Padma Sachdev Meri Kavita Mere Geet

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

Meri Kavita Mere Geet Padma Sachdev

डोगरी से हिंदी में लेखिका एवं अनुवादिका: पद्मा सचदेव

मेरी कविता मेरे गीत(toc)

भादों - Padma Sachdev

भादों ने गुस्से में आाकर जब खिड़कियाँ तोड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।
 
सावन की बौछारें भरी दुपहरी में चलकर आईं
मिट्टी की पूरी दीवार गीली हो गई
दीवार पर पूता मकील (स्फेद मिट्टी) रो उठा
बाहिर घड़ियाली (घड़ा रखने का ऊँचा स्थान) भी सीलन से भर उठी
बादल ने जब दीवार पर बनी लकीरें मिटा दीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।
 
बादल ने बेशुमार रंग बदले
कहीं सात रंगों वाली पेंग कहीं घनी बदली
मेरा ये दालान कभी चाँदनी से भर उठा, कभी अंधेरे से
बाहर कच्ची रसोई की मिट्टी ज़रा ज़रा गिरती रही
कहीं कुँआरी आशायों की उन्मुकत हँसी बिखर गई
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।
 
ऊपर के चोगान में जोर की बौछार पड़ी
मेरे घर के शाहतीरों का कोमल मन डर से काँप उठा
हवा के डर से कहीं आम की टहनियाँ श्रौर बेरी के दरख्त
जोर-जोर से आहें भरने लगे
निढाल और चूर हुई कूंजें एकाएक उड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।
 
padma-sachdev

छोटे-छोटे पत्तों में ठंड उतर आई
मुए थर-थर काँपते हुए नीले हो गए
मानो माँ ने बाँह से पकड़कर जबरदस्ती नहलाया हो
और नहाने से सुन्दरता को और रूप चढ गया
बेलों से जब वृक्षों ने कलियाँ उधार माँगीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।
 
वारिश के जोर-जोर से दौड़ने की आवाज के सिवा सब सूना है
कोई और आवाज सुनाई नहीं पड़ती मानो सृष्टि सो रही है
टप-टप-टप किसी सवार के घोड़े की ठापों की आवाज है क्या?
ओह ये तो ऊपर के दालान से कोई पड़छत्ती चू रही है
मेरी तरह अपने-आपसे जब उसने बातें की
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।
 
वारिश के बाद आसमान निखर आया
पक्षी पंक्तिवद्ध होकर उड़े।
ड्योढ़ी की दहलीज से जब एड़ियाँ उठाकर दूर देखती हूं
तो पहाड़ों के ऊपर से होकर दूर तक जाते बादल दिखाई देते हैं
धूप ने परदेसियों के लिए जब गलियाँ संवार दी
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।
 

सखि वे दिन कैसे थे ! - Padma Sachdev

सखि वे दिन कैसे थे, वह वक्‍त कैसा वक्‍त था
जब कड़वी बात न किसी को कही थी न सुनी थी
चिन्ता चिता के समान न थी चिन्ता के विषय में कुछ पता न था
वे दिन कितने मीठे थे, सभी कुछ सुन्दर दिखाई देता था
घाव कभी होता ही न था, होता भी था तो झट भर जाता था
अब ये कैसे घाव लगे हैं, इनका मरहम नहीं मिलता
इनका रिसना बन्द नहीं होता, इनका दर्द खाए जाता है
सखि वे दिन कैसे थे !
 
स्वप्न में सारे आकाश की परिक्रमा ले लिया करते ये
रात, अपने सौंन्दर्य से छल जाती थी, दिन भी बड़े लुभावने थे
धरती छोटी-सी लगती थी, रोज ही पूरी नाप लेते थे
आकाश एक पतंग जितना था उसकी डोर बड़ी लंबी बनवाते थे
वृक्षों के सिरे पर चढकर कितने ही पत्ते नीचे गिराए थे
सब बटवारा कितना सच्चा था, प्यार के रंग कितने गाढ़े थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे !
 
वे दिन इतने खाली न थे जिन्दगी इतनी भारी न थी
दिन अपने परवश न थे, रातों पर किसी का अधिकार न था
चट्टानों पर भी नींद आकर मीठी लोरी सुनाती थी
सेन्थे (पौधा) की कलियाँ झुमके थे, कोई भी लकीर बिन्‍दी थी
अपना सौन्दर्य अनोखा था बावड़ी में से झांककर देखते थे
आँखों में सुरमा डालने का ढंग चोरी-चोरी सीखते थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे !
 
वे दिन कितने छोटे दिन थे चाँद और सूरज में साँझ थी
हर गुड़िया इक सुन्दर हीर थी, हर मनुष्य राँझा था
बड़े होने की एक आशा जगह-जगह छल जाती थी
हर आशा उम्र के संग बड़ी होकर उसकी तरह जवान होती जाती थी
विधाता की वह सुन्दर छलना आज भी याद आती है
बचपन में परवान चढ़ा हर महल मुंडेर गिरता लगता है
सखि वे दिन कैसे दिन थे !
 
बरछी बनकर वे यादें कलेजे में धंस रही हैं
दिन और रात बौराए हुए हैं, समय डंक मार रहा है
अब न वह वसन्‍त आयगा, न ही वह गुलाबी वैसाखी
इस जन्म में वह उम्र अब मेरे घर कभी नहीं आएगी
सफर के शुरू में विधाता क्या रंग दिखाता है
बचपन के कोमल दिनों में क्या-क्या रोल खिलाता है
सखि वे दिन कैसे थे
वह वक्‍त कैसा था !
 

काश - Padma Sachdev

जो मैं किसी अंधेरे वन के
एक कोने में भुर्जी होती
जो मैं उतनी धरती होती
जितनी पर प्रियतम तुम चलते
घास बनूं उग जाऊं तेरे सारे जूठे वरतन मल दूं
मार-पीटकर कोई मानव
मुझे बनाए कागज कोरा
हाथों से मुझको थामे तुम
गहरी सोच मुझी पर लिखते
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
 
किसी कपास के पौधे की मैं कली जो होती
कोई मेरे-जैसी चरखा
कात-कातकर कपड़ा बुनती
कोई दर्जी कुरता सीकर
भरे बाज़ार में बोली देता
दो धागों की मिन्नत सुनकर
तुम अनजाने में ले लेते
पता तुम्हें कुछ भी न चलता
तेरे अंग संग मैं रहती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
 
किसी पहाड़ी वन प्रदेश में
जो मैं इक झरना ही होती
सखियों को लेकर संग अपने
गाती-गाती आगे बढ़ती
पत्तों और पत्थर के ऊपर
लगा छलांगें खोह लांघती
तुम राही होते रस्ते के
दो घूंटों में होंठ छुआते
ठंडी-ठंडी हवा मैं बनकर
तेरे बालों को सहलाती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
 

डोली - Padma Sachdev

अंधेरा पहाड़ी के ऊपर सहम-सहम कर चढ़ रहा है
पर्वतों की चोटियों पर चाँद का प्रकाश छन-छन कर आ रहा है
पहरा देते वृक्ष सुबह होने की प्रतीक्षा में हैं
इस जगह का सुनसान वातावरण किसी आशा में स्तब्ध है
हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता, कान में कोई आवाज नहीं पड़ती
क्या रानी क्या दासी सभी साँस रोके प्रतीक्षा में हैं
पहाड़ के पीछे से चाँद हँसता हुआ धीरे-धीरे ऐसे उगता है
जैसे नई दुलहिन मुँह दिखाने के लिए धीरे-धीरे घृंघट उठा रही हो
यह वासन्ती चाँद इसका अंग-अंग पीला है
किसी के वियोग में सूखकर कांटा हो गया है
या हो सकता है तपेदिक ने इसका ऐसा हाल किया हो
किसी का दिया हुआ शाप प्रत्यक्ष फल रहा है
जैसे जल्दी में कहार मेरी डोली लेकर दौड़ते हैं
वैसी ही जल्दी में ये भी संग-संग चलता है
 
इस राह में इतनी सुनसान है
कि कोई पत्ता तक नही हिलता
कहार जब तेजी से कदम उठाते हैं
तो मेरा मन काँप-काँप जाता है
इस अंधेरे में मैं वह हाथ ढूंढ रही हूँ
जो फेरों के समय मेरे हाथ में था
वह शब्द ढूंढ रही हूँ
जो आहुतियों के संग बोले गए थे
मैं वह गठबंधन ढूंढ रही हूँ
जो इस जीवन के साथ निभना है
मैं वह कहानी ढूंढ़ रही हूँ
जिसे यह कलम लिखेगी
 

माँ की पहचान - Padma Sachdev

यदि वह किसी को देखकर हंसती है
तो तेरे होंठ अपने-आप खुल जाते हैं
अगर वह किसी को देखकर गुस्सा होती हैं
तो तेरे आँसू अनायास ही ढुलक पड़ते हैं
अगर वह खटोले पर बैठी दिखाई देती है
तो तुम भी वाही पकड़कर खड़े होने का यत्न करते हो
उसे खाली बैठी देखकर तुम उसके आंचल में छुप जाते हो
जब पीढ़ी पर डालकर झूलाती रहती है तो
कितने प्यार से कसकर तुम उसका हाथ थामे रहते हो
वह भी लोरियाँ गाते-गाते तेरी झाँखों में झाँकती रहती है
 
वह तुम्हें अकेले में कहीं छोड़ कर जाए तो
तुम झाँक-झाँककर बाहर देखते हो
चारपाई के नीचे, अन्दर बाहर पिछवाड़े में
आने-जाने वालों को परखते हो
थोड़ी देर में जब वह वापिस आती है
तो तुम उसकी आँखों में जग रही ममता की
अनोखी ज्योति से उसे पहचान जाते हो
 
मन उसका है ये छोटे-छोटे हाथ उसीके हैं
आशा से भरी झांकियाँ उसीकी हैं
मुंह में डाले हुए छोटे-छोटे पाँव
और काली विरारी लटें सब उसीकी हैं।
 

गीत-भगवान्‌ मुझे, गर्मी का मौसम दो - Padma Sachdev

भगवान्‌ मुझे, गर्मी का मौसम दो, दु:ख सुख दो
परन्तु मैके से हमेशा मुझे ठंडी हवा आए
सुख का संदेशा आवे
 
कोई उड़ता पक्षी कभी मेरे घर के ऊपर से गुजरे
या कोई योगी भिक्षा माँगता हुआ आवे
मेरी मां का कोई संदेशा हो तो यही हो
कि तेरे भाई राजी-खुशी हैं ।
 
ससुराल जाती बेटियों का मन कौन देख सका है
फिर आने की आशा कब है कौन जाने
मन छोटा-छोटा होता है, गले में कुछ फंस गया है
मेरी भाभी को ज़रा सी खरोंच भी न लगे
 
माँ मुझे पहाड़ों में रहने का चाव है
मुझे पहाड़ों की ठंडी हवा भेज दो
जो साथ में चंपा की महक भी लाए
मुझसे चंबा शहर का सुख संदेशा कहे
 
गाड़ी दौड़ रही है गलियाँ दूर हो गई हैं
बिना दोष के बेटियाँ परदेसी हो गई हैं
मैं देश विदेश की कूंजड़ी हूँ
मुझे अपने देश की ठंडी हवा आए ।
 

ये राजा के महले क्या आपके हैं? - Padma Sachdev

ये राजा के महले क्या आपके हैं?
 
मैं घर से बेघर हो चुकी हूँ
मेरी आँखों की ज्योति छिन चुकी है
मुझे अंधी करके जो फेंक गए हैं
मेरे बागीचे से जो मेरा पौधा उखाड़ कर ले गए
मेरे पौधे को बौर भी पड़ा न था
मेरा साजन बहुत दूर भी तो न गया था
जिन्होंने काँपती टहनियाँ काट लीं
वे हँसुली वे दराँतियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
 
ये ऊँची दीवारें आकाश छूती हैं
महल माल व खजाने से मालामाल हैं
ये ईंटें इनका लाल रंग मन को भाता है
हमारे लहू की याद आती है
हमारे शरीर से पसीने की नदियाँ यहीं बही थीं
हमारे कंधों से शहतीर यहीं उतारे गये थे
धूप सहकर जिन्होंने ये दीवारें कायम कीं
क्या ये उनके महल आपके हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
 
बहरे कानों में भी तोप कह गई
मैं आज भी बारह बजा चुकी हूँ
मेरे चाँद के चढ़ने की बेला है
पर गली में कोई आहट नहीं हुई
न मेरे पाँव ही दौड़कर प्रियतम को लेने गये
प्रियतम की रोज़ ही सुनाई पड़ने वाली
आवाज़ सहन नहीं होती
आधे रास्ते ही से जो घेरकर ले गई
वे लोहे की कड़ियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
 
जिन्होंने हमारे खून के दिये जलाकर
अंधेरी रात में उजाला किया हुआ है
चाँद का गठबंधन थामे चाँदनी हँस रही है
हमें दूर से देखती है, और हमारी हँसी उड़ाती है
जब आसमान पर आतिशबाजियाँ
और गोले छोड़े जाते हैं
तब हमारे मन के तारे टूट जाते हैं
हमारे नन्हे बच्चे जिन्हें हैरान होकर देख रहे हैं
सौन्दर्य से भरपूर वे दीवालियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
 
जिन्हें खोद-खोदकर हमने बीज और खाद डाले
जिनके मिट्टी के घरौंदों का गँदला जल पिया
जिनको धूप में पानी देकर सीचा था
प्रियतम सूखा मुँह देखकर नाराज़ भी हुए थे
जिनके अंकुरित होने पर मन खिल उठा था
और बौर पड़ने पर हमारी दीवाली हुई थी
किसी की क्रोध से घूरती आँखों ने
हमारी आँखों से पूछा
ये सुन्दर क्यारियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
 
जिस पर किसी का अधिकार हो चुका है
छोटो अवस्था से ही जिसे कोई ले गया है
जिसे देखकर नयन हर्ष से खिल उठे हैं
जिसकी याद में दिन और रात में कोई अन्तर
नहीं दिखाई देता
जिसका नाम लेकर हर कोई छेड़ जाता है
जो कब की कौल-करार किये बैठी हैं
वे आत्माएँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

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