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हिंदी कविता
कविता गुलज़ार हिंदी कविता
Poetry of Gulzar
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें - Gulzar
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें।
भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें
दूसरो की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना।
मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है - Gulzar
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है
देखो, आहिस्ता चलो - Gulzar
देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना,
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं.
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में,
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो,
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा
इक इमारतइक इमारत - Gulzar
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है.
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे
इक महल है शायद!
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को!
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं!
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ!
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद!
जगजीत: एक बौछार था वो - Gulzar
एक बौछार था वो शख्स,
बिना बरसे किसी अब्र की सहमी सी नमी से
जो भिगो देता था...
एक बोछार ही था वो,
जो कभी धूप की अफशां भर के
दूर तक, सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था
नीम तारीक से हॉल में आंखें चमक उठती थीं
सर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह,
लगता था झोंका हवा का था कोई छेड़ गया है
गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
मुस्कराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी
गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो
एक आवाज़ की बौछार था वो!
खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो? - Gulzar
खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो?
एक ख़ामोश-सा जवाब तो है।
डाक से आया है तो कुछ कहा होगा
"कोई वादा नहीं... लेकिन
देखें कल वक्त क्या तहरीर करता है!"
या कहा हो कि... "खाली हो चुकी हूँ मैं
अब तुम्हें देने को बचा क्या है?"
सामने रख के देखते हो जब
सर पे लहराता शाख का साया
हाथ हिलाता है जाने क्यों?
कह रहा हो शायद वो...
"धूप से उठके दूर छाँव में बैठो!"
सामने रौशनी के रख के देखो तो
सूखे पानी की कुछ लकीरें बहती हैं
"इक ज़मीं दोज़ दरया, याद हो शायद
शहरे मोहनजोदरो से गुज़रता था!"
उसने भी वक्त के हवाले से
उसमें कोई इशारा रखा हो... या
उसने शायद तुम्हारा खत पाकर
सिर्फ इतना कहा कि,
लाजवाब हूँ मैं!
न आने की आहट - Gulzar
न आने की आहट
न जाने की टोह मिलती है
कब आते हो कब जाते हो
इमली का ये पेड़ हवा में हिलता है तो
ईंटों की दीवार पे परछाई का छीटा पड़ता है
और जज़्ब हो जाता है,
जैसे सूखी मिटटी पर कोई पानी का कतरा फेंक गया हो
धीरे धीरे आँगन में फिर धूप सिसकती रहती है
कब आते हो, कब जाते हो
बंद कमरे में कभी-कभी जब दीये की लौ हिल जाती है तो
एक बड़ा सा साया मुझको घूँट घूँट पीने लगता है
आँखें मुझसे दूर बैठकर मुझको देखती रहती है
कब आते हो कब जाते हो
दिन में कितनी-कितनी बार मुझको - तुम याद आते हो
मेरा कुछ सामान(1) - Gulzar
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो
आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए
कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
(2)
हाल-चाल ठीक-ठाक है
सब कुछ ठीक-ठाक है
बी.ए. किया है, एम.ए. किया
लगता है वह भी ऐंवे किया
काम नहीं है वरना यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है
आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है
और क्या कहूं?
छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी
देती है अपा गुजारा यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
गोल-मोल रोटी का पहिया चला
पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला
रोटी को बेचारी को चील ले गई
चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला
और क्या कहूं?
मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा
जीने की फुरसत नहीं है यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
हाल-चाल ठीक-ठाक है
(3)
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकली बिल्ली
बिल्ली खाए जर्दा-पान
काला चश्मा पीले कान
कान में झुमका, नाक में बत्ती
हाथ में जलती अगरबत्ती
अगर हो बत्ती कछुआ छाप
आग में बैठा पानी ताप
ताप चढ़े तो कम्बल तान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लंबी मूँछें
मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर
पत्थर पे इक आम का झाड़
पूंछ पे लेके चले पहाड़
पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की इक जोगन होगी
-गठरी में लागा चोर
मुसाफिर देख चाँद की ओर
पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की एक जोगन होगी
जोगन कूटे कच्चा धान
वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला चीता
थोड़ा काला थोड़ा पीला
चीता निकला है शर्मीला
घूँघट डालके चलता है
मांग में सेंदुर भरता है
माथे रोज लगाए बिंदी
इंगलिश बोले मतलब हिंदी
‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर
‘व्हॉट’ माने क्या
इंगलिश में अलजेब्रा छान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
जय होजय हो, जय हो - Gulzar
जय हो, जय हो
आजा आजा जिंद शामियाने के तले,
आजा ज़रीवाले नीले आसमान के तले
जय हो, जय हो
जय हो, जय हो
रत्ती रत्ती सच्ची मैने जान गँवाई है,
नच नच कोयलों पे रात बिताई है
अखियों की नींद मैने फूंको से उड़ा दी,
गिन गिन तारे मैने उंगली जलाई है
जय हो, जय हो
जय हो, जय हो
चख ले हो चख ले ये रात शहद है चख ले,
रख ले हाँ दिल है दिल आखरी हद है रख ले
काला काला काजल तेरा कोई काला जादू है ना
काला काला काजल तेरा कोई काला जादू है ना
आजा आजा जिंद शामियाने के तले,
आजा ज़रीवाले नीले आसमान के तले
जय हो, जय हो
जय हो, जय हो
कब से हाँ कब से जो लब पे रुकी है कह दे,
कह दे हाँ कह दे अब आँख झुकी है.. कह दे
ऐसी ऐसी रोशन आँखे रोशन दोनो भी हैं हैं क्या
आजा आजा जिंद शामियाने के तले,
आजा ज़रीवाले नीले आसमान के तले
जय हो, जय हो
जय हो, जय हो
फिल्म- स्लमडॉग मिलियनेयर(2008)
सपना रे सपना - Gulzar
सपना रे सपना, है कोई अपना
अंखियों में आ भर जा
अंखियों की डिबिया, भर दे रे निंदिया
जादू से जादू कर जा
सपना रे सपना, है कोई अपना
अंखियों में आ भर जा ना
सपना रे सपना, है कोई अपना
अंखियों में आ भर जा ना
भूरे भूरे बादलों के भालू
लोरियां सुनाये लारा रा रु
तारों के कंचों से रात भर खेलेंगे
सपनों में चन्दा और तू
सपना रे सपना, है कोई अपना
अंखियों में आ भर जा
पीले पीले केसरी हैं गाँव
गीली गीली चांदनी की छाँव
बगुलों के जैसे रे डूबे हुए हैं रे
पानी में सपनों के पाँव
सपना रे सपना, है कोई अपना
अंखियों में आ भर जा
अंखियों की डिबिया, भर दे रे निंदिया
जादू से जादू कर जा
फिल्म - एक थी डायन(2013)
काली काली - Gulzar
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
आधा आधा तुझ बिन मैं
आधी आधी सी तू है
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
आज भी जुनूनी सी
जो एक आरज़ू है
यूँ ही तरसने दे
यह आँखें बरसने दे
तेरी आँखें दो आँखें
कभी शबनम कभी खुशबू है
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
आधा आधा तुझ बिन मैं
आधी आधी सी तू है
[काली काली आँखों काला काला जादू]
गहरे समंदर और दो जज़ीरे
डूबे हुए हैं कितने ज़खीरे
ढूँढने दो अश्कों के मोती
सीपी से खोलो
पलकों से झांके तो झाँकने दो
कतरा कतरा गिनने दो
कतरा कतरा चुनने दो
कतरा कतरा रखना है ना
कतरा कतरा रखने दो
तेरी आँखों का यह साया
अँधेरे में कोई जुगनू है
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
आधा आधा तुझ बिन मैं
आधी आधी सी तू है
जाने कहाँ पे बदलेंगे दोनों
उड़ते हुए यह शब के परिंदे
पलकों पे बैठा ले के उड़े हैं
दो बूँद दे दो प्यासे पड़े हैं
हाँ दो बूँदें
लम्हा लम्हा लम्हे दो
लम्हा लम्हा जीने दो
कह भी दो ना आँखों से
लम्हा लम्हा पीने दो
तेरी आँखें हल्का सा
छलका सा एक आंसू है
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
आधा आधा तुझ बिन मैं
आधी आधी सी तू है
काली काली आँखों का
काला काला जादू है
फिल्म - एक थी डायन(2013)
रोको मत टोको मत - Gulzar
रोको मत टोको मत
सोचने दो इन्हें सोचने दो
रोको मत टोको मत
होए टोको मत इन्हें सोचने दो
मुश्किलों के हल खोजने दो
रोको मत टोको मत
निकलने तो दो आसमां से जुड़ेंगे
अरे अंडे के अन्दर ही कैसे उड़ेंगे यार
निकालने दो पाँव जुराबें बहुत हैं
किताबों के बाहर किताबें बहुत हैं
बच्चों के एक विज्ञापन के लिए लिखा जिंगल(2013)
जंगल जंगल पता चला है - Gulzar
जंगल जंगल बात चली है पता चला है
जंगल जंगल बात चली है पता चला है
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है
चड्डी पहन के फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है
चड्डी पहन के फूल खिला है
एक परिंदा है शर्मिंदा था वो नंगा
इससे तो अंडे के अन्दर था वो चंगा
सोच रहा है बाहर आखिर क्यों निकला है
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है
चड्डी पहन के फूल खिला है
मोगली सीरियल के लिए सुप्रसिद्ध गीत।
लौटूंगी मैं - Gulzar
सहमी सहमी रातों में
सहमी सहमी चलती हूँ
सहमी सहमी रातों में
सहमी सहमी चलती हूँ
लौटूंगी मैं तेरे लिए
तेरे लिए जानिया वे
काली अमावस के
पीछे खड़ी हूँ मैं
सालों के जालों में
कब से पड़ी हूँ मैं
बेचैन हूँ तेरे लिए
हो जानिया
जब डूबेगा दिन
दिया जलाना तुम
आवाज़ दे के फिर
मुझको बुलाना तुम
लौटूंगी मैं तेरे लिए
जानिया वे
तेरे लिए साथी मेरी
जानिया वे
वीरान पेड़ों के
साए जब चलते हैं
मासूम रूहों को
अँधेरे डसते हैं
डरती हूँ मैं तेरे लिए
जानिया वे
जब रातें पिघलें
भोग लगाना तुम
आकाश का कोई
कोना उठाना तुम
लौटूंगी मैं तेरे लिए
जानिया वे
तेरे लिए साथी मेरी
जानिया वे
फिल्म - एक थी डायन(2013)
तोते उड़ गएदिल मियाँ मिट्ठू थे - Gulzar
मर्ज़ी के पिट्ठू थे
हो दिल मियाँ मिट्ठू थे
अरे मर्ज़ी के पिट्ठू थे
वो मेरी कहाँ सुनते थे
अरे अपनी ही धुन पे थे
दिल मियाँ मिट्ठू थे
मियाँ जी बच बच के चलना
दुनिया है हरजाई
हरी हरी जो लागे
घास खड़ी है काई
अरे काई पे फिसले जो सुर्र करके
फुर्र करके तोते उड़ गए
फुर्र फुर्र करके तोते उड़ गए
इश्क में यूँ फिसले मियाँ
हाथों के तोते उड़ गए
तोते उड़ गए
फुर्र करके तोते उड़ गए
फुर्र फुर्र करके तोते उड़ गए
दिल मियाँ मिट्ठू थे
मर्ज़ी के पिट्ठू थे
अकड़े तो तगड़े से
और पकडे तो मकड़े से
दिल मियाँ मिट्ठू थे मिट्ठू मियाँ
मियाँ जी मुड़ मुड़ के न देखो
मुड़ मुड़ न देखो मियाँ जी
अजी नज़रों में कोई नहीं है
नज़र लगाईं थी अंखियाँ हाँ
सालों से सोई नहीं हैं
सपने से धंसने पे सुर्र
तोते! फुर्र करके तोते उड़ गए
ओ पतली गली में फिसले मियाँ
हाथो के तोते उड़ गए
मेरे नग मुंदरी विच पा दे
ते पावे मेरी जिंद कड लै
के पावे मेरी जिंद कड लै
अक्खी रात मैं गई तबेले
माझी मिल जावे.
मुक जान झमेले
माझी मिल जावे...
मुक जान झमेले
मेरी सेज ते अकल बिछा दे
ते पावे मेरी जिंद कड लै
के पावे मेरी जिंद कड लै
फुर्र करके तोते उड़ गए
फुर्र फुर्र करके तोते उड़ गए
फुर्र करके तोते उड़ गए
फुर्र फुर्र करके तोते उड़ गए
फिल्म - एक थी डायन(2013)
टैगोर - Gulzar
एक देहाती सर पे गुड की भेली बांधे,
लम्बे- चौडे एक मैदा से गुज़र रहा था
गुड की खुशबु सुनके भिन-भिन करती
एक छतरी सर पे मंडलाती थी
धूप चढ़ती और सूरज की गर्मी पहुची तो
गुड की भेली बहने लगी
मासूम देहाती हैरा था
माथे से मीठे-मीठे कतरे गिरते थे
और वो जीभ से चाट रहा था!
मै देहाती.
मेरे सर पर ये टैगोर की कविता की भेली किसने रख दी!
बस एक चुप सी लगी है - Gulzar
बस एक चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं!
कहीं पे सांस रुकी है!
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है!!
कोई अनोखी नहीं, ऐसी ज़िन्दगी लेकिन!
खूब न हो, मिली जो खूब मिली है!
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है!!
सहर भी ये रात भी, दोपहर भी मिली लेकिन!
हमीने शाम चुनी, हमीने शाम चुनी है!
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है!!
वो दासतां जो, हमने कही भी, हमने लिखी!
आज वो खुद से सुनी है!
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है!!
चौदहवीं रात के इस चाँद तले - Gulzar
चौदहवीं रात के इस चाँद तले
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाए जो तू
ईसा के हाथ से गिर जाए सलीब
बुद्ध का ध्यान चटख जाए ,कसम से
तुझ को बर्दाश्त न कर पाए खुदा भी
दूधिया जोड़े में आ जाए जो तू
चौदहवीं रात के इस चाँद तले!
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर - Gulzar
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने,
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने
काले घर में सूरज चलके, तुमने शायद सोचा था
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे.
मैने एक चराग जलाकर रोशनी कर ली,
अपना रस्ता खोल लिया
तुमने एक समन्दर हाथ में लेकर मुझपे ढेल दिया,
मैने नोह की कश्ति उस के ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैने काल को तोड़कर,
लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को मारना चाहा
तुमने चन्द चमत्कारों से
मेरी खुदी को मारना चाहा तुमने
चन्द चमत्कारों से
और मेरे एक प्यादे ने चलते चलते
तेरा चांद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब
तो मात हुई
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब
तो मात हुई
मैने जिस्म का खोल उतारकर सौंप
दिया,
और रूह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब
तुम देखो बाज़ी...
जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश - Gulzar
जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।
वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।
ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।
त्रिवेणियाँ - Gulzar
१.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
२.
सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा
(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।
३.
सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर
कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।
४.
शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को
तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?
५.
ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी
खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!
६.
लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
७.
आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!
चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा
८.
पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक़्त हुआ है,पाँच बजे हैं
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!
९.
बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।
थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख़्वाहिशें मुझ से।
१०.तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!
११.
कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।
१२.
वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
१३.
वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
१४.
कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
१५.
इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!
१६.
बुड़ बुड़ करते लफ़्ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।
१७.
चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में
बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!
१८.
चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!
१९.
कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
२०.
कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं
क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं
२१.
कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!
२२.
कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।
२३.
आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।
दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से
२४.
नाप के वक़्त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
२५.
तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शेर मिलते थे
ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?
22.
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं - Gulzar
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं
एक है जिसका सर नवें बादल में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है
एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है
फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तैयार खड़ा है
‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तैयार खड़ा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!
आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है
साठ साल आजादी के… हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा...!!
हिन्दोस्तान उम्मीद से है...
23.
चलो ना भटकेचलो ना भटके
लफ़ंगे कूचों में
लुच्ची गलियों के
चौक देखें
सुना है वो लोग
चूस कर जिन को वक़्त ने
रास्तें में फेंका थ
सब यहीं आके बस गये हैं
ये छिलके हैं ज़िन्दगी के
इन का अर्क निकालो
कि ज़हर इन का
तुम्हरे जिस्मों में
ज़हर पलते हैं
और जितने वो मार देगा
चलो ना भटके
लफ़ंगे कूचों में
24. मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैंअपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
25.
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैंक़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
26.
स्पर्शकुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी
लबों पे रखता था
दोनों आँखों से चूमता था
झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर रहा हो
मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था
मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ
तुम्हारे हाथों को चूम कर
छू के अपनी आँखों से आज मैं ने
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर लिये हैं
27.
इक जरा छींक ही दो तुमचिपचिपे दूध से नहलाते हैं,
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी
जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो
28.
मौत तू एक कविता हैमौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
(इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डा. भास्कर
बैनर्जी नामक चरित्र के लिये लिखा गया था। इस चरित्र
को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था)
29. रात भर सर्द हवा चलती रहीरात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुजरे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखीं नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोलें
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नामी सूख गयी थी, सो गिरा दी|
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के दाल दिया जलाते अलावों मसं उसे
रात भर फून्कों से हर लोऊ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने|
30.
लैंडस्केप-1दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब
एक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए वक़्त मटियाला दोशाला ओढ़े
बूढ़ा-सा पाम का इक पेड़, खड़ा है कब से
सैकड़ों सालों की तन्हाई के बद
झुक के कहता है जवाँ पेड़ से... ’यार
तन्हाई है! कुछ बात करो!
31.
लैंडस्केप-2कोई मेला लगा है परबत पर
सब्ज़ाज़ारों पर चढ़ रहे हैं लोग
टोलियाँ कुछ रुकी हुईं ढलानों पर
दाग़ लगते हैं इक पके फल पर
दूर सीवन उधेड़ती-चढ़ती,
एक पगडंडी बढ़ रही है सब्ज़े पर!
चूंटियाँ लग गई हैं इस पहाड़ी को
जैसे अमरूद सड़ रहा है कोई!
32.
कुछ और मंजर-1
कभी कभी लैम्प पोस्ट के नीचे कोई लड़का
दबा के पैन्सिल को उंगलियों में
मुड़े-तुड़े काग़ज़ों को घुटनों पे रख के
लिखता हुआ नज़र आता है कहीं तो..
ख़याल होता है, गोर्की है!
पजामे उचके ये लड़के जिनके घरों में बिजली नहीं लगी है
जो म्यूनिसपैल्टी के पार्क में बैठ कर पढ़ा करते हैं किताबें
डिकेन्स के और हार्डी के नॉवेल से गिर पड़े हैं...
या प्रेमचन्द की कहानियों का वर्क है कोई, चिपक गया है
समय पलटता नहीं वहां से
कहानी आगे बढ़ती नहीं है...
और कहानी रुकी हुई है।
ये गर्मियाँ कितनी फीकी होती हैं - बेस्वादी।
हथेली पे लेके दिन की फक्की
मैं फाँक लेता हूं...और निगलता हूं रात के ठन्डे घूंट पीकर
ये सूखा सत्तू हलक से नीचे नहीं उतरता
ये खुश्क़ दिन एक गर्मियों का
जस भरी रात गर्मियों की
33.
आममोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों से, मैं जानता हूँ
जब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिए
परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर
मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने
और जब हामला थी बीबा, तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियाँ फेंकी थी उसी ने
वक़्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी लजाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है।'
अब भी लजाता हूँ, जब मोड़ से गुज़रता हूँ
खाँस कर कहता है,"क्यूँ, सर के सभी बाल गए?"
सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको!
34.
खुमानी, अखरोट!ख़ुमानी, अख़रोट बहुत दिन पास रहे थे
दोनों के जब अक़्स पड़ा करते थे बहते दरिया में,
पेड़ों की पोशाकें छोड़के,
नंग-धड़ंग दोनों दिन भर पानी में तैरा करते थे
कभी-कभी तो पार का छोर भी छू आते थे
ख़ुमानी मोटी थी और अख़रोट का क़द कुछ ऊँचा था
भँवर कोई पीछे पड़ जाए, तो पत्थर की आड़ से होकर,
अख़रोट का हाथ पकड़ के वापस भाग आती थी।
अख़रोट बहुत समझाता था,
"देख ख़ुमानी, भँवर के चक्कर में मत पड़ना,
पाँव तले की मिट्टी खेंच लिया करता है।"
इक शाम बहुत पानी आया तुग़यानी का,
और एक भँवर...
ख़ुमानी को पाँव से उठाकर, तुग़यानी में कूद गया।
अख़रोट अब भी उस जानिब देखा करता है,
जिस जानिब दरिया बहता है।
अख़रोट का क़द कुछ सहम गया है
उसका अक़्स नहीं पड़ता अब पानी में!
35.
रिश्ते बस रिश्ते होते हैंरिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के
कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं
कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं
नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है
बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
36.
एक में दोएक शरीर में कितने दो हैं,
गिन कर देखो जितने दो हैं।
देखने वाली आँखें दो हैं,
उनके ऊपर भवें भी दो हैं,
सूँघते हैं ख़ुश्बू को जिससे
नाक एक है, नथुने दो हैं।
भाषाएँ हैं सैकड़ों लेकिन,
बोलने वाले होंठ तो दो हैं,
लाखों आवाज़ें सुनते हैं,
सुनने वाले कान तो दो हैं।
कान भी दो, होंठ भी दो हैं,
दाएँ, बाएँ, कन्धे दो हैं,
दो बाहें, दो कोहनियाँ उनकी,
हाथ भी दो, अँगूठे दो हैं।
37.
कुछ खो दिया है पाइकेकुछ
खो दिया है
पाइके
कुछ
पा लिया
गवाइके।
कहाँ
ले चला है
मनवा
मोहे
बाँवरी
बनाइके।
38.
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखावक़्त को
आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है
शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था
चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी
39.
बर्फ़ पिघलेगी जब पहाड़ों सेबर्फ़ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे
सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर
गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोंपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी।
40.
किस क़दर सीधा सहल साफ़ है
यह रस्ता देखोकिस क़दर सीधा सहल साफ़ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर
न कोई दाग़ जहाँ बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं
चन्द क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चन्द क़दम
और फिर टूट के गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिये आप चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं
किस क़दर सीधा, सहल साफ़ है यह रस्ता
41.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने काज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
42.
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी-सी ख़बर तो मिल ही जाती है
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम...
नये आवेज़े कानों में लटकते देख कर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई...!
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरू होगा
सभी पत्ते गिरा के गुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सब्ज़े पर छपी, पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है!
पहाड़ों से पिघलती बर्फ़ बहती है धुलाने पैर 'पाइन' के
हवाएँ झाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती हैं
मगर जब रेंगने लगती है इन्सानों की बस्ती
हरी पगडन्डियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़, अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का, इसे जी लो!
43.
दरख़्त रोज़ शाम का बुरादा भर के शाखों मेंदरख़्त रोज़
शाम का बुरादा भर के शाखों में
पहाड़ी जंगलों के बाहर फेंक आते हैं!
मगर वो शाम...
फिर से लौट आती है, रात के अन्धेरे में
वो दिन उठा के पीठ पर
जिसे मैं जंगलों में आरियों से
शाख काट के गिरा के आया था!!
44.
एक नदी की बात सुनी...एक नदी की बात सुनी...
इक शायर से पूछ रही थी
रोज़ किनारे दोनों हाथ पकड़ कर मेरे
सीधी राह चलाते हैं
रोज़ ही तो मैं
नाव भर कर, पीठ पे लेकर
कितने लोग हैं पार उतार कर आती हूँ ।
रोज़ मेरे सीने पे लहरें
नाबालिग़ बच्चों के जैसे
कुछ-कुछ लिखी रहती हैं।
क्या ऐसा हो सकता है जब
कुछ भी न हो
कुछ भी नहीं...
और मैं अपनी तह से पीठ लगा के इक शब रुकी रहूँ
बस ठहरी रहूँ
और कुछ भी न हो!
जैसे कविता कह लेने के बाद पड़ी रह जाती है,
मैं पड़ी रहूँ...!
45.
बारिश आने से पहलेबारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है
सारी दरारें बन्द कर ली हैं
और लीप के छत, अब छतरी भी मढ़वा ली है
खिड़की जो खुलती है बाहर
उसके ऊपर भी एक छज्जा खींच दिया है
मेन सड़क से गली में होकर, दरवाज़े तक आता रास्ता
बजरी-मिट्टी डाल के उसको कूट रहे हैं!
यहीं कहीं कुछ गड़हों में
बारिश आती है तो पानी भर जाता है
जूते पाँव, पाँएचे सब सन जाते हैं
गले न पड़ जाए सतरंगी
भीग न जाएँ बादल से
सावन से बच कर जीते हैं
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है
46.
मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतरमेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कही।
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है।
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा
और नीचे गिर के फौत हुए।
बोले गुटरगूँ...
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें।
आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं!!
47.
मकान की ऊपरी मंज़िल परमकान की
ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता
वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी,
अब ऊपर नहीं जाती
मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता
वहाँ कमरों में, इतना याद है मुझको
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे
बहुत से तो उठाने, फेंकने, रखने में चूरा हो गए
वहाँ एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता, वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था
उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था
मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का
फ्रेज़र से ख़रीदा था, मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं, सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं
उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था, हवा फिर टेढा कर जाती
बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा, पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे
मेरी मंज़िल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है
वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती, वहाँ एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.
और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊँ
मकान की ऊपरी मंज़िल पर कोई नहीं रहता...
48.
यारमहम चीज़ हैं बड़े काम की, यारम
हमें काम पे रख लो कभी, यारम
हम चीज़ हैं बड़े काम की, यारम
हो सूरज से पहले जगायेंगे
और अखबार की सब सुर्खियाँ हम
गुनगुनाएँगे
पेश करेंगे गरम चाय फिर
कोई खबर आई न पसंद तो एंड बदल देंगे
हो मुंह खुली जम्हाई पर
हम बजाएं चुटकियाँ
धूप न तुमको लगे
खोल देंगे छतरियां
पीछे पीछे दिन भर
घर दफ्तर में लेके चलेंगे हम
तुम्हारी फाइलें, तुम्हारी डायरी
गाडी की चाबियां, तुम्हारी ऐनकें
तुम्हारा लैपटॉप, तुम्हारी कैप
और अपना दिल, कुंवारा दिल
प्यार में हारा, बेचारा दिल
और अपना दिल, कुंवारा दिल
प्यार में हारा, बेचारा दिल
यह कहने में कुछ रिस्क है, यारम
नाराज़ न हो, इश्क है, यारम
हो रात सवेरे, शाम या दोपहरी
बंद आँखों में लेके तुम्हें ऊंघा करेंगे हम
तकिये चादर महके रहते हैं
जो तुम गए
तुम्हारी खुशबू सूंघा करेंगे हम
ज़ुल्फ़ में फँसी हुई खोल देंगे बालियाँ
कान खिंच जाए अगर
खा लें मीठी गालियाँ
चुनते चलें पैरों के निशाँ
कि उन पर और न पाँव पड़ें
तुम्हारी धडकनें, तुम्हारा दिल सुनें
तुम्हारी सांस सुनें, लगी कंपकंपी
न गजरे बुनें, जूही मोगरा तो कभी दिल
हमारा दिल, प्यार में हारा, बेचारा दिल
हमारा दिल, हमारा दिल
प्यारा में हारा, बेचारा दिल
फिल्म - एक थी डायन(2013)
49.
बोलिये सुरीली बोलियाँबोलिये सुरीली बोलियाँ
खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियाँ
रात में घोले चाँद की मिश्री
दिन के ग़म नमकीन लगते हैं
नमकीन आँखों की नशिली बोलियाँ
गूंज रहे हैं डूबते साये
शाम की खुशबू हाथ ना आये
गूंजती आँखों की नशिली बोलियाँ
प्यार वो बीज है - Gulzar
प्यार कभी इकतरफ़ा होता है; न होगा
दो रूहों के मिलन की जुड़वां पैदाईश है ये
प्यार अकेला नहीं जी सकता
जीता है तो दो लोगों में
मरता है तो दो मरते हैं
प्यार इक बहता दरिया है
झील नहीं कि जिसको किनारे बाँध के बैठे रहते हैं
सागर भी नहीं कि जिसका किनारा नहीं होता
बस दरिया है और बह जाता है
दरिया जैसे चढ़ जाता है ढल जाता है
चढ़ना ढलना प्यार में वो सब होता है
पानी की आदत है उपर से नीचे की जानिब बहना
नीचे से फिर भाग के सूरत उपर उठना
बादल बन आकाश में बहना
कांपने लगता है जब तेज़ हवाएँ छेड़े
बूँद-बूँद बरस जाता है
प्यार एक ज़िस्म के साज़ पर बजती गूँज नहीं है
न मन्दिर की आरती है न पूजा है
प्यार नफा है न लालच है
न कोई लाभ न हानि कोई
प्यार हेलान हैं न एहसान है
न कोई जंग की जीत है ये
न ये हुनर है न ये इनाम है
न रिवाज कोई न रीत है ये
ये रहम नहीं ये दान नहीं
न बीज नहीं कोई जो बेच सकें
खुशबू है मगर ये खुशबू की पहचान नहीं
दर्द, दिलासे, शक़, विश्वास, जुनूं,
और होशो हवास के इक अहसास के कोख से पैदा हुआ
इक रिश्ता है ये
यह सम्बन्ध है दुनियारों का,
दुरमाओं का, पहचानों का
पैदा होता है, बढ़ता है ये, बूढा होता नहीं
मिटटी में पले इक दर्द की ठंढी धूप तले
जड़ और तल की एक फसल
कटती है मगर ये फटती नहीं
मट्टी और पानी और हवा कुछ रौशनी
और तारीकी को छोड़
जब बीज की आँख में झांकते हैं
तब पौधा गर्दन ऊँची करके
मुंह नाक नज़र दिखलाता है
पौधे के पत्ते-पत्ते पर
कुछ प्रश्न भी है कुछ उत्तर भी
किस मिट्टी की कोख़ से हो तुम
किस मौसम ने पाला पोसा
औ' सूरज का छिड़काव किया
किस सिम्त गयी साखें उसकी
कुछ पत्तों के चेहरे उपर हैं
आकाश के ज़ानिब तकते हैं
कुछ लटके हुए ग़मगीन मगर
शाखों के रगों से बहते हुए
पानी से जुड़े मट्टी के तले
एक बीज से आकर पूछते हैं
हम तुम तो नहीं
पर पूछना है तुम हमसे हो या हम तुमसे
प्यार अगर वो बीज है तो
इक प्रश्न भी है इक उत्तर भी
51.
बस एक लम्हे का झगड़ा थाबस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था
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