सोहन लाल द्विवेदी की बाल कविताएँ Sohan Lal Dwivedi Ki Baal Kavitayen

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सोहन लाल द्विवेदी की बाल कविताएँ 
Sohan Lal Dwivedi Ki Baal Kavitayen 

जी होता चिड़िया बन जाऊँ - सोहन लाल द्विवेदी

जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!
मैं नभ में उड़कर सुख पाऊँ!

मैं फुदक-फुदककर डाली पर,
डोलूँ तरु की हरियाली पर,
फिर कुतर-कुतरकर फल खाऊँ!
जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

कितना अच्छा इनका जीवन?
आज़ाद सदा इनका तन-मन!
मैं भी इन-सा गाना गाऊँ!
जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!

जंगल-जंगल में उड़ विचरूँ,
पर्वत घाटी की सैर करूँ,
सब जग को देखूँ इठलाऊँ!
जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

कितना स्वतंत्र इनका जीवन?
इनको न कहीं कोई बंधन!
मैं भी इनका जीवन पाऊँ!
जी होता चिड़िया बन जाऊँ!
सोहन-लाल-द्विवेदी-की-बाल-कविताएँ

हम नन्हे-नन्हे बच्चे हैं सोहन लाल द्विवेदी

हम नन्हे-नन्हे बच्चे हैं,
नादान उमर के कच्चे हैं,
पर अपनी धुन के सच्चे हैं!
जननी की जय-जय गाएँगे,
भारत की ध्वजा उड़ाएँगे!

अपना पथ कभी न छोड़ेंगे,
अपना प्रण कभी न तोड़ेंगे,
हिम्मत से नाता जोड़ेंगे!
हम हिम गिर पर चढ़ जाएँगे,
भारत की ध्वजा उड़ाएँगे!

हम भय से कभी न डोलेंगे,
अपनी ताकत को तोलेंगे,
माता के बंधन खोलेंगे!
हम इसकी शान बढ़ाएँगे,
भारत की ध्वजा उड़ाएँगे!

मेरा देश - सोहन लाल द्विवेदी

ऊँचा खड़ा हिमालय आकाश चूमता है
नीचे पखार पग तल, नित सिंधु झूमता है,
गंगा पवित्र यमुना, नदियाँ लहर रही हैं
पल-पल नई छटाएँ, पग पग छहर रही हैं।

वह पुण्यभूमि मेरी
वह जन्मभूमि मेरी,
वह स्वर्णभूमि मेरी
वह मातृभूमि मेरी।

झरने अनेक झरते, जिसकी पहाड़ियों में
चिड़ियाँ चहक रही हैं, हो मस्त झाड़ियों में,
अमराइयाँ घनी हैं, कोयल पुकारती है
बहती मलय पवन है, तन मन सँवारती है।

वह धर्मभूमि मेरी
वह कर्मभूमि मेरी,
वह जन्मभूमि मेरी
वह मातृभूमि मेरी

जन्में जहाँ थे रघुपति, जन्मी जहाँ थीं सीता,
श्रीकृष्ण ने सुनाई वंशी पुनीत गीता,
गौतम ने जन्म लेकर, जिसका सुयश बढ़ाया
जग को दया दिखाई, जग को दिया दिखाया।

वह युद्धभूमि मेरी
वह बुद्धभूमि मेरी,
वह जन्मभूमि मेरी
वह मातृभूमि मेरी!

मीठे बोल - सोहन लाल द्विवेदी

मीठा होता खस्ता खाजा
मीठा होता हलुआ ताजा,
मीठे होते गट्टे गोल
सबसे मीठे, मीठे बोल।

मीठे होते आम निराले
मीठे होते जामुन काले,
मीठे होते गन्ने गोल
सबसे मीठे, मीठे बोल।

मीठा होता दाख छुहारा
मीठा होता शक्कर पारा,
मीठा होता रस का घोल
सबसे मीठे, मीठे बोल।

मीठी होती पुआ सुहारी
मीठी होती कुल्फी न्यारी,
मीठे रसगुल्ले अनमोल
सबसे मीठे, मीठे बोल।

नकली शेर - सोहन लाल द्विवेदी

सुनो गधे की एक कहानी,
उसने की कैसी शैतानी।
जब होती थी रात घनेरी,
तब करता था वह नित फेरी।

चुपके चुपके बाहर जाता,
खेतों से गेहूँ खा आता।
गेहूँ खा-खा मस्ती छाई,
तब क्या उसके मन में आई।

अब आगे की सुनो कहानी,
देखो, औंघाओ मत रानी।

खाल बाघ की उसने पाई,
उसने सूरत अजब बनाई
पहनी उसने खाल बदन में,
चला खेत चरने फिर बन में।

खाल पहन ली ऐसे वैसे,
गदहा बाघ बना हो जैसे।
फिर खुश होकर सीना ताने,
दिन में चला खेत को खाने!

डरे किसान देख कर सारे,
भागे झटपट बिना विचारेे।
तब कुछ गरहे बोले ही ज्यों,
यह भी बोला चीपों चीपों!

खुली बाघ की कलई सारी,
तब तो शामत छाई भारी।
डंडे लगे धड़ाधड़ पड़ने,
लगे गधे के पैर उखड़ने।

भगा वहाँ से यह बेचारा,
सभी तरफ से हिम्मत हारा।
गिरते पड़ते घर को धाया,
मरते मरते प्राण बचाया।

मूर्ख पंडित - सोहन लाल द्विवेदी

पंडित चार, पंडित चार,
इनकी सुनो कहानी यार!
सभी पढ़े थे वेद पुरान,
पर न जरा था उनको ज्ञान।

चारों थे पंडित विद्वान,
फिर भी थे पूरे नादान!
सबने मन में किया विचार,
चल विदेश में करें विहार।

घूमें चल कर देश तमाम,
पैदा करें दाम औ’ नाम।
साजे पोथी पत्रा साज,
चले सभी जंगल मंे आज।

देखा-मरा पड़ा था शेर,
पथ में था हड्डी का ढेर।
झटपट बोला पंडित एक,
अजी न बातें करो अनेक।

आओ अब अजमावें ज्ञान,
मरे शेर में लावें प्राण।
बहस और झंझट को छोड़,
दीं हड्डियाँ एक ने जोड़।

और एक ने मत्र उचार,
उसमें किया रक्त संचार।
करके यों ही अद्भुत तंत्र,
पढ़ने चला एक जब मंत्र।

बोला तब फिर पंडित एक,
करते क्या सोचो तो नेक।
ठीक नहीं करते यह काम,
होगा नहीं भला परिणाम।

काम कर रहे बिना विचार,
पढ़ लिखकर मत बनो गँवार।
मिली शेर को ज्यों ही जान,
लेगा तुरत तुम्हारे प्रान।

चलो नहीं ऐसी तुम चाल,
पैदा करो न अपना काल।
बात जरा सी लो यह मान,
उनमें बोला चतुर सुजान।

जब तक मैं चढ़ता हूँ पेड़,
तब तक रुको जहाँ है मेंड़।
चढ़ा पेड़ पर जहाँ सुजान,
आगे बढ़े शेष विद्वान।

जहाँ शेर में डाली जान,
गरजा सिंह, उठा बलवान।
थर थर लगे काँपने पाँव,
पंडित भूले सारे दाँव।

थे तीनों पंडित लाचार,
मचा खूब ही हाहाकार।
पर, सुनता था कौन पुकार?
झपट शेर ने डाला मार!

जब भी करो कभी कुछ काम,
पहले ही सोचो परिणाम।

मेंढक और साँप - सोहन लाल द्विवेदी

गंगदत्त मेंढक की बच्चो,
सुन लो एक कहानी।
इसका मर्म अगर समझोगे,
बन जाओगे ज्ञानी।

बहुत दिनों की बात, कथा भी,
यह है बहुत पुरानी।
पर इतनी अच्छी है मुझको,
अब तक याद जबानी।

एक कुआँ था बड़ा, भरा था
जिसमें गहरा पानी,
राजा उसका गंगदत्त था,
गंगदत्तनी रानी।

वहीं और मेंढक मेंढकियाँ
रहती थीं मनमानी-
जल में हिलमिल खेला करतीं-
करती थीं शैतानी।

गंगदत्त को एक रोज,
इन सबने बहुत सताया।
गंगदत्त राजा के मन में
गुस्सा भी तब आया।

गंगदत्त ने कहा चलूँ मैं
इनको मजा चखाऊँ,
गंगदत्त राजा तब ही मैं
दुनियाँ में कहलाऊँ।

गंगदत्त चल पड़ा सोचता
यों ही बातें मन में।
नागदत्त नागों का राजा
उसे मिल गया बन में।

गंगदत्त ने सोचा मन में,
इसको दोस्त बनाऊँ-
तो मैं दुष्ट मेंढकों से फिर
बदला खूब चुकाऊँ।

गंगदत्त ने कहा, जरा
ठहरो, नागों के राजा!
अभी ढूँढने चला तुम्हारे
घर का मैं दरवाजा।

मुझे कूप के सभी मेंढकों
ने है बहुत सताया।
इसीलिए, मैं दुखिया बन कर
शरण तुम्हारी आया।

चाहो तुम ही मुझको खा लो,
चाहो मुझे बचाओ।
पर इन दुष्ट मेंढकों से तुम
मेरा पिंड छुड़ाओ।

नागदत्त ने कहा, नहीं
मन में घबराओ भाई!
बतलाओ तो मुझे कौन सी
आफत तुम पर आयी?

गंगदत्त ने नागदत्त को,
तब सब हाल बताया-
कैसे वहां मेंढकों ने था,
उसको खूब सताया।

नागदत्त ने कहा, चलो,
दुष्टों को अभी दिखाओ,
उनका अभी नाश करता हूँ,
सब के नाम गिनाओ।

गंगदत्त ने मन में कुछ भी,
सोचा नहीं विचारा।
चला जाति का नाश कराने,
वह पापी हत्यारा!

गंगदत्त यों नागदत्त को,
अपने घर ले आया।
उसने सभी मेंढकों को,
पल भर में तुरत दिखाया।

नागदत्त का क्या कहना था,
लगा सभी को खाने।
मची कुएँ में भारी हलचल
लगे सभी चिल्लाने!

उसका हाल न पूछो, कहते
बनता नहीं जबानी,
गला रुका जाता, आँखों में
भर भर आता पानी।

नागदत्त यों लगा कुएँ में
खाने सुख से, जीने,
खाते पीते बीत गये जब
यों ही कई महीने;

हुआ जाति नाश गए जब
सारे मेंढक मारे;
गंगदत्त से नागदत्त तब
बोला कुआँ किनारे-

बात तुम्हारी मान, यहाँ पर
रहता हूँ मैं भाई!
भोजन और बताओ, वरना
होगी बड़ी बुराई।

गंगदत्त यह सुनकर चौंका
और बहुत घबराया।
बड़ी देर चुपचाप रहा, कुछ
उसकी समझ न आया।

नागदत्त ने कहा, वंश
वालों को अपने लाओ।
अब मैं उनको ही खाऊँगा,
जाओ, जल्दी आओ।

टर्र! टर्र! कर गंगदत्त ने
कहा, सुनो हे भाई!
अब तुम अपने घर को जाओ,
तो हो बहुत भलाई।

फुफकारा तब नागदत्त ने
कहा, कहाँ अब जाऊँ?
मेरा घर तो उजड़ गया
क्या फिर से नया बनाऊँ?

अब मैं हरदम यहीं रहूँगा
कहीं नहीं जाऊँगा;
तुम लोगों को पकड़-पकड़ कर
रोज यहीं खाऊँगा!

इस प्रकार जब गंगदत्त पर
गहरा संकट आया,
उसने अपने रिश्तेदारों को
ला ला कर पहुँचाया।

नागदत्त यों रोज रोज
रिश्तेदारों को खाता,
गंगदत्त यह देख देख
मन ही मन था घबराता।

जमुनादत्त पुत्र था प्यारा
बड़े प्यार से पाला,
नागदत्त ने एक रोज ले
उसको भी खा डाला।

अब मत पूछो गंगदत्त की,
वह रोया चिल्लया;
बड़ी देर बेहोश रहा, कुछ
उसको सूझ न पाया।

गंगदत्तनी ने खुद जाकर
तब उसको समझाया।
कैसे प्राण बचें उसने
इसका उपाय बतलाया।

गंगदत्तनी बोली, अब तो
कहना मानो स्वामी!
इसमें ही कल्याण तुम्हारा
होगा, जानो स्वामी।

सब तो नाश कराया, अब तो
इसको छोड़े स्वामी।
निकल चलो बाहर, इस घर से
नाता तोड़ो स्वामी।

गंगदत्त औ गंगदत्तनी ने
घर छोड़ा अपना।
जैसा काम किया वैसा ही
उनको पड़ा भुगतना।

गंगदत्त मेंढक की बच्चो!
पूरी हुई कहानी!
मैंने याद रखी है, तुम भी
रखना याद जबानी।

जब घर में हो फूट, कभी,
दुश्मन को नहीं बुलाना।
गंगदत्त मेंढक बनकर मत
जग में हंसी करना!

हाथी और खरगोश - सोहन लाल द्विवेदी

खटपट, खटपट, खटपट, खटपट,
क्या करते हो बच्चो, नटखट?
आओ, इधर दौड़ कर झटपट,
तुमको कथा सुनाऊँ चटपट!

नदी नर्मदा के निर्मल तट,
जहाँ जंगलों का है जमघट,
वहीं एक था बड़ा सरोवर,
जिसकी शोभा बड़ी मनोहर!

इसी सरोवर में निशिवासर,
हाथी करते खेल परस्पर।
एक बार सूखा सर वह जब,
तब की कथा सुनो बच्चो अब।

पड़े बड़े दुख में हाथी सब,
कहीं नहीं जल दिखलाया जब-
सारे हाथी होकर अनमन,
चले ढूँढ़ने जल को बन बन।

मेहनत कभी न होती निष्फल,
उनको मिला सरोवर निर्मल।
शीतल जल पीकर जी भरकर,
लौटे सब अपने अपने घर।

हाथी वहीं रोज जाते सब,
खेल खेल कर घर आते सब।
किन्तु, सुनो बच्चो चित देकर,
जहाँ मिला यह नया सरोवर।

वहीं बहुत खरगोशों के घर,
बने हुए थे सुन्दर सुन्दर।
हाथी के पाँवों से दब कर,
वे घर टूट बन गए खँडहर!

खरगोशों के दिल गए दहल,
कितने ही खरगोश गए मर,
वे सब थे अनजान बेखबर!

सब ने मिलकर धीरज धारा,
सबने एक विचार विचारा।
जिससे टले आपदा सारी,
ऐसी सब ने युक्ति विचारी।

उनमें था खरगोश सयाना,
जिसने देखा बहुत जमाना।
बात सभी को उसकी भायी,
उसने कहा, करो यह भाई-

बने एक खरगोश दूत अब,
काम करे बनकर सपूत सब।
जाकर कहे हाथियों से यह,
उसके सभी साथियों से यह,

हम खरगोश, हमारा यह सर,
श्री खरगोश हमारे नृपवर।
चारु चन्द्र उनका सिंहासन,
जहाँ बैठ देते वे दर्शन!

हमको है नृपवर ने भेजा,
हुक्म उनहोंने हमें सहेजा।
जाकर कहो हाथियों से यह,
उनके सभी साथियों से यह।

अब न कभी तुम सर में आना,
होगा वरना मौत बुलाना!
जुल्म किया तुमने हम पर,
सब घर तोड़ बनाये खँडहर!!

अगर नहीं मानोगे कहना,
तुम्हें पड़ेगा संकट सहना।
मैं बिजुली का अंकुश लेकर,
नाश करूँगा तुम्हें पकड़ कर!

इससे अच्छा है मत आओ,
खरगोशों को अब न सताओ।
किसी दूसरे सर को ढूँढ़ो,
अब न कभी आना तुम मूढ़ो!

मुमकिन है सच बात जानकर,
मुमकिन है यह बात मानकर।
हाथी फिर न सरोवर आवें,
और हमारे घर बच जावें।

हुई बात भी कुछ ऐसी ही,
सोची गई घात जैसी ही।
अब आगे की सुनो कहानी,
चला दूत ले हुक्म जबानी।

सभी हाथियों के ढिंग आया,
गरज गरज कर हुक्म सुनाया।
हाथी सहम गए सब सुन सुन,
हाथी सभी हो गए गुन मुन!

किन्तु एक था उनमें बलधर,
वह बोला चिंघाड़ मार कर।
बात तुम्हारी जानूँ सच जब,
बात तुम्हारी मानूँ सच सब!

बातें तुम न मुझे सिखलाओ,
बस अपने नृप को दिखलाओ।
चारु चन्द्र जिनका सिंहासन,
जहाँ बैठ वे देते दर्शन।

बोला दूत, चलो तुम सर को,
मैं दिखलाऊँगा नृपवर को।
आये दूत और हाथी सर,
राह निखरने लगी वहीं पर।

हुई रात जब, झलमल झलमल,
नभ में तारे निकले निर्मल।
खिली चाँदनी, खिला सरोवर,
दृश्य बड़ा ही बना मनोहर।

आया चाँद मनोहर सुन्दर,
नीले नीले आसमान पर।
उसकी छाया निर्मल जल पर,
चमकी अतिशय सुन्दर सुन्दर।

चारु चन्द्र जिनका सिंहासन,
जहाँ बैठ देते वह दर्शन!
हाथी ने देखा तब जल पर,
बिम्ब चन्द्रमा का अति सुन्दर।

बोला दूत, शीश ऊपर कर,
देखो! वहाँ, बीच में, जल पर,
आसमान से अभी उतर कर,
आये श्रीखरगोश नृपतिवर।

अहा! चाँद के बीच मंच पर,
है खरगोश दीखता मनहर!
मन ही मन यह समझा बलधर,
श्रीखरगोश यही हैं नृपवर!

सचमुच हुक्म उन्होंने भेजा,
इसको सचमुच काम सहेजा।
हाथी लौट तुरत सर आया,
बोला, नृपवर से मिल आया।

बोला सभी हाथियों से वह,
बोला सभी साथियों से वह।
जाना ठीक न सचमुच सर में,
जाना मौत बुलाना घर में।

तब से कभी न हाथी आये,
और न उनके साथी आये।
खरगोशों ने युक्ति निकाली,
आयी बला शीश से टाली!

फिर बन गए नये घर सुन्दर,
लहरीं जिनपर लता मनोहर।
हुए सभी खरगोश मगन मन,
रहने लगे खुशी हो छन छन।

गुरू और चेला - सोहन लाल द्विवेदी

गुरू एक थे, और था एक चेला,
चले घूमने पास में था न धेला।

चले चलते-चलते मिली एक नगरी,
चमाचम थी सड़कें चमाचम थी डगरी।
मिली एक ग्वालिन धरे शीश गगरी,
गुरू ने कहा तेज ग्वालिन न भग री।

बता कौन नगरी, बता कौन राजा,
कि जिसके सुयश का यहाँ बजता बाजा।
कहा बढ़के ग्वालिन ने महाराज पंडित,
पधारे भले हो यहाँ आज पंडित।

यह अंधेर नगरी है अनबूझ राजा,
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।
मज़े में रहो, रोज लड्डू उड़ाओ,
बड़े आप दुबले यहाँ रह मुटाओ।

खबर सुनके यह खुश हुआ खूब चेला,
कहा उसने मन में रहूँगा अकेला।
मिले माल पैसे का दूँगा अधेला,
मरेंगे गुरू जी मुटायेगा चेला।

गुरू ने कहा-यह है अंधेर नगरी,
यहाँ पर सभी ठौर अंधेर बगरी।
किसी बात का ही यहाँ कब ठिकाना?
यहाँ रहके अपना गला ही फँसाना।

गुरू ने कहा-जान देना नहीं है,
मुसीबत मुझे मोल लेना नहीं है।
न जाने की अंधेर हो कौन छन में?
यहाँ ठीक रहना समझता न मन में।

गुरू ने कहा किन्तु चेला न माना,
गुरू को विवश हो पड़ा लौट जाना।
गुरूजी गए, रह गया किन्तु चेला,
यही सोचता हूँगा मोटा अकेला।

चला हाट को देखने आज चेला,
तो देखा वहाँ पर अजब रेल-पेला।
टके सेर हल्दी, टके सेर जीरा,
टके सेर ककड़ी, टके सेर खीरा।

टके सेर मिलता था हर एक सौदा,
टके सेर कूँड़ी, टके सेर हौदा।
टके सेर मिलती थी रबड़ी मलाई,
बहुत रोज़ उसने मलाई उड़ाई।

सरंगी था पहले हुआ अब मुटल्ला,
कि सौदा पड़ा खूब सस्ता पल्ला।
सुनो और आगे का फिर हाल ताजा।
थी अन्धेर नगरी, था अनबूझ राजा।

बरसता था पानी, चमकती थी बिजली,
थी बरसात आई, दमकती थी बिजली।
गरजते थे बादल, झमकती थी बिजली,
थी बरसात गहरी, धमकती थी बिजली।

लगी ढाने दीवार, मकान क्षण क्षण,
लगी चूने छत, भर गया जल से आँगन।
गिरी राज्य की एक दीवार भारी,
जहाँ राजा पहुँचे तुतर ले सवारी।

झपट संतरी को डपट कर बुलाया,
गिरी क्यों यह दीवार, किसने गिराया?
कहा सन्तरी ने-महाराज साहब,
न इसमें खता मेरी, या मेरा करतब!

यह दीवार कमजोर पहले बनी थी,
इसी से गिरी, यह न मोटी घनी थी।
खता कारीगर की महाराज साहब,
न इसमें खता मेरी, या मेरा करतब!

बुलाया गया, कारीगर झट वहाँ पर,
बिठाया गया, कारीगर झट वहाँ पर।
कहा राजा ने-कारीगर को सज़ा दो,
ख़ता इसकी है आज इसको कज़ा दो।

कहा कारीगर ने, ज़रा की न देरी,
महाराज! इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह भिश्ती की ग़लती यह उसकी शरारत,
किया गारा गीला उसी की यह गफलत।

कहा राजा ने-जल्द भिश्ती बुलाओ।
पकड़ कर उसे जल्द फाँसी चढ़ाओ।
चला आया भिश्ती, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने-इसमें खता कुछ न मेरी।

यह गलती है जिसने मशक को बनाया,
कि ज्यादा ही जिसमें था पानी समाया।
मशकवाला आया, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने इसमें खता कुछ न मेरी।

यह मन्त्री की गलती है मन्त्री की गफलत,
उन्हीं की शरारत, उन्हीं की है हिकमत।
बड़े जानवर का था चमड़ा दिलाया,
चुराया न चमड़ा मशक को बनाया।

बड़ी है मशक खूब भरता है पानी,
ये गलती न मेरी, यह गलती बिरानी।
है मन्त्री की गलती तो मन्त्री को लाओ,
हुआ हुक्म मन्त्री को फाँसी चढ़ाओ।

हुआ मन्त्री हाजिर बहुत गिड़गिड़ाया,
मगर कौन सुनता था क्या बिड़ड़िाया।
चले मन्त्री को लेके जल्लाद फौरन,
चढ़ाने को फाँसी उसी दम उसी क्षण।

मगर मन्त्री था इतना दुबला दिखाता,
न गरदन में फाँसी का फंदा था आता।
कहा राजा ने जिसकी मोटी हो गरदन,
पकड़ कर उसे फाँसी दो तुम इसी क्षण।

चले संतरी ढूँढ़ने मोटी गरदन,
मिला चेला खाता था हलुआ दनादन।
कहा सन्तरी ने चलें आप फौरन,
महाराज ने भेजा न्यौता इसी क्षण।

बहुत मन में खुश हो चला आज चेला,
कहा आज न्यौता छकूँगा अकेला!!
मगर आके पहुँचा तो देखा झमेला,
वहाँ तो जुड़ा था अजब एक मेला।

यह मोटी है गरदन, इसे तुम बढ़ाओ,
कहा राजा ने इसको फाँसी चढ़ाओ!
कहा चेले ने-कुछ खता तो बताओ,
कहा राजा ने-‘चुप’ न बकबक मचाओ।

मगर था न बुद्धु-था चालाक चेला,
मचाया बड़ा ही वहीं पर झमेला!!
कहा पहले गुरु जी के दर्शन कराओ,
मुझे बाद में चाहे फाँसी चढ़ाओ।

गुरूजी बुलाये गये झट वहाँ पर,
कि रोता था चेला खड़ा था जहाँ पर।
गुरू जी ने चेले को आकर बुलाया,
तुरत कान में मंत्र कुछ गुनगुनाया।

झगड़ने लगे फिर गुरू और चेला,
मचा उनमें धक्का बड़ा रेल-पेला।
गुरू ने कहा-फाँसी पर मैं चढँूगा,
कहा चेले ने-फाँसी पर मैं मरूँगा।

हटाये न हटते अड़े ऐसे दोनों,
छुटाये न छुटते लड़े ऐसे दोनों।
बढ़े राजा फौरन कहा बात क्या है?
गुरू ने बताया करामात क्या है।

चढ़ेगा जो फाँसी महूरत है ऐसी,
न ऐसी महूरत बनी बढ़िया जैसी।
वह राजा नहीं, चक्रवर्ती बनेगा,
यह संसार का छत्र उस पर तनेगा।

कहा राजा ने बात सच गर यही
गुरू का कथन, झूठ होता नहीं है
कहा राजा ने फाँसी पर मैं चढूँगा
इसी दम फाँसी पर मैं ही टँगूँगा।

चढ़ा फाँसी राजा बजा खूब बाजा
थी अन्धेर नगरी, था अनबूझ राजा
प्रजा खुश हुई जब मरा मूर्ख राजा
बजा खूब घर घर बधाई का बाजा।

कबूतर - सोहन लाल द्विवेदी

भोले-भाले बहुत कबूतर
मैंने पाले बहुत कबूतर
ढंग ढंग के बहुत कबूतर
रंग रंग के बहुत कबूतर
कुछ उजले कुछ लाल कबूतर
चलते छम छम चाल कबूतर
कुछ नीले बैंजनी कबूतर
पहने हैं पैंजनी कबूतर
करते मुझको प्यार कबूतर
करते बड़ा दुलार कबूतर
आ उंगली पर झूम कबूतर
लेते हैं मुंह चूम कबूतर
रखते रेशम बाल कबूतर
चलते रुनझुन चाल कबूतर
गुटर गुटर गूँ बोल कबूतर
देते मिश्री घोल कबूतर।

ओस - सोहन लाल द्विवेदी

हरी घास पर बिखेर दी हैं
ये किसने मोती की लड़ियाँ?
कौन रात में गूँथ गया है
ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ?

जुगनू से जगमग जगमग ये
कौन चमकते हैं यों चमचम?
नभ के नन्‍हें तारों से ये
कौन दमकते हैं यों दमदम?

लुटा गया है कौन जौहरी
अपने घर का भरा खजा़ना?
पत्‍तों पर, फूलों पर, पगपग
बिखरे हुए रतन हैं नाना।

बड़े सवेरे मना रहा है
कौन खुशी में यह दीवाली?
वन उपवन में जला दी है
किसने दीपावली निराली?

जी होता, इन ओस कणों को
अंजली में भर घर ले आऊँ?
इनकी शोभा निरख निरख कर
इन पर कविता एक बनाऊँ।

एक किरण आई छाई - सोहन लाल द्विवेदी

एक किरण आई छाई,
दुनिया में ज्योति निराली
रंगी सुनहरे रंग में
पत्ती-पत्ती डाली डाली

एक किरण आई लाई,
पूरब में सुखद सवेरा
हुई दिशाएं लाल
लाल हो गया धरा का घेरा

एक किरण आई हंस-हंसकर
फूल लगे मुस्काने
बही सुंगंधित पवन
गा रहे भौरें मीठे गाने

एक किरण बन तुम भी
फैला दो दुनिया में जीवन
चमक उठे सुन्दर प्रकाश से
इस धरती का कण कण

कौन ? - सोहन लाल द्विवेदी

किसने बटन हमारे कुतरे?
किसने स्‍याही को बिखराया?
कौन चट कर गया दुबक कर
घर-भर में अनाज बिखराया?

दोना खाली रखा रह गया
कौन ले गया उठा मिठाई?
दो टुकड़े तसवीर हो गई
किसने रस्‍सी काट बहाई?

कभी कुतर जाता है चप्‍प्ल
कभी कुतर जूता है जाता,
कभी खलीता पर बन आती
अनजाने पैसा गिर जाता

किसने जिल्‍द काट डाली है?
बिखर गए पोथी के पन्‍ने।
रोज़ टाँगता धो-धोकर मैं
कौन उठा ले जाता छन्‍ने?

कुतर-कुतर कर कागज़ सारे
रद्दी से घर को भर जाता।
कौन कबाड़ी है जो कूड़ा
दुनिया भर का घर भर जाता?

कौन रात भर गड़बड़ करता?
हमें नहीं देता है सोने,
खुर-खुर करता इधर-उधर है
ढूँढा करता छिप-छिप कोने?

रोज़ रात-भर जगता रहता
खुर-खुर इधर-उधर है धाता
बच्‍चों उसका नाम बताओ
कौन शरारत यह कर जाता?

 क्यों ? - सोहन लाल द्विवेदी

१.  
क्यों बच्चों को नहीं सुहाता,
पढ़ना-लिखना, शाला जाना?
खेल-कूद में मन लगता,
दिन भर घर में धूम मचाना?
क्यों भाती मन को रंगरेली?
सुलझाए यह कौन पहेली?

२.
क्यों पतंग उड़ती है ऊपर?
क्यों न कभी नीचे को आती?
और गेंद फेंको जो ऊपर,
तो वह फौरन नीचे आती,
चोट लगाते ठेला-ठेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

३.
क्यों मेंढक पानी में रहते?
टर्रटों-टर्रटों गाना गाते,
क्यों न घोंसले में चढ़कर के
वे चिड़ियों को मार भागते?
जल में ही करते अठखेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

४.
क्यों कोल्हू जब बैल चलाता,
उसकी आँख बंद की जाती?
तिल में से न कढ़ता है,
कितनी ही वह पेरी जाती,
कब मन में खुश होता तेली?
सुलझाए यह कौन पहेली?

५.
क्यों स्याही होती है काली?
क्यों काला कागज न दिखाता
रंग-बिरंगी तस्वीरें लाख,
हरा-भरा मन है बन जाता,
क्यों भाते हैं सखा-सहेली?
सुलझाए यह कौन पहेली?

६.
नहीं मदरसे अच्छे लगते,
भाता है छुट्टी का घंटा।
मजा न चुप रहने में मिलता,
मजा तभी जब बजता टंटा।
अच्छी लगती ठेलमठेली।
सुलझाए यह कौन पहेली?

७.
चाचाजी क्यों दाढ़ी रखते,
बच्चों के मूँछें न दिखतीं?
क्यों चाची कंघी करती है,
अम्माँ अंजन रोज लगाती?
गुरु को भाते चेला-चेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

८.
क्यों चींटी बिल में रहती है,
क्यों इनको है शक्कर भाती,
पानी में शक्कर डालो तो,
पल भर में वह घुल-मिल जाती,
चींटी को भाती गुड़ भेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

९.
क्यों नटखट बच्चों को भाता
सदा पहेली को सुलझाना,
क्यों नानी को अच्छा लगता,
बच्चों के मन को उलझाना,
क्यों भाती है कथा-नवेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

१०.
 संपादक जी को क्यों भाता,
बच्चों के मन को छलना?
क्यों बच्चों को अच्छा लगता,
संपादक का मन फुसलाना,
छिड़ती छेड़छाड़ अलबेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

११.
क्यों मुझको अच्छा लगता है,
नई-नई नित कविता गढ़ना?
क्यों तुमको अच्छा लगता है,
नई-नई नित कविता पढ़ना?
क्यों भाता है फूल चमेली,
सुलझाए यह कौन पहेली?

प्रकृति-संदेश - सोहन लाल द्विवेदी

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती है
उठ-उठ गिर गिर तरल तरंग,
भर लो, भर लो अपने मन में,
मीठी-मीठी मृदुल उमंग।

पृथ्वी कहती- धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार

नटखट पांडे - सोहन लाल द्विवेदी

नटखट पांडे आए आए
पकड़ किसी का घोड़ा लाए

घोड़े पर हो गए सवार
घोड़ा चला कदम दो चार

नटखट थे पूरे शैतान
लगा दिये दो कोड़े तान

घोड़ा भगा देख मैदान
नटखट पांडे गिरे उतान

उठो लाल अब आँखें खोलो - सोहन लाल द्विवेदी

उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायी हूँ मुंह धो लो।

बीती रात कमल दल फूले,
उसके ऊपर भँवरे झूले।

चिड़िया चहक उठी पेड़ों पे,
बहने लगी हवा अति सुंदर।

नभ में प्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।

भोर हुई सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।

नन्ही नन्ही किरणें आई,
फूल खिले कलियाँ मुस्काई।

इतना सुंदर समय मत खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।

कौन सिखाता है चिडियों को - सोहन लाल द्विवेदी

कौन सिखाता है चिडियों को
चीं–चीं चीं–चीं करना?
कौन सिखाता फुदक–फुदक कर
उनको चलना फिरना?

कौन सिखाता फुर से उड़ना
दाने चुग-चुग खाना?
कौन सिखाता तिनके ला–ला
कर घोंसले बनाना?

कौन सिखाता है बच्चों का
लालन-पालन उनको?
माँ का प्यार, दुलार, चौकसी
कौन सिखाता उनको?

कुदरत का यह खेल,
वही हम सबको, सब कुछ देती।
किन्तु नहीं बदले में हमसे
वह कुछ भी है लेती।

हम सब उसके अंश
कि जैसे तरू–पशु–पक्षी सारे।
हम सब उसके वंशज
जैसे सूरज–चांद–सितारे।

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