Anjum Saleemi Selected Ghazal

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Anjum Saleemi Selected Ghazal | अंजुम सलीमी की चुनिंदा ग़ज़ल 

आईना साफ़ था धुँधला हुआ रहता था मैं - अंजुम सलीमी

आईना साफ़ था धुँधला हुआ रहता था मैं
अपनी सोहबत में भी घबराया हुआ रहता था मैं
 
अपना चेहरा मुझे कतबे की तरह लगता था
अपने ही जिस्म में दफ़नाया हुआ रहता था मैं
 
जिस मोहब्बत की ज़रूरत थी मेरे लोगों को
उस मोहब्बत से भी बाज़ आया हुआ रहता था मैं
 
तू नहीं आता था जिस रोज़ टहलने के लिए
शाख़ के हाथ पे कुम्लाया हुआ रहता था मैं
 
दूसरे लोग बताते थे के मैं कैसा हूँ
अपने बारे ही में बहकाया हुआ रहता था मैं
 
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अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ - अंजुम सलीमी

अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ
पर निकल आते हैं परवाज़ भी कर लेता हूँ
 
तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म कर देता हूँ आग़ाज़ भी कर लेता हूँ
 
गुम्बद-ए-ज़ात में जब गूँजने लगता हूँ बहुत
ख़ामोशी तोड़ के आवाज़ भी कर लेता हूँ
 
यूँ तो इस हब्स से मानूस हैं साँसें मेरी
वैसे दीवार में दर बाज़ भी कर लेता हूँ
 
सब के सब ख़्वाब में तक़्सीम नहीं कर देता
एक दो ख़्वाब पस-अंदाज़ भी कर लेता हूँ
 
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बुझने दे सब दिए मुझे तनहाई चाहिए - अंजुम सलीमी

बुझने दे सब दिए मुझे तनहाई चाहिए
कुछ देर के लिए मुझे तनहाई चाहिए
 
कुछ ग़म कशीद करने हैं अपने वजूद से
जा ग़म के साथिए मुझे तनहाई चाहिए
 
उकता गया हूँ ख़ुद से अगर मैं तो क्या हुआ
ये भी तो देखिए मुझे तनहाई चाहिए
 
इक रोज़ ख़ुद से मिलना है अपने ख़ुमार में
इक शाम बिन पिए मुझे तनहाई चाहिए
 
तकरार इस में क्या है अगर के रहा हूँ मैं
तनहाई चाहिए मुझे तनहाई चाहिए
 
दुनिया से कुछ नहीं है सर-ओ-कार अब मुझे
बे-शक मेरे लिए मुझे तनहाई चाहिए
 
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चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ - अंजुम सलीमी

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ
मैं ख़ाली हाथ ख़ज़ानों की सैर करता हुआ
 
पुकारता है कोई डूबता हुआ साया
लरज़ते आईना-ख़ानों की सैर करता हुआ
 
बहुत उदास लगा आज ज़र्द-रू महताब
गली के बंद मकानों की सैर करता हुआ
 
मैं ख़ुद को अपनी हथेली पे ले के फिरता रहा
ख़तर के सुर्ख़ निशानों की सैर करता हुआ
 
कलाम कैसा चका-चौंद हो गया मैं तो
क़दीम लहजों ज़बानों की सैर करता हुआ
 
ज़्यादा दूर नहीं हूँ तेरे ज़माने से
मैं आ मिलूँगा ज़मानों की सैर करता हुआ
 
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दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता - अंजुम सलीमी

दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता
इश्क़ में बाबा एक जनम से काम नहीं चल सकता
 
बहुत दिनों से मुझ से है कैफ़ियत रोज़े वाली
दर्द-ए-फ़रावाँ सीने में कोहराम नहीं चल सकता
 
तोहमत-ए-इश्क़ मुनासिब है और हम पर जचती है
हम ऐसों पर और कोई इल्ज़ाम नहीं चल सकता
 
चम चम करते हुस्न की तुम जो अशरफ़ियाँ लाए हो
इस मीज़ान में ये दुनियावी दाम नहीं चल सकता
 
आँख झपकने की मोहलत भी कम मिलती है 'अंजुम'
फ़क़्र में कोई तन-आसाँ दो-गाम नहीं चल सकता
 
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दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया - अंजुम सलीमी

दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया
दिल बुझने लगा था सो नज़ारे से उठाया
 
बे-जान पड़ा देखता रहता था मैं उस को
इक रोज़ मुझे उस ने इशारे से उठाया
 
इक लहर मुझे खींच के ले आई भँवर में
वो लहर जिसे मैं ने किनारे से उठाया
 
घर में कहीं गुंजाइश-ए-दर ही नहीं रक्खी
बुनियाद को किस शक के सहारे से उठाया
 
इक मैं ही था ऐ जिंस-ए-मोहब्बत तुझे अर्ज़ां
और मैं ने भी अब हाथ ख़सारे से उठाया
 
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दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ - अंजुम सलीमी

दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ
बे-कार कर सफ़र में कोई काम कर के आऊँ
 
बे-मोल कर गईं मुझे घर की ज़रूरतें
अब अपने आप को कहाँ नीलाम कर के आऊँ
 
मैं अपने शोर ओ शर से किसी रोज़ भाग कर
इक और जिस्म में कहीं आराम कर के आऊँ
 
कुछ रोज़ मेरे नाम का हिस्सा रहा है वो
अच्छा नहीं के अब उसे बद-नाम कर के आऊँ
 
'अंजुम' मैं बद-दुआ भी नहीं दे सका उसे
जी चाहता तो था वहाँ कोहराम कर के आऊँ
 
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इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे - अंजुम सलीमी

इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
इश्क़ भी जैसे कोई ज़ेहनी सहूलत है मुझे
 
मैं ने तुझ पर तेरे हिज्राँ को मुक़द्दम जाना
तेरी जानिब से किसी रंज की हसरत है मुझे
 
ख़ुद को समझाऊँ के दुनिया की ख़बर-गीरी करूँ
इस मोहब्बत में कोई एक मुसीबत है मुझे
 
दिल नहीं रखता किसी और तमन्ना की हवस
ऐसा हो पाए तो क्या इस में क़बाहत है मुझे
 
एक बे-नाम उदासी से भरा बैठा हूँ
आज जी खोल के रो लेने की हाजत है मुझे
 
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इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया - अंजुम सलीमी

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
ये सफ़र भी मेरा राएगाँ रह गया
 
हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़
और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया
 
राख पोरों से झड़ती गई उम्र की
साँस की नालियों में धुआँ रह गया
 
अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ
बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया
 
जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-ए-वरो
मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया
 
मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में
मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया
 
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जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़ - अंजुम सलीमी

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़
जा निकलता हूँ किसी और ज़माने की तरफ़
 
आँख बे-दार हुई कैसी ये पेशानी पर
कैसा दरवाज़ा खुला आईना-ख़ाने की तरफ़
 
ख़ुद ही अंजाम निकल आएगा इस वाक़िए से
एक किरदार रवाना है फ़साने की तरफ़
 
हल निकलता है यही रिश्तों की मिस्मारी का
लोग आ जाते हैं दीवार उठाने की तरफ़
 
दरमियाँ तेज़ हवा भी है ज़माना भी है
तीर तो छोड़ दिया मैं ने निशाने की तरफ़
 
एक बिछड़ी हुई आवाज़ बुलाती है मुझे
वक़्त के पार से गुम-गश्ता ठिकाने की तरफ़
 
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कागज़ था मैं दिए पे मुझे रख दिया गया - अंजुम सलीमी

कागज़ था मैं दिए पे मुझे रख दिया गया
इक और मर्तबे पे मुझे रख दिया गया
 
इक बे-बदन का अक्स बनाया गया हूँ मैं
बे-आब आईने पे मुझे रख दिया गया
 
कुछ तो खिंची खिंची सी थी साअत विसाल की
कुछ यूँ भी फ़ासले पे मुझे रख दिया गया
 
मुँह-माँगे दाम दे के ख़रीदा और उस के बाद
इक ख़ास ज़ाविए पे मुझे रख दिया गया
 
कल रात मुझ को चोरी किया जा रहा था यार
और मेरे जागने पे मुझे रख दिया गया
 
अच्छा भला पड़ा था मैं अपने वजूद में
दुनिया के रास्ते पे मुझे रख दिया गया
 
पहले तो मेरी मिट्टी से मुझ को किया चराग़
फिरे मेरे मक़बरे पे मुझे रख दिया गया
 
'अंजुम' हवा के ज़ोर पे जाना है उस तरफ़
पानी के बुलबुले पे मुझे रख दिया गया
 
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कल तो तेरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की - अंजुम सलीमी

कल तो तेरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
सारी हसरत निकल गई मेरी तन-आसानी की
 
पड़ा हुआ हूँ शाम से मैं उसी बाग़-ए-ताज़ा में
मुझ में शाख निकल आई है रात की रानी की
 
इस चौपाल के पास इक बूढ़ा बरगद होता था
एक अलामत गुम है यहाँ से मेरी कहानी की
 
तुम ने कुछ पढ़ कर फूँका मिट्टी के प्याले में
या मिट्टी में गुँधी हुई तासीर है पानी की
 
क्या बतलाऊँ तुम को तुम तक अर्ज़ गुज़ारने में
दिल ने अपने आप से कितनी खींचा-तानी की
 
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ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है - अंजुम सलीमी

ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है
मैं ने इक शख़्स से उज्रत पे मोहब्बत की है
 
ख़ुद को धुत्कार दिया मैं ने तो इस दुनिया ने
मेरी औक़ात से बढ़ कर मेरी इज़्ज़त की है
 
जी में आता है मेरी मुझ से मुलाक़ात न हो
बात मिलने की नहीं बात तबीअत की है
 
अब भी थोड़ी सी मेरे दिल में पड़ी है शायद
ज़र्द सी धूप जो दीवार से रुख़्सत की है
 
आज जी भर के तुझे देखा तो महसूस हुआ
आँख ने सूरा-ए-यूसुफ़ की तिलावत की है
 
हाल पूछा है मेरा पोंछे हैं आँसू मेरे
शुक्रिया तुम ने मेरे दर्द में शिरकत की है
 
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मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी - अंजुम सलीमी

मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी
जो खुल गई कभी मुझ पर मुनफ़िक़त अपनी
 
मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
मुझे पसंद नहीं है मुदाख़ेलत अपनी
 
मैं शर्म-सार हुआ अपने आप से फिर भी
क़ुबूल की ही नहीं मैं ने माज़रत अपनी
 
ज़माने से तो मेरा कुछ गिला नहीं बनता
के मुझ से मेरा तअल्लुक़ था मारेफ़त अपनी
 
ख़बर नहीं अभी दुनिया को मेरे सानेहे की
सो अपने आप से करता हूँ ताज़ियत अपनी
 
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ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ - अंजुम सलीमी

ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ
 
मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा के ये मैं हूँ
अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ
 
गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया
क़दीम ओ कोहना रवायात में पड़ा हुआ हूँ
 
बचाव का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में
मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ
 
मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था
सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ

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