दुष्चक्र में सृष्टा - वीरेन डंगवाल Dushchakra Mein Srasta -Viren Dangwal

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

दुष्चक्र में सृष्टा - वीरेन डंगवाल
Dushchakra Mein Srasta -Viren Dangwal

नाक - वीरेन डंगवाल

हस्ती की इस पिपहरी को
यों ही बजाते रहियो मौला!
आवाज़
बनी रहे आख़िर तक साफ-सुथरी-निष्कंप

अकेला तू भी -वीरेन डंगवाल

तू अभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरू-गूँ कबूतरों की, नारियल का जल
पहिए की गति, कपास के हृदय का पानी है
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे !

Viren-Dangwal

एक जलती-बुझती ख़ुशी - वीरेन डंगवाल

जैसे तारों की टिमक
जैसे ब्याह वाला घर
जैसे फूट पड़ते फ़व्वारे का उल्लास
जैसे एक निराशा घनघोर
मैं आजिज़ आ चुका हूँ इससे
मुझे यह और चाहिए ।

काम-प्रेम - वीरेन डंगवाल

काम हृदय में यह कैसा कोहराम मचाए है
बँसवट में जैसे चिड़ियों की जोशीली खटपट
खिला कहाँ से संध्या में गुलाब पीला
आता हुआ शरद यह कैसे रंग दिखाए है
प्रेम हृदय में यह कैसा कोहराम मचाए है ।

चप्पल पर भात - वीरेन डंगवाल

किस्सा यों हुआ
कि खाते समय चप्पल पर भात के कुछ कण
गिर गए थे
जो जल्दबाज़ी में दिखे नहीं ।
फिर तो काफ़ी देर
तलुओं पर उस चिपचिपाहट की ही भेंट
चढ़ी रहीं
तमाम महान चिन्ताएँ ।

एन जी ओ शब्द - वीरेन डंगवाल

इन्हीं शब्दों के साथ
शुरू की थी उसने अपनी बात
इन्हीं से ख़त्म की
इन्हीं के साथ सम्पन्न किए
सारे ज़रूरी काम
इन्हीं से चलाए ज़रूरी संघर्ष
इन्हीं से चला रहा है आजकल एन जी ओ

रसायनशास्त्री - वीरेन डंगवाल

सुनते समय उनकी मुद्रा
लगभग रसायनशास्त्रियों वाली थी
अपनी लम्बी उंगलियों और अंगूठे में
लगभग कसे हुए अपना चिकना परुष जबड़ा
क्लैसिकल रसायनशास्त्रियों की तरह ।
फिर कुछ शब्द उन्होंने कहे
आँखों में पहले लगभग हास्य
और फिर तत्काल गम्भीर दिलचस्पी झलकाते हुए
जो दरअसल दैन्य थी ।
कहकर वे चुप हो गए ।
(लिखने का श्रम तो कब का छूट चुका था)
थोड़ी शर्मिन्दगी थी तो
उनके चुप होने में शायद ।

गप्प-सबद - वीरेन डंगवाल

आंधी में उड़ियो न सखी, मत आंधी में उड़ियो।
ओ३म लिखा स्कूटर दौड़ा राम लिखा कर कार
लेकिन पप्पी दी गड्डी पर न्यौछावर संसार
उन्हीं का होना है संसार
बस न तू आंधी में उड़ियो

धक्-धक्-धक्-धक् काँपे हियरा थर-थर-थर-थर पैर
अलादीन को बेढब सूझी बेमौसम यह सैर
बिना चप्पू-लंगर यह सैर
ज़रा आंधी में मत उड़ियो

खाना खा लेटी ही थी झांसी की रानी थोड़ा
वहीं खाट के पास बंधा था उस का मश्की घोड़ा
बड़ी देर से मक्खी उसको एक कर रही तंग
खिसियाई रानी ने जब देखे उस के ढंग
चीखी, 'नुचवा दूंगी मैं तेरे ये चारों पंख
तुड़ा दूँगी मैं आठों पैर
अरी, फिर आंधी में उड़ियो।'

देस बिराना हुआ मगर इस में ही रहना है
कहीं ना छोड़ के जान है, इसे वापस भी पाना है
बस न तू आंधी में उड़ियो। मती ना आंधी में उड़ियो।

बुख़ार - वीरेन डंगवाल

मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले
पानी पीती थी एक भैंस ।
मैं पकता
हवा से सिहरते गेहूँ की तरह
धूप के खेत में ।
नींद सा कुछ दबाता
पलकों को
कलेजे को दबाती
एक मसोस ।

कोठी-बियाबानी - वीरेन डंगवाल

निद्रालस भरा-भरा
बियाबान अब न रहा ।
रास्ता आम है अब
और काफ़ी मशगूल ।
डैनों के बल फाटक के खम्भों पर लटकीं
काई पुती सीमेंट की फ़रिश्तिनें
ताकती हैं ट्राफ़िक को ।
इतने जाते हैं, इतने आते
मगर कोई आता नहीं ।

या देवि ! - वीरेन डंगवाल

माथे पर एक आँख लम्बवत
उसके भी ऊपर मुकुट
बहुत सारे हाथ
मगर दीखते हैं दो ही :
एक में टपकता मुंड ।
दूसरे में टपटपाता खड्ग ।
शेर नीचे खड़ा है ।
दाँत दिखाता मगर सीधा-सादा ।
बग़ल में नदी बह रही लहरदार ।
पहाड़ क्या हैं, रामलीला का पर्दा हैं ।
माता, मैं उस चित्रकार को प्रणाम करता हूँ
जिसने तेरी यह धजा बनाई ।

पत्रकार महोदय - वीरेन डंगवाल

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।

अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।

जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

परम्परा - वीरेन डंगवाल

पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।

माँ की याद - वीरेन डंगवाल

क्या देह बनाती है माँओं को ?
क्या समय ? या प्रतीक्षा ? या वह खुरदरी राख
जिससे हम बीन निकालते हैं अस्थियाँ ?
या यह कि हम मनुष्य हैं और एक
सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा है हमारी
जिसमें माँएँ सबसे ऊपर खड़ी की जाती रही हैं
बर्फ़ीली चोटी पर,
और सबसे आगे
फ़ायरिंग स्क्वैड के सामने ।

नींदें - वीरेन डंगवाल

नीन्द की छतरियाँ
कई रंगों और नाप की हैं।
मुझे तो वह नीन्द सबसे पसन्द है
जो एक अजीब हल्के गरु उतार में
धप से उतरती है
पेड़ से सूखकर गिरते आकस्मिक नारियल की तरह
एक निर्जन में।
या फिर वह नीन्द
जो गिलहरी की तरह छोटी चंचल और फुर्तीली है।
या फिर वह
जो कनटोप की तरह फिट हो जाती है
पूरे सर में।
एक और नीन्द है
कहीं समुद्री हवाओं के आर्द्र परदे में
पालदार नाव का मस्तूल थामे
इधर को दौड़ी चली आती
इकलौती
मस्त अधेड़ मछेरिन।

चूना - वीरेन डंगवाल

जहाँ पर पड़ा वहीं पर खिल गया चूना
रोनी दीवार पर आहा क्या जगर-मगर कीन्हा ।
हल्दी के संग लगा चोट पर
दे दिया मलहम का काम
कहीं पड़ा अकड़ पान-सुर्ती में तो
फाड़ डाला सब जीभ-गाल का चाम
बना सगुन ब्याह-सादी में
नाली तक के गुन गाए
भोली डिज़ायनों में भोली आत्माओं के करतब दिखलाए
चमकाया
अंधकार रह न गया सूना !

बांदा - वीरेन डंगवाल

मैं रात, मैं चांद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल ।
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास ।
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल ।
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार ।

फ़ैजाबाद-अयोध्या - वीरेन डंगवाल

(फिर फिर निराला को)

1.

स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था
अकेला
प्लेटफार्म नंबर दो पर।
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ।
बाबा संत न था
ज्ञानी था और गरीब।
रिक्शेवाले की तरह।

दोपहर की अजान उठी।
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ।
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
दूर थी उनकी अयोध्या।

2.

टेम्पो
खच्च भीड़
संकरी गलियाँ
घाटों पर तख्त ही तख्त
कंघी, जूते और झंडे
सरयू का पानी
देह को दबाता
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
चारों और स्नानार्थी
मंगते और पण्डे।
सब कुछ था पूर्ववत अयोध्या में
बस उत्सव थोडा कम
थोडा ज्यादा वीतराग,
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
तीन ईंटों का चूल्हा कर
जैसे तैसे धौंक आग।
फिर भी क्यों लगता था बार बार
आता हो जैसे, आता हो जैसे
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
भिंचा-भिंचा विकल रुदन।

3.

लेकिन
वह एक और मन रहा राम का
जो
न थका।
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
सृजनशील, संकल्पवान
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
भर देता जिस में शक्ति एक
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक।
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका।

इसीलिए रौंदी जा कर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या।
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।

दुश्चक्र में स्रष्टा (कविता) - वीरेन डंगवाल

कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों
की बेटी छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी
को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं
अलग से शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।
आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा
हाँ एक अंतहीन सूची है
भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।
यह ज़रूर समझ में नहीं
आता कि फिर क्यों बंद कर दिया
अपना इतना कामयाब
कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!

सूखा - वीरेन डंगवाल

सूखा पिता के हृदय में था
भाई की आँखों में
बहन के निरासे क्षोभ में था सूखा
माता थी
कुएँ की फूटी जगत पर डगमगाता इकहरा पीपल
चमकाता मकड़ी के महीन तार को
एक ख़ास कोण पर
आँसू की तरह ।
सूर्य के प्रचण्ड साम्राज्य तले
इस भरे-पूरे उजाड़ में
केवल कीचड़ में बच रही थी नमी
नामुमकिन था उसमें से भी निथार पाना
चुल्लू भर पानी ।

मानसून का पहला पानी - वीरेन डंगवाल

मानसून का पहला पानी पड़ता है
लम्बे व्याकुल इन्तज़ार के बाद
सुबह से,
अति ऊभ-चूभ मन
याद वही सब करता है
जो याद नहीं अब, फिर भी रह-रह बजता है
ज्यों काँसे की गागर पर बजती हों बूँदें ।
वह गागर, यों तो फूट चुकी है अब कब की,
पर रक्खी है फिर भी सहेजकर पेटी में ।

तारन्ता बाबू से कुछ सवाल - वीरेन डंगवाल

तोते क्यों पाले गए घरों में
कूड़ा डालने के काम में क्यों लाए गए कनस्तर
रद्दी वाले ही आख़िर क्यों बने हमारी आशा
बुरे दिनों में?
ज़रा सोचो,
अकसर वहीं क्यों जलाई गईं बत्तियाँ खूब
जहाँ उनकी सबसे कम ज़रूरत थी
जिन पर चलते सबसे कम मनुष्य
आख़िर क्यों वहीं सड़कें बनीं चौड़ी-चकली?
खुशबुएँ बनाने का उद्योग
आख़िर कैसे बन गया इतना भीमकाय
पसीना जबकि हो गया एक फटा हुआ उपेक्षित जूता
हमारे इस समय में
जबकि सबसे साबुत सच तब भी वही था।
इन नौजवानों से कैसे छीन लिया गया उनका धर्म
और क्यों न भर जाने दिया उन्होंने अपने दिमाग में
सड़ा हुआ जटा-जूट-घास-पात?
कहाँ चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक
प्रकृति की छटा छिटकाते
जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल
आदिवासियों को बेदखल करते हुए?
आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
सोचो तो तारन्ता बाबू और ज़रा बताओ तो
काहे हुए चले जाते हो ख़ामख़ाह
इतने निरुपाय?

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