गुलज़ार की ग़ज़ल, ग़ज़लें Gulzar ki Ghazal/Ghazals

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गुलज़ार की ग़ज़ल, ग़ज़लें
Gulzar ki Ghazal/Ghazals

आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ - Gulzar

आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ

उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ

 

पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ

कितनी उँडेलीं आँखें प बुझता नहीं धुआँ

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं

मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ

 

चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई

कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ

 

काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में

बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ

 

आँखों के पोछने से लगा आग का पता

यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ

 

चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में

थोड़ा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ

एक परवाज़ दिखाई दी है - Gulzar 

एक परवाज़ दिखाई दी है

तेरी आवाज़ सुनाई दी है

 

सिर्फ़ एक सफ़्हा पलट कर उस ने

सारी बातों की सफ़ाई दी है

 

फिर वहीं लौट के जाना होगा

यार ने कैसी रिहाई दी है

 

जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ

उस ने सदियों की जुदाई दी है

 

ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं

दिल ने हर चीज़ पराई दी है

 

आग में क्या क्या जला है शब भर

कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है

एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी - Gulzar

एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी

ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तनहाई भी

-love-shayari

 

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं

कितनी सौंधी लगती है तब माँझी की रुसवाई भी

 

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में

मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी

 

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है

उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Gulzar

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता

मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता

 

यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता

कोई एहसास तो दरिया की अना का होता

 

साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती

कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता

 

काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं

काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता

 

क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए

एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता

ओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश पर - Gulzar

ओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश पर

सैली सी ख़ामोशी में आवाज़ सुनी फ़रमाइश पर

 

फ़ासले हैं भी और नहीं भी नापा तौला कुछ भी नहीं

लोग ब-ज़िद रहते हैं फिर भी रिश्तों की पैमाइश पर

 

मुँह मोड़ा और देखा कितनी दूर खड़े थे हम दोनों

आप लड़े थे हम से बस इक करवट की गुंजाइश पर

 

काग़ज़ का इक चाँद लगा कर रात अँधेरी खिड़की पर

दिल में कितने ख़ुश थे अपनी फ़ुर्क़त की आराइश पर

 

दिल का हुज्रा कितनी बार उजड़ा भी और बसाया भी

सारी उम्र कहाँ ठहरा है कोई एक रिहाइश पर

 

धूप और छाँव बाँट के तुम ने आँगन में दीवार चुनी

क्या इतना आसान है ज़िंदा रहना इस आसाइश पर

 

शायद तीन नुजूमी मेरी मौत पे आ कर पहुँचेंगे

ऐसा ही इक बार हुआ था ईसा की पैदाइश पर

कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे - Gulzar

कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे

कहीं से आता हुआ कोई शहवार दिखे

 

ख़फ़ा थी शाख़ से शायद कि जब हवा गुज़री

ज़मीं पे गिरते हुए फूल बे-शुमार दिखे

 

रवाँ हैं फिर भी रुके हैं वहीं पे सदियों से

बड़े उदास लगे जब भी आबशार दिखे 

कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ़

किसी की आँख में हम को भी इंतिज़ार दिखे 

कोई तिलिस्मी सिफ़त थी जो इस हुजूम में वो

हुए जो आँख से ओझल तो बार बार दिखे

काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी - Gulzar

काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी

तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी

 

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं

सोंधी सोंधी लगती है तब माज़ी की रुस्वाई भी

 

दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में

मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी

 

कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक

सुब्ह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी

 

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी

उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी

 

कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं

आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी

कोई अटका हुआ है पल शायद - Gulzar

कोई अटका हुआ है पल शायद

वक़्त में पड़ गया है बल शायद

 

लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद

वो अकेले हैं आज-कल शायद 

दिल अगर है तो दर्द भी होगा

इस का कोई नहीं है हल शायद 

जानते हैं सवाब-ए-रहम-ओ-करम

उन से होता नहीं अमल शायद 

आ रही है जो चाप क़दमों की

खिल रहे हैं कहीं कँवल शायद 

राख को भी कुरेद कर देखो

अभी जलता हो कोई पल शायद 

चाँद डूबे तो चाँद ही निकले

आप के पास होगा हल शायद

कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है - Gulzar

कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है

ज़िंदगी एक नज़्म लगती है 

बज़्म-ए-याराँ में रहता हूँ तन्हा

और तंहाई बज़्म लगती है 

अपने साए पे पाँव रखता हूँ

छाँव छालों को नर्म लगती है 

चाँद की नब्ज़ देखना उठ कर

रात की साँस गर्म लगती है 

ये रिवायत कि दर्द महके रहें

दिल की देरीना रस्म लगती है

खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं - Gulzar

खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं

हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं

 

बस एक वहशत-ए-मंज़िल है और कुछ भी नहीं

कि चंद सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते रहते हैं

 

मुझे तो रोज़ कसौटी पे दर्द कसता है

कि जाँ से जिस्म के बख़िये उधड़ते रहते हैं

 

कभी रुका नहीं कोई मक़ाम-ए-सहरा में

कि टीले पाँव-तले से सरकते रहते हैं

 

ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं

ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं

 

भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में

उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में - Gulzar

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में

एक पुराना ख़त खोला अनजाने में

 

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं

चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

 

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे

धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में

 

जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में

दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में 

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है

किस की आहट सुनता हूँ वीराने में 

हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले

उन को शायद उम्र लगेगी आने में

गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से - Gulzar

गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से

आसमाँ भर गया है चीलों से

 

सूली चढ़ने लगी है ख़ामोशी

लोग आए हैं सुन के मीलों से

 

कान में ऐसे उतरी सरगोशी

बर्फ़ फिसली हो जैसे टीलों से

 

गूँज कर ऐसे लौटती है सदा

कोई पूछे हज़ारों मीलों से 

प्यास भरती रही मिरे अंदर

आँख हटती नहीं थी झीलों से 

लोग कंधे बदल बदल के चले

घाट पहुँचे बड़े वसीलों से

गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं - Gulzar

गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं

गुलों के हाथ बहुत सी दुआएँ भेजी हैं

 

जो आफ़्ताब कभी भी ग़ुरूब होता नहीं

हमारा दिल है उसी की शुआएँ भेजी हैं

 

अगर जलाए तुम्हें भी शिफ़ा मिले शायद

इक ऐसे दर्द की तुम को शुआएँ भेजी हैं

 

तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगतीं

वो सारी चीज़ें जो तुम को रुलाएँ, भेजी हैं

 

सियाह रंग चमकती हुई कनारी है

पहन लो अच्छी लगेंगी घटाएँ भेजी हैं

 

तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं

सज़ाएँ भेज दो हम ने ख़ताएँ भेजी हैं

 

अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा

ज़मीं से पाँव उठाओ हवाएँ भेजी हैं

जब भी आँखों में अश्क भर आए - Gulzar

जब भी आँखों में अश्क भर आए

लोग कुछ डूबते नज़र आए

 

अपना मेहवर बदल चुकी थी ज़मीं

हम ख़ला से जो लौट कर आए

 

चाँद जितने भी गुम हुए शब के

सब के इल्ज़ाम मेरे सर आए

 

चंद लम्हे जो लौट कर आए

रात के आख़िरी पहर आए

 

एक गोली गई थी सू-ए-फ़लक

इक परिंदे के बाल-ओ-पर आए

 

कुछ चराग़ों की साँस टूट गई

कुछ ब-मुश्किल दम-ए-सहर आए

 

मुझ को अपना पता-ठिकाना मिले

वो भी इक बार मेरे घर आए

जब भी ये दिल उदास होता है - Gulzar

जब भी ये दिल उदास होता है

जाने कौन आस-पास होता है

 

आँखें पहचानती हैं आँखों को

दर्द चेहरा-शनास होता है

 

गो बरसती नहीं सदा आँखें

अब्र तो बारह-मास होता है

 

छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन

नीचे नाख़ुन के मास होता है

 

ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है

दर्द दिल का लिबास होता है

 

डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी

साँप मौक़ा-शनास होता है

 

सिर्फ़ इतना करम किया कीजे

आप को जितना रास होता है

ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें - Gulzar

ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें

शम्अ जलती है तो लाज़िम है शुआएँ निकलें

 

वक़्त की ज़र्ब से कट जाते हैं सब के सीने

चाँद का छिलका उतर जाए तो क़ाशें निकलें

 

दफ़्न हो जाएँ कि ज़रख़ेज़ ज़मीं लगती है

कल इसी मिट्टी से शायद मिरी शाख़ें निकलें

 

चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं

दिल को पिघलाएँ तो हो सकता है साँसें निकलें

 

ग़ार के मुँह पे रखा रहने दो संग-ए-ख़ुर्शीद

ग़ार में हाथ न डालो कहीं रातें निकलें

ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का - Gulzar

ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का

एक दरवाज़ा सा खुलता है कुतुब-ख़ाने का

 

एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे

दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का

 

बुलबुला फिर से चला पानी में ग़ोते खाने

न समझने का उसे वक़्त न समझाने का

 

मैं ने अल्फ़ाज़ तो बीजों की तरह छाँट दिए

ऐसा मीठा तिरा अंदाज़ था फ़रमाने का

 

किस को रोके कोई रस्ते में कहाँ बात करे

न तो आने की ख़बर है न पता जाने का

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा - Gulzar

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा

क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा

 

अपने साए से चौंक जाते हैं

उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

 

रात भर बातें करते हैं तारे

रात काटे कोई किधर तन्हा

 

डूबने वाले पार जा उतरे

नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा

 

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में

रात होती नहीं बसर तन्हा 

हम ने दरवाज़े तक तो देखा था

फिर न जाने गए किधर तन्हा

तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की - Gulzar

तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की

क्यूँ इतनी लम्बी होती है चाँदनी रात जुदाई की

 

नींद में कोई अपने-आप से बातें करता रहता है

काल-कुएँ में गूँजती है आवाज़ किसी सौदाई की

 

सीने में दिल की आहट जैसे कोई जासूस चले

हर साए का पीछा करना आदत है हरजाई की

 

आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं

क्या तुम ने उड़ती देखी है रेत कभी तन्हाई की

 

तारों की रौशन फ़सलें और चाँद की एक दरांती थी

साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की

तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए - Gulzar

तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए

कुछ भँवर डूब गए पानी में चकराते हुए

 

हम ने तो रात को दाँतों से पकड़ कर रक्खा

छीना-झपटी में उफ़ुक़ खुलता गया जाते हुए 

मैं न हूँगा तो ख़िज़ाँ कैसे कटेगी तेरी

शोख़ पत्ते ने कहा शाख़ से मुरझाते हुए

 

हसरतें अपनी बिलक्तीं न यतीमों की तरह

हम को आवाज़ ही दे लेते ज़रा जाते हुए

 

सी लिए होंट वो पाकीज़ा निगाहें सुन कर

मैली हो जाती है आवाज़ भी दोहराते हुए

दर्द हल्का है साँस भारी है - Gulzar

दर्द हल्का है साँस भारी है

जिए जाने की रस्म जारी है

 

आप के ब'अद हर घड़ी हम ने

आप के साथ ही गुज़ारी है

 

रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो

दिन की चादर अभी उतारी है

 

शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले

कैसी चुप सी चमन पे तारी है

 

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था

आज की दास्ताँ हमारी है

दिखाई देते हैं धुँद में जैसे साए कोई - Gulzar

दिखाई देते हैं धुँद में जैसे साए कोई

मगर बुलाने से वक़्त लौटे न आए कोई

 

मिरे मोहल्ले का आसमाँ सूना हो गया है

बुलंदियों पे अब आ के पेचे लड़ाए कोई

 

वो ज़र्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे

कहाँ गए बहते पानियों में बुलाए कोई

 

ज़ईफ़ बरगद के हाथ में रअशा आ गया है

जटाएँ आँखों पे गिर रही हैं उठाए कोई 

मज़ार पे खोल कर गिरेबाँ दुआएँ माँगें

जो आए अब के तो लौट कर फिर न जाए कोई

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई - Gulzar

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई

जैसे एहसाँ उतारता है कोई

 

दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म

जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई

 

आइना देख कर तसल्ली हुई

हम को इस घर में जानता है कोई

 

पेड़ पर पक गया है फल शायद

फिर से पत्थर उछालता है कोई

 

देर से गूँजते हैं सन्नाटे

जैसे हम को पुकारता है कोई

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं - Gulzar

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं

शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं

 

नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूँ

और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं

 

चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुँह ढाँप लिया

लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं

 

कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग

उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं

 

वक़्त के तीर तो सीने पे सँभाले हम ने

और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं

 

रूह से छीले हुए जिस्म जहाँ बिकते हैं

हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं

 

जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल

कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं

फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की - Gulzar

फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की

इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की

 

कल फिर चाँद का ख़ंजर घोंप के सीने में

रात ने मेरी जाँ लेने की कोशिश की

 

कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया

जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की

 

कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ

उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की

 

एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है

मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की

 

एक सितारा जल्दी जल्दी डूब गया

मैं ने जब तारे गिनने की कोशिश की

 

नाम मिरा था और पता अपने घर का

उस ने मुझ को ख़त लिखने की कोशिश की

 

एक धुएँ का मर्ग़ोला सा निकला है

मिट्टी में जब दिल बोने की कोशिश की

फूलों की तरह लब खोल कभी - Gulzar

फूलों की तरह लब खोल कभी

ख़ुशबू की ज़बाँ में बोल कभी

 

अल्फ़ाज़ परखता रहता है

आवाज़ हमारी तोल कभी

 

अनमोल नहीं लेकिन फिर भी

पूछ तो मुफ़्त का मोल कभी

 

खिड़की में कटी हैं सब रातें

कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी

 

ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह

हो जाता है डाँवा-डोल कभी

बीते रिश्ते तलाश करती है - Gulzar

बीते रिश्ते तलाश करती है

ख़ुशबू ग़ुंचे तलाश करती है

 

जब गुज़रती है उस गली से सबा

ख़त के पुर्ज़े तलाश करती है

 

अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार

पीले पत्ते तलाश करती है

 

एक उम्मीद बार बार आ कर

अपने टुकड़े तलाश करती है

 

बूढ़ी पगडंडी शहर तक आ कर

अपने बेटे तलाश करती है

बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद - Gulzar

बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद

कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद

 

जाने किस की गली से निकला है

झेंपा झेंपा सा आ रहा है चाँद

 

कितना ग़ाज़ा लगाया है मुँह पर

धूल ही धूल उड़ा रहा है चाँद

 

कैसा बैठा है छुप के पत्तों में

बाग़बाँ को सता रहा है चाँद

 

सीधा-सादा उफ़ुक़ से निकला था

सर पे अब चढ़ता जा रहा है चाँद

 

छू के देखा तो गर्म था माथा

धूप में खेलता रहा है चाँद

मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता - Gulzar

मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता

मगर चराग़ की सूरत जला दिया होता

 

न रौशनी कोई आती मिरे तआक़ुब में

जो अपने-आप को मैं ने बुझा दिया होता

 

ये दर्द जिस्म के या-रब बहुत शदीद लगे

मुझे सलीब पे दो पल सुला दिया होता

 

ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा

वगर्ना ज़िंदगी ने तो रुला दिया होता

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले - Gulzar

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले

क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले

 

उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर

चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले

 

न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी

नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले

 

सहर न आई कई बार नींद से जागे

थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले

 

मिली है शम्अ से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को

गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले

वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था - Gulzar

वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था

हवाओं का रुख़ दिखा रहा था

 

बताऊँ कैसे वो बहता दरिया

जब आ रहा था तो जा रहा था

 

कुछ और भी हो गया नुमायाँ

मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था

 

धुआँ धुआँ हो गई थीं आँखें

चराग़ को जब बुझा रहा था

 

मुंडेर से झुक के चाँद कल भी

पड़ोसियों को जगा रहा था

 

उसी का ईमाँ बदल गया है

कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था

 

वो एक दिन एक अजनबी को

मिरी कहानी सुना रहा था

 

वो उम्र कम कर रहा था मेरी

मैं साल अपने बढ़ा रहा था

 

ख़ुदा की शायद रज़ा हो इस में

तुम्हारा जो फ़ैसला रहा था

शाम से आज साँस भारी है - Gulzar

शाम से आज साँस भारी है

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है

 

आप के बा'द हर घड़ी हम ने

आप के साथ ही गुज़ारी है

 

रात को दे दो चाँदनी की रिदा

दिन की चादर अभी उतारी है

 

शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले

कैसी चुप सी चमन में तारी है

 

कल का हर वाक़िआ' तुम्हारा था

आज की दास्ताँ हमारी है

शाम से आँख में नमी सी है - Gulzar

शाम से आँख में नमी सी है

आज फिर आप की कमी सी है 

दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए

नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

 

कौन पथरा गया है आँखों में

बर्फ़ पलकों पे क्यूँ जमी सी है

 

वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर

आदत इस की भी आदमी सी है

 

आइए रास्ते अलग कर लें

ये ज़रूरत भी बाहमी सी है

सब्र हर बार इख़्तियार किया - Gulzar

सब्र हर बार इख़्तियार किया

हम से होता नहीं हज़ार किया

 

आदतन तुम ने कर दिए वा'दे

आदतन हम ने ए'तिबार किया

 

हम ने अक्सर तुम्हारी राहों में

रुक कर अपना ही इंतिज़ार किया

 

फिर न माँगेंगे ज़िंदगी या-रब

ये गुनह हम ने एक बार किया

सहमा सहमा डरा सा रहता है - Gulzar

सहमा सहमा डरा सा रहता है

जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है

 

काई सी जम गई है आँखों पर

सारा मंज़र हरा सा रहता है

 

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ

जल गया घर ज़रा सा रहता है 

सर में जुम्बिश ख़याल की भी नहीं

ज़ानुओं पर धरा सा रहता है

हम तो कितनों को मह-जबीं कहते - Gulzar

हम तो कितनों को मह-जबीं कहते

आप हैं इस लिए नहीं कहते

 

चाँद होता न आसमाँ पे अगर

हम किसे आप सा हसीं कहते

 

आप के पाँव फिर कहाँ पड़ते

हम ज़मीं को अगर ज़मीं कहते

 

आप ने औरों से कहा सब कुछ

हम से भी कुछ कभी कहीं कहते

 

आप के ब'अद आप ही कहिए

वक़्त को कैसे हम-नशीं कहते

 

वो भी वाहिद है मैं भी वाहिद हूँ

किस सबब से हम आफ़रीं कहते

हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए - Gulzar

हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए

दो दिन की ज़िंदगी में हज़ारों बरस जिए

 

सदियों पे इख़्तियार नहीं था हमारा दोस्त

दो चार लम्हे बस में थे दो चार बस जिए

 

सहरा के उस तरफ़ से गए सारे कारवाँ

सुन सुन के हम तो सिर्फ़ सदा-ए-जरस जिए

 

होंटों में ले के रात के आँचल का इक सिरा

आँखों पे रख के चाँद के होंटों का मस जिए

 

महदूद हैं दुआएँ मिरे इख़्तियार में

हर साँस पुर-सुकून हो तू सौ बरस जिए

हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है - Gulzar

हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है

ज़मीं से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती है

 

मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को

मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है

 

ज़मीं सा दूसरा कोई सख़ी कहाँ होगा

ज़रा सा बीज उठा ले तो पेड़ देती है

 

रुँधे गले की दुआओं से भी नहीं खुलता

दर-ए-हयात जिसे मौत भेड़ देती है

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते - Gulzar

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते

 

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन

ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

 

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो

ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

 

जागने पर भी नहीं आँख से गिरतीं किर्चें

इस तरह ख़्वाबों से आँखें नहीं फोड़ा करते

 

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा

जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते

 

जा के कोहसार से सर मारो कि आवाज़ तो हो

ख़स्ता दीवारों से माथा नहीं फोड़ा करते

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