मरुथल - 'अज्ञेय' | Maruthal 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya

मरुथल - 'अज्ञेय' |  Maruthal 'Agyeya' (toc)

1. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा - 'अज्ञेय'

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा
कुनबे ने भानमती गढ़ी
रेशम से मांडी, सोने में मढ़ी
कवि ने कथा गढ़ी, लोक ने बाँची
कहो-भर तो झूठ, जाँचो तो साँची

07.11.86

2. दन्त-कथा - 'अज्ञेय'

दाँतों में रह गयी कथा
ज्यों प्राणों में व्यथा।
क्या स्रोत, कब कहाँ उद्गम-
हम भूल गये पूछना
या हम से उतना धीरज न बना

शब्दों को भी हमने पूरा न मथा।
रत्नाकर था, पर वहीं हलाहल भी तो था-
हम डरे रहे।
नहीं तो-आह!-अमृत क्या वहाँ न था?

3. मरुथल में चट्टान - 'अज्ञेय'

चट्टान से टकरा कर हवा
उसी के पैरों में लिख जाती है
लहरीले सौ-सौ रूप
और तुम्हारे रूप की चट्टान से
लहराता टकरा कर मैं?

अपने ही जीवन की बालू पर
अपनी साँसों से लिखा रह जाऊँगा।

4. मरुथल में रात - 'अज्ञेय'

रातों-रात निकल जाते रहे हैं
वे नीरव और निश्छाय
(बीतती रही हैं शतियाँ)
और भोर होते न होते

धो जाती रही हैं हवाएँ
उन के पैरों की छाप।
कौन थे वे? कहाँ जो रहे थे? क्या लिये हुए?
निश्चय की हमारे ये सवाल

उन के नहीं थे-
न हमारे ये बिम्ब: उन के मन के दिक् चक्रवाल
(और उन के हवाल)
दूसरे ही रहे।

साँझ होते ही दौड़ते हैं रेती पर
पगलाये से पिपियाते हुए पंछी
उन गुज़रने वालों के काफ़िलों से पहले।
दिन में वह नहीं दीखेंगे, पर उन के

पिपियाते सुरों की गूँज सुनाई पड़ती रहेगी
रोज़ दर रोज़ दर रोज़ भरती हुई सोज़
जोगियों के अलगोज़ों में गुँजाती हुई
शतियों के पार पागल प्रेमियों की भूली-अनभूली कहानियाँ:

रेत में मिटी नहीं केवल छायाएँ-मिटी हैं
कितनी राजकुमारियाँ, गडेरिनें, गोपियाँ,
कबीलाई रानियाँ!
फिर बहकी हवा: बालू की झील में उठी लहर।

फिर मिट गयी छाया कोई
ऊँट की, गड्डर की, गडेरिन की, मालिन की, रानी की?
टूटा नीरव एक तारा
टूटी कड़ी मेरी अन्तहीन कहानी की...

फिर पिपियाया वह अकुलाया परेवा
फिर निकल चले वे छाया न छोड़ते
रातों-रात...

5. मरुथल में - 'अज्ञेय'

वे (क्षुप) लोक भी हो सकते हैं
वे (चट्टानें) ऊँटों की क़तार भी हो सकती हैं
वह (सिहरती हवा) पानी भी हो सकती है
मैं (मृग) मरीचिका भी हो सकता हूँ।

6. देवता अब भी - 'अज्ञेय'

1.
जलहरी को घेरे बैठे हैं
पर जलहरी में पानी सूख गया है।
देवता भी धीरे-धीरे सूख रहे हैं
उन का पानी मर गया है।

यूप-यष्टियाँ रेती में दबती जा रही हैं
रेत की चादर-ढँकी अर्थी में बँधे
महाकाल की छाती पर
काल चढ़ बैठा है।

मर रहे हैं नगर नगरों में
मरु-थर मरु-थरों में
जलहरी में पानी सूख गया है।

2.
तीन आँखों से देखता है वह सारा विश्व
एक से सिरजता, एक से पालता, एक से करता संहार।
तीन आँखों से देखता है वह सारी सृष्टि का व्यापार
एक में काम, एक में करुणा, एक में आग का पारावार।

तीन आँखों से देखता है वह विश्व
और जिधर देखता है उधर हो जाता है गर्म राख का ढेर
ठंडी रेत का विस्तार।
लोक का क्षय होता है

उसमें और वह बढ़ता है
उस का क्षय होता है
उसमें और वह बढ़ता है
अवतरता है

खो जाता है उस मरु में
उस की लीला सृष्टि है
जो वह है। कैसे करें हम
कि वह उतरे उतर कर वही हो जो कि वह है?

अगर हम नहीं हो पाते वह
कि जो हमें होना होता है?
मरु में उस ने रचा है-हम को
क्या हम उस में रचेंगे-एक मरु?

तीन आँखों से देखता है वह-
हम को कि मरु को
हम वह हैं कि मरु हैं?
तीन आँखों से देखता है वह...
पशुपतिनाथ, काठमांडौ

3.
बालू के घरौंदे बनाये हैं तीन बालकों ने
उन्हें नहीं पता कि इसी बालुका में वे कण हैं
जिन के विकिरण से आरम्भ होती है प्रक्रिया
संसार के सभी घरौंदों के विनाश की।

बालुका से खेलते हुए तीन बालक
सागर का स्वर (जल के कि रेत के?)
मानव ही मानव की तीसरी आँख है
तुम्हारी आँखें क्यों बन्द हैं, देवता?
बौद्धनाथ, काठमांडौ

7. मरुथल में बदली - 'अज्ञेय'

घिर आयी थी घटा नहीं पर बरसी चली गयी।
आँखे तरसी थीं
भरी भी नहीं छली गयीं।
दमकी थी दामिनी परेवे

चौंक फड़फड़ाये थे गोखों में
अब फिर चमक रही है रेत।
कोई नहीं कि पन्थ निहारे।
सूना है चौबारा।

8. मरु में लहर - 'अज्ञेय'

रात की रौंदी हुई यह रेत
फूहड़, भोर में किस लिखत से लहरा गयी-
सुन्दर, अछूती, छविमयी?
फाल्गुन शुक्ला सप्तमी

9. मरुथल - 'अज्ञेय'

काल की रेती पर
हमारे पैरों के छापे?
हमीं तो हैं बिखरे बालू के कण
जिन पर लिखता बढ़ जाता है काल

अपने पैरों के छापे-सरल, गूढ़-
अर्थ-भरे, नियति-गर्भ।
फाल्गुन शुक्ला सप्तमी

10. पग्गड़ - 'अज्ञेय'

गलमुच्छे आँखों में बर्छियाँ
चमरौंधे से अपने को रौंदता
चला जाता मरुथल चुप-चाप।

11. कल - 'अज्ञेय'

ये ढूह इधर को थे
ये बच्चे खेल रहे थे वहाँ
ये बकरियाँ उधर दूर
न जाने क्या सूँघ रही थीं बालू में-

और वहाँ आगे मेंगनी से बनी लीक के अन्त में-
वह चितकबरा छौना
गर्दन मोड़ कर उछला था
अचरज से भरा कि कैसे

उस की एक ही कुलाँच में
सारा सैरा यों बदल गया!
क्या मरुथल ने भी कुलाँच भरी?
मरु-मारुत से पूछें?-जिस की साँस का जादू

सब इधर-उधर रह गया-
हमारी आँखों में धूल झोंक कर?
पर कहाँ गये वे झोंपड़े
वे काँटों के बाड़े भी कहाँ गये?

बीत गयी है आँधी
उमसाया सन्नाटा
सारे मरु पर छाया है।
अब किस से क्या पूछें?

12. यही वह गलियारा है - 'अज्ञेय'

जहाँ राहें मिलती हैं
आँधियाँ/राहें मिटा जाती हैं
रेत की बहिया उन्हें फिर खोल जाती है

ढूहों की ओट/दीख जाते हैं
दूर खजूर के पेड़
वहाँ चाहे जब/सब कुछ बदल जाता है:
यहाँ कभी/कुछ नहीं बदलता।

गलियारे में चालू है नाटक
एक हवा और झट
बदल जाता है पट
यह इधर-रेत में आधा दबा यह पहिया

पड़ा वह अरा-काला
इसी से मारा था कृष्ण ने कर्ण को?
इधर से गुजरती रही हैं कंजरों की गाड़ियाँ
वह उधर-मँज कर उजली-छायीं वे हड्डियाँ

ऊँटों की? इधर दूर हो गये थे काफ़िले
लादे हुए सोना/और पोस्त/और रेश्म/और नमक
लाने को उधर से दासियाँ, घोड़े, और गन्ध द्रव्य,
नमकहरामियाँ यों होता है इतिहास का शोध-

यों इतिहासपुरुष/लेता है प्रतिशोध!
इतिहास: एक निरन्तर बदलता हुआ गलियारा
जहाँ राहें मिलती हैं/और खो जाती हैं,
और फिर अपने को पा जाता है/मरु में
वसीयत मेरी छाती पर
हवाएँ लिख जाती हैं

महीन रेखाओं में अपनी वसीयत
और फिर हवाओं के झोंके ही
वसीयतनामा उड़ा कर कहीं और ले जाते हैं।
बहकी हवाओ! वसीयत करने से पहले हलफ़ उठाना पड़ता है

कि वसीयत करने वाले के होश-हवास दुरुस्त हैं:
और तुम्हें इस के लिए गवाह कौन मिलेगा
मेरे ही सिवा?
क्या मेरी गवाही तुम्हारी वसीयत से ज़्यादा टिकाऊ होगी?

(टीप में मिली इस कविता पर काम पूरा नहीं हो सका था,
लेकिन यह इसी श्रृंखला की कविता है।)

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