मधुबाला हरिवंशराय बच्चन Madhubala Harivansh Rai Bachchan

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मधुबाला हरिवंशराय बच्चन (शेष भाग 2)
Madhubala Harivansh Rai Bachchan (Part 2 )

पाटल-माल - हरिवंशराय बच्चन

२.
नग्न तृण, तरु, पल्लव, खग वृंद,
नग्न है श्यामल-तल आकाश,
नग्न रवि, शशि, तारक, नीहार,
नग्न बादल, विद्युत, वातास,
जलधि के आंगन में अविराम,
ऊर्मियाँ नर्तन करतीं नग्न,
सरोवर, नद, निर्झर, गिरि, श्रृंग,
नग्न रहकर ही रहते मग्न।
भली मानवता ही क्यों आज
रही अपने पर पर्दा डाल?
यही करती जगती से प्रश्न,
रही खिल वन में पाटल-माल!
३.
किसी युग में मानव की आंख
सकी स्वर्गिक सुषमा को तोल,
सकी दे उसका वांछित मूल्य
खुशी से उर की गांठें खोल;
आज कहलाता है अश्लील
हृदय का अनियंत्रित उद्गार,
विकृत जीवन को ही जग आज
समझ बैठा है लोकाचार;
प्रगतिमय यौवन का पट थाम
न बैठो, जग के कंटक जाल!
यही कहती कांटों से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
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४.
पुण्य की है जिसको पहचान,
उसे ही पापों का अनुमान
सदाचारों से जो अनभिज्ञ,
दुराचारों से वह अज्ञान,
उसी के लज्जा से नत नेत्र,
जिसे गौरव का प्रतिपल ध्यान;
जगत के जीवन से अब, हाय,
गया उठ भोलेपन का भान!
लगा मत उस भोली को दोष,
न उस पर आंखें लाल निकाल;
स्वयं निज सौरभ से अनजान
रही खिल वन में पाटल-माल!
५.
करे मृदु पंखुरियों को कैद
कुटिल कांटों का कारागार,
बहाएँ बेचारी प्रति पात
मोतियों-से आंसू की धार,
सरसता की प्रतिमा प्रत्यक्ष
पड़ें जा पाषाणों के हाथ,
चला ज्ञानी देने उपदेश,
न्याय होता है सबके साथ;
समझ लें आंखों वाले खूब
नियति की कैसी टेढ़ी चाल;
रंगी अपने लहू से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
६.
नयन में पा आंसू की बूंद,
अधर के ऊपर पा मुसकान,
कहीं मत इसको हे संसार,
दु:खों का अभिनय लेना मान।
नयन से नीरव जल की धार
ज्वलित उर का प्राय: उपहार
हंसी से ही होता है व्यक्त
कभी पीड़ित उर का उद्गार;
तप्त आँसू से झुलसे गाल
किए कोई मदिरा से लाल;
इसी का तो करती संकेत
रही खिल वन में पाटल-माल!
७.
गगन के आंगन में विस्तीर्ण
खिला कोई पाटल का फूल,
उसी पर तारक हिमकण-रुप
नहीं उसकी डालों में शूल;
पंखुरी एक उसी की नित्य
प्रात में गिर पड़ती अनजान,
पूर्व से रंजित होकर और
उषा का बन जाती परिधान;
गिरे दल इसके हो जड़-म्लान,
बड़ा, रे, इसका रंज-मलाल;
विवशता की, पर, ले-ले सांस
रही खिल वन में पाटल-माल!
(अधूरी रचना)

इस पार उस पार - हरिवंशराय बच्चन

1
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

2
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

3
प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थ बना कितना हमको;
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको;
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हल्का कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

4
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढो‌ए;
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए;
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

5
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढंक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी;
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,
तब तेरा मेरा नन्हाँ-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

6
ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,
बुलबुल न अंधेरे में गा-गा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर 'मरमर' न सुने फिर जा‌एँगे,
अलि‌-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

7
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

8
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,
दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

9
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

पाँच पुकार - हरिवंशराय बच्चन

१.
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'पियो,पियो'की बोली!

संकेत किया यह किसने,
यह किसकी भौहें घूमीं?
सहसा मधुबालाओं ने
मदभरी सुराही चूमी;

फिर चली इन्हें सब लेकर,
होकर प्रतिबिम्बित इनमें,
चेतन का कहना भी क्या,
जड़ दीवारें भी झूमीं,

सबने ज्योहीं कलि-मुख की
मृदु अधर पंखुरियाँ खोलीं,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'पियो,पियो'की बोली!

२.
जिस अमृतमय वाणी के
जड़ में जीवन जग जाता,
रुकता सुनकर वह कैसे ,
रसिकों का दल मदमाता;

आँखों के आगे पाकर
अपने जीवन का सपना,
हर एक उसे छूने को
आया निज कर फैलाता;

पा सत्य,कलोल उठी कर
मधु के प्यासों की टोली,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'पियो,पियो'की बोली!

३.
सारी साधें जीवन की
अधरों में आज समाई,
सुख,शांति जगत् की सारी
छनकर मदिरा में आई,

इच्छित स्वर्गों की प्रतिमा
साकार हुई,सखि तुम हो;
अब ध्येय विसुधि,विस्मृत है,
है मुक्ति यही सुखदायी,

पलभर की चेतनता भी
अब सह्य नहीं, ओ भोली,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'पियो,पियो'की बोली!

४.
मधुघट कंधों से उतरे,
आशा से आँखे चमकीं,
छल-छल कण माणिक मदिरा
प्यालों के अंदर दमकी,

दानी मधुबालाओं में
ली झुका सुराही अपनी,
'आरम्भ करो'कहती-सी
मधुगंध चतुर्दिक गमकी,

आशीष वचन कहने को
मधुपों की जिह्वा डोली;
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'पियो,पियो'की बोली!

५.
दो दौर न चल पाए थे
इस तृष्णा के आंगन में,
डूबा मदिरालय सारा
मतवालों के क्रन्दन में;

यमदूत द्वार पर आया
ले चलने का परवाना,
गिर-गिर टूटे घट-प्याले,
बुझ दीप गये सब क्षण में;

सब चले किए सिर नीचे
ले अरमानो की झोली.
गूँजी मदिरालय भर में
लो,'चलो,चलो'की बोली!

पगध्वनि - हरिवंशराय बच्चन

पहचानी वह पगध्वनि मेरी ,
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१.
नन्दन वन में उगने वाली ,
मेंहदी जिन चरणों की लाली ,
बनकर भूपर आई, आली
मैं उन तलवों से चिर परिचित
मैं उन तलवों का चिर ज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

२.
उषा ले अपनी अरुणाई,
ले कर-किरणों की चतुराई ,
जिनमें जावक रचने आई ,
मैं उन चरणों का चिर प्रेमी,
मैं उन चरणों का चिर ध्यानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

३.
उन मृदु चरणों का चुम्बन कर ,
ऊसर भी हो उठता उर्वर ,
तृण कलि कुसुमों से जाता भर ,
मरुस्थल मधुबन बन लहराते ,
पाषाण पिघल होते पानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

४.
उन चरणों की मंजुल ऊँगली
पर नख-नक्षत्रों की अवली
जीवन के पथ की ज्योति भली,
जिसका अवलम्बन के जग ने
सुख-सुषमा की नगरी जानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

५.
उन पद-पद्मों के प्रभ रजकण
का अंजित कर मंत्रित अंजन
खुलते कवि के चिर अंध-नयन,
तम से आकर उर से मिलती
स्वप्नों कि दुनिया की रानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

६.
उन सुंदर चरणों का अर्चन ,
करते आँसू से सिंधु-नयन!
पद-रेखों में उच्छ्वास पवन --
देखा करता अंकित अपनी
सौभाग्य सुरेखा कल्याणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

७.
उन चल चरणों की कल छम-छम -
से ही निकला था नाद प्रथम ,
गति से मादक तालों का क्रम ,
निकली स्वर-लय की लहर जिसे
जग ने सुख की भाषा मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

८.
हो शांत जगत के कोलाहल!
रुक जा,री!जीवन की हलचल!
मैं दूर पड़ा सुन लूँ दो पल,
संदेश नया जो लाई है
यह चाल किसी की मस्तानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

९.
किसके तमपूर्ण प्रहर भागे?
किसके चिर सोए दिन जागे?
सुख-स्वर्ग हुआ किसके आए?
होगी किसके कंपित कर से
इन शुभ चरणों की अगवानी?
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१०.
बढता जाता घुँघरू का रव ,
क्या यह भी हो सकता संभव?
यह जीवन का अनुभव अभिनव!
पदचाप शीघ्र , पद-राग तीव्र!
स्वागत को उठे,रे कवि मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

११.
ध्वनि पास चली मेरे आती
सब अंग शिथिल पुलकित छाती,
लो, गिरती पलकें मदमाती ,
पग को परिरम्भण करने की ,
पर इन युग बाँहों ने ठानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१२.
रव गूँजा भू पर, अम्बर में ,
सर में, सरिता में ,सागर में ,
प्रत्येक श्वास में, प्रति श्वर में,
किस-किस का आश्रय ले फूलें,
मेरे हाथों की हैरानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१३.
ये ढूँढ रहे हैं ध्वनि का उद्गम
मंजीर-मुखर-युत पद निर्मम
है ठौर सभी जिनकी ध्वनि सम,
इनको पाने का यत्न वृथा,
श्रम करना केवल नादानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१४.
ये कर नभ-जल-थल में भटके,
आकर मेरे उर पर अटके,
जो पग-द्वय थे अंदर घट के,
ये ढूँढ रे उनको बाहर,
ये युग कर मेरे अज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

१५.
उर के ही मधुर अभाव चरण
बन करते स्मृति पट पर नर्तन ,
मुखरित होता रहता बन-बन,
मैं ही इन चरणों में नूपुर,
नूपुर-ध्वनि मेरी ही वाणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!

आत्‍मपरिचय - हरिवंशराय बच्चन

1
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

2
मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

3
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!

4
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!

5
मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

6
कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!

7
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!

8
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं उस खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ!

9
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

10
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!


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