अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’वैदेही वनवास

Hindi Kavita

Vaidehi Vanvas Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
वैदेही वनवास अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रिपुसूदनागमन
छन्द : सखी
बादल थे नभ में छाये।
बदला था रंग समय का॥
थी प्रकृति भरी करुणा में।
कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥

वे विविध-रूप धारण कर।
नभ-तल में घूम रहे थे॥
गिरि के ऊँचे शिखरों को।
गौरव से चूम रहे थे॥2॥

वे कभी स्वयं नग-सम बन।
थे अद्भुत-दृश्य दिखाते॥
कर कभी दुंदुभी-वादन।
चपला को रहे नचाते॥3॥

वे पहन कभी नीलाम्बर।
थे बड़े-मुग्धकर बनते॥
मुक्तावलि बलित अधर में।
अनुपम-वितान थे तनते॥4॥

बहुश:खण्डों में बँटकर।
चलते फिरते दिखलाते॥
वे कभी नभ-पयोनिधि के।
थे विपुल-पोत बन पाते॥5॥

वे रंग बिरंगे रवि की।
किरणों से थे बन जाते॥
वे कभी प्रकृति को विलसित।
नीली-साड़ियाँ पिन्हाते॥6॥

वे पवन तुरंगम पर चढ़।
थे दूनी-दौड़ लगाते॥
वे कभी धूप-छाया के।
वे छबिमय-दृश्य दिखाते॥7॥

घन कभी घेर दिन-मणि को।
थे इतनी घनता पाते॥
जो द्युति-विहीन कर, दिन को-
थे अमा-समान बनाते॥8॥

वे धूम-पुंज से फैले।
थे दिगन्त में दिखलाते॥
अंकस्थ-दामिनी दमके।
थे प्रचुर-प्रभा फैलाते॥9॥

सरिता सरोवरादिक में।
थे स्वर-लहरी उपजाते॥
वे कभी गिरा बहु-बूँदें।
थे नाना-वाद्य बजाते॥10॥

पावस सा प्रिय-ऋतु पाकर।
बन रही रसा थी सरसा॥
जीवन प्रदान करता था।
वर-सुधा सुधाधार बरसा॥11॥

थी दृष्टि जिधर फिर जाती।
हरियाली बहुत लुभाती॥
नाचते मयूर दिखाते।
अलि-अवली मिलती गाती॥12॥

थी घटा कभी घिर आती।
था कभी जल बरस जाता॥
थे जल्द कभी खुल जाते।
रवि कभी था निकल आता॥13॥
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था मलिन कभी होता वह।
कुछ कान्ति कभी पा जाता॥
कज्जलित कभी बनता दिन।
उज्ज्वल था कभी दिखाता॥14॥

कर उसे मलिन-बसना फिर।
काली ओढ़नी ओढ़ाती॥
थी प्रकृति कभी वसुधा को।
उज्ज्वल-साटिका पिन्हाती॥15॥

जल-बिन्दु लसित दल-चय से।
बन बन बहु-कान्त-कलेवर॥
उत्फुल्ल स्नात-जन से थे।
हो सिक्त सलिल से तरुवर॥16॥

आ मंद-पवन के झोंके।
जब उनको गले लगाते॥
तब वे नितान्त-पुलकित हो।
थे मुक्तावलि बरसाते॥17॥

जब पड़ती हुई फुहारें।
फूलों को रहीं रिझाती॥
जब मचल-मचल मारुत से।
लतिकायें थीं लहराती॥18॥

छबि से उड़ते छीटे में।
जब खिल जाती थीं कलियाँ॥
चमकीली बूँदों को जब।
टपकातीं सुन्दर-फलियाँ॥19॥

जब फल रस से भर-भर कर।
था परम-सरस बन जाता॥
तब हरे-भरे कानन में।
था अजब समा दिखलाता॥20॥

वे सुखित हुए जो बहुधा।
प्यासे रह-रह कर तरसे॥
झूमते हुए बादल के।
रिमझिम-रिमझिम जल बरसे॥21॥

तप-ऋतु में जो थे आकुल।
वे आज हैं फले-फूले॥
वारिद का बदन विलोके।
बासर विपत्ति के भूले॥22॥

तरु-खग-चय चहक-चहक कर।
थे कलोल-रत दिखलाते॥
वे उमग-उमग कर मानो।
थे वारि-वाह गुण गाते॥23॥

सारे-पशु बहु-पुलकित थे।
तृण-चय की देख प्रचुरता॥
अवलोक सजल-नाना-थल।
बन-अवनी अमित-रुचिरता॥24॥

सावन-शीला थी हो हो।
आवत्ता-जाल आवरिता॥
थी बड़े वेग से बहती।
रस से भरिता वन-सरिता॥25॥

बहुश: सोते बह-बह कर।
कल-कल रव रहे सुनाते॥
सर भर कर विपुल सलिल से।
थे सागर बने दिखाते॥26॥

उस पर वन-हरियाली ने।
था अपना झूला डाला॥
तृण-राजि विराज रही थी।
पहने मुक्तावलि-माला॥27॥

पावस से प्रतिपालित हो।
वसुधनुराग प्रिय-पय पी॥
रख हरियाली मुख-लाली।
बहु-तपी दूब थी पनपी॥28॥

मनमाना पानी पाकर।
था पुलकित विपुल दिखाता॥
पी-पी रट लगा पपीहा।
था अपनी प्यास बुझाता॥29॥

पाकर पयोद से जीवन।
तप के तापों से छूटी॥
अनुराग-मूर्ति 'बन', महि में।
विलसित थी बीर बहूटी॥30॥

निज-शान्ततम निकेतन में।
बैठी मिथिलेश-कुमारी॥
हो मुग्ध विलोक रही थीं।
नव-नील-जलद छबि न्यारी॥31॥

यह सोच रही थीं प्रियतम।
तन सा ही है यह सुन्दर॥
वैसा ही है दृग-रंजन।
वैसा ही महा-मनोहर॥32॥

पर क्षण-क्षण पर जो उसमें।
नवता है देखी जाती॥
वह नवल-नील-नीरद में।
है मुझे नहीं मिल पाती॥33॥

श्यामलघन में बक-माला।
उड़-उड़ है छटा दिखाती॥
पर प्रिय-उर-विलसित-
मुक्ता-माला है अधिक लुभाती॥34॥

श्यामावदात को चपला।
चमका कर है चौंकाती॥
पर प्रिय-तन-ज्योति दृगों में।
है विपुल-रस बरस जाती॥35॥

सर्वस्व है करुण-रस का।
है द्रवण-शीलता-सम्बल॥
है मूल भव-सरसता का।
है जलद आर्द्र-अन्तस्तल॥36॥

पर निरअपराध-जन पर भी।
वह वज्रपात करता है॥
ओले बरसा कर जीवन।
बहु-जीवों का हरता है॥37॥

है जनक प्रबल-प्लावन का।
है प्रलयंकर बन जाता॥
वह नगर, ग्राम, पुर को है।
पल में निमग्न कर पाता॥38॥

मैं सारे-गुण जलधार के।
जीवन-धन में पाती हँ॥
उसकी जैसी ही मृदुता।
अवलोके बलि जाती हूँ॥39॥

पर निरअपराध को प्रियतम-
ने कभी नहीं कलपाया॥
उनके हाथों से किसने।
कब कहाँ व्यर्थ दुख पाया॥40॥

पुर नगर ग्राम कब उजड़े।
कब कहाँ आपदा आई॥
अपवाद लगाकर यों ही।
कब जनता गयी सताई॥41॥

प्रियतम समान जन-रंजन।
भव-हित-रत कौन दिखाया॥
पर सुख निमित्त कब किसने।
दुख को यों गले लगाया॥42॥

घन गरज-गरज कर बहुधा।
भव का है हृदय कँपाता॥
पर कान्त का मधुर प्रवचन।
उर में है सुधा बहाता॥43॥

जिस समय जनकजा घन की।
अवलोक दिव्य-श्यामलता॥
थीं प्रियतम-ध्यान-निमग्ना।
कर दूर चित्त-आकुलता॥44॥

आ उसी समय आलय में।
सौमित्रा-अनुज ने सादर॥
पग-वन्दन किया सती का।
बन करुण-भाव से कातर॥45॥

सीतादेवी ने उनको।
परमादर से बैठाला॥
लोचन में आये जल पर-
नियमन का परदा डाला॥46॥

फिर कहा तात बतला दो।
रघुकुल-पुंगव हैं कैसे?॥
जैसे दिन कटते थे क्या।
अब भी कटते हैं वैसे?॥47॥

क्या कभी याद करते हैं।
मुझ वन-निवासिनी को भी॥
उसको जिसका आकुल-मन।
है पद-पंकज-रज-लोभी॥48॥

चातक से जिसके दृग हैं।
छबि स्वाति-सुधा के प्यासे॥
प्रतिकूल पड़ रहे हैं अब।
जिसके सुख-बासर पासे॥49॥

जो विरह वेदनाओं से।
व्याकुल होकर है ऊबी॥
दृग-वारि-वारिनिधि में जो।
बहु-विवशा बन है डूबी॥50॥

हैं कीर्ति करों से गुम्फित।
जिनकी गौरव-गाथायें॥
हैं सकुशल सुखिता मेरी।
अनुराग-मूर्ति- मातायें?॥51॥

हो गये महीनों उनके।
ममतामय-मुख न दिखाये॥
पावनतम-युगल पगों को।
मेरे कर परस न पाये॥52॥

श्रीमान् भरत-भव-भूषण।
स्नेहार्द्र सुमित्रा-नन्दन॥
सब दिनों रही करती मैं॥
जिनका सादर अभिनन्दन॥53॥

हैं स्वस्थ, सुखित या चिन्तित।
या हैं विपन्न-हित-व्रत-रत॥
या हैं लोकाराधन में।
संलग्न बन परम-संयत॥54॥

कह कह वियोग की बातें।
माण्डवी बहुत थी रोई॥
उर्मिला गयी फिर आई।
पर रात भर नहीं सोई॥55॥

श्रुतिकीर्ति का कलपना तो।
अब तक है मुझे न भूला॥
हो गये याद मेरा उर।
बनता है ममता-झूला॥56॥

यह बतला दो अब मेरी।
बहनों की गति है कैसी?
वे उतनी दुखित न हों पर,
क्या सुखित नहीं हैं वैसी?॥57॥

क्या दशा दासियों की है।
वे दुखित तो नहीं रहतीं॥
या स्नेह-प्रवाहों में पड़।
यातना तो नहीं सहतीं॥58॥

क्या वैसी ही सुखिता है।
महि की सर्वोत्ताम थाती॥
क्या अवधपुरी वैसी ही।
है दिव्य बनी दिखलाती॥59॥

मिट गयी राज्य की हलचल।
या है वह अब भी फैली॥
कल-कीर्ति सिता सी अब तक।
क्या की जाती है मैली॥60॥

बोले रिपुसूदन आर्य्ये।
हैं धीर धुरंधर प्रभुवर॥
नीतिज्ञ, न्यायरत, संयत।
लोकाराधन में तत्पर॥61॥

गुरु-भार उन्हीं पर सारे-
साम्राज्य-संयमन का है॥
तन मन से भव-हित-साधन।
व्रत उनके जीवन का है॥62॥

इस दुर्गम-तम कृति-पथ में।
थीं आप संगिनी ऐसी॥
वैसी तुरन्त थीं बनती।
प्रियतम-प्रवृत्ति हो जैसी॥63॥

आश्रम-निवास ही इसका।
सर्वोत्तम-उदाहरण है॥
यह है अनुरक्ति-अलौकिक।
भव-वन्दित सदाचरण है॥64॥

यदि रघुकुल-तिलक पुरुष हैं।
श्रीमती शक्ति हैं उनकी॥
जो प्रभुवर त्रिभुवन-पति हैं।
तो आप भक्ति हैं उनकी॥65॥

विश्रान्ति सामने आती।
तो बिरामदा थीं बनती॥
अनहित-आतप-अवलोके।
हित-वर-वितान थीं तनती॥66॥

थीं पूर्ति न्यूनताओं की।
मति-अवगति थीं कहलाती॥
आपही विपत्ति विलोके।
थीं परम-शान्ति बन पाती॥67॥

अतएव आप ही सोचें।
वे कितने होंगे विह्नल॥
पर धीर-धुरंधरता का।
नृपवर को है सच्चा-बल॥68॥

वे इतनी तन्मयता से।
कर्तव्यों को हैं करते॥
इस भावुकता से वे हैं।
बहु-सद्भावों से भरते॥69॥

इतने दृढ़ हैं कि बदन पर।
दुख-छाया नहीं दिखाती॥
कातरता सम्मुख आये।
कँप कर है कतरा जाती॥70॥

फिर भी तो हृदय हृदय है।
वेदना-रहित क्यों होगा॥
तज हृदय-वल्लभा को क्यों।
भव-सुख जायेगा भोगा॥71॥

जो सज्या-भवन सदा ही।
सबको हँसता दिखलाता॥
जिसको विलोक आनन्दित।
आनन्द स्वयं हो जाता॥72॥

जिसमें बहती रहती थी।
उल्लासमयी - रस - धारा॥
जो स्वरित बना करता था।
लोकोत्तर-स्वर के द्वारा॥73॥

इन दिनों करुण-रस से वह।
परिप्लावित है दिखलाता॥
अवलोक म्लानता उसकी।
ऑंखों में है जल आता॥74॥

अनुरंजन जो करते थे।
उनकी रंगत है बदली॥
है कान्ति-विहीन दिखाती।
अनुपम-रत्नों की अवली॥75॥

मन मारे बैठी उसमें।
है सुकृतिवती दिखलाती॥
जो गीत करुण-रस-पूरित।
प्राय: रो-रो है गाती॥76॥

हो गये महीनों उसमें।
जाते न तात को देखा॥
हैं खिंची न जाने उनके।
उर में कैसी दुख-रेखा॥77॥

बातें माताओं की मैं।
कहकर कैसे बतलाऊँ॥
उनकी सी ममता कैसे।
मैं शब्दों में भर पाऊँ॥78॥

मेरी आकुल-ऑंखों को।
कबतक वह कलपायेगी॥
उनको रट यही लगी है।
कब जनक-लली आयेगी॥79॥

आज्ञानुसार प्रभुवर के।
श्रीमती माण्डवी प्रतिदिन॥
भगिनियों, दासियों को ले।
उन सब कामों को गिन-गिन॥80॥

करती रहती हैं सादर।
थीं आप जिन्हें नित करती॥
सच्चे जी से वे सारे।
दुखियों का दुख हैं हरती॥81॥

माताओं की सेवायें।
है बड़े लगन से होती॥
फिर भी उनकी ममता नित।
है आपके लिए रोती॥82॥

सब हो पर कोई कैसे।
भवदीय-हृदय पायेगा॥
दिव-सुधा सुधाकर का ही।
बरतर-कर बरसायेगा॥83॥

बहनें जनहित व्रतरत रह।
हैं बहुत कुछ स्वदुख भूली॥
पर सत्संगति दृग-गति की।
है बनी असंगति फूली॥84॥

दासियाँ क्या, नगर भर का।
यह है मार्मिक-कण्ठ-स्वर॥
जब देवी आयेंगी, कब-
आयेगा वह वर-बासर॥85॥

है अवध शान्त अति-उन्नत।
बहु-सुख-समृध्दि-परिपूरित॥
सौभाग्य-धाम सुरपुर-सम।
रघुकुल-मणि-महिमा मुखरित॥86॥

है साम्य-नीति के द्वारा।
सारा - साम्राज्य - सुशासित॥
लोकाराधन-मन्त्रों से।
हैं जन-पद परम-प्रभावित॥87॥

पर कहीं-कहीं अब भी है।
कुछ हलचल पाई जाती॥
उत्पात मचा देते हैं।
अब भी कतिपय उत्पाती॥88॥

सिरधरा उन सबों का है।
पाषाण - हृदय - लवणासुर॥
जिसने विध्वंस किये हैं।
बहु ग्राम बड़े-सुन्दर-पुर॥89॥

उसके वध की ही आज्ञा।
प्रभुवर ने मुझको दी है॥
साथ ही उन्होंने मुझसे।
यह निश्चित बात कही है॥90॥

केवल उसका ही वध हो।
कुछ ऐसा कौशल करना॥
लोहा दानव से लेना।
भू को न लहू से भरना॥91॥

आज्ञानुसार कौशल से।
मैं सारे कार्य करूँगा॥
भव के कंटक का वध कर।
भूतल का भार हरूँगा॥92॥

हो गया आपका दर्शन।
आशिष महर्षि से पाई॥
होगी सफला यह यात्रा।
भू में भर भूरि-भलाई॥93॥

रिपुसूदन की बातें सुन।
जी कभी बहुत घबराया॥
या कभी जनक-तनया के।
ऑंखों में ऑंसू आया॥94॥

पर बारम्बार उन्होंने।
अपने को बहुत सँभाला॥
धीरज-धर थाम कलेजा।
सब बातों को सुन डाला॥95॥

फिर कहा कुँवर-वर जाओ।
यात्रा हो सफल तुम्हारी॥
पुरहूत का प्रबल-पवि ही।
है पर्वत-गर्व-प्रहारी॥96॥

है विनय यही विभुवर से।
हो प्रियतम सुयश सवाया॥
वसुधा निमित्त बन जाये।
तब विजय कल्पतरुकाया॥97॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
पग वन्दन कर ले विदा गये दनुजकुल काल।
इसी दिवस सिय ने जने युगल-अलौकिक-लाल॥98॥

द्वादश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

नामकरण-संस्कार
छन्द : तिलोकी
शान्ति-निकेतन के समीप ही सामने।
जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम॥
आज सुसज्जित हो वह सुमन-समूह से।
बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम॥1॥

ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठकर।
मधुर-कंठ से वेद-ध्वनि है कर रहा॥
तपस्विनी सब दिव्य-गान गा रही हैं।
जन-जन-मानस में विनोद है भर रहा॥2॥

एक कुशासन पर कुलपति हैं राजते।
सुतों के सहित पास लसी हैं महिसुता॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी सजग रह।
बन-बन पुलकित हैं बहु-आयोजन-रता॥3॥

नामकरण-संस्कार क्रिया जब हो चुकी।
मुनिवर ने यह सादर महिजा से कहा॥
पुत्रि जनकजे! उन्हें प्राप्त वह हो गया।
रविकुल-रवि का चिरवांछित जो फल रहा॥4॥

कोख आपकी वह लोकोत्तर-खानि है।
जिसने कुल को लाल अलौकिक दो दिए॥
वे होंगे आलोक तम-बलित-पंथ के।
कुश-लव होंगे काल कश्मलों के लिए॥5॥

सकुशल उनका जन्म तपोवन में हुआ।
आशा है संस्कार सभी होंगे यहीं॥
सकल-कलाओं-विद्याओं से हो कलित।
विरहित होंगे वे अपूर्व-गुण से नहीं॥6॥

रिपुसूदन जिस दिवस पधारे थे यहाँ।
उसी दिवस उनके सुप्रसव ने लोक को॥
दी थी मंगलमय यह मंजुल-सूचना।
मधुर करेंगे वे अमधुर-मधु-ओक को॥7॥

मुझे ज्ञात यह बात हुई है आज ही।
हुआ लवण-वध हुए शत्रु-सूदन जयी॥
द्वन्द्व युध्द कर उसको मारा उन्होंने।
पाकर अनुपम-कीर्ति परम-गौरवमयी॥8॥

आशा है अब पूर्ण-शान्ति हो जायगी।
शीघ्र दूर होवेंगी बाधायें-अपर॥
हो जायेगा जन-जन-जीवन बहु-सुखित।
जायेगा अब घर-घर में आनन्द भर॥9॥

दसकंधार का प्रिय-संबंधी लवण था।
अल्प-सहायक-सहकारी उसके न थे॥
कई जनपदों में भी उसकी धाक थी।
बड़े सबल थे उसके प्रति-पालित जथे॥10॥

इसीलिए रघु-पुंगव ने रिपु-दमन को।
दी थी वर-वाहिनी वाहिनी-पति सहित॥
यथा काल हो जिससे दानव-दल-दलन।
हित करते हो सके नहीं भव का अहित॥11॥

किन्तु उन्हें जन-रक्तपात वांछित न था।
हुआ इसलिए वध दुरन्त-दनुजात का॥
आशा है अब अन्य उठाएँगे न शिर।
यथातथ्य हो गया शमन उत्पात का॥12॥

जो हलचल इन दिनों राज्य में थी मची।
उन्हें देख करके जितना ही था दुखित॥
देवि विलोके अन्त दनुज-दौरात्म्य का।
आज हो गया हूँ मैं उतना ही सुखित॥13॥

यदि आहव होता अनर्थ होते बड़े।
हो जाता पविपात लोक की शान्ति पर॥
वृथा परम-पीड़ित होती कितनी प्रजा।
काल का कवल बनता मधुपुर सा नगर॥14॥

किन्तु नृप-शिरोमणि की संयत-नीति ने।
करवाई वह क्रिया युक्ति-सत्तामयी॥
जिससे संकट टला अकंटक महि बनी।
हुई पूत-मानवता पशुता पर जयी॥15॥

मन का नियमन प्रति-पालन शुचि-नीति का।
प्रजा-पुंज-अनुरंजन भव-हित-साधना॥
कौन कर सका भू में रघुकुल-तिलक सा।
आत्म-सुखों को त्याग लोक-अराधना॥16॥

देवि अन्यतम-मूर्ति उन्हीं की आपको।
युगल-सुअन के रूप में मिली है अत:॥
अब होगी वह महा-साधना आपकी।
बनें पूततम पूत पिता के सम यत:॥17॥

आपके कलिततम-कर-कमलों की रची।
यह सामने लसी सुमूर्ति श्रीराम की॥
जो है अनुपम, जिसकी देखे दिव्यता।
कान्तिमती बन सकी विभा घनश्याम की॥18॥

इस महान-मन्दिर में जिसकी स्थापना।
हुई आपकी भावुकतामय-भक्ति से॥
आज नितान्त अलंकृत जो है हो गई।
किसी कान्तकर की कुसुमित-अनुरक्ति से॥19॥

रात-रात भर दिन-दिन भर जिसके निकट।
बैठ बिताती आप हैं विरह के दिवस॥
आकुलता में दे देता बहु-शान्ति है।
जिसके उज्ज्वलतम-पुनीत-पग का परस॥20॥

जिसके लिए मनोहर-गजरे प्रति-दिवस।
विरच आप होती रहती हैं बहु-सुखित॥
जिसको अर्पण किए बिना फल ग्रहण भी।
नहीं आपकी सुरुचि समझती है उचित॥21॥

राजकीय सब परिधानों से रहित कर।
शिशु-स्वरूप में जो उसको परिणत करें।
तो वह कुश-लव मंजु-मूर्ति बन जायगी।
यह विलोम मम-नयन न क्यों मुद से भरें॥22॥

देवि! पति-परायणता तन्मयता तथा।
तदीयता ही है उदीयमाना हुई॥
उभय सुतों की आकृति में, कल-कान्ति में-
गात-श्यामता में कर अपनोदन हुई॥23॥

आशा है इनकी ही शुचि-अनुभूति से।
शिशुओं में वह बीज हुआ होगा वपित॥
पितृ-चरण के अति-उदात्त-आचरण का।
आप उसे ही कर सकती हैं अंकुरित॥24॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।
उसका पद है जीवन का भी जनयिता॥
उसमें है वह शक्ति-सुत-चरित सृजन की।
नहीं पा सका जिसे प्रकृति-कर से पिता॥25॥

इतनी बातें कह मुनिवर जब चुप हुए।
आता जल जब रोक रहे थे सिय-नयन॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी तब उठीं।
और कहे ये बड़े-मनमोहक-वचन॥26॥

था प्रिय-प्रात:काल उषा की लालिमा।
रविकर-द्वारा आरंजित थी हो रही॥
समय के मृदुलतम-अन्तस्तल में विहँस।
प्रकृति-सुन्दरी प्रणय-बीज थी बो रही॥27॥

मंद-मंद मंजुल-गति से चल कर मरुत।
वर उपवन को सौरभमय था कर रहा॥
प्राणिमात्र में तरुओं में तृण-राजि में।
केलि-निलय बन बहु-विनोद था भर रहा॥28॥

धीरे-धीरे द्युमणि-कान्त किरणावली।
ज्योतिर्मय थी धरा-धाम को कर रही॥
खेल रही थी कंचन के कल-कलस से।
बहुत विलसती अमल-कलम-दल पर रही॥29॥

किसे नहीं करती विमुग्ध थी इस समय।
बने ठने उपवन की फुलवारी लसी॥
विकच-कुसुम के व्याज आज उत्फुल्लता।
उसमें आकर मूर्तिमयी बन थी बसी॥30॥

बेले के अलबेलेपन में आज थी।
किसी बड़े-अलबेले की विलसी छटा॥
श्याम-घटा-कुसुमावलि श्यामलता मिले।
बनी हुई थी सावन की सरसा घटा॥31॥

यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकायें कुन्द की।
मधुर हँस हँस कर थीं दाँत निकालती॥
आशा कर कमनीयतम-कर-स्पर्श की।
फूली नहीं समाती थी तो मालती॥32॥

बहु-कुसुमित हो बनी विकच-बदना रही।
यथातथ्य आमोदमयी हो यूथिका॥
किसी समागत के शुभ-स्वागत के लिए।
मँह मँह मँह मँह महक रही थी मल्लिका॥33॥

रंग जमाता लोक-लोचनों पर रहा।
चंपा का चंपई रंग बन चारुतर॥
अधिक लसित पाटल-प्रसून था हो गया।
किसी कुँवर अनुराग-राग से भूरि भर॥34॥

उल्लसिता दिखलाती थी शेफालिका।
कलिकाओं के बड़े-कान्त गहने पहन॥
पंथ किसी माधाव का थी अवलोकती।
मधु-ऋतु जैसी मुग्धकरी माधावी बन॥35॥

पहन हरिततम अपने प्रिय परिधान को।
था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥
बना रही थी जपा-लालिमा को ललित।
किसी लाल के अवलोकन की लालसा॥36॥

इसी बड़ी सुन्दर-फुलवारी में कुसुम-
चयन निरत दो-दिव्य मूर्तियाँ थीं लसी॥
जिनकी चितवन में थी अनुपम-चारुता।
सरस सुधा-रस से भी थी जिनकी हँसी॥37॥

एक रहे उन्नत-ललाट वर-विधु-बदन।
नव-नीरद-श्यामावदात नीरज-नयन॥
पीन-वक्ष आजान-बाहु मांसल-वपुष।
धीर-वीर अति-सौम्य सर्व-गौरव-सदन॥38॥

मणिमय-मुकुट-विमंडित कुण्डल-अलंकृत।
बहु-विधि मंजुल-मुक्तावलि-माला लसित॥
परमोत्ताम-परिधान-वान सौन्दर्य-धन।
लोकोत्तर-कमनीय-कलादिक-आकलित॥39॥

थे द्वितीय नयनाभिराम विकसित-बदन।
कनक-कान्ति माधुर्य-मूर्ति मंथन मथन॥
विविध-वर-वसन-लसित किरीटी-कुण्डली।
कर्म्म-परायण परम-तीव्र साहस-सदन॥40॥

दोनों राजकुमार मुग्ध हो हो छटा।
थे उत्फुल्ल-प्रसूनों को अवलोकते॥
उनके कोमल-सरस-चित्त प्राय: उन्हें।
विकच-कुसुम-चय चयन से रहे रोकते॥41॥

फिर भी पूजन के निमित्त गुरुदेव के।
उन लोगों ने थोड़े कुसुमों को चुना॥
इसी समय उपवन में कुछ ही दूर पर।
उनके कानों ने कलरव होता सुना॥42॥

राज-नन्दिनी गिरिजा-पूजन के लिए।
उपवन-पथ से मन्दिर में थीं जा रही॥
साथ में रहीं सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थीं गा रही॥43॥

यह दल पहुँचा जब फुलवारी के निकट।
नियति ने नियत-समय-महत्ता दी दिखा॥
प्रकृति-लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर-लेख ललिततम-भावों का लिखा॥44॥

राज-नन्दिनी तथा राज-नन्दन नयन।
मिले अचानक विपुल-विकच-सरसिज बने॥
बीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन-रसमय-भावों में सने॥45॥

एक बनी श्यामली-मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर-मध्य बसी गौरांगिनी॥
दोनों की चित-वृत्ति अचांचक-पूत रह।
किसी छलकती छबि के द्वारा थी छिनी॥46॥

उपवन था इस समय बना आनन्द-वन।
सुमनस-मानस हरते थे सारे सुमन॥
अधिक-हरे हो गये सकल-तरु-पुंज थे।
चहक रहे थे विहग-वृन्द बहु-मुग्ध बन॥47॥

राज-नन्दिनी के शुभ-परिणय के समय।
रचा गया था एक-स्वयंवर-दिव्यतम॥
रही प्रतिज्ञा उस भव-धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वज्र-सम॥48॥

धारणीतल के बड़े-धुरंधर वीर सब।
जिसको उठा सके न अपार-प्रयत्न कर॥
तोड़ उसे कर राज-नन्दिनी का वरण।
उपवन के अनुरक्त बने जब योग्य-वर॥49॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना॥
है विशालता उसकी विश्व-विमोहिनी।
सुर-पादप सा है प्रशस्त उसका तना॥50॥

है जनता-हित-रता लोक-उपकारिका।
है नाना-संताप-समूह-विनाशिनी॥
है सुखदा, वरदा, प्रमोद-उत्पादिका।
उसकी छाया है क्षिति-तल छबि-वर्ध्दिनी॥51॥

बड़े-भाग्य से उसी अलौकिक-विटप से।
दो लोकोत्तर-फल अब हैं भू को मिले॥
देखे रविकुल-रवि के सुत के वर-बदन।
उसका मानस क्यों न बनज-वन सा खिले॥52॥

देवि बधाई मैं देती हूँ आपको।
और चाहती हूँ यह सच्चे-हृदय से॥
चिरजीवी हों दिव्य-कोख के लाल ये।
और यशस्वी बनें पिता-सम-समय से॥53॥

इतने ही में वर-वीणा बजने लगी।
मधुर-कण्ठ से मधुमय-देवालय बना॥
प्रेम-उत्स हो गया सरस-आलाप से।
जनक-नन्दिनी ऑंखों से ऑंसू छना॥54॥
पद
बधाई देने आयी हूँ
गोद आपकी भरी विलोके फूली नहीं समाई हूँ॥
लालों का मुख चूम बलाएँ लेने को ललचाई हूँ।
ललक-भरे-लोचन से देखे बहु-पुलकित हो पाई हूँ॥
जिनका कोमल-मुख अवलोके मुदिता बनी सवाई हूँ।
जुग-जुग जियें लाल वे जिनकी ललकें देख ललाई हूँ॥
विपुल-उमंग-भरे-भावों के चुने-फूल मैं लाई हूँ।
चाह यही है उन्हें चढ़ाऊँ जिनपर बहुत लुभाई हूँ॥
रीझ रीझ कर विशद-गुणों पर मैं जिसकी कहलाई हूँ।
उसे बधाई दिये कुसुमिता-लता-सदृश लहराई हूँ॥1॥55॥

जंगल में मंगल होता है।
भव-हित-रत के लिए गरल भी बनता सरस-सुधा सोता है।
काँटे बनते हैं प्रसून-चय कुलिश मृदुलतम हो जाता है॥
महा-भयंकर परम-गहन-वन उपमा उपवन की पाता है।
उसको ऋध्दि सिध्दि है मिलती साधो सभी काम सधता है॥
पाहन पानी में तिरता है, सेतु वारिनिधि पर बँधता है।
दो बाँहें हों किन्तु उसे लाखों बाँहों का बल मिलता है॥
उसी के खिलाये मानवता का बहु-म्लान-बदन खिलता है।
तीन लोक कम्पितकारी अपकारी की मद वह ढाता है॥
पाप-तप से तप्त-धरा पर सरस-सुधा वह बरसाता है।
रघुकुल-पुंगव ऐसे ही हैं, वास्तव में वे रविकुल-रवि हैं॥
वे प्रसून से भी कोमल हैं, पर पातक-पर्वत के पवि हैं।
सहधार्मिणी आप हैं उनकी देवि आप दिव्यतामयी हैं॥
इसीलिए बहु-प्रबल-बलाओं पर भी आप हुई विजयी हैं।
आपकी प्रथित-सुकृति-लता के दोनों सुत दो उत्तम-फल हैं॥
पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, शिव-शिर-गौरव गंगाजल हैं।
पिता-पुण्य के प्रतिपादक हैं, जननी-सत्कृति के सम्बल हैं॥
रविकुल-मानस के मराल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।
मुनि-पुंगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोविद बन जावें॥
चिरजीवें कल-कीर्ति सुधा पी वसुधा के गौरव कहलावें॥2॥56॥
तिलोकी
जब तपस्विनी-सत्यवती-गाना रुका।
जनकसुता ने सविनय मुनिवर से कहा॥
देव! आपकी आज्ञा शिरसा-धार्य्य है।
सदुपदेश कब नहीं लोक-हित-कर रहा॥57॥

जितनी मैं उपकृता हुई हूँ आपसे।
वैसे व्यापक शब्द न मेरे पास हैं॥
जिनके द्वारा धन्यवाद दूँ आपको।
होती कब गुरु-जन को इसकी प्यास है॥58॥

हाँ, यह आशीर्वाद कृपा कर दीजिए।
मेरे चित को चंचल-मति छू ले नहीं॥
विविध व्यथाएँ सहूँ किन्तु पति-वांछिता।
लोकाराधन-पूत-नीति भूले नहीं॥59॥

तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी आपकी।
जैसी अति-प्रिय-संज्ञा है मृदुभाषिणी॥
हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल।
कहाँ मिलेंगी ऐसी हित-अभिलाषिणी॥60॥

अति उदार हृदया हैं, हैं भवहित-रता।
आप धर्म-भावों की हैं अधिकारिणी॥
हैं मेरी सुविधा-विधायिनी शान्तिदा।
मलिन-मनों में हैं शुचिता-संचारिणी॥61॥

कभी बने जलबिन्दु कभी मोती बने।
हुए ऑंसुओं का ऑंखों से सामना॥
अनुगृहीता हुई अति कृतज्ञा बनी।
सुने आपकी भावमयी शुभ कामना॥62॥

आप श्रीमती सत्यवती हैं सहृदया।
है कृपालुता आपकी प्रकृति में भरी॥
फिर भी देती धन्यवाद हूँ आपको।
है सद्वांछा आपकी परम-हित-करी॥63॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
फैला आश्रम-ओक में परम-ललित-आलोक।
मुनिवर उठे समण्डली सांग-क्रिया अवलोक॥64॥

त्रयोदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जीवन-यात्रा
छन्द : तिलोकी
तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा।
पुण्यमयी-पावन-प्रवृत्ति की पूर्ति थीं॥
तपस्विनी-गण की आदरमय-दृष्टि में।
मानवता-ममता की महती-मूर्ति थीं॥1॥

ब्रह्मचर्य-रत वाल्मीकाश्रम-छात्रा-गण।
तपोभूमि-तापस, विद्यालय-विबुध-जन॥
मूर्तिमती-देवी थे उनको मानते।
भक्तिभाव-सुमनाजंलि द्वारा कर यजन॥2॥

अधिक-शिथिलता गर्भभार-जनिता रही।
फिर भी परहित-रता सर्वदा वे मिलीं॥
कर सेवा आश्रम-तपस्विनी-वृन्द की।
वे कब नहीं प्रभात-कमलिनी सी खिलीं॥3॥

उन्हें रोकती रहती आश्रम-स्वामिनी।
कह वे बातें जिन्हें उचित थीं जानती॥
किन्तु किसी दुख में पतिता को देखकर।
कभी नहीं उनकी ममता थी मानती॥4॥

देख चींटियों का दल ऑंटा छींटतीं।
दाना दे दे खग-कुल को थीं पालती॥
मृग-समूह के सम्मुख, उनको प्यार कर।
कोमल-हरित तृणावलि वे थीं डालतीं॥5॥

शान्ति-निकेतन के समीप के सकल-तरु।
रहते थे खग-कुल के कूजन से स्वरित॥
सदा वायु-मण्डल उसके सब ओर का।
रहता था कलकण्ठ कलित-रव से भरित॥6॥

किसी पेड़ पर शुक बैठे थे बोलते।
किसी पर सुनाता मैना का गान था॥
किसी पर पपीहा कहता था पी कहाँ।
किसी पर लगाता पिक अपनी तान था॥7॥

उसके सम्मुख के सुन्दर-मैदान में।
कहीं विलसती थी पारावत-मण्डली॥
बोल-बोल कर बड़ी-अनूठी-बोलियाँ।
कहीं केलिरत रहती बहु-विहगावली॥8॥

इधर-उधर थे मृग के शावक घूमते।
कभी छलाँगें भर मानस को मोहते॥
धीरे-धीरे कभी किसी के पास जा।
भोले-दृग से उसका बदन विलोकते॥9॥

एक द्विरद का बच्चा कतिपय-मास का।
जनक-नन्दिनी के कर से जो था पला॥
प्राय: फिरता मिलता इस मैदान में।
मातृ-हीन कर जिसे प्रकृति ने था छला॥10॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति दिवस।
जनक-नन्दिनी कर से होता था भला॥
शान्ति-निकेतन के सब ओर इसीलिए।
दिखलाती थी सर्व-भूत-हित की कला॥11॥

दो पुत्रों के प्रतिपालन का भार भी।
उन्हें बनाता था न लोक-हित से विमुख॥
यह ही उनकी हृत्तांत्री का राग था।
यह ही उनके जीवन का था सहज-सुख॥12॥

पाँवोंवाले दोनों सुत थे हो गए।
अपनी ही धुन में वे रहते मस्त थे॥
फिर भी वे उनको सँभाल उनसे निबट।
उनकी भी सुनतीं जो आपद्ग्रस्त थे॥13॥

थीं कितनी आश्रम-निवासिनी मोहिता।
आ प्रतिदिन अवलोकन करती थीं कई॥
नयनों में थे युगल-कुमार समा गए।
हृदयों में श्यामली-मूर्ति थी बस गई॥14॥

किन्तु सहृदया सत्यवती-ममता अधिक।
थी विदेह-नन्दिनी युगल-नन्दनों पर॥
जन्मकाल ही से उनकी परिसेवना।
वह करती ही रहती थी आठों-पहर॥15॥

इसीलिए वह थी विदेहजा-सहचरी।
इसीलिए वे उसे बहुत थीं मानती॥
उनके मन की कितनी ही बातें बना।
वह लड़कों को बहलाना थी जानती॥16॥

कभी रिझाती उन्हें वेणु वीणा बजा।
तरह-तरह के खेल वह खेलाती कभी॥
कभी खेलौने रखती उनके सामने।
स्वयं खेलौना वह थी बन जाती कभी॥17॥

विरह-वेदना से विदेहजा जब कभी।
व्याकुल होतीं तब थी उन्हें सँभालती॥
गा गा करके भाव-भरे नाना-भजन।
तपे-हृदय पर थी तर-छीटे डालती॥18॥

आत्रेयी की सत्यवती थी प्रिय-सखी।
अत: उन्होंने उसके मुख से थी सुनी॥
विदेहजा के विरह-व्यथाओं की कथा।
जो थी वैसी पूता जैसी सुरधुनी॥19॥

आत्रेयी थीं बुध्दिमती-विदुषी बड़ी।
विरह-वेदना बातें सुन होकर द्रवित॥
शान्ति-निकेतन में आयीं वे एक दिन।
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी के सहित॥20॥

जनक-नन्दिनी ने सादर-कर-वन्दना।
बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया॥
फिर यह सविनय परम-मधुर-स्वर सेकहा।
बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया॥21॥

आत्रेयी बोलीं हूँ क्षमाधिकारिणी।
आई हूँ मैं आज कुछ कथन के लिए॥
आपके चरित हैं अति-पावन दिव्यतम।
आपको नियति ने हैं अनुपम-गुण दिए॥22॥

अपनी परहित-रता पुनीत-प्रवृत्ति से।
सहज-सदाशयता से सुन्दर-प्रकृति से॥
लोकरंजिनी-नीति पूत-पति-प्रीति से।
सच्ची-सहृदयता से सहजा-सुकृति से॥23॥

कहा, मानवी हैं देवी सी अर्चिता।
व्यथिता होते, हैं कर्तव्य-परायणा॥
अश्रु-बिन्दुओं में भी है धृति झलकती।
अहित हुए भी रहती है हित-धारणा॥24॥

साम्राज्ञी होकर भी सहजा-वृत्ति है।
राजनन्दिनी होकर हैं भव-सेविका॥
यद्यपि हैं सर्वाधिकारिणी धरा की।
क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका॥25॥

कभी किसी को दुख पहुँचाती हैं नहीं।
सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा॥
कटु-बातें आनन पर आतीं ही नहीं।
आप सी न अवलोकी अन्य प्रियम्वदा॥26॥

नवनीतोपम कोमलता के साथ ही।
अन्तस्तल में अतुल-विमलता है बसी॥
सात्तिवकता-सितता से हो उद्भासिता।
वहीं श्यामली-मूर्ति किसी की है लसी॥27॥

देवि! आप वास्तव में हैं पति-देवता।
आप वास्तविकता की सच्ची-स्फूर्ति हैं॥
हैं प्रतिपत्ति प्रथित-स्वर्गीय-विभूति की।
आप सत्यता की, शिवता की मूर्ति हैं॥28॥

किन्तु देखती हूँ मैं जीवन आपका।
प्राय: है आवरित रहा आपत्ति से॥
ले लीजिए विवाह-काल ही उस समय।
रहा स्वयंवर ग्रसित विचित्र-विपत्ति से॥29॥

था विवाह अधीन शंभु-धनु भंग के।
किन्तु तोड़ने से वह तो टूटा नहीं॥
वसुंधरा के वीर थके बहु-यत्न कर।
किन्तु विफलता का कलंक छूटा नहीं॥30॥

देख यह दशा हुए विदेह बहुत-विकल।
हुईं आपकी जननी व्यथिता, चिन्तिता॥
आप रहीं रघु-पुंगव-बदन विलोकती।
कोमलता अवलोक रहीं अति-शंकिता॥31॥

राम-मृदुल-कर छूते ही टूटा धनुष।
लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई॥
किन्तु कलेजों में असफल-नृप-वृन्द के।
चुभने लगी अचानक ईष्या की सुई॥32॥

कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित।
परिणय होगा नहीं टूटने से धनुष॥
समर भयंकर होगा महिजा के लिए।
असि-धारा सुर-सरिता काटेगी कलुष॥33॥

राजाओं की देख युध्द-आयोजन।
सभी हुए भयभीत कलेजे हिल गए॥
वे भी सके न बोल न्याय प्रिय था जिन्हें।
बड़े-बड़े-धीरों के मँह भी सिल गए॥34॥

इसी समय भृगुकुल-पुंगव आये वहाँ।
उन्हें देख बहु-भूप भगे, बहु दब गए॥
सब ने सोचा बहुत-बड़ा-संकट टला।
खड़े हो सकेंगे न अब बखेडे नये॥35॥

पर वे तो वध-अर्थ उसे थे खोजते।
जिसने तोड़ा था उनके गुरु का धनुष॥
यही नहीं हो हो कर परम-कुपित उसे।
कहते थे कटु-वचन परुष से भी परुष॥36॥

ज्ञात हुए यह, सब लोगों के रोंगटे।
खड़े हो गये लगे कलेजे काँपने॥
किन्तु तुरन्त उन्हें अनुकूल बना लिया।
विनयी-रघुबर के कोमल-आलाप ने॥37॥

था यौवन का काल हृदय उत्फुल्ल था।
प्रेम-ग्रंथि दिन दिन दृढ़तम थी हो रही॥
राज-विभव था राज्य-सदन था स्वर्ग सा।
ललक उरों में लगन बीज था बो रही॥38॥

वर विलासमय बन वासर था विलसता।
रजनी पल पल पर थी अनुरंजन-रता॥
यदि विनोद हँसता मुखड़ा था मोहता।
तो रसराज रहा ऊपर रस बरसता॥39॥

पितृ-सद्म ममता ने भूल मन जिस समय।
ससुर-सदन में शनै: शनै: था रम रहा॥
उन्हीं दिनों अवसर ने आकर आपसे।
समाचार पति राज्यारोहण का कहा॥40॥

आह! दूसरे दिवस सुना जो आपने।
किसका नहीं कलेजा उसको सुन छिला॥
कैकेई-सुत-राज्य पा गये राम को।
कानन-वास चतुर्दश-वत्सर का मिला॥41॥

कहाँ किस समय ऐसी दुर्घटना हुई।
कहते हैं इतिहास कलेजा थामकर॥
वृथा कलंकित कैकेई की मति हुई।
कहते हैं अब भी सब इसको आह भर॥42॥

आपने दिखाया सतीत्व जो उस समय।
वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा॥
चौदह सालों तक वन में पति साथ रह।
किस कुल-बाला ने है इतना दुख सहा॥43॥

थीं सम्राट्-वधू धराधिपति की सुता।
ऋध्दि सिध्दि कर बाँधो सम्मुख थी खड़ी॥
सकल-विभव थे आनन सदा विलोकते।
रत्नराजि थी तलवों के नीचे पड़ी॥44॥

किन्तु आपने पल भर में सबको तजा।
प्राणनाथ के आनन को अवलोक कर॥
था यह प्रेम प्रतीक, पूततम-भाव का।
था यह त्याग अलौकिक, अनुपम चकित कर॥45॥

इस प्रवास वन-वास-काल का वह समय।
अति-कुत्सित था, हुई जब घृणिततम-क्रिया॥
जब आया था कंचन का मृग सामने।
रावण ने जब आपका हरण था किया॥46॥

लंका में जो हुई यातना आपकी।
छ महीने तक हुईं साँसतें जो वहाँ।
जीभ कहे तो कहे किस तरह से उसे।
उसमें उनके अनुभव का है बल कहाँ॥47॥

मूर्तिमती-दुर्गति-दानवी-प्रकोप से।
आपने वहाँ जितनी पीड़ायें सहीं॥
उन्हें देख आहें भरती थी आह भी।
कम्पित होती नरक-यंत्राणायें रहीं॥48॥

नीचाशयता की वे चरम-विवृत्ति थीं।
दुराचार की वे उत्कट-आवृत्ति थीं॥
रावण वज्र-हृदयता की थीं प्रक्रिया।
दानवता की वे दुर्दान्त-प्रवृत्ति थीं॥49॥

किन्तु हुआ पामरता का अवसान भी।
पापानल में स्वयं दग्ध पापी हुआ॥
ऑंच लगे कनकाभा परमोज्ज्वल बनी।
स्वाति-बिन्दु चातकी चारु-मुख में चुआ॥50॥

आपके परम-पावन-पुण्य-प्रभाव से।
महामना श्री भरत-सुकृति का बल मिले॥
फिर वे दिन आये जो बहु वांछित रहे।
जिन्हें लाभकर पुरजन पंकज से खिले॥51॥

हुआ राम का राज्य, लोक अभिरामता।
दर्शन देने लगी सब जगह दिव्य बन॥
सकल-जनपदों, नगरों, ग्रामादिकों में।
विमल-कीर्ति का गया मनोज्ञ वितान तन॥52॥

सब कुछ था पर एक लाल की लालसा।
लालायित थी ललकित चित को कर रही॥
मिले काल-अनुकूल गर्भ-धारण हुआ।
युगल उरों में वर विनोद धरा बही॥53॥

पति-इच्छा से वर-सुत-लाभ-प्रवृत्ति से।
अति-पुनीत-आश्रम में आयी आप हैं॥
सफल हुई कामना महा-मंगल हुआ।
किन्तु सताते नित्य विरह-संताप हैं॥54॥

आते ही पति-मूर्ति बनाना स्वकर से।
उसे सजाना पहनाना गजरे बना॥
पास बैठ उसको देखा करना सतत।
करते रहना बहु-भावों की व्यंजना॥55॥

हम लोगों को यह बतलाता नित्य था।
विरह विकलता से क्या है चित की दशा॥
कितनी पतिप्राणा हैं आप, तथैव है-
कैसा पति-आनन अवलोकन का नशा॥56॥

किन्तु यह समझ चित में रहती शान्ति थी।
अल्प-समय तक ही होगी यह यातना॥
क्योंकि रहा विश्वास प्रसव उपरान्त ही।
आपको अवध-अवनी देगी सान्त्वना॥57॥

किन्तु देखती हूँ यह, पुत्रवती बने।
हुआ आपको एक साल से कुछ अधिक॥
किन्तु अवध की दृष्टि न फिर पाई इधर।
और आपके स्वर में स्वर भर गया पिक॥58॥

कुलपति-आश्रम की विधि मुझको ज्ञात है।
गर्भवती-पति-रुचि के वह अधीन है॥
वह चाहे तो उसे बुला ले या न ले।
पर आश्रम का वास ही समीचीन है॥59॥

तपोभूमि में जिसका सब संस्कार हो।
आश्रम में ही जो शिक्षित, दीक्षित, बने॥
वह क्यों वैसा लोक-पूज्य होगा नहीं।
धरा पूत बनती है जैसा सुत जने॥60॥

रघुकुल-पुंगव सब बातें हैं जानते।
इसीलिए हैं आप यहाँ भेजी गईं॥
कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा।
देख रही हूँ आप अब यहीं की हुईं॥61॥

आप सती हैं, हैं कर्तव्य-परायणा।
सब सह लेंगी कृति से च्युत होंगी नहीं॥
किन्तु बहु-व्यथामयी है विरह-वेदना।
उससे आप यहाँ भी नहीं बची रहीं॥62॥

आजीवन जीवन-धन से बिछुड़ी न जो।
लंका के छ महीने जिसे छ युग बने॥
उसे क्यों न उसके दिन होंगे व्यथामय।
जिस वियोग के बरस न गिन पाये गिने॥63॥

आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।
रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा।
देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका।
मेरा जी बन जाता है व्याकुल बड़ा॥64॥

पर विलोककर अनुपम-निग्रह आपका।
देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता॥
पर दुख कातरता उदारता से भरी।
अवलोकन कर नयन-नीर की नीरता॥65॥

होता है विश्वास विरह-जनिता-व्यथा।
बनेगी न बाधिका पुनीत-प्रवृत्ति की॥
दूर करेगी उर-विरक्ति को सर्वदा।
ममता जनता-विविध-विपत्ति-निवृत्ति की॥66॥

पड़ विपत्तियों में भी कब पर-हित-रता।
पर का हित करने से है मँह मोड़ती॥
बँधती गिरती टकराती है शिला से।
है न सरसता को सुरसरिता छोड़ती॥67॥

महि में महिमामय अनेक हो गये हैं।
यथा समय कम हुई नहीं महिमामयी॥
पर प्राय: सब विविध-संकटों में पड़े।
किन्तु उसे उनपर स्व-आत्मबल से जयी॥68॥

मलिन-मानसों की मलीनता दूर कर।
भरती रहती है भूतल में भव्यता॥
है फूटती दिखाती संकट-तिमिर में।
दिव्य-जनों या देवी ही की दिव्यता॥69॥

आश्रम की कुछ ब्रह्मचारिणी-मूर्तियाँ।
ऐसी हैं जिनमें है भौतिकता भरी॥
किन्तु आपके लोकोत्तर-आदर्श ने।
उनकी कितनी बुरी-वृत्तियाँ हैं हरी॥70॥

इस विचार से भी पधारना आपका।
तपस्विनी-आश्रम का उपकारक हुआ॥
निज प्रभाव का वर-आलोक प्रदान कर।
कितने मानस-तम का संहारक हुआ॥71॥

है समाप्त हो गया यहाँ का अध्ययन।
अब अगस्त-आश्रम में मैं हूँ जा रही॥
विदा ग्रहण के लिए उपस्थित हुई हूँ।
यद्यपि मुझे पृथकता है कलपा रही॥72॥

है कामना अलौकिक दोनों लाड़िले।
पुण्य-पुंज के पूत-प्रतीक प्रतीत हों॥
तज अवैध-गति विधि-विधान-सर्वस्व बन।
आपके विरह-बासर शीघ्र व्यतीत हों॥73॥

जनक-नन्दिनी ने अन्याश्रम-गमन सुन।
कहा आप जायें मंगल हो आपका॥
अहह कहाँ पाऊँगी विदुषी आप सी।
आपका वचन पय था मम-संताप का॥74॥

अनसूया देवी सी वर-विद्यावती।
सदाचारिणी सर्व-शास्त्र-पारंगता॥
यदि मैंने देखी तो देखी आपको।
वैसी ही हैं आप सुधी पर-हित-रता॥75॥

जो उपदेश उन्होंने मुझको दिए हैं।
वे मेरे जीवन के प्रिय-अवलम्ब हैं॥
उपवन रूपी मेरे मानस के लिए।
सुरभित करनेवाले कुसुम-कदम्ब है॥76॥

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।
पति-वियोग-दुख सा जग में है कौन दुख॥
तुच्छ सामने उसके भव-सम्पत्ति है।
पति-सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग-सुख॥77॥

अन्तर का परदा रह जाता ही नहीं।
एक रंग ही में रँग जाते हैं उभय॥
जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण।
बन जाते हैं एक जब मिलें दो हृदय॥78॥

रहे इसी पथ के मम जीवन-धन पथिक।
यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा॥
किन्तु करें संयोग के लिए यत्न क्या।
आकस्मिक-घटना दुख देती है महा॥79॥

कार्य-सिध्द के सारे-साधन मिल गए।
कृत्यों में त्रुटि-लेश भी न होते कहीं॥
आये विघ्न अचिन्तनीय यदि सामने।
तो नितान्त-चिन्तित चित क्यों होगा नहीं॥80॥

जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया।
जो जीवन का सम्बल अवलम्बन रहा॥
तो आवेग बनायें क्यों आकुल नहीं।
कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा॥81॥

भूल न पाईं वे बातें ममतामयी।
प्रीति-सुधा से सिक्त सर्वदा जो रहीं॥
स्मृति यदि है मेरे जीवन की सहचरी।
अहह आत्म-विस्मृति तो क्यों होगी नहीं॥82॥

बिना वारि के मीन बने वे आज हैं।
रहे जो नयन सदा स्नेह-रस में सने॥
भला न कैसे हो मेरी मति बावली।
क्यों प्रमत्त उन्मत्ता नहीं ममता बने॥83॥

रविकुल-रवि का आनन अवलोके बिना।
सरस शरद-सरसीरुह से वे क्यों खिलें॥
क्यों न ललकते आकुल हो तारे रहें।
क्यों न छलकते ऑंखों में ऑंसू मिलें॥84॥

कलपेगा आकुल होता ही रहेगा।
व्यथित बनेगा करेगा न मति की कही॥
निज-वल्लभ को भूल न पाएगा कभी।
हृदय हृदय है सदा रहेगा हृदय ही॥85॥

भूल सकेंगे कभी नहीं वे दिव्य-दिन।
भव्य-भावनायें जब दम भरती रहीं॥
कान रहे जब सुनते परम रुचिर-वचन।
ऑंखें जब छबि-सुधा-पान करती रहीं॥86॥

कभी समीर नहीं होगा गति से रहित।
होगा सलिल तरंगहीन न किसी समय।
कभी अभाव न होगा भाव-विभाव का।
कभी भावना-हीन नहीं होगा हृदय॥87॥

यह स्वाभाविकता है इससे बच सका-
कौन, सभी इस मोह-जाल में हैं फँसे॥
सारे अन्तस्तल में इसकी व्याप्ति है।
मन-प्रसून हैं बास से इसी के बसे॥88॥

विरह-जन्य मेरी पीड़ायें हैं प्रकृत।
किन्तु कभी कर्तव्य-हीन हूँगी न मैं॥
प्रिय-अभिलाषायें जो हैं प्राणेश की।
किसी काल में उनको भूलूँगी न मैं॥89॥

विरह-वेदनाओं में यदि है सबलता।
उनके शासक तो प्रियतम-आदेश हैं॥
जो हैं पावन परम न्याय-संगत उचित।
भव-हितकारक जो सच्चे उपदेश हैं॥90॥

महामना नृप-नीति-परायण दिव्य-धी।
धर्म-धुरंधर दृढ़-प्रतिज्ञ पति-देव हैं॥
फिर भी हैं करुणानिधान बहु दयामय।
लोकाराधन में विशेष अनुरक्त हैं॥91॥

आत्म-सुख-विसर्जन करके भी वे इसे।
करते आये हैं आजीवन करेंगे॥
बिना किये परवा दुस्तर-आवत्ता की।
आपदाब्धि-मज्जित-जन का दुख हरेंगे॥92॥

निज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का।
भार उन्हीं पर है, जो है गुरुतर महा॥
सारी उचित व्यवस्थाओं का सर्वदा।
अधिकारी महि में नृप-सत्तम ही रहा॥93॥

सुतों के सहित मेरे आश्रम-वास से।
देश, जाति, कुल का यदि होता है भला॥
अन्य व्यवस्था तो कैसे हो सकेगी।
सदा तुलेगी तुल्य न्याय-शीला-तुला॥94॥

रघुकुल-पुंगव की मैं हूँ सहधार्मिणी।
जो है उनका धर्म वही मम-धर्म है॥
भली-भाँति मम-उर उसको है जानता।
उनके प्रिय-सिध्दान्तों का जो मर्म है॥95॥

उनकी आज्ञा का पालन मम-ध्येय है।
उनका प्रिय-साधन ही मम-कर्तव्य है॥
उनका ही अनुगमन परम-प्रिय-कार्य है।
उनकी अभिरुचि मम-जीवन-मन्तव्य है॥96॥

विरह-वेदनायें हों किन्तु प्रसन्नता।
उनकी मुझे प्रसन्न बनाती रहेगी॥
मम-ममता देखे पति-प्रिय-साधन बदन।
सर्व यातनायें सुखपूर्वक सहेगी॥97॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
नमन जनकजा ने किया, कह अन्तस्तल-हाल।
विदा हुईं कह शुभ-वचन आत्रेयी तत्काल॥98॥

चतुर्दश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

दाम्पत्य-दिव्यता
छन्द : तिलोकी
प्रकृति-सुन्दरी रही दिव्य-वसना बनी।
कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था॥
मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू।
फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था॥1॥

मलयानिल बह मंद मंद सौरभ-बितर।
वसुधातल को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥
स्फूर्तिमयी-मत्तता-विकचता-रुचिरता।
प्राणि मात्र अन्तस्तल में था भर रहा॥2॥

शिशिर-शीत-शिथिलित-तन-शिरा-समूह में।
समय शक्ति-संचार के लिए लग्न था॥
परिवर्तन की परम-मनोहर-प्रगति पा।
तरु से तृण तक छबि-प्रवाह में मग्न था॥3॥

कितने पादप लाल-लाल कोंपल मिले।
ऋतु-पति के अनुराग-राग में थे रँगे॥
बने मंजु-परिधानवान थे बहु-विटप।
शाखाओं में हरित-नवल-दल के लगे॥4॥

कितने फल फूलों से थे ऐसे लसे।
जिन्हें देखने को लोचन थे तरसते॥
कितने थे इतने प्रफुल्ल इतने सरस।
ललक-दृगों में भी जो थे रस बरसते॥5॥

रुचिर-रसाल हरे दृग-रंजन-दलों में।
लिये मंजु-मंजरी भूरि-सौरभ भरी॥
था सौरभित बनाता वातावरण को।
नचा मानसों में विमुग्धता की परी॥6॥

लाल-लाल-दल-ललित-लालिमा से विलस।
वर्णन कर मर्मर-ध्वनि से विरुदावली॥
मधु-ऋतु के स्वागत करने में मत्त था।
मधु से भरित मधूक बरस सुमनावली॥7॥

रख मुँह-लाली लाल-लाल-कुसुमालि से।
लोक ललकते-लोचन में थे लस रहे॥
देख अलौकिक-कला किसी छबिकान्त की।
दाँत निकाले थे अनार-तरु हँस रहे॥8॥

करते थे विस्तार किसी की कीर्ति का।
कितनों में अनुरक्ति उसी की भर सके॥
दिखा विकचता, उज्ज्वलता, वर-अरुणिमा।
श्वेत-रक्त कमनीय-कुसुम कचनार के॥9॥

होता था यह ज्ञात भानुजा-अंक में।
पीले-पीले-विकच बहु-बनज हैं लसे॥
हरित-दलों में पीताभा की छबि दिखा।
थे कदम्ब-तरु विलसित कुसुम-कदम्ब से॥10॥

कौन नयनवाला प्रफुल्ल बनता नहीं।
भला नहीं खिलती किसके जी की कली॥
देखे प्रिय हरियाली, विशद-विशालता।
अवलोके सेमल-ललाम-सुमनावली॥11॥

नाच-नाच कर रीझ भर सहज-भाव में।
किसी समागत को थे बहुत रिझा रहे॥
बार-बार मलयानिल से मिल-मिल गले।
चल-दल-दल थे गीत मनोहर गा रहे॥12॥

स्तंभ-राजि से सज कुसुमावलि से विलस।
मिले सहज-शीतल-छबिमय-छाया भली॥
हरित-नवल-दल से बन सघन जहाँ तहाँ।
तंबू तान रही थी वट-विटपावली॥13॥

किसको नहीं बना देता है वह सरस।
भला नहीं कैसे होते वे रस भरे॥
नारंगी पर रंग उसी का है चढ़ा।
हैं बसंत के रंग में रँगे संतरे॥14॥

अंक विलसता कैसे कुसुम-समूह से।
हरे-हरे दल उसे नहीं मिलते कहीं॥
नीरसता होती न दूर जो मधु मिले।
तो होता जंबीर नीर-पूरित नहीं॥15॥

कंटकिता-बदरी तो कैसे विलसती।
हो उदार सफला बन क्यों करती भला॥
जो प्रफुल्लता मधु भरता भू में नहीं।
कोबिदार कैसे बनता फूला फला॥16॥

दिखा श्यामली-मूर्ति की मनोहर-छटा।
बन सकता था वह बहु-फलदाता नहीं॥
पाँव न जो जमता महि में ऋतुराज का।
तो जम्बू निज-रंग जमा पाता नहीं॥17॥

कोमलतम किसलय से कान्त नितान्त बन।
दिखा नील-जलधार जैसी अभिरामता॥
कुसुमायुध की सी कमनीया-कान्ति पा।
मोहित करती थी तमाल-तरु-श्यामता॥18॥

मलयानिल की मंथर-गति पर मुग्ध हो।
करती रहती थीं बनठन अठखेलियाँ॥
फूल ब्याज से बार-बार उत्फुल्ल हो।
विलस-विलस कर बहु-अलबेली-बेलियाँ॥19॥

हरे-दलों से हिल मिल खिलती थीं बहुत।
कभी थिरकतीं लहरातीं बनतीं कलित॥
कभी कान्त-कुसुमावलि के गहने पहन।
लतिकायें करती थीं लीलायें ललित॥20॥

कभी मधु-मधुरिमा से बनती छबिमयी।
कभी निछावर करती थी मुक्तावली॥
सजी-साटिका पहनाती थी अवनि को।
विविध-कुसुम-कुल-कलिता हरित-तृणावली॥21॥

दिये हरित-दल उन्हें लाल जोड़े मिलें।
या अनुरक्ति-अरुणिमा ऊपर आ गई।
लाल-लाल-फूलों से विपुल-पलाश के।
कानन में थी ललित-लालिमा छा गई॥22॥

उन्हें बड़े-सुन्दर-लिबास थे मिल गए।
छटा छिटिक थी रही बाँस-खूँटियों पर॥
आज बेल-बूटों से वे थीं विलसती।
टूटी पड़ती थी विभूति बूटियों पर॥23॥

सब दिन जिस पलने पर प्यारा-तन पला।
देती थी उसकी महती-कृति का पता॥
दिखा-दिखा कर हरीतिमा की मधुर-छबि।
नव-दूर्वा-दे महि को मोहक-श्यामता॥24॥

कोकिल की काकली तितिलियों का नटन।
खग-कुल-कूजन रंग-बिरंगी वन-लता॥
अजब-समा थी बाँध छबि पुंजता।
गुंजन-सहित मिलिन्द-वृन्द की मत्तता॥25॥

वर-बासर बरबस था मन को मोहता।
मलयानिल बहु-मुग्ध बना था परसता॥
थी चौगुनी चमकती निशि में चाँदनी।
सरसतम-सुधा रहा सुधाकर बरसता॥26॥

मधु-विकास में मूर्तिमान-सौन्दर्य था।
वांछित-छबि से बनी छबीली थी मही॥
पते-पते में प्रफुल्लता थी भरी।
वन में नर्तन विमुग्धता थी कर रही॥27॥

समय सुनाता वह उन्मादक-राग था।
जिसमें अभिमंत्रित-रसमय-स्वर थे भरे॥
भव-हृत्तांत्री के छिड़ते वे तार थे।
जिनकी ध्वनि सुन होते सूखे-तरु हरे॥28॥

सौरभ में थी ऐसी व्यापक-भूरिता।
तन वाले निज तन-सुधि जाते भूल थे॥
मोहकता-डाली हरियाली थी लिये।
फूले नहीं समाते फूले फूल थे॥29॥

शान्ति-निकेतन के सुन्दर-उद्यान में।
जनक-नन्दिनी सुतों-सहित थीं घूमती॥
उन्हें दिखाती थीं कुसुमावलि की छटा।
बार-बार उनके मुख को थीं चूमती॥30॥

था प्रभात का समय दिवस-मणि-दिव्यता।
अवनीतल को ज्योतिर्मय थी कर रही॥
आलिंगन कर विटप, लता, तृण, आदिका।
कान्तिमय-किरण कानन में थी भर रही॥31॥

युगल-सुअन थे पाँच साल के हो चले।
उन्हें बनाती थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥
कभी तितिलियों के पीछे वे दौड़ते।
कभी किलकते सुन कोकिल की काकली॥32॥

ठुमुक-ठुमुक चल किसी फूल के पास जा।
विहँस विहँस थे तुतली-वाणी बोलते॥
टूटी-फूटी निज पदावली में उमग।
बार-बार थे सरस-सुधारस घोलते॥33॥

दिखा-दिखा कर श्याम-घटा की प्रिय-छटा।
दोनों-सुअनों से यह कहतीं महि-सुता॥
ऐसे ही श्यामावदात कमनीय-तन।
प्यारे पुत्रों तुम लोगों के हैं पिता॥34॥

कहतीं कभी विलोक गुलाब प्रसून की।
बहु-विमुग्ध-कारिणी विचित्र-प्रफुल्लता॥
हैं ऐसे ही विकच-बदन रघुवंश-मणि।
ऐसी ही है उनमें महा-मनोज्ञता॥35॥

नाम बताकर कुन्द, यूथिका आदि का।
दिखा रुचिरता कुसुम श्वेत-अवदात की॥
कहतीं ऐसी ही है कीर्ति समुज्ज्वला।
तुम दोनों प्रिय-भ्राताओं के तात की॥36॥

लोक-रंजिनी ललामता से लालिता।
दिखा जपा सुमनावलि की प्रिय-लालिमा॥
कहती थीं यह, तुम दोनों के जनक की।
ऐसी ही अनुरक्ति है रहित कालिमा॥37॥

हरित-नवल-दल में दिखला अंगजों को।
पीले-पीले कुसुमों की वर विकचता॥
कहती यह थीं ऐसा ही पति-देव के।
श्यामल-तन पर पीताम्बर है विलसता॥38॥

इस प्रकार जब जनक-नन्दिनी सुतों को।
आनन्दित कर पति-गुण-गण थीं गा रही॥
रीझ-रीझ कर उनके बाल-विनोद पर।
निज-वचनों से जब थीं उन्हें रिझा रही॥39॥

उसी समय विज्ञानवती आकर वहाँ।
शिशु-लीलायें अवलोकन करने लगी॥
रमणी-सुलभ-स्वभाव के वशीभूत हो।
उनके अनुरंजन के रंगों में रँगी॥40॥

यह थी विदुषी-ब्रह्मचारिणी प्रायश:।
मिलती रहती थी अवनी-नन्दिनी से॥
तर्क-वितर्क उठा बहु-बातें-हितकरी।
सीखा करती थी सत्पथ-संगिनी से॥41॥

आया देख उसे सादर महिसुता ने।
बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा॥
आप कृपा कर लव-कुश को अवलोकिये।
अब न मुझे अवसर बहलाने का रहा॥42॥

समागता के पास बैठकर जनकजा।
बोलीं कैसे आज आप आईं यहाँ॥
मुसकाकर विज्ञानवती ने यह कहा।
उठने पर कुछ तर्क और जाऊँ कहाँ॥43॥

देवि! आत्म-सुख ही प्रधान है विश्व में।
किसे आत्म-गौरव अतिशय प्यारा नहीं॥
स्वार्थ सर्व-जन-जीवन का सर्वस्व है।
है हित-ज्योति-रहित अन्तर तारा नहीं॥44॥

भिन्न-प्रकृति से कभी प्रकृति मिलती नहीं।
अहंभाव है परिपूरित संसार में॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, स्वर है भरा।
प्राणि मात्र के हृत्तांत्री के तार में॥45॥

है विवाह-बंधन ऐसा बंधन नहीं।
स्वाभाविकता जिसे तोड़ पाती नहीं॥
विविध-परिस्थितियाँ हैं ऐसी बलवती।
जिससे मुँह चितवृत्ति मोड़ पाती नहीं॥46॥

कृत्रिमता है उस कुंझटिका-सदृश जो।
नहीं ठहर पाती विभेद-रविकर परस॥
उससे कलुषित होती रहती है सुरुचि।
असरस बनता रहता है मानस-सरस॥47॥

है सच्चा-व्यवहार शुचि-हृदय का विभव।
प्रीति-प्रतीति-निकेत परस्परता-अयन॥
उर की ग्रंथि विमोचन में समधिक-निपुण।
परम-भव्य-मानस सद्भावों का भवन॥48॥

कृत्रिमता है कपट कुटिलता सहचरी।
मंजुल-मानसता की है अवमानना॥
सहज-सदाशयता पद-पूजन त्यागकर।
यह है करती प्रवंचना की अर्चना॥49॥

किन्तु देखती हूँ मैं यह बहु-घरों में।
सदाचरण से अन्यथाचरण है अधिक॥
कभी-कभी सुख-लिप्सादिक से बलित चित।
सत्प्रवृत्ति-हरिणी का बनता है बधिक॥50॥

भव-मंगल-कामना तथा स्थिति-हेतु से।
नर-नारी का नियति ने किया है सृजन॥
हैं अपूर्ण दोनों पर उनको पूर्णता।
है प्रदान करता दोनों का सम्मिलन॥51॥

प्राणी में ही नहीं, तृणों तक में यही।
अटल व्यवस्था दिखलाती है स्थापिता॥
जो बतलाती है विधि-नियम-अवाधाता।
अनुल्लंघनीयता तथा कृतकार्यता॥52॥

यदि यथेच्छ आहार-विहार-उपेत हो।
नर नारी जीवन, तो होगी अधिकता-
पशु-प्रवृत्ति की, औ उच्छृंखलता बढे।
होवेगी दुर्दशा-मर्दिता-मनुजता॥53॥

पशु-पक्षी के जोड़े भी हैं दीखते।
वे भी हैं दाम्पत्य-बन्धनों में बँधो॥
वांछनीय है नर-नारी की युग्मता।
सारे-मन्त्र इसी साधन से ही सधो॥54॥

इसीलिए है विधि-विवाह की पूततम।
निगमागम द्वारा है वह प्रतिपादिता॥
है द्विविधा हरती कर सुविधा का सृजन।
वह दे, वसुधा को दिव जैसी दिव्यता॥55॥

जिससे होते एक हैं मिले दो हृदय।
सरस-सुधा-धारायें सदनों में बहीं॥
भूमि-मान बनते हैं जिससे भुवन-जन।
वह विधान अभिनन्दित होगा क्यों नहीं॥56॥

कुल, कुटुम्ब, गृह जिससे है बहु-गौरवित।
सामाजिकता है जिससे सम्मानिता॥
महनीया जिससे मानवता हो सकी।
क्यों न बनेगी प्रथित प्रथा वह आद्रिता॥57॥

किन्तु प्रश्न यह है प्राय: जो विषमता।
होती रहती है मानसिक-प्रवृत्ति में॥
भ्रम, प्रमाद अथवा सुख-लिप्सा आदि से।
कैसे वह न घुसे दम्पति-अनुरक्ति में॥58॥

पति-देवता हुई हैं होंगी और हैं।
किन्तु सदा उनकी संख्या थोड़ी रही॥
मिलीं अधिकतर सांसारिकता में सधी।
कितनी करती हैं कृत्रिमता की कही॥59॥

मुझे ज्ञात है, है गुण-दोषमयी-प्रकृति।
किन्तु क्यों न उर में वे धारायें बहें॥
सकल-विषमताओं को जिनसे दूरकर।
होते भिन्न अभिन्न-हृदय दम्पति रहें॥60॥

किसी काल में क्या ऐसा होगा नहीं।
क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता॥
सदन-सदन जिससे बन जाये सुर-सदन।
क्या बुध-वृन्द न देंगे ऐसी विधि बता॥61॥

अति-पावन-बन्धन में जो विधि से बँधो।
क्यों उनमें न प्रतीति-प्रीति भरपूर हो॥
देवि आप मर्मज्ञ हैं बतायें मुझे।
क्यों दुर्भाव-दुरित दम्पति का दूर हो॥62॥

कहा जनकजा ने मैं विबुधो आपको।
क्या बतलाऊँ आप क्या नहीं जानतीं॥
यह उदारता, सहृदयता है आपकी।
जो स्वविषय-मर्मज्ञ मुझे हैं मानती॥63॥

देख प्रकृति की कुत्सित-कृतियों को दुखित।
मैं भी वैसी ही हूँ जैसी आप हैं॥
किसको रोमांचित करते हैं वे नहीं।
भव में भरे हुए जितने संताप हैं॥64॥

इस प्रकार के भी कतिपय-मतिमान हैं।
जो दुख में करते हैं सुख की कल्पना॥
अनहित में भी जो हित हैं अवलोकते।
औरों के कहने को कहकर जल्पना॥65॥

जो हो, पर परिताप किसे हैं छोड़ते।
है विडम्बना विधि की बड़ी-बलीयसी॥
चिन्तित विचलित बार-बार बहु आकुलित।
किसे नहीं करती प्रवृत्ति-पापीयसी॥66॥

विबुध-वृन्द ने क्या बतलाया है नहीं।
निगमागम में सब विभूतियाँ हैं भरी॥
किन्तु पड़ प्रकृति और परिस्थिति-लहर में।
कुमति-सरी में है डूबती सुमति-सरी॥67॥

सारे-मनोविकार हृदय के भाव सब।
इन्द्रिय के व्यापार आत्महित-भावना॥
सुख-लिप्सा गौरव-ममता मानस्पृहा।
स्वार्थ-सिध्दि-रुचि इष्ट-प्राप्ति की कामना॥68॥

वर नारी में हैं समान, अनुभूति भी-
इसीलिए प्राय: उनकी है एक सी॥
कब किसका कैसा होता परिणाम है।
क्या वश में है औ किसमें है बेबसी॥69॥

क्यों उलझी-बातें भी जाती हैं सुलझ।
कैसे कब जी में पड़ जाती गाँठ है॥
हरा-भरा कैसे रहता है हृदय-तरु।
कैसे मन बन जाता उकठा-काठ है॥70॥

कैसे अन्तस्तल-नभ में उठ प्रेम घन।
जीवन-दायक बनता है जीवन बरस॥
मेल-जोल तन क्यों होता निर्जीव है।
मनोमलिनता रूपी चपला को परस॥71॥

कैसे अमधुर कहलाता है मधुरतम।
कैसे असरस बन जाता है सरस-चित॥
क्यों अकलित लगता है सोने का सदन।
कुसुम-सेज कैसे होती है कंटकित॥72॥

अवगुण-तारक-चय-परिदर्शन के लिए।
क्यों मति बन जाती है नभतल-नीलिमा॥
जाती है प्रतिकूल-कालिमा से बदल।
क्यों अनुराग-रँगी-ऑंखों की लालिमा॥73॥

क्यों अप्रीति पा जाती है उसमें जगह।
जो उर-प्रीति-निकेतन था जाना गया॥
कैसे कटु बनता है वह मधुमय-वचन।
कर्ण-रसायन जिसको था माना गया॥74॥

जो होते यह बोध जानते मर्म सब।
दम्पति को अन्यथाचरण से प्रीति हो॥
तो यह है अति-मर्म-वेधिनी आपदा।
क्या विचित्र! दुर्नीति यदि भरित-भीति हो॥75॥

जो नर नारी एक सूत्र में बध्द हैं।
जिनका जीवन भर का प्रिय-सम्बन्ध है॥
जो समाज के सम्मुख सद्विधि से बँधो।
जिनका मिलन नियति का पूत-प्रबंधा है॥76॥

उन दोनों के हृदय न जो होवें मिले।
एक-दूसरे पर न अगर उत्सर्ग हो॥
सुख में दुख में जो हो प्रीति न एक सी।
स्वर्ग सा सुखद जो न युगल-संसर्ग हो॥77॥

तो इससे बढ़कर दुष्कृति है कौन सी।
पड़ेगा कलेजा सत्कृति को थामना॥
हुए सभ्यता-दुर्गति पशुता करों से।
होगी मानवता की अति-अवमानना॥78॥

प्रकृति-भिन्नता करती है प्रतिकूलता।
भ्रम, प्रमादि आदिक विहीन मन है नहीं॥
कहीं अज्ञता बहँक बनाती है विवश।
मति-मलीनता है विपत्ति ढाती कहीं॥79॥

है प्रवृत्ति नर नारी की त्रिगुणात्मिका।
सब में सत, रज, तम, सत्ता है सम नहीं॥
इनकी मात्र में होती है भिन्नता।
देश काल और पात्रा-भेद है कम नहीं॥80॥

अन्तराय ए साधन हैं ऐसे सबल।
जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते॥
पंच-भूत भी अल्प प्रपंची हैं नहीं।
वे भी कब हैं तम में दीपक बालते॥81॥

ऐसे अवसर पर प्राणी को बन प्रबल।
आत्म-शक्ति की शक्ति दिखाना चाहिए॥
सत्प्रवृत्ति से दुष्प्रवृत्तियों को दबा।
तम में अन्तज्योति-जगाना चाहिए॥82॥

सत्य है, प्रकृति होती है अति-बलवती।
किन्तु आत्मिक-सत्ता है उससे सबल॥
भौतिकता यदि करे भूतपन भूत बन।
क्यों न उसे आध्यात्मिकता तो दे मसल॥83॥

जिसमें सारी-सुख-लिप्सायें हों भरी।
जो परमित होवे आहार-विहार तक॥
उस प्रसून के ऐसा है तो प्रेम वह।
जिसमें मिले न रूप न रंग न तो महँक॥84॥

जिसमें लाग नहीं लगती है लगन की।
जिसमें डटकर प्रेम ने न ऑंचें सहीं॥
जिसमें सह सह साँसतें न स्थिरता रही।
कहते हैं दाम्पत्य-धर्म उसको नहीं॥85॥

जहाँ प्रेम सा दिव्य-दिवाकर है उदित।
कैसे दिखालायेगा तामस-तम वही॥
दम्पति को तो दम्पति कोई क्यों कहे।
जिसमें है दाम्पत्य-दिव्यता ही नहीं॥86॥

निज-प्रवाह में बहा अपावन-वृत्तियाँ।
जो न प्रेम धारायें उर में हों बही॥
तो दम्पति की हित-विधायिनी वासना।
पायेगी सुर-सरिता-पावनता नहीं॥87॥

जिसे तरंगित करता रहता है सदा।
मंजु सम्मिलन-शीतल-मृदुगामी अनिल॥
खिले मिले जिसमें सद्भावों के कमल।
है दम्पति का प्रेम वह सरोवर-सलिल॥88॥

उसमें है सात्तिवक-प्रवृत्ति-सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव-क्षेम है॥
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख-सौरभ-भरित।
नन्दन-वन सा अनुपम दम्पति-प्रेम है॥89॥

है सुन्दर-साधना कामना-पूर्ति की।
भरी हुई है उसमें शुचि-हितकारिता॥
है विधायिनी विधि-संगत वर-भूति की।
कल्पता सी दम्पति की सहकारिता॥90॥

है सद्भाव समूह धरातल के लिए।
सर्व-काल सेचन-रत पावस का जलद॥
फूला-फला मनोज्ञ कामप्रद कान्त-तन।
है दम्पति का प्रेम कल्पतरु सा फलद॥91॥

है विभिन्नता की हरती उद्भावना।
रहने देती नहीं अकान्त-अनेकता॥
है पयस्विनी-सदृश प्रकृत-प्रतिपालिका।
कामधोनु-कामद है दम्पति-एकता॥92॥

पूत-कलेवर दिव्य-देवतों के सदृश।
भूरि-भव्य-भावों का अनुपम-ओक है॥
वर-विवेक से सुरगुरु जिसमें हैं लसे।
दम्पति-प्रेम परम-पुनीत सुरलोक है॥93॥

मृदुल-उपादानों से बनिता है रचित।
हैं उसके सब अंग बड़े-कोमल बने॥
इसीलिए है कोमल उसका हृदय भी।
उसके कोमल-वचन सुधा में हैं सने॥94॥

पुरुष अकोमल-उपादान से है बना।
इसीलिए है उसे मिली दृढ़-चित्तता॥
बडे-पुष्ट होते हैं उसके अंग भी।
उसमें बल की भी होती है अधिकता॥95॥

जैसी ही जननी की कोमल-हृदयता।
है अभिलषिता है जन-जीवनदायिनी॥
वैसी ही पाता की बलवत्ता तथा।
दृढ़ता है वांछित, है विभव-विधायिनी॥96॥

है दाम्पत्य-विधान इसी विधि में बँधा।
दोनों का सहयोग परस्पर है ग्रथित॥
जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष।
तो कुल-बाला मूर्ति-शान्ति की है कथित॥97॥

अपर-अंग करता है पीड़ित-अंग-हित।
जो यह मति रह सकी नहीं चिर-संगिनी॥
कहाँ पुरुष में तो पौरुष पाया गया।
कहाँ बन सकी बनिता तो अर्धांगिनी॥98॥

किसी समय अवलोक पुरुष की परुषता।
कोमलता से काम न जो लेवे प्रिया॥
कहाँ बनी तो स्वाभाविकता-सहचरी।
काम मृदुल-उर ने न मृदुलता से लिया॥99॥

रस विहीन जिसको कहकर रसना बने।
ऐसी नीरस बातें क्यों जायें कही॥
कान्त के लिए यदि वे कड़वे बन गए।
कान्त-वचन में तो कान्तता कहाँ रही॥100॥

जिस पर सरस बरस जाने ही के लिए।
कोमल से भी कोमल कलित-कुसुम बने॥
उसको किसी विशिख से बन वे क्यों लगें।
रहे वचन जो सदा सुधारस में सने॥101॥

अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो।
बड़ी चूक है उसे नहीं जो रोकती॥
कोई कोमल-हृदया प्रियतम को कभी।
कड़ी ऑंख से कैसे है अवलोकती॥102॥

जो न कण्ठ हो सकी पुनीत-गुणावली।
क्यों पाती न प्रवृत्ति कलहप्रियता पता॥
जो कटूक्ति के लिए हुई उत्कण्ठ तो।
क्यों कलंकिता बनेगी न कल-कंठता॥103॥

पहचाने पति के पद को मुँह से कभी।
निकल नहीं पाती अपुनीत-पदावली॥
सहज-मधुरता मानस के त्यागे बिना।
अमधुर बनती नहीं मधुर-वचनावली॥104॥

है कठोरता, काठ शिला से भी कठिन।
क्यों न प्रेम-धारायें ही उनमें बहें॥
कोमल हैं तो बनें अकोमल किसलिए।
क्यों न कलेजे बने कलेजे ही रहें॥105॥

जिसमें है न सहानुभूति-मर्मज्ञता।
सदा नहीं होता जो यथा-समय-सदय॥
जिसमें है न हृदय-धन की ममता भरी।
हृदय कहायेगा तो कैसे वह हृदय॥106॥

क्या गरिमा है रूप, रंग, गुण आदि की।
क्या इस भूति-भरित-भूमध्य निजस्व है॥
जो उत्सर्ग न उस पर जीवन हो सका।
जो इस जगती में जीवन-सर्वस्व है॥107॥

अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है।
सबसे अधिक उसी पर जिसका प्यार है॥
वह पतिता है जो उससे है उलझती।
जिस पति का तन, मन, धन पर अधिकार है॥108॥

चूक उसी की है जो वल्लभता दिखा।
हृदय-वल्लभा का पद पा जाती नहीं॥
प्राणनाथ तो प्राणनाथ कैसे बनें।
पतिप्राणा यदि पत्नी बन पाती नहीं॥109॥

पढ़ तदीयता-पाठ भेद को भूल कर।
सत्य-भाव से पूत-प्रेम-प्याला पिये॥
बन जाती हैं जीवितेश्वरी पत्नियाँ।
जीवनधन को जीवनधन अर्पित किये॥110॥

भाग्यवती वह है भर सात्तिवक-भूति से।
भक्ति-बीज जो प्रीति-भूमि में बो सकी॥
वह सहृदयता है सहृदयता ही नहीं।
जो न समर्पित हृदयेश्वर को हो सकी॥111॥

पूजन कर सद्भाव-समूह-प्रसून से।
जगा आरती सत्कृति की बन सद्व्रता॥
दिव्य भावना बल से पाकर दिव्यता।
देवी का पद पाती है पति-देवता॥112॥

वहन कर सरस-सौरभ संयत-भाव का।
जो सरोजिनी सी हो भव-सर में खिली॥
वही सती है शुचि-प्रतीति से पूरिता।
जिसे पति-परायणता पूरी हो मिली॥113॥

उसका अधिकारी है सबसे अधिक पति।
सोच यह स्वकृति की करती जो पूर्ति हो॥
पतिव्रता का पद पा सकती है वही।
जीवितेश हित की जो जीवित मूर्ति हो॥114॥

सहज-सरलता, शुचिता, मृदुता सदयता-
आदि दिव्य गुण द्वारा जो हो ऊर्जिता॥
प्रीति सहित जो पति-पद को है पूजती।
भव में होती है वह पत्नी पूजिता॥115॥

लंका में मेरा जिन दिनों निवास था।
वहाँ विलोकी जो दाम्पत्य-विडम्बना॥
उसका ही परिणाम राज्य-विध्वंस था।
भयंकरी है संयम की अवमानना॥116॥

होता है यह उचित कि जब दम्पति खिजें।
सूत्रपात जब अनबन का होने लगे॥
उसी समय हो सावधन संयत बनें।
कलह-बीज जब बिगड़ा मन बोने लगे॥117॥

यदि चंचलता पत्नी दिखलाये अधिक।
पति तो कभी नहीं त्यागे गम्भीरता॥
उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने।
हो अधीर कोई भी तजे न धीरता॥118॥

तपे हुए की शीतलता है औषधि।
सहनशीलता कुल कलहों की है दवा॥
शान्त-चित्तता का अवलम्बन मिल गये।
प्रकृति-भिन्नता भी हो जाती है हवा॥119॥

कोई प्राणी दोष-रहित होता नहीं।
कितनी दुर्बलतायें उसमें हैं भरी॥
किन्तु सुधारे सब बातें हैं सुधरती।
भलाइयों ने सब बुराइयाँ हैं हरी॥120॥

सभी उलझनें सुलझायें हैं सुलझती।
गाँठ डालने पर पड़ जाती गाँठ है॥
रस के रखने से ही रस रह सका है।
हरा भरा कब होता उकठा-काठ है॥121॥

मर्यादा, कुल-शील, लोक-लज्जा तथा।
क्षमा, दया, सभ्यता, शिष्टता, सरलता॥
कटु को मधुर सरसतम असरस को बना।
हैं कठोर उर में भर देती तरलता॥122॥

मधुर-भाव से कोमल-तम-व्यवहार से।
पशु-पक्षी भी हो जाते अधीन हैं॥
अनहित हित बनते स्वकीय परकीय हैं।
क्यों न मिलेंगे दम्पति जो जलमीन हैं॥123॥

क्यों न दूर हो जाएगी मन मलिनता।
क्यों न निकल जाएगी कुल जी कीकसर॥
क्यों न गाँठ खुल जाएगी जी में पड़ी।
पड़े अगर दम्पति का दम्पति पर असर॥124॥

जिन दोनों का सबसे प्रिय-सम्बन्ध है।
जो दोनों हैं एक दूसरे से मिले॥
एक वृन्त के दो अति सुन्दर-सुमन-सम।
एक रंग में रँग जो दोनों हैं खिले॥125॥

ऐसा प्रिय-सम्बन्ध अल्प-अन्तर हुए।
भ्रम-प्रमाद में पड़े टूट पाता नहीं॥
स्नेहकरों से जो बन्धन है बँधा, वह-
खींच-तान कुछ हुए छूट जाता नहीं॥126॥

किन्तु रोग इन्द्रिय-लोलुपता का बढ़े।
पड़े आत्मसुख के प्रपंच में अधिकतर॥
होती है पशुता-प्रवृत्ति की प्रबलता।
जाती है उर में भौतिकता-भूति भर॥127॥

लंका में भौतिकता का साम्राज्य था।
था विवाह का बन्धन, किन्तु अप्रीतिकर॥
नित्य वहाँ होता स्वच्छन्द-विहार था।
था विलासिता नग्न-नृत्य ही रुचिर तर॥128॥

कलह कपट-व्यवहार कु-कौशल करों से।
बहु-सदनों के सुख जाते थे छिन वहाँ॥
होता रहता था साधारण बात से।
पति-पत्नी का परित्याग प्रति-दिन वहाँ॥129॥

अहंभाव दुर्भाव तथा दुर्वासना।
उसे तोड़ देती थी पतित-प्रवंचना॥
ऐंचा तानी हुई कि वह टूटा नहीं।
कच्चा धागा था विवाह-बन्धन बना॥130॥

उस अभागिनी की अशान्ति को क्याकहें।
जिसे शान्ति पति-परिवर्त्तन ने भी न दी॥
होती है वह विविध-यन्त्राणाओं भरी।
इसीलिए तृष्णा है वैतरणी नदी॥131॥

नरक ओर जाती थीं पर वे सोचतीं।
उन्हें लग गया स्वर्ग-लोक का है पता॥
दुराचार ही सदाचार था बन गया।
स्वतन्त्रता थी मिली तजे परतन्त्रता॥132॥

था बनाव-श्रृंगार उन्हें भाता बहुत।
तन को सज उनका मन था रौरव बना॥
उच्छृंखलता की थीं वे अति-प्रेमिका।
उसी में चरम-सुख की थी प्रिय-कल्पना॥133॥

इष्ट-प्राप्ति थी स्वार्थ-सिध्दि उनके लिए।
थी कदर्थना से पूरिता-परार्थता॥
पुण्य-कार्यों में थी बड़ी-विडम्बना।
पाप-कमाना थी जीवन-चरितार्थता॥134॥

बहु-वेशों में परिणत करती थी उन्हें।
पुरुषों को वश में करने की कामना॥
पापीयसी-प्रवृत्ति-पूर्ति के लिए वे।
करती थीं विकराल-काल का सामना॥135॥

थोड़ी भी परवाह कलंकों की न कर।
लगा कालिमा के मुँह में भी कालिमा॥
लालन कर लालसामयी-कुप्रवृत्ति का॥
वे रखती थीं अपने मुख की लालिमा॥136॥

इन्द्रिय-लोलुपता थी रग-रग में भरी।
था विलास का भाव हृदय-तल में जमा॥
रोमांचितकर उनकी पाप-प्रवृत्ति थी।
मनमानापन रोम-रोम में था रमा॥137॥

पुरुष भी इन्हीं रंगों में ही थे रँगे।
पर कठोरता की थी उनमें अधिकता॥
जो प्रवंचना में प्रवीण थीं रमणियाँ।
तो उनकी विधि-हीन-नीति थी बधिकता॥138॥

नहीं पाशविकता का ही आधिक्य था।
हिंसा, प्रति-हिंसा भी थी प्रबला बनी॥
प्राय: पापाचार-बाधाकों के लिए।
पापाचारी की उठती थी तर्जनी॥139॥

बने कलंकी कुल तो उनकी बला से।
लोक-लाज की परवा भी उनको न थी॥
जैसा राजा था वैसी ही प्रजा थी।
ईश्वर की भी भीति कभी उनको न थी॥140॥

इन्हीं पापमय कर्मों के अतिरेक से।
ध्वंस हुई कंचन-विरचित-लंकापुरी॥
जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे।
धूल में मिली प्रबल-शक्ति वह आसुरी॥141॥

प्राणी के अयथा-आहार-विहार से।
उसकी प्रकृति कुपित होकर जैसे उसे-
देती है बहु-दण्ड रुजादिक-रूप में।
वैसे ही सब कहते हैं जनपद जिसे॥142॥

वह चलकर प्रतिकूल नियति के नियमके।
भव-व्यापिनी प्रकृति के प्रबल-प्रकोप से॥
कभी नहीं बचता होता विध्वंस है।
वैसे ही जैसे तम दिनकर ओप से॥143॥

लंका की दुर्गति दाम्पत्य-विडम्बना।
मुझे आज भी करती रहती है व्यथित॥
हुए याद उसकी होता रोमांच है।
पर वह है प्राकृतिक-गूढ़ता से ग्रथित॥144॥

है अभिनन्दित नहीं सात्तिवकी-प्रकृति से।
है पति-पत्नी त्याग परम-निन्दित-क्रिया॥
मिले दो हृदय कैसे होवेंगे अलग।
अप्रिय-कर्म करेंगे कैसे प्रिय-प्रिया॥145॥

वास्तवता यह है, जब पतित-प्रवृत्तियाँ।
कुत्सित-लिप्सा दुव्यसनों से हो प्रबल॥
इन्द्रिय-लोलुपताओं के सहयोग से।
देती हैं सब-सात्तिवक भावों को कुचल॥146॥

तभी समिष होता विरोध आरंभ है।
जो दम्पति हृदयों में करता छेद है॥
जिससे जीवन हो जाता है विषमतम।
होता रहता पति-पत्नी विच्छेद है॥147॥

जिसमें होती है उच्छृंखलता भरी।
जो पामरता कटुता का आधार हो॥
जिसमें हो हिंसा प्रति-हिंसा अधमता।
जिसमें प्यार बना रहता व्यापार हो॥148॥

क्या वह जीवन क्या उसका आनन्द है।
क्या उसका सुख क्या उसका आमोद है॥
किन्तु प्रकृति भी तो है वैचित्रयों भरी।
मल-कीटक मल ही में पाता मोद है॥149॥

यह भौतिकता की है बड़ी विडम्बना।
इससे होता प्राणि-पुंज का है पतन॥
लंका से जनपद होते विध्वंस हैं।
मरु बन जाता है नन्दन सा दिव्य-वन॥150॥

उदारता से भरी सदाशयता-रता।
सद्भावों से भौतिकता की बाधिका॥
पुण्यमयी पावनता भरिता सद्व्रता।
आध्यात्मिकता ही है भव-हित-साधिका॥151॥

यदि भौतिकता है अति-स्वार्थ-परायणा।
आध्यात्मिकता आत्मत्याग की मूर्ति है॥
यदि भौतिकता है विलासिता से भरी।
आध्यात्मिकता सदाचारिता पूर्ति है॥152॥

यदि उसमें है पर-दुख-कातरता नहीं।
तो इसमें है करुणा सरस प्रवाहिता॥
यदि उसमें है तामस-वृत्ति अमा-समा।
तो इसकी है सत्प्रवृत्ति-राकासिता॥153॥

यदि भौतिकता दानवीय-सम्पत्ति है।
तो आध्यात्मिकता दैविक-सुविभूति है॥
यदि उसमें है नारकीय-कटु-कल्पना॥
तो इसमें स्वर्गीय-सरस-अनुभूति है॥154॥

यदि उमसें है लेश भी नहीं शील का।
तो इसका जन-सहानुभूति निजस्व है॥
यदि उसमें है भरी हुई उद्दंडता।
सहनशीलता तो इसका सर्वस्व है॥155॥

यदि वह है कृत्रिमता कल छल से भरी।
तो यह है सात्तिवकता-शुचिता-पूरिता॥
यदि उसमें दुर्गुण का ही अतिरेक है।
तो इसमें है दिव्य-गुणों की भूरिता॥156॥

यदि उसमें पशुता की प्रबल-प्रवृत्ति है।
तो इसमें मानवता की अभिव्यक्ति है॥
भौतिकता में यदि है जड़तावादिता।
आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी-शक्ति है॥157॥

भौतिकता है भव के भावों में भरी।
और प्रपंची पंचभूत भी हैं न कम॥
कहाँ किसी का कब छूटा इनसे गला।
किन्तु श्रेय-पथ अवलम्बन है श्रेष्ठतम॥158॥

नर-नारी निर्दोष हो सकेंगे नहीं।
भौतिकता उनमें भरती ही रहेगी॥
आपके सदृश मैं भी इससे व्यथित हूँ।
किन्तु यही मानवता-ममता कहेगी॥159॥

आध्यात्मिकता का प्रचार कर्तव्य है।
जिससे यथा-समय भव का हित हो सके॥
आप इसी पथ की पथिका हैं, विनय है।
पाँव आप का कभी न इस पथ में थके॥160॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
विदा महि-सुता से हुई उन्हें मान महनीय।
सुन विज्ञानवती सरुचि कथन-परम-कमनीय॥161॥

पंचदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सुतवती सीता
छन्द : तिलोकी
परम-सरसता से प्रवाहिता सुरसरी।
कल-कल रव से कलित-कीर्ति थीं गा रही॥
किसी अलौकिक-कीर्तिमान-लोकेश की।
लहरें उठ थीं ललित-नृत्य दिखला रही॥1॥

अरुण-अरुणिमा उषा-रंगिणी-लालिमा॥
गगनांगण में खेल लोप हो चली थीं॥
रवि-किरणें अब थीं निज-कला दिखा रही।
जो प्राची के प्रिय-पलने में पली थीं॥2॥

सरल-बालिकायें सी कलिकायें-सकल।
खोल-खोल मुँह केलि दिखा खिल रही थीं॥
सरस-वायु-संचार हुए सब बेलियाँ।
विलस विलस बल खा खा कर हिल रही थीं॥3॥

समय कुसुम-कोमल प्रभात-शिशु को विहँस।
दिवस दिव्यतम-गोदी में था दे रहा॥
भोलेपन पर बन विमुग्ध उत्फुल्ल हो।
वह उसको था ललक-ललक कर ले रहा॥4॥

कहीं कान्ति-संकलित कहीं कल-केलिमय।
और कहीं सरिता-प्रवाह उच्छ्वसित था॥
खग कलरव आकलित कान्त-तरु पुंज से।
उसका सज्जित-कूल उल्लसित लसित था॥5॥

इसी कूल पर सीता सुअनों के सहित।
धीरे-धीरे पद-चालन कर रही थीं॥
उनके मन की बातें मृदुता साथ कह।
अन्तस्तल में वर-विनोद भर रही थीं॥6॥

सात बरस के दोनों सुत थे हो गए।
इसीलिए जिज्ञासा थी प्रबला हुई॥
माता से थे नाना-बातें पूछते।
यथावसर वे प्रश्न किया करते कई॥7॥

सरिता में थीं तरल-तरंगें उठ रहीं।
बार-बार अवलोक उन्हें कुश ने कहा॥
ए क्या हैं? ए किससे क्यों हैं खेलती।
मा इनमें है कैसे दीपक बल रहा॥8॥

सुने उक्तियाँ उनकी सत्यवती हँसी।
किन्तु प्यार से माँ ने ये बातें कहीं॥
ए हैं दुहितायें सरिता सुन्दरी की।
गोद में उसी की हैं क्रीड़ा कर रही॥9॥

जननी हैं सुरसरी, समीरण है जनक।
हुआ है इन्हीं दोनों से इनका सृजन॥
ए हैं परम-चंचला-सरसा-कोमला।
रवि-कर से है विलसित इनका तरल-तन॥10॥

जैसे सम्मुख से सारे-बालुका-कण।
चमक रहे हैं मिले दिवस-मणि की चमक॥
वैसे ही दिनकर की कान्ति-विभूति से।
दिव्य बने लहरें भी पाती हैं दमक॥11॥

तात तुमारे पिता का मनोरम-मुकुट।
रवि-कर से जैसा बनता है दिव्यतम॥
वह अमूल्य-मणि-मंजुलता-सर्वस्व है।
दृग-निमित्त है लोकोत्तर-आलोक सम॥12॥

यह सुन लव ने माता का अंचल पकड़।
कहा ठुनुक कर अम्मा हम लेंगे मुकुट॥
सीता ने सुत चिबुक थामकर यह कहा।
तात! तुमारे पिता तुम्हें देंगे मुकुट॥13॥

कुश बोले क्या हम न पा सकेंगे मुकुट।
सीता बोलीं तुम तो लव से हो बड़े॥
अत: मुकुट तुमको पहले ही मिलेगा।
दोनों में होंगे अनुपम-हीरे जड़े॥14॥

दोनों भ्राता शस्त्र-शास्त्र में निपुण हो।
अवध धाम में पहुँचोगे सानन्द जब॥
पाकर रविकुल-रवि से दिव सी दिव्यता।
रत्न-मुकुट-मण्डित होगे तुम लोग तब॥15॥

इसी समय कतिपय-चमकीली-मछलियाँ।
पुलिन-सलिल में तिरती दिखलाई पड़ीं॥
उन्हें देखने लगे लव किलक-किलक कर।
कुश की चंचल-ऑंखें भी उन पर अड़ीं॥16॥

उभय उन्हें देखते रहे कुछ काल तक।
फिर लव ने ललकित हो माँ से यह कहा॥
मैं लूँगा मछलियाँ क्या उन्हें पकड़ लूँ।
माँ बोलीं सुत यह अनुचित होगा महा॥17॥

जैसे तुम दोनों हो मेरे लाड़िले।
तुम्हें साथ ले जैसे मैं हूँ घूमती॥
गले लगाती हूँ तुमसे खेलती हूँ।
जैसे मैं हूँ तुम्हें प्यार से चूमती॥18॥

वैसे ही हो केलि-निरत मछलियाँ भी।
हैं बच्चों के सहित सलिल में विलसती॥
देखो तो कैसा हिल मिल हैं खेलती।
मिला-मिला कर मुँह कैसी हैं सरसती॥19॥

यदि कोई तुमको मुझसे तुमसे मुझे।
छीने तो बतला दो क्या होगी दशा॥
कोमल से कोमल बहु-व्याकुल-हृदय को।
क्या न लगेगी विषम-वेदना की कशा॥20॥

लव बोले आयेगा मुझको छीनने-
जो, मैं मारूँगा उसको दूँगा डरा॥
कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे।
इसीलिए न कि अनुचित करना है बुरा॥21॥

फिर तुम क्यों अनुचित करना चाहते हो।
कभी किसी को नहीं सताना चाहिए॥
उनके बच्चे हों अथवा हों मछलियाँ।
कभी नहीं उनको कलपाना चाहिए॥22॥

देखो वे हैं कितनी सुथरी सुन्दरी।
कैसा पुलकित हो हो वे हैं फिर रहीं॥
वहाँ गये उनका सुख होगा किरकिरा।
किन्तु पकड़ पाओगे उनको तुम नहीं॥23॥

जीव-जन्तु जितने जगती में हैं बने।
सबका भला किया करना ही है भला॥
निरअपराध को सता करें अपराध क्यों॥
वृथा किसी पर क्यों कोई लाये बला॥24॥

जल को विमल बनाती हैं ये मछलियाँ।
पूत-प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा॥
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं।
किसी प्रेमिका पर क्यों आये आपदा॥25॥

इतना कहते जनक-नन्दिनी नयन में।
जल भर आया और कलेजा हिल गया॥
मानो व्याकुल बनी युगल-मछलियों को।
यथावसर अनुकूल-सलिल था मिल गया॥26॥

जल में जल से गुरु पदार्थ हैं डूबते।
माँ तुमने मुझसे हैं ए बातें कहीं॥
काठ कहा जाता है गुरुतर वारि से।
क्यों नौका जल में निमग्न होती नहीं॥27॥

सुने प्रश्न कुश का माता ने यह कहा।
बड़े बड़ाई को हैं कभी न भूलते॥
जल तरुओं को सींच-सींच है पालता।
उसके बल से वे हैं फलते-फूलते॥28॥

जब वे होते तप्त बनाता तर उन्हें।
जब होते निर्बल तब कर देता सबल॥
उसी की सरसता का अवलम्बन मिले।
अनुपम-रस पाते थे उनके सकल-फल॥29॥

वह जल देता क्यों उस नौका को डुबा।
जो तरु के तन द्वारा है निर्मित हुई॥
सदा एक रस रहती है उत्तम-प्रकृति।
तन-हित करती है तनबिन कर भी रुई॥30॥

है मुँह देखी प्रीति, प्रीति सच्ची नहीं।
वह होती है असम, स्वार्थ-साधन-रता॥
जीते जगती रह, है मरे न भूलती॥
पूत सलिल सी पूत-चित्त की पूतता॥31॥

जितने तरु प्रतिबिम्बित थे सरि-सलिल में।
उन्हें कुछ समय तक लव रहे विलोकते॥
फिर माता से पूछा क्या ए कूल द्रुम।
जल में अपना आनन हैं अवलोकते॥32॥

माँ बोलीं वे क्यों जल में मुँह देखते।
जो हैं ज्ञान-रहित जो जड़ता-धाम हैं॥
है छाया ग्रहिणी-शक्ति विमलाम्बु में।
तरु प्रतिबिम्बितकरण उसी का काम है॥33॥

सत्य बात सुत! मैंने बतला दी तुम्हें।
किन्तु क्रियायें तरु की हैं शिक्षा भरी॥
तुम लोगों को यही चाहिए सीख लो।
मिले जहाँ पर कोई शिक्षा हितकरी॥34॥

सरिता सेचन कर तरुओं का सलिल से।
हरा-भरा रखकर उनको है पालती॥
अवसर पर तर रख, कर शीतल तपन में।
जीवन से उनमें है जीवन डालती॥35॥

यथासमय तो उसको छाया-दान कर।
तरुवर भी उस पर बरसाते फूल हैं॥
उसके सुअनों को देते हैं सरस-फल।
सज्जित उनसे रहते उसके कूल हैं॥36॥

उपकारक के उपकारों को याद रख।
करते रहना अवसर पर प्रतिकार भी॥
है अति-उत्तम-कर्म्म, धर्म्म है लोक का।
हो कृतज्ञ, न बने अकृतज्ञ मनुज कभी॥37॥

यों भी तरु हैं लोक-हित निरत दीखते।
आतप में रह करते छाया-दान हैं॥
उनके जैसा फलद दूसरा कौन है।
सुर-शिर पर किनके फूलों का स्थान है॥38॥

हैं उनके पंचांग काम देते बहुत।
छबि दिखला वे किसे मुग्ध करते नहीं॥
लेते सिर पर भार नहीं जो वे उभर।
तो भूतल के विपुल उदर भरते नहीं॥39॥

है रसालता किसको मिली रसाल सी।
कौन गुलाब-प्रसूनों जैसा कब खिला॥
सबके हित के लिए झकोरे सहन कर।
कौन सब दिनों खड़ा एक पद से मिला॥40॥

तरु वर्षा-शीतातप को सहकर स्वयं।
शरणागत को करते आश्रय दान हैं॥
प्रात: कलरव से होता यह ज्ञात है।
खगकुल करते उनका गौरव-गान हैं॥41॥

पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का-
किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥
द्रुम समान अवलम्बन विहग-समूह का।
कर्तव्योंकारी का हित-कर्ता कौन है॥42॥

तरु जड़ हैं इन सारे कामों को कभी।
जान बूझ कर वे कर सकते हैं नहीं॥
पर क्या इनमें छिपे निगूढ़-रहस्य हैं।
कैसे जा सकती हैं ए बातें कही॥43॥

कला-कान्त कितनी लीलायें प्रकृति की।
हैं ललामतम किन्तु हैं जटिलतामयी॥
कब उससे मति चकिता होती है नहीं।
कभी नहीं अनुभूति हुई उनपर जयी॥44॥

कहाँ किस समय क्या होता है किसलिए।
कौन इन रहस्यों का मर्म बता सका॥
भव-गुत्थी को खोल सका कब युक्ति-नख।
चल इस पथ पर कब न विचार-पथिक थका॥45॥

प्रकृति-भेद वह ताला है जिसकी कहीं।
अब तक कुंजी नहीं किसी को भी मिली॥
वह वह कीली है विभुता-भू में गड़ी।
जो न हिलाये ज्ञान-शक्ति के भी हिली॥46॥

जो हो, पर पुत्रों भव-दृश्यों को सदा।
अवलोकन तुम लोग करो वर-दृष्टि से॥
और करो सेचन वसुधा-हित-विटप का।
अपनी-सत्कृति की अति-सरसा-वृष्टि से॥47॥

जो सुर-सरिता हैं नेत्रों के सामने।
जिनकी तुंग-तरंगें हैं ज्योतिर्मयी॥
कीर्ति-पताका वे हैं रविकुल-कलस की।
हुई लोकहित-ललकों पर वे हैं जयी॥48॥

तुल लोगों के पूर्व-पुरुष थे, बहु-विदित-
भूप भगीरथ सत्य-पराक्रम धर्म-रत॥
उन्हीं के तपोबल से वह शुचि-जल मिला।
जिसके सम्मुख हुई चित्त-शुचिता-विनत॥49॥

उच्च-हिमालय के अंचल की कठिनता।
अल्प भी नहीं उन्हें बना चंचल सकी॥
दुर्गमता गिरि से निधि तक के पंथ की।
सोचे उनकी अथक-प्रवृत्ति नहीं थकी॥50॥

उनका शिव-संकल्प सिध्दि-साधन बना।
उनके प्रबल-प्रयत्नों से बाधा टली॥
पथ के प्रस्तर सुविधा के बिस्तर बने।
सलिल-प्रगति के ढंगों में पटुता ढली॥51॥

कुलहित की कामना लोक-हित लगन से।
जब उर सर में भक्तिभाव-सरसिज खिला॥
शिव-सिर-लसिता-सरिता हस्तगता हुई।
ब्रह्म-कमण्डल-जलमहि-मण्डल को मिला॥52॥

सुर-सरिता को पाकर भारत की धरा।
धन्य हो गयी और स्वर्ण-प्रसवा बनी।
हुई शस्य-श्यामला सुधा से सिंचिता।
उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धानी॥53॥

वह काशी जो है प्रकाश से पूरिता।
जहाँ भारती की होती है आरती॥
जो सुर-सरिता पूत-सलिल पाती नहीं।
पतित-प्राणियों को तो कैसे तारती॥54॥

सुन्दर-सुन्दर-भूति भरे नाना-नगर।
किसके अति-कमनीय-कूल पर हैं लसे॥
तीर्थराज को तीर्थराजता मिल गई।
किस तटिनी के पावनतम-तट पर बसे॥55॥

हृदय-शुध्दता की है परम-सहायिका।
सुर-सरिता स्वच्छता-सरसता मूल है॥
उसका जीवन, जीवन है बहु जीव का।
उसका कूल तपादिक के अनुकूल है॥56॥

साधाक की साधना सिध्दि-उन्मुख हुई।
खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके॥
किसके जल-सेवन से संयम सहित रह।
योग योग्यता बहु-योगी-जन पा सके॥57॥

जनक-प्रकृति-प्रतिकूल तरलता-ग्रहण कर।
भीति-रहित हो तप-ऋतु के आतंक से॥
हरती है तपती धरती के ताप को।
किसकी धारा निकल धराधर-अंक से॥58॥

किससे सिंचते लाखों बीघे खेत हैं।
कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है॥
कौन हरित रखती है अगणित-द्रुमों को।
सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है॥59॥

कौन दूर करती प्यासों की प्यास है।
कौन खिलाती बहु-भूखों को अन्न है॥
कौन वसन-हीनों को देती वसन है।
निर्धन-जन को करती धन-सम्पन्न है॥60॥

है उपकार-परायणा सुकृति-पूरिता।
इसीलिए है ब्रह्म-कमण्डल-वासिनी॥
है कल्याण-स्वरूपा भव-हित-कारिणी।
इसीलिए वह है शिव-शीश-विलासिनी॥61॥

है सित-वसना सरसा परमा-सुन्दरी।
देवी बनती है उससे मिल मानवी॥
उसे बनाती है रवि-कान्ति सुहासिनी।
है जीवन-दायिनी लोक की जाह्न्वी॥62॥

अवगाहन कर उसके निर्मल-सलिल में।
मल-विहीन बन जाते हैं यदि मलिन-मति॥
तो विचित्र क्या है जो निपतन पथ रुके।
सुर-सरिता से पा जाते हैं पतित गति॥63॥

महज्जनों के पद-जल में है पूतता।
होती है उसमें जन-हित गरिमा भरी॥
अतिशयता है उसमें ऐसी भूति की।
इसीलिए है हरिपादोदक सुरसरी॥64॥

गौरी गंगा दोनों हैं गिरि-नन्दिनी।
रमा समा गंगा भी हैं वैभव-भरी॥
गिरा समाना वे भी गौरव-मूर्ति हैं।
विबुध न कहते कैसे उनको सुरसरी॥65॥

पुत्रों रवि का वंश समुज्ज्वल-वंश है।
तुम लोगों के पूर्व-पुरुष महनीय हैं॥
सुर-सरिता-प्रवाह उद्भावन के सदृश।
उनके कितने कृत्य ही अतुलनीय हैं॥66॥

तुम लोगों के पितृदेव भी वंश के।
दिव्य पुरुष हैं, है महत्तव उनमें भरा॥
मानवता की मर्यादा की मूर्ति हैं।
उन्हें लाभ कर धन्य हो गयी है धरा॥67॥

सुन वनवास चतुर्दश-वत्सर का हुए-
अल्प भी न उद्विग्न न म्लान बदन बना॥
तृण समान साम्राज्य को तजा सुखित हो।
हुए कहाँ ऐसे महनीय-महा-मना॥68॥

धर्म धुरंधरता है धा्रुव जैसी अटल।
सदाचार सत्यव्रत के वे सेतु हैं॥
लोकोत्तर है उनकी लोकाराधना।
उड़ते उनके कलित-कीर्ति के केतु हैं॥69॥

राजभवन था सज्जित सुरपुर-सदन सा।
कनक-रचित बहु-मणि-मण्डित-पर्यंक था॥
रही सेविका सुरबाला सी सुन्दरी।
गृह-नभ का सुख राका-निशा-मयंक था॥70॥

इनको तजकर रहना पड़ा कुटीर में।
निर्जन-वन में सोना पड़ा तृणादि पर॥
फिर भी विकच बना रहता मुख-कंज था।
किसका चित्त दिखाया इतना उच्चतर॥71॥

होता है उत्ताल-तरंगाकुल-जलधि।
है अबाध्यता भी उसकी अविदित नहीं॥
किन्तु बनाया सेतु उन्होंने उसी पर।
किसी काल में हुआ नहीं ऐसा कहीं॥72॥

तुम लोगों के पिता लोक-सर्वस्व हैं।
दिव्य-भूतियों के अद्भुत-आगार हैं॥
हैं रविकुल के रवि-सम वे हैं दिव्यतम।
वे वसुधातल के अनुपम-श्रृंगार हैं॥73॥

उनके पद का करो अनुसरण पूत हो।
सच्चे-आत्मज बनो भुवन का भय हरो॥
रत्नाकर के बनो रत्न तुम लोग भी।
भले-भले भावों को अनुभव में भरो॥74॥

प्रकृति-पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय-शिक्षा भरी॥
सोचो समझो मनन करो खोलो नयन।
जीवन-जल में ठीक चलेगी कृति-तरी॥75॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख धूप होते समझ मृदुल-बाल को फूल।
चली गईं सीता ससुत तज सुर-सरिता कूल॥76॥

षोडश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

शुभ सम्वाद
छन्द : तिलोकी
दिनकर किरणें अब न आग थीं बरसती।
अब न तप्त-तावा थी बनी वसुन्धरा॥
धूप जलाती थी न ज्वाल-माला-सदृश।
वातावरण न था लू-लपटों से भरा॥1॥

प्रखर-कर-निकर को समेट कर शान्त बन।
दग्ध-दिशाओं के दुख को था हर रहा॥
धीरे-धीरे अस्ताचल पर पहुँच रवि।
था वसुधा-अनुराग-राग से भर रहा॥2॥

वह छाया जो विटपावलि में थी छिपी।
बाहर आकर बहु-व्यापक थी बन रही॥
उसको सब थे तन-बिन जाते देखते।
तपन तपिश जिस ताना को थी तन रही॥3॥

जिसको छू कर तन होता संतप्त था।
वह समीर अब सुख-स्पर्श था हो रहा॥
शीतल होकर सर-सरिताओं का सलिल।
था उत्ताप तरलतम-तन का खो रहा॥4॥

आतप के उत्कट पंजे से छूटकर।
सुख की साँस सकल-तरुवर थे ले रहे॥
कुम्हलाये-पल्लव अब पुलकित हो उन्हें।
हरे-भरे पादप का पद थे दे रहे॥5॥

जलती-भुनती-लतिका को जीवन मिला।
अविकच-वदना पुन: विकच-वदना बनी॥
काँप रही थी जो थोड़ी भी लू लगे।
अब देखी जाती थी वही बनी-ठनी॥6॥

सघन-वनों में बहु-विटपावृत-कुंज में।
जितने प्राणी आतप-भय से थे पड़े॥
तरणि-किरण का पावक-वर्षण देखकर।
सहम रोंगटे जिनके होते थे खड़े॥7॥

अब उनका क्रीड़ा-स्थल था शाद्वल बना।
उनमें से कुछ जहाँ तहाँ थे कूदते॥
थे नितान्त-नीरव जो खोते अब उन्हें।
कलरव से परिपूरित थे अवलोकते॥8॥

नभ के लाल हुए बदली गति काल की।
दिन के छिपे निशा मुख दिखलाई पड़ा॥
उधर हुआ रविविम्ब तिरोहित तो इधर।
था सामने मनोहर-परिवर्त्तन खड़ा॥9॥

आई संध्या साथ लिये विधु-बिम्ब को।
धीरे-धीरे क्षिति पर छिटकी चाँदनी॥
इसी समय देवालय में पुत्रों सहित।
विलसित थीं पति-मूर्ति पास महिनन्दिनी॥10॥

कुलपति-निर्मित रामायण को प्रति-दिवस।
लव-कुश आकर गाते थे संध्या-समय॥
बड़े-मधुर-स्वर से वीणा थी बज रही।
बना हुआ था देवालय पीयूष-मय॥11॥

दोनों सुत थे बारह-वत्सर के हुए।
शस्त्र-शास्त्र दोनों में वे व्युत्पन्न थे॥
थे सौन्दर्य-निकेतन छबि थी अलौकिक।
धीर, वीर, गम्भीर, शील-सम्पन्न थे॥12॥

लव मोहित-कर धन के सरस-निनाद को।
मृदु-कर से थे मंजु-मृदंग बजा रहे॥
कुश माता की आज्ञा से वीणा लिये।
इस पद को बन बहु-विमुग्ध थे गा रहे॥13॥
पद
जय जय जयति लोक ललाम। नवल-नीरद-श्याम।
शक्ति से शिर-मणि-मुकुट की शुक्ति-सम-नृप-नीति।
सृजन करती है मनोरम न्याय-मुक्ता-दाम॥1॥

दमक कर अति-दिव्य-द्युति से दिवसनाथ समान।
है भुवन-तम-काल, उन्नत-भाल अति-अभिराम॥2॥

गण्ड-मण्डल पर विलम्बित कान्त-केश-कलाप।
है उरग-गति मति-कुटिलता शमन का दृढ़ दाम॥3॥

बहु-कलंक-कदन धनुष-सम-बंक-भू्र अवलोक।
सतत होता शमित है मद-मोह-दल संग्राम॥4॥

कमल से अनुराग-रंजित-नयन करुण-कटाक्ष।
हैं प्रपंची-विश्व के विश्रान्त-जन विश्राम॥5॥

किन्तु वे ही देख होते प्रबल-अत्याचार।
पापकारी के लिए हैं पाप का परिणाम॥6॥

हैं उदार-प्रवृत्ति-रत, पर-दुख-श्रवण अनुरक्त।
युगल-कुण्डल से लसित हो युगल-श्रुति छबि-धाम॥7॥

हैं कपोल सरस-गुलाब-प्रसून से उत्फुल्ल।
दृग-विकासक दिव्य-वैभव कलित-ललित-निकाम॥8॥

उच्चता है प्रकट करती चित्त की, रह उच्च।
श्वास रक्षण में निरत बन नासिका निष्काम॥9॥

अधर हैं आरक्त उनमें है भरी अनुरक्ति।
मधुर-रस हैं बरसते रहते वचन अविराम॥10॥

दन्त-पंक्ति अमूल्य-मुक्तावलि-सदृश है दिव्य।
जो चमकते हैं सदा कर चमत्कारक काम॥11॥

बदन है अरविन्द-सुन्दर इन्दु सी है कान्ति।
मुदृ-हँसी है बरसती रहती सुधा वसु-याम॥12॥

है कपोत समान कंठ परन्तु है वह कम्बु।
वरद बनते हैं सुने जिसका सुरव विधि बाम॥13॥

है सुपुष्ट विशाल वक्षस्थल प्रशंशित पूत।
दिव समान शरीर में जो है अमर आराम॥14॥

विपुल-बल अवलम्ब हैं आजानु-विलसित बाहु।
बहु-विभव-आधार हैं जिनके विशद-गुण-ग्राम॥15॥

है उदात्त-प्रवृत्ति-मय है न्यूनता की पूर्ति।
भर सरसता से ग्रहण कर उदर अद्भुत नाम॥16॥

है सरोरुह सा रुचिर है भक्त-जन-सर्वस्व।
है पुनीत-प्रगति-निलय पद-मूर्तिमन्त-प्रणाम॥17॥

लोक मोहन हैं तथा हैं मंजुता अवलम्ब।
कोटिश:-कन्दर्प से कमनीयतम हैं राम॥18॥14॥
तिलोकी
जब कुश का बहु-गौरव-मय गाना रुका।
वर-मृदंग-वादन तब वे करने लगे॥
तंत्री-स्वर में निज हृतंत्री को मिला।
यह पद गाकर प्रेम रंग में लव रँगे॥15॥
पद
जय जय रघुकुल-कमल-दिवाकर।
मर्यादा-पुरुषोत्ताम सद्गुण-रत्न-निचय-रत्नाकर॥1॥

मिथिला में जब भृगुकुल-पुंगव ने कटु बात सुनाई।
तब कोमल वचनावलि गरिमा किसने थी दिखलाई॥2॥

बहु-विवाह को कह अवैधा बन बंधुवर्ग-हितकारक।
कौन एक पत्नीव्रत का है वसुधा-मध्य-प्रचारक॥3॥

पिता के वचन-पण के प्रतिपालन का बन अनुरागी।
किसने हो उत्फुल्ल देव-दुर्लभ-विभूति थी त्यागी॥4॥

कुपित-लखन ने जनक कथन को जब अनुचित बतलाया।
धीर-धुरंधर बन तब किसने उनको धर्य बँधाया॥5॥

कुल को अवलोकन कर बन के बन्धुवर्ग विश्वासी।
गृह की अनबन से बचने को कौन बना वनवासी॥6॥

वन की विविध असुविधाओं को भूल विचार भलाई।
भरत-भावनाओं की किसने की थी भूरि बड़ाई॥7॥

बानर को नर बना दिखाई किसने नरता-न्यारी।
पशुता में मानवता स्थापन नीति किसे है प्यारी॥8॥

निरवलंब अवलंब बने सुग्रीव की बला टाली।
बिला गया किसके बल से बालिशबाली-बलशाली॥9॥

दण्डनीय ही दण्डित हो क्यों दण्डित हो सुत-जाया।
अंगद को युवराज बना किसने यह पाठ पढ़ाया॥10॥

किसकी कृति से शिला सलिल पर उतराती दिखलाई।
सिंधु बाँध संगठन-शक्ति-गरिमा किसने बतलाई॥11॥

अहितू को भी दूत भेज हित-नीति गयी समझाई।
होते क्षमता, क्षमा-शीलता किसने इतनी पाई॥12॥

किसने रंक-विभीषण को दिखला शुचि-नीति प्रणाली।
राज्य-सहित सुर-पुर-विभूति-भूषित-लंका दे डाली॥13॥

किसने उसे बिठा पावक में जो थी शुचिता ढाली।
तत्कालिक पावन-प्रतीति की मर्यादा प्रतिपाली॥14॥

अवध पहुँच पहले जा कैकेयी को शीश नवाया।
ऐसा उज्ज्वल कलुष-रहित-उर किसका कहाँ दिखाया॥15॥

मिले राज जो प्रजारंजिनी-नीति नव-लता, फूली।
उस पर प्रजा-प्रतीति-प्रीति प्रिय-रुचि-भ्रमरी है भूली॥16॥

घर घर कामधेनु है सब पर सुर-तरु की है छाया।
सरस्वती वरदा है, किस पर है न रमा की माया॥17॥

सकल-जनपदों में जन पद है निज पद का अधिकारी।
विलसित है संयम सुमनों से स्वतंत्रता-फुलवारी॥18॥

हुए सत्य-व्यवहार-रुचिरतर-तरुवर-चय के सफलित।
नगर-नगर नागरिक-स्वत्व पाकर है परम प्रफुल्लित॥19॥

ग्राम-ग्राम ने सीख लिया है उन बीजों का बोना।
जिससे महि बन शस्य-श्यामला उगल रही है सोना॥20॥

चाहे पुरवासी होवे या होवे ग्राम-निवासी।
सबकी रुचि-चातकी है सुकृति-स्वाति-बूँद की प्यासी॥21॥

जिससे भू थी कम्पित रहती दिग्गज थे थर्राते।
सकल-लोक का जो कंटक था जिससे यम घबराते॥22॥

उसकी कुत्सित-नीति कालिमामयी-यामिनी बीते।
लोक-चकोर सुनीति-रजनि पा शान्ति-सुधा हैं पीते॥23॥

हैं सुर-वृन्द सुखित मुनिजन हैं मुदित मिटे दानवता।
प्रजा-पुंज है पुलकित देखे मानवेन्द्र-मानवता॥24॥

होती है न अकाल-मृत्यु अनुकूल-काल है रहता।
सकल-सुखों का स्रोत सर्वदा है घर-घर में बहता॥25॥

किसने जन-जन के उर-भू में कीर्ति बेलि यों बोई।
सकल-लोक-अभिराम राम हैं है न राम सा कोई॥26॥16॥
तिलोकी
लव जब अपने अनुपम-पद को गा चुके।
उसी समय मुकुटालंकृत कमनीय तन॥
एक पुरुष ने मन्दिर में आ प्रेम से।
किया जनकजा के पावन-पद का यजन॥17॥

उनका अभिनन्दन कर परमादर सहित।
जनक-नन्दिनी ने यह पुत्रों से कहा॥
करो वन्दना इनकी ये पितृव्य हैं।
यह सुन लव-कुश दोनों सुखित हुए महा॥18॥

उठ दोनों ने की उनकी पद-वन्दना।
यथास्थान फिर जा बैठे दोनों सुअन॥
उनकी आकृति, प्रकृति, कान्ति, कमनीयता।
अवलोकन कर हुए बहु-मुदित रिपु-दमन॥19॥

और कहा अब आर्ये पूरी शान्ति है।
प्रजा-पुंज है सुखित न हलचल है कहीं॥
सारे जनपद मुखरित हैं कल-कीर्ति से।
चिन्तित-चित की चिन्तायें जाती रहीं॥20॥

अवधपुरी में आयोजन है हो रहा-
अश्व-मेध का, कार्यों की है अधिकता॥
इसीलिए मैं आज जा रहा हूँ वहाँ।
पूरा द्वादश-वत्सर मधुपुर में बिता॥21॥

साम-नीति सब सुनीतियों की भित्ति है।
पर सुख-साधय नहीं है उसकी साधना॥
लोक-रंजिनी-नीति भी सुगम है नहीं।
है गहना गतिमती लोक-अराधना॥22॥

भिन्न-भाव-रुचि-प्रकृति-भावना से भरित।
विविध विचाराचार आदि से संकलित॥
होती है जनता-ममता त्रिगुणात्मिका।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, से आकुलित॥23॥

उसका संचालन नियमन या संयमन।
विविध-परिस्थिति देश, काल अवलोक कर॥
करते रहना सदा सफलता के सहित।
सुलभ है न प्राय: दुस्तर है अधिकतर॥24॥

यह दुस्तरता तब बनती है बहु-जटिल।
जब होता है दानवता का सामना॥
विफला बनती है जब दमन-प्रवृत्ति से।
लोकाराधन की कमनीया कामना॥25॥

द्वादश-वत्सर बीत गये तो क्या हुआ।
रघुकुल-पुंगव-कीर्ति अधिक-उज्ज्वल बनी।
राम-राज्य-गगनांगण में है आज दिन।
चरम-शान्ति की तनी चारुतम-चाँदनी॥26॥

वाल्मीकाश्रम में, जो विद्या-केन्द्र है।
बारह-वत्सर तक रह जाना आपका॥
सिध्द हुआ उपकारक है भव के लिए।
शमन हुआ उससे पापीजन-पाप का॥27॥

जितने छात्रा वहाँ की शिक्षा प्राप्त कर।
जिस विभाग में भारत-भूतल के गए॥
वहीं उन्होंने गाये वे गुण आपके।
पूत-भाव जिनमें हैं भूरि-भरे हुए॥28॥

तपस्विनी-आश्रम में मधुपुर से कई-
कन्यायें मैंने भेजी सद्वंशजा॥
कुछ दनकुल की दुहितायें भी साथ थीं।
जिनमें से थी एक लवण की अंगजा॥29॥

वर-विद्यायें पढ़ कुछ वर्ष व्यतीत कर।
जब वे सब विदुषी बन आयीं मधुपुरी॥
सत्कुल की कन्याओं की तो बात क्या।
दनुज-सुतायें भी थीं सद्भावों भरी॥30॥

आपकी सदाशयता की बातें कहे।
किसी काल में तृप्ति उन्हें होती न थी॥
विरह-व्यथा की कथा करुण-स्वर से सुना।
लवणासुर की कन्या कब रोती न थी॥31॥

सच यह है इस समय की चरम-शान्ति का।
श्रेय इस पुनीताश्रम को है कम नहीं॥
ज्योति यहाँ जो विदुषी-विदुषों को मिली।
तम उसके सम्मुख सकता था थम नहीं॥32॥

सत्कुल के छात्रों अथवा छात्रियों ने।
जैसे गौरव-गरिमा गाई आपकी॥
वैसा ही स्वर दनुज-छात्रियों का रहा।
कैसे इति होती न अखिल-परिताप की॥33॥

देवि! आपका त्याग, तपोबल, आत्मबल।
पातिव्रत का परिपालन, संयम, नियम॥
सहज-सरलता, दयालुता, हितकारिता।
लोक-रंजिनी नीति-प्रीति है दिव्यतम॥34॥

अत: पुण्य-बल से अशान्ति विदलित हुई।
हुआ प्रपंच-जनित अपवादों का कदन॥
बल, विद्या-सम्पन्न सर्व-गुण अलंकृत।
मिले आपको दिव्य-देवताओं से सुअन॥35॥

जैसे आश्रम-वास आपका हो सका।
शान्ति-स्थापन कर वर-साधन दिव्य बन॥
वैसे ही उसने दैनिक-बल से किया।
कुश-लव-सदृश अलौकिक सुअनों का सृजन॥36॥

कुलपति के दर्शन कर मैं आया यहाँ।
उनसे मुझको ज्ञात हुई यह बात है॥
शीघ्र जाएँगे अवध आपके सहित वे।
अब वियोग-रजनी का निकट प्रभात है॥37॥

कुछ पुलकित, कुछ व्यथित बन सती ने कहा।
शान्ति-स्थापन का भवदीय प्रयत्न भी॥
है महान, है रघुकुल-गौरव-गौरवित।
भरा हुआ है उसमें अद्भुत-त्याग भी॥38॥

मेरा आश्रम-वास वैध था, उचित था।
किया आपने जो वह भी कर्तव्य था॥
किन्तु एक दो नहीं द्विदश-वत्सर विरह।
आपकी प्रिया की विचित्र भवितव्य था॥39॥

विधि-विधान में होती निष्ठुरता न जो।
तो श्रुति-कीर्ति परिस्थिति होती दूसरी॥
नियति-नीति में रहती निर्दयता न जो।
तो अबला बनती न तरंगित-निधि-तरी॥40॥

प्रकृति रहस्यों का पाया किसने पता।
व्याह का समय आह रहा कैसा समय॥
जो मुझको उर्मिला तथा श्रुति-कीर्ति को।
मिला देखने को ऐसा विरहाभिनय॥41॥

किन्तु दु:खमय ए घटनायें लोकहित।
भव-हित वसुधा-हित के यदि साधन बनीं॥
तो वे कैसे शिरोधार्य होंगी नहीं।
मंगलमयी न कैसे जायेंगी गिनी॥42॥

जैसे शुभ सम्वाद सुनाकर आपने।
आज कृपा कर मुझे बनाया है मुदित॥
दर्शन देकर तुरत अवधपुर में पहुँच।
वैसे ही श्रुति-कीर्ति को बनायें सुखित॥43॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सीय-वचन सुन पग-परस पाकर मोद-अपार।
रिपुसूदन ने ली विदा पुत्रों को कर प्यार॥44॥

सप्तदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जन-स्थान
छन्द : तिलोकी
पहन हरित-परिधान प्रभूत-प्रफुल्ल हो।
ऊँचे उठ जो रहे व्योम को चूमते॥
ऐसे बहुश:- विटप-वृन्द अवलोकते।
जन-स्थान में रघुकुल-रवि थे घूमते॥1॥

थी सम्मुख कोसों तक फैली छबिमयी।
विविध-तृणावलि-कुसुमावलि-लसिता-धरा॥
रंग-बिरंगी-ललित-लतिकायें तथा।
जड़ी-बूटियों से था सारा-वन भरा॥2॥

दूर क्षितिज के निकट असित-घन-खंड से।
विन्धयाचल के विविध-शिखर थे दीखते॥
बैठ भुवन-व्यापिनी-दिग्वधू-गोद में।
प्रकृति-छटा अंकित करना थे सीखते॥3॥

हो सकता है पत्थर का उर भी द्रवित।
पर्वत का तन भी पानी बन है बहा॥
मेरु-प्रस्रवण मूर्तिमन्त-प्रस्रवण बन।
यह कौतुक था वसुधा को दिखला रहा॥4॥

खेल रही थी रवि-किरणावलि को लिये।
विपुल-विटप-छाया से बनी हरी-भरी॥
थी उत्ताल-तरंगावलि से उमगती।
प्रवाहिता हो गदगद बन गोदावरी॥5॥

कभी केलि करते उड़ते फिरते कभी।
तरु पर बैठे विहग-वृन्द थे बोलते॥
कभी फुदकते कभी कुतरते फल रहे।
कभी मंदगति से भू पर थे डोलते॥6॥

कहीं सिंहिनी सहित सिंह था घूमता।
गरजे वन में जाता था भर भूमि-भय।
दिखलाते थे कोमल-तृण चरते कहीं।
कहीं छलाँगें भरते मिलते मृग-निचय॥7॥

द्रुम-शाखा तोड़ते मसलते तृणों को।
लिये हस्तिनी का समूह थे घूमते॥
मस्तक-मद से आमोदित कर ओक को।
कहीं मत्त-गज बन प्रमत्त थे झूमते॥8॥

कभी किलकिलाते थे दाँत निकाल कर।
कभी हिलाकर डालें फल थे खा रहे॥
कहीं कूद ऑंखें मटका भौंहें नचा।
कपि-समूह थे निज-कपिता दिखला रहे॥9॥

खग-कलरव या पशु-विशेष के नाद से।
कभी-कभी वह होती रही निनादिता॥
सन्नाटा वन-अवनी में सर्वत्र था।
पूरी-निर्जनता थी उसमें व्यापिता॥10॥

इधर-उधर खोजते हुए शंबूक को।
पंचवटी के पंच-वटों के सामने॥
जब पहुँचे उस समय अतीत-स्मृति हुए।
लिया कलेजा थाम लोक-अभिराम ने॥11॥

पंचवटी प्राचीन-चित्र अंकित हुए।
हृदय-पटल पर, आकुलता चित्रित हुई॥
मर्म-वेदना लगी मर्म को बेधने।
चुभने लगी कलेजे में मानो सुई॥12॥

हरे-भरे तरु हरा-भरा करते न थे।
उनमें भरी हुई दिखलाती थी व्यथा॥
खग-कलरव में कलरवता मिलती न थी।
बोल-बोल वे कहते थे दुख की कथा॥13॥

लतिकायें थीं बड़ी-बलायें बन गईं।
हिल-हिल कर वे दिल को देती थीं हिला॥
कलिकायें निज कला दिखा सकती न थीं।
जी की कली नहीं सकती थीं वे खिला॥14॥

शूल के जनक से वे होते ज्ञात थे।
फूल देखकर चित्त भूल पाता न था॥
देख तितिलियों को उठते थे तिलमिला।
भौरों का गुंजार उन्हें भाता न था॥15॥

जिस प्रस्रवण-अचल-लीलाओं के लिए।
लालायिता सदा रहती थी लालसा॥
वह उस भग्न-हृदय सा होता ज्ञात था।
जिसे पड़ा हो सर्व-सुखों का काल सा॥16॥

कल निनादित-केलिरता-गोदावरी।
बनती रहती थी जो मुग्धकरी-बड़ी॥
दिखलाती थी उस वियोग-विधुरा समा।
बहा बहा ऑंसू जो भू पर हो पड़ी॥17॥

फिर वह यह सोचने लगे तरुओं-तले।
प्रिया-उपस्थिति के कारण जो सुख मिला॥
मेरे अन्तस्तल सरवर में उन दिनों।
जैसा वर-विनोद का वारिज था खिला॥18॥

रत्न-विमण्डित राजभवन के मध्य भी।
उनकी अनुपस्थिति में वह सुख है कहाँ॥
न तो वहाँ वैसा आनन्द-विकास है।
न तो अलौकिक-रस ही बहता है वहाँ॥19॥

ए पाँचों वट भी कम सुन्दर हैं नहीं।
अति-उत्तम इनके भी दल, फल फूल हैं॥
छाया भी है सुखदा किन्तु प्रिया-बिना।
वे मेरे अन्तस्तल के प्रतिकूल हैं॥20॥

बारह बरस व्यतीत हुए उनके यहीं।
किन्तु कभी आकुलता होती थी नहीं॥
कभी म्लानता मुखड़े पर आती न थी।
जब अवलोका विकसित-बदना वे रहीं॥21॥

और सहारा क्या था फल, दल के सिवा।
था जंगल का वास वस्तु होती गिनी॥
कभी कमी का नाम नहीं मुँह ने लिया।
बात असुविधा की कब कानों ने सुनी॥22॥

राई-भर भी है न बुराई दीखती।
रग-रग में है भूरि-भलाई ही भरी॥
उदारता है उनकी जीवन संगिनी।
पर दुख-कातरता है प्यारी-सहचरी॥23॥

बड़े-बड़े दुख के अवसर आये तदपि।
कभी नहीं दिखलाई वे मुझको दुखी॥
मेरा मुख-अवलोके दिन था बीतता।
मेरे सुख से ही वे रहती थीं सुखी॥24॥

रूखी सूखी बात कभी कहती न थीं।
तरलतम-हृदय में थी ऐसी तरलता॥
असरल-पथ भी बन जाते थे सरल-तम।
सरल-चित्त की अवलोकन कर सरलता॥25॥

जब सौमित्र-बदन कुम्हलाया देखतीं।
मधुर-मधुर बातें कह समझातीं उन्हें॥
जो कुटीर में होता वे लेकर उसे।
पास बैठकर प्यार से खिलातीं उन्हें॥26॥

कभी उर्मिला के वियोग की सुधि हुए।
ऑंसू उनके दृग का रुकता ही न था॥
कभी बनाती रहती थी व्याकुल उन्हें।
मम-माता की विविध-व्यथाओं की कथा॥27॥

ऐसी परम-सदय-हृदया भव-हित रता।
सत्य-प्रेमिका गौरव-मूर्ति गरीयसी॥
बहु-वत्सर से है वियोग-विधुरा बनी।
विधि की विधि ही है भव-मध्य-बलीयसी॥28॥

जिसके भ्रू ने कभी न पाई बंकता।
जिसके दृग में मिली न रिस की लालिमा॥
जिसके मधुर-वचन न कभी अमधुर बने।
जिसकी कृति-सितता में लगी न कालिमा॥29॥

उचित उसे कह बन सच्ची-सहधार्मिणी।
जिसने वन का वास मुदित-मन से लिया॥
शिरोधार्य कह अति-तत्परता के सहित।
जिसने मेरी आज्ञा का पालन किया॥30॥

मेरा मुख जिसके सुख का आधार था।
मेरी ही छाया जो जाती है कही॥
जिसका मैं इस भूतल में सर्वस्व था।
जो मुझ पर उत्सर्गी-कृत-जीवन रही॥31॥

यदि वह मेरे द्वारा बहु-व्यथिता बनी।
विरह-उदधि-उत्ताल-तरंगों में बही॥
तो क्यों होगी नहीं मर्म-पीड़ा मुझे।
तो क्यों होगा मेरा उर शतधा नहीं॥32॥

एक दो नहीं द्वादश-वत्सर हो गये।
किसने इतनी भव-तप की ऑंचें सहीं॥
कब ऐसा व्यवहार कहीं होगा हुआ।
कभी घटी होगी ऐसी घटना नहीं॥33॥

धीर-धुरंधर ने फिर धीरज धार सँभल।
अपने अति-आकुल होते चित से कहा॥
स्वाभाविकता स्वाभाविकता है अत:।
उसके प्रबल-वेग को कब किसने सहा॥34॥

किन्तु अधिक होना अधीर वांछित नहीं।
जब कि लोक-हित हैं लोचन के सामने॥
प्रिया को बनाया है वर भव-दृष्टि में।
लोकहित-परायण उनके गुण ग्राम ने॥35॥

आज राज्य में जैसी सच्ची-शान्ति है।
जैसी सुखिता पुलक-पूरिता है प्रजा॥
जिस प्रकार ग्रामों, नगरों, जनपदों में।
कलित-कीर्ति की है उड़ रही ललित ध्वजा॥36॥

वह अपूर्व है, है बुद-वृन्द-प्रशंसिता।
है जनता-अनुरक्ति-भक्ति उसमें भरी॥
पुण्य-कीत्तान के पावन-पाथोधि में।
डूब चुकी है जन-श्रुति की जर्जर तरी॥37॥

बात लोक-अपवाद की किसी ने कभी।
जो कह दी थी भ्रम प्रमादवश में पडे॥
उसकी याद हुए भी अवसर पर किसी।
अब हो जाते हैं उसके रोयें खड़े॥38॥

बिना रक्त का पात प्रजा-पीड़न किये।
बिना कटे कितने ही लोगों का गला॥
साम-नीति अवलम्बन कर संयत बने।
लोकाराधन-बल से टली प्रबल-बला॥39॥

इसका श्रेय अधिकतर है महि-सुता को।
उन्हीं की सुकृति-बल से है बाधा टली॥
उन्हीं के अलौकिक त्यागों के अंक में।
लोक-हितकरी-शान्ति-बालिका है पली॥40॥

यदि प्रसन्न-चित से मेरी बातें समझ।
वे कुलपति के आश्रम में जातीं नहीं॥
वहाँ त्याग की मूर्ति दया की पूर्ति बन।
जो निज दिव्य-गुणों को दिखलातीं नहीं॥41॥

जो घबरातीं विरह-व्यथायें सोचकर।
मम-उत्तरदायित्व समझ पातीं नहीं॥
जो सुख-वांछा अन्तस्तल में व्यापती।
जो कर्तव्य-परायणता भाती नहीं॥42॥

तो अनर्थ होता मिट जाते बहु-सदन।
उनका सुख बन जाता बहुतों का असुख॥
उनका हित कर देता कितनों का अहित।
उनका मुख हो जाता भवहित से विमुख॥43॥

यह होता मानवता से मुँह मोड़ना।
यह होती पशुता जो है अति-निन्दिता॥
ऐसा कर वे च्युत हो जातीं स्वपद से।
कभी नहीं होतीं इतनी अभिनन्दिता॥44॥

है प्रधानता आत्मसुखों की विश्व में।
किन्तु महत्ता आत्म त्याग की है अधिक॥
जगती में है किसे स्वार्थ प्यारा नहीं।
वर नर हैं परमार्थ-पंथ के ही पथिक॥45॥

स्वार्थ-सिध्दि या आत्म-सुखों की कामना।
प्रकृति-सिध्द है स्वाभाविक है सर्वथा॥
किन्तु लोकहित, भवहित के अविरोध से।
अकर्तव्य बन जायेगी वह अन्यथा॥46॥

इन बातों को सोच जनक-नन्दिनी की।
तपोभूमि की त्यागमयी शुचि-साधना॥
लोकोत्तर है वह सफला भी हुई है।
वर परार्थ की है अनुपम-अराधना॥47॥

रही बात उस द्विदश-वात्सरिक विरह की।
जिसे उन्होंने है संयत-चित से सहा॥
उसकी अतिशय-पीड़ा है, पर कब नहीं।
बहु-संकट-संकुल परार्थ का पथ रहा॥48॥

अन्य के लिए आत्म-सुखों का त्यागना।
निज हित की पर-हित निमित्त अवहेलना॥
देश, जाति या लोक-भलाई के लिए।
लगा लगा कर दाँव जान पर खेलना॥49॥

अति-दुस्तर है, है बहु-संकट-आकलित।
पर सत्पथ में उनका करना सामना॥
और आत्मबल से उनपर पाना विजय।
है मानवता की कमनीया-कामना॥50॥

जिसका पथ-कण्टक संकट बनता नहीं।
भवहित-रत हो जो न आपदा से डरा॥
सत्पथ में जो पवि को गिनता है कुसुम।
उसे लाभ कर धन्या बनती है धरा॥51॥

प्रिया-रहित हो अल्प व्यथित मैं नहीं हूँ।
पर कर्तव्यों से च्युत हो पाया नहीं॥
इसी तरह हैं कृत्यरता जनकांगजा।
काया जैसी क्यों होगी छाया नहीं॥52॥

हाँ इसका है खेद परिस्थिति क्यों बनी-
ऐसी जो सामने आपदा आ गई॥
यह विधान विधि का है नियति-रहस्य है।
कब न विवशता मनु-सुत को इससे हुई॥53॥

इस प्रकार जब स्वाभाविकता पर हुए।
धीर-धुरंधर-राम आत्म-बल से जयी॥
उसी समय वनदेवी आकर सामने॥
खड़ी हो गयी जो थीं विपुल व्यथामयी॥54॥

उन्हें देखकर रघुकुल पुंगव ने कहा।
कृपा हुई यदि देवि! आप आयीं यहाँ॥
वनदेवी ने स्वागत कर सविनय कहा।
आप पधारें, रहा भाग्य ऐसा कहाँ॥55॥

किन्तु खिन्न मैं देख रही हूँ आपको।
आह! क्या जनकजा की सुधि है हो गई॥
कहूँ तो कहूँ क्या उह! मेरे हृदय में।
आत्रेयी हैं बीज व्यथा के बो गई॥56॥

जनकनन्दिनी जैसी सरला कोमला।
परम-सहृदया उदारता-आपूरिता॥
दयामयी हित-भरिता पर-दुख-कातरा॥
करुणा-वरुणालया अवैध-विदूरिता॥57॥

मैंने अवनी में अब तक देखी नहीं।
वे मनोज्ञता-मानवता की मूर्ति हैं॥
भरी हुई है उनसे भवहित-कारिता।
पति-परायणा हैं पातिव्रत-पूर्ति हैं॥58॥

आप कहीं जाते, आने में देर कुछ-
हो जाती तो चित्त को न थीं रोकती॥
इतनी आकुल वे होती थीं उस समय।
ऑंखें पल-पल थीं पथ को अवलोकती॥59॥

किसी समय जब जाती उनके पास मैं।
यही देखती वे सेवा में हैं लगी॥
आप सो रहे हैं वे करती हैं व्यंजन।
या अनुरंजन की रंगत में हैं रँगी॥60॥

वास्तव में वे पतिप्राणा हैं मैं उन्हें।
चन्द्रवदन की चकोरिका हूँ जानती॥
हैं उनके सर्वस्व आप ही मैं उन्हें।
प्रेम के सलिल की सफरी हूँ मानती॥61॥

रोमांचित-तन हुआ कलेजा हिल गया।
दृग के सम्मुख उड़ी व्यथाओं की ध्वजा॥
जब मेरे विचलित कानों ने यह सुना।
हैं द्वादश-वत्सर-वियोगिनी जनकजा॥62॥

विधि ने उन्हें बनाया है अति-सुन्दरी।
उनका अनुपम-लोकोत्तर-सौन्दर्य है॥
पर उसके कारण जो उत्पीड़न हुआ।
वह हृत्कम्पित-कर है परम-कदर्य्य है॥63॥

जो साम्राज्ञी हैं जो हैं नृप-नन्दिनी।
रत्न-खचित-कंचन के जिनके हैं सदन॥
उनका न्यून नहीं बहु बरसों के लिए।
बार-बार बनता है वास-स्थान वन॥64॥

जो सर्वोत्तम-गुण-गौरव की मूर्ति हैं।
वसुधा-वांछित जिनका पूत-प्रयोग है॥
एक दो नहीं बारह-बारह बरस का।
उनका हृदय-विदारक वैध-वियोग है॥65॥

विधि-विधान में क्या विधि है क्या अविधि है।
विबुध-वृन्द भी इसे बता पाते नहीं॥
सही गयी ऐसी घटनायें, पर उन्हें।
थाम कलेजा सहनेवालों ने सहीं॥66॥

हरण अचानक जब पतिप्राणा का हुआ।
उनके प्रतिपालित-खग-मृग मुझको मिले॥
पर वे मेरी ओर ताकते तक न थे।
वे कुछ ऐसे जनक-सुता से थे हिले॥67॥

शुक ने तो दो दिन तक खाया ही नहीं।
करुण-स्वरों से रही बिलखती शारिका॥
मातृहीन-मृग-शावक तृण चरता न था।
यद्यपि मैं थी स्वयं बनी परिचारिका॥68॥

कभी दिखाते वे ऐसे कुछ भाव थे।
जिनसे उर में उठती दुख की आग बल॥
उनकी खग-मृग तक की प्यारी प्रीति को।
बतलाते थे मृग-शावक के दृग-सजल॥69॥

द्रवण-शीलता जैसी थी उनमें भरी।
वैसा ही अन्तस्तल दयानिधान था॥
अण्डज, पिण्डज जीवों की तो बात क्या।
म्लान-विटप देखे, मुख बनता म्लान था॥70॥

दूब कुपुटते भी न उन्हें देखा कभी।
लता-और तृण से भी उनको प्यार था॥
प्रेम-परायणता की वे हैं पुत्तली।
स्नेह-सिक्त उनका अद्भुत-संसार था॥71॥

आह! वही क्यों प्रेम से प्रवंचित हुई।
क्यों वियोग-वारिधि-आवत्तों में पड़ी॥
जो सतीत्व की लोक-वन्दिता-मूर्ति है।
उसके सम्मुख क्यों आयी ऐसी घड़ी॥72॥

यह कैसी अकृपा? क्या इसका मर्म है।
परम-व्यथित-हृदया मैं क्यों समझूँ इसे॥
कैसे इतना उतर गयी वह चित्त से।
हृदय-वल्लभा आप समझते थे जिसे॥73॥

आत्रेयी कहती थीं बारह बरस में।
नहीं गये थे आप एक दिन भी वहाँ॥
कहाँ वह अलौकिक पल-पल का सम्मिलन।
और लोक-कम्पितकर यह अमिलन कहाँ॥74॥

कभी जनकजा जीती रह सकती नहीं।
जो न सम्मिलन-आशा होती सामने॥
क्या न कृपा अब भी होवेगी आपकी।
लोगों को क्यों पडें क़लेजे थामने॥75॥

संयत हो यह कहा लोक-अभिराम ने।
देवि! आप हैं जनकसुता-प्रिय-सहचरी॥
हैं विदुषी हैं कोमल-हृदया आपके-
अन्तस्तल में उनकी ममता है भरी॥76॥

उपालम्भ है उचित और मुझको स्वयं।
इन बातों की थोड़ी पीड़ा है नहीं॥
किन्तु धर्म की गति है सूक्ष्म कही गई।
जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥77॥

लोकाराधन राजनीति-सर्वस्व है।
हैं परार्थ, परमार्थ, पंथ भी अति-गहन॥
पर यदि ए कर्तव्य और सध्दर्म हैं।
सहन-शक्ति तो क्यों न करे संकट सहन॥78॥

कुलपति-आश्रम-वास जनक-नन्दिनी का।
हम दोनों के सद्विचार का मर्म है॥
वेद-विहित बुध-वृन्द-समर्थित पूत-तम।
भवहित-मंगल-मूलक वांछित-कर्म है॥79॥

कुछ लोगों का यह विचार है आत्म-सुख।
है प्रधान है वसुधा में वांछित वही॥
तजे विफलता-पथ बाधाओं से बचे।
मनुज को सफलता दे देती है मही॥80॥

वे कहते हैं नरक, स्वर्ग, अपवर्ग की।
जन्मान्तर या लोकान्तर की कल्पना॥
है परोक्ष की बात हुई प्रत्यक्ष कब।
है परार्थ भी अत: व्यर्थ की जल्पना॥81॥

यह विचार है स्वार्थ-भरित भ्रम-आकलित।
कर इसका अनुसरण ध्वंस होती धरा॥
है परार्थ, परमार्थ, बाद ही पुण्यतम।
वह है भवहित के सद्भाव से भरा॥82॥

स्वार्थ वह तिमिर है जिसमें रहकर मनुज।
है टटोलता रहता अपनी भूति को॥
है परार्थ परमार्थ दिव्य वह ओप जो।
उद्भासित करता है विश्व-विभूति को॥83॥

आत्म-सुख-निरत आत्म-सुखों में मग्न हो।
अवलोकन करता रहता निज-ओक है॥
कहलाकर कुल का, स्वजाति का, देश का।
लोक-सुख-निरत बनता भव आलोक है॥84॥

इसी पंथ की पथिका हैं जनकांगजा॥
उनका आश्रम का निवास सफलित हुआ॥
मिले अलौकिक-लाल हो गया लोक-हित।
कलुषित-जन-अपवाद काल-कवलित हुआ॥85॥

अश्वमेध का अनुष्ठान हो चुका है।
नीति की कलिततम कलिकायें खिलेंगी॥
कृपा दिखा उत्सव में आयें आप भी।
वहाँ जनक-नन्दिनी आपको मिलेंगी॥86॥
दोहा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
चले गये रघुकुल तिलक रहा पुलकित-कर बात।
वनदेवी अविकच-बदन बना विकच-जलजात॥87॥

अष्टदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

स्वर्गारोहण
छन्द : तिलोकी
शीत-काल था वाष्पमय बना व्योम था।
अवनी-तल में था प्रभूत-कुहरा भरा॥
प्रकृति-वधूटी रही मलिन-वसना बनी।
प्राची सकती थी न खोल मुँह मुसकुरा॥1॥

ऊषा आयी किन्तु विहँस पाई नहीं।
राग-मयी हो बनी विरागमयी रही॥
विकस न पाया दिगंगना-वर-बदन भी।
बात न जाने कौन गयी उससे कही॥2॥

ठण्डी-साँस समीरण भी था भर रहा।
था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा॥
दिन-नायक भी था न निकलना चाहता।
उन पर भी था कु-समय का पहरा कड़ा॥3॥

हरे-भरे-तरुवर मन मारे थे खड़े।
पत्ते कँप-कँप कर थे ऑंसू डालते॥
कलरव करते आज नहीं खग-वृन्द थे।
खोतों से वे मुँह भी थे न निकालते॥4॥

कुछ उँजियाला होता फिर घिरता तिमिर।
यही दशा लगभग दो घण्टे तक रही॥
तदुपरान्त रवि-किरणावलि ने बन सबल।
मानो बातें दिवस-स्वच्छता की कही॥5॥

कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।
दिवनायक ने दिखलाई निज-दिव्यता॥
जन-कल-कल से हुआ आकलित कुछ-नगर।
भवन-भवन में भूरि-भर-गई-भव्यता॥6॥

अवध-वर-नगर अश्वमेधा-उपलक्ष से।
समधिक-सुन्दरता से था सज्जित हुआ॥
जन-समूह सुन जनक-नन्दिनी-आगमन।
था प्रमोद-पाथोधि में निमज्जित हुआ॥7॥

ऋषि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।
सन्त-महन्तों, गुणियों से था पुर भरा॥
विविध-जनपदों के बहु-विधा-नर वृन्द से।
नगर बन गया देव-नगर था दूसरा॥8॥

आज यही चर्चा थी घर-घर हो रही।
जन-जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी॥
उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती।
दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी॥9॥

यदि प्रफुल्ल थी धवल-धाम की धवलता।
पहन कलित-कुसुमावलि-मंजुल-मालिका॥
बहु-वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित।
अट्टहास तो करती थी अट्टालिका॥10॥

यदि विलोकते पथ थे वातायन-नयन।
सजे-सदन स्वागत-निमित्त तो थे लसे॥
थे समस्त-मन्दिर बहु-मुखरित कीर्ति से।
कनक के कलस उनके थे उल्लसित से॥11॥

कल-कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।
ललक-भरे-जन जहाँ तहाँ समवेत थे॥
स्वच्छ हुई सड़कें थीं, सुरभित-सुरभि से-
बने चौरहे भी चारुता-निकेत थे॥12॥

राजमार्ग पर जो बहु-फाटक थे बने।
कारु-कार्य उनके अतीव-रमणीय थे॥
थीं झालरें लटकती मुक्ता-दाम की।
कनक-तार के काम परम-कमनीय थे॥13॥

लगी जो ध्वजायें थी परम-अलंकृता।
विविध-स्थलों मन्दिरों पर तरुवरों पर॥
कर नर्तन कर शुभागमन-संकेत-बहु॥
दिखा रही थीं दृश्य बड़े ही मुग्धकर॥14॥

सलिल-पूर्ण नव-आम्र-पल्लवों से सजे।
पुर-द्वारों पर कान्त-कलस जो थे लसे॥
वे यह व्यंजित करते थे मुझमें, मधुर-
मंगल-मूलक-भाव मनों के हैं बसे॥15॥

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम।
नौबत बड़े मधुर-स्वर से थी बज रही॥
उसके सम्मुख जो अति-विस्तृत-भूमि थी।
मनोहारिता-हाथों से थी सज रही॥16॥

जो विशालतम-मण्डप उसपर था बना।
धीरे-धीरे वह सशान्ति था भर रहा॥
अपने सज्जित-रूप अलौकिक-विभव से।
दर्शक-गण को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥17॥

सुनकर शुभ-आगमन जनक-नन्दिनी का।
अभिनन्दन के लिए रहे उत्कण्ठ सब॥
कितनों की थी यह अति-पावन-कामना।
अवलोकेंगे पतिव्रता-पद-कंज कब॥18॥

स्थान बने थे भिन्न-भिन्न सबके लिए।
ऋषि, महर्षि, नृप-वृन्द, विबुध-गण-मण्डली॥
यथास्थान थी बैठी अन्य-जनों सहित।
चित्त-वृत्ति थी बनी विकच-कुसुमावली॥19॥

एक भाग था बड़ा-भव्य मंजुल-महा।
उसमें राजभवन की सारी-देवियाँ॥
थीं विराजती कुल-बालाओं के सहित।
वे थीं वसुधातल की दिव्य-विभूतियाँ॥20॥

जितने आयोजन थे सज्जित-करण के।
नगर में हुए जो मंगल-सामान थे॥
विधि-विडम्बना-विवश तुषार-प्रपात से।
सभी कुछ-न-कुछ अहह हो गये म्लान थे॥21॥

गगन-विभेदी जय-जयकारों के जनक।
विपुल-उल्लसित जनता के आधाद ने॥
जनक-नन्दिनी पुर-प्रवेश की सूचना।
दी अगणित-वाद्यों के तुमुल-निनाद ने॥22॥

सबसे आगे वे सैकड़ों सवार थे।
जो हाथों में दिव्य-ध्वजायें थे लिये॥
जो उड़-उड़ कर यह सूचित कर रही थीं।
कीर्ति-धरा में होती है सत्कृति किये॥23॥

इनके पीछे एक दिव्यतम-यान था।
जिसपर बैठे हुए थे भरत रिपुदमन॥
देख आज का स्वागत महि-नन्दिनी का।
था प्रफुल्ल शतदल जैसा उनका बदन॥24॥

इसके पीछे कुलपति का था रुचिर-रथ।
जिसपर वे हो समुत्फुल्ल आसीन थे॥
बन विमुग्ध थे अवध-छटा अवलोकते।
राम-चरित की ललामता में लीन थे॥25॥

जनक-सुता-स्यंदन इसके उपरान्त था।
जिसपर थी कुसुमों की वर्षा हो रही॥
वे थीं उसपर पुत्रों-सहित विराजती।
दिव्य-ज्योति मुख की थी भव-तम खो रही॥26॥

कुश मणि-मण्डित-छत्र हाथ में थे लिये।
चामीकर का चमर लिये लव थे खड़े॥
एक ओर सादर बैठे सौमित्र थे।
देखे जनता-भक्ति थे प्रफुल्लित-बड़े॥27॥

सबके पीछे बहुश:-विशद-विमान थे।
जिनपर थी आश्रम-छात्रों की मण्डली॥
छात्राओं की संख्या भी थोड़ी न थी।
बनी हुई थी जो वसंत-विटपावली॥28॥

धीरे-धीरे थे समस्त-रथ चल रहे।
विविध-वाद्य-वादन-रत वादक-वृन्द था॥
चारों ओर विपुल-जनता का यूथ था।
जो प्रभात का बना हुआ अरविन्द था॥29॥

बरस रही थी लगातार सुमनावली।
जय-जय-ध्वनि से दिशा ध्वनित थी हो रही॥
उमड़ा हुआ प्रमोद-पयोधि-प्रवाह था।
प्रकृति, उरों में सुकृति, बीज थी बो रही॥30॥

कुश-लव का श्यामावदात सुन्दर-बदन।
रघुकुल-पुंगव सी उनकी-कमनीयता॥
मातृ-भक्ति-रुचि वेश-वसन की विशदता।
परम-सरलता मनोभाव-रमणीयता॥31॥

मधुर-हँसी मोहिनी-मूर्ति मृदुतामयी।
कान्ति-इन्दु सी दिन-मणि सी तेजस्विता॥
अवलोके द्विगुणित होती अनुरक्ति थी।
बनती थी जनता विशेष-उत्फुल्लिता॥32॥

जब मुनि-पुंगव रथ समेत महि-नन्दिनी।
रथ पहँचा सज्जित-मण्डप के सामने॥
तब सिंहासन से उठ सादर यह कहा।
मण्डप के सब महज्जनों से राम ने॥33॥

आप लोग कर कृपा यहीं बैठे रहें।
जाता हूँ मुनिवर को लाऊँगा यहीं॥
साथ लिये मिथिलाधिप की नन्दिनी को।
यथा शीघ्र मैं फिर आ जाऊँगा॥34॥

रथ पहुँचा ही था कि कहा सौमित्र ने।
आप सामने देखें प्रभु हैं आ रहे॥
श्रवण-रसायन के समान यह कथन सुन।
स्रोत-सुधा के सिय अन्तस्तल में बहे॥35॥

उसी ओर अति-आकुल-ऑंखें लग गईं।
लगीं निछावर करने वे मुक्तावली॥
बहुत समय से कुम्हलाई आशा-लता।
कल्पबेलि सी कामद बन फूली फली॥36॥

रोम-रोम अनुपम-रस से सिंचित हुआ।
पली अलौकिकता-कर से पुलकावली॥
तुरत खिली खिलने में देर हुई नहीं।
बिना खिले खिलती है जो जी की कली॥37॥

घन-तन देखे वह वासना सरस बनी।
जो वियोग-तप-ऋतु-आतप से थी जली॥
विधु-मुख देखे तुरत जगमगा वह उठी।
तम-भरिता थी जो दुश्चिन्ता की गली॥38॥

जब रथ से थीं उतर रही जनकांगजा।
उसी समय मुनिवर की करके वन्दना॥
पहुँचे रघुकुल-तिलक वल्लभा के निकट।
लोकोत्तर था पति-पत्नी का सामना॥39॥

ज्योंही पतिप्राणा ने पति-पद-पर्कं।
स्पर्श किया निर्जीव-मूर्ति सी बन गई॥
और हुए अतिरेक चित्त-उल्लास का।
दिव्य-ज्योति में परिणत वे पल में हुई॥40॥

लगे वृष्टि करने सुमनावलि की त्रिदश।
तुरत दुंदुभी-नभतल में बजने लगी॥
दिव्य-दृष्टि ने देखा, है दिव-गामिनी।
वह लोकोत्तर-ज्योति जो धरा में जगी॥41॥

वह थी पातिव्रत-विमान पर विलसती।
सुकृति, सत्यता, सात्तिवकता की मूर्तियाँ॥
चमर डुलाती थीं करती जयनाद थीं।
सुर-बालायें करती थीं कृति-पूर्तियाँ॥42॥

क्या महर्षि क्या विबुध-वृन्द क्या नृपति-गण।
क्या साधारण जनता क्या सब जनपद॥
सभी प्रभावित दिव्य-ज्योति से हो गए।
मान लोक के लिए उसे आलोक प्रद॥43॥

मुनि-पुंगव-रामायण की बहु-पंक्तियाँ।
पाकर उसकी विभा जगमगाई अधिक॥
कृति-अनुकूल ललिततम उसके ओप से।
लौकिक बातें भी बन पाई अलौकिक॥44॥

कुलपति-आश्रम के छात्रों ने लौटकर।
दिव्य-ज्योति-अवलम्बन से गौरव-सहित॥
वह आभा फैलाई निज-निज प्रान्त में।
जिसके द्वारा हुआ लोक का परम-हित॥45॥

तपस्विनी-छात्राओं के उद्वोधा से।
दिव्य ज्योति- बल-से-बल सका प्रदीप वह॥
जिससे तिमिर-विदूरित बहु-घर के हुए।
लाख-लाख मुखड़ों की लाली सकी रह॥46॥

ऋषि, महर्षियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों।
हृदयों में बस दिव्य-ज्योति की दिव्यता॥
भवहित-कारक सद्भावों में सर्वदा।
भूरि-भूरि भरती रहती थी भव्यता॥47॥

जनपदाधि-पतियों नरनाथों-उरों में।
दिव्य-ज्योति की कान्ति बनी राका-सिता॥
रंजन-रत रह थी जन-जन की रंजिनी।
सुधामयी रह थी वसुधा में विलसिता॥48॥

साधिकार-पुरुषों साधारण-जनों के।
उरों में रमी दिव्य-ज्योति की रम्यता॥
शान्तिदायिनी बन थी भूति-विधायिनी।
कहलाकर कमनीय-कल्पतरु की लता॥49॥

यथाकाल यह दिव्य-ज्योति भव-हित-रता।
आर्य-सभ्यता की अमूल्य-निधि सी बनी॥
वह भारत-सुत-सुख-साधन वर-व्योम में।
है लोकोत्तर ललित चाँदनी सी तनी॥50॥

उसके सारे-भाव भव्य हैं बन गये।
पाया उसमें लोकोत्तर-लालित्य है॥
इन्दु कला सी है उसमें कमनीयता।
रचा गया उस पर जितना साहित्य है॥51॥

उसकी परम-अलौकिक आभा के मिले।
दिव्य बन गयी हैं कितनी ही उक्तियाँ॥
स्वर्णाक्षर हैं मसि-अंकित-अक्षर बने।
मणिमय हैं कितने ग्रंथों की पंक्तियाँ॥52॥

आज भी अमित-नयनों की वह दीप्ति है।
आज भी अमित-हृदयों की वह शान्ति है॥
आज भी अमित तम-भरितों की है विभा।
आज भी अमित-मुखड़ों की वह कान्ति है॥53॥

आज भी कलित उसकी कीर्ति-कलाप से।
मंजुल-मुखरित उसका अनुपम-ओक है॥
आज भी परम-पूता भारत की धरा।
आलोकित है उसके शुचि आलोक से॥54॥

उठकर इतना उच्च ठहरती क्यों यहाँ।
इस ध्वनि से ही उस दिन थी ध्वनिता-मही॥
अपने दिव्य गुणों की दिखला दिव्यता।
वह तो स्वर्गीया ही जाती थी कही॥55॥
दोहा
अधिक-उच्च उठ जनकजा क्यों धरती तजतीं न।
बने दिव्य से दिव्य क्यों दिव देवी बनतीं न॥56॥

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