अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'-वैदेही वनवास

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

वैदेही वनवास अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
Vaidehi Vanvas Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'

प्रथम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

उपवन
छन्द: रोला

लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।

नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥

धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था।

ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥

 

 

किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई।

मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥

अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई।

भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥

 

दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई।

मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥

शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए।

तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥

 

सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया।

बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥

उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें।

दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥

 

सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी।

प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥

बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई।

बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥

 

 

एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर।

पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥

गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित-

कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥

 

किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं।

निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥

दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते।

वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥

दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते।

उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥

दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं।

आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥

 

 

हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती।

दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥

तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी।

मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥

इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर।

एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥

उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा।

प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥

 

उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली।

किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली।

कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल।

लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥

 

उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन।

लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥

उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती।

पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥

 

 

सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का।

कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥

दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता।

लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥

wallpaper

 

उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी।

मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥

इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन।

श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥

 

मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर।

दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥

थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा।

सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥

 

वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला।

था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥

सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं।

कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥

 

बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी।

है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥

प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता।

दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥

 

सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती।

सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥

रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है।

दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥

 

 

हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती।

तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥

जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर।

कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥

 

तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते।

रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥

सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली।

रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥

 

हैं प्रभात उत्फुल्ल-मूर्ति कुसुमों में पाते।

आहा! वे कैसे हैं फूले नहीं समाते॥

मानो वे हैं महानन्द-धरा में बहते।

खोल-खोल मुख वर-विनोद-बातें हैं कहते॥21॥

 

है उसकी माधुरी विहग-रट में मिल पाती।

जो मिठास से किसे नहीं है मुग्ध बनाती॥

मन्द-मन्द बह बह समीर सौरभ फैलाता।

सुख-स्पर्श सद्गंधा-सदन है उसे बताता॥22॥

 

 

हैं उसकी दिव्यता दमक किरणें दिखलाती।

जगी-ज्योति उसको ज्योतिर्मय है बतलाती॥

सहज-सरसता, मोहकता, सरिता है कहती।

ललित लहर-लिपि-माला में है लिखती रहती॥23॥

 

जगी हुई जनता निज कोलाहल के द्वारा।

कर्म-क्षेत्र में बही विविध-कर्मों की धारा॥

उसकी जाग्रत करण क्रिया को है जतलाती।

नाना-गौरव-गीत सहज-स्वर से है गाती॥24॥

 

लोक-नयन-आलोक, रुचिर-जीवन-संचारक।

स्फूर्ति-मूर्ति उत्साह-उत्स जागृति-प्रचारक॥

भव का प्रकृत-स्वरूप-प्रदर्शक, छबि-निर्माता।

है प्रभात उल्लास-लसित दिव्यता-विधाता॥25॥

 

कितनी है कमनीय-प्रकृति कैसे बतलाएँ।

उसके सकल-अलौकिक गुण-गण कैसे गायें॥

है अतीव-कोमला विश्व-मोहक-छबि वाली।

बड़ी सुन्दरी सहज-स्वभावा भोली-भाली॥।26॥

 

करुणभाव से सिक्त सदयता की है देवी।

है संसृति की भूति-राशि पद-पंकज-सेवी॥

हैं उसके बहु-रूप विविधता है वरणीया।

प्रात:-कालिक-मूर्ति अधिकतर है रमणीया॥27॥

 

 

जनक-सुता ने कहा प्रकृति-महिमा है महती।

पर वह कैसे लोक-यातनाएँ है सहती॥

क्या है हृदय-विहीन? तो अखिल-हृदय बना क्यों?

यदि है सहृदय ऑंखों से ऑंसू न छना क्यों?॥28॥

 

यदि वह जड़ है तो चेतन क्यों, चेत, न पाया।

दु:ख-दग्ध संसार किस लिए गया बनाया॥

कितनी सुन्दर-सरस-दिव्य-रचना वह होती।

जिसमें मानस-हंस सदा पाता सुख-मोती॥29॥

 

कुछ पहले थी निशा सुन्दरी कैसी लसती।

सिता-साटिका मिले रही कैसी वह हँसती॥

पहन तारकावलि की मंजुल-मुक्ता-माला।

चन्द्र-वदन अवलोक सुधा का पी पी प्याला॥30॥

 

प्राय: उल्का पुंज पात से उद्भासित बन।

दीपावलि का मिले सर्वदा दीप्ति-मान-तन॥

देखे कतिपय-विकच-प्रसूनों पर छबि छाई।

विभावरी थी विपुल विनोदमयी दिखलाई॥31॥

 

अमित-दिव्य-तारक-चय द्वारा विभु-विभुता की।

जिसने दिखलाई दिव-दिवता की बर-झाँकी॥

भव-विराम जिसके विभवों पर है अवलंबित।

वह रजनी इस काल-काल द्वारा है कवलित॥32॥

 

जो मयंक नभतल को था बहु कान्त बनाता।

वसुंधरा पर सरस-सुधा जो था बरसाता॥

जो रजनी को लोक-रंजिनी है कर पाता।

वही तेज-हत हो अब है डूबता दिखाता॥33॥

 

 

जो सरयू इस समय सरस-तम है दिखलाती।

उठा-उठा कर ललित लहर जो है ललचाती॥

शान्त, धीर, गति जिसकी है मृदुता सिखलाती।

ज्योतिमयी बन जो है अन्तर-ज्योति जगाती॥34॥

 

सावन का कर संग वही पातक करती है।

कर निमग्न बहु जीवों का जीवन हरती है॥

डुबा बहुत से सदन, गिराकर तट-विटपी को।

करती है जल-मग्न शस्य-श्यामला मही को॥35॥

 

कल मैंने था जिन फूलों को फूला देखा।

जिनकी छबि पर मधुप-निकर को भूला देखा॥

प्रफुल्लता जिनकी थी बहु उत्फुल्ल बनाती।

जिनकी मंजुल-महँक मुदित मन को कर पाती॥36॥

 

उनमें से कुछ धूल में पड़े हैं दिखलाते।

कुछ हैं कुम्हला गये और कुछ हैं कुम्हलाते॥

कितने हैं छबि-हीन बने नुचते हैं कितने।

कितने हैं उतने न कान्त पहले थे जितने॥37॥

 

 

सुन्दरता में कौन कर सका समता जिनकी।

उन्हें मिली है आयु एक दिन या दो दिन की॥

फूलों सा उत्फुल्ल कौन भव में दिखलाया।

किन्तु उन्होंने कितना लघु-जीवन है पाया॥38॥

 

स्वर्णपुरी का दहन आज भी भूल न पाया।

बड़ा भयंकर-दृश्य उस समय था दिखलाया॥

निरअपराध बालक-विलाप अबला का क्रंदन।

विवश-वृध्द-वृध्दाओं का व्याकुल बन रोदन॥39॥

 

रोगी-जन की हाय-हाय आहें कृश-जन की।

जलते जन की त्राहि-त्राहि कातरता मन की॥

ज्वाला से घिर गये व्यक्तियों का चिल्लाना।

अवलोके गृह-दाह गृही का थर्रा जाना॥40॥

 

भस्म हो गये प्रिय स्वजनों का तन अवलोके।

उनकी दुर्गति का वर्णन करना रो रो के॥

बहुत कलपना उसको जो था वारि न पाता।

जब होता है याद चित व्यथित है हो जाता॥41॥

 

 

समर-समय की महालोक संहारक लीला।

रण भू का पर्वत समान ऊँचा शव-टीला॥

बहती चारों ओर रुधिर की खर-तर-धारा।

धरा कँपा कर बजता हाहाकार नगारा॥42॥

 

क्रंदन, कोलाहल, बहु आहों की भरमारें।

आहत जन की लोक प्रकंपित करी पुकारें॥

कहाँ भूल पाईं वे तो हैं भूल न पाती।

स्मृति उनकी है आज भी मुझे बहुत सताती॥43॥

 

आह! सती सिरधारी प्रमीला का बहु क्रंदन।

उसकी बहु व्याकुलता उसका हृदयस्पंदन॥

मेघनाद शव सहित चिता पर उसका चढ़ना।

पति प्राणा का प्रेम पंथ में आगे बढ़ना॥44॥

 

कुछ क्षण में उस स्वर्ग-सुन्दरी का जल जाना।

मिट्टी में अपना महान सौन्दर्य मिलाना॥

बड़ी दु:ख-दायिनी मर्म-वेधी-बातें हैं।

जिनको कहते खड़े रोंगटे हो जाते हैं॥45॥

 

 

पति परायणा थी वह क्यों जीवित रह पाती।

पति चरणों में हुई अर्पिता पति की थाती॥

धन्य भाग्य, जो उसने अपना जन्म बनाया।

सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन बहु गौरव पाया॥46॥

 

व्यथा यही है पड़ी सती क्यों दुख के पाले।

पड़े प्रेम-मय उर में कैसे कुत्सित छाले॥

आह! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा।

मरने पर भी जिससे पति पद-कंज न छूटा॥47॥

 

कलह मूल हूँ शान्ति इसी से मैं खोती हूँ।

मर्माहत मैं इसीलिए बहुधा होती हूँ॥

जो पापिनी-प्रवृत्ति न लंका-पति की होती।

क्यों बढ़ता भूभार मनुजता कैसे रोती॥48॥

 

अच्छा होता भली-वृत्ति ही जो भव पाता।

मंगल होता सदा अमंगल मुख न दिखाता॥

सबका होता भला फले फूले सब होते।

हँसते मिलते लोग दिखाते कहीं न रोते॥49॥

 

 

होता सुख का राज, कहीं दुख लेश न होता।

हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता॥

पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा।

बहती भव में शान्ति-सुधा की सुन्दर धारा॥50॥

 

हो जाता दुर्भाव दूर सद्भाव सरसता।

उमड़-उमड़ आनन्द जलद सब ओर बरसता॥

होता अवगुण मग्न गुण पयोनिधि लहराता।

गर्जन सुन कर दोष निकट आते थर्राता॥51॥

 

फूली रहती सदा मनुजता की फुलवारी।

होती उसकी सरस सुरभि त्रिभुवन की प्यारी॥

किन्तु कहूँ क्या है विडम्बना विधि की न्यारी।

इतना कह कर खिन्न हो गईं जनक दुलारी॥52॥

 

कहा राम ने यहाँ इसलिए मैं हूँ आया।

मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया॥

किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया।

पड़ी किस लिए हृदय-मुकुर में दुख की छाया॥53॥

 

गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही।

पड़े व्यथित कर विषय की न उसपर परछाँही॥

माता-मानस-भाव समूहों में ढलता है।

प्रथम उदर पलने ही में बालक पलता है॥54॥

 

 

हरे भरे इस पीपल तरु को प्रिये विलोको।

इसके चंचल-दीप्तिमान-दल को अवलोको॥

वर-विशालता इसकी है बहु-चकित बनाती।

अपर द्रुमों पर शासन करती है दिखलाती॥55॥

 

इसके फल दल से बहु-पशु-पक्षी पलते हैं।

पा इसका पंचांग रोग कितने टलते हैं॥

दे छाया का दान सुखित सबको करता है।

स्वच्छ बना वह वायु दूषणों को हरता है॥56॥

 

मिट्टी में मिल एक बीज, तरु बन जाता है।

जो सदैव बहुश: बीजों को उपजाता है॥

प्रकट देखने में विनाश उसका होता है।

किन्तु सृष्टि गति सरि का वह बनता सोता है॥57॥

 

शीतल मंद समीर सौरभित हो बहता है।

भव कानों में बात सरसता की कहता है॥

प्राणि मात्र के चित को वह पुलकित करता है।

प्रात: को प्रिय बना सुरभि भू में भरता है॥58॥

 

 

सुमनावलि को हँसा खिलाता है कलिका को।

लीलामयी बनाता है लसिता लतिका को॥

तरु दल को कर केलि-कान्त है कला दिखाता।

नर्तन करना लसित लहर को है सिखलाता॥59॥

 

ऐसे सरस पवन प्रवाह से, जो बुझ जावे।

कोई दीपक या पत्ता गिरता दिखलावे॥

या कोई रोगी शरीर सह उसे न पावे।

या कोई तृण उड़ दव में गिर गात जलावे॥60॥

 

तो समीर को दोषी कैसे विश्व कहेगा।

है वह अपचिति-रत न अत: निर्दोष रहेगा॥

है स्वभावत: प्रकृति विश्वहित में रत रहती।

इसीलिए है विविध स्वरूपवती अति महती॥61॥

 

पंचभूत उसकी प्रवृत्ति के हैं परिचायक।

हैं उसके विधान ही के विधि सविधि-विधायक॥

भव के सब परिवर्तन हैं स्वाभाविक होते।

मंगल के ही बीज विश्व में वे हैं बोते॥62॥

 

 

यदि है प्रात: दीप पवन गति से बुझ जाता।

तो होता है वही जिसे जन-कर कर पाता॥

सूखा पत्ता नहीं किरण ग्राही होता है।

होके रस से हीन सरसताएँ खोता है॥63॥

 

हरित दलों के मध्य नहीं शोभा पाता है।

हो निस्सार विटप में लटका दिखलाता है॥

अत: पवन स्वाभाविक गति है उसे गिराती।

जिससे वह हो सके मृत्तिका बन महिथाती॥64॥

 

सहज पवन की प्रगति जो नहीं है सह जाती।

तो रोगी को सावधानता है सिखलाती॥

रूपान्तर से प्रकृति उसे है डाँट बताती।

स्वास्थ्य नियम पालन निमित्त है सजग बनाती॥65॥

 

यह चाहता समीर न था तृण उड़ जल जाए।

थी न आग की चाह राख वह उसे बनाए॥

किन्तु पलक मारते हो गईं उभय क्रियाएँ।

होती हैं भव में प्राय: ऐसी घटनाएँ॥66॥

 

जो हो तृण के तुल्य तुच्छ उड़ते फिरते हैं।

प्रकृति करों से वे यों ही शासित होते हैं॥

यह शासन कारिणी वृत्ति श्रीमती प्रकृति की।

है बहु मंगलमयी शोधिका है संसृति की॥67॥

 

 

आंधी का उत्पात पतन उपलों का बहुधा।

हिल हिल कर जो महानाश करती है वसुधा॥

ज्वालामुखी-प्रकोप उदधि का धरा निगलना।

देशों का विध्वंस काल का आग उगलना॥68॥

 

इसी तरह के भव-प्रपंच कितने हैं ऐसे।

नहीं बताए जा सकते हैं वे हैं जैसे॥

है असंख्य ब्रह्मांड स्वामिनी प्रकृति कहाती।

बहु-रहस्यमय उसकी गति क्यों जानी जाती॥69॥

 

कहाँ किसलिए कब वह क्या करती है क्यों कर।

कभी इसे बतला न सकेगा कोई बुधवर॥

किन्तु प्रकृति का परिशीलन यह है जतलाता।

है स्वाभाविकता से उसका सच्चा नाता॥70॥

 

है वह विविध विधानमयी भव-नियमन-शीला।

लोक-चकित-कर है उसकी लोकोत्तर लीला॥

सामंजस्यरता प्रवृत्ति सद्भाव भरी है।

चिरकालिक अनुभूति सर्व संताप हरी है॥71॥

 

यदि उसकी विकराल मूर्ति है कभी दिखाती।

तो होती है निहित सदा उसमें हित थाती॥

तप ऋतु आकर जो होता है ताप विधाता।

तो ला कर धन बनता है जग-जीवन-दाता॥72॥

 

जो आंधी उठ कर है कुछ उत्पात मचाती।

धूल उड़ा डालियाँ तोड़ है विटप गिराती॥

तो है जीवनप्रद समीर का शोधन करती।

नयी हितकरी भूति धरातल में है भरती॥73॥

 

जहाँ लाभप्रद अंश अधिक पाया जाता है।

थोड़ी क्षति का ध्यान वहाँ कब हो पाता है॥

जहाँ देश हित प्रश्न सामने आ जाता है।

लाखों शिर अर्पित हो कटता दिखलाता है॥74॥

 

 

जाति मुक्ति के लिए आत्म-बलि दी जाती है।

परम अमंगल क्रिया पुण्य कृति कहलाती है॥

इस रहस्य को बुध पुंगव जो समझ न पाते।

तो प्रलयंकर कभी नहीं शंकर कहलाते॥75॥

 

सृष्टि या प्रकृति कृति को, बहुधा कह कर माया।

कुल विबुधों ने है गुण-दोष-मयी बतलाया॥

इस विचार से है चित्-शक्ति कलंकित होती।

बहु विदिता निज सर्व शक्तिमत्त है खोती॥76॥

 

किन्तु इस विषय पर अब मैं कुछ नहीं कहूँगा।

अधिक विवेचन के प्रवाह में नहीं बहूँगा।

फिर तुम हुईं प्रफुल्ल हुआ मेरा मनभाया।

प्रिये! कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया॥77॥

 

सब को सुख हो कभी नहीं कोई दुख पाए।

सबका होवे भला किसी पर बला न आये॥

कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली।

है इसमें रस भरा सुधा है इसमें ढाली॥78॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इतना कह रघवुंश-मणि, दिखा अतुल-अनुराग।

सदन सिधारे सिय सहित, तज बहु-विलसित बाग॥79॥

 

द्वितीय सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

चिन्तित चित्त

छन्द : चतुष्पद

अवध के राज मन्दिरों मध्य।

एक आलय था बहु-छबि-धाम॥

खिंचे थे जिसमें ऐसे चित्र।

जो कहाते थे लोक-ललाम॥1॥

 

दिव्य-तम कारु-कार्य अवलोक।

अलौकिक होता था आनन्द॥

रत्नमय पच्चीकारी देख।

दिव विभा पड़ जाती थी मन्द॥2॥

 

कला कृति इतनी थी कमनीय।

दिखाते थे सब चित्र सजीव॥

भाव की यथातथ्यता देख।

दृष्टि होती थी मुग्ध अतीव॥3॥

 

अंग-भंगी, आकृति की व्यक्ति।

चित्र के चित्रण की थी पूर्ति॥

ललित तम कर की खिंची लकीर।

बनी थी दिव्य-भूति की मूर्ति॥4॥

 

 

देखते हुए मुग्धकर-चित्र।

सदन में राम रहे थे घूम॥

चाह थी चित्रकार मिल जाए।

हाथ तो उसके लेवें चूम॥5॥

 

इसी अवसर पर आया एक-

गुप्तचर वहाँ विकंपित-गात॥

विनत हो वन्दन कर कर जोड़।

कही दुख से उसने यह बात॥6॥

 

प्रभो यह सेवक प्रात:काल।

घूमता फिरता चारों ओर॥

उस जगह पहुँचा जिसको लोग।

इस नगर का कहते हैं छोर॥7॥

 

वहाँ पर एक रजक हो क्रुध्द।

रोक कर गृह प्रवेश का द्वार॥

त्रिया को कड़ी दृष्टि से देख।

पूछता था यह बारम्बार॥8॥

 

बिताई गयी कहाँ पर रात्रि।

लगा कर लोक-लाज को लात॥

पापिनी कुल में लगा कलंक।

यहाँ क्यों आयी हुए प्रभात॥9॥

 

चली जा हो ऑंखों से दूर।

अब यहाँ क्या है तेरा काम॥

कर रही है तू भारी भूल।

जो समझती है तू मुझको राम॥10॥

 

 

रहीं जो पर-गृह में षट्मास।

हुई है उनकी उन्हें प्रतीति॥

बड़ों की बड़ी बात है किन्तु।

कलंकित करती है यह नीति॥11॥

 

प्रभो बतलाई थी यह बात।

विनय मैंने की थी बहु बार॥

नहीं माना जाता है ठीक।

जनकजा पुनर्ग्रहण व्यापार॥12॥

 

आदि में थी यह चर्चा अल्प।

कभी कोई कहता यह बात॥

और कहते भी वे ही लोग।

जिन्हें था धर्म-मर्म अज्ञात॥13॥

 

अब नगर भर में वह है व्याप्त।

बढ़ रहा है जन चित्त-विकार॥

जनपदों ग्रामों में सब ओर।

हो रहा है उसका विस्तार॥14॥

 

किन्तु साधारण जनता मध्य।

हुआ है उसका अधिक प्रसार॥

उन्हीं के भावों का प्रतिबिम्ब।

रजक का है निन्दित-उद्गार॥15॥

 

 

विवेकी विज्ञ सर्व-बुध-वृन्द।

कर रहे हैं सद्बुध्दि प्रदान॥

दिखाकर दिव्य-ज्ञान-आलोक।

दूर करते हैं तम अज्ञान॥16॥

 

अवांछित हो पर है यह सत्य।

बढ़ रहा है बहु-वाद-विवाद॥

प्रभो मैं जान सका न रहस्य।

किन्तु है निंद्य लोक-अपवाद॥17॥

 

राम ने बनकर बहु-गंभीर।

सुनी दुर्मुख के मुख की बात॥

फिर उसे देकर गमन निदेश।

सोचने लगे बन बहुत शान्त॥18॥

 

बात क्या है? क्यों यह अविवेक?।

जनकजा पर भी यह आक्षेप॥

उस सती पर जो हो अकलंक।

क्या बुरा है न पंक-निक्षेप॥19॥

 

निकलते ही मुख से यह बात।

पड़ गयी एक चित्र पर दृष्टि॥

देखते ही जिसके तत्काल।

दृगों में हुई सुधा की वृष्टि॥20॥

 

 

दारु का लगा हुआ अम्बार।

परम-पावक-मय बन हो लाल॥

जल रहा था धू-धू ध्वनि साथ।

ज्वालमाला से हो विकराल॥21॥

 

एक स्वर्गीय-सुन्दरी स्वच्छ-

पूततम-वसन किये परिधान॥

कर रही थी उसमें सुप्रवेश।

कमल-मुख था उत्फुल्ल महान॥22॥

 

परम-देदीप्यमान हो अंग।

बन गये थे बहु-तेज-निधन॥

दृगों से निकल ज्योति का पुंज।

बनाता था पावक को म्लान॥23॥

 

सामने खड़ा रिक्ष कपि यूथ।

कर रहा था बहु जय-जय कार॥

गगन में बिलसे विबुध विमान।

रहे बरसाते सुमन अपार॥24॥

 

बात कहते अंगारक पुंज।

बन गये विकच कुसुम उपमान।

लसी दिखलाईं उस पर सीय।

कमल पर कमलासना समान॥25॥

 

 

देखते रहे राम यह दृश्य।

कुछ समय तक हो हो उद्ग्रीव॥

फिर लगे कहने अपने आप।

क्या न यह कृति है दिव्य अतीव॥26॥

 

मैं कभी हुआ नहीं संदिग्ध।

हुआ किस काल में अविश्वास॥

भरा है प्रिया चित्त में प्रेम।

हृदय में है सत्यता निवास॥27॥

 

राजसी विभवों से मुँह मोड़।

स्वर्ग-दुर्लभ सुख का कर त्याग॥

सर्व प्रिय सम्बन्धों को भूल।

ग्रहण कर नाना विषय विराग॥28॥

 

गहन विपिनों में चौदह साल।

सदा छाया सम रह मम साथ॥

साँसतें सह खा फल दल मूल।

कभी पी करके केवल पाथ॥29॥

 

दुग्ध फेनोपम अनुपम सेज।

छोड़ मणि-मण्डित-कंचन-धाम॥

कुटी में रह सह नाना कष्ट।

बिताए हैं किसने वसुयाम॥30॥

 

 

कमलिनी-सी जो है सुकुमार।

कुसुम कोमल है जिसका गात॥

चटाई पर या भू पर पौढ़।

बिताई उसने है सब रात॥31॥

 

देख कर मेरे मुख की ओर।

भूलते थे सब दुख के भाव॥

मिल गये कहीं कंटकित पंथ।

छिदे किसके पंकज से पाँव॥32॥

 

नहीं घबरा पाती थी कौन।

देख फल दल के भाजन रिक्त॥

बनाती थी न किसे उद्विग्न।

टपकती कुटी धरा जल सिक्त॥33॥

 

भूल अपना पथ का अवसाद।

बदन को बना विकच जलजात॥

पास आ व्यजन डुलाती कौन।

देख कर स्वेद-सिक्त मम गात॥34॥

 

हमारे सुख का मुख अवलोक।

बना किसको बन सुर-उद्यान॥

कुसुम कंटक, चन्दन, तप-ताप।

प्रभंजन मलय-समीर समान॥35॥

 

 

कहाँ तुम और कहाँ वनवास।

यदि कभी कहता चले प्रसंग॥

तो विहँस कहतीं त्याग सकी न।

चन्द्रिका चन्द्र देव का संग॥36॥

 

दिखाया किसने अपना त्याग।

लगा लंका विभवों को लात॥

सहे किसने धारण कर धीर।

दानवों के अगणित-उत्पात॥37॥

 

दानवी दे दे नाना त्रास।

बनाकर रूप बड़ा विकराल॥

विकम्पित किसको बना सकी न।

दिखाकर बदन विनिर्गत ज्वाल॥38॥

 

लोक-त्रासक-दशआनन भीति।

उठी उसकी कठोर करवाल॥

बना किसको न सकी बहु त्रस्त।

सकी किसका न पतिव्रत टाल॥39॥

 

 

कौन कर नाना-व्रत-उपवास।

गलाती रहती थी निज गात॥

बिताया किसने संकट-काल।

तरु तले बैठी रह दिन रात॥40॥

 

नहीं सकती जो पर दुख देख।

हृदय जिसका है परम-उदार॥

सर्व जन सुख संकलन निमित्त।

भरा है जिसके उर में प्यार॥41॥

 

सरलता की जो है प्रतिमूर्ति।

सहजता है जिसकी प्रिय-नीति॥

बड़े कोमल हैं जिसके भाव।

परम-पावन है जिसकी प्रीति॥42॥

 

शान्ति-रत जिसकी मति को देख।

लोप होता रहता है कोप॥

मानसिक-तम करता है दूर।

दिव्य जिसके आनन का ओप॥43॥

 

सुरुचिमय है जिसकी चित-वृत्ति।

कुरुचि जिसको सकती है छू न॥

हृदय है इतना सरस दयार्द्र।

तोड़ पाते कर नहीं प्रसून॥44॥

 

 

करेगा उस पर शंका कौन।

क्यों न उसका होगा विश्वास॥

यही था अग्नि-परीक्षा मर्म।

हो न जिससे जग में उपहास॥45॥

 

अनिच्छा से हो खिन्न नितान्त।

किया था मैंने ही यह काम॥

प्रिया का ही था यह प्रस्ताव।

न लांछित हो जिससे मम नाम॥46॥

 

पर कहाँ सफल हुआ उद्देश।

लग रहा है जब वृथा कलंक॥

किसी कुल-बाला पर बन वक्र।

जब पड़ी लोक-दृष्टि नि:शंक॥47॥

 

सत्य होवे या वह हो झूठ।

या कि हो कलुषित चित्त प्रमाद॥

निंद्य है है अपकीर्ति-निकेत।

लांछना-निलय लोक-अपवाद॥48॥

 

भले ही कुछ न कहें बुध-वृन्द।

सज्जनों को हो सुने विषाद॥

किन्तु है यह जन-रव अच्छा न।

अवांछित है यह वाद-विवाद॥49॥

 

मिल सका मुझे न इसका भेद।

हो रहा है क्यों अधिक प्रसार॥

बन रहा है क्या साधन-हीन।

लोक-आराधन का व्यापार॥50॥

 

प्रकृति गत है, है उर में व्याप्त।

प्रजा-रंजन की नीति-पुनीत॥

दण्ड में यथा-उचित सर्वत्र।

है सरलता सद्भाव गृहीत॥51॥

 

 

न्याय को सदा मान कर न्याय।

किया मैंने न कभी अन्याय॥

दूर की मैंने पाप-प्रवृत।

पुण्यमय करके प्रचुर-उपाय॥52॥

 

सबल के सारे अत्याचार।

शमन में हूँ अद्यापि प्रवृत्ता॥

निर्बलों का बल बन दल दु:ख।

विपुल पुलकित होता है चित्त॥53॥

 

रहा रक्षित उत्तराधिकार।

छिना मुझसे कब किसका राज॥

प्रजा की बनी प्रजा-सम्पत्ति।

ली गयी कभी न वह कर व्याज॥54॥

 

मुझे है कूटनीति न पसंद।

सरलतम है मेरा व्यवहार॥

वंचना विजितों को कर ब्योंत।

बचाया मैंने बारंबार॥55॥

 

समझ नृप का उत्तर-दायित्व।

जान कर राज-धर्म का मर्म॥

ग्रहण कर उचित नम्रता भाव।

कर्मचारी करते हैं कर्म॥56॥

 

भूल कर भेद भाव की बात।

विलसिता समता है सर्वत्र॥

तुष्ट है प्रजामात्र बन शिष्ट।

सीख समुचित स्वतंत्रता मन्त्र॥57॥

 

 

परस्पर प्रीति का समझ लाभ।

हुए मानवता की अनुभूति॥

सुखित है जनता-सुख-मुख देख।

पा गए वांछित सकल-विभूति॥58॥

 

दानवों का हो गया निपात।

तिरोहित हुआ प्रबल आतंक॥

दूर हो गया धर्म का द्रोह।

शान्तिमय बना मेदिनी अंक॥59॥

 

निरापद हुए सर्व-शुभ-कर्म।

यज्ञ-बाधा का हुआ विनाश॥

टल गया पाप-पुंज तम-तोम।

विलोके पुण्य-प्रभात-प्रकाश॥60॥

 

कर रहे हैं सब कर्म स्वकीय।

समझ कर वर्णाश्रम का मर्म॥

बन गये हैं मर्यादा-शील।

धृति सहित धारण करके धर्म॥61॥

 

विलसती है घर-घर में शान्ति।

भरा है जन-जन में आनन्द॥

कहीं है कलह न कपटाचार।

न निन्दित-वृत्ति-जनित छल-छन्द॥62॥

 

हुए उत्तेजित मन के भाव।

शान्त बन जाते हैं तत्काल॥

याद कर मानवता का मन्त्र।

लोक नियमन पर ऑंखें डाल॥63॥

 

 

समय पर जल देते हैं मेघ।

सताती नहीं ईति की भीति॥

दिखाते कहीं नहीं दुर्वृत।

भरी है सब में प्रीति प्रतीति॥64॥

 

फिर हुई जनता क्यों अप्रसन्न।

हुआ क्यों प्रबल लोक-अपवाद॥

सुन रहे हैं क्यों मेरे कान।

असंगत अ-मनोरम सम्वाद॥65॥

 

लग रहा है क्यों वृथा कलंक।

खुला कैसे अकीर्ति का द्वार॥

समझ में आता नहीं रहस्य।

क्या करूँ मैं इसका प्रतिकार॥66॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इन बातों को सोचते, कहते सिय गुण ग्राम।

गये दूसरे गेह में, धीर धुरंधर राम॥67॥

 

तृतीय सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मन्त्रणा गृह

छन्द : चतुष्पद

मन्त्रणा गृह में प्रात:काल।

भरत लक्ष्मण रिपुसूदन संग॥

राम बैठे थे चिन्ता-मग्न।

छिड़ा था जनकात्मजा प्रसंग॥1॥

 

कथन दुर्मुख का आद्योपान्त।

राम ने सुना, कही यह बात॥

अमूलक जन-रव होवे किन्तु।

कीर्ति पर करता है पविपात॥2॥

 

हुआ है जो उपकृत वह व्यक्ति।

दोष को भी न कहेगा दोष॥

बना करता है जन-रव हेतु।

प्रायश: लोक का असन्तोष॥3॥

 

प्रजा-रंजन हित-साधन भाव।

राज्य-शासन का है वर-अंग॥

है प्रकृति प्रकृत नीति प्रतिकूल।

लोक आराधन व्रत का भंग॥4॥

 

क्यों टले बढ़ा लोक-अपवाद।

इस विषय में है क्या कर्तव्य॥

अधिक हित होगा जो हो ज्ञात।

बन्धुओं का क्या है वक्तव्य॥5॥

 

भरत सविनय बोले संसार।

विभामय होते हैं, तम-धाम॥

वहीं है अधम जनों का वास।

जहाँ हैं मिलते लोक-ललाम॥6॥

 

 

तो नहीं नीच-मना हैं अल्प।

यदि मही में हैं महिमावान॥

बुरों को है प्रिय पर-अपवाद।

भले हैं करते गौरव गान॥7॥

 

किसी को है विवेक से प्रेम।

किसी को प्यारा है अविवेक॥

जहाँ हैं हंस-वंश-अवतंस।

वहीं पर हैं बक-वृत्ति अनेक॥8॥

 

द्वेष परवश होकर ही लोग।

नहीं करते हैं निन्दावाद॥

वृथा दंभी जन भी कर दंभ।

सुनाते हैं अप्रिय सम्वाद॥9॥

 

दूसरों की रुचि को अवलोक।

कही जाती है कितनी बात॥

कहीं पर गतानुगतिक प्रवृत्ति।

निरर्थक करती है उत्पात॥10॥

 

लोक-आराधन है नृप-धर्म।

किन्तु इसका यह आशय है न॥

सुनी जाए उनकी भी बात।

जो बला ला पाते हैं चैन॥11॥

 

प्रजा के सकल-वास्तविक-स्वत्व।

व्यक्तिगत उसके सब-अधिकार॥

उसे हैं प्राप्त सुखी है सर्व।

सुकृति से कर वैभव-विस्तार॥12॥

 

 

कहीं है कलह न वैर विरोध।

कहाँ पर है धन धरा विवाद॥

तिरस्कृत है कलुषित चितवृत्ति।

त्यक्त है प्रबल-प्रपंच-प्रमाद॥13॥

 

सुधा है वहाँ बरसती आज।

जहाँ था बरस रहा अंगार॥

वहाँ है श्रुत स्वर्गीय निनाद।

जहाँ था रोदन हाहाकार॥14॥

 

गौरवित है मानव समुदाय।

गिरा का उर में हुए विकास॥

शिवा से है शिवता की प्राप्ति।

रमा का है घर-घर में वास॥15॥

 

बन गये हैं पारस सब मेरु।

उदधि करते हैं रत्न प्रदान॥

प्रसव करती है वसुधा स्वर्ण।

वन बने हैं नन्दन उद्यान॥16॥

 

सुखद-सुविधा से हो सम्पन्न।

सरसता है सरिता का गात॥

बना रहता है पावन वारि।

न करता है सावन उत्पात॥17॥

 

सदा रह हरे भरे तरु-वृन्द।

सफल बन करते हैं सत्कार

दिखाते हैं उत्फुल्ल प्रसून।

बहन कर बहु सौरभ संभार॥18॥

 

 

लोग इतने हैं सुख-सर्वस्व।

विकच इतना है चित जलजात॥

वार हैं बने पर्व के वार।

रात है दीप-मालिका रात॥19॥

 

हुआ अज्ञान का तिमिर दूर।

ज्ञान का फैला है आलोक॥

सुखद है सकल लोक को काल।

बना अवलोकनीय है ओक॥20॥

 

शान्ति-मय-वातावरण विलोक।

रुचिर चर्चा है चारों ओर॥

कीर्ति-राका-रजनी को देख।

विपुल-पुलकित है लोक चकोर॥21॥

 

 

किन्तु देखे राकेन्दु विकास।

सुखित कब हो पाता है कोक॥

फूटती है उलूक की ऑंख।

दिव्यता दिनमणि की अवलोक॥22॥

 

जगत जीवनप्रद पावस काल।

देख जलते हैं अर्क जवास॥

पल्लवित होते नहीं करील।

तन लगे सरस-बसंत-बतास॥23॥

 

जगत ही है विचित्रता धाम।

विविधता विधि की है विख्यात॥

नहीं तो सुन पाता क्यों कान।

अरुचिकर परम असंगत बात॥24॥

 

निंद्य है रघुकुल तिलक चरित्र।

लांछिता है पवित्रता मूर्ति॥

पूत शासन में कहता कौन।

जो न होती पामरता पूर्ति॥25॥

 

आप हैं प्रजा-वृन्द-सर्वस्व।

लोक आराधन के अवतार।

लोकहित-पथ-कण्टक के काल।

लोक मर्यादा पारावार॥26॥

 

बन गयी देश काल अनुकूल।

प्रगति जितनी थी हित विपरीत॥

प्रजारंजन की जो है नीति।

वही है आदर सहित गृहीत॥27॥

 

 

जानते नहीं इसे हैं लोग।

कहा जाता है किसे अभाव॥

विलसती है घर-घर में भूति।

भरा जन-जन में है सद्भाव॥28॥

 

रही जो कण्टक-पूरित राह।

वहाँ अब बिछे हुए हैं फूल॥

लग गये हैं अब वहाँ रसाल।

जहाँ पहले थे खड़े बबूल॥29॥

 

प्रजा में व्यापी है प्रतिपत्ति।

भर गया है रग-रग में ओज॥

शस्य-श्यामला बनी मरु-भूमि।

ऊसरों में हैं खिले सरोज॥30॥

 

नहीं पूजित है कोई व्यक्ति।

आज हैं पूजनीय गुण कर्म॥

वही है मान्य जिसे है ज्ञात।

मानसिक पीड़ाओं का मर्म॥31॥

 

इसलिए है यह निश्चित बात।

प्रजाजन का यह है न प्रमाद॥

कुछ अधम लोगों ने ही व्यर्थ।

उठाया है यह निन्दावाद॥32॥

 

 

सर्व साधारण में अधिकांश।

हुआ है जन-रव का विस्तार॥

मुख्यत: उन लोगों में जो कि।

नहीं रखते मति पर अधिकार॥33॥

 

अन्य जन अथवा जो हैं विज्ञ।

विवेकी हैं या हैं मतिमान॥

जानते हैं जो मन का मर्म।

जिन्हें है धर्म कर्म का ज्ञान॥34॥

 

सुने ऐसा असत्य अपवाद।

मूँद लेते हैं अपने कान॥

कथन कर नाना-पूत-प्रसंग।

दूर करते हैं जन-अज्ञान॥35॥

 

ज्ञात है मुझे न इसका भेद।

कहाँ से, क्यों फैली यह बात॥

किन्तु मेरा है यह अनुमान।

पतित-मतिका है यह उत्पात॥36॥

 

महानद-सबल-सिंधु के पार।

रहा जो गन्धर्वों का राज॥

वहाँ था होता महा-अधर्म।

प्रायश: सध्दर्मों के व्याज॥37॥

 

 

कहे जाते थे वे गन्धर्व।

किन्तु थे दानव सदृश दुरंत॥

न था उनके अवगुण का ओर।

न था अत्याचारों का अन्त॥38॥

 

न रक्षित था उनसे धन धाम।

न लोगों का आचार विचार॥

न ललनाकुल का सहज सतीत्व।

न मानवता का वर व्यवहार॥39॥

 

एक कर में थी ज्वलित मशाल।

दूसरे कर में थी करवाल॥

एक करता नगरों का दाह।

दूसरा करता भू को लाल॥40॥

 

किये पग-लेहन, हो, कर-बध्द।

कुजन का होता था प्रतिपाल॥

सुजन पर बिना किये अपराध।

बलायें दी जाती थीं डाल॥41॥

 

अधमता का उड़ता था केतु।

सदाशयता पाती थी शूल॥

सदाचारी की खिंचती खाल।

कदाचारी पर चढ़ते फूल॥42॥

 

 

राज्य में पूरित था आतंक।

गला कर्तन था प्रात:-कृत्य॥

काल बन होता था सर्वत्र।

प्रजा पीड़न का ताण्डव नृत्य॥43॥

 

केकयाधिप ने यह अवलोक।

शान्ति के नाना किये प्रयत्न॥

किन्तु वे असफल रहे सदैव।

लुटे उनके भी अनुपम-रत्न॥44॥

 

इसलिए हुए वे बहुत क्रुध्द।

और पकड़ी कठोर तलवार॥

हुआ उसका भीषण परिणाम।

बहुत ही अधिक लोक संहार॥45॥

 

छिन गये राज्य हुए भयभीत।

बचे गंधर्वों का संस्थान॥

बन गया है पांचाल प्रदेश।

और यह अन्तर्वेद महान॥46॥

 

इस समर का संचालन सूत्र।

हाथ में मेरे था अतएव॥

आप से उसका बहु सम्पर्क।

मानता है उनका अहमेव॥47॥

 

 

अत: यह मेरा है सन्देह।

इस अमूलक जन-रव में गुप्त॥

हाथ उन सब का भी है क्योंकि।

कब हुई हिंसा-वृत्ति विलुप्त॥48॥

 

उचित है, है अत्यन्त पुनीत।

लोक आराधन की नृप-नीति॥

किन्तु है सदा उपेक्षा योग्य।

मलिन-मानस की मलिन प्रतीति॥49॥

 

भरा जिसमें है कुत्सित भाव।

द्वेष हिंसामय जो है उक्ति॥

मलिन करने को महती-कीर्ति।

गढ़ी जाती है जो बहु युक्ति॥50॥

 

वह अवांछित है, है दलनीय।

दण्डय है दुर्जन का दुर्वाद॥

सदा है उन्मूलन के योग्य।

अमौलिक सकल लोक अपवाद॥51॥

 

जो भली है, है भव हित पूर्ति।

लोक आराधन सात्तिवक नीति॥

तो बुरी है, है स्वयं विपत्ति।

लोक - अपवाद - प्रसूत - प्रतीति॥52॥

 

 

फैल कर जन-रव रूपी धूम।

करेगा कैसे उसको म्लान॥

गगन में भूतल में है व्याप्त।

कीर्ति जो राका-सिता समान॥53॥

छन्द : चौपदे

बड़े भ्राता की बातें सुन।

विलोका रघुकुल-तिलकानन॥

सुमित्रा सुत फिर यों बोले।

हो गया व्याकुल मेरा मन॥54॥

 

आपकी भी निन्दा होगी।

समझ मैं इसे नहीं पाता॥

खौलता है मेरा लोहू।

क्रोध से मैं हूँ भर जाता॥55॥

 

आह! वह सती पुनीता है।

देवियों सी जिसकी छाया॥

तेज जिसकी पावनता का।

नहीं पावक भी सह पाया॥56॥

 

हो सकेगी उसकी कुत्सा।

मैं इसे सोच नहीं सकता॥

खड़े हो गये रोंगटे हैं।

गात भी मेरा है कँपता॥57॥

 

यह जगत सदा रहा अंधा।

सत्य को कब इसने देखा॥

खींचता ही वह रहता है।

लांछना की कुत्सित रेखा॥58॥

 

आपकी कुत्सा किसी तरह।

सहज ममता है सह पाती॥

पर सुने पूज्या की निन्दा।

आग तन में है लग जाती॥59॥

 

 

सँभल कर वे मुँह को खोलें।

राज्य में है जिनको बसना।

चाहता है यह मेरा जी।

रजक की खिंचवा लूँ रसना॥60॥

 

प्रमादी होंगे ही कितने।

मसल मैं उनको सकता हूँ॥

क्यों न बकनेवाले समझें।

बहक कर क्या मैं बकता हूँ॥61॥

 

अंधा अंधापन से दिव की।

न दिवता कम होगी जौ भर॥

धूल जिसने रवि पर फेंकी।

गिरी वह उसके ही मुँह पर॥62॥

 

जलधि का क्या बिगड़ेगा जो।

गरल कुछ अहि उसमें उगलें॥

न होगी सरिता में हलचल।

यदि बँहक कुछ मेंढक उछलें॥63॥

 

विपिन कैसे होगा विचलित।

हुए कुछ कुजन्तुओं का डर॥

किए कुछ पशुओं के पशुता।

विकंपित होगा क्यों गिरिवर॥64॥

 

 

धरातल क्यों धृति त्यागेगा।

कुछ कुटिल काकों के रव से॥

गगन तल क्यों विपन्न होगा।

केतु के किसी उपद्रव से॥65॥

 

मुझे यदि आज्ञा हो तो मैं।

पचा दूँ कुजनों की बाई॥

छुड़ा दूँ छील छाल करके।

कुरुचि उर की कुत्सित काई॥66॥

 

कहा रिपुसूदन ने सादर।

जटिलता है बढ़ती जाती॥

बात कुछ ऐसी है जिसको।

नहीं रसना है कह पाती॥67॥

 

पर कहूँगा, न कहूँ कैसे।

आपकी आज्ञा है ऐसी॥

बात मथुरा मण्डल की मैं।

सुनाता हूँ वह है जैसी॥68॥

 

कुछ दिनों से लवणासुर की।

असुरता है बढ़ती जाती॥

कूटनीतिक उसकी चालें।

गहन हों पर हैं उत्पाती॥69॥

 

 

लोक अपवाद प्रवर्त्तन में।

अधिक तर है वह रत रहता॥

श्रीमती जनक-नंदिनी को।

काल दनु-कुल का है कहता॥70॥

 

समझता है यह वह, अब भी।

आप सुन कर उनकी, बातें॥

दनुज-दल विदलन-चिन्ता में।

बिताते हैं अपनी रातें॥71॥

 

मान लेना उसका ऐसा।

मलिन-मति की ही है माया॥

सत्य है नहीं, पाप की ही-

पड़ गयी है उस पर छाया॥72॥

 

किन्तु गन्धर्वों के वध से।

हो गयी है दूनी हलचल॥

मिला है यद्यपि उनको भी।

दानवी कृत्यों का ही फल॥73॥

 

लवण अपने उद्योगों में।

सफल हो कभी नहीं सकता॥

गए गंधर्व रसातल को।

रहा वह जिनका मुँह तकता॥74॥

 

बहाता है अब भी ऑंसू।

याद कर रावण की बातें॥

पर उसे मिल न सकेंगी अब।

पाप से भरी हुई रातें॥75॥

 

 

राज्य की नीति यथा संभव।

उसे सुचरित्र बनाएगी॥

अन्यथा दुष्प्रवृत्ति उसकी।

कुकर्मों का फल पाएगी॥76॥

 

कठिनता यह है दुर्जनता।

मृदुलता से बढ़ जाती है॥

शिष्टता से नीचाशयता।

बनी दुर्दान्त दिखाती है॥77॥

 

बिना कुछ दण्ड हुए जड़ की।

कब भला जड़ता जाती है॥

मूढ़ता किसी मूढ़ मन की।

दमन से ही दब पाती है॥78॥

 

सत्य के सम्मुख ठहरेगा।

भला कैसे असत्य जन-रव॥

तिमिर सामना करेगा क्यों।

दिवस का, जो है रवि संभव॥79॥

 

कीर्ति जो दिव्य ज्योति जैसी।

सकल भूतल में है फैली॥

करेगी भला उसे कैसे।

कालिमा कुत्सा की मैली॥80॥

 

बन्धुओं की सब बातें सुन।

सकल प्रस्तुत विषयों को ले॥

समझ, गंभीर गिरा द्वारा।

जानकी-जीवन-धन बोले॥81॥

 

 

राज पद कर्तव्यों का पथ।

गहन है, है अशान्ति आलय॥

क्रान्ति उसमें है दिखलाती।

भरा होता है उसमें भय॥82॥

 

इसी से साम-नीति ही को।

बुधों से प्रथम-स्थान मिला॥

यही है वह उद्यान जहाँ।

लोक आराधन सुमन खिला॥83॥

 

दमन या दण्ड नीति मुझको।

कभी भी रही नहीं प्यारी॥

न यद्यपि छोड़ सका उनको।

रहे जो इनके अधिकारी॥84॥

चतुष्पद

रहेगी भव में कैसे शान्ति।

क्रूरता किया करें जो क्रूर॥

तो हुआ लोकाराधन कहाँ।

लोक-कण्टक जो हुए न दूर॥85॥

 

 

लोक-हित संसृति-शान्ति निमित्त।

हुआ यद्यपि दुरन्त-संग्राम॥

किन्तु दशमुख, गन्धर्व-विनाश।

पातकों का ही था परिणाम॥86॥

 

है क्षमा-योग्य न अत्याचार।

उचित है दण्डनीय का दण्ड॥

निवारण करना है कर्तव्य।

किसी पाषण्डी का पाषण्ड॥87॥

 

आर्त्त लोगों का मार्मिक-कष्ट।

बहु-निरपराधों का संहार॥

बाल-वृध्दों का करुण-विलाप।

विवश-जनता का हाहाकार॥88॥

 

आहवों में जो हैं अनिवार्य।

मुझे करते हैं व्यथित नितान्त॥

भूल पाए मुझको अब भी न।

लंक के सकल-दृश्य दु:खान्त॥89॥

 

अत: है वांछनीय यह नीति।

हो यथा-शक्ति न शोणितपात॥

सामने रहे दृष्टि के साम।

रहे महि-वातावरण प्रशान्त॥90॥

 

 

विप्लवों के प्रशमन की शक्ति।

राज्य को पूर्णतया है प्राप्त॥

धाक उसकी बन शान्ति-निकेत।

सकल-भारत-भू में है व्याप्त॥91॥

 

अत: है इसकी आशंका न।

मचायेगी हलचल उत्पात॥

क्यों प्रजा-असन्तोष हो दूर।

सोचनी है इतनी ही बात॥92॥

 

दमन है मुझे कदापि न इष्ट।

क्योंकि वह है भय-मूलक-नीति॥

चाह है लाभ करूँ, कर त्याग।

प्रजा की सच्ची प्रीति-प्रतीति॥93॥

 

किसी सम्भावित की अपकीर्ति।

है रजनि-रंजन-अंक-कलंक॥

किन्तु है बुध-सम्मत यह उक्ति।

कब भला धुला पंक से पंक॥94॥

 

जनकजा में है दानव-द्रोह।

और मैं उनकी बातें मान॥

कराया करता हूँ यद्यपि।

लोक-संहार कृतान्त समान॥95॥

 

 

यह कथन है सर्वथा असत्य।

और है परम श्रवण-कटु-बात॥

किन्तु उसको करता है पुष्ट।

विपुल गंधर्वों पर पविपात॥96॥

 

पठन कर लोकाराधन-मन्त्र।

करूँगा मैं इसका प्रतिकार॥

साधकर जनहित-साधन सूत्र।

करूँगा घर-घर शान्ति-प्रसार॥97॥

 

बन्धु-गण के विचार विज्ञात-

हो गए, सुनीं उक्तियाँ सर्व॥

प्राप्त कर साम-नीति से सिध्दि।

बनेगा पावन जीवन-पर्व॥98॥

 

करूँगा बड़े से बड़ा त्याग।

आत्म-निग्रह का कर उपयोग॥

हुए आवश्यक जन-मुख देख।

सहूँगा प्रिया असह्य-वियोग॥99॥

 

मुझे यह है पूरा विश्वास।

लोक-हित-साधन में सब काल॥

रहेंगे आप लोग अनुकूल।

धर्म-तत्तवों पर ऑंखें डाल॥100॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इतना कह अनुजों सहित, त्याग मन्त्रणा-धाम।

विश्रामालय में गए, राम-लोक-विश्राम॥101॥

 

चतुर्थ सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वसिष्ठाश्रम

छंद : तिलोकी

अवधपुरी के निकट मनोरम-भूमि में।

एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन॥

बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती।

दिखलाता था विपुल-विकच भव का वदन॥1॥

 

प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर्वदा।

शीतल-मंद-समीर सतत हो सौरभित॥

बहता था बहु-ललित दिशाओं को बना।

पावन-सात्तिवक-सुखद-भाव से हो भरित॥2॥

 

हरी भरी तरु-राजि कान्त-कुसुमालि से।

विलसित रह फल-पुंज-भार से हो नमित॥

शोभित हो मन-नयन-विमोहन दलों से।

दर्शक जन को मुदित बनाती थी अमित॥3॥

 

रंग बिरंगी अनुपम-कोमलतामयी।

कुसुमावलि थी लसी पूत-सौरभ बसी॥

किसी लोक-सुन्दर की सुन्दरता दिखा।

जी की कली खिलाती थी उसकी हँसी॥4॥

 

कर उसका रसपान मधुप थे घूमते।

गूँज गूँज कानों को शुचि गाना सुना॥

आ आ कर तितलियाँ उन्हें थीं चूमती।

अनुरंजन का चाव दिखा कर चौगुना॥5॥

 

 

कमल-कोष में कभी बध्द होते न थे।

अंधे बनते थे न पुष्प-रज से भ्रमर॥

काँटे थे छेदते न उनके गात को।

नहीं तितलियों के पर देते थे कतर॥6॥

 

लता लहलही लाल लाल दल से लसी।

भरती थी दृग में अनुराग-ललामता॥

श्यामल-दल की बेलि बनाती मुग्ध थी।

दिखा किसी घन-रुचि-तन की शुचिश्यामता॥7॥

 

बना प्रफुल्ल फल फूल दान में हो निरत।

मंद मंद दोलित हो, वे थीं विलसती।

प्रात:-कालिक सरस-पवन से हो सुखित।

भू पर मंजुल मुक्तावलि थीं बरसती॥8॥

 

विहग-वृन्द कर गान कान्त-तम-कंठ से।

विरच विरच कर विपुल-विमोहक टोलियाँ॥

रहे बनाते मुग्ध दिखा तन की छटा।

बोल-बोल कर बड़ी अनूठी बोलियाँ॥9॥

 

काक कुटिलता वहाँ न था करता कभी।

काँ काँ रव कर था न कान को फोड़ता॥

पहुँच वहाँ के शान्त-वात-आवरण में।

हिंसक खग भी हिंसकता था छोड़ता॥10॥

 

नाच-नाच कर मोर दिखा नीलम-जटित।

अपने मंजुल-तम पंखों की माधुरी॥

खेल रहे थे गरल-रहित-अहि-वृन्द से।

बजा-बजा कर पूत-वृत्ति की बाँसुरी॥11॥

 

 

मरकत-मणि-निभ अपनी उत्तम-कान्ति से।

हरित-तृणावलि थी हृदयों को मोहती॥

प्रात:-कालिक किरण-मालिका-सूत्र में।

ओस-बिन्दु की मुक्तावलि थी पोहती॥12॥

 

विपुल-पुलकिता नवल-शस्य सी श्यामला।

बहुत दूर तक दूर्वावलि थी शोभिता॥

नील-कलेवर-जलधि ललित-लहरी समा।

मंद-पवन से मंद-मंद थी दोलिता॥13॥

 

कल-कल रव आकलिता-लसिता-पावनी।

गगन-विलसिता सुर-सरिता सी सुन्दरी॥

निर्मल-सलिला लीलामयी लुभावनी।

आश्रम सम्मुख थी सरसा-सरयू सरी॥14॥

 

परम-दिव्य-देवालय उसके कूल के।

कान्ति-निकेतन पूत-केतनों को उड़ा॥

पावनता भरते थे मानस-भाव में।

पातक-रत को पातक पंजे से छुड़ा॥15॥

 

वेद-ध्वनि से मुखरित वातावरण था।

स्वर-लहरी स्वर्गिक-विभूति से थी भरी॥

अति-उदात्त कोमलतामय-आलाप था।

मंजुल-लय थी हृत्तांत्री झंकृत करी॥16॥

 

धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था टल रहा।

रवि-स्वागत को उषासुन्दरी थी खड़ी॥

इसी समय सरयू-सरि-सरस-प्रवाह में।

एक दिव्यतम नौका दिखलाई पड़ी॥17॥

 

जब आकर अनुकूल-कूल पर वह लगी।

तब रघुवंश-विभूषण उस पर से उतर॥

परम-मन्द-गति से चलकर पहुँचे वहाँ।

आश्रम में थे जहाँ राजते ऋषि प्रवर॥18॥

 

 

रघुनन्दन को वन्दन करते देख कर।

मुनिवर ने उठ उनका अभिनन्दन किया॥

आशिष दे कर प्रेम सहित पूछी कुशल।

तदुपरान्त आदर से उचितासन दिया॥19॥

 

सौम्य-मूर्ति का सौम्य-भाव गम्भीर-मुख।

आश्रम का अवलोक शान्त-वातावरण॥

विनय-मूर्ति ने बहुत विनय से यह कहा।

निज-मर्यादित भावों का कर अनुसरण॥20॥

 

आपकी कृपा के बल से सब कुशल है।

सकल-लोक के हित व्रत में मैं हूँ निरत॥

प्रजा सुखित है शान्तिमयी है मेदिनी।

सहज-नीति रहती है सुकृतिरता सतत॥21॥

 

किन्तु राज्य का संचालन है जटिल-तम।

जगतीतल है विविध-प्रपंचों से भरा॥

है विचित्रता से जनता परिचालिता।

सदा रह सका कब सुख का पादप हरा॥22॥

 

इतना कह कर हंस-वंश-अवतंस ने।

दुर्मुख की सब बातें गुरु से कथन कीं॥

पुन: सुनाईं भ्रातृ-वृन्द की उक्तियाँ।

जो हित-पट पर मति-मृदु-कर से थीं अंकी॥23॥

 

तदुपरान्त यह कहा दमन वांछित नहीं।

साम-नीति अवलम्बनीय है अब मुझे॥

त्याग करूँ तब बड़े से बड़ा क्यों न मैं।

अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे॥24॥

 

 

हैं विदेहजा मूल लोक-अपवाद की।

तो कर दूँ मैं उन्हें न क्यों स्थानान्तरित॥

यद्यपि यह है बड़ी मर्म-वेधी-कथा।

तथा व्यथा है महती-निर्ममता-भरित॥25॥

 

किन्तु कसौटी है विपत्ति मनु-सूनु की।

स्वयं कष्ट सह भव-हित-साधन श्रेय है॥

आपत्काल, महत्व-परीक्षा-काल है।

संकट में धृति धर्म प्राणता ध्येय है॥26॥

 

ध्वंस नगर हों, लुटें लोग, उजड़े सदन।

गले कटें, उर छिदें, महा-उत्पात हो॥

वृथा मर्म-यातना विपुल-जनता सहे।

बाल वृध्द वनिता पर वज्र-निपात हो॥27॥

 

इन बातों से तो अब उत्तम है यही।

यदि बनती है बात, स्वयं मैं सब सहूँ॥

हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने।

तो भी जन-हित देख अविचलित-चित रहूँ॥28॥

 

प्रश्न यही है कहाँ उन्हें मैं भेज दूँ।

जहाँ शान्त उनका दुखमय जीवन रहे॥

जहाँ मिले वह बल जिसके अवलंब से।

मर्मान्तिक बहु-वेदन जाते हैं सहे॥29॥

 

 

आप कृपा कर क्या बतलाएँगे मुझे।

वह शुचि-थल जो सब प्रकार उपयुक्त हो॥

जहाँ बसी हो शान्ति लसी हो दिव्यता।

जो हो भूति-निकेतन भीति-विमुक्त हो॥30॥

 

कभी व्यथित हो कभी वारि दृग में भरे।

कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन॥

बातें रघुकुल-रवि की गुरुवर ने सुनीं।

कभी धीर गंभीर नितान्त-अधीर बन॥31॥

 

कभी मलिन-तम मुख-मण्डल था दीखता।

उर में बहते थे अशान्ति सोते कभी॥

कभी संकुचित होता भाल विशाल था।

युगल-नयन विस्फारित होते थे कभी॥32॥

 

कुछ क्षण रह कर मौन कहा गुरुदेव ने।

नृपवर यह संसार स्वार्थ-सर्वस्व है॥

आत्म-परायणता ही भव में है भरी।

प्राणी को प्रिय प्राण समान निजस्व है॥33॥

 

अपने हित साधन की ललकों में पड़े।

अहित लोक लालों के लोगों ने किए॥

प्राणिमात्र के दुख को भव-परिताप को।

तृण गिनता है मानव निज सुख के लिए॥34॥

 

सभी साँसतें सहें बलाओं में फँसें।

करें लोग विकराल काल का सामना॥

तो भी होगी नहीं अल्प भी कुण्ठिता।

मानव की ममतानुगामिनी कामना॥35॥

 

किसे अनिच्छा प्रिय इच्छाओं से हुई।

वांछाओं के बन्धन में हैं बध्द सब॥

अर्थ लोभ से कहाँ अनर्थ हुआ नहीं।

इष्ट सिध्दि के लिए अनिष्ट हुए न कब॥36॥

 

 

ममता की प्रिय-रुचियाँ बाधायें पडे।

बन जाती जनता निमित्त हैं ईतियाँ॥

विबुध-वृन्द की भी गत देती हैं बना।

गौरव-गर्वित-गौरवितों की वृत्तियाँ॥37॥

 

तम-परि-पूरित अमा-यामिनी-अंक में।

नहीं विलसती मिलती है राका-सिता॥

होती है मति, रहित सात्तिवकी-नीति से।

स्वत्व-ममत्व महत्ता-सत्ता मोहिता॥38॥

 

किन्तु हुए हैं महि में ऐसे नृमणि भी।

मिली देवतों जैसी जिनमें दिव्यता॥

जो मानवता तथा महत्ता मूर्ति थे।

भरी जिन्होंने भव-भावों में भव्यता॥39॥

 

वैसे ही हैं आप भूतियाँ आप की।

हैं तम-भरिता-भूमि की अलौकिक-विभा॥

लोक-रंजिनी पूत-कीर्ति-कमनीयता।

है सज्जन सरसिज निमित्त प्रात:-प्रभा॥40॥

 

बात मुझे लोकापवाद की ज्ञात है।

वह केवल कलुषित चित का उद्गार है॥

या प्रलाप है ऐसे पामर-पुंज का।

अपने उर पर जिन्हें नहीं अधिकार है॥41॥

 

होती है सुर-सरिता अपुनीता नहीं।

पाप-परायण के कुत्सित आरोप से॥

होंगी कभी अगौरविता गौरी नहीं।

किन्हीं अन्यथा कुपित जनों के कोप से॥42॥

 

 

रजकण तक को जो करती है दिव्य तम।

वह दिनकर की विश्व-व्यापिनी-दिव्यता॥

हो पाएगी बुरी न अंधों के बके।

कहे उलूकों के न बनेगी निन्दिता॥43॥

 

ज्योतिमयी की परम-समुज्ज्वल ज्योति को।

नहीं कलंकित कर पाएगी कालिमा॥

मलिना होगी किसी मलिनता से नहीं।

ऊषादेवी की लोकोत्तर-लालिमा॥44॥

 

जो सुकीर्ति जन-जन-मानस में है लसी।

जिसके द्वारा धरा हुई है धावलिता॥

सिता-समा जो है दिगंत में व्यापिता।

क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुषिता॥45॥

 

जो हलचल लोकापवाद आधार से।

है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो, रही॥

उसका उन्मूलन प्रधान-कर्तव्य है।

किन्तु आप को दमन-नीति प्रिय है नहीं॥46॥

 

यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती।

कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र तम॥

पर यह लोकाराधन-व्रत-प्रतिकूल है।

अत: इष्ट है शान्ति से शमन लोक भ्रम॥47॥

 

सामनीति का मैं विरोध कैसे करूँ।

राजनीति को वह करती है गौरवित॥

लोकाराधन ही प्रधान नृप-धर्म है।

किन्तु आपका व्रत बिलोक मैं हूँ चकित॥48॥

 

त्याग आपका है उदात्त धृति धन्य है।

लोकोत्तर है आपकी सहनशीलता॥

है अपूर्व आदर्श लोकहित का जनक।

है महान भवदीय नीति-मर्मज्ञता॥49॥

 

 

आप पुरुष हैं नृप व्रत पालन निरत हैं।

पर होवेगी क्या पति प्राणा की दशा॥

आह! क्यों सहेगी वह कोमल हृदय पर।

आपके विरह की लगती निर्मम-कशा॥50॥

 

जो हो पर पथ आपका अतुलनीय है।

लोकाराधन की उदार-तम-नीति है॥

आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है।

प्रजा-पुंज की उसमें भरी प्रतीति है॥51॥

 

आर्य-जाति की यह चिरकालिक है प्रथा।

गर्भवती प्रिय-पत्नी को प्राय: नृपति॥

कुलपति पावन-आश्रम में हैं भेजते।

हो जिससे सब-मंगल, शिशु हो शुध्दमति॥52॥

 

है पुनीत-आश्रम वाल्मीकि-महर्षि का।

पतित-पावनी सुरसरिता के कूल पर॥

वास योग्य मिथिलेश सुता के है वही।

सब प्रकार वह है प्रशान्त है श्रेष्ठतर॥53॥

 

वे कुलपति हैं सदाचार-सर्वस्व हैं।

वहाँ बालिका-विद्यालय भी है विशद॥

जिसमें सुरपुर जैसी हैं बहु-देवियाँ।

जिनका शिक्षण शारदा सदृश है वरद॥54॥

 

वहाँ ज्ञान के सब साधन उपलब्ध हैं।

सब विषयों के बहु विद्यालय हैं बने॥

दश-सहस्र वर-बटु विलसित वे हैं, वहाँ-

शन्ति वितान प्रकृति देवी के हैं तने॥55॥

 

 

अन्यस्थल में जनक-सुता का भेजना।

सम्भव है बन जाए भय की कल्पना॥

आपकी महत्ता को समझेंगे न सब।

शंका है, बढ़ जाए जनता-जल्पना॥56॥

 

गर्भवती हैं जनक-नन्दिनी इसलिए।

उनका कुलपति के आश्रम में भेजना॥

सकल-प्रपंचों पचड़ों से होगा रहित।

कही जाएगी प्रथित-प्रथा परिपालना॥57॥

 

जैसी इच्छा आपकी विदित हुई है।

वाल्मीकाश्रम वैसा पुण्य-स्थान है॥

अत: वहाँ ही विदेहजा को भेजिए।

वह है शान्त, सुरक्षित, सुकृति-निधन है॥58॥

 

किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है।

सब बातें कान्ता को बतला दीजिए॥

स्वयं कहेगी वह पतिप्राणा आप से।

लोकाराधन में विलंब मत कीजिए॥59॥

 

सती-शिरोमणि पति-परायणा पूत-धी।

वह देवी है दिव्य-भूतियों से भरी॥

है उदारतामयी सुचरिता सद्व्रता।

जनक-सुता है परम-पुनीता सुरसरी॥60॥

 

जो हित-साधन होता हो पति-देव का।

पिसे न जनता, जो न तिरस्कृत हों कृती॥

तो संसृति में है वह संकट कौन सा।

जिसे नहीं सह सकती है ललना सती॥61॥

 

 

प्रियतम के अनुराग-राग में रँग गए।

रहती जिसके मंजुल-मुख की लालिमा॥

सिता-समुज्ज्वल उसकी महती कीर्ति में।

वह देखेगी कैसे लगती कालिमा॥62॥

 

अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे।

जिस मुख को विकसित विलोकती थी सदा॥

देखेगी वह क्यों पति-जीवन का असुख।

जो उत्सर्गी-कृत-जीवन थी सर्वदा॥63॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सुन बातें गुरुदेव की, सुखित हुए श्रीराम।

आज्ञा मानी, ली विदा, सविनय किया प्रणाम॥64॥

 

पंचम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सती सीता

छंद : ताटंक

प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा।

परम-दिव्य बन कान्त-अंक में तारक-चय था चमक रहा॥

पहन श्वेत-साटिका सिता की वह लसिता दिखलाती थी।

ले ले सुधा-सुधा-कर-कर से वसुधा पर बरसाती थी॥1॥

 

नील-नभो मण्डल बन-बन कर विविध-अलौकिक-दृश्य निलय।

करता था उत्फुल्ल हृदय को तथा दृगों को कौतुकमय॥

नीली पीली लाल बैंगनी रंग बिरंगी उड़ु अवली।

बनी दिखाती थी मनोज्ञ तम छटा-पुंज की केलि-थली॥2॥

 

कर फुलझड़ी क्रिया उल्कायें दिवि को दिव्य बनाती थीं।

भरती थीं दिगंत में आभा जगती-ज्योति जगाती थीं॥

किसे नहीं मोहती, देखने को कब उसे न रुचि ललकी।

उनकी कनक-कान्ति लीकों से लसी नीलिमा नभ-तल की॥3॥

 

जो ज्योतिर्मय बूटों से बहु सज्जित हो था कान्त बना।

अखिल कलामय कुल लोकों का अति कमनीय वितान तना॥

दिखा अलौकिकतम-विभूतियाँ चकित चित्त को करता था।

लीलामय की लोकोत्तरता लोक-उरों में भरता था॥4॥

 

 

राका-रजनी अनुरंजित हो जन-मन-रंजन में रत थी।

प्रियतम-रस से सतत सिक्त हो पुलकित ललकित तद्गत थी॥

ओस-बिन्दु से विलस अवनि को मुक्ता माल पिन्हाती थी।

विरच किरीटी गिरि को तरु-दल को रजताभ बनाती थी॥5॥

 

राज-भवन की दिव्य-अटा पर खड़ी जनकजा मुग्ध बनी।

देख रही थीं गगन-दिव्यता सिता-विलसिता-सित अवनी॥

मंद-मंद मारुत बहता था रात दो घड़ी बीती थी।

छत पर बैठी चकित-चकोरी सुधा चाव से पीती थी॥6॥

 

थी सब ओर शान्ति दिखलाती नियति-नटी नर्तनरत थी।

फूली फिरती थी प्रफुल्लता उत्सुकताति तरंगित थी॥

इसी समय बढ़ गया वायु का वेग, क्षितिज पर दिखलाया।

एक लघु-जलद-खण्ड पूर्व में जो बढ़ वारिद बन पाया॥7॥

 

पहले छोटे-छोटे घन के खण्ड घूमते दिखलाए।

फिर छायामय कर क्षिति-तल को सारे नभतल में छाए॥

तारापति छिप गया आवरित हुई तारकावलि सारी।

सिता बनी असिता, छिनती दिखलाई उसकी छवि-न्यारी॥8॥

 

दिवि-दिव्यता अदिव्य बनी अब नहीं दिग्वधू हँसती थी।

निशा-सुन्दरी की सुन्दरता अब न दृगों में बसती थी॥

कभी घन-पटल के घेरे में झलक कलाधर जाता था।

कभी चन्द्रिका बदन दिखाती कभी तिमिर घिर आता था॥9॥

 

 

यह परिवर्तन देख अचानक जनक-नन्दिनी अकुलाईं।

चल गयंद-गति से अपने कमनीयतम अयन में आईं॥

उसी समय सामने उन्हें अति-कान्त विधु-बदन दिखलाया।

जिस पर उनको पड़ी मिली चिरकालिक-चिन्ता की छाया॥10॥

 

प्रियतम को आया विलोक आदर कर उनको बैठाला।

इतनी हुईं प्रफुल्ल सुधा का मानो उन्हें मिला प्याला॥

बोलीं क्यों इन दिनों आप इतने चिन्तित दिखलाते हैं।

वैसे खिले सरोज-नयन किसलिए न पाए जाते हैं॥11॥

 

वह त्रिलोक-मोहिनी-विकचता वह प्रवृत्ति-आमोदमयी।

वह विनोद की वृत्ति सदा जो असमंजस पर हुई जयी॥

वह मानस की महा-सरसता जो रस बरसाती रहती।

वह स्निग्धता सुधा-धरा सी जो वसुधा पर थी बहती॥12॥

 

क्यों रह गयी न वैसी अब क्यों कुछ बदली दिखलाती है।

क्या राका की सिता में न पूरी सितता मिल पाती है॥

बड़े-बड़े संकट-समयों में जो मुख मलिन न दिखलाया।

अहह किस लिए आज देखती हूँ मैं उसको कुम्हलाया॥13॥

 

 

पड़े बलाओं में जिस पेशानी पर कभी न बल आया।

उसे सिकुड़ता बार-बार क्यों देख मम दृगों ने पाया॥

क्यों उद्वेजक-भाव आपके आनन पर दिखलाते हैं।

क्यों मुझको अवलोक आपके दृग सकरुण हो जाते हैं॥14॥

 

कुछ विचलित हो अति-अविचल-मति क्यों बलवत्ता खोती है।

क्यों आकुलता महा-धीर-गम्भीर हृदय में होती है॥

कैसे तेज:-पुंज सामने किस बल से वह अड़ती है।

कैसे रघुकुल-रवि आनन पर चिन्ता छाया पड़ती है॥15॥

 

देख जनक-तनया का आनन सुन उनकी बातें सारी।

बोल सके कुछ काल तक नहीं अखिल-लोक के हितकारी॥

फिर बोले गम्भीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ।

है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ॥16॥

 

इतना कह लोकापवाद की सारी बातें बतलाईं।

गुरुतायें अनुभूत उलझनों की भी उनको जतलाईं॥

गन्धर्वों के महा-नाश से प्रजा-वृन्द का कँप जाना।

लवणासुर का गुप्त भाव से प्राय: उनको उकसाना॥17॥

 

लोकाराधन में बाधायें खड़ी कर रहा है कैसी।

यह बतला फिर कहा उन्होंने शान्ति-अवस्था है जैसी॥

तदुपरान्त बन संयत रघुकुल-पुंगव ने यह बात कही।

जो जन-रव है वह निन्दित है, है वह नहीं कदापि सही॥18॥

 

 

यह अपवाद लगाया जाता है मुझको उत्तोजित कर।

द्रोह-विवश दनुजों का नाश कराने में तुम हो तत्पर॥

इसी सूत्र से कतिपय-कुत्साओं की है कल्पना हुई।

अविवेकी जनता के मुख से निन्दनीय जल्पना हुई॥19॥

 

दमन नहीं मुझको वांछित है तुम्हें भी न वह प्यारा है।

सामनीति ही जन अशान्ति-पतिता की सुर-सरि-धरा है॥

लोकाराधन के बल से लोकापवाद को दल दूँगा।

कलुषित-मानस को पावन कर मैं मन वांछित फल लूँगा॥20॥

 

इच्छा है कुछ काल के लिए तुमको स्थानान्तरित करूँ।

इस प्रकार उपजा प्रतीति मैं प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ॥

क्यों दूसरे पिसें, संकट में पड़, बहु दुख भोगते रहें।

क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाएँ हम स्वयं सहें॥21॥

 

जनक-नन्दिनी ने दृग में आते ऑंसू को रोक कहा।

प्राणनाथ सब तो सह लूँगी क्यों जाएगा विरह सहा॥

सदा आपका चन्द्रानन अवलोके ही मैं जीती हूँ।

रूप-माधुरी-सुधा तृषित बन चकोरिका सम पीती हूँ॥22॥

 

बदन विलोके बिना बावले युगल-नयन बन जाएँगे।

तार बाँध बहते ऑंसू का बार-बार घबराएँगे॥

मुँह जोहते बीतते बासर रातें सेवा में कटतीं।

हित-वृत्तियाँ सजग रह पल-पल कभी न थीं पीछे हटतीं॥23॥

 

मिले बिना ऐसा अवसर कैसे मैं समय बिताऊँगी।

अहह! आपको बिना खिलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥

चित्त-विकल हो गये विकलता को क्यों दूर भगाऊँगी।

थाम कलेजा बार-बार कैसे मन को समझाऊँगी॥24॥

 

 

क्षमा कीजिए आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया।

नहीं उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया॥

अपने दुख की जितनी बातें मैंने हो उद्विग्न कहीं।

आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नहीं॥25॥

 

वह तो स्वाभाविक-प्रवाह था जो मुँह से बाहर आया।

आह! कलेजा हिले कलपता कौन नहीं कब दिखलाया॥

किन्तु आप के धर्म का न जो परिपालन कर पाऊँगी।

सहधार्मिणी नाथ की तो मैं कैसे भला कहाऊँगी॥26॥

 

वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।

त्याग, करूँगी, इष्ट सिध्दि के लिए बना मन को योगी॥

सुख-वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुँह मोडूँगी।

लोकाराधन या प्रभु-आराधन निमित्त सब छोड़ूँगी॥27॥

 

भवहित-पथ में क्लेशित होता जो प्रभु-पद को पाऊँगी।

तो सारे कण्टकित-मार्ग में अपना हृदय बिछाऊँगी॥

अनुरागिनी लोक-हित की बन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।

कर अपवर्ग-मन्त्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को समझूँगी॥28॥

 

यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी।

जीवनधन पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी॥

है लोकोत्तर त्याग आपका लोकाराधन है न्यारा।

कैसे सम्भव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा॥29॥

 

विरह-वेदनाओं से जलती दीपक सम दिखलाऊँगी।

पर आलोक-दान कर कितने उर का तिमिर भगाऊँगी॥

बिना बदन अवलोके ऑंखें ऑंसू सदा बहाएँगी।

पर मेरे उत्प्त चित्त को सरस सदैव बनाएँगी॥30॥

 

आकुलताएँ बार-बार आ मुझको बहुत सताएँगी।

किन्तु धर्म-पथ में धृति-धारण का सन्देश सुनाएँगी॥

अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनाएँगी।

किन्तु वंद्यता विबुध-वृन्द-वन्दित की बतला जाएँगी॥31॥

 

 

लगी लालसाएँ लालायित हो हो कर कलपाएँगी।

किन्तु कल्पनातीत लोक-हित अवलोके बलि जाएँगी॥

आप जिसे हित समझें उस हित से ही मेरा नाता है।

हैं जीवन-सर्वस्व आप ही मेरे आप विधाता हैं॥32॥

 

कहा राम ने प्रिये, अब 'प्रिये' कहते कुण्ठित होता हूँ।

अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बोता हूँ॥

मैं दुख भोगूँ व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं।

पडूं संकटों में कितने निकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥

 

किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ।

कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दुख देता हूँ॥

तो विचित्रता भला कौन है जो प्राय: घबराता हूँ।

अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वासिनी बनाता हूँ॥34॥

 

धर्म-परायणता पर-दुख कातरता विदित तुमारी है।

भवहित-साधन-सलिल-मीनता तुमको अतिशय प्यारी है॥

तुम हो मूर्तिमती दयालुता दीन पर द्रवित होती हो।

संसृति के कमनीय क्षेत्रा में कर्म-बीज तुम बोती हो॥35॥

 

इसीलिए यह निश्चित था अवलोक परिस्थिति हित होगा।

स्थानान्तरित विचार तुमारे द्वारा अनुमोदित होगा॥

वही हुआ, पर विरह-वेदना भय से मैं बहु चिन्तित था।

देख तुमारी प्रेम प्रवणता अति अधीर था शंकित था॥36॥

 

किन्तु बात सुन प्रतिक्रिया की सहृदयता से भरी हुई।

उस प्रवृत्ति को शान्ति मिल गयी जो थी अयथा डरी हुई॥

तुम विशाल-हृदया हों मानवता है तुम से छबि पाती।

इसीलिए तुममें लोकोत्तर त्याग-वृत्ति है दिखलाती॥37॥

 

है प्राचीन पुनीत प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।

सब प्रकार की श्रेय दृष्टि से बालक हित की वांछा से॥

गर्भवती-महिला कुलपति-आश्रम में भेजी जाती है।

यथा-काल संस्कारादिक होने पर वापस आती है॥38॥

 

इसी सूत्र से वाल्मीकाश्रम में तुमको मैं भेजूँगा।

किसी को न कुत्सित विचार करने का अवसर मैं दूँगा॥

सब विचार से वह उत्तम है, है अतीव उपयुक्त वही।

यही वसिष्ठ देव अनुमति है शान्तिमयी है नीति यही॥39॥

 

 

तपो-भूमि का शान्त-आवरण परम-शान्ति तुमको देगा।

विरह-जनित-वेदना आदि की अतिशयता को हर लेगा॥

तपस्विनी नारियाँ ऋषिगणों की पत्नियाँ समादर दे।

तुमको सुखित बनाएँगी परिताप शमन का अवसर दे॥40॥

 

परम-निरापद जीवन होगा रह महर्षि की छाया में।

धरा सतत रहेगी बहती सत्प्रवृत्ति की काया में॥

विद्यालय की सुधी देवियाँ होंगी सहानुभूतिमयी।

जिससे होती सदा रहेगी विचलित-चित पर शान्ति जयी॥41॥

 

जिस दिन तुमको किसी लाल का चन्द्र-बदन दिखलाएगा।

जिस दिन अंक तुमारा रवि-कुल-रंजन से भर जाएगा॥

जिस दिन भाग्य खुलेगा मेरा पुत्र रत्न तुम पाओगी।

उस दिन उर विरहांधाकार में कुछ प्रकाश पा जाओगी॥42॥

 

प्रजा-पुंज की भ्रान्ति दूर हो, हो अशान्ति का उन्मूलन।

बुरी धारणा का विनाश हो, हो न अन्यथा उत्पीड़न॥

स्थानान्तरित-विधान इसी उद्देश्य से किया जाता है।

अत: आगमन मेरा आश्रम में संगत न दिखाता है॥43॥

 

प्रिये इसलिए जब तक पूरी शान्ति नहीं हो जावेगी।

लोकाराधन-नीति न जब तक पूर्ण-सफलता पावेगी॥

रहोगी वहाँ तुम जब तक मैं तब तक वहाँ न आऊँगा।

यह असह्य है, सहन-शक्ति पर मैं तुम से ही पाऊँगा॥44॥

 

 

आज की रुचिर राका-रजनी परम-दिव्य दिखलाती थी।

विहँस रहा था विधु पा उसको सिता मंद मुसकाती थी॥

किन्तु बात-की-बात में गगन-तल में वारिद घिर आया।

जो था सुन्दर समा सामने उस पर पड़ी मलिन-छाया॥45॥

 

पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन-माला।

बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला॥

यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म-संकट होगा।

मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर-वट होगा॥46॥

चौपदे

जिससे अपकीर्ति न होवे।

लोकापवाद से छूटें॥

जिससे सद्भाव-विरोधी।

कितने ही बन्धन टूटें॥47॥

 

जिससे अशान्ति की ज्वाला।

प्रज्वलित न होने पावे॥

जिससे सुनीति-घन-माला।

घिर शान्ति-वारि बरसावे॥48॥

 

जिससे कि आपकी गरिमा।

बहु गरीयसी कहलावे॥

जिससे गौरविता भू हो।

भव में भवहित भर जावे॥49॥

 

जानकी ने कहा प्रभु मैं।

उस पथ की पथिका हूँगी॥

उभरे काँटों में से ही।

अति-सुन्दर-सुमन चुनूँगी॥50॥

 

पद-पंकज-पोत सहारे।

संसार-समुद्र तरूँगी॥

वह क्यों न हो गरलवाला।

मैं सरस सुधा ही लूँगी॥51॥

 

शुभ-चिन्तकता के बल से।

क्यों चिन्ता चिता बनेगी॥

उर-निधि-आकुलता सीपी।

हित-मोती सदा जनेगी॥52॥

 

 

प्रभु-चित्त-विमलता सोचे।

धुल जाएगा मल सारा॥

सुरसरिता बन जाएगी।

ऑंसू की बहती धरा॥53॥

 

कर याद दयानिधिता की।

भूलूँगी बातें दुख की॥

उर-तिमिर दूर कर देगी।

रति चन्द-विनिन्दक मुख की॥54॥

 

मैं नहीं बनूँगी व्यथिता।

कर सुधि करुणामयता की॥

मम हृदय न होगा विचलित।

अवगति से सहृदयता की॥55॥

 

होगी न वृत्ति वह जिससे।

खोऊँ प्रतीति जनता की॥

धृति-हीन न हूँगी समझे।

गति धर्म-धुरंधरता की॥56॥

 

कर भव-हित सच्चे जी से।

मुझमें निर्भयता होगी॥

जीवन-धन के जीवन में।

मेरी तन्मयता होगी॥57॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पति का सारा कथन सुन, कह बातें कथनीय।

रामचन्द्र-मुख-चन्द्र की, बनीं चकोरी सीय॥58॥

 

षष्ठ सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कातरोक्ति

छन्द : पादाकुलक

प्रवहमान प्रात:-समीर था।

उसकी गति में थी मंथरता॥

रजनी-मणिमाला थी टूटी।

पर प्राची थी प्रभा-विरहिता॥1॥

 

छोटे-छोटे घन के टुकड़े।

घूम रहे थे नभ-मण्डल में॥

मलिना-छाया पतित हुई थी।

प्राय: जल के अन्तस्तल में॥2॥

 

कुछ कालोपरान्त कुछ लाली।

काले घन-खण्डों ने पाई॥

खड़ी ओट में उनकी ऊषा।

अलस भाव से भरी दिखाई॥3॥

 

अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

पर था कुछ परदा सा डाला॥

छिक-छिक करके भी क्षिति-तल पर।

फैल रहा था अब उँजियाला॥4॥

 

 

दिन-मणि निकले तेजोहत से।

रुक-रुक करके किरणें फूटीं॥

छूट किसी अवरोधक-कर से।

छिटिक-छिटिक धरती पर टूटीं॥5॥

 

राज-भवन हो गया कलरवित।

बजने लगा वाद्य तोरण पर॥

दिव्य-मन्दिरों को कर मुखरित।

दूर सुन पड़ा वेद-ध्वनि स्वर॥6॥

 

इसी समय मंथर गति से चल।

पहुँची जनकात्मजा वहाँ पर॥

कौशल्या देवी बैठी थीं।

बनी विकलता-मूर्ति जहाँ पर॥7॥

 

पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी।

उनके पास बैठ कर बोलीं॥

धीरज धार कर विनत-भाव से।

प्रिय-उक्तियाँ थैलियाँ खोलीं॥8॥

 

कर मंगल-कामना प्रसव की।

जनन-क्रिया की सद्वांछा से॥

सकल-लोक उपकार-परायण।

पुत्र-प्राप्ति की आकांक्षा से॥9॥

 

हैं पतिदेव भेजते मुझको।

वाल्मीक के पुण्याश्रम में॥

दीपक वहाँ बलेगा ऐसा।

जो आलोक करेगा तम में॥10॥

 

 

आज्ञा लेने मैं आयी हूँ।

और यह निवेदन है मेरा॥

यह दें आशीर्वाद सदा ही।

रहे सामने दिव्य सबेरा॥11॥

 

दुख है अब मैं कर न सकूँगी।

कुछ दिन पद-पंकज की सेवा॥

आह प्रति-दिवस मिल न सकेगा।

अब दर्शन मंजुल-तम-मेवा॥12॥

 

माता की ममता है मानी।

किस मुँह से क्या सकती हूँ कह॥

पर मेरा मन नहीं मानता।

मेरी विनय इसलिए है यह॥13॥

 

मैं प्रति-दिन अपने हाथों से।

सारे व्यंजन रही बनाती॥

पास बैठ कर पंखा झल-झल।

प्यार सहित थी उन्हें खिलाती॥14॥

 

 

प्रिय-तम सुख-साधन-आराधन।

में थी सारा-दिवस बिताती॥

उनके पुलके रही पुलकती।

उनके कुम्हलाये कुम्हलाती॥15॥

 

हैं गुणवती दासियाँ कितनी।

हैं पाचक पाचिका नहीं कम॥

पर है किसी में नहीं मिलती।

जितना वांछनीय है संयम॥16॥

 

जरा-जर्जरित स्वयं आप हैं।

है क्षन्तव्य धृष्टता मेरी॥

इतना कह कर जननि आपकी।

केवल दृष्टि इधर है फेरी॥17॥

 

कहा श्रीमती कौशल्या ने।

मुझे ज्ञात हैं सारी बातें॥

मंगलमय हो पंथ तुम्हारा।

बनें दिव्य-दिन रंजित-रातें॥18॥

 

पुण्य-कार्य है गुरु-निदेश है।

है यह प्रथा प्रशंसनीय-तम॥

कभी न अविहित-कर्म करेगा।

रघुकुल-पुंगव प्रथित-नृपोत्तम॥19॥

 

आश्रम-वास-काल होता है।

कुलपति द्वारा ही अवधरित॥

बरसों का यह काल हुए, क्यों?

मेरे दिन होंगे अतिवाहित॥20॥

 

 

मंगल-मूलक महत्कार्य है।

है विभूतिमय यह शुभ-यात्रा॥

पूरित इसके अवयव में है।

प्रफुल्लता की पूरी मात्र॥21॥

 

किन्तु नहीं रोके रुकता है।

ऑंसू ऑंखों में है आता॥

समझाती हूँ पर मेरा मन।

मेरी बात नहीं सुन पाता॥22॥

 

तुम्हीं राज-भवनों की श्री हो।

तुमसे वे हैं शोभा पाते॥

तुम्हें लाभ करके विकसित हो।

वे हैं हँसते से दिखलाते॥23॥

 

मंगल-मय हो, पर न किसी को।

यात्रा-समाचार भाता है॥

ऐसी कौन ऑंख हैं जिसमें।

तुरंत नहीं ऑंसू आता है॥24॥

 

गृह में आज यही चर्चा है।

जावेंगी तो कब आवेंगी॥

कौन सुदिन वह होगा जिस दिन।

कृपा-वारि आ बरसावेंगी॥25॥

 

हो अनाथ-जन की अवलम्बन।

हृदय बड़ा कोमल पाया है॥

भरी सरलता है रग रग में।

पूत-सुरसरी सी काया है॥26॥

 

 

जब देखा तब हँसते देखा।

क्रोध नहीं तुमको आता है॥

कटु बातें कब मुख से निकलीं।

वचन सुधा-रस बरसाता है॥27॥

 

जैसी तुम में पुत्री वैसी।

किस जी में ममता जगती है॥

और को कलपता अवलोके।

कौन यों कलपने लगती है॥28॥

 

बिना बुलाए मेरा दुख सुन।

कौन दौड़ती आ जाती थी॥

पास बैठकर कितनी रातें।

जगकर कौन बिता जाती थी॥29॥

 

मेरा क्या दासी का दुख भी।

तुम देखने नहीं पाती थीं।

भगिनी के समान ही उसकी।

सेवा में भी लग जाती थीं॥30॥

 

विदा माँगते समय की कही।

विनयमयी तब बातें कहकर॥

रोईं बार-बार कैकेयी।

बनीं सुमित्रा ऑंखें निर्झर॥31॥

 

उनकी आकुलता अवलोके।

कल्ह रात भर नींद न आई॥

रह-रह घबराती हूँ, जी में।

आज भी उदासी है छाई॥32॥

 

 

तुम जितनी हो, कैकेयी को।

है न माण्डवी उतनी प्यारी॥

बंधुओं बलित सुमित्रा में भी।

देखी ममता अधिक तुमारी॥33॥

 

फिर जिसकी ऑंखों की पुतली।

लकुटी जिस वृध्दा के कर की॥

छिनेगी न कैसे वह कलपे।

छाया रही न जिसके सिर की॥34॥

 

जिसकी हृदय-वल्लभा तुम हो।

जो तुमको पलकों पर रखता॥

प्रीति-कसौटी पर कस जो है।

पावन-प्रेम-सुवर्ण परखता॥35॥

 

जिसका पत्नी-व्रत प्रसिध्द है।

जो है पावन-चरित कहाता॥

देख तुमारा अरविन्दानन।

जो है विकच-वदन दिखलाता॥36॥

 

जिसकी सुख-सर्वस्व तुम्हीं हो।

जिसकी हो आनन्द-विधाता॥

जिसकी तुम हो शक्ति-स्वरूपा।

जो तुम से पौरुष है पाता॥37॥

 

जिसकी सिध्दि-दायिनी तुम हो।

तुम सच्ची गृहिणी हो जिसकी॥

सब तन-मन-धन अर्पण कर भी।

अब तक बनी ऋणी हो जिसकी॥38॥

 

अरुचिर कुटिल-नीति से ऊबे।

जिसको तुम पुलकित करती हो॥

जिसके विचलित-चिन्तित-चित में।

चारु-चित्तता तुम भरती हो॥39॥

 

 

कैसे काल कटेगा उसका।

उसको क्यों न वेदना होगी॥

होते हृदय मनुज-तन-धर वह।

बन पाएगा क्यों न वियोगी॥40॥

 

रघुनन्दन है धीर-धुरंधर।

धर्म प्राण है भव-हित-रत है॥

लोकाराधन में है तत्पर।

सत्य-संध है सत्य-व्रत है॥41॥

 

नीति-निपुण है न्याय-निरत है।

परम-उदार महान-हृदय है॥

पर उसको भी गूढ़ समस्या।

विचलित करती यथा समय है॥42॥

 

ऐसे अवसर पर सहायता।

सच्ची वह तुमसे पाता था॥

मंद-मंद बहते मारुत से।

घिरा घन-पटल टल जाता था॥43॥

 

है विपत्ति-निधि-पोत-स्वरूपा।

सहकारिणी सिध्दियों की है॥

है पत्नी केवल न गेहिनी।

सहधार्मिणी मन्त्रिणी भी है॥44॥

 

खान पान सेवा की बातें।

कह तुमने है मुझे रुलाया॥

अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे।

आह कलेजा मुँह को आया॥45॥

 

जिस दिन सुत ने आ प्रफुल्ल हो।

आश्रम-वास-प्रसंग सुनाया॥

उस दिन उस प्रफुल्लता में भी।

मुझको मिली व्यथा की छाया॥46॥

 

 

मिले चतुर्दश-वत्सर का वन।

राज्य श्री की हुए विमुखता॥

कान्ति-विहीन न जो हो पाया।

दूर हुई जिसकी न विकचता॥47॥

 

क्यों वह मुख जैसा कि चाहिए।

वैसा नहीं प्रफुल्ल दिखाता॥

तेज-वन्त-रवि के सम्मुख क्यों।

है रज-पुंज कभी आ जाता॥48॥

 

आत्मत्याग का बल है सुत को।

उसकी सहन-शक्ति है न्यारी॥

वह परार्थ-अर्पित-जीवन है।

है रघुकुल-मुख-उज्ज्वलकारी॥49॥

 

है मम-कातरोक्ति स्वाभाविक।

व्यथित हृदय का आश्वासन है॥

शिरोधार्य गुरु-देवाज्ञा है।

मांगलिक सुअन-अनुशासन है॥50॥

रोला

जाओ पुत्री परम-पूज्य पति-पथ पहचानो।

जाओ अनुपम-कीर्ति वितान जगत में तानो॥

जाओ रह पुण्याश्रम में वांछित फल पाओ।

पुत्र-रत्न कर प्रसव वंश को वंद्य बनाओ॥51॥

 

जाओ मुनि-पुंगव-प्रभाव की प्रभा बढ़ाओ।

जाओ परम-पुनीत-प्रथा की ध्वजा उड़ाओ॥

जाओ आकर यथा-शीघ्र उर-तिमिर भगाओ।

निज-विधु-वदन समेत लाल-विधु-वदन दिखाओ॥52॥

 

 

इतना कह कर मौन हुई कौशल्या माता।

किन्तु युगल-नयनों से उनके था जल जाता॥

विविध-सान्त्वना-वचन कहे प्रकृतिस्थ हुईं जब।

पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी विदा हुईं तब॥53॥

सखी

जब घर आई तब देखा।

बहनें आकर हैं बैठी॥

हैं खिन्न मना दुख-मग्ना।

उद्वेगांबुधि में पैठी॥54॥

 

देखते माण्डवी बोली।

क्या सुनती हूँ मैं जीजी॥

वह निठुर बनेगी कैसे।

जो रही सदैव पसीजी॥55॥

 

तुम कहाँ चली जाती हो।

क्यों किसी को न बतलाया॥

इतनी कठोरता करके।

क्यों सब को बहुत रुलाया॥56॥

 

हम सब भी साथ चलेंगी।

सेवाएँ सभी करेंगी॥

पर घर पर बैठी रह कर।

नित आहें नहीं भरेंगी॥57॥

 

वाल्मीकाश्रम में जाकर।

कब तक तुम वहाँ रहोगी॥

यह ज्ञात नहीं तुमको भी।

कुछ कैसे भला कहोगी॥58॥

 

दस पाँच बरस तक तुमको।

जो रहना पड़ जाएगा॥

'विच्छेद' बलाएँ कितनी।

हम लोगों पर लाएगा॥59॥

 

कर अनुगामिता तुमारी।

सुखमय है सदन हमारा॥

कलुषित-उर में भी बहती।

रहती है सुर-सरि-धरा॥60॥

 

 

जो उलझन सम्मुख आई।

उसको तुमने सुलझाया॥

जो ग्रंथि न खुलती, उसको।

तुमने ही खोल दिखाया॥61॥

 

अवलोक तुमारा आनन।

है शान्ति चित्त में होती॥

हृदयों में बीज सुरुचि का।

है सूक्ति तुमारी बोती॥62॥

 

स्वाभाविक स्नेह तुमारा।

भव-जीव-मात्र है पाता॥

कर भला तुमारा मानस।

है विकच-कुसुम बन जाता॥63॥

 

प्रति दिवस तुमारा दर्शन।

देवता-सदृश थीं करती॥

अवलोक-दिव्य-मुख-आभा।

निज हृदय-तिमिर थीं हरती॥64॥

 

अब रहेगा न यह अवसर।

सुविधा दूरीकृत होगी॥

विनता बहनों की विनती।

आशा है स्वीकृत होगी॥65॥

 

 

माण्डवी का कथन सुन कर।

मुख पर विलोक दुख-छाया॥

बोलीं विदेहजा धीरे।

नयनों में जल था आया॥66॥

 

जर्जरित-गात अति-वृध्दा।

हैं तीन-तीन माताएँ॥

हैं जिन्हें घेरती रहती।

आ-आ कर दुश्चिन्ताएँ॥67॥

 

है सुख-मय रात न होती।

दिन में है चैन न आता॥

दुर्बलता-जनित- उपद्रव।

प्राय: है जिन्हें सताता॥68॥

 

मेरी यात्रा से अतिशय।

आकुल वे हैं दिखलाती॥

हैं कभी कराहा करती।

हैं ऑंसू कभी बहाती॥69॥

 

 

बहनों उनकी सेवा तज।

क्या उचित है कहीं जाना॥

तुम लोग स्वयं यह समझो।

है धर्म उन्हें कलपाना?॥70॥

 

है मुख्य-धर्म पत्नी का।

पति-पद-पंकज की अर्चा॥

जो स्वयं पति-रता होवे।

क्या उससे इसकी चर्चा॥71॥

 

पर एक बात कहती हूँ।

उसके मर्मों को छू लो॥

निज-प्रीति-प्रपंचों में पड़।

पति-पद सेवा मत भूलो॥72॥

 

अन्य स्त्री 'जा', न सकी यह।

है पूत-प्रथा बतलाती॥

नृप-गर्भवती-पत्नी ही।

ऋषि-आश्रम में है जाती॥73॥

 

अतएव सुनो प्रिय बहनो।

क्यों मेरे साथ चलोगी॥

कर अपने कर्तव्यों को।

कल-कीर्ति लोक में लोगी॥74॥

 

है मृदु तुम लोगों का उर।

है उसमें प्यार छलकता॥

मुझसे लालित पालित हो।

है मेरी ओर ललकता॥75॥

 

जैसा ही मेरा हित है।

तुम लोगों को अति-प्यारा॥

वैसी ही मेरे उर में।

बहती है हित की धरा॥76॥

 

 

तुम लोगों का पावन-तम।

अनुराग-राग अवलोके॥

है हृदय हमारा गलता।

ऑंसू रुक पाया रोके॥77॥

 

क्यों तुम लोगों को बहनो।

मैं रो-रो अधिक रुलाऊँ॥

क्यों आहें भर-भर करके।

पत्थर को भी पिघलाऊँ॥78॥

 

इस जल-प्रवाह को हमको

तुम लोगों को संयत रह॥

सद्बुध्दि बाँध के द्वारा।

रोकना पड़ेगा सब सह॥79॥

 

दस पाँच बरस आश्रम में।

मैं रहूँ या रहूँ कुछ दिन॥

तुम लोग क्या करोगी इन।

आश्रम के दिवसों को गिन॥80॥

 

जैसी कि परिस्थिति होगी।

वह टलेगी नहीं टाले॥

भोगना पड़ेगा उसको।

क्या होगा कंधा डाले॥81॥

 

 

मांडवी कहो क्या तुमने।

यौवन-सुख को कर स्वाहा॥

पति-ब्रह्मचर्य को चौदह।

सालों तक नहीं निबाहा॥82॥

 

इस खिन्न उर्मिला ने है।

जो सहन-शक्ति दिखलाई॥

जिसकी सुधा आते, मेरा।

दिल हिला ऑंख भर आई॥83॥

 

क्या वह हम लोगों को है।

धृति-महिमा नहीं बताती॥

क्या सत्प्रवृत्ति की शिक्षा।

है सभी को न दे जाती॥84॥

 

ऑंसू आयेंगे आवें।

पर सींच सुकृत-तरु-जावें॥

तो उनमें पर-हित द्युति हो।

जो बूँद बने दिखलावें॥85॥

 

श्रुतिकीर्ति मांडवी जैसी।

महनीय-कीर्ति तू भी हो॥

मत बिचल समझ मधु-मारुत।

चल रही अगर लू भी हो॥86॥

 

उर्मिला सदृश तुझ में भी।

वसुधवलम्बिनी-धृति हो॥

जिससे भव-हित हो ऐसी।

तीनों बहनों की कृति हो॥87॥

 

 

मत रोना भूल न जाना।

कुल-मंगल सदा मनाना॥

कर पूत-साधना अनुदिन।

वसुधा पर सुधा बहाना॥88॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इसी समय आये वहाँ, धीर-वीर-रघुबीर।

बहनें विदा हुईं बरसा नयनों से बहु-नीर॥89॥

 

सप्तम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मंगल यात्रा

छन्द : मत्तसमक

अवध पुरी आज सज्जिता है।

बनी हुई दिव्य-सुन्दरी है॥

विहँस रही है विकास पाकर।

अटा अटा में छटा भरी है॥1॥

 

दमक रहा है नगर, नागरिक।

प्रवाह में मोद के बहे हैं॥

गली-गली है गयी सँवारी।

चमक रहे चारु चौरहे हैं॥2॥

 

बना राज-पथ परम-रुचिर है।

विमुग्ध है स्वच्छता बनाती॥

विभूति उसकी विचित्रता से।

विचित्र है रंगतें दिखाती॥3॥

 

सजल-कलस कान्त-पल्लवों से।

बने हुए द्वार थे फबीले॥

सु-छबि मिले छबि निकेतनों की।

हुए सभी-सद्य छबीले॥4॥

 

 

खिले हुए फूल से लसे थल।

ललामता को लुभा रहे थे॥

सुतोरणों के हरे-भरे-दल।

हरा भरा चित बना रहे थे॥5॥

 

गड़े हुए स्तंभ कदलियों के।

दलावली छबि दिखा रहे थे॥

सुदृश्य-सौन्दर्य-पट्टिका पर।

सुकीर्ति अपनी लिखा रहे थे॥6॥

 

प्रदीप जो थे लसे कलस पर।

मिली उन्हें भूरि दिव्यता थी॥

पसार कर रवि उन्हें परसता।

उन्हें चूमती दिवा-विभा थी॥7॥

 

नगर गृहों मन्दिरों मठों पर।

लगी हुई सज्जिता ध्वजाएँ॥

समीर से केलि कर रही थीं।

उठा-उठा भूयसी भुजायें॥8॥

 

सजे हुए राज-मन्दिरों पर।

लगी पताका विलस रही थी॥

जटित रत्नचय विकास के मिस।

चुरा-चुरा चित्त हँस रही थी॥9॥

 

न तोरणों पर न मंच पर ही।

अनेक-वादित्र बज रहे थे॥

जहाँ तहाँ उच्च-भूमि पर भी।

नवल-नगारे गरज रहे थे॥10॥

 

न गेह में ही कुलांगनायें।

अपूर्व कल-कंठता दिखातीं॥

कहीं-कहीं अन्य-गायिका भी।

बड़ा-मधुर गान थी सुनाती॥11॥

 

 

अनेक-मैदान मंजु बन कर।

अपूर्व थे मंजुता दिखाते॥

सजावटों से अतीव सज कर।

किसे नहीं मुग्ध थे बनाते॥12॥

 

तने रहे जो वितान उनमें।

विचित्र उनकी विभूतियाँ थीं॥

सदैव उनमें सुगायकों की।

विराजती मंजु-मूर्तियाँ थीं॥13॥

 

बनी ठनी थीं समस्त-नावें।

विनोद-मग्ना सरयू-सरी थी॥

प्रवाह में वीचि मध्य मोहक।

उमंग की मत्तता भरी थी॥14॥

 

हरे-भरे तरु-समूह से हो।

समस्त उद्यान थे विलसते॥

लसी लता से ललामता ले।

विकच-कुसुम-व्याज थे विहँसते॥15॥

 

मनोज्ञ मोहक पवित्रतामय।

बने विबुध के विधान से थे॥

समस्त-देवायतन अधिकतर।

स्वरित बने सामगान से थे॥16॥

 

प्रमोद से मत्त आज सब थे।

न पा सका कौन-कंठ पिकता॥

सकल नगर मध्य व्यापिता थी।

मनोमयी मंजु मांगलिकता॥17॥

 

 

 

दिनेश अनुराग-राग में रँग।

नभांक में जगमगा रहे थे॥

उमंग में भर बिहंग तरु पर।

बड़े-मधुर गीत गा रहे थे॥18॥

 

इसी समय दिव्य-राज-मन्दिर।

ध्वनित हुआ वेद-मन्त्र द्वारा॥

हुईं सकल-मांगलिक क्रियायें।

बही रगों में पुनीत-धरा॥19॥

 

क्रियान्त में चल गयंद-गति से।

विदेहजा द्वार पर पधारीं॥

बजी बधाई मधुर स्वरों से।

सुकीर्ति ने आरती उतारी॥20॥

 

खड़ा हुआ सामने सुरथ था।

सजा हुआ देवयान जैसा॥

उसे सती ने विलोक सोचा।

प्रयाण में अब विलम्ब कैसा॥21॥

 

वसिष्ठ देवादि को विनय से।

प्रणाम कर कान्त पास आई॥

इसी समय नन्दिनी जनक की।

अतीव-विह्वल हुई दिखाई॥22॥

 

परन्तु तत्काल ही सँभल कर।

निदेश माँगा विनम्र बन के॥

परन्तु करते पदाब्ज-वन्दन।

विविध बने भाव वर-वदन के॥23॥

 

कमल-नयन राम ने कमल से-

मृदुल करों से पकड़ प्रिया-कर॥

दिखा हृदय-प्रेम की प्रवणता।

उन्हें बिठाला मनोज्ञ रथ पर॥24॥

 

 

उचित जगह पर विदेहजा को।

विराजती जब बिलोक पाया॥

सवार सौमित्र भी हुए तब।

सुमित्र ने यान को चलाया॥25॥

 

बजे मधुर-वाद्य तोरणों पर।

सुगान होता हुआ सुनाया॥

हुए विविध मंगलाचरण भी।

सजल-कलस सामने दिखाया॥26॥

 

निकल सकल राज-तोरणों से।

पहुँच गया यान जब वहाँ पर॥

जहाँ खड़ी थी अपार-जनता।

सजी सड़क पर प्रफुल्ल होकर॥27॥

 

बड़ी हुई तब प्रसून-वर्षा।

पतिव्रता जय गयी बुलाई॥

सविधि गयी आरती उतारी।

बड़ी धूम से बजी बधाई॥28॥

 

खड़ी द्वार पर कुलांगनाएँ।

रहीं मांगलिक-गान सुनाती॥

विनम्र हो हो पसार अंचल।

रहीं राजकुल कुशल मनाती॥29॥

 

शनै: शनै: मंजुराज-पथ पर।

चला जा रहा था मनोज्ञ रथ॥

अजस्र जयनाद हो रहा था।

बरस रहा फूल था यथातथ॥30॥

 

निमग्न आनन्द में नगर था।

बनीं सुमनमय अनेक-सड़कें॥

थके न कर आरती उतारे।

दिखे दिव्यता थकीं न ललकें॥31॥

 

नगर हुआ जब समाप्त सिय ने।

तुरन्त सौमित्र को विलोका॥

सुमित्र ने भाव को समझकर।

सम्भाल ली रास यान रोका॥32॥

 

 

उतर सुमित्र-कुमार रथ से।

अपार-जनता समीप आये॥

कहा कृपा है महान जो यों।

कृपाधिकारी गये बनाए॥33॥

 

अनुष्ठिता मांगलिक सुयात्रा।

भला न क्यों सिध्दि को बरेगी॥

समस्त-जनता प्रफुल्ल हो जो।

अपूर्व-शुभ-कामना करेगी॥34॥

 

कृपा दिखा आप लोग आये।

कुशल मनाया, हितैषिता की॥

विविध मांगलिक-विधान द्वारा।

समर्चना की दिवांगना की॥35॥

 

हुईं कृतज्ञा-अतीव आर्य्या।

विशेष हैं धन्यवाद देती॥

विनय यही है बढ़ें न आगे।

विराम क्यों है ललक न लेती॥36॥

 

बहुत दूर आ गये ठहरिये।

न कीजिए आप लोग अब श्रम॥

सुखित न होंगी कदापि आर्य्या।

न जाएँगे आप लोग जो थम॥37॥

 

 

कृपा करें आप लोग जायें।

विनम्र हो ईश से मनावें॥

प्रसव करें पुत्र-रत्न आर्य्या।

मयंक नभ-अंक में उगावें॥38॥

 

सुने सुमित्र-कुमार बातें।

दिशा हुई जय-निनाद भरिता॥

बही उरों में सकल-जनों के।

तरंगिता बन विनोद-सरिता॥39॥

 

पुन: सुनाई पड़ा राजकुल।

सदा कमल सा खिला दिखावे॥

यथा-शीघ्र फिर अवध धाम में।

वन्दनीयतम-पद पड़ पावे॥40॥

 

चला वेग से अपूर्व स्यंदन।

चली गयी यत्र तत्र जनता॥

विचार-मग्न हुईं जनकजा।

बड़ी विषम थी विषय-गहनता॥41॥

 

कभी सुमित्र-सुअन ऊबकर।

वदन जनकजा का विलोकते॥

कभी दिखाते नितान्त-चिन्तित।

कभी विलोचन-वारि रोकते॥42॥

 

चला जा रहा दिव्य यान था।

अजस्र था टाप-रव सुनाता॥

सकल-घण्टियाँ निनाद रत थीं।

कभी चक्र घर्घरित जनाता॥43॥

 

 

हरे भरे खेत सामने आ।

भभर, रहे भागते जनाते॥

विविध रम्य आराम-भूरि-तरु।

पंक्ति-बध्द थे खड़े दिखाते॥44॥

 

कहीं पास के जलाशयों से।

विहंग उड़ प्राण थे बचाते॥

लगा-लगा व्योम-मध्य चक्कर।

अतीव-कोलाहल थे मचाते॥45॥

 

कहीं चर रहे पशु विलोक रथ।

चौंक-चौंक कर थे घबराते॥

उठा-उठा कर स्वकीय पूँछें।

इधर-उधर दौड़ते दिखाते॥46॥

 

कभी पथ-गता ग्राम-नारियाँ

गयंद-गतिता रहीं दिखाती॥

रथाधिरूढ़ा कुलांगना की।

विमुग्ध वर-मूर्ति थी बनाती॥47॥

 

कनक-कान्ति, कोशल-कुमार का।

दिव्य-रूप सौन्दर्य्य-निकेतन॥

विलोक किस पांथ का न बनता।

प्रफुल्ल अंभोज सा विकच मन॥48॥

 

अधीर-सौमित्र को विलोके।

कहा धीर-धर धरांगजा ने॥

बड़ी व्यथा हो रही मुझे है।

अवश्य है जी नहीं ठिकाने॥49॥

 

परन्तु कर्तव्य है न भूला।

कभी उसे भूल मैं न दूँगी॥

नहीं सकी मैं निबाह निज व्रत।

कभी नहीं यह कलंक लूँगी॥50॥

 

 

विषम समस्या सदन विश्व है।

विचित्र है सृष्टि कृत्य सारा॥

तथापि विष-कण्ठ-शीश पर है।

प्रवाहिता स्वर्ग-वारि-धरा॥51॥

 

राहु केतु हैं जहाँ व्योम में।

जिन्हें पाप ही पसन्द आया॥

वहीं दिखाती सुधांशुता है।

वहीं सहस्रांशु जगमगाया॥52॥

 

द्रवण शील है स्नेह सिंधु है।

हृदय सरस से सरस दिखाया॥

परन्तु है त्याग-शील भी वह।

उसे न कब पूत-भाव भाया॥53॥

 

स्वलाभ तज लोक-लाभ-साधन।

विपत्ति में भी प्रफुल्ल रहना॥

परार्थ करना न स्वार्थ-चिन्ता।

स्वधर्म-रक्षार्थ क्लेश सहना॥54॥

 

मनुष्यता है करणीय कृत्य है।

अपूर्व-नैतिकता का विलास है॥

प्रयास है भौतिकता विनाश का।

नरत्व-उन्मेष-क्रिया-विकास है॥55॥

 

विचार पतिदेव का यही है।

उन्हें यही नीति है रिझाती॥

अशान्त भव में यही रही है।

सदा शान्ति का स्रोत बहाती॥56॥

 

 

उसे भला भूल क्यों सकूँगी।

यही ध्येय आजन्म रहा है॥

परम-धन्य है वह पुनीत थल।

जहाँ सुरसरी सलिल बहा है॥57॥

 

विलोक ऑंखें मयंक-मुख को।

रही सुधा-पान नित्य करती॥

बनी चकोरी अतृप्त रहकर।

रहीं प्रचुर-चाव साथ भरती॥58॥

 

किसी दिवस यदि न देख पातीं।

अपार आकुल बनी दिखातीं॥

विलोकतीं पंथ उत्सुका हो।

ललक-ललक काल थीं बिताती॥59॥

 

बहा-बहा वारि जो विरह में।

बनें ए नयन वारिवाह से॥

बार-बार बहु व्यथित हुए, जो।

हृदय विकम्पित रहे आह से॥60॥

 

विचित्रता तो भला कौन है।

स्वभाव का यह स्वभाव ही है॥

कब न वारि बरसे पयोद बन।

समुद्र की ओर सरि बही है॥61॥

 

वियोग का काल है अनिश्चित।

व्यथा-कथा वेदनामयी है॥

बहु-गुणावली रूप-माधुरी।

रोम-रोम में रमी हुई है॥62॥

 

अत: रहूँगी वियोगिनी मैं।

नेत्र वारि के मीन बनेंगे॥

किन्तु दृष्टि रख लोक-लाभ पर।

सुकीर्ति-मुक्तावली जनेंगे॥63॥

 

 

सरस सुधा सी भरी उक्ति के।

नितान्त-लोलुप श्रवण रहेंगे॥

किन्तु चाव से उसे सुनेंगे।

भले-भाव जो भली कहेंगे॥64॥

 

हृदय हमारा व्यथित बनेगा।

स्वभावत: वेदना सहेगा॥

अतीव-आतुर दिखा पड़ेगा।

नितान्त-उत्सुक कभी रहेगा॥65॥

 

कभी आह ऑंधियाँ उठेंगी।

कभी विकलता-घटा घिरेगी॥

दिखा चमक चौंक-व्याज उसमें।

कभी कुचिन्ता-चपला फिरेगी॥66॥

 

परन्तु होगा न वह प्रवंचित।

कदापि गन्तव्य पुण्य-पथ से॥

कभी नहीं भ्रान्त हो गिरेगा।

स्वधर्म-आधार दिव्य रथ से॥67॥

 

सदा करेगा हित सर्व-भूत का।

न लोक आराधन को तजेगा॥

प्रणय-मूर्ति के लिए मुग्ध हो।

आर्त-चित्त आरती सजेगा॥68॥

 

अवश्य सुख वासना मनुज को।

सदा अधिक श्रान्त है बनाती॥

पड़े स्वार्थ-अंधता तिमिर में।

न लोक हित-मूर्ति है दिखाती॥69॥

 

 

कहाँ हुआ है उबार किसका।

सदा सभी की हुई हार है॥

अपार-संसार वारिनिधि में।

आत्मसुख भँवर दुर्निवार है॥70॥

 

बड़े-बड़े पूज्य-जन जिन्होंने।

गिना स्वार्थ को सदैव सिकता॥

न रोक पाए प्रकृति प्रकृति को।

न त्याग पाये स्वाभाविकता॥71॥

चौपदे

मैं अबला हूँ आत्मसुखों की।

प्रबल लालसाएँ प्रतिदिन आ॥

मुझे सताती रहती हैं जो।

तो इसमें है विचित्रता क्या॥72॥

 

किन्तु सुनो सुत जिस पति-पद की।

पूजा कर मैंने यह जाना॥

आत्मसुखों से आत्मत्याग ही।

सुफलद अधिक गया है माना॥73॥

 

उसी पूत-पद-पोत सहारे।

विरह-उदधि को पार करूँगी॥

विधु-सुन्दर वर-वदन ध्यान कर।

सारा अन्तर-तिमिर हरूँगी॥74॥

 

सर्वोत्तम साधन है उर में।

भव-हित पूत-भाव का भरना॥

स्वाभाविक-सुख-लिप्साओं को।

विश्व-प्रेम में परिणत करना॥75॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इतना सुन सौमित्रा की दूर हुई दुख-दाह।

देखा सिय ने सामने सरि-गोमती-प्रवाह॥76॥

 

अष्टम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आश्रम-प्रवेश

छन्द : तिलोकी

था प्रभात का काल गगन-तल लाल था।

अवनी थी अति-ललित-लालिमा से लसी॥

कानन के हरिताभ-दलों की कालिमा।

जाती थी अरुणाभ-कसौटी पर कसी॥1॥

 

ऊँचे-ऊँचे विपुल-शाल-तरु शिर उठा।

गगन-पथिक का पंथ देखते थे अड़े॥

हिला-हिला निज शिखा-पताका-मंजुला।

भक्ति-भाव से कुसुमांजलि ले थे खड़े॥2॥

 

कीचक की अति-मधुर-मुरलिका थी बजी।

अहि-समूह बन मत्त उसे था सुन रहा॥

नर्तन-रत थे मोर अतीव-विमुग्ध हो।

रस-निमित्त अलि कुसुमावलि था चुन रहा॥3॥

 

जहाँ तहाँ मृग खड़े स्वभोले नयन से।

समय मनोहर-दृश्य रहे अवलोकते॥

अलस-भाव से विलस तोड़ते अंग थे।

भरते रहे छलाँग जब कभी चौंकते॥4॥

 

परम-गहन-वन या गिरि-गह्वर-गर्भ में।

भाग-भाग कर तिमिर-पुंज था छिप रहा॥

प्रभा प्रभावित थी प्रभात को कर रही।

रवि-प्रदीप्त कर से दिशांक था लिप रहा॥5॥

 

 

दिव्य बने थे आलिंगन कर अंशु का।

हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस॥

विहग-वृन्द की केलि-कला कमनीय थी।

उनका स्वगत-गान बड़ा ही था सरस॥6॥

 

शीतल-मंद-समीर वर-सुरभि कर बहन।

शान्त-तपोवन-आश्रम में था बह रहा॥

बहु-संयत बन भर-भर पावन-भाव से।

प्रकृति कान में शान्ति बात था कह रहा॥7॥

 

जो किरणें तरु-उच्च शिखा पर थीं लसी।

ललित-लताओं को अब वे थीं चूमती॥

खिले हुए नाना-प्रसून से गले मिल।

हरित-तृणावलि में हँस-हँस थीं घूमती॥8॥

 

मन्द-मन्द गति से गयंद चल-चल कहीं।

प्रिय-कलभों के साथ केलि में लग्न थे॥

मृग-शावक थे सिंह-सुअन से खेलते।

उछल-कूद में रत कपि मोद-निमग्न थे॥9॥

 

आश्रम-मन्दिर-कलश अन्य-रवि-बिम्ब-बन।

अद्भुत-विभा-विभूति से विलस था रहा॥

दिव्य-आयतन में उसके कढ़ कण्ठ से।

वेद-पाठ स्वर सुधा स्रोत सा था बहा॥10॥

 

प्रात:-कालिक-क्रिया की मची धूम थी।

जद्दघ-नन्दिनी के पावनतम-कूल पर॥

स्नान, ध्यान, वन्दन, आराधन के लिए।

थे एकत्रित हुए सहस्रों नारि-नर॥11॥

 

स्तोत्रा-पाठ स्तवनादि से ध्वनित थी दिशा।

सामगान से मुखरित सारा-ओक था॥

पुण्य-कीर्तनों के अपूर्व-आलाप से।

पावन-आश्रम बना हुआ सुरलोक था॥12॥

 

हवन क्रिया सर्वत्र सविधि थी हो रही।

बड़ा-शान्त बहु-मोहक-वातावरण था॥

हुत-द्रव्यों से तपोभूमि सौरभित थी।

मूर्तिमान बन गया सात्तिवकाचरण था॥13॥

 

 

विद्यालय का वर-कुटीर या रम्य-थल।

आश्रम के अन्यान्य-भवन उत्तम बड़े॥

परम-सादगी के अपूर्व-आधार थे।

कीर्ति-पताका कर में लेकर थे खड़े॥14॥

 

प्रात:-कालिक-दृश्य सबों का दिव्य था।

रवि-किरणें थी उन्हें दिव्यता दे रही॥

उनके अवलम्बन से सकल-वनस्थली।

प्रकृति करों से परम-कान्ति थी ले रही॥15॥

 

इसी समय अति-उत्तम एक कुटीर में।

जो नितान्त-एकान्त-स्थल में थी बनी॥

थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्रा के।

परम-धीर-गति से विदेह की नन्दिनी॥16॥

 

कुछ चल कर ही शान्त-मूर्ति-मुनिवर्य्य की।

उन्हें दिखाई पड़ी कुशासन पर लसी॥

जटा-जूट शिर पर था उन्नत-भाल था।

दिव्य-ज्योति उज्ज्वल-ऑंखों में थी बसी॥17॥

 

दीर्घ-विलम्बित-श्वेत-श्मश्रु, मुख-सौम्यता।

थी मानसिक-महत्ता की उद्बोधिनी॥

शान्त-वृत्ति थी सहृदयता की सूचिका।

थी विपत्ति-निपतित की सतत प्रबोधिनी॥18॥

 

देख जनक-नन्दिनी सुमित्रा-सुअन को।

वंदन करते मुनि ने अभिनन्दन किया॥

सादर स्वागत के बहु-सुन्दर-वचन कह।

प्रेम के सहित उनको उचितासन दिया॥19॥

 

बहुत-विनय से कहा सुमित्रा-तनय ने।

आर्य्या का जिस हेतु से हुआ आगमन॥

ऋषिवर को वे सारी बातें ज्ञात हैं।

स्वाभाविक होते कृपालु हैं पुण्य-जन॥20॥

 

 

पुण्याश्रम का वास धर्म-पथ का ग्रहण।

परम-पुनीत-प्रथा का पालन शुध्द-मन॥

क्यों न बनेगा सकल सिध्दि प्रद बहु फलद।

महा-महिम का नियमन-रक्षण संयमन॥21॥

 

है मेरा विश्वास अनुष्ठित-कृत्य यह।

होगा रघुकुल-कलस के लिए कीर्तिकर॥

करेगा उसे अधिक गौरवित विश्व में।

विशद-वंश को उज्ज्वल-रत्न प्रदान कर॥22॥

 

मुनि ने कहा वसिष्ठ देव के पत्र से।

सब बातें हैं मुझे ज्ञात, यह सत्य है-

लोक तथा परलोक-नयन आलोक है।

भव-सागर में पोत समान अपत्य है॥23॥

 

वंश-वृध्दि, प्रतिपालन-प्रिय-परिवार का।

वर्धन कुल की कीर्ति कर विशद-साधना॥

मानव बन करना मानवता अर्चना।

है सत्संतति कर्म, लोक-अराधना॥24॥

 

ऐसा ही सुत सकल-जगत है चाहता।

किन्तु अधिक वांछित है नृपकुल के लिए॥

क्योंकि नृपति वास्तव में होता है नृपति।

वही धरा को रहता है धारण किए॥25॥

 

इसीलिए कुछ धर्म, प्राण, नृपकुल-तिलक।

गर्भवती निज प्रिय-पत्नी को समय पर॥

कुलपति आश्रम में प्राय: हैं भेजते।

सब-लोक-हित-रत हो जिससे वंशधार॥26॥

 

रघुकुल-रंजन के अति-उत्तम कार्य का।

अनुमोदन करता हूँ सच्चे-हृदय से॥

कहियेगा नृप-पुंगव से यह कृपा कर।

सब कुछ होता सांग रहेगा समय से॥27॥

 

 

पुत्रि जनकजे! मैं कृतार्थ हो गया हूँ।

आप कृपा करके यदि आईं हैं यहाँ॥

वे थल भी हैं अब पावन-थल हो गए।

आपका परम-शुचि-पग पड़ पाया जहाँ॥28॥

 

आप मानवी हैं तो देवी कौन है।

महा-दिव्यता किसे कहाँ ऐसी मिली॥

पातिव्रत अति पूत सरोवर अंक में।

कौन पति-रता-पंकजिनी ऐसी खिली॥29॥

 

पति-देवता कहाँ किसको ऐसी मिली।

प्रेम से भरा ऐसा हृदय न और है॥

पति-गत प्राणा ऐसी हुई न दूसरी।

कौन धरा की सतियों की सिरमौर है॥30॥

 

किसी चक्रवर्ती की पत्नी आप हैं।

या लालित हैं महामना मिथिलेश की॥

इस विचार से हैं न पूजिता वंदिता।

आप अर्चिता हैं अलौकिकादर्श से॥31॥

 

रत्न-जटिल-हिन्दोल में पली आप थीं।

प्यारी-पुत्तालिका थीं मैना दृगों की॥

मिथिलाधिप-कर-कमलों से थीं लालिता।

कुसुम से अधिक कोमलता थी पगों की॥32॥

 

कनक-रचित महलों में रहती थीं सदा।

चमर ढुला करता था प्राय: शीश पर॥

कुसुम-सेज थी दुग्ध-फेन-निभ-आस्तरण।

थीं विभूतियाँ अलकाधिपति-विमुग्धकर॥33॥

 

मुख अवलोकन करती रहती थीं सदा।

कौशल्या देवी तन मन, धन, वार कर॥

सब प्रकार के भव के सुख, कर-बध्द हो।

खड़े सामने रहते थे आठों पहर॥34॥

 

किन्तु देखकर जीवन-धन का वन-गमन।

आप भी बनी सब तज कर वन-वासिनी॥

एक-दो नहीं चौदह सालों तक रहीं।

प्रेम-निकेतन पति के साथ प्रवासिनी॥35॥

 

 

बन जाती थीं सकल भीतियाँ भूतियाँ।

कानन में आपदा सम्पदा सी सदा॥

आपके लिए प्रियतम प्रेम-प्रभाव से।

बनती थीं सुखदा कुवस्तुएँ दु:खदा॥36॥

 

पट्ट-वस्त्रा बन जाता था वल्कल-वसन।

साग पात में मिलता व्यंजन स्वाद था॥

कान्त साथ तृण-निर्मित साधारण उटज।

बहु-प्रसाद पूरित बनता प्रासाद था॥37॥

 

शीतल होता तप-ऋतु का उत्ताप था।

लू लपटें बन जाती थीं प्रात:-पवन॥

बनती थी पति साथ सेज सी साथरी।

सारे काँटे होते थे सुन्दर सुमन॥38॥

 

जीवन भर में छह महीने ही हुआ।

पति-वियोग उस समय जिस समय आपको॥

हरण किया था पामर-लंकाधिपति ने।

कर सहस्र-गुण पृथ्वी तल के पाप को॥39॥

 

किन्तु यह समय ही वह अद्भुत समय था।

हुई जिस समय ज्ञात महत्ता आपकी॥

प्रकृति ने महा-निर्मम बनकर जिस समय।

आपके महत-पातिव्रत की माप की॥40॥

 

वह रावण जिससे भूतल था काँपता।

एक वदन होते भी जो दश-वदन था॥

हो द्विबाहु जो विंशति बाहु कहा गया।

धृति शिर पर जो प्रबल वज्र का पतन था॥41॥

 

महा-घोर गर्जन तर्जन प्रतिवार कर।

दिखा-दिखा करवालें विद्युद्दाम सी॥

कर कर कुत्सित रीति कदर्य्य प्रवृत्ति से।

लोक प्रकम्पित करी क्रियायें तामसी॥42॥

 

 

रख त्रिलोक की भूमि प्रायश: सामने।

राज्य-विभव को चढ़ा-चढ़ा पद पद्म॥

न तो विकम्पित कभी कर सका आपको।

न तो कर सका वशीभूत बहु मुग्ध कर॥43॥

 

जिसकी परिखा रहा अगाध उदधि बना।

जिसका रक्षक स्वर्ग-विजेता-वीर था॥

जिसमें रहते थे दानव-कुल-अग्रणी।

जिसका कुलिशोपम अभेद्य-प्राचीर था॥44॥

 

जिसे देख कम्पित होते दिग्पाल थे।

पंचभूत जिसमें रहते भयभीत थे॥

कँपते थे जिसमें प्रवेश करते त्रिदश।

जहाँ प्रकृत-हित पशुता में उपनीत थे॥45॥

 

उस लंका में एक तरु तले आपने।

कितनी अंधियाली रातें दी हैं बिता॥

अकली नाना दानवियों के बीच में।

बहुश:-उत्पातों से हो हो शंकिता॥46॥

 

कितनी फैला बदन निगलना चाहतीं।

कितनी बन विकराल बनातीं चिन्तिता॥

ज्वालाएँ मुख से निकाल ऑंखें चढ़ा।

कितनी करती रहती थीं आतंकिता॥47॥

 

कितनी दाँतों को निकाल कटकटा कर।

लेलिहान-जिह्ना दिखला थीं कूदती।

कितनी कर बीभत्स-काण्ड थीं नाचती।

आप देख जिसको ऑंखें थीं मूँदती॥48॥

 

 

आस पास दानव-गण करते शोर थे।

कर दानवी-दुरन्त-क्रिया की पूर्तियाँ॥

रहे फेंकते लूक सैकड़ों सामने।

दिखा-दिखा कर बहु-भयंकरी-मूर्तियाँ॥49॥

 

इन उपद्रवों उत्पातों का सामना।

आपका सबलतम सतीत्व था कर रहा॥

हुई अन्त में सती-महत्ता विजयिनी।

लंकाधिप-वध-वृत्ता लोक-मुख ने कहा॥50॥

 

पुत्रि आपकी शक्ति महत्ता विज्ञता।

धृति उदारता सहृदयता दृढ़-चित्तता॥

मुझे ज्ञात है किन्तु प्राण-पति प्रेम की।

परम-प्रबलता तदीयता एकान्तता॥51॥

 

ऐसी है भवदीय कि मैं संदिग्ध हूँ।

क्यों वियोग-वासर व्यतीत हो सकेंगे॥

किन्तु कराती है प्रतीति धृति आपकी।

अंक कीर्ति के समय-पत्र पर अंकेंगे॥52॥

 

जो पतिप्राणा है पति-इच्छा पूर्ति तो।

क्या न प्राणपण से वह करती रहेगी॥

यदि वह है संतान-विषयिणी क्यों न तो।

प्रेम-जन्य-पीड़ा संयत बन सहेगी॥53॥

 

देख रहा हूँ मैं पति की चर्चा चले।

वारि दृगों में बार-बार आता रहा॥

किन्तु मान धृति का निदेश पीछे हटा।

आगे बढ़कर नहीं धार बनकर बहा॥54॥

 

है मुझको विश्वास गर्भ-कालिक नियम।

प्रति दिन प्रतिपालित होंगे संयमित रह॥

होगा जो सर्वस्व अलौकिक-खानि का।

रघुकुल-पुंगव लाभ करेंगे रत्न वह॥55॥

 

 

इतनी बातें कह मुनि पुंगव ने बुला।

तपस्विनी आश्रम-अधीश्वरी से कहा॥

आश्रम में श्रीमती जनक-नन्दिनी को।

आप लिवा ले जायँ कर समादर-महा॥56॥

 

जो कुटीर या भवन अधिक उपयुक्त हो।

जिसको स्वयं महारानी स्वीकृत करें॥

उन्हें उसी में कर सुविधा ठहराइए।

जिसके दृश्य प्रफुल्ल-भाव उर में भरें॥57॥

 

यह सुन लक्ष्मण से विदेहजा ने कहा।

तुमने मुनिवर की दयालुता देख ली॥

अत: चले जाओ अब तुम भी, और मैं-

तपस्विनी आश्रम में जाती हूँ चली॥58॥

 

प्रिय से यह कहना महान-उद्देश्य से।

अति पुनीत-आश्रम में है उपनीत-तन॥

किन्तु प्राण पति पद-सरोज का सर्वदा।

बना रहेगा मधुप सेविका मुग्ध-मन॥59॥

 

मेरी अनुपस्थिति में प्राणाधार को।

विविध-असुविधाएँ होवेंगी इसलिए॥

इधर तुम्हारी दृष्टि अपेक्षित है अधिक।

सारे सुख कानन में तुमने हैं दिए॥60॥

 

यद्यपि तुम प्रियतम के सुख-सर्वस्व हो।

स्वयं सभी समुचित सेवाएँ करोगे॥

किन्तु नहीं जी माना इससे की विनय।

स्नेह-भाव से ही आशा है भरोगे॥61॥

 

 

सुन विदेहजा-कथन सुमित्रा-सुअन ने।

अश्रु-पूर्ण-दृग से आज्ञा स्वीकार की॥

फिर सादर कर मुनि-पद सिय-पग वन्दना।

अवध-प्रयाण-निमित्त प्रेम से विदा ली॥62॥

दोहा

कर मुनिवर की वन्दना रख विभूति-विश्वास।

जाकर आश्रम में किया जनक-सुता ने वास॥63॥

नवम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अवध धाम

छन्द : तिलोकी

था संध्या का समय भवन मणिगण दमक।

दीपक-पुंज समान जगमगा रहे थे॥

तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा।

सौधों में स्वर सरस-स्रोत से बहे थे॥1॥

 

काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी।

जिसमें विपुल सुनहले बूटे थे बने॥

तिमिर-पुंज के अग्रदूत थे घूमते।

दिशा-वधूटी के व्याकुल-दृग सामने॥2॥

 

सुधा धवलिमा देख कालिमा की क्रिया।

रूप बदल कर रही मलिन-बदना बनी॥

उतर रही थी धीरे कर से समय के।

सब सौधों में तनी दिवासित चाँदनी॥3॥

 

तिमिर फैलता महि-मण्डल में देखकर।

मंजु-मशालें लगा व्योमतल बालने॥

ग्रीवा में श्रीमती प्रकृति-सुन्दरी के।

मणि-मालायें लगा ललक कर डालने॥4॥

 

हो कलरविता लसिता दीपक-अवलि से।

निज विकास से बहुतों को विकसित बना॥

विपुल-कुसुम-कुल की कलिकाओं को खिला।

हुई निशा मुख द्वारा रजनी-व्यंजना॥5॥

 

 

इसी समय अपने प्रिय शयनागार में।

सकल भुवन अभिराम राम आसीन थे॥

देख रहे थे अनुज-पंथ उत्कंठ हो।

जनक-लली लोकोत्तरता में लीन थे॥6॥

 

तोरण पर का वाद्य बन्द हो चुका था।

किन्तु एक वीणा थी अब भी झंकृता॥

पिला-पिला कर सुधा पिपासित-कान को॥

मधुर-कंठ-स्वर से मिल वह थी गुंजिता॥7॥

 

उसकी स्वर लहरी थी उर को वेधिता।

नयन से गिराती जल उसकी तान थी॥

एक गायिका करुण-भाव की मूर्ति बन।

आहें भर-भर कर गाती यह गान थी॥8॥

गान- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आकुल ऑंखें तरस रही हैं।

बिना बिलोके मुख-मयंक-छवि पल-पल ऑंसू बरस रही हैं॥

दुख दूना होता जाता है सूना घर धर-धर खाता है।

ऊब-ऊब उठती हूँ मेरा जी रह-रह कर घबराता है।

दिन भर आहें भरती हँ मैं तारे गिन-गिन रात बिताती।

आ अन्तस्तल मध्य न जानें कहाँ की उदासी है छाती॥

शुक ने आज नहीं मुँह खोला नहीं नाचता दिखलाता है।

मैना भी है पड़ी मोह में उसके दृग से जल जाता है॥

देवि! आप कब तक आएँगी ऑंखें हैं दर्शन की प्यासी।

थाम कलेजा कलप रही है पड़ी व्यथा-वारिधि में दासी॥9॥

 

तिलोकी

रघुकुल पुंगव ने पूरा गाना सुना।

धीर धुरंधर करुणा-वरुणालय बने॥

इसी समय कर पूजित-पग की वन्दना।

खड़े दिखाई दिये प्रिय-अनुज सामने॥10॥

 

कुछ आकुल कुछ तुष्ट कुछ अचिन्तित दशा।

देख सुमित्रा-सुत की प्रभुवर ने कहा॥

तात! तुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देखता।

क्यों मुझको अवलोक दृगों से जल बहा॥11॥

 

आश्रम में तो सकुशल पहुँच गयी प्रिया?

वहाँ समादर स्वागत तो समुचित हुआ॥

हैं मुनिराज प्रसन्न? शान्त है तपोवन।

नहीं कहीं पर तो है कुछ अनुचित हुआ?॥12॥

 

सविनय कहा सुमित्रा के प्रिय-सुअन ने।

मुनि हैं मंगल-मूर्ति, तपोवन पूततम॥

आर्य्या हैं स्वयमेव दिव्य देवियों सी।

आश्रम है सात्तिवक-निवास सुरलोक सम॥13॥

 

 

वह है सद्व्यवहार-धाम सत्कृति-सदन।

वहाँ कुशल है 'कार्य-कुशलता' सीखती॥

भले-भाव सब फूले फले मिले वहाँ।

भली-भावना-भूति भरी है दीखती॥14॥

 

किन्तु एक अति-पति-परायणा की दशा।

उनकी मुख-मुद्रा उनकी मार्मिक-व्यथा॥

उनकी गोपन-भाव-भरित दुख-व्यंजना।

उनकी बहु-संयमन प्रयत्नों की कथा॥15॥

 

मुझे बनाती रहती है अब भी व्यथित।

उसकी याद सताती है अब भी मुझे।

उन बातों को सोच न कब छलके नयन।

आश्वासन देतीं कह जिन्हें कभी मुझे॥16॥

 

तपोभूमि का पूत-वायुमण्डल मिले।

मुनि-पुंगव के सात्तिवक-पुण्य-प्रभाव से॥

शान्ति बहुत कुछ आर्य्या को है मिल रही।

तपस्विनी-गण सहृदयता सद्भाव से॥17॥

 

किन्तु पति-परायणता की जो मूर्ति है।

पति ही जिसके जीवन का सर्वस्व है॥

बिना सलिल की सफरी वह होगी न क्यों।

पति-वियोग में जिसका विफल निजस्व है॥18॥

 

सिय-प्रदत्ता-सन्देश सुना सौमित्रा ने।

कहा, भरी है इसमें कितनी वेदना॥

बात आपकी चले न कब दिल हिल गया।

कब न पति-रता ऑंखों से ऑंसू छना॥19॥

 

 

उनको है कर्तव्य ज्ञान वे आपकी।

कर्म-परायण हैं सच्ची सहधार्मिणी॥

लोक-लाभ-मूलक प्रभु के संकल्प पर।

उत्सर्गी कृत होकर हैं कृति-ऋण-ऋणी॥20॥

 

फिर भी प्रभु की स्मृति, दर्शन की लालसा।

उन्हें बनाती रहती है व्यथिता अधिक॥

यह स्वाभाविकता है उस सद्भाव की।

जो आजन्म रहा सतीत्व-पथ का पथिक॥21॥

 

जिसने अपनी वर-विभूति-विभुता दिखा।

रज समान लंका के विभवों को गिना॥

जिसके उस कर से जो दिव-बल-दीप्त था।

लंकाधिप का विश्व-विदित-गौरव छिना॥22॥

 

कर प्रसून सा जिसने पावक-पुंज को।

दिखलाई अपनी अपूर्व तेजस्विता॥

दानवता आतपता जिसकी शान्ति से।

बहुत दिनों तक बनती रही शरद सिता॥23॥

 

 

बड़े अपावन-भाव परम-भावन बने।

जिसकी पावनता का करके सामना॥

चौदह वत्सर तक जिसकी धृति-शक्ति से।

बहु दुर्गम वन अति सुन्दर उपवन बना॥24॥

 

इष्ट-सिध्दि होगी उसका ही बल मिले।

सफल बनेगी कठिन-से-कठिन साधना॥

भव-हित होगा भय-विहीन होगी धरा।

होवेगी लोकोत्तर लोकाराधाना॥25॥

 

यह निश्चित है पर आर्य्या की वेदना।

जितनी है दुस्सह उसको कैसे कहूँ॥

वे हैं महिमामयी सहन कर लें व्यथा।

उन्हें व्यथा है, इसको मैं कैसे सहूँ॥26॥

 

कुलपति आश्रम-गमन किसे प्रिय है नहीं।

इस मांगलिक-विधान से मुदित हैं सभी॥

पर न आज है राज-भवन ही श्री-रहित।

सूना है हो गया अवध सा नगर भी॥27॥

 

मुनि-आश्रम के वास का अनिश्चित समय।

किसे बनाता है नितान्त-चिन्तित नहीं॥

मातायें यदि व्यथिता हैं वधुओं-सहित।

पौर-जनों का भी तो स्थिर है चित नहीं॥28॥

 

मुझे देख सबके मुख पर यह प्रश्न था।

कब आएँगी पुण्यमयी-महि नन्दिनी॥

अवध पुरी फिर कब होगी आलोकिता।

फिर कब दर्शन देंगी कलुष-निकन्दिनी॥29॥

 

प्राय: आर्य्या जाती थीं प्रात:समय।

पावन-सलिला-सरयू सरिता तीर पर॥

और वहाँ थीं दान-पुण्य करती बहुत।

वारिद-सम-वर-वारि-विभव की वृष्टि कर॥30॥

 

 

समय-समय पर देव-मन्दिरों में पहुँच।

होती थीं देवी समान वे पूजिता॥

सकल-न्यूनताओं की करके पूर्तियाँ।

सत्प्रवृत्ति को रहीं बनाती ऊर्जिता॥31॥

 

वे निज प्रिय-रथ पर चढ़ कर संध्या-समय।

अटन के लिए जब थीं बाहर निकलती॥

तब खुलते कितने लोगों के भाग्य थे।

उन्नति में थी बहु-जन अवनति बदलती॥32॥

 

राज-भवन से जब चलती थीं उस समय।

रहते उनके साथ विपुल-सामान थे॥

जिनसे मिलता आर्त्त-जनों को त्राण था।

बहुत अकिंचन बनते कंचनवान थे॥33॥

 

दक्ष दासियाँ जितनी रहती साथ थीं।

वे जनता-हित-साधन की आधार थीं॥

मिले पंथ में किसी रुग्न विकलांग के।

करती उनके लिए उचित-उपचार थीं॥34॥

 

इसीलिए उनके अभाव में आज दिन।

नहीं नगर में ही दुख की धारा बही॥

उदासीनता है कह रही उदास हो।

राज-भवन भी रहा न राज-भवन वही॥35॥

 

आर्य्या की प्रिय-सेविका सुकृतिवती ने।

अभी गान जो गाया है उद्विग्न बन॥

अहह भरा है उसमें कितना करुण-रस।

वह है राज-भवन दुख का अविकल-कथन॥36॥

 

 

गृहजन परिजन पुरजन की तो बात क्या।

रथ के घोड़े व्याकुल हैं अब तक बड़े॥

पहले तो आश्रम को रहे न छोड़ते।

चले चलाए तो पथ में प्राय: अड़े॥37॥

 

घुमा-घुमा शिर रहे रिक्त-रथ देखते।

थे निराश नयनों से ऑंसू ढालते॥

बार-बार हिनहिना प्रकट करते व्यथा।

चौंक-चौंक कर पाँव कभी थे डालते॥38॥

 

आर्य्या कोमलता ममता की मूर्ति हैं।

हैं सद्भाव-रता उदारता पूरिता॥

हैं लोकाराधन-निधि-शुचिता-सुरसरी।

हैं मानवता-राका-रजनी की सिता॥39॥

 

फिर कैसे होतीं न लोक में पूजिता।

क्यों न अदर्शन उनका जनता को खले॥

किन्तु हुई निर्विघ्न मांगलिक-क्रिया है।

हित होता है पहुँचे सुर पादप तले॥40॥

 

कहा राम ने आज राज्य जो सुखित है।

जो वह मिलता है इतना फूला फला॥

जो कमला की उस पर है इतनी कृपा।

जो होता रहता है जन-जन का भला॥41॥

 

अवध पुरी है जो सुर-पुरी सदृश लसी।

जो उसमें है इतनी शान्ति विराजती॥

तो इसमें है हाथ बहुत कुछ प्रिया का।

है यह बात अधिकतर जनता जानती॥42॥

 

कुछ अशान्ति जो फैल गयी है इन दिनों।

वे ही उसका वारण भी हैं कर रही॥

विविधि-व्यथाएँ सह बह विरह-प्रवाह में।

वे ही दुख-निधि में हैं अहह उतर रही॥43॥

 

 

भला कामना किसको है सुख की नहीं।

क्या मैं सुखी नहीं रहना हूँ चाहता॥

क्या मैं व्यथित नहीं हूँ कान्ता-व्यथा से।

क्या मैं सद्व्रत को हूँ नहीं निबाहता॥44॥

 

तन, छाया-सम जिसका मेरा साथ था।

आज दिखाती उसकी छाया तक नहीं॥

प्रवह-मान-संयोग-स्रोत ही था जहाँ।

अब वियोग-खर-धारा बहती है वहीं॥45॥

 

आज बन गयी है वह कानन-वासिनी।

जो मम-आनन अवलोके जीती रही॥

आज उसे है दर्शन-दुर्लभ हो गया।

पूत-प्रेम-प्याला जो नित पीती रही॥46॥

 

आज निरन्तर विरह सताता है उसे।

जो अन्तर से प्रियतम अनुरागिनी थी॥

आह भार अब उसका जीवन हो गया।

आजीवन जो मम-जीवन-संगिनी थी॥47॥

 

तात! विदित हो कैसे अन्तर्वेदना।

काढ़ कलेजा क्यों मैं दिखलाऊँ तुम्हें॥

स्वयं बन गया जब मैं निर्मम-जीव तो।

मर्मस्थल का मर्म क्यों बताऊँ तुम्हें॥48॥

 

क्या माताओं की मुझको ममता नहीं।

क्या होता हूँ दुखित न उनका देख दुख॥

क्या पुरजन परिजन अथवा परिवार का।

मुझे नहीं वांछित है सच्चा आत्म-सुख॥49॥

 

सुकृतिवती का विह्नलतामय-गान सुन।

क्या मेरा अन्तस्तल हुआ नहीं द्रवित॥

कथा बाजियों की सुन कर करुणा भरी।

नहीं हो गया क्या मेरा मानस व्यथित॥50॥

 

 

किन्तु प्रश्न यह है, है धार्मिक-कृत्य क्या?

प्रजा-रंजिनी-राजनीति का मर्म क्या?

जिससे हो भव-भला लोक-अराधना।

वह मानव-अवलम्बनीय है कर्म क्या॥51॥

 

अपना हित किसको प्रिय होता है नहीं।

सम्बन्धी का कौन नहीं करता भला॥

जान बूझ कर वश चलते जंजाल में।

कोई नहीं फँसाता है अपना गला॥52॥

 

स्वार्थ-सूत्र में बँधा हुआ संसार है।

इष्ट-सिध्दि भव-साधन का सर्वस्व है॥

कार्य-क्षेत्र में उतर जगत में जन्म ले।

सबसे प्यारा सबको रहा निजस्व है॥53॥

 

यह स्वाभाविक-नियम प्रकृति अनुकूल है।

यदि यह होता नहीं विश्व चलता नहीं॥

पलने पर विधि-बध्द-विधानों के कभी।

जगतीतल का प्राणि-पुंज पलता नहीं॥54॥

 

किन्तु स्वार्थ-साधन, हित-चिन्ता-स्वजन-की।

उचित वहीं तक है जो हो कश्मल-रहित॥

जो न लोक-हित पर-हित के प्रतिकूल हो।

जो हो विधि-संगत, जो हो छल-बल-रहित॥55॥

 

कर पर का अपकार लोक-हित का कदन।

निज-हित करना पशुता है, है अधमता॥

भव-हित पर-हित देश-हितों का ध्यान रख।

कर लेना निज-स्वार्थ-सिध्दि है मनुजता॥56॥

 

मनुजों में वे परम-पूज्य हैं वंद्य हैं।

जो परार्थ-उत्सर्गी-कृत-जीवन रहे॥

सत्य, न्याय के लिए जिन्होंने अटल रह।

प्राण-दान तक किये, सर्व-संकट सहे॥57॥

 

 

नृपति मनुज है अत: मनुजता अयन है।

सत्य न्याय का वह प्रसिध्द आधार है॥

है प्रधान-कृति उसकी लोकाराधना।

उसे शान्तिमय शासन का अधिकार है॥58॥

 

अवनीतल में ऐसे नृप-मणि हैं हुए।

इन बातों के जो सच्चे-आदर्श थे॥

दिव्य-दूत जो विभु-विभूतियों के रहे।

कर्म्म-पूततम जिनके मर्म-स्पर्श थे॥59॥

 

हरिश्चन्द्र, शिवि आदि नृपों की कीर्तियाँ।

अब भी हैं वसुधा की शान्ति-विधायिनी॥

भव-गौरव ऋषिवर दधीचि की दिव्य-कृति।

है अद्यापि अलौकिक शिक्षा-दायिनी॥60॥

 

है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता।

अनीति रत में कहाँ नीति-अस्तित्व है॥

वह है नरपति नहीं जो नहीं जानता।

नरपतित्व का क्या उत्तरदायित्व है॥61॥

 

कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर।

यथा-शक्ति परहित करना है चाहता॥

देश, जाति, भव-हित अवसर अवलोक कर।

प्राय: वह निज-हित को भी है त्यागता॥62॥

 

 

यदि ऐसा है तो क्या यह होगा विहित।

कोई नृप अपने प्रधान-कर्तव्य का॥

करे त्याग निज के सुख-दुख पर दृष्टि रख।

अथवा मान निदेश मोह-मन्तव्य का॥63॥

 

जिसका जितना गुरु-उत्तरदायित्व है।

उसे महत उतना ही बनना चाहिए॥

त्याग सहित जिसमें लोकाराधन नहीं।

वह लोकाधिप कहलाता है किसलिए॥64॥

 

बात तुम्हें लोकापवाद की ज्ञात है।

मुझे लोक-उत्पीड़न वांछित है नहीं॥

अत: बनूँ मैं क्यों न लोक-हित-पथ-पथिक।

जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥65॥

 

मैं हूँ व्यथित अधिकतर-व्यथिता है प्रिया।

क्योंकि सताती है आ-आ सुख-कामना॥

है यह सुख-कामना एक उन्मत्तता।

भरी हुई है इसमें विविध-वासना॥66॥

 

यह सरसा-संस्कृति है यह है प्रकृति-रति।

यह विभाव संसर्ग-जनित-अभ्यास है॥

है यह मूर्ति मनुज के परमानन्द की।

वर-विकास, उल्लास, विलास, निवास है॥67॥

 

त्याग-कामना भी नितान्त कमनीय है।

मानवता-महिमा द्वारा है अंकिता॥

बन कर्तव्य परायणता से दिव्यतम।

लोक-मान्य-मन्त्रों से है अभिमन्त्रिता॥68॥

 

मैंने जो है त्याग किया वह उचित है।

ऐसा ही करना इस समय सुकर्म्म था॥

इसीलिए सहमत विदेहजा भी हुई।

क्योंकि यही सहधार्मिणी परम धर्म था॥69॥

 

 

कितने सह साँसतें बहुत दुख भोगते।

कितने पिसते पड़ प्रकोप तलवों तले॥

दमन-चक्र यदि चलता तो बहता लहू।

वृथा न जाने कितने कट जाते गले॥70॥

 

तात! देख लो साम-नीति के ग्रहण से।

हुआ प्राणियों का कितना उपकार है॥

प्रजा सुरक्षित रही पिसी जनता नहीं।

हुआ लोक-हित मचा न हाहाकार है॥71॥

 

हाँ! वियोगिनी प्रिया-दशा दयनीय है।

मेरा उर भी इससे मथित अपार है॥

किन्तु इसी अवसर पर आश्रम में गमन।

दोनों के दुख का उत्तम-प्रतिकार है॥72॥

 

जब से सम्बन्धित हम दोनों हुए हैं।

केवल छ महीने का हुआ विनियोग है॥

रहीं जिन दिनों लंका में जनकांगजा।

किन्तु आ गया अब ऐसा संयोग है॥73॥

 

जो यह बतलाता है अहह वियोग यह।

होगा चिरकालिक बरसों तक रहेगा॥

अत: सताती है यह चिन्ता नित मुझे।

पतिप्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा॥74॥

 

 

पर मुझको इसका पूरा विश्वास है।

हो अधीर भी तजेंगी नहीं धीरता॥

प्रिया करेंगी मम-इच्छा की पूर्ति ही।

पूत रहेगी नयन-नीर की नीरता॥75॥

 

सहायता उनके सद्भाव-समूह की।

सदा करेगी तपोभूमि-शुचि-भावना॥

उन्हें सँभालेगी मुनि की महनीयता॥

कुल-दीपक संतान-प्रसव-प्रस्तावना॥76॥

 

इसीलिए मुझको अशान्ति में शान्ति है।

और विरह में भी हूँ बहुत व्यथित न मैं।

चिन्तित हूँ पर अतिशय-चिन्तित हूँ नहीं।

इसीलिए बनता हूँ विचलित-चित न मैं॥77॥

 

किन्तु जनकजा के अभाव की पूर्तियाँ।

हमें तुम्हें भ्राताओं भ्रातृ-वधू सहित॥

करना होगा जिससे माताएँ तथा।

परिजन, पुरजन, यथा रीति होवें सुखित॥78॥

 

तात! करो यह यत्न दलित दुख-दल बने।

सरस-शान्ति की धरा घर-घर में बहे॥

कोई कभी असुख-मुख अवलोके नहीं।

सुखमय-वासर से विलसित वसुधा रहे॥79॥

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सीता का सन्देश कह, सुन आदर्श पवित्र।

वन्दन कर प्रभु-कमल-पग चले गये सौमित्रा॥80॥

 

दशम सर्ग- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

तपस्विनी आश्रम

छन्द : चौपदे

प्रकृति का नीलाम्बर उतरे।

श्वेत-साड़ी उसने पाई॥

हटा घन-घूँघट शरदाभा।

विहँसती महि में थी आई॥1॥

 

मलिनता दूर हुए तन की।

दिशा थी बनी विकच-वदना॥

अधर में मंजु-नीलिमामय।

था गगन-नवल-वितान तना॥2॥

 

चाँदनी छिटिक छिटिक छबि से।

छबीली बनती रहती थी॥

सुधाकर-कर से वसुधा पर।

सुधा की धारा बहती थी॥3॥

 

कहीं थे बहे दुग्ध-सोते।

कहीं पर मोती थे ढलके॥

कहीं था अनुपम-रस बरसा।

भव-सुधा-प्याला के छलके॥4॥

 

 

मंजुतम गति से हीरक-चय।

निछावर करती जाती थी॥

जगमगाते ताराओं में।

थिरकती ज्योति दिखाती थी॥5॥

 

क्षिति-छटा फूली फिरती थी।

विपुल-कुसुमावलि विकसी थी॥

आज वैकुण्ठ छोड़ कमला।

विकच-कमलों में विलसी थी॥6॥

 

पादपों के श्यामल-दल ने।

प्रभा पारद सी पाई थी॥

दिव्य हो हो नवला-लतिका।

विभा सुरपुर से लाई थी॥7॥

 

मंद-गति से बहतीं नदियाँ।

मंजु-रस मिले सरसती थीं॥

पा गये राका सी रजनी।

वीचियाँ बहुत विलसती थीं॥8॥

 

किसी कमनीय-मुकुर जैसा।

सरोवर विमल-सलिल वाला॥

मोहता था स्वअंक में ले।

विधु-सहित मंजुल-उड़ु-माला॥9॥

 

शरद-गौरव नभ-जल-थल में।

आज मिलते थे ऑंके से॥

कीर्ति फैलाते थे हिल हिल।

कास के फूल पताके से॥10॥

चतुष्पद

तपस्विनी-आश्रम समीप थी।

एक बड़ी रमणीय-वाटिका॥

वह इस समय विपुल-विलसितथी।

मिले सिता की दिव्य साटिका॥11॥

 

 

उसमें अनुपम फूल खिले थे।

मंद-मंद जो मुसकाते थे॥

बड़े भले-भावों से भर-भर।

भली रंगतें दिखलाते थे॥12॥

 

छोटे-छोटे पौधे उसके।

थे चुप खड़े छबि पाते॥

हो कोमल-श्यामल-दल शोभित।

रहे श्यामसुन्दर कहलाते॥13॥

 

रंग-बिरंगी विविध लताएँ।

ललित से ललित बन विलसित थीं॥

किसी कलित कर से लालित हो।

विकच-बालिका सी विकसित थीं॥14॥

 

इसी वाटिका में निर्मित था।

एक मनोरम-शन्ति-निकेतन॥

जो था सहज-विभूति-विभूषित।

सात्तिवकता-शुचिता-अवलम्बन॥15॥

 

था इसके सामने सुशोभित।

एक विशाल-दिव्य-देवालय॥

जिसका ऊँचा-कलस इस समय।

बना हुआ था कान्त-कान्तिमय॥16॥

 

शान्ति-निकेतन के आगे था।

एक सित-शिला विरचित-चत्वर॥

उस पर बैठी जनक-नन्दिनी।

देख रही थीं दृश्य-मनोहर॥17॥

 

प्रकृति हँस रही थी नभतल में।

हिम-दीधित को हँसा-हँसा कर॥

ओस-बिन्दु-मुक्तावलि द्वारा।

गोद सिता की बार-बार भर॥18॥

 

 

चारु-हाँसिनी चन्द्र-प्रिया की।

अवलोकन कर बड़ी रुचिर-रुचि॥

देखे उसकी लोक-रंजिनी।

कृति, नितान्त-कमनीय परम शुचि॥19॥

 

जनक-सुता उर द्रवीभूत था।

उनके दृग से था जल जाता॥

कितने ही अतीत-वृत्तों का।

ध्यान उन्हें था अधिक सताता॥20॥

 

कहने लगीं सिते! सीता भी।

क्या तुम जैसी ही शुचि होगी॥

क्या तुम जैसी ही उसमें भी।

भव-हित-रता दिव्य-रुचि होगी॥21॥

 

तमा-तमा है तमोमयी है।

भाव सपत्नी का है रखती॥

कभी तुमारी पूत-प्रीति की।

स्वाभाविकता नहीं परखती॥22॥

 

फिर भी 'राका-रजनी' कर तुम।

उसको दिव्य बना देती हो॥

कान्ति-हीन को कान्ति-मती कर।

कमनीयता दिखा देती हो॥23॥

 

जिसे नहीं हँसना आता है।

चारु-हासिनी वह बनती है॥

तुमको आलिंगन कर असिता।

स्वर्गिक-सितता में सनती है॥24॥

 

ताटंक

नभतल में यदि लसती हो तो,

भूतल में भी खिलती हो।

दिव्य-दिशा को करती हो तो,

विदिशा में भी मिलती हो॥25॥

 

बहु विकास विलसित हो वारिधि,

यदि पयोधि बन जाता है।

तो लघु से लघुतम सरवर भी,

तुमसे शोभा पाता है॥26॥

 

गिरि-समूह-शिखरों को यदि तुम,

मणि-मण्डित कर पाती हो।

छोटे-छोटे टीलों पर भी,

तो निज छटा दिखाती हो॥27॥

 

सुजला-सुफला-शस्य श्यामला,

भू जो भूषित होती है।

तुमसे सुधा लाभ कर तो मरु-

महि भी मरुता खोती है॥28॥

 

रम्य-नगर लघु-ग्राम वरविभा,

दोनों तुमसे पाते हैं।

राज-भवन हों या कुटीर, सब

कान्ति-मान बन जाते हैं॥29॥

 

तरु-दल हों प्रसून हों तृण हों,

सबको द्युति तुम देती हो।

औरों की क्या बात रजत-कण,

रज-कण को कर लेती हो॥30॥

 

घूम-घूम करके घनमाला,

रस बरसाती रहती है।

मृदुता सहित दिखाती उसमें,

द्रवण-शीलता महती है॥31॥

 

 

है जीवन-दायिनी कहाती,

ताप जगत का हरती है।

तरु से तृण तक का प्रतिपालन,

जल प्रदान कर करती है॥32॥

 

किन्तु महा-गर्जन-तर्जन कर,

कँपा कलेजा देती है।

गिरा-गिरा कर बिजली जीवन

कितनों का हर लेती है॥33॥

 

हिम-उपलों से हरी भरी,

खेती का नाश कराती है।

जल-प्लावन से नगर ग्राम,

पुर को बहु विकल बनाती है॥34॥

 

अत: सदाशयता तुम जैसी,

उसमें नहीं दिखाती है।

केवल सत्प्रवृत्ति ही उसमें,

मुझे नहीं मिल पाती है॥35॥

 

तुममें जैसी लोकोत्तरता,

सहज-स्निग्धाता मिलती है।

सदा तुमारी कृति-कलिका जिस-

अनुपमता से खिलती है॥36॥

 

वैसी अनुरंजनता शुचिता,

किसमें कहाँ दिखाती है।

केवल प्रियतम दिव्य-कीर्ति ही-

में वह पाई जाती है॥37॥

 

 

हाँ प्राय: वियोगिनी तुमसे,

व्यथिता बनती रहती है।

देख तुमारे जीवनधन को,

मर्म-वेदना सहती है॥38॥

 

यह उसका अन्तर-विकार है,

तुम तो सुख ही देती हो।

आलिंगन कर उसके कितने-

तापों को हर लेती हो॥39॥

 

यह निस्स्वार्थ सदाशयता यह,

वर-प्रवृत्ति पर-उपकारी।

दोष-रहित यह लोकाराधन,

यह उदारता अति-न्यारी॥40॥

 

बना सकी है भाग्य-शालिनी,

ऐ सुभगे तुमको जैसी।

त्रिभुवन में अवलोक न पाई,

मैं अब तक कोई वैसी॥41॥

 

इस धरती से कई लाख कोसों-

पर कान्त तुमारा है।

किन्तु बीच में कभी नहीं।

बहती वियोग की धारा है॥42॥

 

लाखों कोसों पर रहकर भी,

पति-समीप तुम रहती हो।

यह फल उन पुण्यों का है,

तुम जिसके बल से महती हो॥43॥

 

क्यों संयोग बाधिका बनती,

लाखों कोसों की दूरी॥

क्या होती हैं नहीं सती की

सकल कामनाएँ पूरी?॥44॥

 

 

ऐसी प्रगति मिली है तुमको,

अपनी पूत-प्रकृति द्वारा।

है हो गया विदूरित जिससे,

प्रिय-वियोग-संकट सारा॥45॥

 

सुकृतिवती हो सत्य-सुकृति-फल,

सारे-पातक खोता है।

उसके पावन-तम-प्रभाव में,

बहता रस का सोता है॥46॥

 

तुम तो लाखों कोस दूर की,

अवनी पर आ जाती हो।

फिर भी पति से पृथक न होकर,

पुलकित बनी दिखाती हो॥47॥

 

मुझे सौ सवा सौ कोसों की,

दूरी भी कलपाती है।

मेरी आकुल ऑंखों को।

पति-मूर्ति नहीं दिखलाती है॥48॥

 

जिसकी मुख-छवि को अवलोके,

छबिमय जगत दिखाता है।

जिसका सुन्दर विकच-वदन,

वसुधा को मुग्ध बनाता है॥49॥

 

जिसकी लोक-ललाम-मूर्ति,

भव-ललामता की जननी है।

जिसके आनन की अनुपमता,

परम-प्रमोद प्रसविनी है॥50॥

 

 

जिसकी अति-कमनीय-कान्ति से,

कान्तिमानता लसती है।

जिसकी महा-रुचिर-रचना में,

लोक-रुचिरता बसती है॥51॥

 

जिसकी दिव्य-मनोरमता में,

रम मन तम को खोता है।

जिसकी मंजु माधुरी पर,

माधुर्य निछावर होता है॥52॥

 

जिसकी आकृति सहज-सुकृति,

का बीज हृदय में बोती है।

जिसकी सरस-वचन की रचना,

मानस का मल धोती है॥53॥

 

जिसकी मृदु-मुसकान भुवन-

मोहकता की प्रिय-थाती है।

परमानन्द जनकता जननी,

जिसकी हँसी कहाती है॥54॥

 

भले-भले भावों से भर-भर,

जो भूतल को भाते हैं।

बड़े-बड़े लोचन जिसके,

अनुराग-रँगे दिखलाते हैं॥55॥

 

जिनकी लोकोत्तर लीलाएँ,

लोक-ललक की थाती हैं।

ललित-लालसाओं को विलसे,

जो उल्लसित बनाती हैं॥56॥

 

आजीवन जिनके चन्द्रानन की-

चकोरिका बनी रही।

जिसकी भव-मोहिनी सुधा प्रति-

दिन पी-पी कर मैं निबही॥57॥

 

जिन रविकुल-रवि को अवलोके,

रही कमलिनी सी फूली।

जिनके परम-पूत भावों की,

भावुकता पर थी भूली॥58॥

 

 

सिते! महीनों हुए नहीं उनका,

दर्शन मैंने पाया।

विधि-विधान ने कभी नहीं,

था मुझको इतना कलपाया॥59॥

 

जैसी तुम हो सुकृतिमयी जैसी-

तुममें सहृदयता है।

जैसी हो भवहित विधायिनी,

जैसी तुममें ममता है॥60॥

 

मैं हूँ अति-साधारण नारी,

कैसे वैसी मैं हूँगी।

तुम जैसी महती व्यापकता,

उदारता क्यों पाऊँगी॥61॥

 

फिर भी आजीवन मैं जनता-

का हित करती आयी हूँ।

अनहित औरों का अवलोके,

कब न बहुत घबराई हूँ॥62॥

 

जान बूझ कर कभी किसी का-

अहित नहीं मैं करती हूँ।

पाँव सर्वदा फूँक-फूँक कर,

धरती पर मैं धरती हूँ॥63॥

 

फिर क्यों लाखों कोसों पर रह,

तुम पति पास विलसती हो।

बिना विलोके दुख का आनन,

सर्वदैव तुम हँसती हो॥64॥

 

और किसलिए थोड़े अन्तर,

पर रह मैं उकताती हूँ।

बिना नवल-नीरद-तन देखे,

दृग से नीर बहाती हूँ॥65॥

 

 

ऐसी कौन न्यूनता मुझमें है,

जो विरह सताता है।

सिते! बता दो मुझे क्यों नहीं,

चन्द्र-वदन दिखलाता है॥66॥

 

किसी प्रिय सखी सदृश प्रिये तुम,

लिपटी हो मेरे तन से।

हो जीवन-संगिनी सुखित-

करती आती हो शिशुपन से॥67॥

 

हो प्रभाव-शालिनी कहाती,

प्रभा भरित दिखलाती हो।

तमस्विनी का भी तम हरकर,

उसको दिव्य बनाती हो॥68॥

 

मेरी तिमिरावृता न्यूनता,

का निरसन त्योंही कर दो।

अपनी पावन ज्योति कृपा-

दिखला, मम जीवन में भर दो॥69॥

 

कोमलता की मूर्ति सिते हो,

हितेरता कहलाओगी।

आशा है आयी हो तो तुम,

उर में सुधा बहाओगी॥70॥

 

अधिक क्या कहूँ अति-दुर्लभ है,

तुम जैसी ही हो जाना।

किन्तु चाहती हूँ जी से तव-

सद्भावों को अपनाना॥71॥

 

जो सहायता कर सकती हो,

करो, प्रार्थना है इतनी।

जिससे उतनी सुखी बन सकूँ,

पहले सुखित रही जितनी॥72॥

 

सेवा उसकी करूँ साथ रह,

जी से जिसकी दासी हूँ।

हूँ न स्वार्थरत, मैं पति के-

संयोग-सुधा की प्यासी हूँ॥73॥

 

दोहा- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इतने में घंटा बजा उठा आरती-थाल।

द्रुत-गति से महिजा गईं मन्दिर में तत्काल॥74॥

वैदेही वनवास-सर्ग (11-18)- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ayodhya Singh Upadhyay) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!