Biography : Govind Sankara Kurup | जीवन परिचय : गोविन्द शंकर कुरुप

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

govind-sankar

Biography : Govind Sankara Kurup
जीवन परिचय : गोविन्द शंकर कुरुप

Biography : Govind Sankara Kurup | जीवन परिचय : गोविन्द शंकर कुरुप या जी शंकर कुरुप (५ जून १९०१-२ फरवरी १९७८) मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म केरल के एक गाँव नायतोट्ट में हुआ था। ३ साल की उम्र से उनकी शिक्षा आरंभ हुई। ८ वर्ष तक की आयु में वे 'अमर कोश' 'सिद्धरुपम' 'श्रीरामोदन्तम' आदि ग्रन्थ कंठस्थ कर चुके थे और रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक पढ चुके थे। ११ वर्ष की आयु में महाकवि कुंजिकुट्टन के गाँव आगमन पर वे कविता की ओर उन्मुख हुये। तिरुविल्वमला में अध्यापन कार्य करते हुये अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य का अध्यन किया। अँग्रेजी साहित्य इनको गीति के आलोक की ओर ले गया। उनकी प्रसिद्ध रचना ओटक्कुष़ल अर्थात बाँसुरी भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा सम्मानित हुई। इनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह विश्वदर्शनम् के लिये उन्हें सन् 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

जीवन परिचय : गोविन्द शंकर कुरुप  | Govind Sankara Kurup

नायतोट्ट के सरलजीवी वातावरण में गोविन्द शंकर कुरुप का जन्म शंकर वारियर के घर में हुआ। उनकी माता का नाम लक्ष्मीकुट्टी अम्मा था। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका लालन-पालन मामा ने किया। उनके मामा ज्योतिषी और पंडित थे जिसके कारण संस्कृत पढ़ने में उनकी सहज रुचि रही और उन्हें संस्कृत काव्य परंपरा के सुदृढ़ संस्कार मिले। आगे की पढ़ाई के लिए वे पेरुमपावूर के मिडिल स्कूल में पढ़ने गए। सातवीं कक्षा के बाद वे मूवाट्टुपुपा मलयालम हाई स्कूल में पढ़ने आए। यहाँ के दो अध्यापकों श्री आर.सी. शर्मा और श्री एस.एन. नायर का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने कोचीन राज्य की पंडित परीक्षा पास की, बांग्ला और मलयालम के साहित्य का अध्ययन किया। उनकी पहली कविता 'आत्मपोषिणी' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई और जल्दी ही उनका पहला कविता संग्रह 'साहित्य कौतुमकम' प्रकाशित हुआ। इस समय वे तिरुविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक हो गए। १९२१ से १९२५ तक श्री शंकर कुरुप तिरुविल्वामला रहे। १९२५ में वे चालाकुटि हाई स्कूल आ गए। इसी वर्ष साहित्य कौतुकम का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। उनकी प्रतिभा और प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी थी। १९३१ में नाले (आगामी कल) शीर्षक कविता से वे जन-जन में पहचाने गए। १९३७ से १९५६ तक वे महाराजा कॉलेज एर्णाकुलम में प्राध्यापक के पद पर कार्य करते रहे। प्राध्यापकी से अवकाश लेने के बाद वे आकाशवाणी के सलाहकार बने। १९६५ में ज्ञानपीठ के बाद उन्हें १९६७ में सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ। गोविंद शंकर कुरुप को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था, तथा उसी वर्ष राष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य भी मनोनीत किया जिस पर वे १९६८ से १९७२ तक बने रहे। १९७८ में उनकी मृत्यु के समय केरल में राजकीय अवकाश की घोषणा की गई।

प्रकाशित कृतियाँ Govind Sankara Kurup; कविता संग्रह


साहित्य कौतुकम् - चार खंड (१९२३-१९२९), सूर्यकांति (१९३२), नवातिथि (१९३५), पूजा पुष्पमा (१९४४), निमिषम् (१९४५), चेंकतिरुकल् मुत्तुकल् (१९४५), वनगायकन् (१९४७), इतलुकल् (१९४८), ओटक्कुष़ल्(१९५०), पथिकंटे पाट्टु (१९५१), अंतर्दाह (१९५५), वेल्लिल्प्परवकल् (१९५५), विश्वदर्शनम् (१९६०), जीवन संगीतम् (१९६४), मून्नरुवियुम् ओरु पुष़युम् (१९६४), पाथेयम् (१९६१), जीयुहे तेरंजेटुत्त कवितकल् (१९७२), मधुरम् सौम्यम् दीप्तम्, वेलिच्चत्तिंटे दूतम्, सान्ध्यरागम्।

निबंध संग्रह Govind Sankara Kurup

गद्योपहारम् (१९४०), लेखमाल (१९४३), राक्कुयिलुकल्, मुत्तुम् चिप्पियुम (१९५९), जी. युटे नोटबुक, जी युटे गद्य लेखनंगल्।

नाटक Govind Sankara Kurup

इरुट्टिनु मुन्पु (१९३५), सान्ध्य (१९४४), आगस्ट १५ (१९५६)।

बाल साहित्य Govind Sankara Kurup 

इलम् चंचुकल् (१९५४), ओलप्पीप्पि (१९४४), राधाराणि, जीयुटे बालकवितकाल्।

आत्मकथा Govind Sankara Kurup

ओम्मर्युटे ओलंगलिल् (दो खंड)

अनुवाद Govind Sankara Kurup

अनुवादों में से तीन बांग्ला में से हैं, दो संस्कृत से, एक अंग्रेज़ी के माध्यम से फ़ारसी कृति का और एक इसी माध्यम से दो फ़्रेंच कृतियों के। बांग्ला कृतियाँ हैं- गीतांजलि, एकोत्तरशती, टागोर। संस्कृत की कृतियाँ हैं- मध्यम व्यायोग और मेघदूत, फारसी की रुबाइयात ए उमर ख़ैयाम और फ़्रेंच कृतियों के अंग्रेजी नाम हैं- द ओल्ड मैन हू डज़ नॉट वांट टु डाय, तथा द चाइल्ड व्हिच डज़ नॉट वॉन्ट टु बी बॉर्न।

संस्कृत साहित्य में गहन रुचि थी शंकर कुरूप की : प्रभासाक्षी


ज्ञानपीठ से सम्मानित रचनाकार और चर्चित मलयाली कवि जी शंकर कुरूप एक आध्यात्मिक कवि थे जिनकी रचनाओं में प्रतीकात्मकता विशेष रूप से उभर कर सामने आयी है तथा उनके साहित्य में प्राचीन एवं आधुनिक विचारों का अद्भुत मेल दिखायी देता है। कुरूप की कई कृतियों का अनुवाद कर चुके और उनके करीबी रहे सुंधाशु चतुर्वेदी के अनुसार कुरूप आध्यात्मिक कवि थे और उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मकता खास रूप से उभर कर सामने आयी है।

हिंदी और मलयालम दोनों भाषाओं में साहित्य रचने वाले चतुर्वेदी के अनुसार कुरूप के आलोचक एक दौर में बहुधा आरोप लगाते रहे कि उनकी रचनाएं आम लोगों की समझ से बाहर हैं। लेकिन आलोचक पूरी तरह गलत थे और कुरूप की रचनाओं में प्रकृति का मानवीय चित्रण और मानवीय संवेदनाएं बेहतरीन रूप से उभर कर सामने आयी हैं जिसे बाद में काफी पसंद किया गया। चतुर्वेदी के अनुसार कुरूप एक भावुक कवि थे और इसे उनकी प्रसिद्ध रचना संध्या में महसूस किया जा सकता है।

गोविन्द शंकर कुरुप के साहित्य में प्राचीन भारतीय मूल्यों और विचारों का सम्मान दिखायी देता है। समीक्षकों के अनुसार इसका कारण संस्कृत साहित्य में उनकी रुचि थी। दरअसल बचपन में पढ़ी संस्कृत रचनाओं से ही उन्हें साहित्य का चस्का लगा। बाद में उनका झुकाव अंग्रेजी साहित्य की ओर भी हुआ और उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को समझते हुए आधुनिक युगबोध को अपनाया।

मलयाली भाषा के इस विख्यात कवि का जन्म तीन जून 1901 को केरल के एक गांव में हुआ। पारंपरिक शिक्षा पद्धति के अनुरूप तीन वर्ष की आयु से ही उनका अक्षर ज्ञान शुरू हो गया और आठ वर्ष की आयु तक आते आते उन्होंने अमरकोष, श्रीरामोदंतम जैसे ग्रंथ ही नहीं महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक कंठस्थ कर लिये थे।

पारंपरिक शिक्षा में काव्यों के कंठस्थ होने के साथ ही 11 वर्ष की आयु से कुरूप जी के भीतर काव्य की धारा फूट पड़ी। छात्र जीवन में महज 17 वर्ष की आयु में उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। उनके कुल मिलाकर 25 काव्य संग्रह मलयालम में प्रकाशित हुए। शिक्षा के बाद 1921 में कुरूप माध्यमिक स्कूल में अध्यापक बने। इसके बाद वह एरनाकुलम के महाराजा कालेज से जुड़ गए और इसी संस्थान से वह 1956 में प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुए। कविताओं और निबंध के अलावा कुरूप ने उमर खयाम की रूबाइयों का मलयालम में अनुवाद किया। इसके अलावा उन्होंने कालिदास के मेघदूत और रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कृति गीतांजलि का अनुवाद किया।

समीक्षकों के अनुसार कुरूप के साहित्य में महात्मा गांधी और गुरूदेव टैगोर के राष्ट्रभक्ति और मानवतावाद के विचार स्पष्ट तौर पर दिखायी देते हैं। इसके अलावा उन्होंने प्रकृति के सुंदर चित्रों को अपनी कविताओं के माध्यम से जीवंत किया। कुरूप को ओटक्कुषल अर्थात बांसुरी के लिए पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।

उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। भारतीय साहित्य में उनके योगदान को देखते हुए सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से विभूषित किया था। उन्होंने पीजे चेरियन की निर्मला फिल्म के लिए गीत भी लिखे। यह गीत संगीत वाली पहली मलयालम फिल्म थी। मलयालम के इस शीर्ष कवि का निधन 76 वर्ष की उम्र में दो फरवरी 1978 को हुआ। भारत सरकार ने उनकी याद में 2003 में पांच रुपये मूल्य का स्मारक डाक टिकट जारी किया था।

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Govind Sankara Kurup) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!