कबीर की रचनाएँ Kabir ki Kavita

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कबीर की रचनाएँ 
Kabir ki Kavita | Sant kabir

साधो, देखो जग बौराना - Sant Kabir

साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना ।
आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।
बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।
करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।
हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी ।
वह करै जिबह, वो झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।
या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।
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सहज मिले अविनासी - Sant Kabir

पानी बिच मीन पियासी।
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ग्यान बिना सब सूना, क्या मथुरा क्या कासी ।
घर में वसत धरीं नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी ।।
मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी ।
कहत कबीर, सुनौ भाई साधो, सहज मिले अविनासी ।।
 

काहे री नलिनी तू कुमिलानी - Sant Kabir

काहे री नलिनी तू कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहे 'कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान।
 

मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै - Sant Kabir

मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै।
हीरा पायो गाँठ गँठियायो, बार-बार वाको क्यों खोलै।
हलकी थी तब चढी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोलै।
सुरत कलाली भई मतवाली, मधवा पी गई बिन तोले।
हंसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोलै।
तेरा साहब है घर माँहीं बाहर नैना क्यों खोलै।
कहै 'कबीर सुनो भई साधो, साहब मिल गए तिल ओलै॥

रहना नहिं देस बिराना है - Sant Kabir

रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥
 
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कबीर की साखियाँ - Sant Kabir

कस्तूरी कुँडल बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ.
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ..
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय.
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ..
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर.
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर..
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर.
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ..
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद..
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर.
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर..
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय.
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय..
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार.
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार..
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं.
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं..
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ.
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ..
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय.
 
 
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय..
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि.
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि..
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय.
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय..
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी.
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी..
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय.
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय..
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं.
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं..
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हमन है इश्क मस्ताना - Sant Kabir

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
 
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कबीर के पद - Sant Kabir

1.

अरे दिल, - Sant Kabir

 
प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्‍यों आया त्‍यों जावैगा।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्‍या क्‍या बीता।।
सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावैगा।।
परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्‍यान न धरिया।।
टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा।।
दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई।।
चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा।
 
2.

रहना नहीं देस बिराना है। - Sant Kabir

 
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार काँटे की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झाँखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।
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नीति के दोहे  - Sant Kabir

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
 
जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।
 
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
 
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।
 
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।
 
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
 
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
 
काल्‍ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्‍ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्‍ब।
 
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
 
दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।।
 
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ग्‍यान।
मोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्‍यान।।
 
सोना, सज्‍जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार।
दुर्जन कुंभ-कुम्‍हार के, एकै धका दरार।।
 
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
 
काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ मुल्‍ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाए।।
 
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मोको कहां - Sant Kabir

मोको कहां ढूढें तू बंदे मैं तो तेरे पास मे ।
ना मैं बकरी ना मैं भेडी ना मैं छुरी गंडास मे ।
नही खाल में नही पूंछ में ना हड्डी ना मांस मे ॥
ना मै देवल ना मै मसजिद ना काबे कैलाश मे ।
ना तो कोनी क्रिया-कर्म मे नही जोग-बैराग मे ॥
खोजी होय तुरंतै मिलिहौं पल भर की तलास मे
मै तो रहौं सहर के बाहर मेरी पुरी मवास मे
कहै कबीर सुनो भाई साधो सब सांसो की सांस मे ॥
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तेरा मेरा मनुवां  - Sant Kabir

तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे ।
मै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।
मै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे ।
मै कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ॥
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे ।
तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥
सतगुरू धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥
 

बहुरि नहिं आवना या देस - Sant Kabir

बहुरि नहिं आवना या देस ॥
जो जो गए बहुरि नहि आए, पठवत नाहिं सॅंस ॥ १॥
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया, देवी देव गनेस ॥ २॥
धरि धरि जनम सबै भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस ॥ ३॥
जोगी जङ्गम औ संन्यासी, दीगंबर दरवेस ॥ ४॥
चुंडित, मुंडित पंडित लोई, सरग रसातल सेस ॥ ५॥
ज्ञानी, गुनी, चतुर अरु कविता, राजा रंक नरेस ॥ ६॥
कोइ राम कोइ रहिम बखानै, कोइ कहै आदेस ॥ ७॥
नाना भेष बनाय सबै मिलि ढूऊंढि फिरें चहुँ देस ॥ ८॥
कहै कबीर अंत ना पैहो, बिन सतगुरु उपदेश ॥ ९॥
 

बीत गये दिन भजन बिना रे - Sant Kabir

बीत गये दिन भजन बिना रे ।
भजन बिना रे, भजन बिना रे ॥
बाल अवस्था खेल गवांयो ।
जब यौवन तब मान घना रे ॥
लाहे कारण मूल गवाँयो ।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो ।
पार उतर गये संत जना रे ॥
 

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार  - Sant Kabir

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये ।
हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं ।
अंतरयामी एक तुम आतम के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार ॥
गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार ।
अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़ ।
जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज ॥
गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
 

राम बिनु तन को ताप न जाई - Sant Kabir

राम बिनु तन को ताप न जाई ।
जल में अगन रही अधिकाई ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला ।
कहै कबीर राम रमूं अकेला ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
 
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करम गति टारै नाहिं टरी - Sant Kabir

करम गति टारै नाहिं टरी ॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि ।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी ॥ १॥
कहॅं वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहॅं वह मिरग चरी ।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि ॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी ।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही ॥ ३॥
 

भजो रे भैया राम गोविंद हरी - Sant Kabir

भजो रे भैया राम गोविंद हरी ।
राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी ॥
जप तप साधन नहिं कछु लागत, खरचत नहिं गठरी ॥
संतत संपत सुख के कारन, जासे भूल परी ॥
कहत कबीर राम नहीं जा मुख, ता मुख धूल भरी ॥
 

दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ - Sant Kabir

दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ ॥
 
पहिला जनम भूत का पै हौ, सात जनम पछिताहौउ।
काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ॥ १॥
 
दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ ।
टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥
 
बाजीगर के बानर होइ हौ, लकडिन नाच नचैहौ ।
ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ, माँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥
 
तेली के घर बैला होइहौ, आॅंखिन ढाँपि ढॅंपैहौउ ।
कोस पचास घरै माँ चलिहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥
 
पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ, बिन तोलन बोझ लदैहौ ।
बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच मरि जैहौ ॥ ५॥
 
धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिं पैंहौ ।
लदी लादि आपु चढि बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥
 
पंछिन माँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ ।
उडि के जय बैठि मैले थल, गहिरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥
 
सत्तनाम की हेर न करिहौ, मन ही मन पछितैहौउ ।
कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥
 

केहि समुझावौ सब जग अन्धा - Sant Kabir

केहि समुझावौ सब जग अन्धा ॥
इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,
सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।
पानी घोड पवन असवरवा,
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥
गहिरी नदी अगम बहै धरवा,
खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।
घर की वस्तु नजर नहि आवत,
दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥
लागी आगि सबै बन जरिगा,
बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥
 
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तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के  - Sant Kabir

तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
 
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे ।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे ।
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे ।
गया ना मन का फेर रे ।
हाथ का मनका छाँड़ि दे मन का मनका फेर ॥
 
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे ।
दुख में करता याद रे ।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद ॥

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में - Sant Kabir

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
 
जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
 
भला बुरा सब का सुनलीजै
कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
 
आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
 
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
 
कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

रे दिल गाफिल गफलत मत कर - Sant Kabir

रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥
 
सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥
 
सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥
 
परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥
 
दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

भेष का अंग - Sant Kabir

माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई ।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥
 
भावार्थ -- लोगों ने यह `मनमुखी' माला धारण कर रखी है, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं । माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग ? `इधर' से हटाकर मन को `उधर' मोड़ दें, जिससे सारा जगत जगमगा उठे । [ आत्मा का प्रकाश फैल जाय और भर जाय सर्वत्र ।]
 
'कबीर' माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहर्‌यां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥2॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्ची माला तो अचंचल मन की ही है, बाकी तो संसारी भेष है मालाधारियों का । यदि माला पहनने से ही हरि से मिलन होता हो, तो रहट को देखो, हरि से क्या उसकी भेंट हो गई, इतनी बड़ी माला गले में डाल लेने से ?
 
माला पहर्‌यां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुँडाइ करि, चल्या जगत के साथ ॥3॥
 
भावार्थ - यदि भक्ति तेरे हाथ न लगी, तो माला पहनने से क्या होना-जाना ? केवल सिर मुँड़ा लिया और मूँछें मुँड़ा लीं - बाकी व्यवहार तो दुनियादारों के जैसा ही है तेरा ।
 
साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंडाइ ॥4॥
 
भावार्थ -स्वामी के प्रति तुम सदा सच्चे रहो,और दूसरों के साथ सहज-सीधे भाव से बरतो फिर चाहे तुम लम्बे बाल रखो या सिर को पूरा मुँड़ा लो । [वह मालिक भेष को नहीं देखता, वह तो सच्चों का गाहक है ।]
 
केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषय-बिकार ॥5॥
 
भावार्थ -बेचारे इन बालों ने क्या बिगाड़ा तुम्हारा,जो सैकड़ों बार मूँड़ते रहते हो अपने मन को मूँड़ो न, उसे साफ करलो न ,जिसमें विषयों के विकार-ही-विकार भरे पड़े हैं ।
 
स्वांग पहरि सोरहा भया, खाया पीया खूंदि ।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूंदि ॥6॥
 
भावार्थ - वाह! खूब बनाया यह साधु का स्वांग ! अन्दर तुम्हारे लोभ भरा हुआ है और खाते पीते हो ठूंस-ठूंस कर , जिस गली में से साधु गुजरता है, उसे तुमने बन्द कर रखा है ।
 
बैसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक ॥7॥
 
भावार्थ -इस तरह वैष्णव बन जाने से क्या होता है, जब कि विवेक को तुमने समझा नहीं ! छापे और तिलक लगाकर तुम स्वयं विषय की आग में जलते रहे, और दूसरों को भी जलाया।
 
तन कों जोगी सब करै, मन कों बिरला कोइ ।
सब सिधि सहजै पाइये, जे मन जोगी होइ ॥8॥
 
भावार्थ - तन के योगी तो सभी बन जाते हैं, ऊपरी भेषधारी योगी । मगर मन को योग के रंग में रँगनेवाला बिरला ही कोई होता है । यह मन अगर योगी बन जाय, तो सहज ही सारी सिद्धियाँ सुलभ हो जायंगी ।
 
पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसार्‌यो भेष मैं, बूड़े काली धार ॥9॥
 
भावार्थ - किसी-न-किसी पक्ष को लेकर, वाद में पड़कर और कुल की परम्पराओं को अपनाकर यह दुनिया डूब गई है । भेष ने `अलख' को भुला दिया । तब काली धार में तो डूबना ही था ।
 
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ ॥10॥
 
भावार्थ - कितनी ही चतुराई करो, उसके सहारे हरि मिलने का नहीं, चतुराई तो सारी - बातों-ही-बातों की है । गोपीनाथ तो एक उसीका गाहक है, उसीको अपनाता है । जो निस्पृह और निराधार होता है। [दुनिया की इच्छाओं में फँसे हुए और जहाँ-तहाँ अपना आश्रय खोजनेवाले को दूसरा कौन खरीद सकता है, कौन उसे अंगीकार कर सकता है ?
 
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चितावणी का अंग - Sant Kabir

'कबीर' नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥1॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं-- अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम । फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, बिगड़ी बात को बना लेने का
 
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥2॥
 
भावार्थ - पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर, और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे । वे अपने जीवन की बाजी हार गये । इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया।
 
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़ै बिछोह ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥3॥
 
भावार्थ - एक दिन ऐसा आयगा ही, जब सबसे बिछुड़ जाना होगा । तब ये बड़े-बड़े राजा और छत्र-धारी राणा क्यों सचेत नहीं हो जाते ? कभी-न-कभी अचानक आ जाने वाले उस दिन को वे क्यों याद नहीं कर रहे ?
 
'कबीर' कहा गरबियौ, काल गहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस ॥4॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं -यह गर्व कैसा,जबकि काल ने तुम्हारी चोटी को पकड़ रखा है? कौन जाने वह तुम्हें कहाँ और कब मार देगा ! पता नहीं कि तुम्हारे घर में ही, या कहीं परदेश में ।
 
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरे, चेति सकै तो चेति ॥5॥
 
भावार्थ - खेत एकदम खुला पड़ा है, रखवाला कोई भी नहीं । चिड़ियों ने बहुत कुछ उसे चुग लिया है । चेत सके तो अब भी चेत जा, जाग जा , जिससे कि आधा-परधा जो भी रह गया हो, वह बच जाय ।
 
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥6॥
 
भावार्थ - हमने यहाँ आकर क्या किया ? और साईं के दरबार में जाकर क्या कहेंगे ? न तो यहाँ के हुए और न वहाँ के ही - दोनों ही ठौर बिगाड़ बैठे । मूल भी गवाँकर इस बाजार से अब हम बिदा ले रहे हैं ।
 
'कबीर' केवल राम की, तू जिनि छाँड़े ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूं, घणी सहै सिर चोट ॥7॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं, चेतावनी देते हुए - राम की ओट को तू मत छोड़, केवल यही तो एक ओट है । इसे छोड़ दिया तो तेरी वही गति होगी, जो लोहे की होती है , हथौड़े और निहाई के बीच आकर तेरे सिर पर चोट-पर-चोट पड़ेगी । उन चोटों से यह ओट ही तुझे बचा सकती है ।
 
उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥8॥
 
भावार्थ - बढ़िया उजले कपड़े उन्होंने पहन रखे हैं, और पान-सुपारी खाकर मुँह लाल कर लिया है अपना । पर यह साज-सिंगार अन्त में बचा नहीं सकेगा, जबकि यमदूत बाँधकर ले जायंगे । उस दिन केवल हरि का नाम ही यम-बंधन से छुड़ा सकेगा ।
 
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिकाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेड़ा आइ ॥9॥
 
भावार्थ - खूब चित्त लगाकर महीन-से-महीन सूत तू चरखे पर कात, वह बड़े महँगे मोल बिकेगा । लेकिन उसका गाहक तो केवल राम है , कोई दूसरा उसका खरीदार पास फटकने का नहीं ।
 
मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि ॥10॥
 
भावार्थ - यह मैं -मैं बहुत बड़ी बला है । इससे निकलकर भाग सको तो भाग जाओ । अरी सखी, रुई में आग को लपेटकर तू कबतक रख सकेगी ? [राग की आग को चतुराई से ढककर भी छिपाया और बुझाया नहीं जा सकता ।]
 
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मन का अंग - Sant Kabir

'कबीर' मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ ।
बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥1॥
 
भावार्थ - इस मन को मैं ऐसा मारूँगा कि वह टूक-टूक हो जाय । मन की ही करतूत है यह, जो जीवन की क्यारी में विष के बीज मैंने बो दिये , उन फलों को तब लेना ही होगा, चाहे कितना ही पछताया जाय ।
 
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरि फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥2॥
 
भावार्थ - आशा को जला देता हूँ ईंधन की तरह, और उस राख को तन पर रमाकर जोगी बन जाता हूँ । फिर जहाँ-जहाँ फेरी लगाता फिरूँगा, जो सूत इक्ट्ठा कर लिया है उसे इसी तरह बुनूँगा । [मतलब यह कि आशाएँ सारी जलाकर खाक कर दूँगा और निस्पृह होकर जीवन का क्रम इसी ताने-बाने पर चलाऊँगा ।]
 
पाणी ही तै पातला, धुवां ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोसत `कबीर' कीन्ह ॥3॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं कि ऐसे के साथ दोस्ती करली है मैंने जो पानी से भी पतला है और धुएं से भी ज्यादा झीना है । पर वेग और चंचलता उसकी पवन से भी कहीं अधिक है । [पूरी तरह काबू में किया हुआ मन ही ऐसा दोस्त है ।]
 
'कबीर' तुरी पलाणियां, चाबक लीया हाथि ।
दिवस थकां सांई मिलौं, पीछै पड़िहै राति ॥4॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं -ऐसे घोड़े पर जीन कस ली है मैंने, और हाथ में ले लिया है चाबुक, कि सांझ पड़ने से पहले ही अपने स्वामी से जा मिलूँ । बाद में तो रात हो जायगी , और मंजिल तक नहीं पहुँच सकूँगा ।
 
मैमन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहिं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥5॥
 
भावार्थ - मद-मत्त हाथी को, जो कि मन है, घर में ही घेरकर कुचल दो ।अगर यह पीछे को पैर उठाये, तो अंकुश दे-देकर इसे मोड़ लो ।
 
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥6॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं --नाव यह कागज की है, और गंगा में पानी-ही-पानी भरा है । फिर साथ पाँच कुसंगियों का है, कैसे पार जा सकूँगा ? [ पाँच कुसंगियों से तात्पर्य है पाँच चंचल इन्द्रियों से ।]
 
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥7॥
 
भावार्थ - अरे मन ! अपने मनोरथों को तू छोड़ दे, तेरा किया कुछ होने-जाने का नहीं । यदि पानी में से ही घी निकलने लगे, तो कौन रूखी रोटी खायगा ? [मतलब यह कि मन तो पानी की तरह है, और घी से तात्पर्य है आत्म-दर्शन ।]
 
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संगति का अंग - Sant Kabir

हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत ॥1॥
 
भावार्थ - हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना - ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं ।
 
मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥2॥
 
भावार्थ - मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी फलित होने का नहीं । लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता है ? वर्षा की बूँद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी - परिणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और विष बना ।
 
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥3॥
 
भावार्थ - मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से लिपट गये ।मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई।
 
ऊँचे कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊँच न होइ ।
सोवरन कलस सुरै भर्‌या, साधू निंदा सोइ ॥4॥
 
भावार्थ - ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या होता है, यदि करनी ऊँची न हुई ? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदरा भरी हो ।
 
'कबिरा' खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥5॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं - किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी ? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र !
 
'कबीर' तन पंषो भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥6॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह तन मानो पक्षी हो गया है, मन इसे चाहे जहाँ उड़ा ले जाता है । जिसे जैसी भी संगति मिलती है- संग और कुसंग - वह वैसा ही फल भोगता है । [ मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति मे ले जाकर वैसे ही फल देता है ।]
 
काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार ॥7॥
 
भावार्थ - यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी । धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है ।
 

साध-असाध का अंग - Sant Kabir

जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि ।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥1॥
 
भावार्थ - उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं । पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं । [सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये ।]
 
उज्ज्वल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान ।
धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान ॥2॥
 
भावार्थ - ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न भूल जाओ, उस पर विश्वास न करो । उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा है, कोई भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का नहीं ।[दम्भी का दिया ज्ञान भी मंझधार में डुबो देगा ।]
 
`कबीर' संगत साध की, कदे न निरफल होइ ।
चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ ॥3॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं - साधु की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, उससे सुफल मिलता ही है । चन्दन का वृक्ष बावना अर्थात् छोटा-सा होता है, पर उसे कोई नीम नहीं कहता, यद्यपि वह कहीं अधिक बड़ा होता है ।
 
`कबीर' संगति साध की, बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ ॥4॥
 
भावार्थ - साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा । तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी ।
 
मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ ॥5॥
 
भावार्थ - तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं ।
 
 
मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम ॥6॥
 
भावार्थ - मेरे तो ये दो ही संगी साथी हैं - एक तो वैष्णव, और दूसरा राम । राम जहाँ मुक्ति का दाता है, वहाँ वैष्णव नाम-स्मरण कराता है । तब और किसी साथी से मुझे क्या लेना-देना ?
 
`कबीर' बन बन में फिरा, कारणि अपणैं राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सबरे काम ॥7॥
 
भावार्थ -कबीर कहते हैं - अपने राम को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक बन में से मैं दूसरे बन में गया, जब वहाँ मुझे स्वयं राम के सरीखे भक्त मिल गये, तो उहोंने मेरे सारे काम बना दिये । मेरा वन वन का भटकना तभी सफल हुआ ।
 
जानि बूझि सांचहि तजै, करैं झूठ सूं नेहु ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनें ही जिनि देहु ॥8॥
 
भावार्थ -जो मनुष्य जान-बूझकर सत्य को छोड़ देता है, और असत्य से नाता जोड़ लेता है । हे राम! सपने में भी कभी मुझे उसका साथ न देना ।
 
`कबीर' तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै ॥9॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं - मेरे साईं, मुझे तू किसी ऐसे से मिला दे, जिसके हृदय में तू बस रहा हो, नहीं तो दुनिया से मुझे जल्दी ही उठा ले ।रोज-रोज की यह पीड़ा कौन सहे ?
 
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भ्रम-बिधोंसवा का अंग - Sant Kabir

जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम ।
साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम ॥1॥
 
भावार्थ - जितनी ही आत्माओं को देखता हूँ, उतने ही शालिग्राम दीख रहे हैं । प्रत्यक्ष देव तो मेरे लिए सच्चा साधु है ।पाषाण की मूर्ति पूजने से क्या बनेगा मेरा ?
 
जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया, यौं जग चल्या निरास ॥2॥
 
भावार्थ - कोरा जप और तप मुझे थोथा ही दिखायी देता है, और इसी तरह तीर्थों और व्रतों पर विश्वास करना भी । सुवे ने भ्रम में पड़कर सेमर के फूल को देखा, पर उसमें रस न पाकर निराश हो गया वैसी ही गति इस मिथ्या-विश्वासी संसार की है ।
 
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ ।
`कबीर' मूल निकंदिया, कौंण हलाहल खाइ ॥3॥
 
भावार्थ - तीर्थ तो यह ऐसी अमरबेल है, जो जगत रूपी वृक्ष पर बुरी तरह छा गई है । कबीर ने इसकी जड़ ही काट दी है, यह देखकर कि कौन विष का पान करे !
 
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि ॥4॥
 
भावार्थ - मेरा मन ही मेरी मथुरा है, और दिल ही मेरी द्वारिका है, और यह काया मेरी काशी है । दसवाँ द्वार वह देवालय है, जहाँ आत्म-ज्योति को पहचाना जाता है । 
[ दसवें द्वार से तात्पर्य है, योग के अनुसार ब्रह्मरन्ध्र से ।]
 
`कबीर' दुनिया देहुरै, सीस नवांवण जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौं ल्यौ लाइ ॥5॥
 
भावार्थ - कबीर कहते हैं -यह नादान दुनिया, भला देखो तो, मन्दिरों में माथा टेकने जाती है । यह नहीं जानती कि हरि का वास तो हृदय में है , तब वहीं पर क्यों न लौ लगायी जाय ?
 

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