नैनीताल में दीवाली - वीरेन डंगवाल Nainital mai Diwali - Viren Dangwal Part 2

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हिंदी कविता

नैनीताल में दीवाली - वीरेन डंगवाल - स्याही ताल 
Nainital mai Diwali - Viren Dangwal Part - 2

नैनीताल में दीवाली
ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
Viren-Dangwal

नागपुर के रास्‍ते–1 - वीरेन डंगवाल

गाड़ी खड़ी थी
चल रहा था प्‍लेटफार्म
गनगनाता बसन्‍त कहीं पास ही में था शायद
उसकी दुहाई देती एक श्‍यामला हरी धोती में
कटि से झूम कर टिकाए बिक्री से बच रहे संतरों का टोकरा
पैसे गिनती सखियों से उल्‍लसित बतकही भी करती
वह शकुंतला
चलती चली जाती थी खड़े-खड़े
चलते हुए प्‍लेटफारम पर
ताकती पल भर
खिड़की पर बैठे मुझको

नागपुर के रास्‍ते–2 - वीरेन डंगवाल

सुबह कोई गाड़ी होती तो बहुत अच्‍छा
रात कोई गाड़ी होती तो बहुत अच्‍छा
चांद कोई गाड़ी हो तो सबसे अच्‍छा

सुबह कोई गाड़ी हो तो मैं शाम तक पहुंच जाता
रात कोई गाड़ी हो तो मैं सुबह तक पहुंच जाता
चांद कोई गाड़ी होती तो मैं उसकी खिड़की पर ठण्‍डे-ठण्‍डे बैठा
देखता अपनी प्‍यारी पृथ्‍वी को
कहीं न कहीं तो पहुंच ही जाता

लकड़ी का बना वही रावण - वीरेन डंगवाल

आग लगी लंका मं लगी आग
लकड़ी के पैरों को
खटपट खट दौड़ाता भाग
जा भाग् !
कूद जा समन्‍दर में
सौ मंजिल दस आनन बहुभाषा बहुल ज्ञान
तीस मंजिल दस आनन बहुभाषा बहुल ज्ञान
तीस लैंस बीस नैन बिजली के
लुगदी की रंगी-चुंगी मूछों को तानतून
कंधे पर बैठाये
लकड़ी की चिडिया और लेजर की बन्‍दूक
आंखें पर निशि दिन बेचैन
झर्र-फर्र-झिप-झिप बस देखा कीं

दुनिया के मेले में दुनिया को ताका कीं

जहां कहीं जो कुछ भी मतलब का मिले
सब गप्‍प हप्‍प
अंतरिक्ष सागर वन प्रांतर या मरूथल सब
हां-हां-हां मेरे हैं
मेरे हैं- मेरे हैं गप्‍प हप्‍प

किन्‍तु हाय
यह कंगला वानर समुदाय
ताक-झांक खिड़की-कंगूरों से
घुस आया लिए सिर्फ
जलती लुआठियां
हाय-हाय-हाय-हाय-हाय.

रामगढ़ में आकाश के भी ऊपर परछाईं - वीरेन डंगवाल

मंथर चक्‍कर लगा कर
चीलें
सुखा रहीं अपने डैनों की सीलन को
नीचे हरी-भरी घाटी के किंचित बदराये शून्‍य में
वही आकाश है उनका उतने नीचे

रात-भर बरसने के बाद
अब जाकर सकुचाई-सी खुली है धूप

मेरी परछांई पड़ रही
बूंदे टपकाते
बैंगनी-गुलाबी फलों से खच्‍च लदे
आलूचे के पेड़ पर
बीस हाथ नीचे
मगर उस आकाश से काफी ऊपर.

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