घरवाली - सुव्रत शुक्ल | Gharwali - Suvrat Shukla

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घरवाली - सुव्रत शुक्ल | Gharwali - Suvrat Shukla

"घरवाली"

ज्यों बसंत के फूल खिले हों
लदी फलों से हो डाली।
ऐसा कुछ खिल जाता मैं भी,
देख स्वप्न में "घरवाली"।।

लम्बी चोटी पकड़ हाथ में,
लहरों जैसे चलती है,
चोटी की वे तीन जटाएं,
जैसे संगम लगती हैं।।

सपने में फिर देख उसे,
त्रिभुवन का सुख मै पाता हूं।
चोटी के उस संगम में फिर,
डुबकी खूब लगाता हूं।।

पलकों को फिर झुका, नमन कर,
जाने को वह कहती है ।
कहता दिल,रुक जाओ थोड़ा ,
इतनी भी क्या जल्दी है।।

कहती है, प्रिय धैर्य रखो ,
मैं कल फिर हूं आने वाली ।
मन ही मन, लड्डू खाता हूं ,
देख स्वप्न में "घरवाली"।।

                  - सुव्रत शुक्ल


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