कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - सन्नाटा या शोर

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - सन्नाटा या शोर

सन्नाटा या शोर
कितना अजीब है
अपने ही सिरहाने बैठकर
अपने को गहरी नींद में सोते हुए देखना।
यह रोशनी नहीं
मेरा घर जल रहा है।
मेरे ज़ख्मी पाँवों को एक लम्बा रास्ता
निगल रहा है।
मेरी आँखें नावों की तरह
एक अंधेरे महासागर को पार कर रही हैं।

यह पत्थर नहीं
मेरी चकनाचूर शक्ल का एक टुकड़ा है।
मेरे धड़ का पदस्थल
उसके नीचे गड़ा है।
मेरा मुंह एक बन्द तहखाना है। मेरे अन्दर
शब्दों का एक गुम खज़ाना है। बाहर
एक भारी फ्त्थर के नीचे दबे पड़े
किसी वैतालिक अक्लदान में चाभियों की तरह
मेरी कटी उँगलियों के टुकड़े।

क्या मैं अपना मुँह खोल पा रहा हूँ?
क्या मैं कुछ भी बोल पा रहा हूँ?

लगातार सांय...सांय...मुझमें यह
सन्नाटा गूंजता है कि शोर?
इन आहटों और घबराहटों के पीछे
कोई हमदर्द है कि चोर?
लगता है मेरे कानों के बीच एक पाताल है
जिसमें मैं लगातार गिरता चला जा रहा हूँ।

मेरी बाईं तरफ़
क्या मेरा बायां हाथ है?
मेरा दाहिना हाथ
क्या मेरे ही साथ है?
या मेरे हाथों के बल्लों से
मेरे ही सिर को
गेंद की तरह खेला जा रहा है?

मैं जो कुछ भी कर पा रहा हूँ
वह विष्टा है या विचार?
मैं दो पांवों पर खड़ा हूं या चार?
क्या मैं खुशबू और बदबू में फ़र्क कर पा रहा हूँ?
क्या वह सबसे ऊँची नाक मेरी ही है
जिसकी सीध में
मैं सीधा चला जा रहा हूँ?
 

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