अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'-प्रसिद्ध कविताएँ Part 2

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अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' प्रसिद्ध कविताएँ
Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh' Selected Poetry

51. प्रार्थना-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

हे दीनबंधु दया-निकेतन विहग-केतन श्रीपते।

सब शोक-शमन त्रिताप-मोचन दुख-दमन जगतीपते।

भव-भीति-भंजन दुरित-गंजन अवनि-जन-रंजन विभो।

बहु-बार जन-हित-अवतरित ऐ अति-उदार-चरित प्रभो।1।

 

 

बहु-मूल्यता से वसन की भारत न कम आरत रहा।

रोमांच कर लखकर समर वह था चकित शंकित महा।

तब लौं दुरन्त अकाल का जंजाल शिर पर आ पड़ा।

आ सामने बिकराल बदन पसार काल हुआ खड़ा।2।

 

इस बार जन-संहार जो है प्रति-दिवस प्रभु हो रहा।

अवलोक, उसको नयन से किसके नहीं आँसू बहा।

बहु बंश धवंस हुए विपुल नर नगर के हैं मर रहे।

घर घर मचा कोहराम यम हैं ग्राम सूना कर रहे।3।

 

कुम्हला गईं कलियाँ विपुल, बहु फूल असमय झड़ पड़े।

टूटे अनूठे-रत्न, लूटे मणि गये सुन्दर बड़े।

सर्वस्व कितनों का छिना, बहुजन हृदय-धान हर गया।

दीपक बुझा बहुसदन का, बहु शीश मुकुट उतर गया।4।

 

बहु भाग्य-मन्दिर का कलश-कमनीय निपतित हो गया।

अगणित अकिंचन जन परम आधार पारस खो गया।

टूटी कुटिल-विधि निठुर-कर से, बहु सुजन-गौरव-तुला।

बहु नयन के तारे-छिने, बहु माँग का सेंदुर धुला।5।

 

तब भी द्रवित नहिं तुम हुए, हैं वैसिही भौंहें तनी।

अवलोकिए भारत-अवनि को सदय हो त्रिभुवन धनी।

सह भार नहिं जिसका सके बहु-बार-तनधार अवतरे।

उसकी बड़ी दुखमय दशा क्यों देख सकते हो हरे!।6।

 

गज पशु कहा अवलोक ग्राह-ग्रसित उसे पहुँचे वहीं।

फिर कुरुज कवलित मनुज कुल पर किसलिए द्रवते नहीं।

जब एक याँ के गीधा का दुख देख युग दृग भर गये।

बहु लोग याँ के तब रहें दुख भोगते क्यों नित नये।7।

 

जब व्याध का अपराध भी अपराध नहिं माना गया।

तब तुच्छतर अपराधियों पर क्यों विशिख ताना गया।

सुनकर पुकार गयंद की जब नयन से आँसू बहा।

तब किस तरह नरपुंज हाहाकार जाता है सहा।8।

 

kavita-Ayodhya-Singh-Upadhyay

बहु व्याधि घन माला घुमड़ भारत-गगन में है घिरी।

पर प्रबल पवन-प्रवाह बन प्रभु-दृष्टि अब लौं नहिं फिरी।

भारत विपिन जनता लता है जल रही सुधि लीजिए।

घनतन सदयता सलिल से रुज दव शमन कर दीजिए।9।

 

आकुल बने व्याकुल-नयन से विपुल-वारि विमोचते।

नर नारि बालक-वृन्द हैं वदनारबिन्द विलोकते।

वेनिशित विशिख समेटिए जिनसे विपुल मानव बिधो।

सब त्राहि त्राहि पुकारते हैं पाहि पाहि कृपानिधो।10।

52. कमनीय कामनाएँ-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वर-विवेक कर दान सकल-अविवेक निवारे।

दूर करे अविनार सुचारु विचार प्रचारे।

सहज-सुतति को बितर कुमति-कालिमा नसावे।

करे कुरुचि को विफल सुरुचि को सफल बनावे।

भावुक-मन-सुभवन में रहे प्रतिभा-प्रभा पसारती।

भव-अनुपम-भावों से भरित भारत-भूतल-भारती।1।

 

प्यारी न्यारी प्रभु-पद-रता कान्त चिन्ता उपेता।

पाई जावे परम-मधुरा मानवी-प्रीति पूता।

सद्भावों से विलस सरसे सारभूता दिखावे।

होवे सारे रुचिर रस से सिक्त साहित्य सत्ता।2।

 

कुफल 'फूल' कदापि न दे सकें।

फल भले फल कामुक को मिलें।

विफलता विफला बनती रहे।

सफलता कृति को सफला करे।3।

नयन हों हित अंजन से अंजे।

विनय हो मन मधय विराजती।

रत रहें जन-रंजन में सदा।

रुचि रहे जगतीतल रंजिनी।4।

 

मधुरिमा-मय हो बचनावली।

बहु मनोहर भाव समूह हों।

हृदय में बिलसे हितकारिता।

भरित मानवता मन में रहे।5।

 

53. गुणगान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

गणपति गौरी-पति गिरा गोपति गुरु गोविन्द।

गुण गावो वन्दन करो पावन पद अरविन्द।1।

 

देव भाव मन में भरे दल अदेव अहमेव।

गिरि गुरुता से हैं अधिक गौरव में गुरुदेव।2।

 

पाप-पुंज को पीस गुरु त्रिविध ताप कर दूर।

हैं भरते उर-भवन में भक्ति-भाव भरपूर।3।

 

हर सारा अज्ञान-तम बन भवसागर-पोत।

गुरु तज उर में ज्ञान को कौन जगावे जोत।4।

 

जनरंजन होता नहीं कर-गंजन तम-मान।

दृग-रुज-भंजन जो न गुरु करते अंजन दान।5।

 

कौन बिना गुरु के हरे गौरव-जनित-गरूर।

करे समल मानस विमल बने सूर को सूर।6।

 

बिना खुली जन आँख को खोल न पाता आन।

जानकार गुरु के बिना रहता जगत अजान।7।

 

बाद क्यों न गुरु से करें चेले कलि अनुरूप।

रीति न जानत विनय की हैं अविनय के रूप।8।

 

 

गुरु-सेवा करते रहें गहें न उनकी भूल।

जो न चढ़ावें फूल हम तो न उड़ावें धूल।9।

 

होता है सिर को नवा नर जग में सिरमौर।

बनता है बन्दन किये बन्दनीय सब ठौर।10।

54. माता-पिता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

उसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन।

पिता आपही अवनि में हैं अपना उपमान।1।

 

मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान।

माता सी ममतामयी पाता पिता समान।2।

 

जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल।

माता के लालन बिना लाल न बनते लाल।3।

 

कौन बरसता खेह पर निशि दिन मेंह-सनेह।

बिना पिता पालन किये पलती किस की देह।4।

 

छाती से कढ़ता न क्यों तब बन पय की धार।

जब माता उर में उमग नहीं समाता प्यार।5।

 

सुत पाता है पूत पद पाप पुंज को भूँज।

माता पद-पंकज परस पिता कमल पग पूज।6।

 

वे जन लोचन के लिए सके न बन शशि दूज।

पूजन जोग न जो बने माता के पग पूज।7।

 

जो होते भू में नहीं पिता प्यार के भौन।

ललक बिठाता पूत को नयन पलक पर कौन।8।

 

जो होवे ममतामयी प्रीति पिता की मौन।

प्यारा क्या सुत को कहे तो दृग तारा कौन।9।

 

ललक ललक होता न जो पिता लालसा लीन।

बनता सुत बरजोर तो कोर कलेजे की न।10।

 

55. पुष्पांजलि-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

राम चरित सरसिज मधुप पावन चरित नितान्त।

जय तुलसी कवि कुल तिलक कविता कामिनि कान्त।1।

 

सुरसरि धारा सी सरस पूत परम रमणीय।

है तुलसी की कल्पना कल्पलता कमनीय।2।

 

अमित मनोहरता मथी अनुपमता आवास।

है तुलसी रचना रुचिर बहु शुचि सुरुचि बिकास।3।

 

सकल अलौकिकता सदन सुन्दर भाव उपेत।

है तुलसी की कान्त कृति निरुपम कला निकेत।4।

 

जबलौं कवि कुल कल्पना करे कलित आलाप।

अवनि लसित तब लौं रहे तुलसी कीर्ति कलाप।5।

56. उद्बोधन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वेदों की है न वह महिमा धर्म ध्वंस होता।

आचारों का निपतन हुआ लुप्त जातीयता है।

विप्रो खोलो नयन अब है आर्यता भी विपन्ना।

शीलों की है मलिन प्रभुता सभ्यता वंचिता है।1।

 

सच्चे भावों सहित जिन के राम ने पाँव पूजे।

पाई धोके चरण जिन के कृष्ण ने अग्र पूजा।

होते वांछा विवश इतने आज वे विप्र क्यों हैं।

जिज्ञासू हो निकट जिन के बुध्द ने सिध्दि पाई।2।

 

 

जो धाता है निगम पथ का देवता है धारा का।

है विज्ञाता अमर पद का दिव्यता का विधाता।

क्यों तेजस्वी द्विज कुल वही धवान्त में मग्न सा है।

सारी भू है सप्रभ जिस के ज्ञान आलोक द्वारा।3।

 

सेना से है सबल जिस की सत्य से पूत बाणी।

है अस्त्रों से अधिक जिस की मंत्रिता बारि धारा।

क्यों भीता औ विचलित वही विप्र की मण्डली है।

तेज: शाली परम जिस का दण्ड ही बज्र से है।4।

 

हो जाते थे विनत जिन के सामने चक्रवर्ती।

सम्राटों का हृदय जिन के तेज से काँप जाता।

कैसे वे ही द्विज कुजन की देखते बंक भू्र हैं।

भूपालों का मुकुट जिन का पाँव छू पूत होता।5।

57. जीवन-मरण-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान

मुँह चोर बने आन बान छोड़ बैठी है।

कैसे भला बार बार मुँह की न खाते रहें

सारी मरदानगी ही मुँह मोड़ बैठी है।

हरिऔधा कोई कस कमर सताता क्यों न

कायरता होड़ कर नाता जोड़ बैठी है।

छूट चलती है आँख दोनों ही गयी है फूट

हिन्दुओं में फूट आज पाँव तोड़ बैठी है।1।

 

 

बीती बीरताएँ, बात उनकी बनातीं कैसे

धूल से औ तृण-तूल से जो गये बीते हैं।

उनकी रगों में भला बिजली भरेगा कौन

बात के कढ़े जो बार बार मुख सीते हैं।

हरिऔधा हिन्दू कैसे हिन्दू का करेंगे हित

वे मुख अहिन्दुओं का देख देख जीते हैं।

लोहा कैसे लेते हाथ काँपता है लोहा छुए

आँखें कैसे लहू होतीं लहू घूँट पीते हैं।2।

 

धूल आँख में जो झोंकते हैं उन्हें बंधु मान

बँधो धाक-बंधानों को धूल में मिलाते हैं।

सच्चा मेल जोल मेल जोल चोचलों को मान

बिना माल मिले मोल अपना गँवाते हैं।

हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं की कहें

बन बन भोले भलीभाँति छले जाते हैं।

बात खुलती है खोलने को खोखलापन ही

आँख कैसे खुले आँख खोल ही न पाते हैं।3।

 

काठ हो गये हैं काठ होने के कुपाठ पढ़

दिल वाले होते कढ़ा दिल का दिवाला है।

बस होते रहे बेबिसात बेबसी से बुने

कस होते अकसों का बढ़ता कसाला है।

हरिऔधा बल होते अबल बने ही रहें

बार बार बैरियों का होता बोलाबाला है।

पाला कैसे मारे पाले पड़े हैं कचाइयों के

हिन्दुओं के लोहू पर पड़ गया पाला है।4।

 

 

मन मरा तन में तनिक भी न ताब रही

धान का न धयान बाहु का बल न प्यारा है।

हँसी की न हया परवाह बेबसी की नहीं

अरमान हित का न मान का सहारा है।

हरिऔधा ऐसी ही प्रतीति हो रही है आज

सुत रहा सुत औ न दारा रही दारा है।

वीरता रही न गयी धीरता धारा में धाँस

हिन्दुओं की रग में रही न रक्त धारा है।5।

 

'दाब मानते हैं' यह भाव बार बार दब

दाँत तले दूब दाव दाब के दिखावेंगे।

आँख देखने की है न उनमें तनिक ताब

बात यह आँख मूँद मूँद के बतावेंगे।

हरिऔधा हिन्दुओं में हिम्मत रही ही नहीं

हार को सदा ही हार गले को बनावेंगे।

चोटी काट काट वे सचाई का सबूत देंगे

यूनिटी को पाँव चाट चाट के बचावेंगे।6।

 

 

नवा नवा सिर को सहेंगे सिर पड़ी सारी

दाँत काढ़ काढ़ दाँत अथवा तुड़ावेंगे।

रगड़ रगड़ नाक नाक कटवा हैं रहे

पकड़ पकड़ कान कान पकड़ावेंगे।

हरिऔधा और कौन काम हिन्दुओं से होगा

मिल मिल गले गला अपना दबावेंगे।

पाँव पड़ पड़ मार पाँव में कुल्हाड़ा लेंगे

जोड़ जोड़ हाथ हाथ अपना कटावेंगे।7।

 

कागज के फूल है गलेंगे बारि बूँद पड़े

पत्ते हैं पवन लगे काँपते दिखावेंगे।

वे तो हैं बलूले बात कहते बिलोप होंगे

ओले हैं अवनि तल परसे बिलावेंगे।

ओस की हैं बूँदें लोप होवेंगे किरण छूते

कुसुम हैं धूप देखते ही कुम्हलावेंगे।

कैसे भला हिन्दू फूँक फूँक के न पाँव रखें

भूआ हैं बिचारे फूँक से ही उड़ जावेंगे।8।

 

कान होते बहरे बने हैं अंधे आँख होते

बाचा चारु होते मूक रहना बिचारा है।

कर होते लुंज हैं औ पंगु सुपग होते

बलवान होते कहाँ बल का सहारा है।

हरिऔधा दुखित महा है देख देख दशा

तेज होते परम तरणि बना तारा है।

तन होते तन बिन गये हैं ए अतन बन

हिन्दुओं के तन की निराली रक्त धारा है।9।

 

 

चूक जो हुई सो हुई चूकते सदा क्यों रहें

चतुर हितू के मिले चौंक अब चेते हैं।

भ्रम की भयानक भँवर में पड़ी क्यों रहे

सँभल सँभल जाति हित नाव खेते हैं।

हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं से होगी

साथ साथ वाले का वे साथ रह देते हैं।

गाली खा खा मंजु मुख लाली है ललाम होती

लात खा खा लात को ललक चूम लेते हैं।10।

 

काँटे जैसे लघु चुभते हैं पड़े पाँव तले

पेटे धूल पड़ पड़ दृगों में दुख देती है।

कीड़ी की सी बड़ी तुच्छी टीड़ी दल बाँधा बाँधा

दल देती बड़े बड़े दलपति की खेती है।

हरिऔधा हिन्दू जाति में अब कहाँ है जान

चोट पर चोट खा खा कर भी न चेती है।

छेड़े दबे छोटे छोटे कीट भी न छोड़ते हैं

चोट करते हैं चींटे चींटी काट लेती है।11।

 

लट लट बार बार लोट लोट जाते जो न

कैसे तो हमारी ललनाएँ कोई लूटता।

फटे जो न होते दिल फूटा जो न भाग होता

कैसे लगातार तो हमारा सिर फूटता।

हरिऔधा कटुता न जाति में जो फैली होती

कैसे कूटनीतिवाला कूद कूद कूटता।

टूट हो रही है टूट मन्दिर अनेकों गये

मूर्ति टूटती है, है कलेजा कहाँ टूटता।12।

 

आन बान वाले बात अपनी बना हैं रहे

आज भी हमारी आन लम्बी तान सोती है।

कान पर जूँ भी नहीं रेंगती किसी के कभी

बद कर बदों की बदी विष बीज बोती है।

हरिऔधा हाथ मलते भी बनता है नहीं

बार बार चूर चूर होता मान-मोती है।

ललनाएँ छिनीं किन्तु खौलता कहाँ है लहू

लाल लुटते हैं आँख लाल भी न होती है।13।

 

रोते रोते रातें हैं बिताते बहुतेरे लोग

रेते जा रहे हैं गले घर होते रीते हैं।

आग हैं लगाते, हैं जलाते बार बार जल,

चैन लेने देत नहीं पातकी पलीते हैं।

हरिऔधा हिन्दू मेमने हैं बने चेते नहीं

चोट पहुँचाते लहू चाटे वाले चीते हैं।

पटु हो रहे हैं पीटने में पीट पीट पापी

एक कीट से भी बीस कोटि गये बीते हैं।14।

 

 

माल पर हाथ मार मार मालामाल बनें

कर के कपाल क्रिया भरें किलकारियाँ।

'खल कर लहू' हाथ अपना लहू से भरें

तन के छतों से छूटें लहू पिचकारियाँ।

धज्जियाँ उड़ाई जाँय भोलेभाले बालकों की

धूल में मिलाई जाँय फूल जैसी नारियाँ।

आग तो कलेजे में लगी ही नहीं हिन्दुओं के

कैसे भला आँख से कढ़ेंगी चिनगारियाँ।15।

 

झोंपड़ी किसी की फुँकती है तो भले ही फुँके

उसे क्या जो फूँक फूँक देता पर टट्टी है।

कैसे भला लोक-लाभ-लालसा लुभाये उसे

जिसने कि लूटपाट ही की पढ़ी पट्टी है।

हरिऔधा मानवता ममता न होगी उसे

पामरता प्रीति घटे होती जिसे घट्टी है।

पड़ के खटाई में न खट्टी मीठी जान सके

आज भी हमारी आँख की न खुली पट्टी है।16।

 

नानी मर जाती है कहानी वीरता की सुने

काँप उठते हैं नेक नाम सुने नेजे का।

बुरी बुरी भावना है पुजती भवानी बनी

भय से भरा ही रहता है भाग भेजे का।

हरिऔधा हिन्दुओं का ह्रास होगा कैसे नहीं

फल मिलता है उन्हें हीनता अंगेजे का।

जान होते बिना जान वाला कौन दूसरा है

कौन है कलेजा होते बना बेकलेजे का।17।

 

कीट कहते हैं बनेंगे कीट पावस के

लत्तो कहते हैं लत्तो इनके उड़ावेंगे।

दूब कहती है दूब दाबेंगे ए दाँतों तले

तृण कहते हैं इन्हें तृण सा बनावेंगे।

हरिऔधा क्या सुन रहे हैं? ए हैं कैसी बातें?

कान खोल हिन्दू क्या इन्हें न सुन पावेंगे।

तूल कहती है ए उड़ेंगे तूल-पुंज सम

धूल कहती है धूल में ए मिल जावेंगे।18।

 

 

कैसे खान पान के बखेड़े खड़े होंगे नहीं

कैसे छूत छात के अछूते बन खोवेंगे।

कैसे पंथ मत के प्रपंच में पड़ेंगे नहीं

कैसे भेदभाव काँटे पंथ में न बोवेंगे।

हरिऔधा कैसे पेचपाच न भरेंगे ऐच

कैसे जाति पाँति के कलंक-पंक धोवेंगे।

धार के अनेक रूप रोकती अनेकता है

एका कैसे होगा कैसे हिन्दू एक होवेंगे।19।

 

दुख हुए दूने हुए सुन्दर सदन सूने

ध्वंस के नमूने बने मन्दिर दिखाते हैं।

दिल में पड़े हैं छाले जीवन के लाले पड़े

पामर के पाले पड़े सुख को ललाते हैं।

हरिऔधा हिन्दुओं की बुरी लतें छूटी नहीं

माल खो खो लोने लाल ललना गँवाते हैं।

तलवे सहलाते पिटते हैं बच पाते नहीं

सह सह लातें रसातल चले जाते हैं।20।

 

कटेंगे पिटेंगे नोचते हैं जो नुचेंगे आप

कब तक हिन्दुओं को नोच नोच खावेंगे।

पच न सकेगा पेट मार के मरेंगे क्यों न

पामर परम कैसे पाहन पचावेंगे।

हरिऔधा धर्म-बीर धर्म की रखेंगे धाक

ऊधमी अधम कैसे ऊधाम मचावेंगे।

पोटी दूह लेवेंगे चपेटेंगे लँगोटी बाँधा

बोटी बोटी कटे लाज चोटी की बचावेंगे।21।

 

पातकी जो पातक पयोनिधि समान होंगे

कौतुक तो कुंभ-योनि कासा दिखलावेंगे।

एक मुख से ही पंच मुख का करेंगे काम

दोही बाहु मेरे चार बाहु कहलावेंगे।

अधम अधमता चलेगी हरिऔधा कैसे

दो ही दृग सहस-नयन पद पावेंगे।

लोभ लोभ लोमश लौं अजर अमर होंगे

सारे रक्त-बिन्दु रक्त-बीज बन जावेंगे।22।

 

 

बदरंग उनको अनेकता करेगी कैसे

एकता की रंगतों में यदि सन जावेंगे।

हाथ लेंगे आयुध विरोध प्रतिकारक तो

बैरी-बैर-वीरुधा के मूल खन जावेंगे।

हरिऔधा हिन्दू बातें अपनी बनायेंगे तो

उन्नति विधान के वितान तन जावेंगे।

चार चाँद जाति हित चाव में लगा देंगे तो

चन्द जयचन्द भोरचन्द बन जावेंगे।23।

 

जगेंगे उठेंगे औ गिरावेंगे गरूरियों को

गिरि को करेंगे चूर बज्र बन जावेंगे।

परम प्रपंचियों का कदन प्रपंच कर

भर भर पेंच बाई पूच की पचावेंगे।

हरिऔधा हिन्दू धार धीर धावमान होंगे

अंधाधुंधा बंधुओं को धारा में धाँसावेंगे।

धूम से दलेंगे धामाचौकड़ी मचेगी कैसे

बड़े बड़े ऊधमी को धूल में मिलावेंगे।24।

 

प्रेम के निकेतनों के प्रेमिक परम होंगे

प्यार भरा प्याला प्यार वाले को पिलावेंगे।

हिंसों की हिंसा को कहेंगे कभी हिंसा नहीं

मान वे अहिंसकों को दिल से दिलावेंगे।

हरिऔधा मानवता मोल को अमोल मान

अमिल मनों को मेल-जोल से मिलावेंगे।

जीवित रहेंगे मर जाति के हितों के लिए

जीवन दे जीवन-विहीन को जिलावेंगे।25।

 

58. हमें चाहिए-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कपड़े रँग कर जो न कपट का जाल बिछावे।

तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावे।

हमें चाहिए सच्चे जी वाला वह साधू।

जाति देश जगहित कर जो निज जन्म बनाये।1।

 

देशकाल को देख चले निजता नहिं खोवे।

सार वस्तु को कभी पखंडों में न डुबोवे।

हमें चाहिए समझ बूझ वाला वह पंडित।

आँखें ऊँची रखे कूपमंडूक न होवे।2।

 

आँखों को दे खोल, भरम का परदा टाले।

जाँ का सारा मैल कान को फूँक निकाले।

गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।

जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।3।

 

टके के लिए धूल में न निज मान मिलावे।

लोभ लहर में भूल न सुरुचि सुरीति बहावे।

हमें चाहिए सरल सुबोध पुरोहित ऐसा।

जो घर घर में सकल सुखों की सोत लसावे।4।

 

करे आप भी वही और को जो सिखलावे।

सधो सराहे सार वचन निज मुख पर लावे।

हमें चाहिए ज्ञानमान उपदेशक ऐसा।

जो तमपूरित उरों बीच वर जोत जगावे।5।

 

जो हो राजा और प्रजा दोनों का प्यारा।

जिसका बीते देश-प्रेम में जीवन सारा।

देश-हितैषी हमें चाहिए अनुपम ऐसा।

बहे देशहित की जिसकी नस नस में धारा।6।

 

जिसे पराई रहन-सहन की लौ न लगी हो।

जिसकी मति सब दिन निजता की रही सगी हो।

हमें चाहिए परम सुजान सुधारक ऐसा।

जिसकी रुचि जातीय रंग ही बीच रँगी हो।7।

 

जिसके हों ऊँचे विचार पक्के मनसूबे।

जी होवे गंभीर भीड़ के पड़े न ऊबे।

हमें चाहिए आत्म-त्याग-रत ऐसा नेता।

रहें जाति-हित में जिसके रोयें तक डूबे।8।

 

 

बोल बोलकर बचन अमोल उमंग बढ़ावे।

जन-समूह को उन्नति-पथ पर सँभल चलावे।

इस प्रकार का हमें चाहिए चतुर प्रचारक।

जो अचेत हो गयी जाति को सजग बनावे।9।

 

देख सभा का रंग, ढंग से काम चलावे।

पचड़ों में पड़ धूल में न सिद्धन्त मिलावे।

हमें चाहिए नीति-निधान सभापति ऐसा।

जो सब उलझी हुई गुत्थियों को सुलझावे।10।

 

एँच पेच में कभी सचाई को न फँसावे।

लम्बी चौड़ी बात बनाना जिसे न आवे।

हमें बात का धानी चाहिए कोई ऐसा।

जो कुछ मुँह से कहे वही करके दिखलावे।11।

 

किसे असंभव कहते हैं यह समझ न पावे।

देख उलझनों को चितवन पर मैल न लावे।

हमें चाहिए धुन का पक्का ऐसा प्राणी।

जो कर डाले उसे कि जिसमें हाथ लगावे।12।

 

कोई जिसे टटोल न ले आँखों के सेवे।

जिसके मन का भाव न मुखड़ा बतला देवे।

हमें चाहिए मनुज पेट का गहरा ऐसा।

जिसके जी की बात जान तन-लोम न लेवे।13।

 

जिसके धन से खुलें समुन्नति की सब राहें।

हो जावें वे काम विबुध जन जिन्हें सराहें।

हमें चाहिए सुजन गाँठ का पूरा ऐसा।

जो पूरी कर सके जाति की समुचित चाहें।14।

 

ऊँच नीच का भेद त्याग सबको हित माने।

चींटी पर भी कभी न अपनी भौंहें ताने।

हमें चाहिए मानव ऊँचे जी का ऐसा।

अपने जी सा सभी जीव का जी जो जाने।15।

 

59. हमें नहीं चाहिए-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आप रहे कोरा शरीर के बसन रँगावे।

घर तज कर के घरबारी से भी बढ़ जावे।

इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को साधू।

मन तो मूँड़ न सके मूँड़ को दौड़ मुड़ावे।1।

 

मन का मोह न हरे, राल धान पर टपकावे।

मुक्ति बहाने भूल भूलैयाँ बीच फँसावे।

हमें चाहिए गुरू नहीं ऐसा अविवेकी।

जो न लोक का रखे न तो परलोक बनावे।2।

 

बूझ न पावे धर्म-मर्म बकवाद मचावे।

सार वस्तु को बचन चातुरी में उलझावे।

इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को पंडित।

जो गौरव के लिए शास्त्र का गला दबावे।3।

 

न तो पढ़ा हो न तो कभी कुछ कर्म करावे।

कर सेवाएँ किसी भाँति जीविका चलावे।

कभी चाहिए नहीं पुरोहित हम को ऐसा।

पूरा क्या, जो हित न अधूरा भी कर पावे।4।

 

सीधे सादे वेद बचन को खींचे ताने।

अपने मन अनुसार शास्त्र सिध्दान्त बखाने।

हमें चाहिए नहीं कभी ऐसा उपदेशक।

जो न धर्म की अति उदार गति को पहचाने।5।

 

बके बहुत, थोथी बातें कह, मूँछें टेवे।

निज समाज का रहा सहा गौरव हर लेवे।

इस प्रकार का हमें चाहिए नहीं प्रचारक।

कलह फूट का बीज जाति में जो बो देवे।6।

 

 

चाहे सुनियम तोड़ ढोंग रचना मनमाने।

मतलब गाँठा करे समाज-सुधार बहाने।

नहीं चाहिए कभी सुधारक हम को ऐसा।

ठीक ठीक जो नहीं जाति नाड़ी गति जाने।7।

 

घी मिलने की चाह रखे औ वारि बिलोवे।

जिसकी नीची ऑंख जाति का गौरव खोवे।

इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को नेता।

जो हो रुचि का दास नाम का भूखा होवे।8।

 

तह तक जिसकी ख समय पर पहुँच न पावे।

थोड़ा सा कुछ करे बहुत सा ढोल बजावे।

देश-हितैषी नहीं चाहिए हम को ऐसा।

मरे नाम के लिए देश के काम न आवे।9।

 

निज पद गौरव साथ सभा को जो न सँभाले।

सभी सुलझती हुई बात को जो उलझाले।

इस प्रकार का नहीं चाहिए हमें सभापति।

जिसे जो चाहे वही मोम की नाक बना ले।10।

60. एक उकताया-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता।

बिन कहे भी रहा नहीं जाता।1।

 

बे तरह दुख रहा कलेजा है।

दर्द अब तो सहा नहीं जाता।2।

 

इन झड़ी बाँधा कर बरस जाते।

आँसुओं में बहा नहीं जाता।3।

 

चोट खा खा मसक मसक करके।

भीत जैसा ढहा नहीं जाता।4।

 

थक गया, हाथ कुछ नहीं आया।

मुझ से पानी महा नहीं जाता।5।

 

61. कुछ उलटी सीधी बातें-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या।

बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या।1।

 

रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला।

उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या।2।

 

भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें।

कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या।3।

चलेंगे चाल मनमानी बनी बातें बिगाड़ेंगे।

जो हैं चिकने घड़े उन पर किसी का बस चलेगा क्या।4।

 

जिसे कहते नहीं अच्छा उसी पर हैं गिरे पड़ते।

भला कोई कहीं इस भाँत अपने को छलेगा क्या।5।

 

न जिसने घर सँभाला देश को क्या वह सँभालेगा।

न जो मक्खी उड़ा पाता है वह पंखा झलेगा क्या।6।

 

मरेंगे या करेंगे काम यह जी में ठना जिसके।

गिरे सर पर न बिजली क्यों जगह से वह टलेगा क्या।7।

 

नहीं कठिनाइयों में बीर लौं कायर ठहर पाते।

सुहागा आँच खाकर काँच के ऐसा ढलेगा क्या।8।

 

रहेगा रस नहीं खो गाँठ का पूरी हँसी होगी।

भला कोई पयालों को कतर घी में तलेगा क्या।9।

 

गया सौ सौ तरह से जो कसा कसना उसे कैसा।

दली बीनी बनाई दाल को कोई दलेगा क्या।10।

 

भला क्यों छोड़ देगा मिल सकेगा जो वही लेगा।

जिसे बस एक लेने की पड़ी है वह न लेगा क्या।11।

 

 

सगों के जो न काम आया करेगा जाति-हित वह क्या।

न जिससे पल सका कुनबा नगर उससे पलेगा क्या।12।

 

रँगा जो रंग में उसके बना जो धूल पाँवों की।

रँगेगा वह बसन क्यों राख तन पर वह मलेगा क्या।13।

 

करेगा काम धीरा कर सकेगा कुछ न बातूनी।

पलों में खर बुझेगा काठ के ऐसा बलेगा क्या।14।

 

न आँखों में बसा जो क्या भला मन में बसेगा वह।

न दरिया में हला जो वह समुन्दर में हलेगा क्या।15।

62. प्यासी आँखें-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कहें क्या बातें आँखों की ।

चाल चलती हैं मनमानी ।

सदा पानी में डूबी रह ।

नहीं रख सकती हैं पानी ।1।

 

लगन है रोग या जलन है ।

किसी को कब यह बतलाया ।

जल भरा रहता है उनमें ।

पर उन्हें प्यासी ही पाया ।2।

63. विवशता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

रहा है दिल मला करे ।

न होगा आँसू आए ।

सब दिनों कौन रहा जीता ।

सभी तो मरते दिखलाए ।1।

 

हो रहेगा जो होना है

टलेगी घड़ी न घबराए।

छूट जाएँगे बंधन से।

मौत आती है तो आए।2।

 

64. चाहिए-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

राह पर उसको लगाना चाहिए।

जाति सोती है जगाना चाहिए।1।

 

हम रहेंगे यों बिगड़ते कब तलक।

बात बिगड़ी अब बनाना चाहिए।2।

 

खा चुके हैं आज तक मुँह की न कम।

सब दिनों मुँह की न खाना चाहिए।3।

 

हो गयी मुद्दत झगड़ते ही हुए।

यों न झगड़ों को बढ़ाना चाहिए।4।

 

अनबनों के चंगुलों से छूट कर।

फूट को ठोकर जमाना चाहिए।5।

 

पत उतरते ही बहुत दिन हो गये।

बच गयी पत को बचाना चाहिए।6।

 

चाल बेढंगी न चलते ही रहें।

ढंग से चलना चलाना चाहिए।7।

 

क्या करेंगी सामने आ उलझनें।

हाँ उलझ उसमें न जाना चाहिए।8।

 

ठोकरें खाकर न मुँह के बल गिरें।

गिर गयों को उठ उठाना चाहिए।9।

 

रंगतें दिन दिन बिगड़ने दें न हम।

रंग अब अपना जमाना चाहिए।10।

 

जाँय काँटों से न भर सुख-क्यारियाँ।

फूल अब उसमें खिलाना चाहिए।11।

 

 

है भरोसा भाग का अच्छा नहीं।

भूत भरमों का भगाना चाहिए।12।

 

बे ठिकाने तो बहुत दिन रह चुके।

अब कहीं कोई ठिकाना चाहिए।13।

 

है उजड़ने में भलाई कौन सी।

घर उजड़ता अब बसाना चाहिए।14।

 

जा रही है जान तो जाये चली।

जाति को मरकर जिलाना चाहिए।15।

65. उलटी समझ-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जाति ममता मोल जो समझें नहीं।

तो मिलों से हम करें मैला न मन।

देश-हित का रंग न जो गाढ़ा चढ़ा।

तो न डालें गाढ़ में गाढ़ा पहन।1।

 

धूल झोंकें न जाति आँखों में।

फाड़ देवें न लाज की चद्दर।

दर बदर फिर न देश को कोसें।

मूँद हित दर न दें पहन खद्दर।2।

 

तो गिना जाय क्यों न खुदरों में।

क्यों उगा दे न बीज बरबादी।

काम की खाद जो न बन पाई।

देश-हित-खेत के लिए खादी।3।

 

हित सचाई बिना नहीं होगा।

लोग ताना अनेक तन देखें।

कात लें सूत, लें चला करघे।

सैकड़ों गज गजी पहन देखें।4।

 

पैन्ह मोटा न पेट मोटा हो।

सब बुरी चाट बाँट में न पड़े।

छल कपट का न पैन्ह लें जामा।

हथ-कते सूत के पहन कपड़े।5।

 

66. समझ का फेर-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

है भरी कूट कूट कोर कसर।

माँ बहन से करें न क्यों कुट्टी।

लोग सहयोग कर सकें कैसे।

है असहयोग से नहीं छुट्टी।1।

 

मेल बेमेल जाति से करके।

हम मिटाते कलंक टीके हैं।

जाति है जा रही मिटी तो क्या।

रंग में मस्त यूनिटी के हैं।2।

 

अनसुनी बात जातिहित की कर।

मुँह बिना किसलिए न दें टरखा।

कात चरखा सके नहीं अब भी।

हैं मगर लोग हो गये चरखा।3।

 

माँ बहन बेटियाँ लुटें तो क्या।

देख मुँह मेल का उसे लें सह।

हो बड़ी धूम औ धड़ल्ले से।

मन्दिरों पर तमाम सत्याग्रह।4।

 

बे समझ और आँख के अंधो।

देख पाये कहीं नहीं ऐसे।

जो न ताराज हो गये हिन्दू।

मिल सकेगा स्वराज तो कैसे।5।

 

67. सुशिक्षा-सोपान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जी लगा पोथी अपनी पढ़ो।

केवल पढ़ो न पोथी ही को, मेरे प्यारे कढ़ो।

कभी कुपथ में पाँव न डालो, सुपथ ओर ही बढ़ो।

भावों की ऊँची चोटी पर बड़े चाव से चढ़ो।

सुमति-खंजरी को मानवता-रुचि-चाम से मढ़ो।

बन सोनार सम परम-मनोहर पर-हित गहने गढ़ो।1।

 

बड़ा ही जी को है दुख होता।

कोई जो रसाल-क्यारी में है बबूल को बोता।

लसता है सुन्दर भावों-सँग उर में रस का सोता।

बुरे भाव उपजा कर उसमें मूढ़ मूल है खोता।2।

 

स्वाति की बूँद जहाँ जा पड़ी।

बहुत काम आई, दिखलाई उपकारिता बड़ी।

बनी कपूर कदिल-गोफों में सीपी में कलमोती।

खोले मुख प्यासे चातक-हित बनी सुधा की सोती।

ऐसे ही तुम जहाँ सिधाओ उपकारक बन जाओ।

काँटों में भी बड़े अनूठे सुन्दर फूल खिलाओ।3।

 

आहा! कितना है मन भाता।

चारों ओर जलधि प्रभु की महिमा का है लहराता।

भरे पड़े हैं इसमें सुन्दर सुन्दर रत्न अनेकों।

बड़े भाग वाला वह जन है जिसने पाया एको।

शंकर कपिल शुकादिक के कर एक आधा था आया।

तो भी उसने ही आलोकित भूतल सकल बनाया।

ऐसा बड़े भाग वाला जन तुम भी बनना चाहो।

जी में जो अनुराग तनिक भी जग-जन के हित का हो।4।

 

 

नई पौधों से ही है आस।

जाति जिलाने वाली, जड़ी सजीवन है इनही के पास।

इनके बने जाति बनती है बिगड़े हो जाती है नास।

इनही से जातीय भाव का होता है विधि साथ विकास।

ये हैं जाति-समाज देह के वसन-विधायक कुसुम-कपास।

येई हैं नूतन बिचार उडु-राजि-विकाशक विमल अकास।

उन्हीं नई पौधों में तुम हो, देखो होय न हृदय निरास।

गौरव लाभ करो फैला कर तम में अति कमनीय उजास।5।

68. भोर का उठना-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

भोर का उठना है उपकारी।

जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी।

पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी।

पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी।

 

लालिमा ज्यों नभ में छाती है।

त्यों ही एक अनूठी धारा अवनी पर आती है।

परम-रुचिरता-सहित सुधा-बृंदों सी बरसाती है।

रसमय, मुदमय, मधुर नादमय सब ही दिशा बनाती है।

तृण, वीरुधा, तरु, लता, वेलि को प्रतिपल पुलकाती है।

बन उपवन में रुचिर मनोहर कुसुम-चय खिलाती है।

प्रान्तर-नगर-ग्राम-गृह-पुर में सजीवता लाती है।

उर में उमग पुलक तन में दुति दृग में उपजाती है।

सदा भोर उठने वालों की यह प्यारी थाती है।

यह न्यारी-निधि बड़े भाग वाली जनता पाती है।

 

प्रात की किरणें कोमल प्यारी।

जहाँ तहाँ फलती तरु तरु पर दिखलाती छबि न्यारी।

जब आलोकित करती हैं अवनी कर प्रकृति सँवारी।

तब युग नयन देख पाते हैं देव-कुसुम कल-क्यारी।

जीवन लहर जगमगा जाती है पा दुति रुचिकारी।

उर नव विभावान बनता है जैसे रजनि दिवारी।

 

 

प्रात-पवन है परम निराली।

तन निरोग करने वाली ओषधा उसमें है डाली।

उसकी अति रुचिकर शीतलता चाल मृदुलता ढाली।

कुसुम-कली लौं है जी की भी कली खिलाने वाली।

होती है जनता मलयानिल-सौरभ से मतवाली।

किन्तु सामने यह रख देती है फूलों की डाली।

प्रात-पवन ही से मिलती है प्रीतिकरी-मुखलाली।

उसके सेवन से बढ़ती है जीवन-तरु-हरियाली।

 

प्रात उठने में कभी न चूको।

अभिनव-किरण-जाल आरंजित नित अवलोको भू को।

दूध-फेन-सम सुकुसुम-कोमल तल्प है परम-प्यारा।

किन्तु कहीं उससे सुखकर है ऊषा कालिक धारा।

प्रात-समय की सहज नींद है बहु विनोदिनी मीठी।

किन्तु पास है प्रात-पवन के अति प्रियता की चीठी।

करो निछावर आलस को उस पर कर पुलकित छाती।

प्रात अटन से जो सजीवता है धमनी में आती।

काम काज की विविध असुविधा जीवन की बहु बाधा।

एक प्रात उठने ही से कम हो जाती है आधा।

बालक युवा सभी पाते हैं उससे सदा सफलता।

सबके लिए प्रात का उठना है अमृत-फल फलता।

69. कुसुम चयन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जो न बने वे विमल लसे विधु-मौलि मौलि पर।

जो न बने रमणीय सज, रमा-रमण कलेवर।

बर बृन्दारक बृन्द पूज जो बने न बन्दित।

जो न सके अभिनन्दनीय को कर अभिनन्दित।

जो विमुग्धा कर हुए वे न बन मंजुल-माला।

जो उनसे सौरभित प्रेम का बना न प्याला।

कर के नृप-कुल-तिलक क्रीट-रत्नों को रंजित।

कर न सके जो कलित-कुसुम-कुल महिमा व्यंजित।

जो न सुबासित हुआ तेल उनसे वह आला।

जिसने सुखमय व्यथित-जीव-जीवन कर डाला।

जो न गौरवित हुए वे परस गुरु-पद-पंकज।

जो न लोकहित करी बनी उनकी सुन्दर रज।

तो किसी काल में क्यों करे विकच-कुसुम-चय का चयन।

कर भावुक अवमानना भाव भरा भावुक सुजन।

 

70. कृतज्ञता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

माली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक बाला।

बोली ऐ मति भोले कुसुमो खल से तुम्हें पड़ा पाला।

विकसित होते ही वह नित आ तुम्हें तोड़ ले जाता है।

उदर-परायणता वश पामर तनिक दया नहिं लाता है।1।

 

सुनो इसलिए तुम्हें चाहिए चुनते ही मचला जाओ।

माली के कर में पड़ते ही तजो बिकचता कुम्हलाओ।

इस प्रकार जब उसके हित में बाधाएँ पहुँचाओगे।

उसकी आँखें तभी खुलेंगी औ, तुम भी कल पाओगे।2।

 

बोले कुसुम ऐ सदय-हृदये कृपा देख करके प्यारी।

सादर धन्यवाद देता हूँ उक्ति बड़ी ही है प्यारी।

किन्तु विनय इतनी है जिसने सींचा सदा सलिल द्वारा।

जिसने कितनी सेवाएँ कर की सुखमय जीवन-धारा।3।

 

क्या उससे व्यवहार इस तरह का समुचित कहलावेगा।

कोई कर ऐसा कृतज्ञता को मुख क्या दिखलावेगा?।

तोड़ लिये जावें या सूखें नुचें झड़ें या कुम्हलावें।

किन्तु चाहते नहीं धारा को बुरा चलन सिखला जावें।4।

 

कहाँ भाग जो मेरे द्वारा माली का परिवार पले।

उसका उदर भरे दुख छूटे उस की आई विपत टले।

प्रतिपालक उर में आशा की अति मृदु बेलि उलहती है।

वह प्रतिपालित पौधा बुरी है जो कुढ़ उसे कुचलती है।5।

 

आज या कि कल कुम्हलाते ही पंखड़ियाँ भी झड़ जातीं।

रज हो जाने त्याग उस समय कौन काम में वे आतीं।

प्रतिपालक माली कर में पड़ उसका हितकारक होना।

सुरभित कर कितने हृदयों में बीज सरसताएँ बोना।6।

 

रंगालय सुर-सदन राज-प्रासादों में आदर पाना।

बिबिध बिलास केलि-क्रीड़ा में हाथों हाथ लिये जाना।

अच्छा है, अथवा मिट्टी में मिल जाना ही है उत्तम।

है सुज्योतिमय जीवन सुन्दर अथवा मलिन निमज्जिततम।7।

 

सुख के कीड़े किसी काल में आदर मान नहीं पाते।

उस का जीवन सफल न होगा जो दुख से हैं अकुलाते।

हम इस में ही परम-सुखित हैं बिकच बनें औ सरसावें।

पड़ सुकरों में करें लोक-हित किसी काम में लग जावें।8।

 

71. एक काठ का टुकड़ा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था।

उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था।

पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा।

एक किसलिए प्रतिद्वन्दी है और दूसरा है प्यारा।

मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी।

जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।

अति कठोर पाहन होता है महा तरल होता है जल।

उसमें से चिनगी कढ़ती है इस में खिलता है शतदल।

युगल भिन्न मति गति रुचि वालों में होता है प्यार नहीं।

स्वच्छ प्रेम की धाराएँ कब अवनि विषमता बीच बहीं।

प्रकृति नियम प्रतिकूल कहो क्या चल सकता था सलिल कभी।

पाहन को वह यदि न डुबा देता विचित्रत रही तभी।

कभी काठ भी शीतल छाया पत्र पुष्प फल के द्वारा।

लोकहित निरत रहा सलिल लौं भूल आत्म गौरव सारा।

सम स्वभाव गुण शीलवान का रिक्त हुआ कब हित-प्याला।

फिर जल कैसे उसे डुबाता आजीवन जिसको पाला।

72. भाषा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं।

अंक में जिसके बड़े ही गौरवों से हैं पलीं।

रत्न हो करके रहीं जो रंग में उसके ढलीं।

राज भूलीं, पर न सेवा से कभी जिसकी टलीं।

ऐ हमारे बन्धुओ! जातीय भाषा है वही।

है सुधा की धार बहु मरु-भूमि में जिससे बही।1।

 

जो हुए निर्जीव हैं, उनको जिला देती है वह।

गंग-धारा कर्मनाशा में मिला देती है वह।

स्वच्छ पानी प्यास वाले को पिला देती है वह।

जो कली कुम्हला गयी उसको खिला देती है वह।

नीम में है दाख के गुच्छे वही देती लगा।

ऊसरों में है रसालों को वही देती उगा।2।

 

आन में जिनकी दिखाती देश-ममता है निरी।

जो सपूतों की न उँगली देख सकते हैं चिरी।

रह नहीं सकतीं सफलताएँ कभी जिनसे फिरी।

वह नई पौधें उठी हैं जातियाँ जिनसे गिरी।

थीं इसी जातीय भाषा के हिंडोले में पली।

फूँक से जिनकी घटाएँ आपदाओं की टलीं।3।

 

 

है कलह औ फूट का जिसमें फहरता फरहरा।

दंभ-उल्लू-नाद जिसमें है बहुत देता डरा।

मोह, आलस, मूढ़ता, जिसमें जमाती है परा।

वह अंधेरा देश का बहु आपदाओं से भरा।

दूर करता है इसी जातीय भाषा का बदन।

भानु का सा है चमकता भाल का जिसके रतन।4।

 

सूझती जिनको नहीं अपनी भलाई की गली।

पड़ गयी है चित् में जिनके बड़ी ही खलबली।

है अनाशा रंग में जिनकी सभी आशा ढली।

जिन समाजों की जड़ें भी हो गयी हैं खोखली।

ढंग से जातीय भाषा ही उन्हें आगे बढ़ा।

है समुन्नति के शिखर पर सर्वदा देती चढ़ा।5।

 

उस स्वकीय जाति-भाषा सर्वथा सुख-दानि की।

स्वच्छ सरला सुन्दरी आधार-भूता आनि की।

मा समा उपकारिका, प्रतिपालिका कुल-कानि की।

उस निराली नागरी अति आगरी गुण खानि की।

आपमें कितनी है ममता, दीजिए मुझ को बता।

आज भी क्या प्यार उससे आप सकते हैं जता?।6।

 

खोलकर आँखें निरखिए बंग-भाषी की छटा।

मरहठी की देखिए, कैसी बनी ऊँची अटा।

क्या लसी साहित्य-नभ में गुर्जरी की है घटा।

आह! उर्दू का है कैसा चौतरा ऊँचा पटा।

किन्तु हिन्दी के लिए ए बार अब भी दूर हैं।

आज भी इसके लिए उपजे न सच्चे शूर हैं।7।

 

फिर कहें क्या आप उससे प्यार सकते हैं जता।

फिर कहें क्यों आपमें है उसकी ममता का पता।

फिर कहें क्यों है लुभाती नागरी हित-तरुलता।

किन्तु प्यारे बन्धुओ! देता हूँ, मैं सच्ची बता।

दृष्टि उससे दैव की चिरकाल रहती है फिरी।

जिस अभागी जाति की जातीय भाषा है गिरी।8।

 

 

क्यों चमकते मिलते हैं बंगाल में मानव-रतन।

किस लिए हैं बम्बई में देवतों से दिव्य जन।

क्यों मुसलमानों की है जातीयता इतनी गहन।

क्यों जहाँ जाते हैं वे पाते हैं आदर, मान धान।

और कोई हेतु इसका है नहीं ऐ बन्धु-गान।

ठीक है, जातीय-भाषा से हुई उनकी गठन।9।

 

आँख उठाकर देखिए इस प्रान्त की बिगड़ी दशा।

है जहाँ पर यूथ हिन्दी-भाषियों का ही बसा।

आज भी जो है बड़ों के कीर्ति-चिन्हों से लसा।

सूर, तुलसी के जनम से पूत है जिसकी रसा।

सिध्द, विद्या-पीठ, गौरव-खानि, विबुधों से भरी।

आज भी है अंक में जिसके लसी काशीपुरी।10।

 

अल्प भी जो है खिंचा जातीय भाषा ओर चित।

तो दशा को देखकर के आप होवेंगे व्यथित।

नागरी-अनुरागियों की न्यूनता अवलोक नित।

चित ऊबेगा, दृगों से बारि भी होगा पतित।

आह! जाती हैं नहीं इस प्रान्त की बातें कही।

नित्य हिन्दी को दबा उर्दू सबल है हो रही।11।

 

यह कथन सुन कह उठेंगे आप तुम कहते हो क्या।

पर कहूँगा मैं कि मैंने जो कहा वह सच कहा।

जाँच इसकी जो करेंगे आप गाँवों-बीच जा।

तो दिखायेगा वहाँ पर आपको ऐसा समा।

हिन्दुओं के लाल प्रतिदिन हाथ सुबिधा का गहे।

मूल अपनापन को उर्दू ओर ही हैं जा रहे।12।

 

 

जो उठाकर हाथ में दस साल पहले का गजट।

देख लेंगे और तो होगी अधिक जी की कचट।

मिड्ल हिन्दी पास का था जो लगा उस काल ठट।

वह गया है एक चौथे से अधिक इस काल घट।

बढ़ रही है नित्य यों उर्दू छबीली की कला।

घोंटते हैं हाथ अपने हाय! हम अपना गला।13।

 

बन-फलों को प्यार से खा छालके कपड़े पहन।

राज भोगों पर नहीं जो डालते थे निज नयन।

फूल सा बिकसा हुआ लख जाति-भाषा का बदन।

जो सदा थे वारते सानंद अपना प्राण, धान।

उन द्विजों की हाय! कुछ संतान ने भी कह बजा।

नागरी को पूच उर्दू पेच में पड़ कर तजा।14।

 

हिन्द, हिन्दू और हिन्दी-कष्ट से होके अथिर।

खौल उठता था अहो जिनके शरीरों का रुधिर।

जो हथेली पर लिये फिरते थे उनके हेतु शिर।

थे उन्हीं के वास्ते जो राज तज देते रुचिर।

बहु कुँवर उन क्षत्रियों के तुच्छ भोगों से डिगे।

नागरी को छोड़ उर्दू रंगतों में ही रँगे।15।

 

हो जहाँ पर शिर-धारों का आज दिन यों शिर फिरा।

फिर वहाँ पर क्यों फड़क सकती है औरों की शिरा।

किन्तु क्यों है नागरी के पास इतना तम घिरा।

आँख से कुछ हिन्दुओं के क्यों है उसका पद गिरा।

आप सोचेंगे अगर इसको तनिक भी जी लगा।

तो समझ जाएँगे है अज्ञानता ने की दगा।16।

 

आज दिन भी गाँव गाँवों में अँधेरा है भरा।

है वहाँ नहिं आज दिन भी ज्ञान का दीपक बरा।

आज दिन भी मूढ़ता का है जमा वाँ पर परा।

जाति-हित के रंग से कोरी वहाँ की है धारा।

हाथ का पारस भला वह फेंक देगा क्यों नहीं।

आह! उसके दिव्य गुण को जानता है जो नहीं।17।

 

 

है नगर के वासियों में ज्ञान का अंकुर उगा।

जाति-हित में किन्तु वैसा जी नहीं अब भी लगा।

फूँक से वह आपदा है सैकड़ों देता भगा।

जाति-भाषा रंग में नर-रत्न जो सच्चा रँगा।

उस बदन की ज्योति देती है तिमिर सारा नसा।

जाति के अनुराग का न्यारा तिलक जिस पर लसा।18।

 

नागरी के नेह से हम लोग आये हैं यहाँ।

किन्तु सच्चा त्याग हम में आज दिन भी है कहाँ।

जाति-सेवा के लिए हैं जन्मते त्यागी जहाँ।

आपदाएँ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं वहाँ।

जाति-भाषा के लिए किस सिध्द की धूनी जगी।

वे कहाँ हैं जिनके जी को चोट है सच्ची लगी।19।

 

निज धरम के रंग में डूबे, तजे निज बंधु-जन।

हैं यहाँ आते चले यूरोप के सच्चे रतन।

किसलिए? इस हेतु, जिस में वे करें तम का निधान।

दीन दुखियों का हरें, दुख औ उन्हें देवें सरन।

देखिए उनको यहाँ आ करके क्या करते हैं वे।

एक हम हैं आँख से जिसकी न आँसू भी वे।20।

 

जो अंधेरे में पड़ा है ज्योति में लाना उसे।

जो भटकता फिर रहा है, पंथ दिखलाना उसे।

फँस गया जो रोग में है, पथ्य बतलाना उसे।

सीखता ही जो नहीं, कर प्यार सिखलाना उसे।

काम है उनका, जिन्हें पा पूत होती है मही।

इस विषम संसार-पादप के सुधा फल हैं वही।21।

 

आज का दिन है बड़ा ही दिव्य हित-रत्नों जड़ा।

जो यहाँ इतने स्वभाषा-प्रेमियों का पग पड़ा।

किन्तु होवेगा दिवस वह और भी सुन्दर बड़ा।

लाल कोई बीर लौं जिस दिन कि होवेगा खड़ा।

दूर करने के लिए निज नागरी की कालिमा।

औ लसाने के जिए उन्नति-गगन में लालिमा।22।

 

 

राज महलों से गिनेगा झोंपड़ी को वह न कम।

वह फिरेगा उन थलों में है जहाँ पर घोर तम।

जो समझते यह नहीं, है काल क्या? हैं कौन हम?

वह बता देगा उन्हें जातीय-उन्नति के नियम।

वह बना देगा बिगड़ती आँख को अंजन लगा।

जाति-भाषा के लिए वह जाति को देगा जगा।23।

 

वह नहीं कपड़ा रँगेगा किन्तु उर होगा रँगा।

घर न छोड़ेगा, रहेगा पर नहीं उसमें पगा।

काम में निज वह परम अनुराग से होगा लगा।

प्यार होगा सब किसी से और होगा सब सगा।

बात में होगी सुधा उसका रहेगा पूत मन।

जाति-भाषा-तेज से होगा दमकता बर बदन।24।

 

दूर होवेगा उसी से गाँव गाँवों का तिमिर।

खुल पड़ेगी हिन्दुओं की बंद होती आँख फिर।

तम-भरे उर में जगेगी ज्योति भी अति ही रुचिर।

वह सुनेगी बात सब, जो जाति है कब की बधिर।

दूर होगी नागरी के शीश की सारी बला।

चौगुनी चमकेगी उसकी चारुता-मंडित कला।25।

 

दैनिकों के वास्ते हैं आज दिन लाले पड़े।

सैकड़ों दैनिक लिये तब लोग होवेंगे खड़े।

केतु होंगे आगरी की कीर्ति के सुन्दर बड़े।

जगमगाएँगे विभूषण अंग में रत्नों जड़े।

देश-भाषा-रूप से वह जायगी उस दिन बरी।

सब सगी बहनें बनाएँगी उसे निज सिर-धारी।26।

 

 

मैं नहीं सकटेरियन हूँ औ नहीं हूँ बावला।

बात गढ़कर मैं किसी को चाहती हूँ कब छला।

मैं न हूँ उरदू-विरोधी, मैं न हूँ उससे जला।

कौन हिन्दू चाहता है घोंटना उसका गला।

निज पड़ोसी का बुरा कर कौन है फूला फला।

हैं इसी से चाहते हम आज भी उसका भला।27।

 

किन्तु रह सकता नहीं यह बात बतलाये बिना।

ज्यों न जीएगा कभी जापान जापानी बिना।

ज्यों न जीएगा मुसल्माँ पारसी, अरबी बिना।

जी सकोगे हिन्दुओ, त्योंही न तुम हिन्दी बिना।

देखकर उरदू-कुतुब यह दीजिए मुझको बता।

आपकी जातीयता का है कहीं उसमें पता?।28।

 

 

क्या गुलाबों पर करेंगे आप कमलों को निसार।

क्या करेंगे कोकिलों को छोड़कर बुलबुल को प्यार।

क्या रसालों को सरो शमशाद पर देवेंगे वार।

क्या लखेंगे हिन्द में ईरान का मौसिम बहार।

क्या हिरासे और दजला आदि से होगी तरी।

तज हिमालय सा सुगिरिवर पूत-सलिला सुरसरी।29।

 

भीम, अर्जुन की जगह पर गेव रुस्तम को बिठा।

सभ्य लोगों में नहीं दृग आप सकते हैं उठा।

साथ कैकाऊस-दारा-प्रेम की गाँठें गठा।

क्या भला होगा, रसातल भोज, विक्रम को पटा।

कर्ण की ऊँची जगह जो हाथ हातिम के चढ़ी।

तो समझिए, ढह पड़ेगी आप की गौरव-गढ़ी।30।

 

क्या हसन की मसनवी से आप होकर मुग्धा मन।

फेंक देंगे हाथ से वह दिव्य रामायन रतन।

क्या हटाकर सूर-तुलसी-मुख-सरोरुह से नयन।

आप अवलोकन करेंगे मीर गशलिब का बदन।

क्या सुधा को छोड़कर जो है मयंक-मुखों-सवी।

आप सहबा पान करके हो सकेंगे गौरवी।31।

 

जो नहीं, तो देखिए जातीय भाषा का बदन।

पोंछिए, उस पर लगे हैं जो बहुत से धूलिकन।

जी लगाकर कीजिए उसकी भलाई का जतन।

पूजिए उसका चरण उस पर चढ़ा न्यारे रतन।

जगमगा जाएगी उसकी ज्योति से भारत-धारा।

आपका उद्यान-यश होगा फला फूला हरा।32।

 

 

भाग्य से ही राज उस सरकार का है आज दिन।

जो उचित आशा किसी की है नहीं करती मलिन।

शान्त की जिसने यहाँ आकर अराजकता अगिन।

उँगलियों पर जिसके सब उपकार हैं सकते न गिन।

जो न ऐसा राज पाकर आप सोते से जगे।

तो कहें क्यों जाति-भाषा रंगतों में हैं रँगे।33।

 

हे प्रभो! हिन्दू-हृदय में ज्ञान का अंकुर उगे।

हिन्द में बनकर रहें, सब काल वे सबके सगे।

दूसरों को हानि पहुँचाये बिना औ बिन ठगे।

दूर हों सब विघ्न, बाधा, भाग हिन्दी का जगे।

जाति भाषा के लिए जो राज-सुख को रज गिने।

बुध्द-शंकर-भूमि कोई लाल फिर ऐसा जने।34।

73. उद्बोधन-1-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सज्जनो! देखिए, निज काम बनाना होगा।

जाति-भाषा के लिए योग कमाना होगा।1।

 

सामने आके उमग कर के बड़े बीरों लौं।

मान हिन्दी का बढ़ा आन निभाना होगा।2।

 

है कठिन कुछ नहीं कठिनाइयाँ करेंगी क्या।

फूँक से हमको बलाओं को उड़ाना होगा।3।

 

सामने आये हमारे जो रुकावट का पहाड़।

खोदकर उसको भी मिट्टी में मिलाना होगा।4।

 

उलझनों का जो पड़े राह में बारिधि कोई।

तेज कुंभज सा हमें काम में लाना होगा।5।

 

मेहँदियों की तरह पिस जाँय भले ही लेकिन।

रंग अपना तो हमें खुल के दिखाना होगा।6।

 

 

क्यों न इस राह में नुच जाँय या कुचले जावें।

दूब की भाँति पनप कर के जम आना होगा।7।

 

जो इसी धुन में ही मिल जायँ कभी मिट्टी में।

उग के बीजों की तरह सर को उठाना होगा।8।

 

भगवे कपड़ों से नहीं काम चलेगा प्यारे।

देश-हित-रंग में कपड़ों को रँगाना होगा।9।

 

स्वर्ग औ मुक्ति के झगड़ों से किनारे रह कर।

जाति-सेवा ही में सब जन्म बिताना होगा।10।

 

निज नई पौधा की उर-भू में बड़ी ही रुचि से।

कर्म अनुराग का बर वृक्ष लगाना होगा।11।

 

जिन उरों में है घिरा पर-भाषा-ममता-तम।

दीप वाँ नागरी-प्रियता का जलाना होगा।12।

 

ऐसा कर करके सदा आप फले, फूलेंगे।

ईश की होगी दया, जग में ठिकाना होगा।13।

 

74. अभिनव कला-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

प्यार के साथ सुधाधार पिलाने वाली।

जी-कली भाव विविधा संग खिलाने वाली।

नागरी-बेलि नवल सींच जिलाने वाली।

नीरसों मधय सरसतादि मिलाने वाली।

देख लो फिर उगी साहित्य-गगन कर उजला।

अति कलित कान्तिमती चारु हरीचन्द कला।1।

 

जो रहा मंजु मधुप, नागरी-कमल-पग का।

जो रहा मत पथिक-प्रेम के रुचिर मग का।

जो रहा बन्धु सदय भाव-सहित सब जग का।

जो रहा रक्त गरम जाति की निबल रग का।

थी जिसे बुध्दि मिली पूत रसिकतादि बलित।

है उसी उक्ति-सरसि-कंज की यह कीर्ति कलित।2।

 

देखिए आप इसे प्यार भरी आँखों से।

दीजिए मान दिला आप इसे लाखों से।

आप पावेंगे इसे मिष्ट अधिक दाखों से।

आप देखेंगे दमकता इसे सित पाखों से।

यह लसाएगी उरों बीच सुधा-पूरित सर।

यह सुनाएगी स अनुराग अलौकिक पिक-स्वर।3।

 

है जिसे सूझ मिली कान्ति मनोहर प्यारी।

पा गया जो है बड़े पुण्य से प्रतिभा न्यारी।

कैसा होता है कथन उसका मधुर रुचि-कारी।

कितनी होती है खिली उसकी सुकविता-क्यारी।

जानना चाहें अगर यह रहस्य पुलकित कर।

तो पढ़ें आप इसे कंजकरों में लेकर।4।

 

 

स्वर्ग-संगीत सरस आठ पहर है होता।

इस में बहता है महामोद का सुन्दर सोता।

बीज हितकारिता इसका है बर बरन बोता।

ताप जीका है मधुर बोलना इसका खोता।

चौगुनी चाप पुरन्दर से हुई जिसकी छटा।

इस में दिखलाएगी वह मुग्धाकरी कान्त घटा।5।

 

खींच देवेगी रुचिर चित्र यह दृगों आगे।

आर्-गौरव का, अमर वृन्द जिसमें अनुरागे।

छू जिसे कान्ति सने बादले बने धाागे।

तेज से जिसके तिमिर देश देश के भागे।

ज्योति वह जिसके विमल अंक से उफन निकली।

कान्त कंदील जगत सभ्यता की जिससे बली।6।

 

यह सुना जाति-व्यथा आप को जगा देगी।

देश-हित-बीज हृदय-भूमि में उगा देगी।

धर्म का मर् बता मूढ़ता भगा देगी।

लोक-सेवा में बड़े प्यार से लगा देगी।

यह मलिन बुध्दि परम पूत बना लेवेगी।

बन्द होती हुई उर-आँख खोल देवेगी।7।

 

कंटकों मध्य खिला फूल है चुना जाता।

कीच के बीच पड़ा रत्न है उठा आता।

बाहरी रूप जो इस का न भव्य दिखलाता।

था उचित तो भी इसे यह प्रदेश अपनाता।

किन्तु यह आज बदल रूप रंग आई है।

मान अब भी न मिले तो बड़ी कचाई है।8।

 

 

 

आज जो बंग-धारा बीच जन्म यह पाती।

मरहठी गुर्जरी भाषा में जो लिखी जाती।

मान पा हाथ में लाखों जनों के दिखलाती।

बन गयी होती विबुधा वृन्द की प्यारी थाती।

लोग कर ब्योत बड़े चाव से इसे लेते।

बात ही में नहीं जी में इसे जगह देते।9।

 

जो कहीं भूल गया नागरी परम नेही।

प्रेम हिन्दी का न हो तो वृथा बने देही।

त्याग स्वीकार करें या बने रहें गेही।

जाति ममता है, जिन्हें धन्य हैं यहाँ वे ही।

वर विभव, मान, विमल कीर्ति, वही पावेंगे।

जाति-भाषा को ललक जो गले लगावेंगे।10।

75. आशालता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कुछ उरों में एक उपजी है लता।

अति अनूठी लहलही कोमल बड़ी।

देख कर उसको हरा जी हो गया।

वह बताई है गयी जीवन-जड़ी।1।

 

एक भाषा देशभर को दे मिला।

चाहती है आज यह भारत मही।

मान यह हिन्दी लहेगी एक दिन।

है यही आशालता, वह लहलही।2।

 

हैं अभी कुछ दिन हुए इसको उगे।

किन्तु उस पर हैं बहुत आँखें लगीं।

सींचिए उस को सलिल से प्यार के।

लीजिए कर कल्प-लतिका की सगी।3।

 

 

 

आज तक हमने बहुत सींची लता।

औ उन्होंने भी हमें पुलकित किया।

सौरभों वाले सुमन सुन्दर खिला।

मन किसी ने सौरभित कर हर लिया।4।

 

फल किसी ने अति सरस सुन्दर दिये।

हैं किसी में मधुमयी फलियाँ फलीं।

रंग बिरंगी पत्तियों में मन रमा।

छबि दिखा आँखें किसी ने छीन लीं।5।

 

इन लताओं से कहीं उपयोगिनी।

है फलद, कामद, फबीली, यह लता।

पी इसी का स्वाद-पूरित पूत रस।

जीविता हो जायगी जातीयता।6।

 

मंजु सौरभ के सहज संसर्ग से।

सौरभित होगा उचित प्रियता सदन।

पल इसी की अति अनूठी छाँह में।

कान्त होगा एकता का बर बदन।7।

 

जाति का सब रोग देगी दूर कर।

ओषधों की भाँति कर उपकारिता।

गुण-करी हित कर पवन इस को लगे।

नित सँभलती जायगी सहकारिता।8।

 

हैं सभी आशालताएँ सुखमयी।

हैं परम आधार जीवन का सभी।

इन सबों की रंजिनी उनरक्तता।

त्याग सकता है नहीं मानव कभी।9।

 

 

 

किन्तु सब आशालताएँ व्यक्तिगत।

हैं न इस आशालता सी उच्चतर।

ऐ सहृदयो! जो न समझा मर्म यह।

तो सकोगे जाति मुख उज्ज्वल न कर।10।

76. एक विनय-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बड़े ही ढँगीले बड़े ही निराले।

अछूती सभी रंगतों बीच ढाले।

दिलों के घरों के कुलों के उँजाले।

सुनो ऐ सुजन पूत करतूत वाले।

तुम्हीं सब तरह हो हमारे सहारे।

तुम्हीं हो नई सूझ आँखों के तारे।1।

 

तुम्हीं आज दिन जाति हित कर रहे हो।

हमारी कचाई कसर हर रहे हो।

तनिक, उलझनों से नहीं डर रहे हो।

निचुड़ती नसों में लहू भर रहे हो।

तुम्हीं ने हवा वह अनूठी बहाई।

कि यों बेलि-हिन्दी उलहती दिखाई।2।

 

इसे देख हम हैं न फूले समाते।

मगर यह विनय प्यार से हैं सुनाते।

तुम्हें रंग वे हैं न अब भी लुभाते।

कि जिन में रँगे क्या नहीं कर दिखाते।

किसी लाग वाले को लगती है जैसी।

तुम्हें आज भी लौ लगी है न वैसी।3।

 

सुयश की ध्वजा जो सुरुचि की लड़ी है।

सुदिन चाह जिस के सहारे खड़ी है।

सभी को सदा आस जिस से बड़ी है।

सकल जाति की जो सजीवन जड़ी है।

बहुत सी नई पौधा ही वह तुम्हारी।

नहीं आज भी जा सकी है उबारी।4।

 

 

 

जननि-गोद ही में जिसे सीख पाया।

जिसे बोल घर में मनों को लुभाया।

दिखा प्यार, जिसका सुरस मधु मिलाया।

उमग दूध के साथ माँ ने पिलाया।

बरन ब्योंत के साथ जिस के सुधारे।

कढ़े तोतली बोलियों के सहारे।5।

 

सभी जाति के लाल सुधा-बुधा के सँभले।

वही माँ की भाषा ही पढ़ते हैं पहले।

इसी से हुए वे न पचड़ों से पगले।

पड़े वे न दुविधा में सुविधा के बदले।

भला किसलिए वे न फूले फलेंगे।

सुकरता सुकर जो कि पकड़े चलेंगे।6।

 

मगर वह नई पौधा कितनी तुम्हारी।

अभी आज भी हो रही है दुखारी।

लदा बोझ ही है सिरों पर न भारी।

भटकती भी है बीहड़ों में बिचारी।

विकल हैं विजातीय भाषा के भारे।

अहह लाल सुकुमार मति वे तुमारे।7।

 

सुतों को, पड़ोसी मुसलमान भाई।

पढ़ाएँगे पहले न भाषा पराई।

पड़ी जाति कोई न ऐसी दिखाई।

समझ बूझ जिसने हो निजता गँवाई।

मगर एक ऐसे तुम्हीं हो दिखाते।

कि अब भी हो उलटी ही गंगा बहाते।8।

 

तुमारे सुअन प्यार के साथ पाले।

भले ही सहें क्यों न कितने कसाले।

उन्हें क्यों सुखों के न पड़ जायँ लाले।

पड़े एक बेमेल भाषा के पाले।

मगर हो तुम्हीं जो नहीं आँख खुलती।

नहीं किसलिए जी की काई है धुलती।9।

 

 

भला कौन लिपि नागरी सी भली है।

सरलता मृदुलता में हिन्दी ढली है।

इसी में मिली वह निराली थली है।

सुगमता जहाँ सादगी से पली है।

मृदुलमति किसी से न ऐसी खिलेगी।

सहज बोधा भाषा न ऐसी मिलेगी।10।

 

 

 

मगर इन दिनों तो यही है सुहाता।

रखे और के साथ ही लाल नाता।

सदा ही कलपती रहे क्यों न माता।

मगर तुम बना दोगे उसको विमाता।

अलिफष् बे का सुत को रहेगा सहारा।

सुधा की कढ़ें क्यों न हिन्दी से धारा।11।

 

अगर अपनी जातीयता है बचाना।

अगर चाहते हो न निजता गँवाना।

अगर लाल को लाल ही है बनाना।

अगर अपने मुँह में है चन्दन लगाना।

सदा तो मृदुल बाल मति को सँभालो।

उसे वेलि हिन्दी-बिटप की बना लो।12।

 

समय पर न कोई प्रभो चूक पावे।

भली कामना बेलि ही लहलहावे।

विकसती हृदय की कली दब न जावे।

स्वभाषा सभी को प्रफुल्लित बनावे।

खिले फूल जैसे सभी के दुलारे।

फलें और फूलें बनें सब के प्यारे।13।

77. वक्तव्य-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मति मान-सरोवर मंजुल मराल।

संभावित समुदाय सभासद वृन्द।

भाव कमनीय कंज परम प्रेमिक।

नव नव रस लुब्धा भावुक मिलिन्द।1।

 

कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द।

अनिन्दित छवि धाम नव कलेवर।

बासंतिक लता तरु विकच कुसुम।

कलित ललित कुंज कल कण्ठ स्वर।2।

 

क्यों बिमुग्ध करते हैं मानव मानस।

मनोहरता है मिली क्यों उन्हें अपार।

चिन्तनीय क्या नहीं है यह चारु कृति।

अनुभवनीय नहीं क्या यह व्यापार।3।

 

कल कौमुदी विकास विकासित निशि।

सकल कला निकेत कान्त कलाधार।

अनन्त तारकावली लसित गगन।

अलौकिक प्रभा पुंजमय प्रभाकर।4।

 

 

 

उत्ताल तरंग-माला आकुल जलधि।

कल कल नाद-रता उल्लासित सरि।

नव नव लीला मयी निखिल अवनि।

आलोक किरीट शोभी गौरवित गिरि।5।

 

अवलोक होता नहीं क्या चकित चित।

क्या हृदय होता नहीं बहु विकसित।

भव कवि-कुल-गुरु कल कृति मधय।

अलौकिक काव्य कला क्या नहीं निहित।6।

 

 

एक एक रजकण है भाव प्रवण।

एक एक बन तृण है रहस्य थल।

उच्च कल्पना प्रसूत लालित्य निलय।

तरु का है एक एक फल फूल दल।7।

 

रस-सोत कहाँ पर नहीं प्रवाहित।

कमनीयता है कहाँ नहीं विद्यमान।

विलसित कहाँ नहीं लोकोत्तार कान्ति।

मुग्धता नहीं है कहाँ पर मूर्तिमान।8।

 

कर सका जो प्रवेश रस-सोत मध्य।

अवलोक सका जो कि लालित्य ललाम।

जो जन विमुग्ध बना मुग्धता बिबश।

धरातल में है हुआ वही लब्धा काम।9।

 

जान सका जितना हो जो यह रहस्य।

वह उतना ही हुआ प्रेम-पय-सिक्त।

उतना ही चित हुआ उसका अमल।

वह उतना ही हुआ रस-अभिषिक्त।10।

 

होगा वही निज देश सुत प्रेम मत।

होगा वही निज जाति-अनुराग रत।

ग्रहण करेगा वही स्वतंत्रता-मंत्र।

साधन करेगा वही स्वाधीनता-व्रत।11।

 

 

 

मानस मुकुर मधय उसी के, समस्त।

रहस्य प्रति फलित होगा यथोचित।

उसी का पुनीत मन करेगा मनन।

यथा तथ्य मननीय प्रसंग अमित।12।

 

हो सकेगा वही देश-दुख से दुखित।

हो सकेगा वही जाति-हित में निरत।

उसी का बिचार होगा उन्नत उदार।

लोक हित रत होगा वही अविरत।13।

 

आत्म त्याग ब्रत ब्रती अचल अटल।

वही होगा धीर बीर पावन चरित।

सरल विशाल उर उन्नत स्वभाव।

वही होगा अति पूत भाव से भरित।14।

 

होवेगा मधुर तर उसका कथन।

सरस सओज शुचि महा मुग्धाकर।

होती है उसी में वह संजीवनी शक्ति।

पाके जिसे जाति बने अजर अमर।15।

 

पाकर उसी से जग प्रथित विभूति।

होते हैं सओज ओज-रहित सकल।

तेज:पुंज कलेवर परम निस्तेज।

सजीव निर्जीव तथा सबल अबल।16।

 

उसी के प्रभाव से हैं प्रभावित वेद।

सकल उपनिषद आगम अखिल।

भवताप तप्त हित वही है जलद।

वही है पातक पंक पावन सलिल।17।

 

पुनीत महाभारत तथा रामायण।

उसी की विमल कीर्ति के हैं वर केतु।

पा जिसे जातीयता है आज भी जीवित।

गौरव सरित वर के हैं जो कि सेतु।18।

 

 

 

ये पुनीत ग्रंथ सब हैं महा महिम।

सार्वभौमता के ये हैं प्रबल प्रमाण।

हैं हमारी सभ्यता के सर्वोत्ताम चिन्ह।

हैं हमारी दिव्यता के दिव्यतम प्राण।19।

 

ये हैं वह अलौकिक प्रभामय मणि।

जिस की प्रभा से हुआ जग प्रभावान।

उन्हीं के किरण जाल से हो समुज्ज्वल।

तिमिर रहित हुए तमोमय स्थान।20।

 

ये हैं वह रमणीय, रंग-स्थल जहाँ।

कर अभिनीत नव नव अभिनय।

पूजनीय पूर्वतन अभिनेता गण।

करते हैं मानवता पूरित हृदय।21।

 

आत्मबल आत्म-त्याग आदि के आदर्श।

देश-प्रेम जाति-प्रेम प्रभृति के भाव।

परम कौशल साथ कर प्रदर्शन।

डालते हैं चित पर अमित प्रभाव।22।

 

दिखला सजीव दृश्य देश समुन्नति।

सामाजिक संगठन जाति उन्नयन।

सूखी हुई नसें बना बना सरुधिर।

करते हैं उन्मीलित मीलित नयन।23।

 

अत: आज कर-बध्द है यह विनय।

बर्तमान कबि-कुल-चरण समीप।

तिरोहित क्यों न किया जाय देश-तम।

प्रज्वलित कर अति उज्ज्वल प्रदीप।24।

 

 

प्राप्त क्यों न किया जाय बहुमूल्य रत्न।

मंथन सदैव कर भव-पारावार।

क्यों न किया जाय कल कुसुम चयन।

प्राकृतिक नन्दन कानन में पधार।25।

 

बात यह सत्य है कि सकल महर्षि।

व्यास देव तथा पूज्य बालमीक पद।

है बहुत गुरु, अति उच्च, पूततम।

पद पद पर वह है विमुक्ति प्रद।26।

 

किन्तु आप भी हैं उन्हीं के तो वंशधार।

रुधिर उन्हीं का आप में है संचरित।

उन्हीं का प्रभाव मय वैद्युतिक कण।

भवदीय भाव मधय क्या नहीं भरित।27।

 

भला फिर होगा कौन कार्य असंभव।

कैसे न करेंगे फिर असाध्य साधन।

करेंगे प्रवेश क्यों न भाव-राज्य मध्य।

भक्ति साथ भारती का कर आराधान।28।

 

कालिदास भवभूति आदि महा कवि।

पदानुसरण कर जिनका सप्रेम।

ख्यात हुए, कल्पतरु पग वह पूज।

बांछित लहेंगे क्यों न, होगा क्यों न क्षेम।29।

 

इसी पग-कल्पतरु-छाया में बिराज।

गोस्वामी प्रवर ने हैं बीछे वह फूल।

सौरभित जिससे है भारत-धारणि।

जो है अति मानस-मधुर अनुकूल।30।

 

फिर कैसे आप होंगे नहीं लब्धा काम।

कैसे नहीं सिध्द प्राप्त होवेगी प्रचुर।

यदि होगा लोक-राग-रंजित हृदय।

यदि होगा जाति-प्रेम-सुधासिक्त उर।31।

 

बसुधा ललाम भूता भारत अवनि।

नवल आलोक से है आलोकित आज।

समुन्नति का है जहाँ तहाँ कोलाहल।

परम समाकुल है सकल समाज।32।

 

किन्तु आज भी है अति संकुचित दृष्टि।

यथोचित खुला नहीं आज भी नयन।

कंटकित पथ आज भी है कंटकित।

किन्तु करते हैं तो भी ख-पुष्प चयन।33।

 

 

संघ शक्ति इस युग का है मुख्य धर्म।

जाति-संगठन इस काल का है तंत्र।

सर्वत्र एकीकरण का है घोर नाद।

सहयोग आज काल का है महामंत्र।34।

 

किन्तु हम आज भी हैं प्रतिकूल गति।

आज भी विभिन्नता ही में हैं हम रत।

बची खुची रही सही जो थी संघ शक्ति।

छिन्न भिन्न हो रही है वह भी सतत।35।

 

जातीय सभाएँ जाति जाति के समाज।

नाना जातियों के भिन्न भिन्न पाठागार।

जिस भाँति संचालित हो रहे हैं आज।

सहकारिता का कर देवेंगे संहार।36।

 

उनसे असहयोग पायेगा सुयोग।

जाति संगठन पर होगा बज्रपात।

जातीयता का रहेगा कैसे वहाँ पक्ष।

जहाँ पर प्रति दिन होगा पक्षपात।37।

 

देवालय विद्यालय सभा औ समाज।

जाति सम्मिलन के हैं सर्वमान्य केन्द्र।

यदि नहीं एही रहे अवरित द्वार।

कर न सकेंगे एकीकरण सुरेन्द्र।38।

 

गुथे हुए एक सूत्र में हैं जो कुसुम।

उन्हें छिन्न भिन्न कर एकाधिक बार।

दुस्तर है, बरंच है विडम्बना मात्र।

फिर बना लेना वैसा सुसज्जित हार।39।

 

किन्तु तम में हैं वे ही जो हैं ज्योतिर्मान।

नेत्र जिन के हैं खुले उन्हीं के हैं बन्द।

कैसे दिखलावें हम व्यथित हृदय।

आह! है बड़ा ही मर्म बेधी यह द्वन्द्व।40।

 

प्रति दिन हिन्दू जाति का है होता ह्रास।

संख्या है हमारी दिन दिन होती न्यून।

च्युत हो रहे हैं निज बर वृन्त त्याग।

अचानक कतिपय कलित प्रसून।41।

 

धर्म पिपासा से हो हो बहु पिपासित।

बैदिक पुनीत पथ सका कौन त्याग।

प्रवाहित शान्ति-धारा सकेगा न कर।

भगवती भागीरथी-सलिल बिराग।42।

 

 

सामाजिक कतिपय कुत्सित नियम।

अति संकुचित छूतछात के बिचार।

हर ले रहे हैं आज हमारा सर्वस्व।

गले का भी आज छीन ले रहे हैं हार।43।

 

एक ओर काम-ज्वाला में है होता हुत।

विपुल विभव तनमन मणि माल।

अन्य ओर हो हो पेट-ज्वाला से बिबश।

लूटे जा रहे हैं मेरे बहु मूल्य लाल।44।

 

जिन्हें हम छूते नहीं समझ अछूत।

जो हैं माने गये सदा परम पतित।

पास उनके है होता क्या नहीं हृदय।

वेदनाओं से वे होते क्या नहीं व्यथित।45।

 

उनका कलेजा क्या है पाहन गठित।

मांस ही के द्वारा वह क्या है नहीं बना।

लांछित ताड़ित तथा हो हो निपीड़ित।

उनके नयन से है क्या न ऑंसू छना।46।

 

कब तक रहें दुख-सिंधु में पतित।

कब तक करें पग-धूलि वे बहन।

कब तक सहें वह साँसतें सकल।

कर न सकेगा जिसे पाहन सहन।47।

 

हमारे ही अविवेक का है यह फल।

हमारी कुमति का है यह परिणाम।

हमें छोड़ नित होती जाती है अलग।

परम सहन शील संतति ललाम।48।

 

किन्तु आज भी न हुआ हृदय द्रवित।

आज भी न हुआ हमें हितहित ज्ञान।

छोड़ कर भयावह संकुचित भाव।

हम नहीं बना सके हृदय महान।49।

 

हिन्दू जाति जरा से है आज जर्जरित।

उसका है एक एक लोम व्यथा-मय।

चित-प्रकम्पित-कर रोमांच कारक।

उसके हैं एक नहीं अनेक विषय।50।

 

 

सामने रखे जो गये विषय युगल।

वे हैं निदर्शन मात्र; यदि कवि गण।

इन पर देंगे नहीं समुचित दृष्टि।

ग्रहण करेगी जाति किस की शरण।51।

 

किन्तु क्या कर्तव्य किया गया है पालन।

क्या सुनाया गया वह अद्भुत झंकार।

जिस से हृदय-यंत्र होवे निनादित।

बज उठें चित-वृत्ति वर वीणा-तार।52।

 

जिस कवि किम्वा कवि पुंगव का चित।

है न जाति दयनीय दशा चित्र पट।

वह हो सरस होवे भूरि भाव मय।

संजीवनी शक्ति प्रद है न सुधा-घट।53।

 

काव्यता को कैसे प्राप्त होगा वह काव्य।

जिस काव्य से न होवे जातीय उत्थान।

वह कविता है कभी कविता ही नहीं।

जिस कविता में हो न जातीयता-तान।54।

 

जाति दुख लिखे जो न लेखनी ललक।

तो कहूँगा रही, मुखलालिमा ही नहीं।

वह लेवे बार बार भले ही किलक।

कालिमामयी की गयी कालिमा ही नहीं।55।

 

 

भावुकता प्रिय कैसे बनें तो भावुक।

भाव जो न करे जाति-अभाव प्रगट।

जाति-प्रेम कमनीय वंशी-धवनि बिना।

होवेगा अकान्त कल्पना-कालिन्दी-तट।56।

 

नवरस मर्म जाना तो न जाना कुछ।

जान पाया जब नहीं जाति का ही मर्म।

जाति को ही जो न सका कर्मरत कर।

कवि-कर्म कैसे तब होगा कवि-कर्म।57।

 

जिस सुललित कला-निलय की कला।

विलोक रहे हैं सब थल सब काल।

उसी सुविभूति मय के हैं सुविभूति।

उसी मणिमाल के हैं आप लोग लाल।58।

 

कविगण आप में है वह दिव्य ज्योति।

हरण करेगी जो कि जाति का तिमिर।

बरस सरस-सुधा करो जाति हित।

फैलाओ दिगन्त कीर्ति परम रुचिर।59।

 

टले विघ्न बाधा होवे मंगल सतत।

सब फूलें फलें सब ही का होवे भला।

सभासद सुखी रहें सभा का हो हित।

भारत-अवनि होवे सुजला सुफला।60।

78. गौरव गान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वैदिकता-विधि-पूत-वेदिका बन्दनीय-बलि।

वेद-विकच-अरविन्द मंत्र-मकरन्द मत-अलि।

आर्य-भाव कमनीय-रत्न के अनुपम-आकर।

विविध-अंध-विश्वास तिमिर के विदित-विभाकर।

नाना-विरोध-वारिद-पवन कदाचार-कानन-दहन।

हैं निरानन्द तरु-वृन्द के दयानन्द-आनन्द-घन।1।

 

वैदिक-धर्म न है प्रदीप जो दीप्ति गँवावे।

तर्क-वितर्क-विवाद-वायु बह जिसे बुझावे।

मलिन-विचार-कलंक-कलंकित है न कलाधर।

प्रभाहीन कर सके जिसे उपधार्म प्रभाकर।

वह है दिवि-दुर्लभ दिव्यमणि दुरित-तिमिर है खो रहा।

उसके द्वारा भू-वलय है विपुल-विभूषित हो रहा।2।

 

 

पंचभूत से अधिक भूतियुत है विभु-सत्ता।

प्रभु प्रभाव से है प्रभाव मय पत्ता पत्ता।

है त्रिलोक में कला अलौकिक-कला दिखाती।

सकल ज्ञान विज्ञान विभव है भव की थाती।

उन पर समान संसार के मानव का अधिकार है।

महि-धर्म-नियामक-वेद का यह महनीय-विचार है।3।

 

बिना मुहम्मद औ मसीह मूसा के माने।

मनुज न होगा मुक्त मनुजता महिमा जाने।

उनके पथ के पथिक यह विपथ चल हैं कहते।

रंग रंग से बाद तरंगों में है बहते।

पर यह वैदिक सिध्दान्त है उच्च-हिमाचल सा अचल।

मानव पा सकता मुक्ति है बने आत्मबल से सबल।4।

 

सत्य सत्य है, और सत्य सब काल रहेगा।

न्याय-सिंधु का न्यास-वारि कर न्याय बहेगा।

वहाँ जहाँ, हैं विमल विवेक विमलता पाते।

होगा मानव मान एक मानवता नाते।

है जगतपिता सबका पिता वेद बताते हैं यही।

प्रभु प्रभु-जन प्यारे हैं जिन्हें प्रभु के प्यारे हैं वही।5।

 

हो वैदिक ए वेदतत्तव हम को थे भूले।

मूल त्याग हम रहें फूल फल दल ले फूले।

धूम धाम से रहे पेट के करते धंधो।

युक्ति-भार से रहे उक्ति के छिलते कंधो।

थे बसे देश में पर न थे देश देश को जानते।

हम मनमानी बातें रहे मनमाना कर मानते।6।

 

कर कर बाल विवाह अबल बन थे बल खोते।

दुखी थे न विधावों को विधावापन से होते।

समझ लूट का माल लूटते थे ईसाई।

मुसलमान की मुसलमानियत थी रँग लाई।

हम दिन दिन थे तन-बिन रहे तन को गिनते थेनतन।

निपतन गति थी दूनी हुई पल पल होता था पतन।7।

 

भूल में पड़े, भूल को, समझ भूल न पाते।

देख देख कर दुखी-जाति-दुख देख न पाते।

कर्म भूमि पर था न कर्म का बहता सोता।

धर्म धर्म कह धर्म-मर्म था ज्ञात न होता।

उस काल अलौकिक लोक ने हमें अलौकिक बल दिया

आ दयानन्द-आलोक ने आलोकित भूतल किया।8।

 

पिला उन्होंने दिया आत्मगौरव का प्याला।

बना उन्होंने दिया मान ममता मतवाला।

जी में भर जातीय भाव कर सजग जगाया।

देश प्रेम के महामन्त्र से मुग्ध बनाया।

बतलाया ऐ ऋषि वंशधार है तुम में वह अतुल बल।

जो सकल सफलता दान कर करे विफल जीवन सफल।9।

 

 

वह नवयुग का जनक विविध सुविधान विधाता।

बात बात में यही बात कहता बतलाता।

जो है जीवन चाह सजीवन तो बन जाओ।

नाना रुज से ग्रसित जाति को निरुज बनाओ।

वे एक सूत्र में हैं बँधो जिन्हें बाँधते बेद हैं।

वे भेद भेद समझे नहीं जो मानते विभेद हैं।10।

 

प्रतिदिन हिन्दू जाति पतन गति है अधिकाती।

नित लुटते हैं लाल छिनी ललना है जाती।

है दृग के सामने आँख की पुतली कढ़ती।

होती है ला बला बला-पुतलों की बढ़ती।

मन्दिर हैं मिलते धूल में देवमूर्ति है टूटती।

अपनी छाती भारत-जननि कलप कलप है कूटती।11।

 

जाग जाग कर आज भी नहीं हिन्दू जागे।

भाग भाग कर भय भयावने भूत न भागे।

लाल लाल आँखें निकाल है काल डराता।

है नाना जंजाल जाल पर जाल बिछाता।

है निर्बलता टाले नहीं निर्बल तन मन की टली।

खुल खुल आँखें खुलती नहीं, नहीं बात खलती खली।12।

 

है अनेकता प्यार एकता नहीं लुभाती।

है अनहित से प्रीति बात हित की नहिं भाती।

रंग रहा है बिगड़ बदल हैं रंग न पाते।

है न रसा में ठौर रसातल को हैं जाते।

हैं अन्धकार में ही पड़े अंधापन जाता नहीं।

है लहू जाति का हो रहा लहू खौल पाता नहीं।13।

 

क्या महिमामय वेद-मंत्र में है न महत्ता।

राम नाम में रही नाम को ही क्या सत्ता।

क्या धाँस गयी धारातल में सुरधुनि की धारा।

आर्य जाति को क्या न आर्य गौरव है प्यारा।

क्या सकल अवैदिक नीतियाँ वैदिकता से हैं बली।

क्या नहीं भूतहित भूति है भारत भूतल की भली।14।

 

 

सोचो सँभलो मत भूलो घर देखो भालो।

सबल बनो बल करो सब बला सिर की टालो।

दिखला दो है जगत विजयिनी विजय हमारी।

रग रग में है रुधिार उरग-गति-गर्व प्रहारी।

वर कर वैदिक विरदावली वरद वेद पथ पर चलो।

सबको दो फलने फूलने और आप फूलो फलो।15।

79. आती है-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जी न बदला न रंगतें बदलीं।

चाल बदली नहीं दिखाती है।

मौत को क्यों बुला रहे हैं हम।

क्या बला पर बला न आती है।1।

 

आँख खुल खुल खुली नहीं अब तक।

बात खलती भी खुल न पाती है।

है हमें देख भाल का दावा।

क्या हमें देख भाल आती है।2।

 

भूल पर भूल हो रही है क्यों।

बात क्यों भूल भूल जाती है।

लाज का है जहाज डूब रहा।

पर हमें लाज भी, न आती है।3।

 

बात सारी बिगड़ बिगड़ी।

बात मुँह से निकल न पाती है।

बात रहती सदा हमारी थी।

बात यह याद अब न आती है।4।

 

छिन रहे हैं कलेजे के टुकड़े।

क्यों नहीं छरछराती छाती है।

कढ़ रही आँख की पुतलियाँ हैं।

किसलिए आँख भर न आती है।5।

 

सब तरह की कमाई कायर की।

बीर की वे कमाई थाती है।

हो रही है किसी की मनभाई।

और हम को जँभाई आती है।6।

 

रख सके बात जो नहीं अपनी।

सब जगह बात उनकी जाती है।

हम सहेंगे न साँसतें कैसे।

साँस रहते न साँस आती है।7।

 

कम न सोये बहुत रहे सोये।

जाति की आन अब जगाती है।

टूट कर भी न नींद टूट सकी।

नींद पर नींद कैसे आती है।8।

 

मिल रहें मिल चलें मिलाप करें।

पर कभी मेल मौत थाती है।

जब समय आँख फेर लेता है।

आँख जाने को आँख आती है।9।

 

 

देश का रंग रह सके जिससे।

बात रंगत-वही बनाती है।

जो रँगी जाति रंग में होवे।

क्यों नहीं वह तरंग आती है।10।

 

जो हमें बार-बार तंग करे।

क्यों उसे दंग कर न पाती है।

संग जो संग के लिए न बनी।

तो कभी क्यों उमंग आती है।11।

 

आँख से क्यों न वह बहे धारा।

जो दुधारा बनी दिखाती है।

जो रुला दे रुलाने वालों को।

क्यों नहीं वह रुलाई आती है।12।

 

काम साधो सधा नहीं कोई।

साधा पूरी न होने पाती है।

बेसुधो दूसरे न हैं हम से।

आज भी सुधा हमें न आती है।13।

 

मर जिये जाति के लिए कितने।

जाति को जाति ही जिलाती है।

चाहिए मौत से नहीं डरना।

कब बिना मौत मौत आती है।14।

 

किस लिए जी लड़ा नहीं देते।

जान हित-चाह क्यों छिपाती है।

बात से लें न काम काम करें।

काम की बात काम आती है।15।

80. घर देखो भालो-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आँखें खोलो भारत के रहने वालो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।

यह फूट डालती फूट रहेगी कब तक।

यह छेड़ छाड़ औ छूट रहेगी कब तक।

यह धन की जन की लूट रहेगी कब तक।

यह सूट बूट की टूट रहेगी कब तक।

बल करो बली बन बुरी बला को टालो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।1।

 

क्यों छूत छात की छूत न अब तक छूटी।

क्यों टूट गयी कड़ियाँ हैं अब तक टूटी।

फूटे न आँख वह जो न आज तक फूटी।

छन छन छनती ही रहे प्रेम की बूटी।

तज ढील, रंग में ढलो, ढंग में ढालो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।2।

 

 

 

हैं बौध्द जैन औ सिक्ख हमारे प्यारे।

चित के बल कितने सुख के उचित सहारे।

हिन्दुओं से न हैं आर्यसमाजी न्यारे।

हैं एक गगन के सभी चमकते तारे।

उठ पड़ो अंक भर सब कलंक धो डालो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।3।

 

नाना मत हैं तो बनें हम न मतवाले।

ये एक दूध के हैं कितने ही प्याले।

तब मेल-जोल के पड़ें हमें क्यों लाले।

जब सब दीये हैं एक जोत ही वाले।

कर उजग दूर जन जन को जाग जगा लो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।4।

 

क्यों बात बात में बहक बिगाड़ें बातें।

क्यों हमें घेर लें किसी नीच की घातें।

हों भले हमारे दिवस भली हों रातें।

लानत है सह लें अगर समय की लातें।

धुन बाँधा धूम से अपनी धाक बँधा लो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।5।

 

क्या लहू रगों में रंग नहीं है लाता।

क्या है न कपिल गौतम कणाद से नाता।

क्या नहीं गीत गीता का जी उमगाता।

क्या है न मदन-मोहन का वचन रिझाता।

मुख लाली रख लो ऐ माई के लालो।

घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।6।

81. क्या से क्या-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

क्यों आँख खोल हम लोग नहीं पाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।

थे हमीं उँजाला जग में करने वाले।

थे हमीं रगों में बिजली भरने वाले।

थे बड़े बीर के कान कतरने वाले।

थे हमीं आन पर अपनी मरने वाले।

हम बात बात में अब मुँह की खाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।1।

 

था मन उमंग से भरा, दबंग निराला।

था मेल जोल का रंग बहुत ही आला।

था भरा लबा-लब जाति-प्यार का प्याला।

देशानुराग का जन जन था मतवाला।

ये ढंग अब हमें याद भी न आते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।2।

 

 

थे धीर बीर साहसी सूरमा पूरे।

थे लाभ किये हमने हीरों के कूरे।

थे सुधा भरे फल देते हमें धातूरे।

छू हम को पूरे बने अनेक अधूरे।

अब अपने घर में आग हम लगाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।3।

 

थी विजय-पताका देश देश लहराती।

धौंस धुकार थी घहर घहर घहराती।

हुंकार हमारी दसों दिशा में छाती।

धरती-तल में थी धाक बँधी दिखलाती।

अब तो कपूत कायर हम कहलाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।4।

 

स्वर्गीय दमक से रहा दमकता चेहरा।

दिल रहा हमारा देव-भाव का देहरा।

था फबता गौरव-हार गले में तेहरा।

था बँधा सुयश का शिर पर सुन्दर सेहरा।

अब बना बना बातें जी बहलाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।5।

 

सुख-सोत हमारे आस पास बहते थे।

वांछित फल हम से सकल लोक लहते थे।

सब हमें जगत का जीवन धान कहते थे।

देवते हमारा मुँह तकते रहते थे।

अब पाँव दूसरों का हम सहलाते हैं।

क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।6।

82. लानतान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

गयीं चोटें लगाई क्या कलेजा चोट खाता है।

कलेजा कढ़ रहा है क्या कलेजा मुँह को आता है।1।

 

हुए अंधेर कितने आज भी अंधेर हैं होते।

अँधेरा आँख पर छाया है अंधापन न जाता है।2।

 

 

रहा कुछ भी न परदा बेतरह हैं खुल रहे परदे।

हमारी आँख का परदा उठाये उठ न पाता है।3।

 

हुए बदरंग, सारी रंगते हैं धूल में मिलतीं।

मगर अब भी हमारा रंग-बिगड़ा रंग में लाता है।4।

 

खुलीं आँखें न खोले पुतलियाँ हैं आँख की कढ़ती।

मगर लहू हमारी आँख से अब भी न आता है।5।

 

न आँखें देखने पाईं न आँखों में लहू उतरा।

वही है लुट रहा जो आँख का तारा कहाता है।6।

 

पुँछे आँसू न बेवों के न हैं वे बेबहा मोती।

बहे आँसू न वह सब जाति ही को जो बहाता है।7।

 

घटे ही जा रहे हैं हम घटी पर है घटी होती।

लहू का घूँट पीना बेतरह हम को घटाता है।8।

 

समय की आँख देखें आँख पहचानें समय की हम।

गिरे वे आँख से जिन को समय आँखें दिखाता है।9।

 

सदा बेजान मरते हैं जियेंगे जान वाले ही।

गया वह, जान रहते जान अपनी जो गँवाता है।10।

83. मांगलिक पद्य-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सारी बाधाएँ हरें राधा नयानानंद।

वृन्दारक बन्दित चरण श्री बृन्दावन चंद।1।

 

चाव भरे चितवत खरे किये सरस दृग-कोर।

जय दुलहिन श्री राधिका दूलह नन्द-किशोर।2।

 

विवुध वृन्द आराधित वुध सेविता त्रिकाल।

जय वीणा पुस्तकवती हंस बिलसती बाल।3।

 

सकल मंजु मंगल सदन कदन अमंगल मूल।

एक रदन करिवर बदन सदा रहें अनुकूल।4।

 

मंगलमय होता रहे यह मंगलमय काल।

करे अमंगल दूर सब मंगलायतन लाल।5।

 

कु शकुन दुरें उलूक सम तज मंगलमय देश।

सकल अमंगल तम दलें द्विज-कुल-कमल-दिनेश।6।

 

बाधित वसुधा को करे हर बाधा को अंश।

विवुध वृन्द सेवित चरण बंदनीय द्विज बंश।7।

 

करें गौरवित जाति को कर गौरव पर गौर।

रखें लाज सिरमौर की विप्र वंश सिरमौर।8।

 

 

शुचि विचार वरविधि बलित बने यह रुचिर ब्याह।

कुलाचार में भी सरुचि होवे सुरुचि निबाह।9।

 

रख अविचल दृग सामने द्विजकुल बिरद महान।

चिरजीवी हों बर वधू प्रेमसुधा कर पान।10।

 

पुरजन परिजन सुखित हों लहें समागत मोद।

पा अवनी कमनीयता उलहे बेलि-बिनोद।11।

 

बसे अविकसित चित में अमित उमंग उछाह।

बहे अपावन हृदय में पावन प्रेम-प्रवाह।12।

 

विघ्न रहित बसुधा बने घर घर बढ़े उछाह।

रहें बहु सुखित बर वधू हो विनोद मय ब्याह।13।

 

आराधना करते करें बाधाएँ सब दूर।

दया-सिंधु सिंधुर-बदन आरंजित, सिन्दूर।14।

 

सुमुख सुमुखता-वायु से टले अमोद-पयोद।

विलसित-भाल मयंक से विकसे कुमुद-विनोद।15।

 

उमग उमग घर घर बहे परम प्रमोद प्रवाह।

मोदक-प्रिय होकर मुदित मुद मय करें विवाह।16।

 

विमुख विविधा बाधा करें करिवर-मुख दिनरात।

दिन दिन बनती ही रहे बना बनी की बात।17।

 

कुशल मयी हो मेदिनी हो मंगलमय राह।

करें वरद वर वर-वधू का विनोद मय ब्याह।18।

84. बांछा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बरस बरस कर रुचिर रस हरे सरसता प्यास।

असरस चित को अति सरस करे सरस पद-न्यास।1।

 

भावुक जन के भाल पर हो भावुकता खौर।

अरसिक पाकर रसिकता बने रसिक सिरमौर।2।

 

मिले मधुर स्वर्गीय स्वर हों स्वर सकल रसाल।

व्यंजन में वर व्यंजना हो व्यंजित सब काल।3।

 

उक्ति अलौकिकता लहे मिले अलौकिक ओक।

करे समालोकित उसे अलंकार आलोक।4।

 

कलित भाव से बलित हो पा रुचि ललित नितान्त।

कान्त करे कवितावली कविता-कामिनि-कान्त।5।

85. निराला रंग-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनें बनायें किन्तु बिगड़ती बात बनावें।

हँसें हँसावें किन्तु हँसी अपनी न करावें।

बहक बहँकते रहें पर न रुचि को बहँकावें।

खुल खेलें, पर खेल खोल आँखों को पावें।

भर जायँ उमंगों में मगर बेढंगी न उमंग हो।

रँगतें रहें सब रंग की मगर निराला रंग हो।

86. माधुरी-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अति-पुनीत-अलौकिकता भरी।

विबुध-वृन्द अतीव-विनोदिनी।

मधुरिमा गरिमा महिमा मयी।

कथित है महिमामय-माधुरी।1।

 

नयन है किस का न बिमोहती।

गगन के तल की नव-नीलिमा।

विमलता मय तारक-मालिका।

जग-विमुग्ध करी विधु-माधुरी।2।

 

 

सरसता मय है सरसा-सुधा।

मलय-मारुत कोकिल-काकली।

मुकुलिता-लतिका रजनी सिता।

कल-निनाद कलाकर-माधुरी।3।

 

स-रव है रव से पिक-पुंज के।

स-छबि है छबि पा तरु-तोम की।

सरस है सरसीरुह-वृन्द से।

समधु है मधु-माधव-माधुरी।4।

 

विदित है तप की तपमानता।

सरस-पावस की उपकारिता।

शरद-निर्मलता हिम-शीतता।

शिशिर-मंजुलता मधु-माधुरी।5।

 

बहु-प्रफुल्ल किसे करती नहीं।

नवल - कोमल - कान्त - तृणावली।

ककुभ में लसिता कल-कौमुदी।

बिलसिता वसुधा-तल-माधुरी।6।

 

कलित-कल्पलता कमनीय है।

ललित है कर लाभ ललामता।

सकल केलि कला कुल कान्त है।

बदन-मण्डल मंजुल-माधुरी।7।

 

बिकच-पंकज मंजुल-मालती।

कुसुम - भार - नता - नवला - लता।

उदित-मंजु-मयंक समान है।

मुदित-मानव मानस-माधुरी।8।

 

कलित है विधु-कोमल-कान्ति सी।

मृदुल-बेलि समान मनोरमा।

मधार है मधापावलि-गान से।

मधुमयी - कविता - गत - माधुरी।9।

 

मधुमती बनती वसुधा रहे।

मधु-निकेतन मानव-चित हो।

मधुरता-मय-मानस के मिले।

मधुरिमा-मय हो यह माधुरी।10।

87. ललितललाम-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सरस भाव मन्दार सुमन से

समधिक हो हो सौरभ धाम।

नन्दन बन अभिराम लोक

अभिनन्दन रच मानस आराम।

लगा लगा कर हृतांत्री में

मानवता के मंजुल तार।

सूना सूना कर वसुधा-तल को

सुधा भरा उसकी झनकार।1।

 

 

गा गा कर अनुराग राग से

रंजित-अनुरागी जन राग।

धान को लय को स्वर समूह को

सब स्वर्गीय रसों में पाग।

चारु चार नयनों को दिखला

जग आलोकित कर आलोक।

कला निराली कली कली में

कला कलानिधि में अवलोक।2।

 

बढ़ा चौगुनी चतुरानन से

चींटी तक सेवा की चाह।

बहु विमुग्ध हो बहे हृदय में

आपामर का प्रेम-प्रवाह।

कलित से कलित कामधेनुसम

कामद कर कमनीय कलाम।

ललित से ललित बनबन देखा

अललित चित में ललितललाम।3।

88. ललना-लाभ-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

खुला था प्रकृति-सृजन का द्वार।

हो रही थी रचना रमणीय।

बिरचती थी अति रुचिकर चित्र।

तूलिका बिधि की बहु कमनीय।1।

 

रंग लाती थी हृदय-तरंग।

बह रहा था चिन्ता का सोत।

मंद गति से अवगति-निधि मधय।

चल रहा था जग-रंजन पोत।2।

 

चित्र-पट पर भव के उस काल।

खिंच गयी एक मूर्ति अभिराम।

सरलता कोमलता अवलम्ब।

सरसता मय मोहक रति काम।3।

 

उमा सी महिमा मयी महान।

रमा सी रमणीयता निकेत।

गिरासी गौरव गरिमावान।

मानवी जीवन-ज्योति उपेत।4।

 

 

अलौकिक केलि-कला-कुल कान्त।

हृदय-तल सुललित लीलाधाम।

मधार माता-मानस-सर्वस्व

नाम था ललना लोक-ललाम।5।

89. जुगनू-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पेड़ पर रात की अँधेरी में।

जुगनुओं में पड़ाव हैं डाले।

या दिवाली मना चुड़ैलों ने।

आज हैं सैकड़ों दिये बाले।1।

 

तो उँजाला न रात में होता।

बादलों से भरे अँधेरे में।

जो न होती जमात जुगनू की।

तो न बलते दिये बसेरे में।2।

 

रात बरसात की अँधेरे में।

तो न फिरती बखेरते मोती।

चाँदतारा पहन नहीं पाती।

जुगनुओं में न जोत जो होती।3।

 

जगमगाएँ न किस तरह जुगनू।

वे गये प्यार साथ पाले हैं।

क्यों चमकते नहीं अँधेरे में।

रात की आँख के उँजाले हैं।4।

 

हैं कभी छिपते चमकते हैं कभी।

झोंकते किस आँख में ए धूल हैं।

रात में जुगनू रहे हैं जगमगा।

या निराली बेलियों के फूल हैं।5।

 

स्याह चादर अँधेरी रात की।

यह सुनहला काम किसने है किया।

जगमगाते जुगनुओं की जोत है।

या जिनों का जुगजुगाता है दिया।6।

 

हम चमकते जुगनुओं को क्या कहें।

डालियों के एक फबीले माल हैं।

हैं अँधेरे के लिए हीरे बड़े।

रात के गोदी भरे ये लाल हैं।7।

 

मोल होते भी बड़े अनमोल हैं।

जगमगाते रात में दोनों रहें।

लाल दमड़ी का दिया है, क्यों न तो।

जुगनुओं को लाल गुदड़ी का कहें।8।

 

 

क्यों न जुगनू की जमातों को कहें।

जोत जीती जागती न्यारी कलें।

आँधियाँ इनको बुझा पाती नहीं।

ये दिये वे हैं कि पानी में बलें।9।

 

जब कि पीछे पड़ा उँजाला है।

तब चमक क्यों सकें उँजेरे में।

हैं किसी काम के नहीं जुगनू।

जब चमकते मिले अँधेरे में।10।

 

रात बीते निकल पड़े सूरज।

रह सकेगी न बात जुगनू की।

सामने एक जोत वाले के।

क्या करेगी जमात जुगनू की।11।

 

जी जले और जुगनू

जगमगाते रतन जड़े जुगनू।

कलमुँही रात के गले के हैं।

जुगनुओं की जमात है फैली।

या अँधेरे जिगर जले के हैं।12।

 

जो चमक कर सदा छिपा, उसकी।

वह हमें याद क्यों दिलाता है।

तब जले-तब न क्यों कहें उसको।

जब कि जुगनू हमें जलाता है।13।

 

जगमगाते ही हमें जुगनू मिले।

झड़ लगी, ओले गिरे, आँधी बही।

आप जल कर हैं जलाते और को।

आग पानी में लगाते हैं यही।14।

 

हैं बने बेचैन जुगनू घूमते।

कौन से दुख बे तरह हैं खल रहे।

है बुझा पाता न उसको मेंह-जल।

हैं न जाने किस जलन से जल रहे।15।

 

बे तरह वह क्यों जलाता है हमें।

है सितम उसका नहीं जाता सहा।

क्या रहा करता उँजाला और को।

आप जुगनू जब अँधेरे में रहा।16।

 

कौन जलते को जलाता है नहीं।

तर बनीं बरसात रातें-देख लीं।

जल बरसना देख मेघों का लिया।

थाम दिल जुगनू-जमातें देख लीं।17।

 

मेघ काले, काल क्यों हैं हो रहे।

किसलिए कल, कलमुही रातें हरें।

बेकलों को बेतरह बेकल बना।

कल-मुँहे जुगनू न मुँह काला करें।18।

 

90. विषमता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मंगल मय है कौन किसे कहते हैं मंगल।

फलदायक है कौन सफलता है किस का फल।

मंगल कितने लोग अमंगल में हैं पाते।

विविधा विफलता सहित सफलता के हैं नाते।

पादप सब पत्र विहीन हो पा जाते हैं नवल दल।

विकसित कुसुमावलि लोप हो लहती है कमनीय फल।1।

 

दीपक जल आलोक अति अलौकिक हैं पाते।

मिले धूल में बीज पल्लवित हैं हो जाते।

तपने पर है अधिक कान्ति कंचन को मिलती।

सदा चाँदनी तिमिरमयी निशि में है खिलती।

सरपत जल कर हैं पनपते फलते हैं केले कटे।

तारे उगते हैं अस्त हो बढ़ता है हिमकर घटे।2।

 

नीचा देखे सदा सलिल है ऊँचा होता।

बह करके ही बिपुल बिमल बनता है सोता।

बार बार पिस गये रंग मेहँदी है लाती।

कटे छँटे पर बेलि उलहती ही है आती।

हैं द्रवित बनाती और को आँखें आँसू से भरी।

पतितों को पावन कर हुई पतित-पावनी सुरसरी।3।

 

भूतल से हो अलग हुआ मंगल का मंगल।

पद-प्रहार से मिला विभीषण को प्रभुता बल।

बना बिमाता अहित वचन धारुव का हितकारक।

हुआ मोह, मुनि-पुंगव नारद का उपकारक।

दुख-समूह रघुनाथ का वसुधा-सुख-साधक हुआ।

भगवती जानकी का हरण भव-बाधा-बाधक हुआ।4।

 

मरे जाति के लिए अमरता हैं जन पाते।

पर के हित तन तजे लोग हैं सुरपुर जाते।

विफल हुए साहसी शक्ति है शक्ति दिखाती।

असफलता है उसे सफलता सूत्र बताती।

यदि स्वाधीनता प्रदानकर करे जाति को वह जयी।

तो विपुल वाहिनी वधा हुई बनती है मंगलमयी।5।

91. विकच वदन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

जो न परम कोमलता उसकी रही विमलता में ढाली।

जो माई के लाल कहाने की न लसी उस पर लाली।

कातर जन की कातरता हर होती है जो शान्ति महा।

उसकी मंजु व्यंजना द्वारा जो वह व्यंजित नहीं रहा।

 

लोकप्यार-आलोकों से जो आलोकित वह हुआ नहीं।

पूत प्रीति पुलकित धाराएँ जो उस पर पलपल न बहीं।

देश-प्रेम की कलित कान्ति से कान्ति मान वह जो न मिला।

जाति-हितों के वर विकास से जो वह विकसित हो न खिला।

 

होकर सिक्त रुचिर रस से जो रसमयता उसकी न बढ़ी।

सुन्दरता में से जो उसकी सुरभि परम सुन्दर न कढ़ी।

जो वह भाव-भक्ति-आभा से बहु आभामय नहीं बना।

जो वह पातक-तिमिर-निवारक प्रभा-पुंज में नहीं सना।

 

जो उदारता दया दान की दमक न दे उसको दमका।

जो न जन्मभू-हित-चिन्ता की चाह चमक से वह चमका।

तो मानवता-रत मानव का बना सकेगा मुदित न मन।

विधु सा विपुल विनोद-निकेतन बारिज जैसा विकच वदन।

 

92. स्वागत-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

क्यों आज सूरज की चमक यों है निराली हो रही।

क्यों आज दिन आनन्द की धारा धरातल में बही।

क्यों हैं चहक चिड़िया रहीं क्यों फूल हैं यों खिल रहे।

क्यों जी हरा कर पेड़ के पत्तो हरे हैं हिल रहे।1।

 

क्यों हैं दिशाएँ हँस रहीं क्यों है गगन रँग ला रहा।

वह डूब करके प्यार में क्या है हमें बतला रहा।

लेकर महँक महमह महँकती क्यों हवा है बह रही।

वह मंद मंद समीप आ क्या कान में है कह रही।2।

 

क्या हैं कृपा कर आ रहे मेहमान वे सबसे बड़े।

हैं बहु पलक के पाँवड़े जिसके लिए पथ में पड़े।

प्रभु आइए हम हैं समादर सहित स्वागत कर रहे।

मोती निछावर के लिए हैं युग नयन में भर रहे।3।

 

बहु विनय सी अनमोल मणि, बर बचन से हीरे बड़े।

उपहार देने के लिए हैं प्रेम-पारस ले खड़े।

है भक्ति की डाली हमारी भाव फूलों से भरी।

स्वीकार इसको कीजिए है चाव करतल पर धारी।4।

 

प्रभु पग कमल को छू यहाँ की भूमि भाग्यवती बनी।

हम परस सम्मानित हुए हो विपुल गौरव-धान धानी।

प्यारे प्रजा जन पुत्रा लौं प्रभु प्यार पलने में पलें।

सब हों सुखी, प्रभु यश लहें, चिरकाल तक फूलें फलें।5।

 

93. चूँ चूँ चूँ चूँ म्याऊँ म्याऊँ-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

चूँ-चूँ चूँ-चूँ चूहा बोले,

म्याऊँ म्याऊँ बिल्ली।

ती-ती, ती-ती कीरा बोले,

झीं-झीं झीं-झीं झिल्ली।

किट-किट-किट बिस्तुइया बोले,

किर-किर-किर गिलहैरी।

तुन-तुन-तुन इकतारा बोले,

पी-पी-पी, पिपहैरी।

टन-टन टन-टन घंटी बोले,

ठन-ठन-ठन्न रुपैया।

बछड़ा देखे बां-बां बोले,

तेरी प्यारी गइया।

ठनक-ठनक कर तबला बोले,

डिम-डिम डिम-डिम डौंडी।

टेढ़ी-मेढ़ी बातें बोले,

बाबा जी की लौंडी।

94. चमकीले तारे-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

क्या चमकीले तारे हैं,

बड़े अनूठे, प्यारे हैं!

आँखों में बस जाते हैं,

जी को बहुत लुभाते हैं!

जगमग-जगमग करते हैं,

हँस-हँस मन को हरते हैं।

नए जड़ाऊ गहने हैं,

जिन्हें रात ने पहने हैं!

कितने रंग बदलते हैं,

बड़े दिए-से बलते हैं!

घर के किसी उजाले हैं,

जोत जगाने वाले हैं!

हीरे बड़े फबीले हैं,

छवि से भरे छबीले हैं!

कभी टूट ये पड़ते हैं

फूलों-जैसे झड़ते हैं!

चिनगी-सी छिटकाते हैं,

छोड़ फुलझड़ी जाते हैं!

 

95. वसंत-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

चावमय लोचन का है चोर

नवल पल्लवमय तरु अभिराम;

प्रलोभन का है लोलुप भाव,

ललित लतिका का रूप ललाम।

मनोहरता होती है मत्ता

मंजरी-मंजुलता अवलोक;

हृदय होता है परम प्रफुल्ल

कुसुम-कुल-उत्फुल्लता विलोक।

कान में पड़ती है रस-धार

सुने कोकिल का कल आलाप;

रसिकता बनी सरसता-धाम

देखि अलि-कुल का कार्य-कलाप।

सुरभिमय बनता है सब ओक

हुए मलयानिल का संचार;

भूरि छवि पा जाती है भूमि

पहन सज्जित सुमनों का हार।

गगन-तल होता है सुप्रसन्न

लाभ कर विमल मयंक-विकास;

विहँसती सित-वसना, सित-गात

सिता आती है भूतल-पास।

भव मधाुर नव-जीवन-आधार,

लोक-कमनीय विभूति-निवास;

है प्रकृति-नवल-वधु-शृंगार

सुविलसित सरस वसंत-विलास।

96. तंत्री के तार-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

टूट गये तंत्री के तार;

रही नहीं अब वह स्वर-लहरी, रही नहीं अब वह झंकार।

कुसुमोपम मृदु उँगली से छिड़ नहीं बरसते हैं रस-धार;

हैं प्रदान करते न पवन को मुग्धाकरी धवनि मधुर अपार।

हैं न कान को सुधा पिलाते, हैं न हृदय हरते प्रति बार;

हैं न सुनाते सरस रागिनी, बनते हैं न सरसता-सार।

हैं न उमंगित करते मानस, हैं न तरंगित चित आधार;

हैं न बहाते वसुधातल में रसमय उर के सोत उदार।

97. दीया-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बड़ा ही सुंदर चमकीला;

कंठ का उसके है जुगनू,

कलाएँ हैं जिसकी लीला।

 

वह सुनहलापन है इसमें,

सुनहली कर दीं दीवारें,

रूप ऐसा है मन-मोहन

फतिंगे जिस पर तन वारें।

 

तेज सूरज या तारों का

जहाँ पर पहुँच नहीं पाता;

वहाँ पर जगी जोत भरकर

जगमगाता है दिखलाता।

 

हवा के पाले पलता है,

आग का बड़ा दुलारा है;

नमूना किसी जलन का है,

बहुत ऑंखों का तारा है।

 

उँजाला अंधियाले घर का,

दमक का है सुंदर देरा;

निराला फूल जोत का है,

लाल दमड़ी का है मेरा।

 

98. मुरली की तान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कहलाते हैं हिंदू-बालक, बनते हैं हिंदू-कुल-काल;

हैं भारत-ललना से लालित, किंतु हैं न भारत के लाल।

 

रोम-रोम है देश-प्रेममय, रखते हैं न जाति से प्यार;

राजनीति के अनुपम नेता, पर कुनीति के हैं अवतार।

 

हैं कल-हंस, चाल बक की-सी, हैं कल-कंठ, किंतु हैं काक;

हैं कमनीय कुसुम-से कोमल, किंतु अकोमलता-परिपाक।

 

हैं गज-दंत-समान द्विविधा गति, सुमन-माल-सज्जित हैं नाग;

विष-परिपूरित कनक-कुंभ हैं, वधिक-विपंची के हैं राग।

 

हिंदू ललना, लाल लालसा पर अपनी देते हैं वार;

है काढ़ता कलेजा निजता-प्रियता का नेतापन प्यार।

 

बात रहे, हठ रहे, रसातल जाय भले ही हिंदू-जाति;

वह खोवे सर्वस्व, किंतु हो मलिन न उनकी निर्मल ख्याति।

 

पर पग रज कर वहन झोंकते हिंदू ऑंखों में हैं धूल;

हैं जिसकी छाया में जीवित, हैं उसको करते निर्मूल।

 

आग लगाता है निज घर में उनका परम निराला नेह;

होती सिंचित कीर्ति-लता है बरसे जाति-रुधिर का मेह।

 

आकुल हूँ, है हृदय व्यथित अति कुल-कमलों की गति अवलोक;

कैसे होगा दूर निविड़ तम, क्यों आलोकित होगा लोक।

 

मनमोहन, विमोह सब हर लो, गा दो जन-मन-मोहन गान;

समय देख सुर-लीन बना लो, फिर छेड़ो मुरली की तान।

99. क्रान्ति-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

हाथ में उसके हो वह दीप,

जो तिमिर भव का कर दे दूर;

स्नेह-पूरित हो जिसका अंक,

ज्योति जिसमें होवे भरपूर।

 

पास उसके हो वह वर बीन,

विनयमय हो जिसकी झंकार;

सुनावें विश्व-बंधुता-राग

छिड़े पर जिसके ध्वनिमय तार।

 

धारा जिससे होती है धान्य,

मिले उसको वह मंजुल प्यार;

चयन कर सरसभाव सुप्रसून,

रचे वह जिससे भव-हित-हार।

 

कांति जिसकी हो भव कमनीय,

बदन पर जिसके हो बहु शांति,

भरे हों जिसमें हितकर भाव,

भरत-भूतल में हो वह क्रांति।

 

100. कवित्त-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वैसी अब केलि की न कलित कलाएँ रहीं

सूखी रस बेलियाँ सरस आल बाल की।

लै लै पिचकारियाँ नचति जनता है कहाँ

लूट है न मचति अबीर वारे थाल की।

हरिऔधा राग रंग हूँ को रंग भंग भयो

रही ना रसालता रसीले स्वर ताल की।

वैसो अब अवनि गगन बाल लाल गाल

करति न लाल लाल गरद गुलाल की।1।

 

तालियाँ बजाएँगे कुलीनन के पीछे कौं लौं

कुल ललना को कौ लौं गालियाँ सुनाएँगे।

बुरे स्वाँग रचि कौ लौं उर में हनेंगे साँग

राग रंग मिस कौ लौं रंगत गँवाएँगे।

हरिऔधा लालिमा हरेंगे कौ लौं आनन की

कौ लौं कलावानन को कालिमा लगाएँगे।

गाएँगे कबीर कौ लौं गरो दाबि गौरव को।

कौ लौं मंजु मुख काँहिं रौरव बनाएँगे।2। 

प्रसिद्ध रचनाएँ/कविताएँ अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' पार्ट 1

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