कभी - कभी - सुव्रत शुक्ल | Kabhi-Kabhi - Suvrat Shukla

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"कभी - कभी"

कभी कभी लगता है,
काश कमजोर होती ये याद्दाश्त।
न बुरे लम्हे याद रहते न अच्छे।
कभी कभी लगता है,
ना याद करें हम गुजरी हुई जिंदगी को,
क्योंकि वो तो हो कर ही रहता है जो होना है।
क्यों फरियाद करें उसकी जो किस्मत में ही नही है।
क्यों अपने आज को बर्बाद करें कल की फिक्र में।
कभी कभी लगता है,
क्यों एक गलती
मनुष्य से सारे अच्छे कामों को मिट्टी में मिला देती है 
क्यों ये दुनियां इसी इंतजार में बैठी रहती है,
हम गलती करें 
और वो हमारी अच्छाई भुला कर 
हमें कह सकें उन्होंने गलती किया 
हम पर भरोसा कर के।
कभी कभी लगता है,
क्यों हम हरदम दूसरों को ही खुश करने में लगे रहें।
हम क्यों अपनी जिंदगी दूसरों के हिसाब से जिए,
क्यों लोगों की घुटन भरी बाते पीएं।
कभी कभी लगता है,
क्यों हम पूरी जिंदगी गुजार देते हैं अच्छे वक्त के इंतजार में।
जबकि सबसे अच्छा वक्त तो यही है जो गुजर रहा है।
ऐसा महसूस कर रहा हूं, मै खड़ा हूं बस जिंदगी गुज़र रही है,
प्राण भले हैं यहां, पर जिंदादिली मर रही है।
पर अब ये जाना हूं,
सबकुछ स्वीकर कर लेना चाहिए,
क्योंकि ऐसा करने से सब हल्का हो जाता है,
ऐसा लगने लगता है जैसे कोई समस्या ही नही थी
जिसके लिए कभी हम बहुत परेशान थे।।
         - सुव्रत शुक्ल "मोहन"
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