राहत इन्दौरी की ग़ज़लें/रचनायें | Rahat Indori Poetry/Ghazlein

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ग़ज़लें/रचनायें - राहत इन्दौरी
Poetry/Ghazlein - Rahat Indori (toc)

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो - राहत इन्दौरी

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

 

राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें

रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो

 

एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो

 

आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में

कूच का ऐलान होने को है तय्यारी रखो

 

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे

नींद रखो या न रखो ख़्वाब मेयारी रखो

 

ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन

दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो

 

ले तो आए शाइरी बाज़ार में 'राहत' मियाँ

क्या ज़रूरी है कि लहजे को भी बाज़ारी रखो

अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ - राहत इन्दौरी

अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ

ऐसे ज़िद्दी हैं परिंदे कि उड़ा भी न सकूँ

 

फूँक डालूँगा किसी रोज़ मैं दिल की दुनिया

ये तिरा ख़त तो नहीं है कि जिला भी न सकूँ

 

मिरी ग़ैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे

उस ने इस तरह बुलाया है कि जा भी न सकूँ

 

फल तो सब मेरे दरख़्तों के पके हैं लेकिन

इतनी कमज़ोर हैं शाख़ें कि हिला भी न सकूँ

 

इक न इक रोज़ कहीं ढूँड ही लूँगा तुझ को

ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ

आँख प्यासी है कोई मन्ज़र दे - राहत इन्दौरी

आँख प्यासी है कोई मन्ज़र दे,

इस जज़ीरे को भी समन्दर दे

 

अपना चेहरा तलाश करना है,

गर नहीं आइना तो पत्थर दे

 

बन्द कलियों को चाहिये शबनम,

इन चिराग़ों में रोशनी भर दे

 

पत्थरों के सरों से कर्ज़ उतार,

इस सदी को कोई पयम्बर दे

 

क़हक़हों में गुज़र रही है हयात,

अब किसी दिन उदास भी कर दे

 

फिर न कहना के ख़ुदकुशी है गुनाह,

आज फ़ुर्सत है फ़ैसला कर दे


अपने होने का हम इस तरह पता देते थे - राहत इन्दौरी

अपने होने का हम इस तरह पता देते थे

खाक मुट्ठी में उठाते थे, उड़ा देते थे

 

बेसमर जान के हम काट चुके हैं जिनको

याद आते हैं के बेचारे हवा देते थे

 

उसकी महफ़िल में वही सच था वो जो कुछ भी कहे

हम भी गूंगों की तरह हाथ उठा देते थे

 

अब मेरे हाल पे शर्मिंदा हुये हैं वो बुजुर्ग

जो मुझे फूलने-फलने की दुआ देते थे

 

अब से पहले के जो क़ातिल थे बहुत अच्छे थे

कत्ल से पहले वो पानी तो पिला देते थे

 

वो हमें कोसता रहता था जमाने भर में

और हम अपना कोई शेर सुना देते थे

 

घर की तामीर में हम बरसों रहे हैं पागल

रोज दीवार उठाते थे, गिरा देते थे

 

हम भी अब झूठ की पेशानी को बोसा देंगे

तुम भी सच बोलने वालों के सज़ा देते थे


इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें - राहत इन्दौरी

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें

जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें

 

मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन,

जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें

 

ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,

पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें

 

ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,

फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें

 

ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर,

ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें

 

हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,

ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें

 

आओ शहर में नये दोस्त बनायें "राहत"

आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें


इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले - राहत इन्दौरी

इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले

राह में तीरगी होगी मिरे आँसू रख ले

 

तू जो चाहे तो तिरा झूट भी बिक सकता है

शर्त इतनी है कि सोने की तराज़ू रख ले

 

वो कोई जिस्म नहीं है कि उसे छू भी सकें

हाँ अगर नाम ही रखना है तो ख़ुश्बू रख ले

 

तुझ को अन-देखी बुलंदी में सफ़र करना है

एहतियातन मिरी हिम्मत मिरे बाज़ू रख ले

 

मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे

मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले


किसी आहू के लिये दूर तलक मत जाना - राहत इन्दौरी

किसी आहू के लिये दूर तलक मत जाना

शाहज़ादे कहीं जंगल में भटक मत जाना

 

इम्तहां लेंगे यहाँ सब्र का दुनिया वाले

मेरी आँखों ! कहीं ऐसे में चलक मत जाना

 

जिंदा रहना है तो सड़कों पे निकलना होगा

घर के बोसीदा किवाड़ों से चिपक मत जाना

 

कैंचियां ढ़ूंढ़ती फिरती हैं बदन खुश्बू का

खारे सेहरा कहीं भूले से महक मत जाना

 

ऐ चरागों तुम्हें जलना है सहर होने तक

कहीं मुँहजोर हवाओं से चमक मत जाना


काली रातों को भी रंगीन कहा है मैंने - राहत इन्दौरी

काली रातों को भी रंगीन कहा है मैंने

तेरी हर बात पे आमीन कहा है मैंने

 

तेरी दस्तार पे तन्कीद की हिम्मत तो नहीं

अपनी पापोश को कालीन कहा है मैंने

 

मस्लेहत कहिये इसे या के सियासत कहिये

चील-कौओं को भी शाहीन कहा है मैंने

 

ज़ायके बारहा आँखों में मज़ा देते हैं

बाज़ चेहरों को भी नमकीन कहा है मैंने

 

तूने फ़न की नहीं शिजरे की हिमायत की है

तेरे ऐजाज़ को तौहीन कहा है मैंने


कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो - राहत इन्दौरी

कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो

ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो

 

जला न लो कहीं हमदर्दियों में अपना वजूद

गली में आग लगी हो तो अपने घर में रहो

 

तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं

हमारी तरह अगर चार दिन सफ़र में रहो

 

है अब ये हाल कि दर दर भटकते फिरते हैं

ग़मों से मैं ने कहा था कि मेरे घर में रहो

 

किसी को ज़ख़्म दिए हैं किसी को फूल दिए

बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर में रहो


कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे - राहत इन्दौरी

कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे

जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे

 

मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उस का

इरादा मैं ने किया था कि छोड़ दूँगा उसे

 

बदन चुरा के वो चलता है मुझ से शीशा-बदन

उसे ये डर है कि मैं तोड़ फोड़ दूँगा उसे

 

पसीने बाँटता फिरता है हर तरफ़ सूरज

कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूँगा उसे

 

मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को

समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे


गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है - राहत इन्दौरी

गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है

मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है

 

फक़ीर शेख कलन्दर इमाम क्या-क्या है

तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है

 

अमीर-ए-शहर के कुछ कारोबार याद आए

मैँ रात सोच रहा था हराम क्या-क्या है


घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है - राहत इन्दौरी

घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है

अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है

 

जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो

इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है

 

मौत लम्हे की सदा ज़िंदगी उम्रों की पुकार

मैं यही सोच के ज़िंदा हूँ कि मर जाना है

 

नश्शा ऐसा था कि मय-ख़ाने को दुनिया समझा

होश आया तो ख़याल आया कि घर जाना है

 

मिरे जज़्बे की बड़ी क़द्र है लोगों में मगर

मेरे जज़्बे को मिरे साथ ही मर जाना है


चमकते लफ़्ज़ सितारों से छीन लाए हैं - राहत इन्दौरी

चमकते लफ़्ज़ सितारों से छीन लाए हैं

हम आसमाँ से ग़ज़ल की ज़मीन लाए हैं

 

वो और होंगे जो ख़ंजर छुपा के लाते हैं

हम अपने साथ फटी आस्तीन लाए हैं

 

हमारी बात की गहराई ख़ाक समझेंगे

जो पर्बतों के लिए ख़ुर्दबीन लाए हैं

 

हँसो न हम पे कि हर बद-नसीब बंजारे

सरों पे रख के वतन की ज़मीन लाए हैं

 

मिरे क़बीले के बच्चों के खेल भी हैं अजीब

किसी सिपाही की तलवार छीन लाए हैं


चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया - राहत इन्दौरी

चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया

आईना सारे शहर की बीनाई ले गया

 

डूबे हुए जहाज़ पे क्या तब्सिरा करें

ये हादिसा तो सोच की गहराई ले गया

 

हालाँकि बे-ज़बान था लेकिन अजीब था

जो शख़्स मुझ से छीन के गोयाई ले गया

 

मैं आज अपने घर से निकलने न पाऊँगा

बस इक क़मीस थी जो मिरा भाई ले गया

 

'ग़ालिब' तुम्हारे वास्ते अब कुछ नहीं रहा

गलियों के सारे संग तो सौदाई ले गया


जा के ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से - राहत इन्दौरी

जा के ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से

फूल इस बार खिले हैं बड़ी तय्यारी से

 

अपनी हर साँस को नीलाम किया है मैं ने

लोग आसान हुए हैं बड़ी दुश्वारी से

 

ज़ेहन में जब भी तिरे ख़त की इबारत चमकी

एक ख़ुश्बू सी निकलने लगी अलमारी से

 

शाहज़ादे से मुलाक़ात तो ना-मुम्किन है

चलिए मिल आते हैं चल कर किसी दरबारी से

 

बादशाहों से भी फेंके हुए सिक्के न लिए

हम ने ख़ैरात भी माँगी है तो ख़ुद्दारी से


जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है - राहत इन्दौरी

जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है

पत्ती पत्ती ने हवाओं से शिकायत की है

 

यूँ लगा जैसे कोई इत्र फ़ज़ा में घुल जाए

जब किसी बच्चे ने क़ुरआँ की तिलावत की है

 

जा-नमाज़ों की तरह नूर में उज्लाई सहर

रात भर जैसे फ़रिश्तों ने इबादत की है

 

सर उठाए थीं बहुत सुर्ख़ हवा में फिर भी

हम ने पलकों के चराग़ों की हिफ़ाज़त की है

 

मुझे तूफ़ान-ए-हवादिस से डराने वालो

हादसों ने तो मिरे हाथ पे बैअत की है

 

आज इक दाना-ए-गंदुम के भी हक़दार नहीं

हम ने सदियों इन्हीं खेतों पे हुकूमत की है

 

ये ज़रूरी था कि हम देखते क़िलओं के जलाल

उम्र भर हम ने मज़ारों की ज़ियारत की है


जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं - राहत इन्दौरी

जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं

न जाने किस के पैरों पर खड़े हैं

 

तुला है धूप बरसाने पे सूरज

शजर भी छतरियाँ ले कर खड़े हैं

 

उन्हें नामों से मैं पहचानता हूँ

मिरे दुश्मन मिरे अंदर खड़े हैं

 

किसी दिन चाँद निकला था यहाँ से

उजाले आज तक छत पर खड़े हैं

 

उजाला सा है कुछ कमरे के अंदर

ज़मीन-ओ-आसमाँ बाहर खड़े हैं


ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर - राहत इन्दौरी

ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर

रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर

 

टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट

और अपने हार जाने का सबब मालूम कर

 

जागती आँखों के ख़्वाबों को ग़ज़ल का नाम दे

रात भर की करवटों का ज़ाइक़ा मंजूम कर

 

शाम तक लौट आऊँगा हाथों का ख़ाली-पन लिए

आज फिर निकला हूँ मैं घर से हथेली चूम कर

 

मत सिखा लहजे को अपनी बर्छियों के पैंतरे

ज़िंदा रहना है तो लहजे को ज़रा मासूम कर


झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ - राहत इन्दौरी

झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ

क़द नापना है मेरा तो छत से उतर के आ

 

इस पार मुंतज़िर हैं तेरी खुश-नसीबियाँ

लेकिन ये शर्त है कि नदी पार कर के आ

 

कुछ दूर मैं भी दोशे-हवा पर सफर करूँ

कुछ दूर तू भी खाक की सुरत बिखर के आ

 

मैं धूल में अटा हूँ मगर तुझको क्या हुआ

आईना देख जा ज़रा घर जा सँवर के आ

 

सोने का रथ फ़क़ीर के घर तक न आयेगा

कुछ माँगना है हमसे तो पैदल उतर के आ


तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा कर के - राहत इन्दौरी

तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा कर के

दिल के बाज़ार में बैठे हैं ख़सारा कर के

 

आते जाते हैं कई रंग मिरे चेहरे पर

लोग लेते हैं मज़ा ज़िक्र तुम्हारा कर के

 

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे

वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

 

आसमानों की तरफ़ फेंक दिया है मैं ने

चंद मिट्टी के चराग़ों को सितारा कर के

 

मैं वो दरिया हूँ कि हर बूँद भँवर है जिस की

तुम ने अच्छा ही किया मुझ से किनारा कर के

 

मुंतज़िर हूँ कि सितारों की ज़रा आँख लगे

चाँद को छत पुर बुला लूँगा इशारा कर के


तुम्हारे नाम पर मैं ने हर आफ़त सर पे रक्खी थी - राहत इन्दौरी

तुम्हारे नाम पर मैं ने हर आफ़त सर पे रक्खी थी

नज़र शोलों पे रक्खी थी ज़बाँ पत्थर पे रक्खी थी

 

हमारे ख़्वाब तो शहरों की सड़कों पर भटकते थे

तुम्हारी याद थी जो रात भर बिस्तर पे रक्खी थी

 

मैं अपना अज़्म ले कर मंज़िलों की सम्त निकला था

मशक़्क़त हाथ पे रक्खी थी क़िस्मत घर पे रक्खी थी

 

इन्हीं साँसों के चक्कर ने हमें वो दिन दिखाए थे

हमारे पाँव की मिट्टी हमारे सर पे रक्खी थी

 

सहर तक तुम जो आ जाते तो मंज़र देख सकते थे

दिए पलकों पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी


दोस्ती जब किसी से की जाये - राहत इन्दौरी

दोस्ती जब किसी से की जाये

दुश्मनों की भी राय ली जाये

 

मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में,

अब कहाँ जा के साँस ली जाये

 

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ,

ये नदी कैसे पार की जाये

 

मेरे माज़ी के ज़ख़्म भरने लगे,

आज फिर कोई भूल की जाये

 

बोतलें खोल के तो पी बरसों,

आज दिल खोल के भी पी जाये


दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं - राहत इन्दौरी

दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं

सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं

 

हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे

हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं

 

बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं

इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं

 

ये मैकदा है, वो मस्जिद है, वो है बुत-खाना

कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं

 

हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे

यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं


धोका मुझे दिये पे हुआ आफ़ताब का - राहत इन्दौरी

धोका मुझे दिये पे हुआ आफ़ताब का

ज़िक्रे-शराब में भी है नशा शराब का

 

जी चाहता है बस उसे पढ़ते ही जायें

चेहरा है या वर्क है खुदा की किताब का

 

सूरजमुखी के फूल से शायद पता चले

मुँह जाने किसने चूम लिया आफ़ताब का

 

मिट्टी तुझे सलाम की तेरे ही फ़ैज़ से

आँगन में लहलहाता है पौधा गुलाब का

 

उठो ऐ चाँद-तारों ऐ शब के सिपाहियों

आवाज दे रहा है लहू आफ़ताब का


न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा - राहत इन्दौरी

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा

हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

 

मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन बन कर

तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा

 

इसी गली में वो भूका फ़क़ीर रहता था

तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा

 

बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन

जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा

 

गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मो हरे-भरे रहना

जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा


पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले - राहत इन्दौरी

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले

दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले

 

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है,

मग़्रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले

 

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात,

अन्धे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले

 

मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर,

आईने मेरे क़द के बराबर नहीं मिले

 

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो,

मुमकिन है वापस आओ तो ये घर नहीं मिले


बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए - राहत इन्दौरी

बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए

मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए

 

अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में

है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए

 

दिल भी किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं

दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए

 

मैं ख़ुद भी करना चाहता हूँ अपना सामना

तुझ को भी अब नक़ाब उठा देनी चाहिए

 

मैं फूल हूँ तो फूल को गुल-दान हो नसीब

मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए

 

मैं ताज हूँ तो ताज को सर पर सजाएँ लोग

मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए

 

मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद बंद हो

मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए

 

मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाइए मुझे

मैं नींद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए

 

सच बात कौन है जो सर-ए-आम कह सके

मैं कह रहा हूँ मुझ को सज़ा देनी चाहिए


मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था - राहत इन्दौरी

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था

दैर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

 

देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया

कल यही चेहरा हमारे आइनों पर बार था

 

अपनी क़िस्मत में लिखी थी धूप की नाराज़गी

साया-ए-दीवार था लेकिन पस-ए-दीवार था

 

सब के दुख सुख उस के चेहरे पर लिखे पाए गए

आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था

 

अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब

इक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था


मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया - राहत इन्दौरी

मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया

एक पागल ने बहुत लोगों को पागल कर दिया

 

अपनी पलकों पर सजा कर मेरे आँसू आप ने

रास्ते की धूल को आँखों का काजल कर दिया

 

मैं ने दिल दे कर उसे की थी वफ़ा की इब्तिदा

उस ने धोका दे के ये क़िस्सा मुकम्मल कर दिया

 

ये हवाएँ कब निगाहें फेर लें किस को ख़बर

शोहरतों का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर दिया

 

देवताओं और ख़ुदाओं की लगाई आग ने

देखते ही देखते बस्ती को जंगल कर दिया

 

ज़ख़्म की सूरत नज़र आते हैं चेहरों के नुक़ूश

हम ने आईनों को तहज़ीबों का मक़्तल कर दिया

 

शहर में चर्चा है आख़िर ऐसी लड़की कौन है

जिस ने अच्छे-ख़ासे इक शायर को पागल कर दिया


मोम के पास कभी आग को लाकर देखूँ - राहत इन्दौरी

मोम के पास कभी आग को लाकर देखूँ

सोचता हूँ के तुझे हाथ लगा कर देखूँ

 

कभी चुपके से चला आऊँ तेरी खिलवत में

और तुझे तेरी निगाहों से बचा कर देखूँ

 

मैने देखा है ज़माने को शराबें पी कर

दम निकल जाये अगर होश में आकर देखूँ

 

दिल का मंदिर बड़ा वीरान नज़र आता है

सोचता हूँ तेरी तस्वीर लगा कर देखूँ

 

तेरे बारे में सुना ये है के तू सूरज है

मैं ज़रा देर तेरे साये में आ कर देखूँ

 

याद आता है के पहले भी कई बार यूं ही

मैने सोचा था के मैं तुझको भुला कर देखूँ


ये ख़ाक-ज़ादे जो रहते हैं बे-ज़बान पड़े - राहत इन्दौरी

ये ख़ाक-ज़ादे जो रहते हैं बे-ज़बान पड़े

इशारा कर दें तो सूरज ज़मीं पे आन पड़े

 

सुकूत-ए-ज़ीस्त को आमादा-ए-बग़ावत कर

लहू उछाल कि कुछ ज़िंदगी में जान पड़े

 

हमारे शहर की बीनाइयों पे रोते हैं

तमाम शहर के मंज़र लहू-लुहान पड़े

 

उठे हैं हाथ मिरे हुर्मत-ए-ज़मीं के लिए

मज़ा जब आए कि अब पाँव आसमान पड़े

 

किसी मकीन की आमद के इंतिज़ार में हैं

मिरे मोहल्ले में ख़ाली कई मकान पड़े


यूँ सदा देते हुए तेरे ख़याल आते हैं - राहत इन्दौरी

यूँ सदा देते हुए तेरे ख़याल आते हैं

जैसे काबे की खुली छत पे बिलाल आते हैं

 

रोज़ हम अश्कों से धो आते हैं दीवार-ए-हरम

पगड़ियाँ रोज़ फ़रिश्तों की उछाल आते हैं

 

हाथ अभी पीछे बंधे रहते हैं चुप रहते हैं

देखना ये है तुझे कितने कमाल आते हैं

 

चाँद सूरज मिरी चौखट पे कई सदियों से

रोज़ लिक्खे हुए चेहरे पे सवाल आते हैं

 

बे-हिसी मुर्दा-दिली रक़्स शराबें नग़्मे

बस इसी राह से क़ौमों पे ज़वाल आते हैं


ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे - राहत इन्दौरी

ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे

फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे

 

इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया

नमाज़ पढ़के आए और शराब माँगने लगे

 

सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक

ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे

 

दिखाई जाने क्या दिया है जुगनुओं को ख़्वाब मेँ

खुली है जबसे आँख आफताब माँगने लगे


ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था - राहत इन्दौरी

ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था

मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था

 

तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़

मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था

 

बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा

मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था

 

मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना

मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था

 

मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं

मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था


रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है - राहत इन्दौरी

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है

चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं

 

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता

कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता है

 

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर

अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता है

 

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं मगर दिल अक्सर

नाम सुनता हैं तुम्हारा तो उछल पड़ता है

 

उसकी याद आई हैं साँसों ज़रा धीरे चलो

धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता है


लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं - राहत इन्दौरी

लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं

इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूँ हैं

 

मय-कदा ज़र्फ़ के मेआ'र का पैमाना है

ख़ाली शीशों की तरह लोग उछलते क्यूँ हैं

 

मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए

और सब लोग यहीं आ के फिसलते क्यूँ हैं

 

नींद से मेरा तअल्लुक़ ही नहीं बरसों से

ख़्वाब आ आ के मिरी छत पे टहलते क्यूँ हैं

 

मैं न जुगनू हूँ दिया हूँ न कोई तारा हूँ

रौशनी वाले मिरे नाम से जलते क्यूँ हैं


वफ़ा को आज़माना चाहिए था - राहत इन्दौरी

वफ़ा को आज़माना चाहिए था, हमारा दिल दुखाना चाहिए था

आना न आना मेरी मर्ज़ी है, तुमको तो बुलाना चाहिए था

 

हमारी ख्वाहिश एक घर की थी, उसे सारा ज़माना चाहिए था

मेरी आँखें कहाँ नाम हुई थीं, समुन्दर को बहाना चाहिए था

 

जहाँ पर पंहुचना मैं चाहता हूँ, वहां पे पंहुच जाना चाहिए था

हमारा ज़ख्म पुराना बहुत है, चरागर भी पुराना चाहिए था

 

मुझसे पहले वो किसी और की थी, मगर कुछ शायराना चाहिए था

चलो माना ये छोटी बात है, पर तुम्हें सब कुछ बताना चाहिए था

 

तेरा भी शहर में कोई नहीं था, मुझे भी एक ठिकाना चाहिए था

कि किस को किस तरह से भूलते हैं, तुम्हें मुझको सिखाना चाहिए था

 

ऐसा लगता है लहू में हमको, कलम को भी डुबाना चाहिए था

अब मेरे साथ रह के तंज़ ना कर, तुझे जाना था जाना चाहिए था

 

क्या बस मैंने ही की है बेवफाई,जो भी सच है बताना चाहिए था

मेरी बर्बादी पे वो चाहता है, मुझे भी मुस्कुराना चाहिए था

 

बस एक तू ही मेरे साथ में है, तुझे भी रूठ जाना चाहिए था

हमारे पास जो ये फन है मियां, हमें इस से कमाना चाहिए था

 

अब ये ताज किस काम का है, हमें सर को बचाना चाहिए था

उसी को याद रखा उम्र भर कि, जिसको भूल जाना चाहिए था

 

मुझसे बात भी करनी थी, उसको गले से भी लगाना चाहिए था

उसने प्यार से बुलाया था, हमें मर के भी आना चाहिए था


शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए - राहत इन्दौरी

शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए

ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए

 

मैं अंधेरों से बचा लाया था अपने-आप को

मेरा दुख ये है मिरे पीछे उजाले पड़ गए

 

जिन ज़मीनों के क़बाले हैं मिरे पुरखों के नाम

उन ज़मीनों पर मिरे जीने के लाले पड़ गए

 

ताक़ में बैठा हुआ बूढ़ा कबूतर रो दिया

जिस में डेरा था उसी मस्जिद में ताले पड़ गए

 

कोई वारिस हो तो आए और आ कर देख ले

ज़िल्ल-ए-सुब्हानी की ऊँची छत में जाले पड़ गए


शहरों-शहरों गाँव का आँगन याद आया - राहत इन्दौरी

शहरों-शहरों गाँव का आँगन याद आया

झूठे दोस्त और सच्चा दुश्मन याद आया

 

पीली पीली फसलें देख के खेतों में

अपने घर का खाली बरतन याद आया

 

गिरजा में इक मोम की मरियम रखी थी

माँ की गोद में गुजरा बचपन याद आया

 

देख के रंगमहल की रंगीं दीवारें

मुझको अपना सूना आँगन याद आया

 

जंगल सर पे रख के सारा दिन भटके

रात हुई तो राज-सिंहासन याद आया


शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया - राहत इन्दौरी

शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया

कुछ यादों ने चुटकी में लोबान लिया

 

दरवाज़ों ने अपनी आँखें नम कर लीं

दीवारों ने अपना सीना तान लिया

 

प्यास तो अपनी सात समुंदर जैसी थी

नाहक़ हम ने बारिश का एहसान लिया

 

मैं ने तलवों से बाँधी थी छाँव मगर

शायद मुझ को सूरज ने पहचान लिया

 

कितने सुख से धरती ओढ़ के सोए हैं

हम ने अपनी माँ का कहना मान लिया


शहर में ढूंढ रहा हूँ कि सहारा दे दे - राहत इन्दौरी

शहर में ढूंढ रहा हूँ कि सहारा दे दे

कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे

 

पेड़ सब नगेँ फ़क़ीरों की तरह सहमे हैं,

किस से उम्मीद ये की जाये कि साया दे दे

 

वक़्त की सगँज़नी नोच गई सारे नक़श,

अब वो आईना कहाँ जो मेरा चेहरा दे दे

 

दुश्मनों की भी कोई बात तो सच हो जाये,

आ मेरे दोस्त किसी दिन मुझे धोखा दे दे

 

मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा,

मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पेहरा दे दे

 

डूब जाना ही मुक़द्दर है तो बेहतर वरना,

तूने पतवार जो छीनी है तो तिनका दे दे

 

जिस ने क़तरों का भी मोहताज किया मुझ को,

वो अगर जोश में आ जाये तो दरिया दे दे

 

तुम को "राहत" की तबीयत का नहीं अन्दाज़ा,

वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे


समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है - राहत इन्दौरी

समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है

जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है

 

ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये

वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है

 

वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में

मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है

 

ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं

उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

 

हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए

और उसको भूल गए जो हवा चलाता है


साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था - राहत इन्दौरी

साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था

उम्र-भर चलते रहे लोग सफ़र ऐसा था

 

जब वो आए तो मैं ख़ुश भी हुआ शर्मिंदा भी

मेरी तक़दीर थी ऐसी मिरा घर ऐसा था

 

हिफ़्ज़ थीं मुझ को भी चेहरों की किताबें क्या क्या

दिल शिकस्ता था मगर तेज़ नज़र ऐसा था

 

आग ओढ़े था मगर बाँट रहा था साया

धूप के शहर में इक तन्हा शजर ऐसा था

 

लोग ख़ुद अपने चराग़ों को बुझा कर सोए

शहर में तेज़ हवाओं का असर ऐसा था


सारी बस्ती क़दमों में है, ये भी इक फ़नकारी है - राहत इन्दौरी

सारी बस्ती क़दमों में है, ये भी इक फ़नकारी है

वरना बदन को छोड़ के अपना जो कुछ है सरकारी है

 

कालेज के सब लड़के चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिये

चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है

 

फूलों की ख़ुश्बू लूटी है, तितली के पर नोचे हैं

ये रहजन का काम नहीं है, रहबर की मक़्क़ारी है

 

हमने दो सौ साल से घर में तोते पाल के रखे हैं

मीर तक़ी के शेर सुनाना कौन बड़ी फ़नकारी है

 

अब फिरते हैं हम रिश्तों के रंग-बिरंगे ज़ख्म लिये

सबसे हँस कर मिलना-जुलना बहुत बड़ी बीमारी है

 

दौलत बाज़ू हिकमत गेसू शोहरत माथा गीबत होंठ

इस औरत से बच कर रहना, ये औरत बाज़ारी है

 

कश्ती पर आँच आ जाये तो हाथ कलम करवा देना

लाओ मुझे पतवारें दे दो, मेरी ज़िम्मेदारी है


सुला चुकी थी ये दुनिया थपक थपक के मुझे - राहत इन्दौरी

सुला चुकी थी ये दुनिया थपक थपक के मुझे

जगा दिया तेरी पाज़ेब ने खनक के मुझे

 

कोई बताये के मैं इसका क्या इलाज करूँ

परेशां करता है ये दिल धड़क धड़क के मुझे

 

ताल्लुकात में कैसे दरार पड़ती है

दिखा दिया किसी कमज़र्फ ने छलक के मुझे

 

हमें खुद अपने सितारे तलाशने होंगे

ये एक जुगनू ने समझा दिया चमक के मुझे

 

बहुत सी नज़रें हमारी तरफ हैं महफ़िल में

इशारा कर दिया उसने ज़रा सरक के मुझे

 

मैं देर रात गए जब भी घर पहुँचता हूँ

वो देखती है बहुत छान के फटक के मुझे


हर एक चेहरे को ज़ख़्मों का आईना न कहो - राहत इन्दौरी

हर एक चेहरे को ज़ख़्मों का आईना न कहो

ये ज़िन्दगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो

 

न जाने कौन सी मज़बूरीओं का क़ैदी हो,

वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो

 

तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यूँ उछाला मुझे,

ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इस को हादसा न कहो

 

ये और बात कि दुश्मन हुआ है आज मगर,

वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

 

हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ,

हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

 

मैं वक़ियात की ज़न्जीर का नहीं क़ायल,

मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो

 

ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी है "राहत",

हर एक तराशे हुये बुत को देवता न कहो

 

हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ' नहीं देंगे - राहत इन्दौरी

हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ' नहीं देंगे

ज़मीन माँ है ज़मीं को दग़ा नहीं देंगे

 

हमें तो सिर्फ़ जगाना है सोने वालों को

जो दर खुला है वहाँ हम सदा नहीं देंगे

 

रिवायतों की सफ़ें तोड़ कर बढ़ो वर्ना

जो तुम से आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे

 

यहाँ कहाँ तिरा सज्जादा आ के ख़ाक पे बैठ

कि हम फ़क़ीर तुझे बोरिया नहीं देंगे

 

शराब पी के बड़े तजरबे हुए हैं हमें

शरीफ़ लोगों को हम मशवरा नहीं देंगे


छू गया जब कभी ख्याल तेरा - राहत इन्दौरी

छू गया जब कभी ख्याल तेरा

दिल मेरा देर तक धड़कता रहा

 

कल तेरा ज़िक्र छिड़ गया घर में,

और घर देर तक महकता रहा

 

रात हम मैक़दे में जा निकले,

घर का घर शहर मैं भटकता रहा

 

उसके दिल में तो कोई मैल न था,

मैं खुद जाने क्यूँ झिझकता रहा

 

मुट्ठियाँ मेरी सख्त होती गयी,

जितना दमन कोई भटकता रहा

 

मीर को पढते पढते सोया था,

रात भर नींद में सिसकता रहा


कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया - राहत इन्दौरी

कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया

इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया

 

अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब हैं,

लोगो ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया

 

रातों को चांदनी के भरोसें ना छोड़ना,

सूरज ने जुगनुओं को ख़बरदार कर दिया

 

रुक रुक के लोग देख रहे है मेरी तरफ,

तुमने ज़रा सी बात को अखबार कर दिया

 

इस बार एक और भी दीवार गिर गयी,

बारिश ने मेरे घर को हवादार कर दिया

 

बोल था सच तो ज़हर पिलाया गया मुझे,

अच्छाइयों ने मुझे गुनहगार कर दिया

 

दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो हैं,

ऐ मौत तूने मुझे ज़मीदार कर दिया


तीरगी चांद के ज़ीने से सहर तक पहुँची - राहत इन्दौरी

तीरगी चांद के ज़ीने से सहर तक पहुँची

ज़ुल्फ़ कन्धे से जो सरकी तो कमर तक पहुँची

 

मैंने पूछा था कि ये हाथ में पत्थर क्यों है,

बात जब आगे बढी़ तो मेरे सर तक पहुँची

 

मैं तो सोया था मगर बारहा तुझ से मिलने,

जिस्म से आँख निकल कर तेरे घर तक पहुँची

 

तुम तो सूरज के पुजारी हो तुम्हे क्या मालुम,

रात किस हाल में कट-कट के सहर तक पहुँची

 

एक शब ऐसी भी गुजरी है खयालों में तेरे,

आहटें जज़्ब किये रात सहर तक पहुँची


सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे - राहत इन्दौरी

सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे

चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे

 

ये क्या उठाये क़दम और आ गई मन्ज़िल

मज़ा तो जब है के पैरों में कुछ थकान रहे

 

वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता है

तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे

 

मुझे ज़मींन की गहराइयों ने दाब लिया

मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे

 

अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है

मगर ये बात हमारे ही दरमियान रहे

 

मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई

मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे

 

वो एक सवाल है फिर उस का सामना होगा

दुआ करो कि सलामत मेरी ज़बान रहे


बुलाती है मगर जाने का नईं - राहत इन्दौरी

बुलाती है मगर जाने का नईं

ये दुनिया है इधर जाने का नईं

 

मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर

मगर हद से गुजर जाने का नईं

 

सितारें नोच कर ले जाऊँगा

में खाली हाथ घर जाने का नईं

 

वबा फैली हुई है हर तरफ

अभी माहौल मर जाने का नईं

 

वो गर्दन नापता है नाप ले

मगर जालिम से डर जाने का नईं


राह में ख़तरे भी हैं लेकिन ठहरता कौन है - राहत इन्दौरी

राह में ख़तरे भी हैं लेकिन ठहरता कौन है

मौत कल आती है आज आ जाए डरता कौन है

 

सब ही अपनी तेजगामी के नशे में चूर हैं

लाख़ आवाज़ें लगा लीजे ठहरता कौन है

 

हैं परिंदों के लिए शादाब पेड़ों के हुजूम

अब मेरी टूटी हुई छत पर उतरता कौन है

 

तेरे लश्कर के मुक़ाबिल मैं अकेला हूँ मगर

फ़ैसला मैदान में होगा कि मरता कौन है


इश्क़ में जीत के आने के लिये काफी हूँ - राहत इन्दौरी

इश्क़ में जीत के आने के लिये काफी हूँ

मैं अकेला ही ज़माने के लिये काफी हूँ

 

हर हकीकत को मेरी ख्वाब समझने वाले

मैं तेरी नींद उड़ाने के लिये काफी हूँ

 

ये अलग बात के अब सुख चुका हूँ फिर भी

धूप की प्यास बुझाने के लिये काफी हूँ

 

बस किसी तरह मेरी नींद का ये जाल कटे

जाग जाऊँ तो जगाने के लिये काफी हूँ

 

जाने किस भूल भुलैय्या में हूँ खुद भी लेकिन

मैं तुझे राह पे लाने के लिये काफी हूँ

 

डर यही है के मुझे नींद ना आ जाये कहीं

मैं तेरे ख्वाब सजाने के लिये काफी हूँ

 

ज़िंदगी…. ढूंडती फिरती है सहारा किसका ?

मैं तेरा बोझ उठाने के लिये काफी हूँ

 

मेरे दामन में हैं सौ चाक मगर ए दुनिया

मैं तेरे एब छुपाने के लिये काफी हूँ

 

एक अखबार हूँ औकात ही क्या मेरी मगर

शहर में आग लगाने के लिये काफी हूँ

 

मेरे बच्चो…. मुझे दिल खोल के तुम खर्च करो

मैं अकेला ही कमाने के लिये काफी हूँ


आज हम दोंनों को फुर्सत है चलो इश्क करें - राहत इन्दौरी

आज हम दोंनों को फुर्सत है चलो इश्क करें

इश्क दोंनों की जरूरत है चलो इश्क करें

 

इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है

ये मुनाफे की फिजारत है चलो इश्क करें

 

आप हिन्दु मैं मुसलमान ये ईसाई वो सिख

यार छोड़ो ये सियासत है चलो इश्क करें


नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है - राहत इन्दौरी

नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है

कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है

 

जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते

सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है

 

मिलाना चाहा है इंसा को जो भी इंसा से

तो सारे काम सियासत बिगाड़ देती है

 

हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी

मियां ये आशिकी इज्जत बिगाड़ देती है


मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो - राहत इन्दौरी

मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो

आसमां लाये हो ले आये ज़मीं पर रख दो

 

अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल

आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो

 

उसने जिस ताक पे कुछ टूटे दीये रक्खे हैं

चाँद तारों को भी ले जाकर वहीं पर रक्ख दो


दिए बुझे हैं मगर दूर तक उजाला है - राहत इन्दौरी

दिए बुझे हैं मगर दूर तक उजाला है

ये आप आए हैं या दिन निकलने वाला है

 

नई सहर है नया ग़म नया उजाला है

रज़ाई छोड़ दी अब दिन निकलने वाला है

 

ख्याल में भी तेरा अक्स देखने के बाद

जो शख्स होश गेंवा दे वो होश वाला है

 

जवाब देने के अन्दाज़ भी निराले हैं,

सलाम करने का अन्दाज़ भी निराला है

 

सुनहरी धूप है सदका तेरे तबस्तुम का,

ये चाँदनी तेरी परछाई का उजाला है

 

है तेरे पैरों की आहट ज़मीन की गर्दिश,

ये आसमाँ तेरी अँगड़ाई का हवाला है


ज़मीर बोलता है ऐतबार बोलता है - राहत इन्दौरी

ज़मीर बोलता है ऐतबार बोलता है

मेरी ज़ुबान से परवरदिगार बोलता है

 

मैं मन की बात बहुत मन लगा के सुनता हूँ

ये तू नहीं है तेरा इश्तेहार बोलता है

 

कुछ और काम उसे याद ही नही शायद

मगर वो झूठ बहुत शानदार बोलता है

 

तेरी ज़ुबान कतरना बहुत ज़रूरी है

तुझे ये मर्ज़ है तू बार बार बोलता है


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