सूफ़ियाना-कलाम (भाग-2) नज़ीर Sufiyana Kalam (Part-2) Nazeer

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Sufiyana-Kalam-Nazeer-Akbarabadi

सूफ़ियाना-कलाम (भाग-2) नज़ीर अकबराबादी
Sufiyana Kalam (Part-2) Nazeer Akbarabadi

16. तवक्कुल - नज़ीर अकबराबादी

ऐ दिल! कहीं तू जाके न अपनी जुबां हिलाये।
और दर्द अपने दिल का किसी को तू मत सुनाये॥
मांग उससे जिसके हाथ से तू पेट भरके खाये।
मशहूर यह मसल है कहूं क्या मैं तुझसे हाये॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये?
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥1॥

क़ादिर, क़दीर ख़ालिक़ो-हाकिम हकीम है।
मालिक, खालिक हैय्यो तवाना क़दीम है॥
दोनों जहां से जात उसी की क़रीम है॥
यानी उसी का नाम ग़फूरुर्रहीम है॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये?
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥2॥

सत्तार जुलजलाल ख़ुदावंद, किर्दगार।
रज़्ज़ाक कारसाज, मददगार, दोस्तगार॥
इंसान, देव जिनो परी, फ़ीलो मोरो मार।
जारी उसी के हाथ से हैं सब के कारोबार॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥3॥

कहने के तई अगरचे,वह बेनियाज़ है।
पर सब नियाज-मंदों को उस पर ही नाज़ है॥
जितने हैं बन्दे सबका वह बन्दा नवाज है॥
जितनी है ख़ल्क, सबका वही कारसाज़ है॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥4॥

अहले जहां हैं जितने, तू इन सबका छोड़ साथ।
ने पांव पड़ किसी के, तू ऐ दिल, न जोड़ हाथ॥
दो हाथ वाले जितने हैं, इन सबसे मोड़ हाथ।
उससे ही मांग, जिसके हैं, अब सौ करोड़ हाथ॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥5॥

उसके सिवा किसी के कने गर जू जायेगा।
इस आबरू को अपनी, तू नाहक़ गंवायेगा॥
शर्मिन्दा होके यूं ही, तू ख़ाली फिर आयेगा।
बिन हुक्म उसके यार, तू एक जौ न पायेगा॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥6॥

ज़र, सीमो-लाल दुर को तू बारे उसी से मांग।
सन्दूक मालोधन के पिटारे उसी से मांग॥
पैसा भी मांगता है तो जारे उसी से मांग।
कौड़ी भी मांगता है, तो प्यारे उसी से मांग॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥7॥

नैमत, मिठाई, शीरा, शकर, नान उसी से मांग।
कौड़ी की हल्दी मिर्च भी, हर आँ उसी से मांग॥
कमख़्वाब ताश गाढ़ा, गज़ी हां, उसी से मांग।
जो तुझको चाहिए, सो मेरी जां! उसी से मांग॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥8॥

गर वह दिलाया चाहे, तो दुश्मन से ला दिलाये।
और जो न दे तो दोस्त भी फिर अपना मुंह छिपाये॥
बिन हुक्म उसके रोटी का टुकड़ा न हाथ आये।
गर चुल्लू पानी मांगो, हरग़िज न कोई पिलाये॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥9॥

ज़रदार जिसको समझा है तू सेठ साहूकार।
यह सब उसी से मांगे हैं दिन रात बार-बार॥
हरगिज किसी के सामने, मत हाथ को पसार।
पूरी तेरी उसी के दिये से पड़ेगी यार॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥10॥

ज़रदार मालदार के, मत फिर तू आस पास।
मोहताजगी से आप, वह बैठा है जी उदास।
मां, बाप, यार, दोस्त, जिगर सबसे हो निरास।
हर दम उसी करीम की, सब अपने दिल में आस।
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥11॥

उम्दा हैं जितने खल्क़ में, क्या शाह, क्या वज़ीर।
अल्लाह ही ग़नी है, और हैं यह सब फ़क़ीर॥
क्या गंजो-मुल्को-मालो-मकां, ताज क्या सरीर।
जो मांगना है मांगो उसी से मियां ‘नज़ीर’॥
गैर अज़ खु़दा के किस में है कु़दरत जो हाथ उठाये।
मक़दूर क्या किसी का, वही दे वही दिलाये॥12॥
(तवक्कुल=अल्लाह पर भरोसा करना,
मसल=कहावत,लोकोक्ति, गैर अज़ खु़दा=ईश्वर के
अतिरिक्त, मक़दूर=शक्ति, क़ादिर=कुदरतवाला,
क़दीर=ताक़तवर, ख़ालिक़=पैदा करने वाला,
हैय्यो=खु़दा का नाम, तवाना=शक्तिशाली, क़दीम=
अनादि,बहुत पुरने ज़माने का, ग़फूरुर्रहीम=क्षमावान,
सत्तार=दोष छिपाने वाला, जुलजलाल=तेज और
प्रताप वाला, ख़ुदावंद=मालिक,स्वामी, किर्दगार=
सर्व-शक्तिमान, रज़्ज़ाक=अन्नदाता, बेनियाज़=
जिसे कुछ लेने की इच्छा न हो, नियाज-मंदों=
आज्ञाकारी,भक्त, अहले जहां=दुनियां में रहने
वाले, कने=पास, ज़र=माल,दौलत, सीम=चाँदी,
दुर=मोती, बारे=आखिरकार, ज़रदार=मालदार,
ग़नी=मालदार, गंज=निधि,ख़जाना)

17. ग़फ़लत का ख़्वाब - नज़ीर अकबराबादी

जब यार ने उठाई छड़ी तब ख़बर पड़ी।
और जो ही एक बदन पै जड़ी तब ख़बर पड़ी॥
उल्फ़त की आग दिल में पड़ी तब ख़बर पड़ी।
जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी॥
ग़फ़लत की गर्द दिल से झड़ी तब ख़बर पड़ी॥1॥

जब तक चढ़ी जवानी थी, और बाल थे सियाह।
उल्फ़त, किसी से प्यार, मुहब्बत किसी से चाह॥
आई शराब इसमें, बुढ़ापे की ख़्वाह मख़्वाह।
पहले के जाम में न हुआ कुछ, नशा तो आह॥
दिलबर ने दी जब उससे कड़ी तब ख़बर पड़ी॥2॥

थे जब तलक अधेड़ रहे तो भी बलबले।
और जब सफ़ेद होके हुए बर्फ़ के डले॥
यारों से जब तो बोले कि यारो लो हम चले।
लाये थे हम तो उम्र, पटा यां लिखा वले॥
जब स्याही पर सफे़दी चढ़ी तब ख़बर पड़ी॥3॥

डाढ़ी की जबकि रात गई और सुबह हुई।
तो भी यह दिल में खु़श थे कि मरना नहीं अभी॥
दिलबर खड़ा बजावे था, घड़ियाल उम्र की।
सुन-सुन के सुन तो होते थे पर कुछ खबर न थी॥
बाजी जब आ गजर की घड़ी तब ख़बर पड़ी॥4॥

उस हाल पर भी कुछ न हुई दीद और शुनीद।
दांतों पर इसमें आन के हल-चल पड़ी शदीद॥
मुंशी क़ज़ा का लिखने लगा, जिन्स की रसीद।
डाढें लगीं उखड़ने को, दन्दां हुए शहीद॥
मजलिस में चल बचल यह पड़ी तब ख़बर पड़ी॥5॥

इस पोपले ही मुंह से लगे करने फिर निबाह।
कानों के इसमें आन के पर्दे हुए तबाह॥
गर्दन फिर इसमें हिलने लगी, कम हुई निगाह।
बिन दांत भी हंसे पे, जब आंखें चलीं तो आह॥
जब लागी आंसुओं की झड़ी तब ख़बर पड़ी॥6॥

ढाते थे वां मजूर, तो तन की महल सरा।
यह घर बना रहे थे दिवालें उठा उठा॥
इसमें क़जा का राज, जो कोठे पे आ चढ़ा।
शहतीर सा जो क़द था, सो ख़म होके झुक गया॥
गिरने लगी कड़ी पे कड़ी, तब ख़बर पड़ी॥7॥

कुबड़े हुए तो जब भी न समझे यह होशियार।
यानी कि अब तो बांधिये, घोड़े पे बोझ भार॥
फिर इसमें आके सर ने लिया पांव पर क़रार।
चौगान से कमर के बना सर की गेंद मार॥
खेला जब आके गेंद तड़ी तब ख़बर पड़ी॥8॥

यह तो लगाये बैठे थे अपनी बड़ी दुकान।
थे गर्क़ लेन देन में और कुछ न था ध्यान॥
लेखा जब इसमें उम्र का ड्योढा हुआ जब आन।
कुप्पा जो लुट चला न हुआ तब भी कुछ ज्ञान॥
जब लुट गई धड़ी की धड़ी तब ख़बर पड़ी॥9॥

बिस्तर पे जब तो आन पड़े, लौट कर निढाल।
उठने दे कौन? आह! जो करवट हुआ मुहाल॥
होने लगी फ़रिश्तों से नज़रों में कीलोक़ाल।
जी ग़श में डूबा तो भी न था कूच का ख़याल॥
जब सांस आ गले में अड़ी, तब ख़बर पड़ी॥10॥

छाती पे चढ़ क़ज़ा ने लिया, जब गले को घूंट।
पानी का फिर तो आह, न उतरा गले से घूंट॥
उखड़ी बदन से जान भी रग-रग से छूट-छूट।
पंजा दिखाया शेर ने तो भी यह समझे झूट॥
जब चाब ली गले की नड़ी तब ख़बर पड़ी॥11॥

कांधे पै रख पालकी ले आए जब कहार।
और गुल मचाके बोले कि जल्दी से हो सवार॥
इसमें नहाके आप भी, जल्दी हुए तैयार।
कपड़े बदल के इत्र लगा, पहन फूल हार॥
निकली सवारी धूम पड़ी तब ख़बर पड़ी॥12॥

जब पालकी में चढ़ के चला आपका बदन।
कलमा नक़ीब पढ़ते चले साथ, कर फबन॥
तो भी यह कहते थे हुआ कौन बेवतन?
जब आये उस गढ़े में "नज़ीर" और हज़ार मन॥
ऊपर से आके ख़ाक़ पड़ी, तब ख़बर पड़ी॥13॥
(दीद और शुनीद=देखना और सुनना, दन्दां=दांत,
महल सरा=रनवास,जनानखाना, मुहाल=मुश्किल,
कीलोक़ाल=वाद-विवाद, नक़ीब=आगे-आगे आवाज़
लगाने वाले)

18. तंबीहुल गाफ़िलीन - नज़ीर अकबराबादी

जहां है जब तलक यां सैकड़ों शादीयो-ग़म होंगे।
हज़ारों आशिक़े जां बाज़ और लाखों सनम होंगे॥
किनारो-बोस और ऐशो-तरब, भी दम बदम होंगे।
मगर जितने यह अपनी सफ़ के हैं यह सब अदम होंगे॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥1॥

तुम्हारा अब है जितना, हुस्न का आलम ग़नीमत है।
अगर है बेश तो बेहतर, वगरना कम ग़नीमत है॥
हमारा देखना और आशिक़ी का दम ग़नीमत है।
भरोसा कुछ नहीं दम का, अज़ीज़ों दम ग़नीमत है॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥2॥

चमन में चल के बैठो, और सुराही जाम मंगवाओ।
पियो भर-भर के सागर तुम भी, और हमको भी पिलवाओ॥
गले लिपटो हमारे, और हमें हंस हंस के बोसा दो।
अजल काफ़िर खड़ी है सर पे ऐ! दिलदार सुनते हो॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥3॥

हमारी चश्म में आए तुम्हारे आरिज़ गुलगूं।
ग़रज तुम वक़्त के लैला हो प्यारे और हम मजनूं॥
घड़ी भर बैठ कर हम पास कर लो ऐशे बू कलमूं।
किसी के कहने सुनने पर न जाओ देखो कहता हूं॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥4॥

उछल लो, कूद लो, है जब तलक यह ज़ोर नलियों में।
ग़नीमत है वही दम, अब जो गुज़रे रंग रलियों में॥
हमें लो साथ और सैरें करो, फूलों की कलियों में।
फिरेगी फिर तो आखिर तन की उड़ती ख़ाक गलियों में॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥5॥

अगर सीना हमारा तुमने चक्की की तरह राहा।
तो अब जल्दी गले मिलकर, लगादो ऐश का फ़ाहा॥
मुए पर किसने पूछा दिलबरो और किस ने फिर चाहा।
हमें तो रोना आता है, यही कह कर, अहा! हा! हा!॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥6॥

जो आगे आशिको-माशूक थे सब मिल गए गिल में।
अजल की तेग़ से दोनों के तुक्के उड़ गए तिल में॥
न क़ातिल में रहा जी और न उस क़ातिल के बिस्मिल में।
तो बस ऐ दिलबरों! तुम भी यही अब जान लो दिल में॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥7॥

अगर तुमने हमारे दिल को दुःख दे देके तरसाया।
ग़लत फ़हमी तुम्हारी याकि जिसने तुमको सिखलाया॥
गया जब वक़्त काफ़िर हाथ से फिर हाथ कब आया।
ग़रज हमने तो अब भी और तुम्हें आगे भी समझाया॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥8॥

हमारे और तुम्हारे हक़ में है अब तो यही बेहतर।
कि देखें चांदनी और सैर दरिया की करें जाकर॥
कभी लिपटें गले से, और कभी मै के पियें साग़र।
यही कहने को रह जावेगा आखि़र ऐ मेरे दिलबर॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥9॥

अगर वरसात हो या अब्र हो, या मेंह बरसता हो।
पहन पोशाक रंगी और हमारे बर में आ बैठो॥
अदाओ-नाज़ो-ग़मजे़, चोंचले करने हो सो कर लो।
फ़लक कब चैन देता है, मेरी जां फिर तो आखिर को॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥10॥

ऊधर वां हुस्न की मस्ती, इधर यां इश्क की रै है।
चमन है अब्र है, साक़ी सुराही, जाम और मै है॥
जो करना हो सो कर लो, इस घड़ी सब ऐश की शै है।
ग़ज़ब है, क़हर है, जब जी निकल जावेगा फिर ऐ है॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥11॥

अभी यां उल्फ़तें बढ़ती हैं और वां नाज़ की घातें।
ग़नीमत हैं तमाचे प्यार के और चाह की लातें॥
जब आंखें मुंद गई, सब हो चुकीं चितवन इशारातें।
कहां फिर दिन मजे़ के और कहां यह ऐश की रातें॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥12॥

हमें है बेकरारी और तुम्हें हरदम तरहदारी।
ग़नीमत है हमारी और तुम्हारी गर्म बाज़ारी॥
"नज़ीर" अब क्या कहे आगे ग़रज आखि़र व लाचारी।
कहां फिर हम, कहाँ फिर तुम, कहाँ उल्फ़त, कहाँ यारी॥
न यह चुहलें, न यह धूमें, न यह चर्चे बहम होंगे।
मियां! एक दिन वह आवेगा, न तुम होगे न हम होंगे॥13॥
(शादीयो-ग़म=खुशी और रंज, किनारो-बोस=गोद लेना-चुंबन
करना, ऐशो-तरब=भोग-विलास का आनन्द, सफ़=पंक्ति,
अदम=यमलोक,मृत, बहम=आपस में, बेश=अधिक, सागर=
शराब का जग, अजल=मौत, आरिज़=कपोल, गुलगूं=
गुलाब जैसे रंग वाले, ऐशे बू कलमूं=ऐशो-आराम की बातें,
राहा=चक्की राहना,पीसना, गिल=मिट्टी, अजल=मौत,
बिस्मिल=तड़पने वाला, अब्र=बादल, बर=ऊपर, अदाओ-
नाज़ो-ग़मजे़=हाव-भाव, फ़लक=आसमान,भाग्य)

19. ख़ुदा की दी हुई नेमतें - नज़ीर अकबराबादी

यह नेंमतें अयां हैं जा आलम के वास्ते।
हैंगी यह सब मियां! इसी आदम के वास्ते।
कुछ तन के वास्ते हैं कुछ शिकम के वास्ते।
है बेश-बेश के लिए, कम-कम के वास्ते।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥1॥

महबूब गुलइज़ार, परी ज़ाद सुर्ख फ़ाम।
मुतरिब, शराब, साक़ियो मीना, सुराही जाम।
नाज़ो अदाओ चोचले दौलत की धूमधाम।
हस्ती निशातो इश्रतो, ऐशो तरब मुदाम।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥2॥

असबाब इश्रतों के हैं जितने जहाँ तहां।
गुलदान, पानदान, इत्रदान ज़र फ़िशां।
हुक्के भरे चमकते हैं, और नैचे पेंचवां।
मुश्को, गुलाबो, इत्रों, चमन, बाग़ो वोस्तां।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥3॥

जितने जवाहिरात हैं सुर्ख़ो सफे़दो, लाल।
याकू़त लाल, यमनियो नीलम फ़लक मिसाल।
फ़ीरोज़ा मूंगा, मोतियो पुखराज ख़ुश खि़साल।
ज़र सीम, फ़ोज, हश्मतो-इमलाक, गंजो माल।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥4॥

मेवे हैं जितने खुश्को तर इस बाग़ में लगे।
बादाम, पिस्ते, दाख, छुहारे व खेंपरे।
ख़रबूजे, आम, जामनो, लीमूं चकोतरे।
नारंगियो, अनार वही, केले संगतरे।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥5॥

दुनियां में जितने लोग हैं, क्या शाह क्या फ़कीर।
सब सुख में हैं, पर एक न एक दुःख में है असीर।
क्या इश्रतें बहार की, क्या ऐश दिल पज़ीर।
जिन जिन का तुमने नाम लिया अब मियां "नज़ीर"।
सब खू़बियां बनी हैं, यह आदम के वास्ते॥
और दम बना है आह! फ़क़त ग़म के वास्ते॥6॥
(अयां=प्रकट, शिकम=पेट, गुलइज़ार=गुलाब जैसे
सुकुमार और कोमल गालों वाला, परी ज़ाद=परियों
की औलाद, सुर्ख फ़ाम=जिसके शरीर का रंग लाल
हो, मुतरिब=गायक, मीना=शराब का जग, निशात=
खुशी, इश्रतो=भोग विलास का सुख, ऐशो तरब=भोग
विलास का आनन्द, मुदाम=सदैव, ज़र फ़िशां=सोना
बरसाने वाला, पेंचवां=पेचदार, मुश्को=कस्तूरी, वोस्तां=
उद्यान,बाग, याकू़त=एक प्रसिद्ध रत्न, यमनियो=यमन
सम्बन्धी, फ़लक मिसाल=आसमान जैसा, फ़ीरोज़ा=
हरित मणि, ख़ुश खि़साल=खुश करने वाले स्वभाव के,
हश्मतो-इमलाक=सम्मान-स्वामित्व, असीर=बन्दी,
दिल पज़ीर=रुचिकर,दिलपसंद)

20. फ़ना (मौत)-1 - नज़ीर अकबराबादी

दुनियां में कोई शाद कोई दर्दनाक है।
या खु़श है, या अलम के सबब सीना चाक है।
हर एक दम से जान का, हर दम तपाक है।
नापाक तन पलीद, नजिस या कि पाक है।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥1॥

है आदमी की ज़ात का इस जा बड़ा ज़हूर।
ले अर्श-ता-बा-फ़र्श चमकता है जिसका नूर।
गुज़रे हैं उनकी क़ब्र पे जब वह्श और तयूर ।
रो-रो यही कहे हैं, हर एक क़ब्र के हुजूर।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥2॥

दुनिया से जबकि अम्बिया और औलिया उठे।
अजसाम पाक उनके इसी ख़ाक में रहे।
रूहें हैं खूब हाल में, रूहों के हैं मजे़।
पर जिस्म से तो अब यही, साबित हुआ मुझे।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥3॥

वह शख़्स थे जो सात विलायत के बादशाह।
हश्मत में जिनकी अर्श से ऊंची थीं बारगाह।
मरते ही उनके तन हुए गलियों की ख़ाक-राह।
अब उनके हाल की भी यही बात है गवाह।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥4॥

किस-किस तरह के होगए महबूब कज कुलाह।
तन जिनके मिस्ल फूल थे और मुँह भी रश्के-माह।
जाती है उनकी क़ब्र पे जिस दम मेरी निगाह।
रोता हूं तब तो मैं यही कह-कह के दिल में आह।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥5॥

वह गोरे-गोरे तन, कि जिन्हों की थी दिल में जाय।
होते थे मैले, उनके कोई हाथ गर लगाय।
सो वैसे तन को ख़ाक, बनाकर हवा उड़ाय।
रोना मुझे तो आता है, अब क्या कहूं मैं हाय।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥6॥

उम्दों के तन को तांबे के सन्दूक में धरा।
मुफ़्लिस का तन पड़ा रहा, माटी उपर पड़ा।
क़ायम यहां यह और न साबित वह वां रहा।
दोनों को ख़ाक खा गई, यारो! कहूं मैं क्या।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥7॥

गर एक को हज़ार, रूपे का मिला कफ़न।
और एक यूं पड़ा रहा, बेकस, बरहना तन।
कीड़े मकोड़े खा गए, दोनों के तन बदन।
देखा जो हमने आह, तो सच है यही सुखन।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥8॥

जितने जहां में नाज हैं, कंगनी से ता गेहूं।
और जितने मेवाज़ात हैं, तर खु़श्क गुनांगूं।
कपड़े जहां तलक हैं, सुपेदो, सिया, नमूं।
कमख़्वाब, ताश, बादला, किस किस का नाम लूं।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥9॥

जितने दरख्त देखो हो, बूटे से तावा झाड़।
बड़, पीपल, आम, नीब, छुआरा, ख़जूर ताड़।
सब ख़ाक होंगे, जबकि फ़ना डालेगी उखाड़।
क्या बूटे डेढ़ पात के, क्या झाड़, क्या पहाड़।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥10॥

जितना यह ख़ाक का है, तिलिस्मात बन रहा।
फिर ख़ाक इसको होना है, यारो जुदा-जुदा।
तरकारी, साग, पात, ज़हर, अमृत और दवा।
ज़र सीम, कौड़ी, लाल, जुमुर्रद और उन सिवा।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥11॥

गढ़, कोट, तोप रहकला, तेगो, कमानोतीर।
बाग़ो चमन, महलो मकानात दिल पज़ीर।
होना है सबको आह, इसी ख़ाक में ख़मीर।
मेरी जुवां पे अब तो, यही बात है "नज़ीर"।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥12॥
(शाद=खुश, अलम=रंज, पलीद=गन्दा, नजिस=
अपवित्र, ज़हूर=ज़ाहिर होना, अर्श-ता-बा-फ़र्श=
आसमान से ज़मीन तक, वह्श और तयूर=
जंगली जानवर और चिड़ियाँ, खूब हाल=सुख
चैन, हश्मत=रौब-दाब,सम्मान, बारगाह=शाही
मकान,दरबार, महबूब कज कुलाह=टेढ़ी टोपी
पहनने वाले माशूक, रश्के-माह=चांद की प्रभा
कौ मंद कर देने वाले, मुफ़्लिस=गरीब, बरहना=
नंगा, ज़र=माल,दौलत, सीम=चांदी, जुमुर्रद=
पन्ना, रहकला=तोप लादने की गाड़ी)

21. फ़ना (मौत)-2 - नज़ीर अकबराबादी

पढ़ इल्म कई इस दुनियां में, गर कामिल जी इद्राक हुए।
और लाद किताबें ऊंटों पर, हर मानी के दर्राक हुए।
माकूल पढ़ी, मन्कूल पढ़ी, हर मनतक़ में चालाक हुए।
या कितने इल्म के दरिया हैं, उन दरिया के पैराक हुए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥1॥

रम्माल, नुजूमी, जफ़री हो, या गै़बों के अहकाम कहे।
कुल तारे छान लिये सारे और फेंके तख़्तों पर कु़रए।
मुंह देख अजल की शक्लों का, सब दाखि़ल ख़ारिज भूल गए।
न तख़्ते कु़रए काम आए न रमल जफ़र कुछ पेश गए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥2॥
मशहूर हकीम और बैद हुए, यां पढ़कर इल्म तिबावत का।
दालान किताबों से रोका, और नुस्खों से सन्दूक भरा।
जब मौत मरज़ ने आन लिया, सब भूले नब्ज़ और क़ाकरा।
गो नुस्खे़ लाख मुजर्रब थे, पर काम न आया एक नुस्ख़ा।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥3॥

ले हाथ क़लम और बांध सिपर गर हुए सिपाही मुतसद्दी।
दिन रात लड़े गढ़ काग़ज से, शमशीर खिची और क़लम चली।
जब कलक क़जा ने हर्फ़ लिखे, और सेफ़ अजल की आ चमकी।
यां दफ़्तर तबलक डूब गए, वां तेग़सिपर भी पट्ट पड़ी।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥4॥

या कोठी कर कर सेठ हुए, या खोद जमीं को खेती की।
लिख डाली बहियां लाखों की, बो डाली धरती बुरी भली।
जब हुंडी आई मालिक की, और आकर जम की भीज लगी।
यां कोठी कोठे बैठ गए, वां खेती बाड़ी खेत रही।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥5॥

या मस्त शराबी रिंद हुए, या ज़ाहिद ता मक़दूर हुए।
या पी कर मैं दिल शाद हुए, या चुल्लू में मसरूर हुए।
जब उम्र के प्याले दोनों के, आ साअत पर मामूर हुए।
यां जुब्बे तसबीह दूर हुए, वां साग़र शीशे चूर हुए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥6॥

इस दुनिया की धन दौलत में, गर शाह, सुलेमां जाह चले।
या ठहरे मीर, वज़ीर आजम, या राजा बनकर आह चले।
मुंह देख अजल के लश्कर का, तब लेकर घर की राह चले।
ने हाथी घोड़े संग गए, ने तख़्त छतर हम राह चले।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥7॥

सब छोड़ फ़क़ीर आज़ाद हुए, या दुनियांदारी लूट गए।
या शाल, दोशाले ओढ़ फिरे, या उजले पेबन्द गोट नए।
संग और क़ज़ा के सोटे से, सिर दोनों के जब फूट गए।
याँ सेली तागे टूट गए, वाँ जामे तन के छूट गए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥8॥

या हाकिम या महकूम हुए, या आकिल या माकू़ल हुए।
या ख़ादिम याम ख़दूम हुए, या जाहिल या मजहूल हुए।
ज़रदार हुए, सरदार हुए, मरदूद हुए मक़बूल हुए।
कुछ और न देखा आखि़र को, सब अन्त इसी में धूल हुए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥9॥

कर बैर बख़ीली ज़हर हुए या बख़्शिश में तिर्याक़ हुए।
या नख़्ल हुए पुरमेवों के, या ख़ाली पातों ढाक हुए।
या उम्र गु़जारी इश्रत से, या सौ ग़म में ग़मनाक हुए।
फल फूल खिलाये गुलशन के, या गलियों की ख़ाशाक हुए।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥10॥

हक्काक, मुसव्विर, ज़र गर थे, या हाथ तबर और तेशे थे।
या फेरी से दूकान बसी, या जंगल जंगल बेशे थे।
जो इल्मो हुनर हम सीखे थे और जितने अपने पेशे थे।
बस और ‘नज़ीर’ अब क्या कहिये, सब नाहक़ के अन्देशे थे।
सब जीते जी के झगड़े हैं, सच पूछो तो क्या ख़ाक हुए।
जब मौत से आकर काम पड़ा, सब क़िस्से क़जिये पाक हुए॥11॥
(कामिल=योग्य, इद्राक=अक्लमंद, दर्राक=कुशाग्र बुद्धि,
माकूल=न्याय, मन्कूल=न्यायशास्त्र, मनतक़=इल्म,
क़जिये=झगड़ा,मुकद्दमा, रम्माल=रमल विद्या जानने
वाला, नुजूमी=ज्योतिषी, जफ़री=परोक्षवादी, गै़बों=परोक्ष
भाग्य, अहकाम=आज्ञाएं, कु़रए=पांसे, अजल=मौत,
तिबावत=बैद्यक, क़ाकरा=पेशाब, मुजर्रब=परीक्षा किए
हुए, सिपर=ढाल, मुतसद्दी=प्रबन्धक,हिसाब-किताब
रखने वाला, कलक=अशुभ, सेफ़=तलवार, तबलक=
काग़ज, भीज=मालगुजारी, रिंद=शराबी, संग=पत्थर,
महकूम=शासित, आकिल=बुद्धिमान, माकू़ल=समझदार,
ख़दूम=स्वामी, मरदूद=निकम्मे, बख़ीली=कंजूसी,
ख़ाशाक=कूड़ा-करकट, हक्काक=नगीना जड़ने वाला,
मुसव्विर=चित्रकार, ज़र गर=सुनार, तबर=तबल,
कुल्हाड़ी, तेशे=कुदाल, जंगल बेशे=जंगल में रहने वाले)

22. मौत का धड़का  - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया के बीच यारो, सब ज़ीस्त का मज़ा है।
जीतों के वास्ते ही यह ठाठ सब ठठा है।
जब मर गए तो आखिर, फिर उम्र ख़ाके-पा है।
ने बाप है न बेटा, ने यार आश्ना है।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥1॥

जीतों के दिल को हर दम क्या ऐश पै-व-पै है।
गुलज़ार, नाच, सेरें, साक़ी, सुराही मै है।
जब मर गए तो हरग़िज मैं है न कोई शै है।
इस मर्ग के सितम को, क्या-क्या कहूं मैं है-है।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥2॥

है दम की बात, जो थे मालिक यह अपने घर के।
जब मर गए तो हरगिज़ घर के रहे न दर के।
यूं मिट गए कि गोया थे नक़्श रहगुज़र के।
पूछा न फिर किसी ने ये थे मियां किधर के।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥3॥

मरने के बाद कोई उल्फ़त न फिर जतावे।
ने बेटा पास आवे, ने भाई मुंह लगावे।
जो देखे उनकी सूरत, दहशत से भाग जावे।
इस मर्ग की जफ़ाएँ, क्या क्या कोई सुनावे।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥4॥

पीते थे दूध, शर्बत और चाबते थे मेवा।
मरते ही फिर कुछ उनका, सिक्का रहा न थेवा।
बच्चे यतीम हो गए, बीवी कहाई ‘बेवा’।
इस मर्ग ने उखाड़ा किस किस बदन का लेवा।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥5॥

जब रूह तन से निकली, आना नहीं यहां फिर।
काहे को देखते हैं, यह बाग़ो बोस्तां फिर।
हाथी पे चढ़ के यां फिर घोड़े पे चढ़के वां फिर।
जब मर गए तो लोगों यह इश्रतें कहां फिर।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥6॥

घर हो बहिश्त जिनका और भर रही हो दौलत।
असबाब इश्रतों के, महबूब खूबसूरत।
फिर मरते वक़्त उनको क्यूंकर न होवे हसरत।
क्या सख़्त बेबसी है, क्या सख़्त है मुसीबत।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥7॥

खाने को उनके नेमत सौ सौ तरह की आती।
और वह न पावें टुकड़ा देखो टुक उनकी छाती।
कौड़ी की झोपड़ी भी, छोड़ी नहीं है जाती।
लेकिन "नज़ीर" सब कुछ यह मौत है छुड़ाती।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥8॥
(ज़ीस्त=जीवन, ख़ाके-पा=पैरों की धूल, ने=न,
पै-व-पै=लगातार, मै=शराब, मर्ग=मृत्यु, दर=
दरवाजे़, नक़्श=निशान, रहगुज़र=आम रास्ता,
सड़क, जफ़ाएँ=अत्याचार, थेवा=अंगूठी के नगीने
का पत्थर जिस पर मुहर खुदवा लेते हैं)

23. मौत - नज़ीर अकबराबादी

हर एक को मौत का मज़ा चखना है

दुनियां में अपना जी कोई बहला के मर गया।
दिल तंगियों से और, कोई उकता के मर गया।
आक़िल था वह तो, आपको समझा के मर गया।
बेअक़्ल छाती पीट के, घबरा के मर गया।
दुःख पाके मर गया, कोई सुख पाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥1॥

दिन रात धुन मची है यहां और पड़ी है जंग।
चलती है नित अजल की सिनां गोली और तुफ़ंग।
जिसका कदम बढ़ा वह मुआ वहीं बेदरंग।
जो जी छुपा के भागा, तो उसका हुआ यह रंग।
वह भागने में, तेगो तबर खाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥2॥

पैदा हुए हैं खल्क़ में अब जितने जुज़ओ कुल।
या चुप गुज़ारी उम्र व या घूम कर चुहल।
जब आन कर फ़ना ने, खिलाया अजल का गुल।
काम आई कुछ किसी को, ख़मोशी न शोरो-गुल।
चुपके कोई मुआ कोई चिल्ला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥3॥

गर लाख इश्रतों से रही दिन में धूम धाम।
या सौ मुस़ीबतों से, हुआ ग़म का अज़दहाम।
आखिर को जब अजल ने, किया आन कर सलाम।
ग़म में किसी हसीं के, कोई हो गया तमाम।
कोई हूर, छाती से लिपटा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥4॥

पढ़कर नमाज़ कोई, रहा पाक वा वजू़।
कोई शराब पीके, फिरा मस्त कू-ब-कू।
नापाकी, पाकी, मौत के ठहरी न रूबरू।
कोई इबादतों से मुआ होके सुर्खरू।
नापाक रू स्याह भो, पछता के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥5॥

कर दिल के आइने के तईं, साफ़ एक बार।
कश्फ़े-कु़लूब दिल पे, किया अपने आश्कार।
जब पैक ने अजल के, किया आन कर गु़जार।
काम आई रौशनी, न करामात की बहार।
कामिल फ़क़ीर, खल्क़ में कहला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥6॥

बिलफर्ज गर किसी को हुई याद कीमिया।
या मुफ़्लिसी में एक ने खूने ज़िगर पिया।
कोई ज़्यादा उम्र से, एक दम नहीं जिया।
सूखी किसी ने रोटी चबा, गम में जी दिया।
क़लिया, पुलाब ज़र्दा कोई खाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥7॥

पहना लिबास खूब अगर इत्र का भरा।
या चीथड़ों की गूदड़ी, कोई औढ़ कर फिरा।
आखि़र को जब अजल की, चली आन कर हवा।
पूले के झोंपड़े को, कोई छोड़कर चला।
बाग़ो, मकां, महल, कोई बनवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥8॥

गेसू बढ़ाके कोई, मशायख़ हुआ यहां।
या बेनवा हो कोई, हुआ खुड़मुडा यहां।
जब मुर्शिदे-अजल का, क़दम आया दरमियां।
कोई तो लम्बी दाढ़ी, लिए हो गया रवां।
मूछें, भवें, तलक कोई मुंडवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥9॥

गर एक बेविक़ार हुआ एक क़द्र दार।
सर पर लगा जब आन के, तेगे़ अजल का वार।
वे क़द्री काम आई, किसी का न कुछ विकार।
था वेहया, सो वह तो मुआ खोके नंगो आर।
और जिसको शर्म थी, सो वह शर्मा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥10॥

कोई मोती चाबता था, कोई मोंठ और मटर।
जिस दम क़ज़ा ने हाथ में ली तेग़ और सिपर।
काम आई कुछ फ़क़ीरी, न कुछ तख़्त और छतर।
यह ख़ाक पर मुआ, वह मुआ तख़्त के ऊपर।
थी जिसकी जैसी क़द्र वह बतला के मर गया॥
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥11॥

आशिक़ हो गर किसी ने, किसी गुल की चाह की।
आशिक़ ने अपने, इश्क़ बढ़ाने में जान दी।
और जब अजल की दोनों से आकर लगन लगी।
माशूकी काम आई, किसी की न आशिक़ी।
दिलबर भी अपने हुस्न को, चमका के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥12॥

कितनों में बढ़के ऐसी बढ़ी उल्फ़तों की चाह।
जो जिस्मो जान एक हुए उनके वाह-वाह।
आशिक़ मुआ तो मर गया, माशूक ख्वाम-ख़्वाह।
माशूक मर गया, तो वह आशिक़ भी कर के आह।
उस गुलबदन की क़ब्र उपर जाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥13॥

क्या काली पीली शक्ल के, क्या गोरे गुलइज़ार।
आशिक़ कोई है और कोई माशूक तरहदार।
आक़िल हकीमो, आमिलो, फ़ाज़िल रिसालदार।
पण्डित नुजूमी, वैद, चः नादां, चः होशियार।
दो दिन की शान, हर कोई दिखला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥14॥

क्या ओछी ज़ात पात के, अशराफ़ क्या नजीब।
क़िस्मत से फूटी कौड़ी, किसी को न हुई नसीब।
जिस दम क़ज़ा के हाथ ने, बंद आंख की हबीब।
क्या होशियारो आक़िलो दानाओ क्या तबीब।
कोई ख़जाने ख़ाक़ में गड़वा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥15॥

मरने से पहले मर गए, जो आशिक़ाने ज़ार।
वह ज़िन्दए-अबद हुए, ताहश्र बरक़रार।
क्या कातिबान अहले-क़लम ख़ुश नवीसकार।
जितनी किताबें देखते हो, लाख या हज़ार।
कोई लिख के मर गया, कोई लिखवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥16॥

पीरो मुरीदो शाहो-गदा, मीर और वज़ीर।
सब आन कर अजल के हुए दाम में असीर।
मुफ़्लिस ग़रीब साहिबे ताजो इल्म सरीर।
कौन इस जहाँ में ज़िन्दा रहा ऐ, मियाँ ‘नज़ीर’।
कोई हजारों ऐश, की ठहरा के मर गया॥
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥17॥
(अजल=मौत, सिनां=भाला, तुफ़ंग=बन्दूक या तुपक,
बेदरंग=शीघ्र, तबर=कुल्हाड़ा,फरसा, फ़ना=मौत, अजल
का गुल=मृत्यु का फूल, इश्रतों=खुशी,आनन्द, अज़दहाम=
आधिक्य, पाक वा वजू़=वजू किए हुए,पवित्र, कू-ब-कू=
गली दर गली, नापाकी=अपवित्रता, सुर्खरू=सम्मानित,
कश्फ़े-कु़लूब=दिल की बात, आश्कार=प्रकट, पैक=हरकारा,
दूत, बिलफर्ज=मान लो कि, कीमिया=सोना-चांदी बनाने
की कला, मुफ़्लिसी=गरीबी, गेसू=केश,बाल, मशायख़=
सूफी,पीर, बेनवा=दरिद्र, मुर्शिदे-अजल=मौत का फरिश्ता,
बेविक़ार=बेइज़्जत, आर=शर्म,गैरत, सिपर=ढाल, गुलइज़ार=
गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाले, आमिल=
अमल करने वाला, फ़ाज़िल=पढ़ा लिखा, रिसालदार=फौज
के दस्ते का सरदार, नुजूमी=सितारों के द्वारा भविष्य
बताने वाला ज्योतिषी, नादां=मूर्ख, अशराफ़=शरीफ़ लोग,
नजीब=कुलीन, हबीब=दोस्त, तबीब=हकीम, ज़ार=दिल
से चाहने वाले, ज़िन्दए-अबद=हमेशा जीवित रहने वाले,
ताहश्र=प्रलय तक,कयामत तक, कातिबान=लिखने वाले,
अहले-क़लम=साहित्यकार, ख़ुश नवीसकार=सुन्दर लिखने
वाले, शाहो-गदा=बादशाह व फ़कीर, मीर=मुख्य, दाम=
पिंजड़ा, असीर=कैदी, मुफ़्लिस=गरीब, इल्म सरीर=
लिखने का इल्म)

24. दुनियां में - नज़ीर अकबराबादी

की वस्ल में दिलबर ने इनायत, तो फिर क्या?
या जु़ल्म से दी हिज्र की आफ़ात, तो फिर क्या?
गुस्सा रहा, या प्यार से की बात, तो फिर क्या?
गर ऐश से इश्रत में कटी रात तो फिर क्या?
और ग़म में बसर हो गई औकात, तो फिर क्या?॥1॥

मजनूं की तरह हमने अगर दिल को लगाया।
बेचैन किया रूह को और तन को सुखाया।
दिलबर ने भी लैला की तरह दिल को लुभाया।
जब आई अजल फिर कोई ढूंढा तो न पाया।
क़िस्सों में रहे हुर्फ़ो-हिकायात तो फिर क्या?॥2॥

जिस शेख परी ज़ाद की आ दिल से हुई चाह।
हर रोज मिले उससे, रहे ऐश के हमराह।
हंसना भी हुआ, बातें भी अच्छी हुई दिलख़्वाह।
हल बोसो किनार और जो था, उसके सिवा आह!
गर वह भी मयस्सर हुआ, है हात तो फिर क्या?॥3॥

थे वह जो दुरो-लाल से बेहतर लबो-दन्दां।
आखि़र को जो देखा तो मिले ख़ाक में यक्सां।
जिन आंखों को मिलना हो, भला ख़ाक के दरमियां।
दो दिन अगर उन आंखों ने दुनियां में मेरी जां।
की नाज़ अदाओं की इशारात, तो फिर क्या हुआ?॥4॥

दुनियाँ में अगर हमको मिला तख़्ते सुलेमा।
तावे रहे सब जिन्नो परी आदमो मुर्गां।
जब तन से हवा हो गई वह पोदने सी जां।
फिर उड़ गई एक आन में सब हश्मतो सब शां।
ले शर्क़ से ता ग़र्ब लगा हात, तो फिर क्या?॥5॥

दोलत में अगर हम हुए दाराओ सिकन्दर।
और सात विलायत पे किया हुक्म सरासर।
जब आई अजल फिरन रहा तख़्त ओ अफ़सर।
अस्पो शुतरो फ़ीलो ख़रो नौबतो लश्कर।
गर कब्र तलक अपने चला सात, तो फिर क्या?॥6॥

कामिल हो अगर रोशनी की दिल की अंधेरी।
और बागे-तसर्रुफ़ से करिश्मात की फेरी।
जब आई अजल फिर न चली मेरी न तेरी।
आखि़र को जो देखा तो हुए ख़ाक की ढेरी।
दो दिन की हुई कश्फ़ो-करामात, तो फिर क्या?॥7॥

तायर की तरह से उड़े हम गर्चे हवा पर।
या अर्ज़ को तै कर गए ग़ोता सा लगाकर।
दरिया पे चले ऐसे कि पाँ भी न हुए तर।
जब आई अजल, आह! तोएक दम में गए मर।
गर यह भी हुई हम में करामात, तो फिर क्या?॥8॥

हुजरे में अगर बैठ के हम हो गए दरवेश।
और चिल्ला कशी करके हमेशा रहे दिलरेश।
आबिद हुए, ज़ाहिद हुए, सरताज हक़ अन्देश।
जब आई अजल, एक रियाजत न गई पेश।
मर-मर के जो की कोशिशे-ताआत तो फिर क्या?॥9॥

मै पीके अगर हो गए, हम मस्तो ख़राबी।
होंठों से जुदा की, न कभी मैं की गुलाबी।
की लाख तरह ऐश की मस्तीयो ख़राबी।
जब आई अजल, फिर वहीं उठ भागे शिताबी।
रिन्दों में हुए अहले ख़राबात, तो फिर क्या?॥10॥

आमिल हुए हम लाख अगर नक़्शे अजल से।
लोगों को बचाने लगे भूतों के ख़लल से।
जब आई अजल फिर न चला और अजल से।
दो दिन की जो ताबीजों फ़तीलाओ-अमल से।
तसख़ीर किया आलमे जिन्नात, तो फिर क्या?॥11॥

पढ़ इल्मे रियाजी जो मुनज्जिम हुए धूमी।
पेशानी महो ज़हराओ बिरजीस की चूमी।
आखि़र को अजल सर के ऊपर आन के घूमी।
इस उम्र दो रोज़ा में अगर होके नजूमी।
सब छान लिए अर्ज़ो-समाबात, तो फिर क्या?॥12॥

गर हमने अतिब्बा हो तबाबत की रक़म ली।
चीज़ और सिवा तिब के सर अंजाम के कम ली।
जब तन के उपर मर्ग ने आ डाल दी कमली।
एक दम में हवा हो गए सब नज़रीयो अमली।
थे याद जो असबाबो अलामात तो फिर क्या?॥13॥

गर अपना हुआ मनसबो-जागीर का नक़्शा।
और एक को मर मर के मिला भीक का टुकड़ा।
क्या फ़र्क हुआ दोनों में जब मरना ही ठहरा।
उसने कोई दिन बैठ के आराम से खाया।
वह मांगता दर-दर फिर खै़रात तो फिर क्या?॥14॥

दुनियां में लगा मुफ़्लिसो-दर्वेश से ता शाह।
सब ज़र के तबलगार हैं ले माही से ता माह।
मरता है कोई माल पे ढूंढ़े है कोई जाह।
दौलत ही का मिलना है बड़ी चीज़ ‘नज़ीर’ आह।
बिल्फ़र्ज हुई इससे मुलाक़ात तो फिर क्या?॥15॥

(वस्ल=मिलन, हिज्र=जुदाई, आफ़ात=आफतें,परेशानियाँ,
हुर्फ़ो-हिकायात=बातें-कहानियाँ, मयस्सर=हासिल, यक्सां=
बराबर, हश्मत=शान-शौकत, शर्क़ से ता ग़र्ब=पूर्व से
पश्चिम, अस्प=घोड़ा, शुतर=ऊंट, फ़ीलो-ख़र=हाथी और
गधा, बागे-तसर्रुफ़=विचारों का बाग, तायर=परिन्दा,
अर्ज़=चौड़ाई, हुजरे=मस्जिद के पास का छोटा कमरा,
चिल्ला कशी=चालीस दिन तक एकान्त में बैठकर
साधना करके, दिलरेश=परेशान, आबिद=इबादत करने
वाला, ज़ाहिद=संयमी, हक़ अन्देश=सच्ची बात सोचने
वाला, रियाजत=तपस्या, ताआत=आराधना, रिन्द=
मस्त,उन्मत्त, फ़तीलाओ-अमल=भूत और जिन उतारने
वालों की बत्ती, वह चिराग में जलाकर प्रेतबाधा ग्रस्त
को दिखाते हैं अनपढ़ लोग फ़लीतः भी बोलते हैं,
अर्ज़ो-समाबात=सम्पूर्ण,संसार,धरती आकाश, अतिब्बा=
हकीम, तबाबत=तिब,हिकमत, मनसब=पद, माही=
मछली, माह=चांद, जाह=मान-सम्मान, बिल्फ़र्ज=
मान लें)

25. ख़ुशी से दान देने की प्रेरणा  - नज़ीर अकबराबादी

जरदार है तो हरग़िज, मत मार अपने मन को।
तनजे़ब तनसुखों से, तरसा न अपने तन को।
जो नर चलन चले हैं, चल तू भी उस चलन को।
मुर्शिद का है यह नुक्ता, रख याद इस सुखन को।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥1॥

जा बैठ मैकदों में सब दर्दों ग़म से हटकर।
झमका गुलाबी मैं की प्याली उलट पलट कर।
महबूब दिलबरों से खुश हो लिपट-लिपट कर।
पी दूध और बताशे, मेवा मिठाई चट कर।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥2॥

कमख़ाब क्या दुशाला क्या रेशमी दुसूती।
कर शाल का लंगोटा, मत रख क़बा अछूती।
बोले जो शूम भड़ुवा, मार उसके सर पै जूती।
दो दिन तो दोस्तों में, बुलवा ले अपनी तूती।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥3॥

यह नैमतें हैं जितनी जो कुछ मिले सो खा जा।
ताश और बादले में इक बार जगमगा जा।
पापी बख़ील मत बन दाता सख़ी कहा जा।
इकदम तो अपना डंका मन मानता बजा जा।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥4॥

यां का यही मज़ा है, खाना व या खिलाना।
भूखे को डाल रोटी, नंगे को कुछ उढ़ाना।
सब इस घड़ी उड़ा ले, जो तुझको हो उड़ाना।
गाफ़िल फिर इस गली में, तुझको नहीं है आना।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥5॥

जो गुल बदन है रूठे, जर दे उन्हें मना ले।
बोसा उन्हों का लेकर, सीने से फिर लगा ले।
हंस ले, हंसा ले, हर दम देले, दिलाने खाले।
जो बन सके सो अपने, जी के मजे़ उड़ा ले।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥6॥

जो पास है जख़ीरा, मत रख वह कोने अन्दर।
मस्जिद कुएं बनादे, तालब, बाग मन्दर।
दरिया कहीं बहादे, बन जा कहीं समन्दर।
सब कुछ उड़ा लुटा कर, हो रह सदा क़लन्दर।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥7॥

बाग़ो की देख सैरें, भर जाम के छलक्के।
और छान मेले ठेले, कर धूम और धड़क्के।
आवे जो शूम, भडु़वा, काढ़ उसको देके धक्के।
तू शौक़ से उड़ा ले, ऐशो मजे झमक्के।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥8॥

सन्दूक में जो ज़र है, उसको भी ले गवां दे।
मै के बहा के नाले, तब़लों को खड़खड़ा दे।
कोठे मकां हवेली, सब खोद कर खिला दे।
कड़ियाँ तलक जला दे, ईंटें तलक उड़ादे।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥9॥

जो जो बख़ील कुट्टन ज़र छोड़कर मरेगा।
या खायेगा जमाई, या ख़ालसा लगेगा।
तेरा वही है जो कुछ, राहे ख़ुदा में देगा।
खाता, खिलाता, हंसता, तू भी सदा रहेगा।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥10॥

गर आ पड़ेगा तुझ पर कुछ हादसा ख़लल का।
मालिक फिर और कोई ठहरेगा तेरे दल का।
आगे से दे दिला के, हो रह तू उससे हलका।
कर सोच अपने दिल में, कुछ आज का न कलका।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥11॥

ज़र जोड़-जोड़ अपने तू पास गर रखेगा।
या छीन लेगा हाकिम, या चोर ले मरेगा।
तेरा वही है जो कुछ, अब ऐश कर चुकेगा।
जब वक़्त आ पुकारा, तब कुछ न बन सकेगा।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥12॥

जिसने यह ज़र दिया है फिर वोही धन भी देगा।
मालो, मकां, हवेली, बाग़ो चमन भी देगा।
जीता रहेगा जब तक खाने को अन भी देगा।
मर जायेगा तो वोही तुझको क़फ़न भी देगा।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥13॥

जितने गड़े, दबे हैं सब खाले और खिलाले।
रख धुन उसी की दिल में अब खाले और खिलाले।
अपना समझ उसी को जब खाले और खिलाले।
अब तो "नज़ीर" तू भी सब खाले और खिलाले।
दिल की खु़शी की ख़ातिर, चख डाल माल धन को।
गर मर्द है तो आशिक़, कौड़ी न रख क़फ़न को॥14॥

26. दुनियाँ के तमाशे - नज़ीर अकबराबादी

खोल टुक चश्मे तमाशा, यार बाशे फिर कहां।
यह शिकारो सैद, यह शिकरे व बाशे फिर कहां।
माल दौलत, सोना, रूपा, तोले माशे फिर कहां।
दम ग़नीमत है, भला, यह बूदोबाशे फिर कहां।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

दिल लगा उल्फ़त में, और कर ले परीज़ादों की चाह।
चांद से मुखड़ों से मिल, सूरजवशों पर कर निगाह।
कुछ मजे, कुछ लूट हज, यह वक़्त कब मिलता है, आह।
खाले पीले, सुख दे, और देले दिलाले, वाह वाह।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

हुस्न वालों के भी क्या-क्या हुस्न के आलम हैं यां।
सांवले गोरे, सुनहरी, सुर्ख बांधे पगड़ियां।
क्या सजें, क्या-क्या धजें, क्या नाज़ क्या छब तख़्तियां।
भोली भोली सूरतें, और प्यारी प्यारी अंखड़ियां।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

सुबह हो तो सैर कर, बासों की जाकर बाफ़िराक़।
बुलबुलें चहकें हैं, और गुल खिल रहे हैं मिस्ल बाग़।
शाम हो तो रोशनी को देख, पी मै के अयाग़।
जल रहे हैं झाड़ों मशयल शम्मा कंदीलो चिराग़।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

कितने मैख़ानों के दर पर लोटते हैं पी के मै।
कितने मजलिस करके सुनते हैं दफ़ो मरदंगो नै।
दैरों में और मस्जिदों में करते हैं गुल पै ब पै।
हर तरफ़ धूमें मची हैं, दीद है और सैर है।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

कितने दिल हैं मुत्तफ़िक़, कितने दिलों में फूट है।
दोस्ती है दुश्मनी है, ज़िद है मारा कूट है।
प्यार है, हंस बैठना है, और जुगत और झूट है।
अद्ल है और जुल्म है, ग़ारत है लूटा लूट है।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

वाह वा! क्या-क्या "नज़ीर" इस ख़ल्क के अतवार हैं।
ख़्वार हैं, सरदार हैं, जरदार हैं, लाचार हैं।
गुजरियां हैं, चौक हैं, बसते कई बाजार हैं।
दश्त हैं, सहरा हैं, और दरिया हैं और कोहसार हैं।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥
(मशयल=मशाल, दफ़=ढफ, दैरों=मंदिर,गिरिजा,
गुल=शोर, पै ब पै=बार-बार, दीद=दर्शन,
मुत्तफ़िक़=एक राय,सहमत, अद्ल=न्याय)

27. तन का झोंपड़ा - नज़ीर अकबराबादी

यह तन जो है हर एक के उतारे का झोंपड़ा।
इससे है अब भी, सबके सहारे का झोंपड़ा।
इससे है बादशाह के नज़ारे का झोंपड़ा।
इसमें ही है फ़कीर, विचारे का झोंपड़ा।
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥1॥

इसमें ही भोले भाले, इसी में सियाने हैं।
इसमें ही होशियार, इसी में दिवाने हैं।
इसमें ही दुश्मन, इसमें ही अपने यगाने हैं।
शाह झोंपड़ा भी अपने, इसी में नुमाने हैं।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥2॥

इसमें ही तो, इश्क़ो मुहब्बत के मारे हैं।
इसमें ही शोख, हुस्न के चांद और सितारे हैं।
इसमें ही यार दोस्त, इसी में पियारे हैं।
शाह झोंपड़ा भी अपने इसी में विचारे हैं।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥3॥

इसमें ही अहले दौलतो-मुनइम, अमीर हैं।
इसमें ही रहते सारे जहां के फ़कीर हैं।
इसमें ही शाह और इसी में वज़ीर हैं।
इसमें ही हैं, सग़ीर, इसी में कबीर हैं।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥4॥

इसमें ही चोर ठग हैं, इसी में अमोल हैं।
इसमें ही रोनी शक्ल, इसी में ठठोल हैं।
इसमें ही बाजे, और नक़ारे व ढोल हैं।
शाह झोंपड़ा भी इसमें ही करते कलोल हैं।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥5॥

इसमें ही पासा हैं इसी में लवंद हैं।
बेदर्द भी इसी में हैं और दर्द मंद हैं।
इसमें ही सब परिंद इसी में चरिंद हैं।
शाह झोंपड़ा भी अब इसी दरबे में बन्द हैं।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥6॥

इस झोंपड़े में रहते हैं सब शाह और वज़ीर।
इसमें वकील तख़्शी व मुतसद्दी और अमीर।
इसमें ही सब ग़रीब हैं, इसमें ही सब फ़कीर।
शाह झोंपड़ा जो कहते हैं, सच हैं मियां ‘नज़ीर’।
अपना न मोल का, न इजारे का झोंपड़ा।
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा॥7॥
(इजारे=ठेका, यगाने=स्वजन, दौलतो-मुनइम=
दौलतमंद,धनाढय, सग़ीर=छोटा, कबीर=बड़ा,
महान, पासा=संयमी, मुतसद्दी=हिसाब किताब
रखने वाला प्रबन्धक)

28. बम शंकर बोलो हरी-हरी- नज़ीर अकबराबादी

ले सब्रो क़नाअत साथ मियां, सब छोड़ यह बातें लोभ भरी।
जो लोभ करे उस लोभी की, नहीं खेती होती जान हरी॥
सन्तोख तवक्कुल हिरनों ने, जब हिर्स की खेती आन चरी।
फिर देख तमाशे कु़दरत के, और लूट बहारें हरी भरी॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥1॥

टुक अपनी क़िस्मत देख मियां, तू आप बड़ा दातारी है।
पर हिर्सो तमाअ के करने से, अब तेरा नाम भिखारी है॥
हर आन मरे है लालच पर हर साअत लोभ अधारी है।
ऐ लालच मारे, लोभ भरे, सब हिर्सो हवा की ख़्वारी है॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥2॥

गर हिर्सो हवा और लालच की, है दौलत तेरे पास धरी।
तू ख़ाक समझ इस दौलत को, क्या सोना रूपा लाल ज़री॥
हाथ आया जब सन्तोख दरब, तब सब दौलत पर धूल पड़ी।
कर ऐश मजे़ सन्तोखी बन, जय बोल मुरलिया वाले की॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥3॥

इस हिर्सो हवा के बीजों को, जो लोभी दिल में बोते हैं।
वह चिन्ता मारे लोभ भरे, नित ख़्वार हमेशा होते हैं॥
जो हाथ पसारे लालच कर, वह माथा कूट के रोते हैं।
और हाथ जिन्होंने खींच लिया, वह पांव पसारे सोते हैं।
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥4॥

इस लोभ पुरी की गलियों की, जब मुंह पर तेरे धूल पड़ी।
बेचैन रहेगा हर साअत, आराम न होगा एक घड़ी॥
चल लोभ के सर पर जूती मार, और लोभी तन पर मार छड़ी।
कर सुमिरन कुंज बिहारी की, जय बोल मुकुट की घड़ी-घड़ी॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥5॥

वह शहद बुरा है लालच का, इस मीठे को मत खा प्यारे।
यह शहद नहीं यह ज़हर निरा, इस ज़हर उपर मत जा प्यारे।
जो मक्खी इसमें आन फंसी, फिर पंख रहे लिपटा प्यारे।
सर पटके रोये हाथ मले, है लालच बुरी बला प्यारे॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥6॥

यह लोभ निरी पत खोता है, इस लोभी लालच मारे की।
यह लोभ चमक खो देता है, हर आन चमकते तारे की॥
तू एक तपक कर लालच पर, बन सूरत लाल अंगारे की।
कर याद मदन मतवारे की, जय बोल कन्हैया प्यारे की॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥7॥

गर हिर्सो हवा के फंदे में तू अपनी उम्र गंवावेगा।
ना खाने का फल देखेगा, ने पानी का सुख पावेगा॥
एक दो गज कपड़े तार सिवा, कुछ साथ न तेरे जावेगा।
ऐ लोभी बन्दे लोभ भरे, तू मर कर भी पछतावेगा॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥8॥

इस हिर्सो हवा की झोली से, है तेरी शक्ल भिकारी की।
पर तुझको अब तक ख़बर नहीं है, लोभी अपनी ख़्वारी की॥
सन्तोखी साध सरन में रह तज, मिन्नत नर और नारी की।
ले नाम किशन मन मोहन का, जय बोल अटल बनवारी की॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥9॥

है जब तक तुझमें लोभ भरा, तू चोर उचक्का तगड़ा है।
है नीच पुरानी पगड़ी से, जो सर पर तेरे पगड़ा है॥
हर आन किसी से किस्सा है, हर वक़्त किसी से झगड़ा है।
कुछ मीन नहीं कुछ मेख नहीं, सब हिर्सो हवा का झगड़ा है॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥10॥

अब दुनिया में कुछ चीज़ नहीं, इस लोभी के निस्तारे की।
है कीचड़ उस पर लिपट रही, सब हिर्सो हवा के गारे की॥
क्या कहिए वा की बात "नज़ीर", उस लोभी लोभ संवारे की।
सब यारो मिल कर जय बोलो, इस बात पे नन्द दुलारे की॥
जब आसा तिश्ना दूर हुई, और आई गत सन्तोख भरी।
सब चैन हुए आनन्द हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी॥11॥
(हिर्स=लोभ, तमाअ=लालच, दरब=द्रव्य,धन)

29. दम का तमाशा - नज़ीर अकबराबादी

जहां में जब तलक यारो! हमारे जिस्म में दम है।
कभी हंसना, कभी रोना, कभी शादी, कभी ग़म है॥
कहें किस किस से क्या-क्या एक दम के साथ आलम है।
मगर जो साहिबे दम है वह इस नुक्ते से महरम है॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥1॥

मशक़्क़त, महनतों से जमा करना दाम दरहम का।
तअल्लुक रंज राहत का तफ़क्कुर बेश और कम का॥
कभी सामान इश्रत का, कभी असबाब मातम का।
कहूं क्या क्या? गरज, यारो! यह झगड़ा है सब इस दम का॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥2॥

इसी दम के, कहूं मैं सीम और ज़र में थपेड़े हैं।
इसी के वास्ते इत्र और गुलाबों के तडे़डे़ हैं॥
जलेबी, इमरती, बर्फी, गुलाबी, लड्डू, पेड़े हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं? यारो, यह सब दम के बखेड़े हैं॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥3॥

इसी दम के लिए क्या महल यह संगीं तराशे हैं।
इसी के वास्ते ज़र सीम के तोले व माशे हैं॥
बहारों बाग़ो सहरा सैद और शिकरे व बाशे हैं।
फ़क़त दम के ही आने के यह सब यारो तमाशे हैं॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥4॥

इसी दम की हैं पोशाकें यह रंगी इत्र में डूबी।
इसी के वास्ते हैं सब तरहदारी व मरगू़बी॥
गदाई, बादशाही, आशिक़ी, रिंदी व महबूबी।
इसी दम के ही आने की है,-ऐ यारो, यह सब खूबी॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥5॥

इसी दम के लिए अफ़यूं, शराबो, पोस्त बंगें हैं।
नशे, मस्ती, तराने, ऐशो इश्रत की तरगें हैं॥
मुहब्बत, दोस्ती, इख़लास, उल्फत, सुलह, जंगें हैं।
इसी दम के ही आने की यह सब यारो उमंगें हैं॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥6॥

यही दम हाथी, घोड़े, पालकी, हौदज पे चढ़ता है।
यही दम बेकसी में नंगे पांवों में खदड़ता है॥
कोई मुफ़्लिस हो घटता है, कोई उम्दा हो बढ़ता है।
जो कुछ है ऊंचा नीचा यारो सब यह दम ही गढ़ता है॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥7॥

इसी दम के लिए यह सब बने हैं सुख ज़माने के।
मजे़ ऐशो तरब के, और तहम्मुल दुख उठाने के॥
जहां तक शादियो ग़म हैं जहां के कारखाने के।
यह सब दुख सुख हैं ऐ यारो, इसी इक दम के आने के॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥8॥

इसी दम के लिए बदली में बगुलों की क़तारें हैं।
इसी के वास्ते अब्रो हवाओ मेंह की धारें हैं॥
चमन, गुलज़ार बूटा, फूल, फल और आबशारे हैं।
"नज़ीर" अब क्या कहें? यारो, यह सब दम की बहारें हैं॥
जो आया दम तो आदम है, इसी आदम का आदम है।
न आया दम तो फिर दम में न आदम है, न जादम है॥9॥
(सैद=शिकार,शिकार का जानवर)

30. रोटियाँ - नज़ीर अकबराबादी

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।

रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।

जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है ।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है ।।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है ।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है ।।
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ ।।3।।

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़ुबाँ पे नाम ।
या चक्की चूल्हे के जहाँ गुलज़ार हो तमाम ।।
वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम ।
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम ।।
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ ।।4।।

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर-पूर ।
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर ।।
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी या मोती चूर ।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर ।।
इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।

पूछा किसी ने यह किसी कामिल फक़ीर से ।
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ ।।6।।

फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
इस के मुशाहिर्द में है ख़िलता ज़हूर क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या ?
जितने हैं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।

रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गए ।
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
चौदह तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो ।
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो ।।
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो ।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो ।।
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ ।।9।।

अब जिनके आगे मालपूए भर के थाल हैं ।
पूरे भगत उन्हें कहो, साहब के लाल हैं ।।
और जिन के आगे रोग़नी और शीरमाल हैं ।
आरिफ़ वही हैं और वही साहिब कमाल हैं ।।
पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ ।।10।।

कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते ।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते ।।
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते ।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते ।।
जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।11।।

रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है जा बजा ।
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।

रोटी के नाच तो हैं सभी ख़ल्क में पड़े ।
कुछ भाँड भगतिए ये नहीं फिरते नाचते ।।
ये रण्डियाँ जो नाचें हैं घूँघट को मुँह पे ले ।
घूँघट न जानो दोस्तो ! तुम जिनहार इसे ।।
उस पर्दे में ये अपनी कमाती हैं रोटियाँ ।।13।।

वह जो नाचने में बताती हैं भाव-ताव ।
चितवन इशारतों से कहें हैं कि ’रोटी लाव’ ।।
रोटी के सब सिंगार हैं रोटी के राव-चाव ।
रंडी की ताब क्या करे जो करे इस कदर बनाव ।।
यह आन, यह झमक तो दिखाती हैं रोटियाँ ।।14।।

अशराफ़ों ने जो अपनी ये जातें छुपाई हैं ।
सच पूछिए, तो अपनी ये शानें बढ़ाई हैं ।।
कहिए उन्हीं की रोटियाँ कि किसने खाई हैं ।
अशराफ़ सब में कहिए, तो अब नानबाई हैं ।।
जिनकी दुकान से हर कहीं जाती हैं रोटियाँ ।।15।।

भटियारियाँ कहावें न अब क्योंकि रानियाँ ।
मेहतर खसम हैं उनके वे हैं मेहतरानियाँ ।।
ज़ातों में जितने और हैं क़िस्से कहानियाँ ।
सब में उन्हीं की ज़ात को ऊँची हैं बानियाँ ।।
किस वास्ते की सब ये पकाती हैं रोटियाँ ।।16।।

दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है ।
ना दुश्मनी ना दोस्ती ना तुन्दखोई है ।।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है ।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है ।।
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ ।।17।।

रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर ।
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर ।।
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर ।
गेहूँ, ज्वार, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘ ।।
हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।

(परीरुख़ों=परियों जैसी शक्ल सूरत वाली, ज़हूर=
प्रकट, कामिल=निपुण, मेह्र-ओ-माह=सूर्य-चाँद,
हक़=ख़ुदा, मुशाहिर्द=निरीक्षण, कश्फ़-उल-क़ुलूब=
मन की गुप्त जानकारी देना, कश्फ़-उल-कुबूर=क़ब्र की
गुप्त जानकारी देना, कश्फ़=गुप्त जानकारी, कन्द=शक्कर,
गुलज़ार=बाग़, पैक=पत्रवाहक, पुराने ज़माने में जिसके पैर
में या लाठी में घूँघरू बँधे होते थे, जिनहार=हरगिज,
अशराफ़=शरीफ़ का बहुवचन, निकोई=अच्छाई,
तुन्दखोई=बदमिजाज़ी, नफ़र=मज़दूर, फ़तीर=
गुंधे हुए आटे की लोई)


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