कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma

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कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी (भाग 3)
Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma (
Part 3)

भक्तिन महादेवी वर्मा | mahadevi verma

छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कानों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिन्तन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कण्ठ से उत्तर देती हैं-- ‘तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो सम्भवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्तीभर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असम्भव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।
[सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लाछमिन अर्थात लक्ष्मी।
 
पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी।] वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकर की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिमा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कण्ठी-माला देखकर उसका नया नामकरण किया, तब वह भक्तिन जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद् हो उठी।
Hindi-Stories-and-Prose-Mahadevi-Verma


भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उनके स्वभाव को पूर्णत: क्या अंशत: समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव-प्रसिद्ध एक अहीर सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की किंवदन्ती बन जाने वाली ममता की काया में भी पली है। पाँच वर्ष की वय में उसे हँड़िया ग्राम के एक सम्पन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीय युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।
 
पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईर्ष्यालु और सम्पत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणान्तक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसे पैरों में जो पंख लगा दिये थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गये। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दु:ख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिये उल्टे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शान्त किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर बिछोह की मर्मव्यथा व्यक्ति की।
 
जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है। जब उसने गेहुँएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशुण्डी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दण्ड मिलना आवश्यक हो गया।
 
जिठानियाँ बैठकर लोक चर्चा करतीं, और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँघती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कंडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पीती उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।
 
इस दण्ड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी के पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर घमाघम पीटी-कूटी जातीं; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्वनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असन्तोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दम्पत्ति के निरन्तर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।
 
धूम-धाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरान्त, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उन्तीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी उसे आज बुढ़ऊ कहकर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गये होंगे, अत: उन्हें बुढऊ न कहना उनका घोर अपमान है।
 
हाँ, तो भक्तिन के हरे-भरे खेत, मोटी-ताजी गाय-भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आना स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थीं, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमें में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक-पटककर आँगन को कम्पायमान करते हुए कहा- ‘हम कुकुरी-बिलारी न होयँ, हमारा मन पुसाई तौ हम दूसरे के जाब नाहिं त तुम्हारा पचै के छाती पर होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।’
 
उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने के पीढ़ियों के ससुरगणों की उपार्जित जगह-जमीन में से सुई की नोक के बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान-फुँकवा, कण्ठी बाँध पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी समर्पित सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने बड़े दामाद को घर जमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरम्भ हुआ।
 
भक्तिन का दुर्भाग्य की उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबन्धन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ानेवाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता है। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसन्द कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरों भाईयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी सम्पत्ति की देख-भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करनेवाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।

एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर भींतर से द्वार बन्द कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। अहीर युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुण्डी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गये। तीतरबाज युवक कहता था, वह निमन्त्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उंगलियों के उभार में इस निमन्त्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अन्त में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहें दोनों झूठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी सब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गये कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अन्त में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।
 
घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानों सब प्रकार की आहट सुनने के लिए एक कान कपड़े से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवकधर्म में दीक्षित हुई, तब उसके जीवन के चौथे और सम्भवत: अन्तिम परिच्छेद का जो अर्थ हुआ, इसकी इति अभी दूर है।
 
भक्तिन की वेश भूषा में गृहस्थ और बैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया--‘क्या तुम खाना बनाना जानती हो ?’ उत्तर में उसने ऊपर से होठ को सिकोड़े और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा ‘ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है अउर बाकी का रहा।

बिंदा - महादेवी वर्मा | mahadevi verma

भीत-सी आंखों वाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा- 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी' सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
 
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा -ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
 
बिंदा मेरी उस समय की बाल्य सखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आलमारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती -सीढ़ियों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आँख मूँद पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका ग़ुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोंचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखारिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।
 
और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा नई अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।

यह सब तो ठीक था, पर उनका व्यवहार विचित्र -सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च-से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी, परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है, या आऊं', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', ' अभागी मरती भी नहीं' आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।

कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था, क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी।जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - ' क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ?' मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।
 
बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।

एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- 'वह रही मेरी अम्मा' तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 'क्या सब-की एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? ' पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा- 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी ।
 
बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा- 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जायगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।

बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बंधा पाया था और भूस से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।
 
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।

उसे मै अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खण्ड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएं रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।
 
मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा ' क्या सबेरा हो गया ?'
 
माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमा का स्थान था, न अपील का अधिकार।

फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर- आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत ख़ुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धंस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।
 
उसके बाद फिर बिंदा को मिलन सम्भव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा- उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं। एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्दकर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय- विनय करना मेरे आत्म -सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।

कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
 
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है ?

सोना हिरनी - महादेवी वर्मा | mahadevi verma

सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिता ने लिखा है :
 
'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।
 
'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी हूँगी, क्योंकि आप जानती हैं, मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भली भाँति देखभाल हो सकेगी।
 
कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया कि अब हिरन नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।

सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्तु वह तब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग के रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा-सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती थी तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी। उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर आँखों में कौंध जाती थी।
 
सब उसके सरल शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए।
 
परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य निष्ठुरता गढ़ती है। वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की।
 
 
निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अत: उनकी स्थिति मं। परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता। परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवनकथा का तत्व है।
 
जिन्होंने हरीतिमा में लहराते हुए मैदान पर छलाँगें भरते हुए हिरनों के झुंड को देखा होगा, वही उस अद्भुत, गतिशील सौन्दर्य की कल्पना कर सकता है। मानो तरल मरकत के समुद्र में सुनहले फेनवाली लहरों का उद्वेलन हो। परन्तु जीवन के इस चल सौन्दर्य के प्रति शिकारी का आकर्षण नहीं रहता।
 
मैं प्राय: सोचती हूँ कि मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊर्जा को निष्क्रिय और जड़ बनाने के कार्य को मनोरंजन कैसे कहता है।
 
मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपवित्र भी मानता है। उसके प्रियतम आत्मीय जन का शव भी उसके निकट अपवित्र, अस्पृश्य तथा भयजनक हो उठता है। जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती।
 
आकाश में रंगबिरंगे फूलों की घटाओं के समान उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दवादन (आर्केस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुन्दर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गई है, किसी के पीले सुन्दर पंजे टेढ़े हो गए हैं और किसी के इन्द्रधनुषी पंख बिखर गए हैं। क्षतविक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु गातों में न अब संगीत है; न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारनेवाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।
 
पक्षिजगत में ही नही, पशुजगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशुजगत में हिरन जैसा निरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति और मृत्यु के प्रति इतना मोह और इतना आकर्षण क्यों?
 
बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण अपने अरण्य-परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।
 
 
प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ मृग समूह शिकारियों की आहट से चौंककर भागा, तब सोना की माँ सद्य:प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य:जात मृगशिशु तो भाग नहीं सकता था, अत: मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।
 
पता नहीं, दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपटे हुए शावक को जीवित उठा लाए। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला-पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।

सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
 
 
उसका मुख इतना छोटा-सा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आँखों से उसे ऐसे देखने लगती, मानो वह कोई सजीव मित्र हो।
 
उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाँ गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा होते ही वह मेरे कमरे में पलंग के पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही बाहर निकलती।
 
उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई, जिसके बिना उनका किसी काम में मन नहीं लगता था।
 
दूध पीकर और भीगे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्तुलित कर चौकड़ी भरती। फिर वह छात्रावास पहुँचती और प्रत्येक कमरे का भीतर, बाहर निरीक्षण करती। सवेरे छात्रावास में विचित्र-सी क्रियाशीलता रहती है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धोती है, कोई बालों में कंघी करती है, कोई साड़ी बदलती है, कोई अपनी मेज की सफाई करती है, कोई स्नान करके भीगे कपड़े सूखने के लिए फैलाती है और कोई पूजा करती है। सोना के पहुँच जाने पर इस विविध कर्म-संकुलता में एक नया काम और जुड़ जाता था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका लगा देती, कोई गले में रिबन बाँध देती और कोई पूजा के बताशे खिला देती। मेस में उसके पहुँचते ही छात्राएँ ही नहीं, नौकर-चाकर तक दौड़ आते और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिलाने को उतावले रहते, परन्तु उसे बिस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदार्थ पसन्द थे।
 
छात्रावास का जागरण और जलपान अध्याय समाप्त होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चरती और कभी उस पर लोटती रहती। मेरे भोजन का समय वह किस प्रकार जान लेती थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्तु वह ठीक उसी समय भीतर आ जाती और तब तक मुझसे सटी खड़ी रहती जब तक मेरा खाना समाप्त न हो जाता। कुछ चावल, रोटी आदि उसका भी प्राप्य रहता था, परन्तु उसे कच्ची सब्जी ही अधिक भाती थी।
 
घंटी बजते ही वह फिर प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती और उसके समाप्त होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीतर-बाहर चक्कर लगाना आरम्भ करती।
 
उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छ्लाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। सरकस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती।
 
मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्लाँग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्राय: देखनेवालों को भय होता था कि उसके पैरों से मेरे सिर पर चोट न लग जावे, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती थी और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।
 
भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती। डाँटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों में ऐसी अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती।
 
कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी-मृग-शावक आदि को इतना महत्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है।

पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बेझिल नहीं बनाता। यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा।
 
सम्भवत: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर किए गए आघातों और सार्थक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भाषाहीन जीवों की स्नेह तरल दृष्टि का चन्दन लेप लगाकर स्वस्थ और आश्वस्त होना चाहता है।
 
सरस्वती वाणी से ध्वनित-प्रतिध्वनित कण्व के आश्रम में ऋषियों, ऋषि-पत्नियों, ऋषि-कुमार-कुमारिकाओं के साथ मूक अज्ञान मृगों की स्थिति भी अनिवार्य है। मन्त्रपूत कुटियों के द्वार को नीहारकण चाहने वाले मृग रुँध लेते हैं। विदा लेती हुई शकुन्तला का गुरुजनों के उपदेश-आशीर्वाद से बेझिल अंचल, उसका अपत्यवत पालित मृगछौना थाम लेता है।
 
यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंडगुदीनां
 
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
 
श्यामाकमुष्टि परिवर्धिंतको जहाति
 
सो यं न पुत्रकृतक: पदवीं मृगस्ते॥
 
- अभिज्ञानशाकुन्तलम्
 
शकुन्तला के प्रश्न करने पर कि कौन मेरा अंचल खींच रहा है, कण्व कहते हैं:
 
कुश के काँटे से जिसका मुख छिद जाने पर तू उसे अच्छा करने के लिए हिंगोट का तेल लगाती थी, जिसे तूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पाला है, जो तेरे निकट पुत्रवत् है, वही तेरा मृग तुझे रोक रहा है।
 
साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पर्शिता में भी मृगों का विशेष योगदान रहता है।
 
पशु मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया।
 
अनेक विद्यार्थिनियों की भारी-भरकम गुरूजी से सोना को क्या लेना-देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी, जिन्होंने यत्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी।
 
यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।
 
कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्वामी की स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है।
 
पर हिरन यह अन्तर नहीं जानता, अत: उसका अपने पालनेवाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जावे तो वह अपनी चकित आँखों में और अधिक विस्मय भरकर पालनेवाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा - मानो पूछता हो, क्या यह उचित है? वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति जताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।
 
मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते-बिल्ली उस पर उछलते-कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते, तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते।
 
वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण शावक से हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी। परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि में मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जल कोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी, मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।
 
सम्भवत: अब उसमें वन तथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जागने लगा था। प्राय: सूने मैदान में वह गर्दन ऊँची करके किसी की आहट की प्रतीक्षा में खड़ी रहती। वासन्ती हवा बहने पर यह मूक प्रतीक्षा और अधिक मार्मिक हो उठती। शैशव के साथियों और उनकी उछ्ल-कूद से अब उसका पहले जैसा मनोरंजन नहीं होता था, अत: उसकी प्रतीक्षा के क्षण अधिक होते जाते थे।
 
इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसे इतने लघु जीवों से घिरा देख कर उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गई।
 
एक दिन देखा, फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिन्त लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा, हेमन्त, वसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी, परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।
 
सम्भवत: वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी। पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर के आरपार चौकड़ी भरती रही। पर कुछ दिनों के उपरान्त जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ गया, तब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रतीक्षा की स्तब्ध घड़ियाँ फिर लौट आईं।
 
उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कार्यक्रम बना। प्राय: मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास कम करती हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप (नौकर) आदि तो साथ जाने वाले थे ही, पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चिय किया, क्योंकि वह मेरे बिना रह नहीं सकती थी।
 
छात्रावास बन्द था, अत: सोना के नित्य नैमित्तिक कार्य-कलाप भी बन्द हो गए थे। मेरी उपस्थिति का भी अभाव था, अत: उसके आनन्दोल्लास के लिए भी अवकाश कम था।

हेमन्त-वसन्त मेरी यात्रा और तज्जनित अनुपस्थिति से परिचित हो चुके थे। होल्डाल बिछाकर उसमें बिस्तर रखते ही वे दौड़कर उस पर लेट जाते और भौंकने तथा क्रन्दन की ध्वनियों के सम्मिलित स्वर में मुझे मानो उपालम्भ देने लगते। यदि उन्हें बाँध न रखा जाता तो वे कार में घुसकर बैठ जाते या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन तक जा पहुँचते। परन्तु जब मैं चली जाती, तब वे उदास भाव से मेरे लौटने की प्रतीक्षा करने लगते।
 
सोना की सहज चेतना में मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था, नप्रत्यावर्तन का; इसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।
 
पैदल जाने-आने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। 2 जुलाई को लौटकर जब मैं बँगले के द्वार पर आ खड़ी हुई, तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।
 
गोधूली कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्त-वसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों में मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यों वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छ्लाँग नहीं लगाती? सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोंछने लगा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने लगे। वे लोग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।

ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाती थी। इतनी बड़ी हिरनी को पालनेवाले तो कम थे, परन्तु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।
 
एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूलकर बहुत ऊचाँई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।
 
सब उस सुनहले रेशम की गठरी के शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आए और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ।
 
सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन ही पालना पड़ रहा है।

नीलकंठ : मोर - महादेवी वर्मा

प्रयाग जैसे शान्त और सांस्कृतिक आश्रम-नगर में नखास- कोना एक विचित्र स्थिति रखता है। जितने दंगे-फसाद ओर छुरे चाकुबाजी की घटनाएं घटित होती हैं, सबका अशुभारम्भ प्रायः नखासकोने से ही होता है।
 
उसकी कुछ और भी अनोखी विशेषताएं हैं। घास काटने की मशीन के बड़े-चौड़े चाकू से लेकर फरसा, कुल्हाड़ी, आरी, छुरी आदि में धार रखने वालों तक की दूकानें वहीं हैं । अतः गोंठिल चाकू-छुरी को पैना करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।आँखों का सरकारी अस्पताल भी वहीं प्रतिष्ठित है। शत्रु- मित्र की पहचान के लिए दृष्टि कमजोर हो तो वहाँ ठीक करायी जा सकती है, जिससे कोई भूल होने की सम्भावना न रहे । इसके अतिरिक्त एक और अस्पताल उसी कोने में गरिमापूर्ण ऐतिहासिक स्थिति रखता है। आहत, मुमूर्ष व्यक्ति की दृष्टि से यह विशेष सुविधा है । यदि अस्पताल के अन्तःकणों में स्थान न मिले, यदि डाक्टर, नर्स आदि का दर्शन दुर्लभ रहे तो बरामदे-पोर्टिको आदि में विश्राम प्राप्त हो सकता है और यदि वहाँ भी स्थानाभाव हो, तो अस्पताल के कम्पाउण्ड में मरने का संतोष तो मिल ही सकता है ।
 
हमारे देश में अस्पताल, साधारण जन को अन्तिम यात्रा में संतोष देने के लिए ही तो हैं। किसी प्रकार घसीटकर, टाँगकर उस सीमा-रेखा में पहुँचा आने पर बीमार और उसके परिचारकों को एक अनिर्वचनीय आत्मिक सुख प्राप्त होता है। इससे अधिक पाने की न उसकी कल्पना है, न माँग । कम-से-कम इस व्यवस्था ने अंतिम समय मुख में गंगाजल, तुलसी, सोना डालने की समस्या तो सुलझा ही दी है।
 
यहां मत्स्य क्रय-विक्रय केन्द्र भी है और तेल-फुलेल को दूकान भी, मानो दुर्गन्ध-सुगन्ध में समरसता स्थापित करने का अनुष्ठान है।
 
पर नखासकोने के प्रति मेरे आकर्षण का कारण, उपयुक्त विशेषताएं नहीं हैं । वस्तुत: वह स्थान मेरे खरगोश, कबूतर, मोर, चकोर आदि जीव-अन्तुओं का कारागार भी है। अस्पताल के सामने की पटरी पर कई छोटे-छोटे घर और बरामदे हैं, जिनमें ये जीव-जन्तु तथा इनके कठिन हृदय जेलर दोनों निवास करते हैं।
 
छोटे-बड़े अनेक पिंजरे बरामदे में और बाहर रखे रहते हैं, जिनमें दो खरगोशों के रहने के स्थान में पच्चीस और चार चिड़ियों के रहने के स्थान में पचास भरी रहती हैं। इन छोटे जीवों को हंसने-रोने के लिए भिन्न ध्वनियाँ नहीं मिली हैं। अतः इनका महा-कलरव महा-क्रन्दन भी हो तो आश्चर्य नहीं । इन जीवों के कष्ठनिवारण का कोई उपाय न सूझ पाने पर भी मैं अपने आपको उस ओर जाने से नहों रोक पाती । किसी पिंजड़े में पानी न देखकर उसमें पानी रखवा देती हूँ। दाने का अभाव हो तो दाना डलवा देती हूँ । कुछ चिड़ियों को खरीदकर उड़ा देती हूँ । जिनके पंख काट दिये गये हैं, उन्हें ले आती हूँ । परन्तु फिर जब उस ओर पहुँच जाती हूँ, सब कुछ पहले जैसा ही कष्ट- कर मिलता है।
 
उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर लौट रही थी कि चिड़ियों और खरगोशों की दूकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया।
 
बड़े मियां चिड़ियावाले की दूकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरम्भ किया, “सलाम गुरुजी ! पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था । शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड़ लाया है, एक मोर है, एक मोरनी । आप पाल लें। मोर के पंजों से दवा बनती है, सो ऐसे हो लोग खरीदने आये थे । आखिर मेरे सीने में भी तो इन्सान का दिल है। मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दे हूँ । टालने के लिए मैंने कह दिया, गुरुजी ने मंगवाये हैं। वैसे यह कम्बख्त रोजगार ही खराब है । बस, पकड़ो पकड़ो, मारो-मारो ।
 
बड़े मियाँ के भाषण की तूफान मेल के लिए कोई निश्चित स्टेशन नहीं है। सुननेवाला थककर जहाँ रोक दे, वहीं स्टेशन मान लिया जाता है। इस तथ्य के परिचित होने के कारण ही मैंने बीच ही में उन्हें रोककर पूछा, “मोर के बच्चे हैं कहाँ ?”' बड़े मियाँ के हाथ के संकेत का अनुसरण करते हुए मेरी दृष्टि एक तार के छोटे-से पिंजड़े तक पहुँची, जिसमें तीतरों के समान दो बच्चे बैठे थे । मोर हैं, यह मान लेना कठिन था ! पिंजड़ा इतना संकीर्ण था कि वे पक्षि-शावक जाली के गोल फ्रेम में कसे- जड़े चित्र जैसे लग रहे थे ।
 
मेरे निरीक्षण के साथ-साथ बड़े मियाँ की भाषण-मेल चली जा रही थी। “ईमान कसम, गुरुजी, चिड़ीमार ने मुझसे इस मोर के जोड़े के नकद तीस रुपये लिये हैं। बारहा कहा, भई जरा सोच तो अभी इनमें मोर की कोई खासियत भी है कि तू इतनी बड़ी कीमत ही माँगने चला ! पर वह मूँजी क्यों सुनने लगा। आपका खयाल करके अछता-पछता कर देना ही पड़ा । अब आप जो मुनासिब समझें ।” अस्तु, तीस चिड़ीमार के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के ईमान के देकर जब मैंने वह छोटा पिंजरा कार में रखा, तब मानो वह जाली के चोखटे का चित्र जीवित हो गया। दोनों पक्षि-शावकों के छटपटाने से लगता था, मानो पिंजड़ा ही सजीव और उड़ने योग्य हो गया है ।
 
घर पहुँचने पर सब कहने लगे, तीतर है, मोर कहकर ठग लिया है।
 
कदाचित अनेक बार ठगे जाने के कारण ही ठगे जाने की बात मेरे चिढ़ जाने की दुर्बलता बन गई है। अप्रसन्न होकर मैंने कहा, “मोर के क्‍या सुर्खाब के पर लगे हैं। है तो पक्षी ही । और तीतर-बटेर क्‍या लम्बी पूँछ न होने के कारण उपेक्षा योग्य पक्षी हैं ?” चिढ़ा दिये जाने के कारण ही सम्भवतः उन दोनों पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई ।
 
पहले अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में उनका पिंजड़ा रखकर उसका दरवाजा खोला, फिर दो कटोरों में सत्तू की छोटो-छोटी गोलियाँ और पानी रखा । वे दोनों चूहेदानी जैसे पिंजड़े से निकल कर कमरे में मानो खो गए। कभी मेज के नीचे घुस गए, कभी आलमारी के पीछे । अन्त में इस लुका-छिपी से थककर, उन्होंने मेरी रद्दी कागजों की टोकरी को अपने नये बसेरे का गौरव प्रदान किया। दो-चार दिन वे इसी प्रकार दिन में इधर-उधर गुप्तवास करते और रात में रद्दी की टोकरी में प्रकट होते रहे। फिर आश्वस्त हो जाने पर कभी मेरी मेज पर, कभी कुर्सी पर और कभी मेरे सिर पर अचानक आविर्भूत होने लगे। खिड़कियों में तो जाली लगी थी, पर दरवाजा मुझे निरन्तर बन्द रखना पड़ता था। खुला रखने पर चित्रा (मेरी बिल्ली) इन नवागन्तुकों का पता लगा सकती थी और तब उसकी शोध का क्‍या परिणाम होता, यह अनुमान करना कठिन नहीं है। वैसे वह चूहों पर भी आक्रमण नहीं करती, परन्तु यहाँ तो सर्वथा अपरिचित पक्षियों की अनधिकार चेष्टा का प्रश्न था। उसके लिए दरवाजा बन्द रहे और ये दोनों (उसकी दृष्टि में) ऐरे-गैरे मेरी मेज को अपना सिंहासन बना लें, यह स्थिति चित्रा जैसी अभिमानिनी मार्जारी के लिए असह्य ही कही जायगी।
 
जब मेरे कमरे का कायाकल्प चिड़ियाखाने के रूप में होने लगा, तब मैंने बड़ी कठिनाई से दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचाया, जो मेरे जीव-जन्तुओं का सामान्य निवास है।
दोनों नवागन्तुकों ने पहले से रहनेवालों में वैसा ही कुतूहल जगाया, जैसा नववधू के आगमन पर परिवार में स्वाभाविक है। लक्का कबूतर नाचना छोड़कर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम-घूमकर गुटर्गूं-गुटर्गूं की रागिनी अलापने लगे । बड़े खरगोश सभ्य सभासदों के समान क्रम से बैठकर गम्भीर भाव से उनका निरीक्षण करने लगे । ऊन की गेंद जैसे छोटे खरगोश उनके चारों ओर उछल-कूद मचाने लगे। तोते मानो भली-भांति देखने के लिए एक आँख बन्द करके उनका परीक्षण करने लगे । ताम्रचूड़ झूले से उतर कर और दोनों पंखों को फैलाकर शोर करने लगा। उस दिन मेरे चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया।
 
धीरे-धीरे दोनों मोर बच्चे बढ़ने लगे। उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमशः और रंगमय था, जैसा इल्ली से तितली का बनना ।
 
मोर के सिर की कलगी और सघन, ऊँची तथा चमकीली हो गयी । चोंच अधिक बंकिम और पैनी हो गयी, गोल आँखों में इन्द्रनील की नीलाभ द्युति झलकने लगी। लम्बी लील-हरित ग्रीवा की हर भंगिमा में धूपछाँही तरंगें उठने-गिरने लगीं । दक्षिण-वाम दोनों पंखों में स्लेटी और सफेद आलेखन स्पष्ट होने लगे। पूँछ लम्बी हुई और उसके पंखों पर चंद्रिकाओं के इन्द्रधनुषी रंग उद्दीप्त हो उठे । रंग-रहित पैरों को गर्वीली गति ने एक नयी गरिमा से रंजित कर दिया । उसका गर्दन ऊँची कर देखना विशेष भंगिमा के साथ उसे नीचा कर दाना चुगना, पानी पीना, टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो सुकुमारता और सौंदर्य था, उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता है। गति का चित्र नहीं आँका जा सकता ।

मोरनी का विकास मोर के समान चमत्कारिक तो नहीं हुआ, परन्तु अपनी लम्बी धूपछांही गर्दन, हवा में चंचल कलगी, पंखों की श्याम-शवेत पत्रलेखा, मंथर गति आदि से वह भी मोर की उपयुक्त सहचारिणी होने का प्रमाण देने लगी।
 
नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकण्ठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा ।
 
मुझे स्वयं ज्ञान नहीं कि कब नीलकण्ठ ने अपने-आपको चिड़ियाघर के निवासी जीव-जन्तुओं का सेनापति और संरक्षक नियुक्त कर लिया। सवेरे ही वह सब खरगोश, कबूतर आदि की सेना एकत्र कर उस ओर ले जाता, जहाँ दाना दिया जाता है और घूम-घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता । किसी ने कुछ गड़बड़ की और वह अपने तीखे चंचु-प्रहार से उसे दण्ड देने दौड़ा ।
खरगोश के छोटे और शरीर बच्चों को वह चोंच से उनके कान पकड़कर उठा लेता था और जब तक वे आर्तक्रन्दन न करने लगते, उन्हें अधर में लटकाये रखता। कभी-कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कर्णवेध संस्कार हो जाता था, पर वे फिर कभी उसे क्रोधित होने का अवसर न देते थे । उसके दण्ड- विधान के समान ही उन जीव-जन्तुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था । प्रायः वह मिट्टी में पंख फैलाकर बैठ जाता और वे सब उसकी लम्बी पूँछ और सघन पंखों में छुआ-छुओअल-सा खेलते रहते थे।
 
एक दिन उसके अपत्यस्नेह का हमें ऐसा प्रमाण मिला कि हम विस्मित हो गए । कभी-कभी खरगोश, कबूतर आदि साँप के लिए आकर्षण बन जाते हैं और यदि जाली के घर में पानी निकलने के लिए बनी नालियों में से कोई खुली रह जाए तो उसका भीतर प्रवेश पा लेना सहज हो जाता है। ऐसी ही किसी स्थिति में एक साँप जाली के भीतर पहुँच गया।
 
सब जीव-जन्तु भागकर इधर-उधर छिप गये, केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड़ में आ गया। निगलने के प्रयास में साँप ने उसका आधा पिछला शरीर तो मुंह में दबा रखा था, शेष आधा जो बाहर था, उससे चीं-चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को स्पष्ट सुनाई दे सके ! नीलकण्ठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। उसी के चौकन्ने कानों ने उस मंद स्वर की व्यथा पहचानी और वह पूँछ-पंख समेटकर सर्र से एक झपट्टे में नीचे आ गया ।
 
सम्भवत: अपनी सहज चेतना से ही उसने समझ लिया होगा कि साँप के फन पर चोंच मारने से खरगोश भी घायल हो सकता है। उसने साँप को फन के पास पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने प्रहार किये कि वह अधमरा हो गया । पकड़ ढीली पड़ते ही खरगोश का बच्चा मुख से निकल आया, परन्तु निश्चेष्ट-सा वहीं पड़ा रहा ।
 
राधा ने सहायता देने की आवश्यकता नहीं समझी, परन्तु अपनी मन्द केका से किसी असामान्य घटना की सूचना सब ओर प्रसारित कर दी । माली पहुँचा, फिर हम सब पहुँचे । नीलकंठ जब साँप के दो खण्ड कर चुका, तब उस शिशु खरगोश के पास गया और रात भर उसे पंखों के नीचे उष्णता देता रहा ।
 
कार्तिकेय ने अपने युद्ध-वाहन के लिए मयूर को क्यों चुना होगा, यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है।
 
मयूर कला प्रिय वीर पक्षी है, हिंसक मात्र नहीं । इसी से उसे बाज, चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिनका जीवन ही क्रूरकर्म है ।
 
नीलकण्ठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थीं ही, उनका मानवीकरण भी हो गया था।
 
मेघों की साँवली छाया में अपने इन्द्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को मण्डलाकार बनाकर जब वह नाचता था, तब उस नृत्य में एक सहजात लय-ताल रहता था। आगे-पीछे, दाहिने- बाएँ क्रम से घूमकर वह किसी अलक्ष्य सम पर ठहर-ठहर जाता था।
 
राधा नीलकण्ठ के समान नहीं नाच सकती थी, परन्तु उसकी गति में भी छन्‍द रहता था। वह नृत्यमग्न नीलकण्ठ के दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बायीं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर । इस प्रकार उसकी परिक्रमा में भी एक पूरक ताल का परिचय मिलता था। नीलकण्ठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य मुझे बहुत भाता है, यह तो नहीं बताया जा सकता; परन्तु अचानक एक दिन वह मेरे जालीघर के पास पहुँचते ही, अपने झूले से उतरकर नीचे आ गया और पंखों का सतरंगी मण्डलाकार छाता तानकर नृत्य की भंगिमा में खड़ा हो गया । तब से यह नृत्य-भंगिमा नृत्य का क्रम बन गयी। प्राय: मेरे साथ कोई न कोई देशी-विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की मुद्रा को अपने प्रति सम्मान सूचक समझकर विस्मयाभिभूत हो उठता था । कई विदेशी महिलाओं ने उसे “परफैक्ट जेन्टिलमैंन” की उपाधि दे डाली ।
 
जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड-खंड कर सकता था, उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले-हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी और विस्मय भी होता था। फलों के वृक्षों से अधिक उसे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष भाते थे ।
 
वसंत में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे, अशोक नये लाल पल्‍लवों से ढंक जाता था, तब जालीघर में वह इतना अस्थिर हो उठता था कि उसे बाहर छोड़ देना पड़ता । पर जब तक राधा को भी मुक्त न किया जाए, वह दरवाजे के बाहर ही उपालम्भ की मुद्रा में खड़ा रहता । मंजरियों के बीच उसकी नीलाभ झलक संध्या की छाया से सुनहले सरोवर में नीले कमल- दलों का भ्रम उत्पन्न कर देतो थी। हवा से तरंगायित अशोक के रक्तिमाभ पत्तों में तो वह मूंगे के फलक पर मरकत से बना चित्र जान पड़ता था ।

नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतु तो वर्षा ही थी। मेघों के उमड़ आने से पहले ही वे हवा में उसकी सजल आहट पा लेते थे और तब उनकी मन्द्र केका की गूँज-अनुगूँज तीव्र से तीव्र- तर होती हुई मानो बूँदों के उतरने के लिए सोपान-पंक्ति बनने लगती थी । मेघ के गर्जन के ताल पर ही उसके तन्मय नृत्य का आरम्भ होता । और फिर मेघ जितना अधिक गरजता, बिजली जितनी अधिक चमकती, बूदों की रिमझिमाहट जितनी तीव्र होती जाती नीलकण्ठ के नृत्य का वेग उतना ही अधिक बढ़ता जाता और उसकी केका का स्वर उतना ही मन्द्र से मन्द्रतर होता जाता । वर्षा के थम जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर सुखाता । कभी-कभी वे दोनों एक-दूसरे के पंखों से टपकने वाली बूँदों को चोंच से पी-पीकर पंखों का गीलापन दूर करते रहते ।
 
इस आनन्दोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा, यह भी एक करुण कथा है ।
 
एक दिन मुझे किसी कार्य से नखासकोने से निकलना पड़ा और बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक लिया । इस बार किसी पिंजड़े की ओर नहीं देखूँगी, यह संकल्प करके मैंने बड़े मियाँ की विरल दाढ़ी और सफेद डोरे से कान में बँधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केन्द्र बनाया पर बड़े मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना कठिन था। मोरनी राधा जैसी ही थी। उसके मूँज से बंधे दोनों पंजों की उँगलियाँ टूट- कर इस प्रकार एकत्र हो गई थीं कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी।
 
बड़े मियाँ की भाषण-मेल फिर दौड़ने लगी--“देखिये गुरुजी, कम्बख्त चिड़ीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है। ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है । आप न आयी होतीं तो मैं उसी के सिर इसे पटक देता । पर आपसे भी यह अधमरी मोरनी ले जाने को कैसे कहूँ ।
 
सारांश यह की सात रुपये देकर मैं उसे अगली सीट पर रखवा कर घर ले आयी और एक बार फिर मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा अस्पताल बना । पंजों की मरहम-पट्टी और देखभाल करने पर वह महीने भर में अच्छी हो गयी । उँगलियाँ वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी रहीं, परन्तु वह ठूँठ जैसे पंजों पर डगमगाती हुई चलने लगी । तब उसे जालीघर में पहुँचाया गया और नाम रखा गया कुब्जा । कुब्जा नाम के अनुरूप स्वभाव से भी वह कुब्जा प्रमाणित हुई ।
 
अब तक नीलकण्ठ और राधा साथ रहते थे । अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती । चोंच से मार-मारकर उसने राधा की कलगी नोच डाली, पंख नोच डाले। कठिनाई यह थी कि नीलकण्ठ उससे दूर भागता था और वह उसके साथ रहना चाहती थी । न किसी जीव-जन्तु से उसकी मित्रता थी, न वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी । उसी बीच राधा ने दो अण्डे दिए, जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। पता चलते ही कुब्जा ने चोंच मार-मार राधा को ढकेल दिया और फिर अण्डे फोड़कर ढूंठ जैसे पैरों से सब ओर छितरा दिए ।
 
हमने उसे अलग बन्द किया तो उसने दाना-पानी छोड़ दिया और जाली पर सिर पटक-पटक कर घायल कर लिया ।
 
इस कलह-कोलाहल से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की प्रसन्नता का अन्त हो गया ।
 
कई बार वह जाली के घर से निकल भागा । एक बार कई दिन भूखा-प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा, जहाँ से बहुत पुचकारकर मैंने उतारा। एक बार मेरी खिड़की के शेड पर छिपा रहा।

मेरे दाना देने जाने पर वह सदा के समान अब भी पंख़ों को मंडलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था, पर उसकी चाल में थका- बट और आंखों में एक शून्यता रहती थी। अपनी अनुभवहीनता के कारण ही मैं आशा करती रही कि थोड़े दिन बाद सबमें मेल हो जायगा । अन्त में तीन-चार मास के उपरान्त एक दिन सबेरे जाकर देखा कि नीलकंठ पूंछ-पंख फैलाये धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है, जैसे खरगोश के बच्चों को पंख में छिपाकर बैठता था । मेरे पुकारने पर भी उसके न उठने पर संदेह हुआ ।
 
वास्तव में नीलकंठ मर गया था। “क्यों” का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है। न उसे कोई बीमारी हुई; न उसके रंग- बिरंगे फूलों के स्तबक जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला। मैं अपने शाल में लपेटकर उसे संगम ले गयी । जब गंगा की बीच धार में उसे प्रवाहित किया गया, तब उसके पंखों को चन्द्रिकाओं से बिम्बित-प्रतिबिम्बित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा।
 
नीलकंठ के न रहने पर राधा तो निश्चेष्ट-सी कई दिन कोने में बैठी रही । वह कई बार भागकर लौट आया था, अतः वह प्रतीक्षा के भाव से द्वार पर दृष्टि लगाये रहती थी। पर कुब्जा ने कोलाहल के साथ खोज-ढूँढ़ आरम्भ की । खोज के क्रम में वह प्रायः जाली का दरवाजा खुलते ही बाहर निकल आती थी और आम, अशोक, कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। एक दिन वह आम से उतरी ही थी कि कजली (अल्सेशियन कुत्ती) सामने पड़ गई। स्वभाव के अनुसार उसने कजली पर चोंच से प्रहार किया। परिणामत: कजली के दो दाँत उसकी गर्दन पर लग गए। इस बार उसका कलह-कोलाहल और द्वेष-प्रेम भरा जीवन बचाया न जा सका। परन्तु इन तीन पक्षियों ने मुझे पक्षि-प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया है, वह मेरे लिए विशेष महत्त्व रखता है।

राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली है। आषाढ़ में जब आकाश मेघाच्छन्न हो जाता है, तब वह कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक की डाल पर अपनी केका को तीव्र से तीव्रतर करके नीलकंठ को बुलाती रहती है ।

दो फूल - महादेवी वर्मा | mahadevi verma

फागुन की गुलाबी जाड़े की वह सुनहली संध्या क्या भुलाई जा सकती है ! सवेरे के पुलकपखी वैतालिक एक लयवती उड़ान में अपने-अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। विरल बादलों के अन्ताल से उन पर चलाए हुए सूर्य के सोने के शब्दवेधी बाण उनकी उन्माद गति में ही उलझ कर लक्ष्य-भ्रष्ट हो रहे थे।
 
पश्चिम में रंगों का उत्सव देखते-देखते जैसे ही मुँह फेरा कि नौकर सामने आ खड़ा हुआ। पता चला, अपना नाम न बताने वाले एक वृद्ध सज्जन मुझसे मिलने की प्रतीक्षा में बहुत देर से बाहर खड़े हैं। उनसे सवेरे आने के लिए कहना अरण्य-रोदन ही हो गया।
 
मेरी कविता की पहली पंक्ति ही लिखी गई थी, अतः मन खिसिया-सा आया। मेरे काम से अधिक महत्त्वपूर्ण कौन-सा काम हो सकता है, जिसके लिए असमय में उपस्थित होकर उन्होंने मेरी कविता को प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही खण्डित मूर्ति के समान बना दिया ! ‘मैं कवि हूं’ में जब मेरे मन का सम्पूर्ण अभिमान पुञ्जीभूत होने लगा, तब यदि विवेक का ‘पर मनुष्य नहीं’ में छिपा व्यंग बहुत गहरा न चुभ जाता तो कदाचित् मैं न उठती। कुछ खीझी, कुछ कठोर-सी मैं बिना देखे ही एक नई और दूसरी पुरानी चप्पल में पैर डालकर जिस तेजी से बाहर आयी उसी तेजी से उस अवांछित आगुंतुक के सामने निस्तब्ध और निर्वाक हो रही। बचपन में मैंने कभी किसी चित्रकार का बनाया कण्व ऋषि का चित्र देखा था-वृद्ध में मानो वह सजीव हो गया था। दूध से सफेद बाल और दूधफेनी-सी सफेद दाढ़ी वाला वह मुख झुर्रियों के कारण समय का अंकगणित हो रहा था। कभी की सतेज आंखें आज ऐसी लग रही थीं, मानो किसी ने चमकीले दर्पण पर फूंक मार दी हो। एक क्षण में ही उन्हें धवल सिर से लेकर धूल भरे पैरों तक, कुछ पुरानी काली चप्पलों से लेकर पसीने और मैल की एक बहुत पतली कोर से युक्त खादी की धुली टोपी तक देखकर कहा-‘आप को पहचानी नहीं।’ अनुभवों से मलिन, पर आंसुओं से उजली उनकी दृष्टि पल भर को उठी, फिर कांस के फूल जैसी बरौनियों वाली पलकें झुक आईं-न जाने व्यथा के भार से, न जाने लज्जा से।

एक क्लान्त पर शान्त कण्ठ ने उत्तर दिया-‘जिसके द्वार पर आया है उसका नाम जानता है, इससे अधिक मांगने वाले का परिचय क्या होगा ? मेरी पोती आपसे एक बार मिलने के लिए बहुत विकल है। दो दिन से इसी उधेड़-बुन में पड़ा था। आज साहस करके आ सका हूं-कल तक शायद साहस न ठहरता इसी से मिलने के लिए हठ कर रहा था। पर क्या आप इतना कष्ट स्वीकार करके चल सकेंगी ? तांगा खड़ा है।’
 
मैं आश्चर्य से वृद्ध की ओर देखती रह गई-मेरे परिचित ही नहीं, अपरिचित भी जानते हैं कि मैं सहज ही कहीं आती-जाती नहीं। यह शायद बाहर से आए हैं। पूछा-‘क्या वह नहीं आ सकती ?’ वृद्ध के लज्जित होने का कारण मैं न समझ सकी। उनके होंठ हिले; पर कोई स्वर न निकल सका और मुंह फेर कर गीली आंखों को छिपाने की चेष्टा करने लगे। उनका कष्ट देखकर मेरा बीमारी के सम्बन्ध में प्रश्न करना स्वाभाविक ही था। वृद्ध ने नितान्त हताश मुद्रा में स्वीकृतिसूचक मस्तक हिलाकर कुछ बिखरे से शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया कि उनके एक पोती है जो आठ की अवस्था में मातृ-पितृहीन और ग्यारहवें वर्ष में विधवा हो गई थी।
 
अधिक तर्क-वितर्क का अवकाश नहीं था-सोचा वृद्ध की पोती अवश्य ही मरणासन्न है ! बेचारी अभागी बालिका ! पर मैं तो कोई डाक्टर या वैद्य नहीं हूं और मुंडन, कनछेदन आदि में कवि को बुलाने वाले लोग अभी उसे गीतावाचक के समान अन्तिम समय में बुलाना नहीं सीखे हैं। वृद्ध जिस निहोरे के साथ मेरे मुख का प्रत्येक भाव परिवर्तन देख रहे थे, उसी ने मानो मेरे कण्ठ से बलात् कहला दिया-'चलिए, किसी को साथ ले लूं, क्योंकि लौटते-लौटते अंधेरा हो जाएगा।
 
नगर की शिराओं के समान फैली और एक- दूसरी से उलझी हुई गलियों से जिनमें दूषित रक्त जैसा नालियों का मैला पानी बहता है और रोग के कीटाणुओं की तरह नये मैले बालक घूमते हैं, मेरा उस दिन विशेष परिचय हुआ। किसी प्रकार का एक तिमंजिले मकान की सीढ़ियां पार कर हम लोग ऊपर पहुंचे। दालान में ही मैली फटी दरी पर, खम्भे का सहारा लेकर बैठी हुई एक स्त्री मूर्ति दिखाई दी, जिसकी गोद में मैले कपड़ों में लिपटा एक पिण्ड-सा था। वृद्ध मुझे वहीं छोड़कर भीतर के कमरे को पार कर दूसरी ओर के छज्जे पर जा खड़े हुए, जहां से उनके थके शरीर और टूटे मन को द्वंद्व धुंधले चल-चित्र का कोई मूक, पर करुण दृश्य बनने लगा।
 
एक उदासीन कण्ठ से ‘आइए’ में निकट आने का निमन्त्रण पाकर मैंने अभ्यर्थना करनेवाली की ओर ध्यान से देखा। वृद्ध से उसकी मुखाकृति इतनी मिलती थी कि आश्चर्य होता था। वही मुख की गठन, उसी प्रकार के चमकीले पर धुंधले नेत्र और वैसे ही कांपते ओंठ। रूखे बाल और मलिन वस्त्रों में उसकी कठोरता वैसी ही दयनीय जान पड़ती थी, जैसी जमीन में बहुत दिन गड़ी रहने के उपरान्त खोदकर निकाली हुई तलवार। कुछ खिजलाहट भरे स्वर में कहा-'बड़ी दया की पिछले पांच महीने से हम जो कष्ट उठा रहे हैं, उसे भगवान ही जानते हैं। अब जाकर छुट्टी मिली है पर लड़की का हठ तो देखो। अनाथालय में देने के नाम से बिलखने लगती है, किसी और के पास छोड़ आने की चर्चा से अन्न-जल छोड़ बैठती है। बार-बार समझाया कि जिससे न जान, न पहचान उसे ऐसी मुसीबत में घसीटना कहां की भलमनसाहत है; पर यहां सुनता कौन है ! लालाजी बेचारे तो संकोच के मारे जाते ही नहीं थे; पर जब हार गये, तब झक मार कर जाना पड़ा। अब आप ही उद्धार करें तो प्राण बचे।’ इस लम्बी-चौड़ी सारगर्भित भूमिका से अवाक् मैं जब कुछ प्रकृतिस्थ हुई तब वस्तुस्थिति मेरे सामने धीरे-धीरे वैसे ही स्पष्ट होने लगी, जैसे पानी में कुछ देर रहने पर तल की वस्तुएं। यदि यह न कहूं कि मेरा शरीर सिहर उठा था, पैर अवसन्न हो रहे थे और माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं, तो असत्य कहना होगा ।सामाजिक विकृति का बौद्धिक निरूपण मैंने अनेक बार किया है; पर जीवन की एक विभीषिका से मेरा यही पहला साक्षात था। मेरे सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण को लक्ष्य करके परिवार में प्रायः सभी ने कुछ निराश भाव से सिर हिलाकर मुझे यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि मेरी सात्विक कला इस लू का झोंका न सह सकेगी और साधना की छाया में पले मेरे कोमल सपने इस धुएं में जी न सकेंगे। मैंने अनेक बार सबको यही एक उत्तर दिया है कि कीचड़ से कीचड़ को धो सकना न सम्भव हुआ है न होगा; उसे धोने के लिए निर्मल जल चाहिए। मेरा सदा से विश्वास रहा है कि अपने दलों पर मोती-सा जल भी न ठहरने देनेवाली कमल की सीमातीत स्वच्छता ही उसे पंक में जीने की शक्ति देती है।
 
-और तब अपने ऊपर कुछ लज्जित होकर मैंने उस मटमैले शाल को हटाकर निकट से उसे देखा, जिसको लेकर बाहर-भीतर इतना प्रलय मचा हुआ था। उग्रता की प्रतिमूर्ति-सी नारी की उपेक्षा-भरी गोद और मलिनतम आवरण उस कोमल मुख पर एक अलक्षित करुणा की छाप लगा रहे थे। चिकने, काले और छोटे-छोटे बाल पसीने से उसके ललाट पर चिपक कर काले अक्षरों जैसे जान पड़ते थे और मुंदी पलकें गालों पर दो अर्धवृत्त बना रही थीं। छोटी लाल कली जैसा मुंह नींद में कुछ खुल गया था और उस पर एक विicत्र-सी मुस्कराहट थी, मानो कोई सुन्दर स्वप्न देख रहा हो। इसके आने से कितने भरे हृदय सूख गए, कितनी सूखी आंखों में बाढ़ आ गई और कितनों को जीवन की घड़ियां भरना दूभर हो गया, इसका इसे कोई ज्ञान नहीं।यह अनाहूत, अवांछित अतिथि अपने सम्बन्ध में भी क्या जानता है। इसके आगमन ने इसकी माता को किसी की दृष्टि में आदरणीय नहीं बनाया, इसके स्वागत में मेवे नहीं बंटे, बधाई नहीं गाई गई, दादा-नाना ने अनेक नाम नहीं सोचे, चाची-ताई ने अपने-अपने नेग के लिए वाद-विवाद नहीं किया और पिता ने इसमें अपनी आत्मा का प्रतिरूप नहीं देखा। केवल इतना ही नहीं, इसके फूटे कपाल में विधाता ने माता का वह अंक भी नहीं लिखा जिसका अधिकारी, निर्धन-से-निर्धन, पीड़ित-से-पीड़ित स्त्री का बालक हो सकता है।

समाज के क्रूर व्यंग से बचने के लिए एक घोरतम नरक में अज्ञातवास कर जब इसकी मां ने अकेले यन्त्रणा से छटपटा-छटपटा कर इसे पाया, तब मानो उसकी सांस छूकर ही यह बुझे कोयले से दहकता अंगारा हो गया। यह कैसे जीवित रहेगा, इसकी किसी को चिन्ता नहीं है। है तो केवल यह कि कैसे अपने सिर बिना हत्या का भार लिए ही इसे जीवन के भार से मुक्त करने का उपकार कर सकें। मन पर जब एक गम्भीर विषाद असह्य हो उठा, तब उठकर मैंने उस बालिका को देखने की इच्छा प्रकट की। उत्तर में विरक्त-सी बुआ ने दालान की बायीं दिशा में एक अंधेरी कोठरी की ओर उंगली उठा दी।
 
भीतर जाकर पहले तो कुछ स्पष्ट दिखाई ही नहीं दिया, केवल कपड़ों की सरसराहट के साथ खाट पर एक छाया-सी उठती जान पड़ी; पर कुछ क्षणों में आँखें अँधेरे की अभ्यस्त हो गयीं, तब मैंने आले पर रखे हुए दिए के पास से दियासलाई उठाकर उसे जला दिया।
 
स्मरण नहीं आता वैसी करुणा मैंने कहीं और देखी है। खाट पर बिछी मैली दरी, सहस्रों सिकुड़न भरी मलिन चादर और तेल के कई धब्बे वाले तकिए के साथ मैंने जिस दयनीय मूर्ति से साक्षात्‌ किया, उसका ठीक चित्र दे सकना सम्भव नहीं है। वह 18 वर्ष से अधिक की नहीं जान पड़ती थी-दुर्बल और असहाय जैसी । सूखे ओंठ वाले, सांवले, रक्तहीनता से पीले पुख में आंखें ऐसे जल रही थीं जैसे तेलहीन दीपक की बत्ती।

उस अस्वाभाविक निस्तब्धता से ही उसकी मानसिक स्थिति का अनुमान कर मैं सिरहाने रखी हुई ऊँची चौकी पर से लोटे को हटाकर उस पर बैठ गयी। और तब जाने किस अज्ञात प्रेरणा से मेरे मन का निष्क्रिय विषाद क्रोध के सहस्र स्फुलिंगों में बदलने लगा।
 
अपने अकाल वैधव्य के लिए वह दोषी नहीं ठहराई जा सकती, उसे किसी ने धोखा दिया, इसका उत्तरदायित्व भी उस पर नहीं रखा जा सकता; पर उसकी आत्मा का जो अंश, हृदय का जो खण्ड उसके सामने है, उसके जीवन-मरण के लिए केवल वही उत्तरदायी है। कोई पुरुष यदि उसको अपनी पत्नी स्वीकार नहीं करता, तो केवल इसी मिथ्या के आधार वह अपने जीवन के इस सत्य को, अपने बालक को अस्वीकार कर देगी? संसार में चाहे इसको कोई परिचयात्मक विशेषण न मिला हो; परन्तु अपने बालक के निकट तो यह गरिमामयी जननी की संज्ञा ही पाती रहेगी ? इसी कर्तव्य को अस्वीकार करने का यह प्रबन्ध कर रही है। किसलिए ? केवल इसलिए कि या तो उस वंचक समाज में फिर लौटकर गंगा-स्नान कर, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ आदि के द्वारा सती विधवा का स्वांग भरती हुई और भूलों की सुविधा पा सके या किसी विधवा-आश्रम में पशु के समान नीलामी पर चढ़कर कभी नीची, कभी ऊंची बोली पर बिके, अन्यथा एक-एक बूंद विष पीकर धीरे-धीरे प्राण दे।
 
स्त्री अपने बालक को हृदय से लगाकर जितनी निर्भर है, उतनी किसी और अवस्था में नहीं। वह अपनी संतान की रक्षा के समय जैसी उग्र चन्डी है वैसी और किसी स्थिति में नहीं। इसी से कदाचित्‌ लोलुप संसार उसे अपने चक्रव्यूह में घेरकर बाणों से छलनी करने के लिए पहले इसी कवच को छीनने का विधान कर देता है। यदि यह स्त्रियां अपने शिशु को गोद में लेकर साहस से कह सकें कि “बर्बरो, तुमने हमारा नारीत्व, पत्नीत्व सब ले लिया; पर हम अपना मातृत्व किसी प्रकार न देंगी' तो इनकी समस्याएं तुरन्त सुलझ जावें। जो समाज इन्हें वीरता, साहस और त्याग भरे मातृत्व के साथ नहीं स्वीकार कर सकता, क्‍या वह इनकी कायरता और दैन्य भरी मूर्ति को ऊंचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर पूजेगा ? युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशक्ति के लिए ही दण्ड देता आ रहा है।
 
मैं अपने भावावेश में इतनी स्थिर हो उठी थी कि उस समय का कहा-सुना आज उसी रूप में ठीक-ठीक याद नहीं आता। परन्तु जब उसने खाट से ज़मीन पर उतरकर अपनी दुर्बल बाहों से मेरे पैरों को घेरते हुए मेरे घुटनों में मुंह छिपा लिया, तब उसकी चुपचाप बरसती हुई आंखों का अनुभव कर मेरा मन पश्चाताप से व्याकुल होने लगा।
 
उसने अपने नीरव आंसुओं में अस्फुट शब्द गूँथ-गूँथकर मुझे यह समझाने का प्रयत्न किया कि वह अपने बच्चे को नहीं देना चाहती। यदि उसके दादाजी राजी न हों, तो मैं उसके लिए ऐसा प्रबन्ध कर दूं, जिससे उसे दिन में एक कर दो रूखी-सूखी रोटियां मिल सकें। कपड़े वह मेरे उतारे ही पहन लेगी और कोई विशेष खर्च उसका नहीं है। फिर जब बच्चा बड़ा हो जाएगा, तब जो काम मैं उसको बता दूँगी, वही तन-मन से करती वह जीवन बिता देगी।
 
पर जब तक वह फिर कोई अपराध न करे, तब तक मैं अपने ऊपर उसका वही अधिकार बना रहने दूं, जिसे वह मेरी लड़की के रूप में पा सकती थी। उसके मां नहीं है, इसी से उसकी इतनी दुर्दशा सम्भव हो सकी-अब यदि मैं उसे मां की ममता भरी छाया दे सकूँ, तो वह अपने बालक के साथ कहीं भी सुरक्षित रह सकेगी।

उस बालिका माता के मस्तक पर हाथ रखकर मैं सोचने लगी कि कहीं यह वरद हो सकता। इस पतझड़ के युग में समाज से फूल चाहे न मिल सकें; पर धूल की किसी स्त्री को कमी नहीं रह सकती, इस सत्य को यह रक्षा की याचना करने वाली नहीं जानती।
 
-पर 27 वर्ष की अवस्था में मुझे 18-वर्षीय लड़की और 22 दिन के नाती का भार स्वीकार करना ही पड़ा।
 
वृद्ध अपने सहानुभूतिहीन प्रान्त में भी लौट जाना चाहते थे, उपहास भरे समाज की विडम्बना में भी शेष दिन बिताने को इच्छुक थे और व्यंग भरे क्रूर पड़ोसियों से भी मिलने को आकुल थे; परन्तु मनुष्यता की ऊंची पुकार में यह संस्कार के क्षीण स्वर दब गये।
 
अब आज तो वे किसी अज्ञात लोक में हैं। मलय के झोंके के समान मुझे कंटक-वन में खींच लाकर उन्होंने जो दो फूलों की धरोहर सौंपी थी, उससे मुझे स्नेह की सुरभि ही मिली है। हां, उन फूलों में से एक को शिकायत है कि मैं उसकी गाथा सुनने का अवकाश नहीं पाती और दूसरा कहता है कि मैं राजकुमार की कहानी नहीं सुनाती।
 
(२१ नवंबर, १९३५)

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