मिलन यामिनी हरिवंशराय बच्चन Milan Yamini Harivansh Rai Bachchan

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मिलन यामिनी हरिवंशराय बच्चन (शेष भाग )
Milan Yamini Harivansh Rai Bachchan

11. सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की - Harivansh Rai Bachchan

1
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।

अंबर-अंतर गल धरती का
अंचल आज भिगोता,
प्यार पपीहे का पुलकि‍त स्वर
दिशि-दिशि मुखरित होता,

और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन
फिर-फिर पवन उठाता,
यह मदमातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।

2
हैं अनगिन अरमान मिलन की
ले दे के दो घड़ियाँ,
झूल रही पलकों पर कितने
सुख सपनों की लड़ियाँ,

एक-एक पल में भरना है
युग-युग की चाहों को,
सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
हरिवंशराय-बच्चन

3
बाट जोहते इस रजनी की
वज्र कठिन दिन बीते,
किंतु अंत में दुनिया हारी
और हमीं तुम जीते,

नर्म नींद के आगे अब क्यों
आँखें पाँख झुकाएँ,
सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।

4
वही समय जिसकी दो जीवन
करते थे प्रत्याशा,
वही समय जिस पर अटकी थी
यौवन की सब आशा,

इस वेला में क्या-क्या करने
को हम सोच रहे थे,
सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।

12. प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ - Harivansh Rai Bachchan

1
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

अरमानों की एक निशा में
होती हैं कै घड़ियाँ,
आग दबा रक्खी है मैंने
जो छूटीं फुलझड़ियाँ,

मेरी सीमित भाग्य परिधि को
और करो मत छोटी,
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

2
अधर पुटों में बंद अभी तक
थी अधरों की वाणी,
'हाँ-ना' से मुखरित हो पाई
किसकी प्रणय कहानी,

सिर्फ भूमिका थी जो कुछ
संकोच भरे पल बोले,
प्रिय, शेष बहुत है बात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

3
शिथिल पड़ी है नभ की बाँहों
में रजनी की काया,
चांद चांदनी की मदिरा में
है डूबा, भरमाया,

अलि अब तक भूले-भूले-से
रस-भीनी गलियों में,
प्रिय, मौन खड़े जलजात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

4
रात बुझाएगी सच-सपने
की अनबूझ पहेली,
किसी तरह दिन बहलाता है
सबके प्राण, सहेली,

तारों के झँपने तक अपने
मन को दृढ़ कर लूंगा,
प्रिय, दूर बहुत है प्रात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

13. सुधि में संचित वह साँझ - Harivansh Rai Bachchan

सुधि में संचित वह साँझ कि जब
रतनारी प्‍यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।

1
सिंदूर लुटाया था रवि ने,
संध्‍या ने स्‍वर्ण लुटाया था,
थे गाल गगन के लाल हुए,
धरती का दिल भर आया था,

लहराया था भरमाया-सा
डाली-डाली पर गंध पवन
जब मैंने तुमको औ' तुमने
मुझको अनजाने पाया था;

है धन्‍य धरा जिस पर मन का
धन धोखे से मिल जाता है;
पल अचरज और अनिश्‍चय के
पलकों पर आते ही पिघले,

पर सुधि में संचित साँझ कि जब
रतनारी प्‍यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।

2
सायं-प्रात: का कंचन क्या
यदि अधरों का अंगार मिले,
तारकमणियों की संपत्ति क्‍या
यदि बाँहों का गलहार मिले,

संसार मिले भी तो क्‍या जब
अपना अंतर ही सूना हो,
पाना फिर क्‍या शेष रहे जब
मन को मन का उपहार मिले;

है धन्‍य प्रणय जिसको पाकर
मानव स्‍वर्गों को ठुकराता;
ऐसे पागलपन का अवसर
कब जीवन में दो बार मिले;

है याद मुझे वह शाम कि जब
नीलम सी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं उन्‍माद भरी
खुलकर फूले गुलमुहर तले।

सुधि में संचित वह साँझ कि जब
रतनारी प्‍यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।

आभास बिरह का आया था
मुझको मिलने की घड़ि‍यों में,
आहों की आहट आई थी
मुझको हँसती फुलझड़ि‍यों में,

मानव के सुख में दुख ऐसे
चुपचाप उतरकर आ जाता,
है ओस ढुलक पड़ती जैसे
मकरंदमयी पंखुरियों में;

है धन्‍य समय जिससे सपना
सच होता, सच सपना होता;
अंकित सबके अंतरपट पर
कुछ बीती बातें, दिन पिछले;

कब भूल सका गोधूली की जब
सित-सेमल सादी सारी में, तुम, प्राण, मिली अवसाद-भरी
कलि-पुहुप झरे गुलमुहर तले।

सुधि में संचित वह साँझ कि जब
रतनारी प्‍यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।

14. जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला - Harivansh Rai Bachchan

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा ।

1
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,

कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,

क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा ।

2
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,

जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;

अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,

यह थी तक़दीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा ।

3
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,

मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,

मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,

जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा ।

उत्तर भाग

1. कुदिन लगा, सरोजिनी सजा न सर - Harivansh Rai Bachchan

कुदिन लगा, सरोजिनी सजा न सर,
सुदिन भगा, न कंज पर ठहर भ्रमर,
अनय जगा, न रस विमुग्‍ध अधर,
-सदैव स्‍नेह
के लिए
विफल हृदय!

कटक चला, निकुंज में हवा न चला,
नगर हिला, न फूल-फूल पर मचल,
ग़दर हुया, सुरभि समीर से न रल,
---सदैव मस्‍त
चाल से
चला प्रणय!

समर छिड़ा, न आज बोल, कोकिला,
क़हत पड़ा, न कंठ खोल कोकिला,
प्रलय खड़ा, न कर ठठोल कोकिला,
---सदैव प्रीति-
गीत के
लिए समय!

2. सुवर्ण मेघ युक्त पच्छिमी गगन - Harivansh Rai Bachchan

सुवर्ण मेघ युक्त पच्छिमी गगन,
विषाद से विमुक्त पच्छिमी गगन,
प्रसाद से प्रबुद्ध पच्छिमी हवा,
धरा सजग
अतीत को
बिसार फिर !

न ग्रीष्म के उसाँस का पता कहीं,
न अश्रुसिक्त वृक्ष औ' लता कहीं,
न प्राणहीन हो कहीं थमी हवा,
निशा रही
स्वरूप को
संवार फिर !

मयँक-रश्मि पूर्व से लहक रही,
असुप्त नीड़-वासिनी चहक रही,
शरद प्रफुल्ल मल्लिका महक रही,
दहक रहा
बुझा हआ
अँगार फिर !

3. निशा, मगर बिना निशा सिंगार के - Harivansh Rai Bachchan

निशा, मगर बिना निशा सिंगार के,
नखत थकिन अनिंद्र नभ निहार के,
क्षितिज-परिधि निराश, कालिमामयी,
परंतु
आसमान
इंतज़ार में!

घड़ी हरेक वर्ष-सी बड़ी हुई,
निशा पहाड़ की तरह खड़ी हुई,
नछत्र-माल चाल भूल-सी गई,
परंतु
कब थकान
इंतज़ार में!

प्रभात-भाल-चंद्र पूर्व में उगा,
प्रभात-बालचंद्र पूर्व में उगा,
प्रभान-लालचंद्र पूर्व में उगा,
परंतु
सुख महान
इंतज़ार में!

4. दिवस गया विवश थका हुआ शिथिल - Harivansh Rai Bachchan

दिवस गया विवश थका हुआ शिथिल,
तिमिरमयी हुई वसुंधरा निखिल,
ज़मीन-आसमान में दिए जले,
मगर जगत
हुआ नहीं
प्रकाशमय !

सभी तरफ़ विभा बिखर गई तरुण,
कलित-ललित हुआ, सभी कलुष-करुण,
किसी समय बुझे हुए दिए जले,
किन्हीं नयन
प्रदीप में
जगा प्रणय!

चढ़ा मुंडेर मुर्ग़ सिर उठा रहा,
पुकार बारबार यह बता रहा,
सुभग, सजग, सजीव प्रात आ रहा;
नई नज़र,
नई लहर,
नया समय !

5. शिशिर समीर वन झकोर कर गया - Harivansh Rai Bachchan

शिशिर समीर वन झकोर कर गया,
सिंगार वृक्ष-वेलि का किधर गया,
ज़मीन पीत पत्र-पुंज से भरी;
प्रकृति खड़ी
हुई, ठगी
हुई, अचित !

उठी पुकार एक शांति भंग कर,
उठा गगन सिहर, उठी अवनि सिहर,
'बिसार दो विषाद की गई घड़ी;'
प्रकृति खड़ी
हुई, जगी
हुई, भ्रमित !

शिशिर समीर बन गया मलय पवन,
नवीन गीत-प्राण से गुंजा गगन,
नवीन रक्त-राग से रंजी अवनि,
प्रकृति खड़ी
सुरस पगी,
सुअंकुरित !

6. समेट ली किरण कठिन दिनेश ने - Harivansh Rai Bachchan

समेट ली किरण कठिन दिनेश ने,
सभा बादल दिया तिमिर-प्रवेश ने,
सिंगार कर लिया गगन प्रदेश ने;
---नटी निशीथ
का पुलक
उठा हिया!

समीर कह चला कि प्‍यार का प्रहरे,
मिली भुजा-भुजा, मिले अधर-अधर,
प्रणय प्रसून गया सेज पर गया बिखर;
निशा सभीत
ने कहा कि
क्‍या किया!

अशंक शुक्र पूर्व में उवा हुआ,
क्षितिज अरुण प्रकाश से छुआ हुआ,
समीर है कि सृष्‍ट‍िकार की दुआ;
निशा बिनीत
ने कहा कि
शुक्रिया!

7. समीर स्‍नेह-रागिनी सुना गया - Harivansh Rai Bachchan

समीर स्‍नेह-रागिनी सुना गया,
तड़ाग में उफान-सा उठा गया,
तरंग में तरंग लीन हो गई;
झुकी निशा,
झँपी दिशा,
झुके नयन!

बयार सो गई अडोल डाल पर,
शिथिल हुआ सुनिल ताल पर,
प्रकृति सुरम्‍य स्‍वप्‍न बीच खो गई;
गई कसक,
गिरी पल‍क,
मुँदे नयन!

विहंग प्रात गीत गा उठा अभय,
उड़ा अलक चला ललक पवन मलय,
सुहाग नेत्र चुमने चला प्रणय;
खुला गगन,
खिले सुमन,
खुले नयन!

8. पुकारता पपीहरा पि...या, पि...या - Harivansh Rai Bachchan

पुकारता पपीहरा पि...या, पि...या,
प्रतिध्‍वनित निनाद से हिया-हिया;
हरेक प्‍यार की पुकार में असर,
कहाँ उठी,
कहाँ सुनी गई
मगर!

घटा अखंड आसमान में घिरी,
लगी हुई अखंड भूमि पर झरी,
नहा रहा पपीहरा सिहर-सिहर;
अधर---सुधा
निमग्‍न हो रहे
अधर!

सुनील मेघहीन हो गया गगन,
बसुंधरा पड़ी हरित बसन,
पपीहरा लगा रहा वह रटन;
प्रणय तृषा
अतृप्‍त सर्वदा
अमर!

9. सुना कि एक स्‍वर्ग शोधता रहा - Harivansh Rai Bachchan

सुना कि एक स्‍वर्ग शोधता रहा,
सुना कि एक स्‍वप्‍न खोजता रहा,
सुना कि एक लोक भोगता रहा,
मुझे हरेक
शक्‍ति का
प्रमाण है!

सुना कि सत्‍या से न भक्‍ति हो सकी,
सुना कि स्‍वप्‍न से न मुक्‍ति हो सकी,
सुना कि भोग से न तृप्‍ति हो सकी,
विफल मनुष्‍य
सब तरफ़
समान है!

विराग मग्‍न हो कि राग रत रहे,
विलीन कल्‍पना कि सत्‍य में दहे,
धुरीण पुण्‍य का कि पाप में बहे,
मुझे मनुष्‍य
सब जगह
महान है!

10. उसे न विश्‍व की विभूतियाँ दिखीं - Harivansh Rai Bachchan

उसे न विश्‍व की विभूतियाँ दिखीं,
उसे मनुष्‍य की न खूबियाँ दिखीं,
मिलीं हृदय-रहस्‍य की न झाँकियाँ,
सका न खेल
जो कि प्राण
का जुआ!

सजीव है गगन किरण-पुलक भरा,
सजीव गंध से बसी वसुंधरा,
पवन अभय लिए प्रणय कहानियाँ,
डरा-मरा
न स्‍नेह ने
जिसे छुआ!

गगन घृणित अगर न गीत गूंजता,
अवनि घृणित अगर न फूल फूलता,
हृदय घृणित अगर न स्‍वप्‍न झूलता,
जहाँ वहा
न रस वहीं
नरक हुआ!

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