मधुबाला हरिवंशराय बच्चन Madhubala Harivansh Rai Bachchan

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मधुबाला हरिवंशराय बच्चन (शेष भाग १)
Madhubala Harivansh Rai Bachchan (Part 1 )

प्याला

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,

कल मादकता थी भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन?

मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ--
किस कुम्भकार का यह निश्चय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.

जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.

भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिन,
खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप
हो जग की ज्वाला के अधीन;

मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर?'
लपटें बोलीं,'चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.'

यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
madhushala-flower

४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,

अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,

बिक,मगर,गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस ह्रदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;

चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;

मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;

कल क्रूर काल के गलों में
जाना होगा-इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;

इन मेरी उलटी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
'क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार?'

मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
'आनंद करो'--यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;

कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

८.
मैं देख चुका जा मसजिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;

यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,
कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी?

यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;

पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.

भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;

संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी!

छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपना-अपना आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

११.
पल में मृत पीने वाले के
कल से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;

अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा?

मुझको अपना ही जन्म-निधन
'है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!

हाला

उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

१.
जग ने ऊपर की आँखों से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको जल्दी से
द्रव माणिक या पिघला प्रवाल,

जिसको साक़ी के अधरों ने
चुम्बित करके स्वादिष्ट किया,
कुछ मनमौजी मजनूँ जिसको
ले-ले प्यालों में रहे ढाल;

मेरे बारे में है फैला
दुनिया में कितना भ्रम-संशय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

२.
वह भ्रांत महा जिसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
जिसकी हिलोर में देवों ने
पहचाना मेरा लघु प्रवाह;

अंशावतार वह था मेरा
मेरा तो सच्चा रूप और;
विश्वास अगर मुझ पर,मानो--
मेरा दो कण वह महोत्साह,

जो सुरासुरों ने उर में धर
मत डाला वारिधि वृहत ह्रदय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

३.
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुःख सका झेल,
कर सकी मानवों की पृथ्वी
शशि-रवि सुदूर से हेल-मेल,

मेरी मस्ती से रहे नाच
ग्रह गण,करता है गगन गान,
वह महोन्माद मैं ही जिससे
यह सृष्टि-प्रलय का खेल-खेल,

दु:सह चिर जीवन सह सकता
वह चिर एकाकी लीलामय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

४.
अवतरित रूप में भी तो मैं
इतनी महान,इतनी विशाल,
मेरी नन्हीं दो बूंदों ने
रंग दिया उषा का चीर लाल;

संध्या की चर्चा क्या,वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
जिसकी छाया से ही रंजित
पटल-कुटुम्ब का मृदुल गाल;

कर नहीं मुझे सकता बन्दी
दर-दीवारों में मदिरालय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

५.
अवतीर्ण रूप में भी तो है
मेरा इतना सुरभित शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड में मधुऋतु समीर,

जो पिक-प्राणों में कर प्रवेश
तनता नभ में स्वर का वितान,
लाता कमलों की महफिल में
नर्तन करने को भ्रमर-भीड़;

मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय!
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

६.
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,

मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.

कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

७.
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;

यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;

बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

८.
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में--
मानव के बंदीगृह निश्चय.

जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.

मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

९.
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;

उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,

चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

१०.
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.

है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल--

मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

११.
लघुतम गुरुतम से संयोजित --
यह जान मुझे जीवन प्यारा
परमाणु कँपा जब करता है
हिल उठता नभ मंडल सारा!

यदि एक वस्तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी वस्तु सभी,
त्रैलोक्य बिना जलहीन हुए
सकती न सूख कोई धारा;

सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा क्षय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!

प्यास

१.
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
तू अगम सिंधु की राशि लिए,
मैं मरु असीम की प्यास लिए,
मैं चिर विचलित संदेहों से,
तू शांत अटल विश्वास लिए;
तेरी मुझको आवश्यकता,
आवश्यकता तुझको मेरी;
मैं जीवन का उच्छवास लिए,
तू जीवन का उल्लास लिए;
तुझसे मिल पूर्ण चला बनने,
बस इतना ही मेरा परिचय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
२.
क्या कहती? 'दुनिया को देखो,'
दुनिया रोती है, रोने दो
मैं भी रोया, रोना अच्छा,
आंसू से आंखें धोने दो;
रोनेवाला ही समझेगा
कुछ मर्म हमारी मस्ती का;
सुन, अश्रु-भरी आंखें कहतीं-
यह राग-रंग भी होने दो,
रोदन-गायन दोनों के स्वर
से सधती जग-वीणा की लय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
३.
क्या कहती? 'दुनिया को देखा,'
दुनिया देती लानत मुझको,
है कहती फिरती गली-गली,
मदिरा पीने की लत मुझको;
दुनिया तो मुझसे है रूठी,
है तुली हुई वद कहने पर,
गंगाजल जब पैं पाता था,
कब दी उसने इज्जत मुझको?
बदनाम रहे हो मंदिर हैं,
यह तो फिर ठहरा मदिरालय
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
६.
अस्तित्व न था जब तृष्णा का,
मदिरालय था यह विश्रृंखल,
विक्रेता था मृतप्राय पड़ा,
चंचल साक़ी भी थे अविचल,
कुछ पता नहीं था प्यासों का,
क्या ज़िक्र घटों का, प्यालों का,
इस परी तृषा के आते ही
मच गई पलों में चहल-पहल;
है रंगमंच तृष्णा का ही,
जिस पर यह संसृति का अभिनय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
७.
पृथ्वी में जिसने प्यास भरी,
बादल में उसने नीर भरा,
तट-अधरों को नीचे रक्खा
है प्याला अम्बुधि का गहरा;
वह गुरु-महान की तृष्णा में
छोटों की प्यास नहीं भूला;
भौरों की प्यास बुझाने को
सर में पद्मों का पात्र धरा;
छोटे से छोटे तृण का ही
रख ध्यान बना नभ हिमकण-मय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
८.
सिंचित हो नभ की मदिरा से
यह धरा हरित हो लहराती,
तट गिर-गिर पड़ते सागर में,
अलि-अवली रस पी-पी गाती;
जिस-जिस उर मेँ दी प्यास गई,
दी तृप्ति गई उस-उस उर में;
मानव को ही अभिशाप मिला,
'पीकर भी दग्ध रहे छाती !'
किन अपराधों के बदले में
मानव के प्रति यह क्रूर अनय !
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
९.
यह 'क्रूर अनय' सह सकता है
केवल इस बल पर मन मेरा,
इसके कारण ही तो, सुन्दरि,
सत्संग मिला मुझको तेरा;
मेरे दामन, तेरे आंचल
की गांठ' लगा दी तृष्णा ने,
उर कुंड-हवन के ओर सभी
आ, दे मिलकर मंगल फेरा;
कर कौन अलग सकता हमको
हो जाने पर विधिवत् परिणय?
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ' मैं तृषित-हृदय!
(अधूरी रचना)

बुलबुल

१.
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल!

लिए मादकता का संदेश
फिर मैं कब से जग के बीच ,
कहीं पर कहलाया विक्षिप्त,
कहीं पर कहलाया मैं नीच;

सुरीले कंठों का अपमान
जगत् में कर सकता है कौन?
स्वयं,लो,प्रकृति उठी है बोल
विदा कर अपना चिर व्रत मौन

अरे मिट्टी के पुतलों, आज
सुनो अपने कानो को खोल,
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल!

२.
यही श्यामल नभ का संदेश
रहा जो तारों के संग झूम,
यही उज्ज्वल शशि का संदेश
रहा जो भू के कण-कण चूम,

यही मलयानिल का संदेश
रहे जिससे पल्लव-दल डोल,
यही कलि-कुसुमों का संदेश
रहे जो गाँठ सुरभि की खोल,

यही ले-ले उठतीं संदेश
सलिल की सहज हिलोरें लोल;
प्रकृति की प्रतिनिधि बनकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!

३.
अरुण हाला से प्याला पूर्ण
ललकता,उत्सुकता के साथ
निकट आया है तेरे आज
सुकोमल मधुबाला के हाथ;

सुरा-सुषमा का पा यह योग
यदि नहीं पीने का अरमान,
भले तू कह अपने को भक्त,
कहूँगा मैं तुझको पाषाण;

हमे लघु-मानव को क्या लाज,
गए मन मुनि-देवों के मन दोल;
सरसता से संयम की जीत
रही बुलबुल डालों पर बोल!

४.
कहीं दुर्जय देवों का कोप--
कहीं तूफ़ान कहीं भूचाल,
कहीं पर प्रलयकारिणी बाढ़,
कहीं पर सर्वभक्षिनी ज्वाल;

कहीं दानव के अत्याचार,
कहीं दीनों की दैन्य पुकार,
कहीं दुश्चिंताओं के भार
दबा क्रन्दन करता संसार;

करें,आओ,मिल हम दो चार
जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!

५.
विभाजित करती मानव जाति
धरा पर देशों की दीवार,
ज़रा ऊपर तो उठ कर देख,
वही जीवन है इस-उस पर;

घृणा का देते हैं उपदेश
यहाँ धर्मों के ठेकेदार
खुला है सबके हित,सब काल
हमारी मधुशाला का द्वार,

करे आओ विस्मृत के भेद,
रहें जो जीवन में विष घोल;
क्रांति की जिह्वा बनकर आज,
रही बुलबुल डालों पर बोल!

६.
एक क्षण पात-पात में प्रेम,
एक क्षण डाल-डाल पर खेल,
एक क्षण फूल-फूल से स्नेह,
एक क्षण विहग-विहग से मेल;

अभी है जिस क्षण का अस्तित्व ,
दूसरे क्षण बस उसकी याद,
याद करने वाला यदि शेष;
नहीं क्या संभव क्षण भर बाद

उड़ें अज्ञात दिशा की ओर
पखेरू प्राणों के पर खोल
सजग करती जगती को आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!

७.
हमारा अमर सुखों का स्वप्न,
जगत् का,पर,विपरीत विधान,
हमारी इच्छा के प्रतिकूल
पड़ा है आ हम पर अनजान;

झुका कर इसके आगे शीश
नहीं मानव ने मानी हार
मिटा सकने में यदि असमर्थ ,
भुला सकते हम यह संसार;

हमारी लाचारी की एक
सुरा ही औषध है अनमोल;
लिए निज वाणी में विद्रोह
रही बुलबुल डालों पर बोल!

८.
जिन्हें जीवन से संतोष,
उन्हें क्यूँ भाए इसका गान?
जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य,
उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान?

हमें जग-जीवन से अनुराग,
हमें जग-जीवन से विद्रोह;
हमें क्या समझेंगे वे लोग,
जिन्हें सीमा-बंधन का मोह;

करे कोई निंदा दिन-रात
सुयश का पीटे कोई ढोल,
किए कानों को अपने बंद,
रही बुलबुल डालों पर बोल!


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