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अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'-प्रसिद्ध रचनाएँ/कविताएँ
Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'-Selected Poetry
1. कर्मवीर-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।1।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही।
मानते जी की हैं सुनते हैं सदा सब की कही।
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही।
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं।
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।2।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आजकल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं।
यत्न करने में कभी जो जी चुराते हैं नहीं।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए।
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।3।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर।
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लवर।
ये कँपा सकतीं कभी जिसके कलेजे को नहीं।
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।4।
चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।
जो कि हँस हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
''है कठिन कुछ भी नहीं'' जिनके है जी में यह ठना।
कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं।
कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।5।
ठीकरी को वे बना देते हैं सोने की डली।
रेग को करके दिखा देते हैं वे सुन्दर खली।
वे बबूलों में लगा देते हैं चंपे की कली।
काक को भी वे सिखा देते हैं कोकिल-काकली।
ऊसरों में हैं खिला देते अनूठे वे कमल।
वे लगा देते हैं उकठे काठ में भी फूल फल।6।
काम को आरंभ करके यों नहीं जो छोड़ते।
सामना करके नहीं जो भूल कर मुँह मोड़ते।
जो गगन के फूल बातों से वृथा नहिं तोड़ते।
संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते।
बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन।
काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन।7।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा-मंगल रचा देते हैं वे।
भेद नभ तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार तार सारी क्रिया।8।
कार्य्य-थल को वे कभी नहिं पूछते 'वह है कहाँ'।
कर दिखाते हैं असंभव को वही संभव यहाँ।
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ।
वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ।
डाल देते हैं विरोधी सैकड़ों ही अड़चनें।
वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।9।
जो रुकावट डाल कर होवे कोई पर्वत खड़ा।
तो उसे देते हैं अपनी युक्तियों से वे उड़ा।
बीच में पड़कर जलधि जो काम देवे गड़बड़ा।
तो बना देंगे उसे वे क्षुद्र पानी का घड़ा।
बन ख्रगालेंगे करेंगे व्योम में बाजीगरी।
कुछ अजब धुन काम के करने की उनमें है भरी।10।
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले फले।
बुध्दि, विद्या, धान, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।
वे बनाने से उन्हीं के बन गये इतने भले।
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।
लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।
देश की औ जाति की होगी भलाई भी तभी।11।
2. फूल और काँटा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चाँद भी,
एक ही सी चाँदनी है डालता।
मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बही
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं।
छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन।
फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला।
है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।
3. अपने को न भूलें-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बन भोले क्यों भोले भाले कहलावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।
क्या अब न हमें है आन बान से नाता।
क्या कभी नहीं है चोट कलेजा खाता।
क्या लहू आँख में उतर नहीं है आता।
क्या खून हमारा खौल नहीं है पाता।
क्यों पिटें लुटें मर मिटें ठोकरें खावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।1।
पड़ गया हमारे लहू पर क्यों पाला।
क्यों चला रसातल गया हौसला आला।
है पड़ा हमें क्यों सूर बीर का ठाला।
क्यों गया सूरमापन का निकल दिवाला।
सोचें समझें सँभलें उमंग में आवें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।2।
छिन गये अछूतों के क्यों दिन दिन छीजें।
क्यों बेवों से बेहाथ हुए कर मीजें।
क्यों पास पास वालों का कर न पसीजें।
क्यों गाल आँसुओं से अपनों के भीजें।
उठ पड़ें अड़ें अकड़ें बच मान बचावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।3।
क्यों तरह दिये हम जायँ बेतरह लूटे।
हीरा हो कर बन जायँ कनी क्यों फूटे।
कोई पत्थर क्यों काँच की तरह टूटे।
क्यों हम न कूट दें उसे हमें जो कूटे।
आपे में रह अपनापन को न गँवावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।4।
सैकड़ों जातियों को हमने अपनाया।
लाखों लोगों को करके मेल मिलाया।
कितने रंगों पर अपना रंग चढ़ाया।
कितने संगों को मोम बना पिघलाया।
निज न्यारे गुण को गिनें गुनें अपनावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।5।
सारे मत के रगड़ों झगड़ों को छोड़ें।
नाता अपना सब मतवालों से जोड़ें।
काहिली कलह कोलाहल से मुँह मोड़ें।
मिल जुल मिलाप-तरु के न्यारे फल तोड़ें।
जग जायँ सजग हो जीवन ज्योति जगावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।6।
4. कविकीर्ति-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
रचती है कविता-सुधा सुधासिक्त अवलेह।
लहता है रससिध्द कवि अजर अमर यश-देह।1।
चीरजीवी हैं सुकवि जन सब रस-सिध्द समान।
उक्ति सजीवन जड़ी को कर सजीवता दान।2।
अमल धावल आनन्द मय सुधा सिता सुमिलाप।
है कमनीय मयंक सम कविकुल कीर्ति कलाप।3।
गौरव-केतन से लसित अनुपम-रत्न उपेत।
अमर-निकेतन तुल्य हैं कविकुल कीर्ति-निकेत।4।
मानस-अभिनन्दन, अमर, नन्दन बन वर कुंज।
है पावन प्रतिपति मय कवि पुंगव यश पुंज।5।
5. जीवन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
विकच कमल कमनीय कलाधर।
मंद मंद आन्दोलित मलय पवन।
तरल तरंग माला संकुल जलधि।
परम आनन्दमय नन्दन कानन।1।
विपुल कुसुम कुल लसित बसंत।
विविध तारक चय खचित गगन।
कलित ललित किसलय कान्त तरु।
श्यामल जलद जाल नयन रंजन।2।
कोमल आलोकमय प्रभात समय।
रवि-कर विलसित सलिल विलास।
प्रभापुंज प्रभासित कांचन, कलस।
सुमन समूह अति सरस विकास।3।
मरीचिका मय मरु विदग्ध विपिन।
प्रखर तपन ताप उत्प्त दिवस।
भयंकर तम तोम आवरित निशि।
सलिल रहित सर महि असरस।4।
राहु कवलित कलंकित कलानिधि।
मदन दहन रत मदन-दहन।
नभ तल निपतित वारक निचय।
जीवन विहीन घन है जन जीवन।5।
6. जन्मभूमि-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
सुरसरि सी सरि है कहाँ मेरु सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमण्डल में आन।
प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।
पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।
आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जल जात के बने रहे जन भौंर।
कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।
उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।
उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।
योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।
फलद कल्पतरू–तुल्य हैं सारे विटप बबूल।
हरि–पद–रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।
जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।
7. कोयल-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
काली-काली कू-कू करती,
जो है डाली-डाली फिरती!
कुछ अपनी हीं धुन में ऐंठी
छिपी हरे पत्तों में बैठी
जो पंचम सुर में गाती है
वह हीं कोयल कहलाती है.
जब जाड़ा कम हो जाता है
सूरज थोड़ा गरमाता है
तब होता है समा निराला
जी को बहुत लुभाने वाला
हरे पेड़ सब हो जाते हैं
नये नये पत्ते पाते हैं
कितने हीं फल औ फलियों से
नई नई कोपल कलियों से
भली भांति वे लद जाते हैं
बड़े मनोहर दिखलाते हैं
रंग रंग के प्यारे प्यारे
फूल फूल जाते हैं सारे
बसी हवा बहने लगती है
दिशा सब महकने लगती है
तब यह मतवाली होकर
कूक कूक डाली डाली पर
अजब समा दिखला देती है
सबका मन अपना लेती है
लडके जब अपना मुँह खोलो
तुम भी मीठी बोली बोलो
इससे कितने सुख पाओगे
सबके प्यारे बन जाओगे
8. मतवाली -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
ममतामानव ममता है मतवाली ।
अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली ।
अपनी ही रंगत में रंगकर रखती है मुँह लाली ।
ऐसे ढंग कहा वह जैसे ढंगों में हैं ढाली ।
धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर आँखें डाली ।
अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखी-भाली ।
अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली ।
फूल बिखेरे देती है औरों पर उसकी गाली ।
भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली ।
कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोली-भाली ।
9. हमारे वेद-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
अभी नर जनम की बजी भी बधाई।
रही आँख सुधा बुधा अभी खोल पाई।
समझ बूझ थी जिन दिनों हाथ आई।
रही जब उपज की झलक ही दिखाई।
कहीं की अंधेरी न थी जब कि टूटी।
न थी ज्ञान सूरज किरण जब कि फूटी।1।
तभी एक न्यारी कला रंग लाई।
हमारे बड़ों के उरों में समाई।
दिखा पंथ पारस बनी काम आई।
फबी और फूली फली जगमगाई।
उसी से हुआ सब जगत में उँजाला।
गया मूल सारे मतों का निकाला।2।
हमारे बड़े ए बड़ी सूझ वाले।
हुए हैं सभी बात ही में निराले।
उन्होंने सभी ढंग सुन्दर निकाले।
जगत में बिछे ज्ञान के बीज डाले।
उन्हीं का अछूता वचन लोक न्यारा।
गया वेद के नाम से है पुकारा।3।
विचारों भरे वेद ए हैं हमारे।
सराहे सभी भाव के हैं सहारे।
बड़े दिव्य हैं, हैं बड़े पूत, न्यारे।
मनो स्वर्ग से वे गये हैं उतारे।
उन्हीं से बही सब जगह ज्ञान-धारा।
उन्हीं से धरा पर धरम को पसारा।4।
उन्हीं ने भली नीति की नींव डाली।
खुली राह भलमंसियों की निकाली।
उन्हीं ने नई पौधा नर की सँभाली।
उन्हीं ने बनाया उसे बूझ वाली।
उन्हीं ने उसे पाठ ऐसा पढ़ाया।
कि है आज जिससे जगत जगमगाया।5।
उन्हीं ने जगत-सभ्यता-जड़ जमाई।
उन्हीं ने भली चाल सब को सिखाई।
उन्हीं ने जुगुत यह अछूती बनाई।
कि आई समझ में भलाई बुराई।
बड़े काम की औ बड़ी ही अनूठी।
उन्हीं से मिली सिध्दियों की अंगूठी।6।
कहो सच किसी को कभी मत सताओ।
करो लोकहित प्रीति प्रभु से लगाओ।
भली चाल चल चित्त-ऊँचा बनाओ।
बुरा मत करो पाप भी मत कमाओ।
बहुत बातें हैं इस तरह की सुनाती।
कि जो सार हैं सब मतों का कहाती।7।
उन्हें वेद ही ने जनम दे जिलाया।
उसी ने उन्हें सब मतों को चिन्हाया।
उसी ने उन्हें नर-उरों में लसाया।
उसी ने उन्हें प्यार-गजरा पिन्हाया।
समय-ओट में जब सभी मत रुके थे।
तभी मान का पान वे पा चुके थे।8।
इसी वेद से जोत वह फूट पाई।
कि जो सब जगत के बहुत काम आई।
उसी से गईं बत्तिायाँ वे जलाई।
जिन्हों ने उँजेली उरों में उगाई।
उसी से दिये सब मतों के बले हैं।
कि जिन से अंधेरे घरों के टले हैं।9।
चला कौन कब वेद से कर किनारा।
उसी से मिला खोजियों को सहारा।
किसी को बनाया किसी को सुधारा।
उसी ने किसी को दिया रंग न्यारा।
उसी से गयी आँख में जोत आई।
बहुत से उरों की हुई दूर काई।10।
चमकती हुई धूप किरणें सुनहली।
उगा चाँद औ चाँदनी यह रुपहली।
हवा मंद बहती धारा ठीक सँभली।
सभी पौधा जिन से पली और बहली।
सकल लोक की जिस तरह हैं कहाती।
सभी की उसी भाँति हैं वेद थाती।11।
सभी देश पर औ सभी जातियों पर।
सदा जल बहुत ही अनूठा बरस कर।
निराले अछूते भले भाव में भर।
बनाते उन्हें जिस तरह मेघ हैं तर।
उसी भाँति ए वेद प्यारों भरे हैं।
सकल-लोकहित के लिए अवतरे हैं।12।
बड़े काम की बात वे हैं बताते।
बहुत ही भली सीख वे हैं सिखाते।
सभी जाति से प्यार वे हैं जताते।
सभी देश से नेह वे हैं निभाते।
कहीं पर मचल वह कभी है न अड़ती।
भली आँख उनकी सभी पर है पड़ती।13।
सचाई फरेरा उन्हीं का उड़ाया।
नहीं किस जगह पर फहरता दिखाया।
बिगुल नेकियों का उन्हीं का बजाया।
नहीं गूँजता किस दिशा में सुनाया।
कली लोक-हित की उन्हीं की खिलाई।
सुवासित न कर कौन सा देश आई।14।
किसी पर कभी वे नहीं टूट पड़ते।
बखेड़ा बढ़ा कर नहीं वे झगड़ते।
नहीं वे उलझते नहीं वे अकड़ते।
कभी मुँह बनाकर नहीं वे बिगड़ते।
मुँदी आँख हैं प्यार से खोल जाते।
सदा निज सहज भाव वे हैं दिखाते।15।
दहकती हुई आग सूरज चमकता।
सुबह का अनोखा समय चाँद यकता।
हवा सनसनाती व बादल दलकता।
अनूठे सितारों भरा नभ दमकता।
उमड़ती सलिल धार औ धूप उजली।
खिली चाँदनी का समा कौंधा बिजली।16।
सभी को सदा ही चकित हैं बनाती।
सहज ज्ञान की जोतियाँ हैं जगाती।
इन्हीं में बड़े ढंग से रंग लाती।
बड़ी ही अछूती कला है दिखाती।
इन्हीं के निराले विभव के सहारे।
किसी एक विभु के खुले रंग न्यारे।17।
इसी से इन्हीं के सुयश को सुनाते।
इन्हीं के बड़ाई-भरे-गीत गाते।
इन्हीं के सराहे गुणों को गिनाते।
हमें वेद हैं भेद उसका बताते।
सभी में बसे औ लसे जो कि ऐसे।
दिये में दमक फूल में बास जैसे।18।
अगर आँख खुल जाय उर की किसी के।
अगर हों लगे भाल पर भक्ति टीके।
भरम सब अगर दूर हो जायँ जीके।
जिसे भाव मिल जायँ योगी-यती के।
भले ही उसे सब जगह प्रभु दिखावे।
मगर दूसरा किस तरह सिध्दि पावे।19।
उसे खोजना ही पड़ेगा सहारा।
कि जिस से खुले नाथ का रंग न्यारा।
किया इसलिए ही न उनसे किनारा।
जिन्हें वेद ने ज्ञान-साधन विचारा।
उन्होंने बहुत आँख ऊँची उठाई।
मगर सब कड़ी भी समझ के मिलाई।20।
धरम के जथे जो धरम के जथों पर।
करें वार निज करनियों को बिसरकर।
कसर से भरे हों रखें हित न जौ भर।
कलह आग में डालते ही रहें खर।
जगत के हितों का लहू यों बहावें।
बिगड़ धूल में सब भलाई मिलावें।21।
उन्हें फिर धरम के जथे कह जताना।
उमड़ते धुएँ को घटा है बनाना।
यही सोच है वेद ने यह बखाना।
बुरा सोचना है धरम का न बाना।
धरम पर धरम हैं न चोटें चलाते।
मिले, कींच में भी कमल हैं खिलाते।22।
बने पंथ मत जो धरम के सहारे।
कहीं हों कभी हो सकेंगे न न्यारे।
चमकते मिले जो कि गंगा किनारे।
खिले नील पर भी वही ज्ञान तारे।
दमकते वही टाइवर पर दिखाये।
मिसिसिपी किनारे वही जगमगाये।23।
सदा इसलिए वेद हैं यह बताते।
धरम हैं धरम को न धक्के लगाते।
कभी वे नहीं टूटते हैं दिखाते।
जिन्हें हैं सहज नेह-नाते मिलाते।
नये ढोंग रचकर जगत-जाल में पड़।
धरम वे न हैं जो धरम की खभें जड़।24।
सभी एक ही ढंग के हैं न होते।
सिरों में न हैं एक से ज्ञान-सोते।
उरों में सभी हैं न बर बीज बोते।
बहुत से मिले बैठ पानी बिलोते।
अगर एक थिर तो अथिर दूसरा है।
जगत भिन्न रुचि के नरों से भरा है।25।
इसी से बहुत पंथ मत हैं दिखाते।
विचारादि भी अनगिनत हैं दिखाते।
विविध रीति में लोग रत हैं दिखाते।
बहुत भाँति के नेम व्रत हैं दिखाते।
मगर छाप सब पर धरम की लगी है।
किसी एक प्रभु-जोत सब में जगी है।26।
नदी सब भले ही रखें ढंग न्यारा।
मगर है सबों में रमी नीर-धारा।
जगत के सकल पंथ मत का सितारा।
चमक है रहा पा धारम का सहारा।
इसे पेड़ उनको बताएँगे थाले।
धरम दूध है पंथ मत हैं पियाले।27।
सचाई भरी बात यह बूझ वाली।
ढली प्रेम में रंगतों में निराली।
गयी वेद की गोद में है सँभाली।
उसी ने उसे दी भली नीति ताली।
बहुत देश जिससे कि फल फूल पाया।
धरम मर्म वह वेद ही ने बताया।28।
10. एक बून्द-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी।
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।
11. हमारा पतन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जैसा हमने खोया, न कोई खोवेगा
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
एक दिन थे हम भी बल विद्या बुद्धिवाले
एक दिन थे हम भी धीर वीर गुनवाले
एक दिन थे हम भी आन निभानेवाले
एक दिन थे हम भी ममता के मतवाले।
जैसा हम सोए क्या कोई सोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
जब कभी मधुर हम साम गान करते थे
पत्थर को मोम बना करके धरते थे
मन पशु और पंखी तक का हरते थे
निर्जीव नसों में भी लोहू भरते थे।
अब हमें देख कौन नहीं रोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
जब कभी विजय के लिए हम निकलते थे
सुन करके रण-हुंकार सब दहलते थे
बल्लियों कलेजे वीर के उछलते थे
धरती कंपती थी, नभ तारे टलते थे।
अपनी मरजादा कौन यों डुबोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
हम भी जहाज पर दूर-दूर जाते थे
कितने द्वीपों का पता लगा लाते थे
जो आज पैसफिक ऊपर मंडलाते थे
तो कल अटलांटिक में हम दिखलाते थे।
अब इन बातों को कहाँ कौन ढोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
तिल-तिल धरती था हमने देखा भाला
अम्रीका में था हमने डेरा डाला
योरप में भी हमने किया उजाला
अफ्रीका को था अपने ढंग में ढाला।
अब कोई अपना कान भी न टोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
सभ्यता को हमने जगत में फैलाया
जावा में हिन्दूपन का रंग जमाया
जापान चीन तिब्बत तातार मलाया
सबने हमसे ही धरम का मरम पाया
हम सा घर में काँटा न कोई बोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
अब कलह फूट में हमे मज़ा आता है
अपनापन हमको काट-काट खाता है
पौरूख उद्यम उत्साह नहीं भाता है
आलस जम्हाईयों में सब दिन जाता है।
रो-रो गालों को कौन यों भिंगोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
अब बात-बात में जाति चली जाती है
कंपकंपी समंदर लखे हमें आती है
"हरिऔध" समझते हीं फटती छाती है
अपनी उन्नति अब हमें नहीं भाती है।
कोई सपूत कब यह धब्बा धोवेगा।
ऐसा नहीं कोई कहीं गिरा होवेगा।
12. पूर्वगौरव-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बल में विभूति में हमें कौन था पाता।
था कभी हमारा यश वसुधातल गाता।
फरहरा हमारा था नभ में फहराया।
सिर पर सुर पुर ने था प्रसून बरसाया।
था रत्न हमें देता समुद्र लहराया।
था भूतल से कमनीय फूल फल पाया।
हम सा त्रिलोक में सुखित कौन दिखलाता।
था कभी हमारा यश वसुधातल गाता।1।
था एक एक पता पूरा हितकारी।
रजकण से हम को मिली सफलता न्यारी।
कंटक मय महि हो गयी कुसुम की क्यारी।
बन गयी हमारे लिए सुखनि खनि सारी।
था भाग्य हमारा विधि सा भाग्य विधाता।
था कभी हमारा यश वसुधा तल गाता।2।
छूते ही मिट्टी थी सोना बन जाती।
कर परस रसायन रही धूलि कर पाती।
पाहन में पारस की सी कला दिखाती।
तिनके बनते नाना निधियों की थाती।
गुण गौरव था गौरव मय महि का पाता।
था कभी हमारा यश वसुधातल गाता।3।
मरुधारा मधय थे मन्दाकिनी बहाते।
थे दग्ध बनों के बर बारिद बन जाते।
रसहीन थलों में थे रस-सोत लसाते।
ऊसर समूह में थे रसाल उपजाते।
हम सा कमाल का पुतला कौन कहाता।
था सुयश हमारा सब वसुधातल गाता।4।
हम थे अप्रीति के काल प्रीति के प्याले।
हम थे अनीति-अरि नीति-लता के थाले।
हम थे सुरीति के मेरु भीति उर भाले।
हम थे प्रतीति-प्रिय प्रेम-गीति मतवाले।
था सदा हमारा मानस मधु बरसाता।
था सुयश हमारा सब वसुधातल गाता।5।
हम धीर बीर गंभीर बताये जाते।
अभिमत फल हम से सब फल कामुक पाते।
सुख शान्ति सुधा धारा थे हमीं बहाते।
जगती में थे नवजीवन ज्योति जगाते।
नित रहा हमारा मानवता से नाता।
था सुयश हमारा सब वसुधातल गाता।6।
13. खद्योत-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
प्रकृति-चित्र-पट असित-भूत था
छिति पर छाया था तमतोम।
भाद्र-मास की अमा-निशा थी
जलदजाल पूरित था व्योम।
काल-कालिमा-कवलित रवि था
कलाहीन था कलित मयंक।
परम तिरोहित तारक-चय था,
था कज्जलित ककुभ का अंक।1।
दामिनि छिपी निविड़ घन में थी
अटल राज्य तम का अवलोक।
था निशीथ का समय, अवनितल
का निर्वापित था आलोक।
ऐसे कुसमय में तम-वारिधि
मज्जित भूत निचय का पोत।
होता कौन न होता जग में
यदि यह तुच्छ कीट खद्योत।2।
14. मयंक-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
प्रकृति देवि कल मुक्तमाल मणि
गगनांगण का रत्न प्रदीप।
भव्य बिन्दु दिग्वधू भाल का
मंजुलता अवनी अवनीप।
रजनि, सुन्दरी रंजितकारी
कलित कौमुदी का आधार।
बिपुल लोक लोचन पुलकित कर
कुमुदिनि-वल्लभ शोभा सार।1।
रसिक चकोर चारु अवलम्बन
सुन्दरता का चरम प्रभाव।
महिला मुख-मंडल का मंडन
भावुक-मानस का अनुभाव।
रुला रुला कर अवनी-तल को
कर सूना राका का अंक।
काल-जलधि में डूब रहा है
कलाहीन हो कलित मयंक।2।
15. हिन्दी भाषा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।1।
जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला।
जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला।
उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी।
उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी।
जिसके तुतला कर कथन से सुधाधार घर में बही।
क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं।2।
दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन।
जब करते हैं खिन्न बने, मुख भर अवलोकन।
जो भाषा उस समय काम उनके है आती।
जो समस्त भारत भू में है समझी जाती।
उस अति सरला उपयोगिनी हिन्दी भाषा के लिए।
हम में कितने हैं जिन्होंने तन मन धान अर्पण किए।3।
गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया।
औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया।
प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी।
जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी।
हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे।
क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर आँखों पर धारे।4।
करामात जिसमें है चंद-कला दिखलाती।
जिसमें है मैथिल-कोकिल-काकली सुनाती।
सूरदास ने जिसे सुधामय कर सरसाया।
तुलसी ने जिसमें सुर-पादप फलद लगाया।
जिसमें जग पावन पूत तम रामचरित मानस बना।
क्या परम प्रेम से चाहिए उसे न प्रति दिन पूजना।5।
बहुत बड़ा, अति दिव्य, अलौकिक, परम मनोहर।
दशम ग्रंथ साहब समान बर ग्रंथ बिरच कर।
श्रीकलँगीधार ने जिसमें निज कला दिखाई।
जिसमें अपनी जगत चकित कर ज्योति जगाई।
वह हिन्दी भाषा दिव्यता-खनि अमूल्य मणियों भरी।
क्या हो नहिं सकती है सकल भाषाओं की सिर-धारी।6।
अति अनुपम, अति दिव्य, कान्त रत्नों की माला।
कवि केशव ने कलित-कण्ठ में जिसके डाला।
पुलक चढ़ाये कुसुम बड़े कमनीय मनोहर।
देव बिहारी ने जिसके युग कमल पगों पर।
आँख खुले पर वह भला लगेगी न प्यारी किसे।
जगमगा रही है जो किसी भारतेन्दु की ज्योति से।7।
वैष्णव कवि-कुल-मुख-प्रसूत आमोद-विधाता।
जिसमें है अति सरस स्वर्ग-संगीत सुनाता।
भरा देशहित से था जिसके कर का तूँबा।
गिरी जाति के नयन-सलिल में था जो डूबा।
वह दयानन्द नव-युग जनक जिसका उन्नायक रहा।
उस भाषा का गौरव कभी क्या जा सकता है कहा!।8।
महाराज रघुराज राज-विभवों में रहते।
थे जिसके अनुराग-तरंगों ही में बहते।
राजविभव पर लात मार हो परम उदासी।
थे जिसके नागरी दास एकान्त उपासी।
वह हिन्दी भाषा बहु नृपति-वृन्द-पूजिता बंदिता।
कर सकती है उन्नत किये वसुधा को आनंदिता।9।
वे भी हैं, है जिन्हें मोह, हैं तन मन अर्पक।
हैं सर आँखों पर रखने वाले, हैं पूजक।
हैं बरता बादी, गौरव-विद, उन्नति कारी।
वे भी हैं जिनको हिन्दी लगती है प्यारी।
पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी।
हिन्दू-जनता नहिं आज भी हिन्दी के रंग में रँगी।10।
एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े।
पहले तो हिन्दू पढ़ने वाले हैं थोड़े।
पढ़ने वालों में हैं कितने उर्दू-सेवी।
कितनों की हैं परम फलद अंग्रेजी देवी।
कहते रुक जाता कंठ है नहिं बोला जाता यहाँ।
निज आँख उठाकर देखिए हिन्दी-प्रेमी हैं कहाँ?।11।
अपनी आँखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं।
वे कन्दीलें लखीं जो तिमिर बीच बली हैं।
है हिन्दी-आलोक पड़ा पंजाब-धारा पर।
उससे उज्ज्वल हुआ राज्य इन्दौर, ग्वालिअर।
आलोकित उससे हो चली राज-स्थान-बसुंधरा।
उसका बिहार में देखता हूँ फहराता फरहरा।12।
मध्य-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती।
उसकी है बुन्देलखण्ड में प्रभा दिखाती।
वे माई के लाल नहीं मुझ को भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज के से फूले हैं।
कितनी ही आँखें हैं लगी जिन पर आकुलता-सहित।
है जिनके सौरभ रुचिर से सब हिन्दी-जग सौरभित।13।
है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता।
है उसका नूतन विभाग ही सुफल फलाता।
निकल नवल सम्वाद-पत्र चित हैं उमगाते।
नव नव मासिक मेगजीन हैं मुग्ध बनाते।
कुछ जगह न्याय-प्रियतादि भी खुलकर हिन्दी हित लड़ीं।
कुछ अन्य प्रान्त के सुजन की आँखें भी उस पर पड़ीं।14।
किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना।
वह है किसी सरोवर के कुछ बूँदों इतना।
जो शाला, कल्पना-नयन सामने खड़ी है।
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कलका कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला।
हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला फला।15।
बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल।
है पकड़े चल रहा आज भी उरदू-आँचल।
गति, मति उसकी वही जीवनाधार वही है।
उसके उर-तंत्री का धवनि मय तार वही है।
वह रीझ रीझ उसके बदन की है कान्ति विलोकता।
फूटी आँखों से भी नहीं हिन्दी को अवलोकता।16।
मुख से है जातीयता मधुर राग सुनाता।
पर वह है सोहराव और रुस्तम गुण गाता।
उमग उमग है देश-प्रेम की बातें करता।
पर पारस के गुल बुलबुल का है दम भरता।
हम कैसे कहें उसे नहीं हिन्दू-हित की लौ लगी।
पर विजातीयता-रंग में है उसकी निजता रँगी।17।
भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते।
वे ही हैं नव नव भावों की नींव जमाते।
जिस भाषा में विजातीय भाव ही भरे हैं।
उसमें फँस जातीय भाव कब रहे हरे हैं।
है विजातीय भाव ही का हरा भरा पादप जहाँ।
जातीय भाव अंकुरित हो कैसे उलहेगा वहाँ।18।
इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी अवलोके।
जिनकी रुचि प्रतिकूल नहीं रुकती है रोके।
वे होमर, इलियड का पद्य-समूह पढ़ेंगे।
टेनिसन की कविता कहने में उमग बढ़ेंगे।
पर जिसमें धाराएँ विमल हिन्दू-जीवन की बहीं।
वह कविता तुलसी सूर की मुख पर आतीं तक नहीं।19।
मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधी।
चाहिए हो मति निज भाषा भावुकता शोधी।
जहाँ बिलसती हो निज भाषा-रुचि हरियाली।
वही खिलेगी पर-भाषा-प्रियता कुछ लाली।
जातीय भाव बहु सुमन-मय है वर उर उपवन वही।
हों विजातीय कुछ भाव के जिसमें कतिपय कुसुम ही।20।
है उरके जातीय भाव को वही जगाती।
निज गौरव-ममता-अंकुर है वही उगाती।
नस नस में है नई जीवनी शक्ति उभरती।
उस से ही है लहू बूँद में बिजली भरती।
कुम्हलाती उन्नति-लता को सींच सींच है पालती।
है जीव जाति निर्जीव में निज भाषा ही डालती।21।
उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती।
उस से ही है रुचिर चाँदनी तम में खिलती।
उस में ही है विपुल पूर्वतन-बुधा-जन-संचित।
रत्न-राजि कमनीय जाति-गत-भावों अंकित।
कब निज पद पाता है मनुज निजता पहचाने बिना।
नहिं जाती जड़ता जाति की निज भाषा जाने बिना।22।
गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती।
है जिनका इतिहास जाति की प्यारी थाती।
जिनका पूत प्रसंग जाति-हित का है पाता।
जिनका बर गुण बीरतादि है गौरव-दाता।
उनकी सुमूर्ति महिमामयी बंदनीय विरदावली।
निज भाषा ही के अंक में अंकित आती है चली।23।
उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर।
रह सकती है कौन जाति जीती धरती पर।
देखी गयी न जाति-लता वह पुलकित किंचित।
जो निज-भाषा-प्रेम-सलिल से हुई न सिंचित।
कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा।
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।24।
हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने।
निज गौरव जातीय भाव को सब सनमाने।
तम में डूबा उर भी आभा न्यारी पावे।
खुलें बन्द आँखें औ भूला पथ पर आवे।
निज भाषा के अनुराग की बीणा घर घर में बजे।
जीवन कामुक जन सब तजे पर न कभी निजता तजे।25।
16. प्रेम-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
उमंगों भरा दिल किसी का न टूटे।
पलट जायँ पासे मगर जुग न फूटे।
कभी संग निज संगियों का न छूटे।
हमारा चलन घर हमारा न लूटे।
सगों से सगे कर न लेवें किनारा।
फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा।1।
कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे।
उसी के अछूते रसों में पगे थे।
उसी के लगाये हितों में लगे थे।
सभी के हितू थे सभी के सगे थे।
रहे प्यार वाले उसी के सहारे।
बसा प्रेम ही आँख में था हमारे।2।
रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम।
रहे सब तरह के सुखों से हिले हम।
मिलाये, रहे दूध जल सा मिले हम।
बनाते न थे हित हवाई किले हम।
लबालब भरा रंगतों में निराला।
छलकता हुआ प्रेम का था पियाला।3।
रहे बादलों सा बरस रंग लाते।
रहे चाँद जैसी छटाएँ दिखाते।
छिड़क चाँदनी हम रहे चैन पाते।
सदा ही रहे सोत रस का बहाते।
कलाएँ दिखा कर कसाले किये कम।
उँजाला अँधेरे घरों के रहे हम।4।
रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते।
न थे जानवर जानवरपन दिखाते।
लहू-प्यास-वाले, लहू पी न पाते।
बड़े तेजश्-पंजे न पंजे चलाते।
न था बाघपन बाघ को याद होता।
पड़े सामने साँपपन साँप खोता।5।
कसर रख न जीकी कसर थी निकलती।
बला डाल कर के बला थी न टलती।
मसल दिल किसी का, न थी, दाल गलती।
बुरे फल न थी चाह की बेलि फलता।
न थे जाल हम तोड़ते जाल फैला।
धुले मैल फिर दिल न होता था मैला।6।
मगर अब पलट है गया रंग सारा।
बहुत बैर ने पाँव अब है पसारा।
हमें फूट का रह गया है सहारा।
बजा है रहे अनबनों का नगारा।
भँवर में पड़ी, है बहुत डगमगाती।
चलाये मगर नाव है चल न पाती।7।
हमें जाति के प्रेम से है न नाता।
कहाँ वह नहीं ठोकरें आज खाता।
कहीं नीचपन है उसे नोच पाता।
कहीं ढोंग है नाच उसको नचाता।
कभी पालिसी बेतरह है सताती।
कभी छेदती है बुरी छूत छाती।8।
बहुत जातियों की बहुत सी सभाएँ।
बनीं हिन्दुओं के लिए हैं बलाएँ।
विपत, सैकड़ों पंथ मत क्यों न ढाएँ।
अगर एकता रंग में रँग न पाएँ।
कटे चाँद अपनी कला क्यों न खोता।
गये फूट हीरा कनी क्यों न होता।9।
बनाई गयी चार ही जातियाँ हैं।
भलाई भरी वे भली थातियाँ हैं।
किसी एक दल की गिनी पाँतियाँ हैं।
भरी एकता से कई छातियाँ हैं।
मगर बँट गये तंग बन तन गयी हैं।
किसी कोढ़ की खाज वे बन गयी हैं।10।
अगर लोग निज जाति को जाति जानें।
बने अंग के अंग, तन को न मानें।
लड़ी के लिए लड़ पड़ें भौंह तानें।
न माला न मोती न लें चीन्ह खानें।
भला तो सदा मुँह पिटेंगे न कैसे।
कलेजे में काँटे छिटेंगे न कैसे।11।
सभी जाति है राग अपना सुनाती।
उमंगों भरे है बहुत गीत गाती।
बता भेद, है गत अनूठे बजाती।
मगर धुन किसी की नहीं मेल खाती।
सभी की अलग ही सुनाती हैं तानें।
लयें बन रही हैं कुटिलता की कानें।12।
बड़े काम की बन बहुत काम आती।
सभा जो सभी जातियों को मिलाती।
मगर आग है वह घरों में लगाती।
वही एकता का गला है दबाती।
उसी ने बचे प्रेम को पीस डाला।
उसी ने हितों का दिवाला निकाला।13।
बरहमन बड़े घाघ, छत्री छुरे हैं।
कुटिल वैस हैं, शूद्र सब से बुरे हैं।,
यही गा रहे आज बन बेसुरे हैं।
गये प्रेम के टूट सारे धुरे हैं।
किसी से किसी का नहीं दिल मिला है।
जहाँ देखिए एक नया गुल खिला है।14।
कहीं रंग में मतलबों के रँगा है।
कहीं लाभ की चाशनी में पगा है।
कहीं छल कपट औ कहीं पर दगा है।
कहीं लाग के लाग से वह लगा है।
कहीं प्रेम सच्चा नहीं है दिखाता।
समय नित उसे धूल में है मिलाता।15।
बही प्रेम धारा पटी जा रही है।
पली बेलि हित की कटी जा रही है।
बँधी धाक सारी घटी जा रही है।
बँची एकता नित लटी जा रही है।
गयी बे तरह मूँद कर आँख लूटी।
बला हाथ से जाति अब भी न छूटी।16।
करोड़ों मुसलमान बन छोड़ बैठे।
कई लाख, नाता बहँक तोड़ बैठे।
अहिन्दू कहा, मुँह बहुत मोड़ बैठे।
कई आज भी हैं किये होड़ बैठे।
उबर कर उबरते नहीं हैं उबारे।
नहीं कान पर रेंगती जूँ हमारे।17।
अगर नाम हिन्दू हमें है न प्यारा।
गरम रह गया जो न लोहू हमारा।
अगर आँख का है चमकता न तारा।
अगर बन्द है हो गयी प्रेम-धारा।
बहुत ही दले जायँगे तो न कैसे।
रसातल चले जायँगे तो न कैसे।18।
मगर आँख कोई नहीं खोल पाता।
कलेजा किसी का नहीं चोट खाता।
किसी का नहीं जी तड़पता दिखाता।
लहू आँख से है किसी के न आता।
चमक खो, बिखर है रहा हित-सितारा।
उजड़ है रहा प्रेम-मन्दिर हमारा।19।
बहुत कह गये अब अधिक है न कहना।
बढ़ाएँगे अब हम न अपना उलहना।
भला है नहीं बन्द कर आँख रहना।
उसे क्यों सहें चाहिए जो न सहना।
मिलें खोल कर दिल दिलों को मिलाएँ।
जगें और जग हिन्दुओं को जगाएँ।20।
17. घनश्याम-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
श्याम रंग में तो न रँगे हो जो अन्तर रखते हो श्याम।
तो जलधार हो नहीं विरह-दव में जो जल जल जीवें बाम।
जीवनप्रद हो तभी करो जो तुम चातक को जीवन दान।
कैसे सरस कहें हम तुमको ऊसर हुआ न जो रसवान।1।
कैसे हो परजन्य, वियोगी जन को जो हो दुखद वियोग।
पयद न हो जो दल जवास का पला न कर उसका उपयोग।
बने पयोधार पर न सके कर पय प्रेमिक-मराल प्रतिपाल।
बिलसित रहे बहन कर उर पर आप बलाका मंजुल माल।2।
बहुधा करते हो बसुधा का बिपुल उपल द्वारा अपकार।
इसीलिए कर घोर नाद हो सहते दामिनि-कशा-प्रहार।
उमड़ उमड़ बर बारिबाह बन हो भर देते सरि सर ताल।
रहता है प्यासे पपीहरा को कतिपय बूँदों का काल।3।
अशनि-पात-प्रिय, अधार-विलंबी, करक-निकेतन, दानव-देह।
हो तुम मशक-दंश-अवलम्बन तुम्हें कुटिल अहिका है नेह।
रहे भरे ही को जो भरते बरस बारि-निधि में बसु याम।
तो नभतल में घरी घरी घिर रहे घूमते क्या घनश्याम।4।
18. मीठी बोली-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बस में जिससे हो जाते हैं प्राणी सारे।
जन जिससे बन जाते हैं आँखों के तारे।
पत्थर को पिघलाकर मोम बनानेवाली
मुख खोलो तो मीठी बोली बोलो प्यारे।
रगड़ो, झगड़ो का कडुवापन खोनेवाली।
जी में लगी हुई काई को धानेवाली।
सदा जोड़ देनेवाली जो टूटा नाता
मीठी बोली प्यार बीज है बोनेवाली।
काँटों में भी सुंदर फूल खिलानेवाली।
रखनेवाली कितने ही मुखड़ों की लाली।
निपट बना देनेवाली है बिगड़ी बातें
होती मीठी बोली की करतूत निराली।
जी उमगानेवाली चाह बढ़ानेवाली।
दिल के पेचीले तालों की सच्ची ताली।
फैलानेवाली सुगंध सब ओर अनूठी
मीठी बोली है विकसित फूलों की डाली।
19. आँसू और आँखें-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
दिल मचलता ही रहता है ।
सदा बेचैनी रहती है ।
लाग में आ आकर चाहत ।
न जाने क्या क्या कहती है ।1।
कह सके यह कोई कैसे ।
आग जी की बुझ जाती है ।
कौन सा रस पाती है जो ।
आँख आँसू बरसाती है ।2।
20. जागो प्यारे-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
उठो लाल, अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो।
बीती रात, कमल-दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूले।
चिड़ियाँ चहक उठीं पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुआ, सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुंदर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
21. फूल-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
रंग कब बिगड़ सका उनका
रंग लाते दिखलाते हैं ।
मस्त हैं सदा बने रहते ।
उन्हें मुसुकाते पाते हैं ।1।
भले ही जियें एक ही दिन ।
पर कहा वे घबराते हैं ।
फूल हँसते ही रहते हैं ।
खिला सब उनको पाते हैं ।2।
22. अभेद का भेद-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
खोजे खोजी को मिला क्या हिन्दू क्या जैन।
पत्ता पत्ता क्यों हमें पता बताता है न।1।
रँगे रंग में जब रहे सकें रंग क्यों भूल।
देख उसी की ही फबन फूल रहे हैं फूल।2।
क्या उसकी है सोहती नहीं नयन में सोत।
क्या जग में है जग रही नहीं जागती जोत।3।
पूजन जोग जिसे कहें पूजित-जन बनदास।
उसे नहीं जो पूजते तो क्यों पूजेआस।4।
आव भगत उसका करें पूजें पाँव सचाव।
सब से ऊँचा जो रहा रख कर ऊँचे भाव।5।
बिना बीज क्यों बेलि हो बिना तिलों क्यों तेल।
किसी खिलाड़ी के बिना है न जगत का खेल।6।
क्या निर्गुण है? है भला किसको निर्गुण ज्ञान।
गुण वाले जो कर सकें करें सगुण गुण ज्ञान।7।
चित भीतर ही है नहीं जो चित रहे सचेत।
कला दिखाता क्या नहीं बाहर कलानिकेत।8।
विपुल बीज अंकुरित हो अंकुर सकल समेत।
हैं हरि पता बता रहे हरे भरे सब खेत।9।
जोत नहीं तम में मिली लाखों बार टटोल।
भेद भला कैसे खुले सके न आँखें खोल।10।
23. बन-कुसुम-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
एक कुसुम कमनीय म्लान हो सूख विखर कर।
पड़ा हुआ था धूल भरा अवनीतल ऊपर।
उसे देख कर एक सुजन का जी भर आया।
वह कातरता सहित वचन यह मुख पर लाया।1।
अहो कुसुम यह सभी बात में परम निराला।
योग्य करों में पड़ा नहीं बन सका न आला।
जैसे ही यह बात कथन उसने कर पाई।
वैसे ही रुचिकरी-उक्ति यह पड़ी सुनाई।2।
देख देख मुख हृदय-हीन-जन अकुलाने से।
दबने छिदने बँधाने बिधाने नुच जाने से।
कहीं भला है अपने रँग में मस्त दिखाना।
अंत-समय हो म्लान विजन-बन में झड़ जाना।3।
कहा सुजन ने कहाँ नहीं दुख-बदन दिखाता।
बन में ही क्या कुसुम नहीं दल से दब जाता।
काँटों से क्या कभी नहीं छिदता बिधाता है।
क्या जालाओं बीच विवश लौं नहिं बँधाता है।4।
कीड़ों से क्या कभी नहीं वह नोचा जाता।
मधुप उसे क्या बार बार नहिं विकल बनाता।
ओले पड़ कर विपत नहीं क्या उस पर ढाते।
चल प्रतिकूल समीर क्या नहीं उसे कँपाते।5।
कहीं भला है अपने रँग में मस्त दिखाना।
पर उससे है भला लोकहित में लग जाना।
मरने को तो सभी एक दिन है मर जाता।
पर मरना कुछ हित करते, है अमर बनाता।6।
यदि बाटिका-प्रसून टूटते ही कुम्हलाता।
छिदते बिधाते बंधान में पड़ते अकुलाता।
कभी नहीं तो राजमुकुट पर शोभा पाता।
न तो चढ़ाया अमरवृन्द के शिर पर जाता।7।
बिकच बदन है विपल काल में भी दिखलाता।
इसीलिए वह विपुल-हृदय में है बस जाता।
देख कठिनता-बदन बदन जिसका कुम्हलाया।
कब वसुधा में सिध्दि समादर उसने पाया।8।
बन-प्रसून-पंखड़ी कभी जो थी छबि थाती।
मिट्टी में है छीज छीज कर मिलती जाती।
यही योग्य कर में पड़ कर उपकारक होती।
रोगी जन का रोग ओषधी बन कर खोती।9।
मिल कर तिल के साथ सुवासित तेल बनाती।
कितने शिर की व्यथा दूर कर के सरसाती।
इस प्रकार वह भले काम ही में लग पाती।
बन-प्रसून की सफल चरम गति भी हो जाती।10।
जो जग-हित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोक-हित में लग जाता।
वह चाहे तृण तरु खग मृग चाहे होवे नर।
उसका ही है जन्म सफल है वही धन्यतर।11।
24. सेवा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
देख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में।
छबि पाई भर विपुल-विभा नीलाभ-गगन में।
बर-आभा कर दान ककुभ को दुति से दमकी।
अन्तरिक्ष को चारु ज्योतिमयता दे चमकी।
कर संक्रान्ति गिरि-सानु-सकल को कान्त दिखाई।
शोभितकर तरुशिखा निराली-शोभा पाई।
कलित बना कर कनक कलश को हुई कलित-तर।
समधिक-धवलित सौधा-धाम कर बनी मनोहर।
लता बेलि को परम-ललित कर लही लुनाई।
कुसुमावलि को विकच बना विकसित दिखलाई।
ज्वलित हुई कर सरित-सरोवर-सलिल समुज्ज्वल।
उठी जगमगा परम-प्रभामय कर अवनीतल।
निज सेवा फल से ही हुई प्रात की किरण प्रति फलित।
विकसित सरसित सफलित लसित सम्मानित आभा बलित।
25. सेवा-1-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जो मिठाई में सुधा से है अधिक।
खा सके वह रस भरा मेवा नहीं।
तो भला जग में जिये तो क्या जिये।
की गयी जो जाति की सेवा नहीं।1।
हो न जिसमें जातिहित का रंग कुछ।
बात वह जी में ठनी तो क्या ठनी।
हो सकी जब देश की सेवा नहीं।
तब भला हमसे बनी तो क्या बनी।2।
बेकसों की बेकसी को देख कर।
जब नहीं अपने सुखों को खो सके।
तब चले क्या लोग सेवा के लिए।
जब न सेवा पर निछावर हो सके।3।
तो न पाया दूसरों का दुख समझ।
दीन दुखियों का सके जो दुख न हर।
भाव सेवा का बसा जी में कहाँ।
बेबसों का जो बसा पाया न घर।4।
उस कलेजे को कलेजा क्यों कहें।
हों नहीं जिसमें कि हित धारें बहीं।
भाव सेवा का सके तब जान क्या।
कर सके जो लोक की सेवा नहीं।5।
26. पुण्य-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
सलिलाहै पुनीत कल्लोल सकल कलिकलुष-विदारी।
है करती शुचि लोल लहर सुरलोक-बिहारी।
भूरि भाव मय अभय भँवर है भवभय खोती।
अमल धावल जलराशि है समल मानस धाोती।
बहुपूत चरित विलसित पुलिन है पामरता-पुंज यम।
है विमल बालुका पाप-कुल-कदन काल-करवाल सम।1।
वन्दनीयतम वेद मंत्रा से है अभिमंत्रिात।
आगम के गुणगान-मंच पर है आमंत्रिात।
वाल्मीक की कान्त उक्ति से है अभिनन्दित।
भारत के कविता-कलाप द्वारा है वन्दित।
नाना-पुराण यश-गान से है महान-गौरव भरी।
सुरलोक-समागत शुचि-सलिल भूसुर-सेवित-सुरसरी।2।
पाहन उर से हो प्रसूत सुरधाुनि की धारा।
द्रवीभूत है परम, मृदुलता-चरम-सहारा।
रज-लुंठित हो रुचिर-रजत-सम कान्तिवती है।
असरल-गति हो सहज-सरलता-मूर्तिमती है।
हो निम्न-गामिनी कर सकी हिमगिरि-शिर ऊँचा परम।
संगम द्वारा उसके हुआ पतित-पयोनिधिा पूज्यतम।3।
ब्रज-भू ब्रजवल्लभ पुनीत रस से बहु-सरसी।
है कलिन्द-नन्दिनी अंक में उसके बिलसी।
अवधा अवधापति वर-विभूति से भूतिवती बन।
सरयू उसमें हुई लीन कर के विलीन तन।
भारत-गौरव नरदेव के गौरव से हो गौरवित।
कर सुर समान बहु असुर को अवनि लसि है सुरसरित।4।
जो यह भारत-धारा न सुर धाुनि-धारा पाती।
सुजला सुफला शस्य-श्यामला क्यों कहलाती।
उपबन अति-रमणीय विपिन नन्दन-बन जैसे।
कल्प-तुल्य पादप-समूह पा सकती कैसे।
बिलसित उसमें क्यों दीखते अमरावति ऐसे नगर।
जिनकी विलोक महनीयता मोहित होते हैं अमर।5।
है वह माता दयामयी ममता में माती।
है अतीव-अनुराग साथ पय-मधाुर पिलाती।
भाँति भाँति के अन्न अनूठे फल है देती।
रुज भयावने निज प्रभाव से है हर लेती।
कानों में परम-विमुग्धा-कर मधाुमय-धवनि है डालती।
कई कोटि संतान को प्रतिदिन है प्रतिपालती।6।
भूतनाथ किस भाँति भवानी-पति कहलाते।
पामर-परम, पुनीत-अमर-पद कैसे पाते।
आर्य-भूमि में आर्य-कीर्ति-धारा क्यों बहती।
तीर्थराजता तीर्थराज में कैसे रहती।
क्यों सती के सदृश दूसरी दुहिता पाता हिम अचल।
क्यों कमला के बदले जलधिा पाता हरिपद कमलजल।7।
राजा हो या रंक अंक में सब को लेगी।
चींटी को भी नीर चतुर्मुख के सम देगी।
काँटों से हो भरी कुसुम-कुल की हो थाती।
सभी भूमि पर सुधाातुल्य है सुधाा बहाती।
जीते है जीवन-दायिनी अमर बनाती है मरे।
जो तरे न तारे और के वे सुरसरि तारे तरे।8।
चतुरानन ने उसे चतुरता से अपनाया।
पंचानन ने शिर पर आदर सहित चढ़ाया।
सहस-नयन के सहस-नयन में रही समाई।
लाखों मुख से गयी गुणावलि उसकी गाई।
कर मुक्ति-कामना कूल पर कई कोटि मानव मरे।
पीपी उसका पावन-सलिल अमित-अपावन हैं तरे।9।
फैली हिमगिरि से समुद्र तक सुरसरि धारा।
काम हमारा सदा साधा सकती है सारा।
विपुल अमानव का वह मानव कर लेवेगी।
जीवित जाति समान सबल जीवन देवेगी।
जो बल हो बुध्दि विवेक हो वैभव हो विश्वास हो।
तो क्यों न बनें सुरतुल्य हम क्यों न स्वर्ग आवास हो।10।
27. भगवती भागीरथी-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कलित-कूल को धवनित बना कल-कल-धवनि द्वारा।
विलस रही है विपुल-विमल यह सुरसरि-धारा।
अथवा सितता-सदन सतोगुण-गरिमा सारी।
ला सुरपुर से सरि-स्वरूप में गयी पसारी।
या भूतल में शुचिता सहित जग-पावनता है बसी।
या भूप-भगीरथ-कीर्ति की कान्त-पताका है लसी।1।
बूँद बूँद में वेद-वैद्युतिक-शक्ति भरी है।
अर्थ-ललित-लीला-निकेत सारी-लहरी है।
भारतीय-सभ्यता-पीठ है पूत-किनारा।
है हिन्दू-जातीय-भाव का सोत-सहारा।
जीवन है आश्रम-धर्म का जद्दुसुता-जीवन बिमल।
है एक एक बालुका-कण भुक्ति मुक्ति का पुण्य-थल।2।
वैदिक-ऋषि के बर-विवेक-पादप का थाला।
बुध्ददेव के धर्म-चक्र का धुरा निराला।
भारतीय आदर्श-विभाकर का उदयाचल।
कोटि-कोटि जन भक्ति भाव वैभव का सम्बल।
है व्यासदेव सान्तनु-सुअन से महान जन का जनक।
सुरसरि-प्रवाह है सिध्दि का साधन कल-कृति-खनि कनक।3।
वह हिन्दू-कुल कलित कीर्ति की कल्पलता है।
मानवता-ममता-सुमूर्ति की मंजुलता है।
अपरिसीम-साहस-सुमेरु की है सरि-धारा।
है महान-उद्योग-देव दिवि-गौरव-दारा।
जातीय अलौकिक-चिन्ह है आर्य-जाति उत्फुल्लकर।
सुख्याति मालती-माल है बहु-विलसित शिव-मौलि पर।4।
वह अब भी है बिपुल-जीवनी-शक्ति बितरती।
रग रग में है आर्य जाति के बिजली भरती।
उसका जय जय तुमुलनाद है गगन विदारी।
रोम रोम में जन जन के साहस-संचारी।
प्रति वर्ष हो मिलित है उसे जन-समूह आराधाता।
इक्कीस कोटि को नाम है एक-सूत्रा में बाँधाता।5।
वह सुधिा है उस आत्म-शक्ति की हमें दिलाती।
जो हरि-पद में लीन ललित-गति को है पाती।
महि-मण्डल में ब्रह्म-कमण्डल-जल जो लाई।
शिव-शिर विलसित वर-विभूति जिसने अपनाई।
जिसके लाये जलधाार ने भारत-धारा पुनीत की।
जो धाूलि-भूत बहु मनुज को पहुँचा सुरपुर में सकी।6।
वह है महिमा मयी देव महिदेव समर्चित।
कुसुम-दाम-कमनीय चारु-चन्दन से चर्चित।
किन्तु सरस है एक एक रज-कण को करती।
मिल मिल कर है मलिन से मलिन का मल हरती।
करती है कितनी अवनि को कनक-प्रसू कर रज-वहन।
दे जीवन जनहित के लिए कर विभक्त यजनीय-तन।7।
है अवगत पर कहाँ हमें है महिमा अवगत।
यदि उन्नत हिन्दू-समाज होता है अवनत।
होते घर में पतितपावनी सुरसरि-धारा।
कह अछूत हम क्यों अछूत से करें किनारा।
कैसे न रसातल जायँगे हित हमको प्यारा नहीं।
है छूतछात से मिल सका छिति में छुटकारा नहीं।8।
पूत सदा लाखों अपूत करे कर सकते हैं।
बहु-अछूत की छूतछात को हर सकते हैं।
कभी बिछुड़तों को न छोड़ना हमको होगा।
मुँह जीवन से नहीं मोड़ना हमको होगा।
जो समझें अपनी भूल को लाग लगे की लाग हो।
जो हमें देश का धार्म का सुरसरि का अनुराग हो।9।
क्यों गौरव का गान करें गौरव जो खोवें।
करें भक्ति क्यों जो न भक्त हम जी से होवें।
पतित जो न हों पूत पतितपावनी कहें क्यों।
छू छू पावन सलिल अछूत अछूत रहें क्यों।
तो कहाँ हमारी भावना भले भाव से है भरी।
जो स्वर्ग सदृश नहिं कर सकी सकल देश को सुरसरी।10।
28. बनलता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुसुम वे उस में बिकसे रहें।
बिकसिता जिस से सु बिभूति हो।
बस सदा जिन के बर-बास से।
बन सके अनुभूति सुबासिता।1।
बहु-विमोहक हो छबि-माधुरी।
मिल गये अनुकूल-ललामता।
सरसता उस की करती रहे।
सरस मानस को अभिनन्दिता।2।
सब दिनों अनुराग-समीर के।
सुपलने पर हो प्रतिपालिता।
बहु-समादर के कर-कंज से।
वह रहे सब काल समादृता।3।
उस मनोरम-पादप-अंक में।
वह रहे लसती चित-मोहती।
विदित है जिस की सहकारिता।
बिकचता मृदुता हितकारिता।4।
नवलता भुवि हो बर-भाव की।
मृदुलता उस की मधुसिक्त हो।
सफलता बसुधा-तल में लहे।
वनलता बन मंजुलता-मयी।5।
रस मिले, सरसा बन सौगुनी।
बिलस मंजु-बिलासवती बने।
कर विमुग्ध सकी किस को नहीं।
कुसुमिता - नमिता - बनिता - लता।6।
यदि नहीं पग बन्दित पूज के।
अवनि में अभिनन्दित हो सकी।
विफलिता तब क्यों बनती नहीं।
बनलता - कलिता - कुसुमावली।7।
सरसता उस में वह है कहाँ।
वह मनोहरता न उसे मिली।
बन सकी मुदिता बनिता नहीं।
बिकसिता लसिता बन की लता।8।
विकच देख उसे बिकसी रही।
सह सकी हिम आतप साथ ही।
पति-परायणता-व्रत में रता।
बनलता - तरु - अंक - विलम्बिता।9।
वह सदा परहस्त-गता रही।
यह रही निजता अवलम्बिनी।
उपबनोपगता बनती नहीं।
बनलता बन-भू प्रतिपालिता।10।
झड़ पड़ी, न रुची हित-कारिता।
यजन में न लगी यजनीय के।
सुमनता उसमें यदि है न तो।
बनलता-सुमनावलि है वृथा।11।
कब नहीं भरता वह भाँवरें।
चित चुरा न सकी कब चारुता।
कब बसी अलि लोचन में न थी।
बनलता कुसुमावलि से लसी।12।
विलसती वह है बस अंक में।
बिकच है बनती बन संगिनी।
सफलता अवलम्बन से मिली।
बनलता तरु है तब लालिता।13।
उपल कोमलता प्रतिकूल है।
अशनिपात निपातन तुल्य है।
बरस जीवन जीवन दे उसे।
बनलता घन है तन पालिता।14।
बनलता यदि है तरु-बन्दिनी।
लसित क्या दल-कोमल से हुई।
किसलिए वर-बास-सुबासिता।
कुसुमिता फलिता कलिता रही।15।
29. परिवर्तन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
तिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता।
गत विभावरी हुए विभा बासर है पाता।
टले मलिनता सकल दिशा है अमलिन होती।
भगे तमीचर, नीरवता तमचुर-धवनि खोती।
है वहाँ रुचिरता थीं जहाँ धाराएँ अरुचिर बहीं।
कब परिवर्तन-मय जगत में परिवर्तन होता नहीं।1।
परिवर्तन है प्रकृति नियम का नियमन कारक।
प्रवहमान जीवन प्रवाह का पथ बिस्तारक।
परिवर्तन के समय जो न परिवर्तित होगा।
साथ रहेगा अहित, हित न उसका हित होगा।
यदि शिशिर काल में तरु दुसह दल निपात सहते नहीं।
तो पा नव पल्लव फूल फल समुत्फुल्ल रहते नहीं।2।
किन्तु समय अनुकूल नहिं हुए परिवर्तित हम।
भूल रहे हैं अधमाधम को समझ समुत्ताम।
अति असरल है सरल से सरल गति कहलाती।
सुधा गरल को परम तरल मति है बतलाती।
हैं बिकच कुसुम जो काम के अब न काम के वे रहे।
हैं झोंके तपऋतु पवन के मलय मरुत जाते कहे।3।
जो कुचाल हैं हमें चाव की बात बतातीं।
जो रस्में हैं हमें रसातल को ले जातीं।
जो कुरीति है प्रीति प्रतीति सुनीति निपाती।
जो पध्दति है विपद बीज बो बिपद बुलाती।
छटपटा छटपटा आज भी हम उस से छूटे नहीं।
हैं जिन कुबंधनों में बँधो वे बंधन टूटे नहीं।4।
जीवन के सर्वस्व जाति नयनों के तारे।
भोले भाले भले बहुत से बंधु हमारे।
तज निज पावन अंक अंक में पर के बैठे।
निज दल का कर दलन और के दल में पैठे।
पर खुल खुलकर भी अधखुले लोचन खुल पाये नहीं।
धुल धुलकर भी धब्बे बुरे अब तक धुल पाये नहीं।5।
कहीं लाल हैं ललक ललक कर लूटे जाते।
ललनाओं पर कहीं लोग हैं दाँत लगाते।
कहीं आँख की पुतली पर लगते हैं फेरे।
कहीं कलेजे काढ़ लिये जाते हैं मेरे।
गिरते गिरते इतना गिरे गुरुताएँ सारी गिरीं।
पर फिर फिर के आज भी आँखें हैं न इधर फिरीं।6।
जिस अछूत को छूतछात में पड़ नहिं छूते।
उसके छय हो गये रहेंगे हम न अछूते।
छिति तल से जो छूत हमारा नाम मिटावे।
चाहिए उसकी छाँह भी न हम से छू जावे।
पर छुटकारा अब भी नहीं छूतछात से मिल सका।
छल का प्याला है छलकता छिल न हमारा दिल सका।7।
केवल व्यय से धान कुबेर निर्धन होवेगा।
केवल बरसे बारि-राशि बारिद खोवेगा।
बिना जलागम जल सूखे सूखेगा सागर।
वंशवृध्दि के बिना अवनि होगी बिरहित नर।
वह जाति ध्वंस हो जायगी जो दिन है छीजती।
होगा न जाति का हित बिना बने जाति हित ब्रत ब्रती।8।
हम में परिवर्तन पर हैं परिवर्तन होते।
पर वे हैं जातीय भाव गौरव को खोते।
वह परिवर्तन जो कि जाति का पतनरे।
हुआ नयन गोचर न नयन बहुबार पसारे।
मिल सकी न वह जीवन जड़ी जो सजीव हम को करे।
वह ज्योति नहीं अब तक जगी जो जग मानस तम हरे।9।
मुनिजन वचन महान कल्पतरु से हैं कामद।
उनके विविध विधान हैं फलद मानद ज्ञानद।
वसुधा ममतामयी सुधासी जीवन-दाता।
उनकी परम उदार उक्ति भव शान्ति विधाता।
बहु अशुचि रीति से अरुचि से अरुचिर रुचि से है दलित।
मंदार मंजुमाला नहीं मानी जाती परिमलित।10।
विविध वेदविधि क्या न बहु अविधि के हैं बाधक।
सकल सिध्दि की क्या न साधनाएँ हैं साधक।
क्या जन जन में रमा नहीं है राम हमारा।
क्या विवेक बलबुध्दि का न है हमें सहारा।
क्या पावन मंत्रों में नहीं बहु पावनता है भरी।
क्या भारत में बिलसित नहीं पतितपावनी सुरसरी।11।
यदि है जी में चाह जगत में जीयें जागें।
तो हो जावें सजग शिथिलता जड़ता त्यागें।
मनोमलिनता आतुरता कातरता छोड़ें।
मुँह न एकता समता जन-ममता से मोड़ें।
बहुविघ्न-मेरु-कुल को करें चूर चूर बर-बज्र बन।
हो त्रि-नयन नयन दहन करें सकल अमंगल अतनतन।12।
प्रभो जगत जीवन विधायिनी जाति-हमारी।
हो मर्यादित बचा बचा मर्यादा सारी।
सकल सफलता लहे विफलता मुख न बिलोके।
दिन दिन सब अवलोकनीय सुख को अवलोके।
जब लौं नभतल के अंक में यह भारत भूतल पले।
तब लौं कर कीर्ति कुसुम चयन फबे फैल फूले फले।13।
30. मनोव्यथा-1
कुम्हला गया हमारा फूल।
अति सुन्दर युग नयन-बिमोहन जीवन सुख का मूल।
विकसित बदन परम कोमल तन रंजित चित अनुकूल।
अहह सका मन मधुप न उसकी अति अनुपम छबि भूल।1।
बंद हुई ऑंखों को खोलो।
अभी बोलते थे तुम प्यारे बोलो बोलो कुछ तो बोलो।
देखो भाग न मेरा सोवे चाहे मीठी नींदों सो लो।
एक तुम्हीं हो जड़ी सजीवन हाथ न तुम जीवन से धो लो।2।
खोजें तुम्हें कहाँ हम प्यारे।
ए मेरे जीवन-अवलम्बन ए मेरे नयनों के तारे।
नहीं देखते क्यों दुख मेरा मुझ दुखिया के एक सहारे।
ललक रहे हैं लोचन पल पल मुख दिखला जा लाल हमारे।3।
इतने बने लाल क्यों रूखे।
तुम सा रुचिर रत्न खो करके आज हुए हम खूखे।
कैसे बिकल बनें न बिलोचन छबि अवलोकन भूखे।
मृतक न क्यों मन-मीन बनेगा प्रेम-सरोवर सूखे।4।
प्यारे कैसे मुँह दिखलाएँ।
लेती रही बलैया सब दिन ले नहिं सकीं बलाएँ।
जिस पर भूली रही भूल है उसे भूल जो पाएँ।
अधिक है जीवन धन बिन जग में जो जीवित रह जाए।5।
31. मर्म-व्यथा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कहाँ गया तू मेरा लाल।
आह! काढ़ ले गया कलेजा आकर के क्यों काल।
पुलकित उर में रहा बसेरा।
था ललकित लोचन में देरा।
खिले फूल सा मुखड़ा तेरा।
प्यारे था जीवन-धान मेरा।
रोम रोम में प्रेम प्रवाहित होता था सब काल।1।
तू था सब घर का उँजियाला।
मीठे बचन बोलने वाला।
हित-कुसुमित-तरु सुन्दर थाला।
भरा लबालब रस का प्याला।
अनुपम रूप देखकर तेरा होती विपुल निहाल।2।
अभी आँख तो तू था खोले।
बचन बड़े सुन्दर थे बोले।
तेरे भाव बड़े ही भोले।
गये मोतियों से थे तोले।
बतला दे तू हुआ काल कवलित कैसे तत्काल।3।
देखा दीपक को बुझ पाते।
कोमल किसलय को कुँभलाते।
मंजुल सुमनों को मुरझाते।
बुल्ले को बिलोप हो जाते।
किन्तु कहीं देखी न काल की गति इतनी बिकराल।4।
चपला चमक दमक सा चंचल।
तरल यथा सरसिज-दल गत जल।
बालू-रचित भीत सा असफल।
नश्वर घन-छाया सा प्रतिपल।
या इन से भी क्षणभंगुर है जन-जीवन का हाल।5।
आकुल देख रहा अकुलाता।
मुझ से रहा प्यार जतलाता।
देख बारि नयनों में आता।
तू था बहुत दुखी दिखलाता।
अब तो नहीं बोलता भी तू देख मुझे बेहाल।6।
तेरा मुख बिलोक कुँभलाया।
कब न कलेजा मुँह को आया।
देख मलिन कंचन सी काया।
विमल विधाु-वदन पर तम छाया।
कैसे निज अचेत होते चित को मैं सकूँ सँभाल।7।
ममता मयी बनी यदि माता।
क्यों है ममता-फल छिन जाता।
विधि है उर किस लिए बनाता।
यदि वह यों है बिधा विधा पाता।
भरी कुटिलता से हूँ पाती परम कुटिल की चाल।8।
किस मरु-महि में जीवन-धारा।
किस नीरवता में रव प्यारा।
किस अभाव में स्वभाव सारा।
किस तम में आलोक हमारा।
लोप हो गया, मुझ दुखिया को दुख-जल-निधि में डाल।9।
आज हुआ पवि-पात हृदय पर।
सूखा सकल सुखों का सरवर।
गिरा कल्प-पादप लोकोत्तर।
छिना रत्न-रमणीय मनोहर।
कौन लोक में गया हमारा लोक-अलौकिक बाल।10।
32. चन्दा मामा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
चन्दा मामा दौड़े आओ,
दूध कटोरा भर कर लाओ ।
उसे प्यार से मुझे पिलाओ,
मुझ पर छिड़क चाँदनी जाओ ।
मैं तैरा मृग छौना लूँगा,
उसके साथ हँसूँ खेलूँगा ।
उसकी उछल कूद देखूँगा,
उसको चाटूँगा चूमूँगा ।
33. आँसू-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बाढ़ में जो बहे न बढ़ बोले।
किसलिए तो बहुत बढ़े आँसू।
जो कलेजा न काढ़ पाया तो।
किसलिए आँख से कढ़े आँसू।1।
अड़ अगर बार बार अड़ती है।
तो रहे क्यों नहीं अडे आँसू।
जो निकाले न जी कसर निकली।
आँख से क्यों निकल पड़े आँसू।2।
फेर में डालते हमें जो थे।
तो फिराये न क्यों फिरे आँसू।
जो किसी आँख से गये गिर तो।
किसलिए आँख से गिरे आँसू।3।
जान जिन में है जान वाले वे।
हैं गिराते न जी गये आँसू।
प्यास थी आबरू बचाने की।
फिर अजब क्या कि पी गये आँसू।4।
हैं उन्हें देख आग लग जाती।
कब जलाते नहीं रहे आँसू।
टूटता बेतरह कलेजा है।
फूटती आँख है बहे आँसू।5।
जो सकें सींच सींच तो देवें।
किसलिए प्यार जड़ खनें आँसू।
जी जलों का न जी जलाएँ वे।
हैं अगर जल तो जल बनें आँसू।6।
हैं छलकते उमड़ उमड़ आते।
देख नीचा नहीं डरे आँसू।
आँख कैसे नहीं तरह देती।
बेतरह आज हैं भरे आँसू।7।
चाल वाले न कब चले चालें।
चोचलों साथ चल पड़े आँसू।
मनचलापन दिखा दिखा अपना।
मनचलों से मचल पड़े आँसू।8।
खर खलों के मिले जलन से जल।
आग जैसे न क्यों बले आँसू।
जो कि हैं जी जला रहे उनको।
क्यों जलाते नहीं जले आँसू।9।
जो उन्हें था बखेरना काँटा।
किसलिए तो बिखर पड़े आँसू।
क्यों किसी आँख से निकल कर के।
क्यों किसी आँख में गड़े आँसू।10।
34. उलहना-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
वही हैं मिटा देते कितने कसाले।
वही हैं बड़ों की बड़ाई सम्हाले।
वही हैं बड़े औ भले नाम वाले।
वही हैं अँधेरे घरों के उँजाले।
सभी जिनकी करतूत होती है ढब की।
जो सुनते हैं, बातें ठिकाने की सब की।1।
बिगड़ती हुई बात वे हैं बनाते।
धधकती हुई आग वे हैं बुझाते।
बहकतों को वे हैं ठिकाने लगाते।
जो ऐंठे हैं उनको भी वे हैं मनाते।
कुछ ऐसी दवा हाथ उनके है आई।
कि धुल जाती है जिससे जी की भी काई।2।
भलाई को वे हैं बहुत प्यार करते।
खरी बात सुनने से वे हैं न डरते।
कभी वाजिबी बात से हैं न टरते।
सचाई का दम बेधाड़क वे हैं भरते।
वे बारीकियों में भी हैं पैठ जाते।
बहुत डूब वे तह की मिट्टी हैं लाते।3।
नहीं करते वे देश-हित से किनारा।
नहीं मिलता अनबन को उनसे सहारा।
बड़ी धुन से बजता है उनका दुतारा।
सुनाता है जो मेल का राग प्यारा।
नहीं नेकियाँ, वे किसी की भुलाते।
नहीं फूट की आग वे हैं जलाते।4।
जो कुढ़ता है जी तो उसे हैं मनाते।
जो उलझन हुई तो उसे हैं मिटाते।
जो हठ आ पड़ा तो उसे हैं दबाते।
किसी के बतोलों में वे हैं न आते।
सदा उनकी होती है रंगत निराली।
बनी रहती है उनके मुखड़े की लाली।5।
यही सोच ऐ उर्दू के जाँ निसारो।
कहूँगी मैं कुछ लो सुनो औ विचारो।
तुम्हारी ही मैं हूँ मुझे मत बिसारो।
मैं हिन्दी हूँ मुझको न जी से उतारो।
नहीं कोसने या झगड़ने हूँ आई।
सहमते हुए मैं उलहना हूँ लाई।6।
मुझे बात यह आजकल है सुनाती।
जश्बा हूँ न मैं औ न हूँ प्यारी थाती।
गँवारी हूँ मैं और हूँ अनसुहाती।
पढ़ों को है मेरी गठन तक न भाती।
मैं खूखी हूँ जीती हूँ करके बहाने।
नहीं एक भी कल है मेरी ठिकाने।7।
तनिक जो समझ बूझ से काम लेंगे।
तनिक आँख जो और ऊँची करेंगे।
सम्हल कर सचाई को जो राह देंगे।
मैं कहती हूँ तो आप ही यह कहेंगे।
कभी है न वाजिब मुझे ऐसा कहना।
भला है नहीं मुझ से यों बिगड़े रहना।8।
जिसे मैंने देहली में न जन कर जिलाया।
जिसे लखनऊ ला अनोखी बनाया।
जिसे लाड़ से पाला, पोसा, खेलाया।
हिलाया, मिलाया, कलेजे लगाया।
हमें आप मानें जो नाते उसी के।
तो फिर यों फफोले न फोड़ेंगे जी के।9।
हमीं से है उर्दू का जग में पसारा।
हमीं से है उसका बना नाम प्यारा।
हमीं से है उसका रहा रंग न्यारा।
हमीं से है उसका चमकता सितारा।
उसी दिन उसे पारसी जग कहेगा।
न जिस दिन हमारा सहारा रहेगा।10।
भला मैंने उरदू का क्या है बिगाड़ा।
बता दीजिए कब बनी उसका टाड़ा।
बसा उसका घर मैंने कब है उजाड़ा।
कहाँ कब जमा पाँव उसका उखाड़ा।
खुले जी से उसके सदा काम आई।
कभी मैंने उसको न समझा पराई।11।
बरहमन के बेटे बड़े मन सुहाते।
नसीम औ रतन नाथ, जिनसे थे नाते।
जो वे मुझमें थे, पारसीपन खपाते।
रहे मुझमें जो उसके जुमले मिलाते।
तो उनको नहीं मैंने छड़ियाँ लगाईं।
न डाँटें बताईं, न आँखें दिखाईं।12।
मुसल्मान हो पा बहुत ऊँचा पाया।
रहीम और खुसरो ने जो जस कमाया।
मुझे मेरे ही रंग में जो दिखाया।
मुझे मेरे फूलों ही से जो सजाया।
तो मैंने न गजरे गले बीच गेरे।
नहीं फूल उनके सिरों पर बखेरे।13।
बड़े भाव से आरती कर हमारी।
खिली चाँदनी सी छटा वाली न्यारी।
जो सूर और तुलसी ने कीरत पसारी।
अमर जो हुए देव, केशव, बिहारी।
बड़ा जस, बहुत मान, सच्ची बड़ाई।
तो रसखान औ जायसी ने भी पाई।14।
कहे देती हूँ बात यह मैं पुकारे।
मुसल्मान हिन्दू हैं दोनों हमारे।
ये दोनों ही हैं मुझको जी से भी प्यारे।
ये दोनों ही हैं मेरी आँखों के तारे।
नहीं इनमें कोई है मेरा बेगाना।
सदा जी से दोनों ही को मैंने माना।15।
गुसाँई ने जिसमें रमायन बनाई।
कोई पोथी जितनी न छपती दिखाई।
कला जिसकी है आज देशों में छाई।
घरों बीच जिसने है गंगा बहाई।
सुनाती हूँ जिसमें मैं अपना उलहना।
सितम है उसे कोई बोली न कहना।16।
जो है देश में सब जगह काम आती।
बहुत लोगों की जो है बोली कहाती।
जो है झोंपड़े से महल तक सुनाती।
गठन जिसकी है नित नये रंग लाती।
कठिन है बिना जिसके घर में निबहना।
उसे क्या सही है गयी बीती कहना।17।
जिसे सूर ने दे दिया रंग न्यारा।
बड़े ढब से केशव ने जिसको सँवारा।
बिहारी ने हीरों से जिसको सिंगारा।
पिन्हाया जिसे देव ने हार न्यारा।
उसे अनसुहाती गँवारी बताना।
कहूँगी मैं है उलटी गंगा बहाना।18।
बहुत राजों ने पाँव जिसका पखारा।
गले में कई हार अनमोल डाला।
जिसे वार तन मन उन्होंने उभारा।
रही उनके जो सब सुखों का सहारा।
कुढंगी बुरी क्यों उसे हैं बनाते।
रतन जिसमें हैं सैकड़ों जगमगाते।19।
सदा मीर का ढंग है जी लुभाता।
बहुत सादापन दाग़ का है सुहाता।
कलाम इनका है आप लोगों को भाता।
कभी मोह लेता कभी है रिझाता।
बता देती हूँ, है यही बात न्यारी।
बहुत उसमें होती है रंगत हमारी।20।
उमग आप उरदू को दिन दिन बढ़ावें।
उसे बेबहा मोतियों से सजावें।
अछूते, बिछे फूल उसमें खिलावें।
उसे हार भी नौरतन का पिन्हावें।
मैं फूली कली का बनूँगी नमूना।
कलेजा मेरा देखकर होगा दूना।21।
हरा देखकर पेड़ अपना लगाया।
भला कौन है जो न फूला समाया।
जिसे मैंने अपना नमूना बनाया।
जिसे मैंने सौ सौ तरह से हिलाया।
उसे देख फूली फली क्यों जलूँगी।
कलेजे लगाकर बलाएँ मैं लूँगी।22।
मगर आप से मुझ को इतना है कहना।
भली बात है सब से हिल मिल के रहना।
कभी पोत का भी बहुत छोटा गहना।
उमग कर नहीं जो सकें आप पहना।
तो कह बात लगती मुझे मत खिझावें।
न छलनी हमारा कलेजा बनावें।23।
बहुत कह चुकी अब नहीं कुछ कहूँगी।
कहाँ तक बनँ ढीठ अब चुप रहूँगी।
सही मानिए आपकी सब सहूँगी।
मगर बात इतनी सदा ही चहूँगी।
कभी आप झगड़ों में पड़ मत उलझिए।
नहीं माँ तो धाई ही मुझ को समझिए।24।
प्रभो! तू बिगड़ती हुई सब बना दे।
अँधेरे में तू ज्योति न्यारी जगा दे।
घरों में भलाई का पौधा उगा दे।
दिलों में सचाई की धारा बहा दे।
रहे प्यार आपस का सब ओर फैला।
किसी से किसी का न जी होवे मैला।25।
35. विद्यालय-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
है विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो।
बरविचार आकलित अलौकिक कीर्ति निलय हो।
भावुकता बर वदन सुविकसित जिससे होवे।
जिसकी शुचिता प्रीति वेलि प्रति उर में बोवे।
पर अतुलित बल जिससे बने जाति बुध्दि अति बलवती।
बहु लोकोत्तर फल लाभ कर हो भारत भुवि फलवती।1।
होगा भवहित मूल भूत उस विद्यालय का।
गिरा देवि के बन्दनीयतम देवालय का।
उसमें होगी जाति संगठन की शुभ पूजा।
होवेगा सहयोग मंत्र स्वर उस में गूँजा।
कटुता विरोध संकीर्णता कलह कुटिलता कुरुचि मल।
कर दूरित उस में बहेगी पूत नीति धारा प्रबल।2।
शुभ आशाएँ वहाँ समर्थित रंजित होंगी।
कलित कामनाएँ अनुमोदित व्यंजित होंगी।
वहाँ सरस जातीय तान रस बरसावेगी।
देश प्रीति की उमग राग रुचिकर गावेगी।
पूरित होगा गरिमा सहित वर व्यवहार सुवाद्य स्वर।
उसमें वीणा सहकारिता बजकर देगी मुग्धा कर।3।
जिसमें कलह विवाद वाद आमंत्रित होवे।
द्वेष जहाँ पर बीज भिन्नताओं का बोवे।
जहाँ सकल संकीर्ण भाव की होवे पूजा।
आकुल रहे विवेक जहाँ बन करके लूँजा।
उस विद्यालय के मधय है कहाँ प्रथित महनीयता।
होती विलोप जिसमें रहे रही सही जातीयता।4।
प्राय: है यह बात आज श्रुति गोचर होती।
नाश बीज जातीय सभाएँ हैं अब बोती।
प्रतिदिन उनसे संघ शक्ति है कुचली जाती।
उनसे प्रश्रय है बिभिन्नता ही नित पाती।
अब अध:पात है हो रहा उनके द्वारा जाति का।
वे चाह रही हैं शान्ति फल पादप रोप अशान्ति का।5।
अपना अपना राग व अपनी अपनी डफली।
बहुत गा बजा चुके पर न अब भी सुधि सँभली।
ढाई चावल की खिचड़ी हम अलग पकाकर।
दिन दिन हैं मिट रहे समय की ठोकर खाकर।
एकता और निजता बिना काम चला है कब कहीं।
वह जाति न जीती रह सकी जिस में जीवन ही नहीं।6।
जाति जाति की सभा जातियों के विद्यालय।
अति निन्दित हैं संघ शक्ति जो करें न संचय।
उन विद्यालय और सभाओं से क्या होगा।
डूब जाय जिससे हिन्दू गौरव का डोंगा।
जो काम न आई जाति के वह कैसी हितकारिता।
वह संस्था संस्था ही नहीं जहाँ न हो सहकारिता।7।
जिसमें केन्द्रीकरण नहीं वह सभा नहीं है।
जो न तिमिर हर सके प्रभा वह प्रभा नहीं है।
उस विद्यालय को विद्यालय कैसे मानें।
जहाँ फूट औ कलह सुनावें अपनी तानें।
मिल जाय धूल में वह सकल स्वार्थनिकेतन स्वकीयता।
जिससे वंचित विचलित दलित हो हिन्दू जातीयता।8।
यह विचार औ समय-दशा पर डाल निगाहें।
उन उदार सुजनों को कैसे नहीं सराहें।
जिन लोगों ने सकल जाति को गले लगाया।
विद्यालय को सदा अवरित द्वार बनाया।
सब काल भाव ऐसे कलित ललित उदय होते रहे।
सब लोग मलिनता उरों की अमलिन बन धोते रहें।9।
प्रभो देश में जितने हिन्दू विद्यालय हों।
एक सूत्र में बँधो एकता-निजता मय हों।
छात्र-वृन्द जातीय भाव से पूरित होवें।
आत्म त्यागरत रहे जाति हित सरबस खोवें।
ब्राह्मण छत्रिय वैश्य औ शुद्र भिन्नता तज मिलें।
बढ़े परस्पर प्यार औ कुम्हलाये मानस खिलें।10।
36. आ री नींद-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
आ री नींद, लाल को आ जा।
उसको करके प्यार सुला जा।
तुझे लाल हैं ललक बुलाते।
अपनी आँखों पर बिठलाते।
तेरे लिए बिछाई पलकें।
बढ़ती ही जाती हैं ललकें।
क्यों तू है इतनी इठलाती।
आ-आ मैं हूँ तुझे बुलाती।
गोद नींद की है अति प्यारी।
फूलों से है सजी-सँवारी।
उसमें बहुत नरम मन भाई।
रूई की है पहल जमाई।
बिछे बिछौने हैं मखमल के।
बड़े मुलायम सुंदर हलके।
जो तू चाह लाल उसकी कर।
तो तू सो जा आँख मूँदकर।
मीठी नींदों प्यारे सोना।
सोने की पुतली मत खोना।
उसकी करतूतों के ही बल।
ठीक-ठीक चलती है तन कल।
37. एक तिनका-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ ।
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा ।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा ।1।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा ।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी ।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे ।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी ।2।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया ।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए ।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा ।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए ।3।
38. आँख का आँसू-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
आँख का आँसू ढलकता देख कर।
जी तड़प करके हमारा रह गया।
क्या गया मोती किसी का है बिखर।
या हुआ पैदा रतन कोई नया।1।
ओस की बूँदें कमल से हैं कढ़ी।
या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ।
या अनूठी गोलियाँ चाँदी मढ़ी।
खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ।2।
या जिगर पर जो फफोला था पड़ा।
फूट करके वह अचानक बह गया।
हाय! था अरमान जो इतना बड़ा।
आज वह कुछ बूँद बनकर रह गया।3।
पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ।
यों किसी का है निरालापन गया।
दर्द से मेरे कलेजे का लहू।
देखता हूँ आज पानी बन गया।4।
प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी।
वह नहीं इसको सका कोई पिला।
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी।
वाह! क्या अच्छा इसे पानी मिला।5।
ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो।
वह समझते हैं मगर करना इसे।
आँख के आँसू निकल करके कहो।
चाहते हो प्यार जतलाना किसे।6।
आँख के आँसू समझ लो बात यह।
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े।
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह।
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े।7।
हो गया कैसा निराला वह सितम।
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया।
या किसी का हैं नहीं खोते भरम।
आँसुओं! तुमने कहो यह क्या किया।8।
झाँकता फिरता है कोई क्यों कुआँ|
हैं फँसे इस रोग में छोटे बड़े।
है इसी दिल से तो वह पैदा हुआ।
क्यों न आँसू का असर दिल पर पड़े।9।
रंग क्यों निराला इतना कर लिया।
है नहीं अच्छा तुम्हारा ढंग यह।
आँसुओं! जब छोड़ तुमने दिल दिया।
किसलिए करते हो फिर दिल में जगह।10।
बात अपनी ही सुनाता है सभी।
पर छिपाये भेद छिपता है कहीं।
जब किसी का दिल पसीजेगा कभी।
आँख से आँसू कढ़ेगा क्यों नहीं।11।
आँख के परदों से जो छनकर बहे।
मैल थोड़ा भी रहा जिसमें नहीं।
बूँद जिसकी आँख टपकाती रहे।
दिल जलों को चाहिए पानी वही।12।
हम कहेंगे क्या कहेगा यह सभी।
आँख के आँसू न ये होते अगर।
बावले हम हो गये होते कभी।
सैकड़ों टुकड़े हुआ होता जिगर।13।
है सगों पर रंज का इतना असर।
जब कड़े सदमे कलेजे न सहे।
सब तरह का भेद अपना भूल कर।
आँख के आँसू लहू बनकर बहे।14।
क्या सुनावेंगे भला अब भी खरी।
रो पड़े हम पत तुम्हारी रह गयी।
ऐंठ थी जी में बहुत दिन से भरी।
आज वह इन आँसुओं में बह गयी।15।
बात चलते चल पड़ा आँसू थमा।
खुल पड़े बेंड़ी सुनाई रो दिया।
आज तक जो मैल था जी में जमा।
इन हमारे आँसुओं ने धो दिया।16।
क्या हुआ अंधेर ऐसा है कहीं।
सब गया कुछ भी नहीं अब रह गया।
ढूँढ़ते हैं पर हमें मिलता नहीं।
आँसुओं में दिल हमारा बह गया।17।
देखकर मुझको सम्हल लो, मत डरो।
फिर सकेगा हाय! यह मुझको न मिला।
छीन लो, लोगो! मदद मेरी करो।
आँख के आँसू लिये जाते हैं दिल।18।
इस गुलाबी गाल पर यों मत बहो।
कान से भिड़कर भला क्या पा लिया।
कुछ घड़ी के आँसुओ मेहमान हो।
नाम में क्यों नाक का दम कर दिया।19।
नागहानी से बचो, धीरे बहो।
है उमंगों से भरा उनका जिगर।
यों उमड़ कर आँसुओ सच्ची कहो।
किस खुशी की आज लाये हो खबर।20।
क्यों न वे अब और भी रो रो मरें।
सब तरफ उनको अँधेरा रह गया।
क्या बिचारी डूबती आँखें करें।
तिल तो था ही आँसुओं में बह गया।21।
दिल किया तुमने नहीं मेरा कहा।
देखते हैं खो रतन सारे गये।
जोत आँखों में न कहने को रही।
आँसुओं में डूब ये तारे गये।22।
पास हो क्यों कान के जाते चले।
किसलिए प्यारे कपोलों पर अड़ो।
क्यों तुम्हारे सामने रह कर जले।
आँसुओ! आकर कलेजे पर पड़ो।23।
आँसुओं की बूँद क्यों इतनी बढ़ी।
ठीक है तकष्दीर तेरी फिर गयी।
थी हमारे जी से पहले ही कढ़ी।
अब हमारी आँख से भी गिर गयी।24।
आँख का आँसू बनी मुँह पर गिरी।
धूल पर आकर वहीं वह खो गयी।
चाह थी जितनी कलेजे में भरी।
देखता हूँ आज मिट्टी हो गयी।25।
भर गयी काजल से कीचड़ में सनी।
आँख के कोनों छिपी ठंढी हुई।
आँसुओं की बूँद की क्या गत बनी।
वह बरौनी से भी देखो छिद गयी।26।
दिल से निकले अब कपोलों पर चढ़ो।
बात बिगड़ क्या भला बन जायगी।
ऐ हमारे आँसुओ! आगे बढ़ो।
आपकी गरमी न यह रह जायगी।27।
जी बचा तो हो जलाते आँख तुम।
आँसुओ! तुमने बहुत हमको ठगा।
जो बुझाते हो कहीं की आग तुम।
तो कहीं तुम आग देते हो लगा।28।
काम क्या निकला हुए बदनाम भर।
जो नहीं होना था वह भी हो लिया।
हाथ से अपना कलेजा थाम कर।
आँसुओं से मुँह भले ही धो लिया।29।
गाल के उसके दिखा करके मसे।
यह कहा हमने हमें ये ठग गये।
आज वे इस बात पर इतने हँसे।
आँख से आँसू टपकने लग गये।30।
लाल आँखें कीं, बहुत बिगड़े बने।
फिर उठाई दौड़ कर अपनी छड़ी।
वैसे ही अब भी रहे हम तो तने।
आँख से यह बूँद कैसी ढल पड़ी।31।
बूँद गिरते देखकर यों मत कहो।
आँख तेरी गड़ गयी या लड़ गयी।
जो समझते हो नहीं तो चुप रहो।
किरकिरी इस आँख में है पड़ गयी।32।
है यहाँ कोई नहीं धुआँ किये।
लग गयी मिरचें न सरदी है हुई।
इस तरह आँसू भर आये किसलिए।
आँख में ठंढी हवा क्या लग गयी।33।
देख करके और का होते भला।
आँख जो बिन आग ही यों जल मरे।
दूर से आँसू उमड़ कर तो चला।
पर उसे कैसे भला ठंडा करे।34।
पाप करते हैं न डरते हैं कभी।
चोट इस दिल ने अभी खाई नहीं।
सोच कर अपनी बुरी करनी सभी।
यह हमारी आँख भर आई नहीं।35।
है हमारे औगुनों की भी न हद।
हाय! गरदन भी उधार फिरती नहीं।
देख करके दूसरों का दुख दरद।
आँख से दो बूँद भी गिरती नहीं।36।
किस तरह का वह कलेजा है बना।
जो किसी के रंज से हिलता नहीं।
आँख से आँसू छना तो क्या छना।
दर्द का जिसमें पता मिलता नहीं।37।
वह कलेजा हो कई टुकड़े अभी।
नाम सुनकर जो पिघल जाता नहीं।
फूट जाये आँख वह जिसमें कभी।
प्रेम का आँसू उमड़ आता नहीं।38।
पाप में होता है सारा दिन वसर।
सोच कर यह जी उमड़ आता नहीं।
आज भी रोते नहीं हम फूट कर।
आँसुओं का तार लग जाता नहीं।39।
बू बनावट की तनिक जिनमें न हो।
चाह की छींटें नहीं जिन पर पड़ीं।
प्रेम के उन आँसुओं से हे प्रभो!
यह हमारी आँख तो भीगी नहीं।40।
39. बादल-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
सखी ! बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।
वे विविध रूप धारण कर
नभ–तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।
वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदभी–वादन
चपला को रहे नचाते।
वे पहन कभी नीलाम्बर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम बितान थे तनते।
बहुश: –खन्डों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।
वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियां पिन्हाते।
वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी–दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय–दृश्य दिखाते।
घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को
थे अमा–समान बनाते।
40. सरिता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली।1।
क्यों दिन–रात अधीर बनी–सी।
पड़ी धरा पर रहती हो।
दु:सह आतप शीत–वात सब
दिनों किस लिये सहती हो।2।
कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग–भंग कर–कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो।3।
कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती है।4।
बहुत दूर जाना है तुमको
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं।5।
पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो।6।
उषा का अवलोक वदन।
किस लिये लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े–टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो।7।
क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हारे
तन पर पड़ता है छाला।8।
41. अनूठी बातें-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जो बहुत बनते हैं उनके पास से,
चाह होती है कि कैसे टलें।
जो मिलें जी खोलकर उनके यहाँ
चाहता है कि सर के बल चलें॥
और की खोट देखती बेला,
टकटकी लोग बाँध लेते हैं।
पर कसर देखते समय अपनी,
बेतरह आँख मूँद लेते हैं॥
तुम भली चाल सीख लो चलना,
और भलाई करो भले जो हो।
धूल में मत बटा करो रस्सी,
आँख में धूल ड़ालते क्यों हो॥
सध सकेगा काम तब कैसे भला,
हम करेंगे साधने में जब कसर?
काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ
जब करेंगे काम आँखें बंद कर॥
खिल उठें देख चापलूसों को,
देख बेलौस को कुढे आँखें।
क्या भला हम बिगड़ न जायेंगे,
जब हमारी बिगड़ गयी आँखें॥
तब टले तो हम कहीं से क्या टले,
डाँट बतलाकर अगर टाला गया।
तो लगेगी हाँथ मलने आबरू
हाँथ गरदन पर अगर ड़ाला गया॥
है सदा काम ढंग से निकला
काम बेढंगापन न देगा कर।
चाह रख कर किसी भलाई की।
क्यों भला हो सवार गर्दन पर॥
बेहयाई, बहक, बनावट नें,
कस किसे नहीं दिया शिकंजे में।
हित-ललक से भरी लगावट ने,
कर लिया है किसी ने पंजे में॥
फल बहुत ही दूर छाया कुछ नहीं
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों?
आदमी हों और हों हित से भरे,
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों॥
42. दमदार दावे-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जो आँख हमारी ठीक ठीक खुल जावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।
है पास हमारे उन फूलों का दोना।
है महँक रहा जिनसे जग का हर कोना।
है करतब लोहे का लोहापन खोना।
हम हैं पारस हो जिसे परसते सोना।
जो जोत हमारी अपनी जोत जगावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।1।
हम उस महान जन की संतति हैं न्यारी।
है बार बार जिस ने बहु जाति उबारी।
है लहू रगों में उन मुनिजन का जारी।
जिनकी पग रज है राज से अधिक प्यारी।
जो तेज हमारा अपना तेज बढ़ावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।2।
था हमें एक मुख पर दस-मुख को मारा।
था सहस-बाहु दो बाँहों के बल हारा।
था सहस-नयन दबता दो नयनों द्वारा।
अकले रवि सम दानव समूह संहारा।
यह जान मन उमग जो उमंग में आवे।
तो किसे ताब है हमें आँख दिखलावे।3।
हम हैं सुधोनु लौं धारा दूहनेवाले।
हम ने समुद्र मथ चौदह रत्न निकाले।
हम ने दृग-तारों से तारे परताले।
हम हैं कमाल वालों के लाले पाले।
जो दुचित हो न चित उचित पंथ को पावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।4।
तो रोम रोम में राम न रहा समाया।
जो रहे हमें छलती अछूत की छाया।
कैसे गंगा-जल जग-पावन कहलाया।
जो परस पान कर पतित पतित रह पाया।
आँखों पर का परदा जो प्यार हटावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।5।
तप के बल से हम नभ में रहे बिचरते।
थे तेज पुंज बन अंधकार हम हरते।
ठोकरें मार कर चूर मेरु को करते।
हुन वहाँ बरसता जहाँ पाँव हम धरते।
जो समझे हैं दमदार हमारे दावे।
तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे।6।
43. विबोधन-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
खुले न खोले नयन, कमल फूले, खग बोले;
आकुल अलि-कुल उड़े, लता-तरु-पल्लव डोले।
रुचिर रंग में रँगी उमगती ऊषा आई;
हँसी दिग्वधू, लसी गगन में ललित लुनाई।
दूब लहलही हुई पहन मोती की माला;
तिमिर तिरोहित हुआ, फैलने लगा उँजाला।
मलिन रजनिपति हुए, कलुष रजनी के भागे;
रंजित हो अनुराग-राग से रवि अनुरागे।
कर सजीवता दान बही नव-जीवन-धारा;
बना ज्योतिमय ज्योति-हीन जन-लोचन-तारा।
दूर हुआ अवसाद गात गत जड़ता भागी;
बहा कार्य का सोत, अवनि की जनता जागी।
निज मधुर उक्ति वर विभा से है उर-तिमिर भगा रही;
जागो-जागो भारत-सुअन है, जग-जननि जगा रही।
44. आदर्श-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
लोक को रुलाता जो था राम ने रुलाया उसे
हम खल खलता के खले हैं कलपते।
काँपता भुवन का कँपाने वाला उन्हें देख
हम हैं बिलोक बल-वाले को बिलपते।
हरिऔधा वे थे ताप-दाता ताप-दायकों के
हम नित नये ताप से हैं आप तपते।
रोम रोम में जो राम-काम रमता है नहीं
नाम के लिए तो राम नाम क्या हैं जपते।1।
पाँव छू छू उनके तरे हैं छितितल पापी
और हम छाँह से अछूत की हैं डरते।
बड़े बड़े दानव दलित उनसे हैं हुए
दब दब दानवों से हम हैं उबरते।
हरिऔधा वे हैं अकलंक सकलंक हो के
हम भाल-अंक को कलंक से हैं भरते।
जो न रमे राम में हैं कहें तो न राम राम
लीला में न लीन हैं तो लीला क्यों हैं करते।2।
हो के बनबासी गिरिबासी को तिलक सारा
साहस से पाया कपि-सेना का सहारा है।
बन खरदूषण तिमिर को प्रखर-रवि
अंकले अनेक-दानवी-दल विदारा है।
हरिऔधा राम की ललाम-लीला भूले नहीं
सविधि उन्होंने बाँधी वारि-निधि-धारा है।
दो ही बाहु द्वारा बीस बाहु का उतारा मद
होते एक आनन दशानन को मारा है।3।
पातक-निकंदन के पदकंज पूज पूज
कैसे पाँव पातक पगों के सहलावेंगे।
दानव-दलन से जो लगन रहेगी लगी
दानव दुरन्त कैसे दिल दहलावेंगे।
हरिऔधा कैसे बहकावेंगे बहक बैरी
प्रभु के प्रलंब बाहु यदि बहलावेंगे।
एक रक्त होते हम होवेंगे विभक्त कैसे
भूरि भक्ति से जो रामभक्त कहलावेंगे।4।
45. क्या होगा-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बहँक कर चाल उलटी चल कहो तो काम क्या होगा।
बड़ों का मुँह चिढ़ा करके बता दो नाम क्या होगा।1।
बही जी में नहीं जो बेकसों के प्यार की धारा।
बता दो तो बदन चिकना व गोरा चाम क्या होगा।2।
दुखी बेवों यतीमों की कभी सुधा जो नहीं ली तो।
जामा किस काम आवेगी व यह धान धाम क्या होगा।3।
अगर जी से लिपट करके नहीं बिगड़ी बना पाते।
बहाकर आँख से आँसू कलेजा थाम क्या होगा।4।
बकें तो हम बहुत, पर कर दिखावें कुछ न भूले भी।
समझ लो तो हमारी बात का फिर दाम क्या होगा।5।
लगीं ठेसें कलेजे पर बड़ों के जिन कपूतों से।
भला उन से बढ़ा कोई कहीं बदनाम क्या होगा।6।
करेंगे क्या उसे लेकर, नहीं कुछ आन है जिस में।
बता दो यह हमें गूदे बिना बादाम क्या होगा।7।
बने सब दोस्त बेगाने सगों की आँख फिर जावे।
किसी के वास्ते इससे बुरा अयाम क्या होगा।8।
दवाएँ भी नहीं जिसके गले से हैं उतर सकतीं।
भला सोचो तुम्हीं बीमार वह आराम क्या होगा।9।
न कुछ भी तेज हो जिसमें बनेगा करतबी वह क्या।
न हो जिसमें कि तीखापन भला वह घाम क्या होगा।10।
डुबा कर जाति का बेड़ा जो हैं कुछ रोटियाँ पाते।
समझ पड़ता नहीं अंजाम उनका राम क्या होगा।11।
46. अविनय-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
ढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला।
जिसके तन में सींच सींच जीवन-रस डाला।
सुअंकुरित अवलोक जिसे फूला न समाया।
पा करके पल्लवित जिसे पुलकित हो आया।
वह पौधा यदि न सुफल फले तो कदापि न कुफल फले।
अवलोक निराशा का बदन नीर न आँखों से ढले।1।
बालक ही है देश-जाति का सच्चा-संबल।
वही जाति-जीवन-तरु का है परम मधुर फल।
छात्रा-रूप में वही रुचिर-रुचि है अपनाता।
युवक-रूप में वही जाति-हित का है पाता।
वह पूत पालने में पला विद्या-सदनों में बना।
उज्ज्वल करता है जाति-मुख कर लोकोत्तार साधना।2।
बालक ही का सहज-भाव-मय मुखड़ा प्यारा।
है सारे जातीय-भाव का परम सहारा।
युवक जनों के शील आत्म-संयम शुचि रुचि पर।
होती हैं जातीय सकल आशाएँ निर्भर।
इनके बनने से जातियाँ बनीं देश फूला फला।
इनके बिगड़े बिगड़ा सभी हुआ न हरि का भी भला।3।
इन बातों को सोच आँख रख इन बातों पर।
पाठालय स्कूल कालिजों में जा जा कर।
जब मैंने निज युवक और बालक अवलोके।
तो जी का दुख-वेग नहीं रुकता था रोके।
नस नस में कितनों की भर वह अविनय मुझको मिला।
जिसको बिलोक कर सुजनता-मुख-सरोज न कभी खिला।4।
विनय करों में सकल सफलता की है ताली।
विनय पुट बिना नहिं रहती मुखड़े की लाली।
विनय कुलिश को भी है कुसुम समान बनाता।
पाहन जैसे उर को भी है वह पिघलाता।
निज कल करतूतें कर विनय होता है वाँ भी सफल।
बन जाती है बुधि-बल-सहित जहाँ वचन-रचना विफल।5।
किन्तु हमारी नई पौधा उससे बिगड़ी है।
उस पर उसकी उचित आँख अब भी न पड़ी है।
वह विनती है उसे आत्म-गौरव का बाधक।
चित की कुछ बलहीन-वृत्तियों का आराधक।
वह निज विचार तज कर नहीं शिष्टाचार निबाहती।
जो कुछ कहता है चित्ता वह वही किया है चाहती।6।
अनुभव वह संसार का तनिक भी नहिं रखती।
तह तक उसकी आँख आज भी नहीं पहुँचती।
पके नहीं कोई विचार, हैं सभी अधूरे।
पढ़ने के दिन हुए नहीं अब तक हैं पूरे।
पर तो भी वह है बड़ों से बात बात में अकड़ती।
पथ चरम-पंथियों का पकड़ है कर से अहि पकड़ती।7।
बहुत-बड़ा-अनुभवी राज-नीतिक-अधिकारी।
जाति-देश का उपकारक सच्चा-हितकारी।
उसकी रुचि-प्रतिकूल बोल कब हुआ न वंचित।
कह कर बातें उचित मान पा सका न किंचित।
वह पीट-पीट कर तालियाँ उसे बनाती है विवश।
या 'बैठ जाव' की धवनि उठा हर लेती है विमल यश।8।
उसके इस अविवेक और अविनय के द्वारा।
क्यों न लोप हो जाय देश का गौरव सारा।
कोई उन्नत हृदय क्यों न सौ टुकड़े होवे।
क्यों न जाति अमूल सफलता अपनी खोवे।
रह जाए देश हित के लिए नहीं ठिकाना भी कहीं।
पर उसके कानों पर कभी जूँ तक रेंगेगी नहीं।9।
पिटी तालियों में पड़ देश रसातल जावे।
धूम धाम 'गो आन' धाक जातीय नसावे।
'हिअर हिअर' रव तले पिसें सारी सुविधाएँ।
आशाओं का लहू अकाल-उमंग बहाएँ।
यह देख देश-हित-रत सुजन क्यों न कलेजा थाम ले।
पर भला उसे क्या पड़ी है जो अनुभव से काम ले।10।
जिनके रज औ बीज से उपज जीवन पाया।
पली गोद में जिनकी सोने की सी काया।
उनकी रुचि भी नहीं स्वरुचि-प्रतिकूल सुहाती।
बरन कभी आवेग-सहित है कुचली जाती।
अभिरुचि-प्रतिकूल विचार भी ठोकर खाते ही रहें।
उनके सनेहमय मृदुल उर क्यों न बुरी ठेंसें सहें।11।
पर उसका अपराध नहीं इसमें है इतना।
हम लोगों का दोष इस विषय में है जितना।
जैसे साँचे में हमने उसको है ढाला।
जैसे ढँग से हमने उसको पोसा पाला।
लीं साँसें जैसी वायु में वह वैसी ही है बनी।
कैसे तप-ऋतु हो सकेगी शरद-समान सुहावनी।12।
आत्मत्याग है कहीं आत्मगौरव से गुरुतर।
निज विचार से उचित विचार बहुत है बढ़कर।
कर निज-चित-अनुकूल न मन गुरुजन का रखना।
सुधा पग तले डाल ईख का रस है चखना।
अनुभवी लोक-हित-निरत की विबुधों की अवमानना।
है विमल जाति-हित-सुरुचि को कुरुचि-कीच में सानना।13।
किन्तु जब नहीं उसने इन बातों को जाना।
यदि जाना तो उसे नहीं जी से सनमाना।
किसी भाँति जब अविनय ने ही आदर पाया।
तब वह कैसे नहीं करेगी निज मन भाया।
यह रोग बहुत कुछ है दबा हो हिन्दू-रुचि से निबल।
पर यदि न आँख अब भी खुली दिन दिन होवेगा सबल।14।
प्रभो! हमारी नई पौधा निजता पहचाने।
अपने कुल मरजाद जाति-गौरव को जाने।
चुन लेने के लिए, विनय-रुचिकर-रस चीखे।
सबका सदा यथोचित आदर करना सीखे।
धारा उसकी धमनियों में पूत जाति-हित की बहे।
पर गुरुजन के अनुराग का रुचिर रंग उस में रहे।15।
47. नादान-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कर सकेंगे क्या वे नादान।
बिन सयानपन होते जो हैं बनते बड़े सयान।
कौआ कान ले गया सुन जो नहिं टटोलते कान।
वे क्यों सोचें तोड़ तरैया लाना है आसान।1।
है नादान सदा नादान।
काक सुनाता कभी नहीं है कोकिल की सी तान।
बक सब काल रहेगा बक ही वही रहेगी बान।
उसको होगी नहीं हंस लौं नीर छीर पहचान।2।
है नादान अंधेरी रात।
जो कर साथ चमकतों का भी रही असित-अवदात।
वह उसके समान ही रहता है अमनोरम-गात।
प्रति उर में उससे होता है बहु-दुख छाया पात।3।
है नादान सदा का कोरा।
सब में नादानी रहती है क्या काला क्या गोरा।
नासमझी सूई के गँव का है वह न्यारा डोरा।
होता है जड़ता-मजीठ के माठ मधय वह बोरा।4।
नादानों से पड़े न पाला।
सिर से पाँवों तक होता है यह कुढंग में ढाला।
सदा रहा वह मस्त पान कर नासमझी मदप्याला।
उस से कहीं भला होता है साँप बहुगरल वाला।5।
48. चतुर नेता-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
बातें रख रख बात बात में बात बनावें।
रंग बदल कर नये नये बहुरंग दिखावें।
कर चतुराई परम-चतुर नेता कहलावें।
मीठे मीठे वचन बोल बहुधा बहलावें।
जो करें जाति हित नाम को बहु भूखे हों नाम के।
वे बड़े काम के क्यों न हों हैं न देश के काम के।
49. बंदर और मदारी-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
देखो लड़को, बंदर आया, एक मदारी उसको लाया।
उसका है कुछ ढंग निराला, कानों में पहने है बाला।
फटे-पुराने रंग-बिरंगे कपड़े हैं उसके बेढंगे।
मुँह डरावना आँखें छोटी, लंबी दुम थोड़ी-सी मोटी।
भौंह कभी है वह मटकाता, आँखों को है कभी नचाता।
ऐसा कभी किलकिलाता है, मानो अभी काट खाता है।
दाँतों को है कभी दिखाता, कूद-फाँद है कभी मचाता।
कभी घुड़कता है मुँह बा कर, सब लोगों को बहुत डराकर।
कभी छड़ी लेकर है चलता, है वह यों ही कभी मचलता।
है सलाम को हाथ उठाता, पेट लेटकर है दिखलाता।
ठुमक ठुमककर कभी नाचता, कभी कभी है टके जाँचता।
देखो बंदर सिखलाने से, कहने सुनने समझाने से-
बातें बहुत सीख जाता है, कई काम कर दिखलाता है।
बनो आदमी तुम पढ़-लिखकर, नहीं एक तुम भी हो बंदर।
50. निर्मम संसार-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
वायु के मिस भर भरकर आह ।
ओस मिस बहा नयन जलधार ।
इधर रोती रहती है रात ।
छिन गये मणि मुक्ता का हार ।1।
उधर रवि आ पसार कर कांत ।
उषा का करता है शृंगार ।
प्रकृति है कितनी करुणा मूर्ति ।
देख लो कैसा है संसार ।2।
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प्रसिद्ध रचनाएँ/कविताएँ अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' पार्ट २
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