व्याख्याबहुल हों तो विस्मय की बात नहीं।
 
साहित्य के नवीन युगपथ पर निराला जी की अंक-संसृति गहरी, और स्पष्ट उज्ज्वल और लक्ष्यनिष्ठ रहेगी। इस मार्ग के हर फूल पर उनके चरण का चिह्न और हर शूल पर उनके रक्त का रंग है।

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