बाँसुरी - सोहन लाल द्विवेदी Bansuri - Sohan Lal Dwivedi

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बाँसुरी - सोहन लाल द्विवेदी
Bansuri - Sohan Lal Dwivedi

ध्वजा-गीत - सोहन लाल द्विवेदी

हम नन्हें नन्हें बच्चे हैं,
नादान उमर के कच्चे हैं,
पर, अपनी धुन के सच्चे हैं,

जननी की जय जय गायेंगे।
भारत की ध्वजा उड़ायेंगे।

अपना पथ कभी न छोड़ेंगे,
अपना प्रण कभी न तोड़ेंगे,
हिम्मत से नाता जोड़ेंगे,

हम हिमिगिरि पर चढ़ जायेंगे।
भारत की वजा उड़ायेंगे।

हम भय से कभी न डोलेंगे,
अपनी ताकत को तोलेंगे,
माता के बन्धन खोलेंगे,

अपना शिर भेंट चढ़ायेंगे।
भारत की ध्वजा उड़ायेंगे।
Bansuri-Sohan-Lal-Dwivedi

प्रकृति-संदेश - सोहन लाल द्विवेदी

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!

यह भारतवर्ष हमारा है! - सोहन लाल द्विवेदी

यह भारतवर्ष हमारा है!
हमको प्राणों से प्यारा है!!

है यहाँ हिमालय खड़ा हुआ,
संतरी सरीखा अड़ा हुआ,

गंगा की निर्मल धारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!

क्या ही पहाड़ियाँ हैं न्यारी?
जिनमें सुंदर झरने जारी!

शोभा में सबसे न्यारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!

है हवा मनोहर डोल रही,
बन में कोयल है बोल रही।

बहती सुगंध की धारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!

जन्मे थे यहीं राम सीता,
गूँजी थी यहीं मधुर गीता।

यमुना का श्याम किनारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!

तन मन धन प्राण चढ़ाएँगे,
हम इसका मान बढ़ाएँगे!

जग का सौभाग्य सितारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!

हिमालय - सोहन लाल द्विवेदी

युग युग से है अपने पथ पर
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!

जो जो भी बाधायें आईं
उन सब से ही लड़ा हिमालय,
इसीलिए तो दुनिया भर में
हुआ सभी से बड़ा हिमालय!

अगर न करता काम कभी कुछ
रहता हरदम पड़ा हिमालय
तो भारत के शीश चमकता
नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!

खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!

डिगो न अपने प्रण से तो ––
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!

अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!

ओस - सोहन लाल द्विवेदी

हरी घास पर बिखेर दी हैं
ये किसने मोती की लड़ियाँ?
कौन रात में गूँथ गया है
ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ?

जुगनू से जगमग जगमग ये
कौन चमकते हैं यों चमचम?
नभ के नन्‍हें तारों से ये
कौन दमकते हैं यों दमदम?

लुटा गया है कौन जौहरी
अपने घर का भरा खजा़ना?
पत्‍तों पर, फूलों पर, पगपग
बिखरे हुए रतन हैं नाना।

बड़े सवेरे मना रहा है
कौन ख़ुशी में यह दीवाली?
वन उपवन में जला दी है
किसने दीपावली निराली?

जी होता, इन ओस कणों को
अंजली में भर घर ले आऊँ?
इनकी शोभा निरख निरख कर
इन पर कविता एक बनाऊँ।

फूल हमेशा मुसकाता - सोहन लाल द्विवेदी

चाहे हवा बहे मतवाली
फूल हमेशा मुसकाता ।
चाहे हवा चले लूवाली
फूल हमेशा मुसकाता ।

बरसे प्यारी ओस मनोहर
फूल हमेशा मुसकाता ।
चाहे ओले पड़ें शीश पर
फूल हमेशा मुसकाता ।

काँटों की नोकों को सहकर
फूल हमेशा मुसकाता।
पत्तों की गोदी में रहकर
फूल हमेशा मुसकाता।

ऊपर रह डालों पर खिलकर
फूल हमेशा मुसकाता ।
नीचे टपक धूल में मिलकर
फूल हमेशा मुसकाता ।

रोना नहीं फूल को आता
फूल हमेशा मुसकाता ।
इसीलिए वह सबको भाता
फूल हमेशा मुसकाता।

यह है बसन्त का पहला दिन - सोहन लाल द्विवेदी

कुछ कुछ सुगंध के लेकर कण,
अब देखो बहने लगी पवन,
कुछ कुछ निकले हैं नये सुमन,

यह है बसन्त का पहला दिन !

है कभी कभी आती कोयल,
दो चार बोल गाती कोयल,
फिर चुप हो छिप जाती कोयल,

यह है बसन्त का पहला दिन !

किरणों में है कुछ कुछ लाली,
दूर्वा में कुछ कुछ हरियाली,
दिखलाता कुछ कुछ ख़ुश माली,

यह है बसन्त का पहला दिन !

कुछ दिन लगते हैं अब सुन्दर,
कुछ दिशा दिखाती है मनहर,
यह कौन गया है जादू कर ?

यह है बसन्त का पहला दिन !

बसन्ती पवन - सोहन लाल द्विवेदी

जब करने को मैं चला भ्रमण,
तब मिली आज कुछ नई पवन ।

भीनी भीनी इसकी सुगंध,
जिससे भौरे बन जायँ अंध,
यह पवन भरी थी मधुर गंध,

तन हुआ मगन, मन हुआ मगन,
जब मिली सुगंधित नई पवन ।

कुछ कुछ ऐसा तब हुआ ज्ञात-
इसमें सुगंध थी भाँत भाँत,
आसान न सब जानना बात,

बस मीठा था दिशि का कण कण,
यों मिली अनोखी सुखद पवन ।

बौरे रसाल, बौरे कटहल,
कचनार, अनार, शंतरे फल,
फूलों की गिनती नहीं सरल,

मन मस्त हो रहा था छन छन !
यों मिली बसन्ती मधुर पवन ।

बादल - सोहन लाल द्विवेदी

बादल भी बड़े खिलाड़ी हैं
मानो कुछ इनको नहीं काम।
बस, आठ पहर, चौबिस घंटे,
खेला करते हैं सुबह शाम !

इनको है नींद नहीं आती
थकते भी इनके नहीं पैर,
जब देखो तब बन सैलाने
करते रहते हैं सदा सैर !

पल में हैं अगर पहाड़ी में,
तो पल ही में हैं खाड़ी में,
पल में उड़ते हैं पेड़ों में
तो पल में उड़ते झाड़ी में !

चढ़ रोज़ हवा के घोड़े पर
ले करके बिजली का कोड़ा,
दौड़ा करते दुनिया भर में
हूँढा करते अपना जोड़ा !

ये कभी तैरते सागर पर
तो कभी तैरते नहरों में,
है इन्हें बड़ा अच्छा लगता
खेलना किलकती लहरों में।

इनको है अजब शरीर मिला
जो चाहा रूप बनाते ये,
जितना चाहा फैलाते ये
जितना चाहा सिकुड़ाते थे।

बिल्ली, कुत्ता, चूहा, बन्दर,
जो चाहा शकल बना लेते,
हाथी, घोड़ा, खरगोश, ऊँट,
जो चाहा नकल बना लेते ।

खेला करते ये झरनों से
सूरज की सुन्दर किरनों से,
खेला करते ये पत्तों से
फूलों से, वन के हिरनों से !

जाकर समुद्र की लहरों से
ये ऊधम बहुत मचाते हैं,
भर लाते उसका सारा जल
बिजली चमका डरवाते हैं।

मिल जाता इनको वायुयान
तो उसको बहुत तंग करते,
उसको भटकाते इधर उधर
मीलों तक दौड़ संग करते ।

जब होते हैं ये ख़ुशी कभी
तब रिमझिम बूंदें बरसाते,
जब होते ये नाराज़ कभी
तब ओले पड़ पड़ बरसाते ।

ये नहीं चाँद से डरते हैं,
ये नहीं मूर्य से डरते हैं,
ढक लेते हैं उनको पल में
ये बड़ा अँधेरा करते हैं।

पल में ये हैं नीचे आते,
लहराते झुक झुक रुक भू पर,
पल में ये बनते घन घमण्ड,
घहराते हैं नभ के ऊपर ।

पहना करते हैं कभी कभी
कपड़े रङ्गीन बड़े न्यारे,
तब हरे लाल नीले पीले
ये दिखलाते प्यारे प्यारे ।

सबसे ज्यादा है मौज इन्हें;
जी चाहा वहीं झूम आते;
इंगलैंड, जर्मनी, अमरीका,
ये बातोंबात घूम आते।

ये हो आये जापान, चीन,
देखी लन्दन की चहल पहल,
इनने देखा न्यूयार्क जहाँ
चालीस खंड का खड़ा महल !

यदि तुम इनसे मिलना चाहो
तो जाओ कभी मसूरी में,
ये लिपट गले से जायेंगे
जो आज दिखाते दूरी में।

मुमकिन है तुमको बतला दें
कोई ऐसा जादू मन्तर,
ये मज़े निराले लूट सको
तुम भी ऐसे बादल बनकर !!

अगर कहीं बादल बन जाता ? - सोहन लाल द्विवेदी

अगर कहीं बादल बन जाता,
तो मैं जग में धूम मचाता !

कड़कड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़,
घड़घड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़,
करता जग में भारी गर्जन
कपते हाथी शेरों के मन !

मैं दुनिया का दिल दहलाता,
अगर कहीं बादल बन जाता ?

नहीं ज़रा आँधी से डरता,
मैं ओलों की वर्षा करता,
उमड़ घुमड़ नभ में छा जाता
जल-धारा प्रतिपल बरसाता।

जल थल सागर एक बनाता!
अगर कहीं बादल बन जाता ?

सागर से सब जल भर लाता,
सारी पृथ्वी पर बरसाता,
जब मैं अपना क्रोध दिखाता,
पल भर ही में सिंधु सुखाता,

मैं दसरा अगस्त कहाता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?

सूरज, चन्द्र और ये तारे,
रहते मेरे वश में सारे,
जब चाहता जिसे ढक लेता
कभी न बाहर आने देता !

जग में अंधकार घिर जाता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?

किन्तु, शक्ति पाकर मैं इतनी,
सेवा करता बनती जितनी !
कभी नहीं मद में इतराता
दीन दुखी का दुःख मिटाता।

मैं सुख की समीर लहराता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?

उग रही घास - सोहन लाल द्विवेदी

उग रही घास, उग रही घास ।

कल चावल चावल दीख पड़ी,
तो अंगुल भर है आज खड़ी,
कल होगी जैसे बड़ी छड़ी,

हरियाली लाती आस पास !
उग रही घास, उग रही घास ।

किस समय कहाँ कब आती है ?
कुछ बात न जानी जाती है !
गुप चुप गुप चुप छा जाती है,

उगती है घुलमिल पास पास !
उग रही घास, उग रही घास ।

गिरती नन्हीं बँदें सुन्दर,
तब घास दिखाती है मनहर !
लहराती झोंके खा खाकर,

खिल उठती हैं आँखें उदास!
उग रही घास, उग रही घास ।

उजड़े में चमन बसाती है,
यह नंदन बाग लगाती है,
यह प्रभु की याद दिलाती है।

यह उसकी करुणा का विकास !
उग रही घास, उग रही घास ।

मोर - सोहन लाल द्विवेदी

है मोर मनोहर दिखलाता !
यह किसका हृदय न ललचाता ?

चलता कैसा सिर ऊँचा कर ?
मस्ती से धीरे पग धर धर ।
सिर पर है ताज छटा लाता
है मोर मनोहर दिखलाता !

गर्दन इसकी प्यारी प्यारी,
सुन्दर सुन्दर न्यारी न्यारी।
इसका रंग है कितना भाता?
है मोर मनोहर दिखलाता !

जब घिर आती हैं घटा घोर,
तब मोर मचाता बड़ा शोर ।
आनन्द बहुत ही सरसाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !

जब वन में अपने पर पसार,
यह नाचा करता है अपार ।
तब कितना मन को ललचाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !

यह है वन का शोभा सिंगार,
इससे है उपवन की बहार ।
यह पग पग छवि को छिटकाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !

मीठी मीठी इसकी अवाज़,
इस पर है इसको बड़ा नाज़ ।
जब जी आता तब यह गाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !

नीले पीले बैंजनी लाल,
रेशम से सुन्दर सुघर बाल ।
इसका रंग अजब रंग लाता,
है मोर मनोहर दिखलाता।

इतना सुन्दर इतना मनहर ?
है और नहीं पंछी भू पर!
जो दिल को इतना बहलाता ।
है मोर मनोहर दिखलाता !

शरद्ऋतु - सोहन लाल द्विवेदी

पहन चाँदनी की साड़ी तन
आई खूब शरदऋतु बनठन ।

कैसा गोरा रंग निराला ?
छाया चारों ओर उजाला !

नीले नभ में सुन्दर तारे,
छिटक गये मोती से प्यारे ।

तालाबों में कोकाबेली,
बागों में खिल उठी चमेली!

दिवस सुनहला, रात रुपहली,
बनी शरद क्या खूब दुपहली!

हवा बहुत ही सुख उपजाती,
मीठी मीठी ख़ुशबू लाती !

अब नभ में बादल न दिखाते,
बेखटके रवि रथ दौड़ाते ।

मिटा चाँद को भी अब खटका
देता रोज चाँदनी छिटका।

पृथ्वी निर्मल सागर निर्मल,
गिरवर निर्मल, सरवर निर्मल,

हुआ शरद का क्या ही आना ?
सबने पहना निर्मल बाना !

दीवाली - सोहन लाल द्विवेदी

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!

राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!

अगर कहीं मैं पैसा होता? - सोहन लाल द्विवेदी

पढ़े-लिखों से रखता नाता,
मैं मूर्खों के पास न जाता,

दुनिया के सब संकट खोता !
अगर कहीं मैं पैसा होता ?

जो करते दिन रात परिश्रम,
उनके पास नहीं होता कम,

बहता रहता सुख का सोता !
अगर कहीं मैं पैसा होता?

रहता दुष्ट जनों से न्यारा,
मैं बनता सुजनों का प्यारा,

सारा पाप जगत से धोता !
अगर कहीं मैं पैसा होता?

व्यर्थ विदेश नहीं मैं जाता,
नित स्वदेश ही में मँडराता,

भारत आज न ऐसे रोता!
अगर कहीं मैं पैसा होता?

पहाड़ की चोटी से - सोहन लाल द्विवेदी

यदि पहाड़ की चोटी पर
चढ़कर देखो बच्चो भू पर,
तो अजीब चीजें आयेंगी
तरह तरह की तुम्हें नज़र !

नहीं आदमी देख सकोगे,
चलते फिरते सिर केवल,
दिखा पड़ेंगे तुम्हें अजब से,
चलते ज्यों चींटी के दल !

आँगन से मैदान दिखाते,
जंगल ऐसे जैसे बाग़,
खपरैलों, छप्पर, टीनों ये
दिखा पड़ेंगे जैसे दाग़।

कुत्ता बिल्ली देख न पाओगे,
बंदर की गिनती क्या ?
चकरा जाती आँखें बाहर,
फिर अंदर की गिनती क्या ?

नदी दिखाती नाला जैसी,
झीलें जैसे हों तालाब,
गाँव दिखाता है घर जैसे,
आगे का क्या कहूँ हिसाब ?

ज्यों बौनों का देश बसा हो,
सब बौने जिसकी बातें ?
ऐसा ही लगता आँखों को,
अजब देश की-सी बातें।

रेल की खिड़की से - सोहन लाल द्विवेदी

छक छक, फक फक, छक छक, भक भक
है रेल चली जाती धक धक ।

मैं बैठा डिब्बे के अंदर,
जब नज़र डालता हूँ बाहर ।
तो दुनिया अजब नज़र आती,
सब चीजें भगती दिखलाती।

ये पेड़ भगे, ये पात भगे,
जंगल के बड़े जमात भगे।
ये खेत भगे, खलिहान भगे,
लम्बे चौड़े मैदान भगे।
ये गाँव भगे, ये शहर भगे,
दिखलाते पुल औ नहर भगे।

फिर चीजें दिखती मिलती सीं,
ज्यों एक तार में सिलती-सी।
यह एक मील, दूसरा मील,
लो, आया यह तीसरा मील ।
यों मीलों पर सैकड़ों मील,
मिलते पग पग, होती न ढील।

पंजाब गई, बंगाल गई,
यह रेल चली भूपाल गई।
मद्रास गई, नैपाल गई,
यह शिमला नैनीताल गई।

पुल पर चढ़, नभ तत्काल चली,
नीचे नीचे पाताल चली।
पृथ्वी पर धीमी चाल चली,
चढ़ पर्वत उच्च विशाल चली।

यह नदी चली, यह ताल चली,
यह ढाल चली, उत्ताल चली।
टाले न किसी के कहीं टली,
घूमी दुनिया की गली गली!

फिर चीजें दिखती सटती-सी,
आपस में गले लिपटती-सी,
जा खंभे फैले भगे भगे,
वे दिखलाते हैं लगे लगे,

आती है स्टेशन पर स्टेशन,
आ जाता है जंगी जंक्शन,
नज़दीक दिखाते नगर नगर,
हम चलते रहते डगर डगर,

खंभे पर खंभे चढ़ जाते,
पेड़ों पर टीले बढ़ जाते,
झीलों पर जंगल मढ़ जाते,
यों आँखों में हैं गड़ जाते !
यह कलकत्ता तो यह काशी
यह कानपूर तो यह झाँसी,

दिखता है अजब तमाशा-सा
मन घलता दूध बताशा-सा

क़लम की आत्मकहानी - सोहन लाल द्विवेदी

है मेरी अति करुण कहानी !
वही मुझे है यहाँ सुनानी !

मैंने बहुत कष्ट है पाया,
इससे मूखी मेरी काया,

मुझे लोग जंगल से लाते,
मात पिता से साथ छुटाते ।

मेरा सुन्दर रङ्ग मिटाते,
काला और कुरूप बनाते,

चाकू से फिर शीश काटकर,
मेरी जीभ छेदते हैं नर !

आगे क्या दूँ अधिक हवाला ?
आखिर मुंह कर देते काला !

किन्तु, भुला यह सभी बुराई,
करती उनकी सदा भलाई !

प्रतिदिन नये लेख लिखती हूँ !
दुश्मन का भी हित करती हूँ !!

कौन कहाँ ख़ुश रहता है ? - सोहन लाल द्विवेदी

पेड़ों में ख़ुश रहती चिड़ियाँ,
तालाबों में ख़ुशी मछलियाँ ।
जंगल में ख़ुश हिरन दौड़ते,
उपवन में ख़ुश बहुत तितलियाँ ?

चुहिया बिल में ख़ुश रहती है,
बिल्ली ख़ुश रहती कोने में।
कुत्ते ख़ुश दीखते सड़क पर,
बकरी ख़ुश बन में होने में।

गायें ख़ुश रहती थानों में,
हाथी ख़ुश रहता जंगल में ।
साही औ खरगोश, चौगड़े,
ख़ुश झाड़ी झुरमुट के दल में ।

गिल्ली ख़ुश रहती डालों में,
मकड़ी ख़ुश रहती जाले में।
मेढक क्या ही ख़ुश दिखलाते,
पड़े हुए नाली नाले में !

कोवे घर की मुंड़वाई पर,
रोटी देख देख ख़ुश होते ।
छत के नीचे छिपे कबूतर,
गुटगूँ बोल मज़े में सोते ।

छत्ते में ख़ुश नित मधुमक्खी,
बया झोंझ में मगन दिखाता।
खुंटकढ़वा बबूल में खटखट,
ख़ुश हो अपनी चोंच चलाता ।

माँदों में ख़ुश बड़ी लोमड़ी,
रेगिस्तान ऊँट को भाता !
शेर गरजता बियाबान में,
जहाँ घना जंगल दिखलाता ।

बगुले ख़ुश हैं तालाबों में,
गीध जहाँ मरघट दिखलाता।
गदहे .ख़ुश रहते खेतों में,
जहाँ हरा चारा मिल जाता !

लड़के ख़ुश रहते घर बाहर,
जहाँ कहीं हो खेल तमाशा ।
मुन्ने ख़ुश रहते गोदी पर,
मिलता जाये दूध बताशा ।

दादा ख़ुश रहते दफ़्तर में,
अम्मा ख़ुश रहती आँगन में।
नानी ख़ुशी कहानी कह कह,
टूटी खटिया के बाँधन में ।

समुद्रतट - सोहन लाल द्विवेदी

यदि समुद्रतट पर तुम जाओ
तो देखोगे अजब बहार,
जल ही जल दिखलाता इतना
मानो जलमय हो संसार !

बड़ी बड़ी लहरें उठती हैं
मचता रहता हाहाकार,
होता शोर ज़ोर से ज्यों ही
लहरें टकराती हर बार !

रङ्ग बिरंगे घोंघे सीपी
पत्थर पड़े किनारे पर,
लहरें जिन्हें फेंक जाती हैं
दूर दूर से ला-लाकर !

शीतल मन्द पवन बहती है
यहाँ बड़ी ही मनहारी।
जहाँ टहलने को आते हैं
सन्ध्या में सब नर-नारी !

यहाँ ज्वार भाटा आता है
तब श्राती है अजब बहार,
गरज गरज कर पानी आता
लहर लहर हो गया उतार !

अगर ज़रा आगे बढ़कर तुम
लहरों ही में खड़े रहो,
देखोगे लहरों के बल को
मुश्किल है तुम अड़े रहो !!

हैं जहाज़ इनमें लहराते
घूमा करते छहर छहर,
मानो यह घर हो उनका ही
जिसमें उनको कहीं न डर !!

देश विदेशों से आते हैं
तरह तरह के नारी नर,
रङ्ग बिरंगे कपड़े पहने
अजब अजब चीजें लेकर !

अमरीकन अगरेज़ यहूदी
चीनी भी जापानी भी,
तुम्हें यहाँ पर मिल जायेंगे
राजा भी औ रानी भी।

यदि समुद्र तुम लखना चाहो
कभी बम्बई को जाओ,
मैं तुमको क्या क्या बतलाऊँ
तुम खुद सभी देख आओ!

सपने में - सोहन लाल द्विवेदी

अम्मा आकर काजल देतो
औ अनखनियाँ सपने में।
भैया आकर मुझे उठा
लेता है कनियाँ सपने में ।

मुन्नू आता, चाचा आते,
दादा आते सपने में।
खुल जाता है चन्द मदरसा
गुरू पढ़ाते सपने में।

करती म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
आती बिल्ली सपने में।
पेड़ खड़ा दिखलाता उस पर
चढ़ती गिल्ली सपने में।

मिल जाते हैं साथी संगी
खेल खिलौना सपने में।
बिछ जाती है खटिया मेरी
और बिछौना सपने में ।

नानी कहती बैठ कहानी
हम सुनते हैं सपने में।
फुलवारी में घूम घूम
कलियाँ चुनते हैं सपने में।

सूर्य निकलता, धूप निकलती,
दिन छा जाता सपने में।
चिड़ियाँ यूँ चूँ शोर मचातीं
गाना गाती सपने में।

कोई ऐसा काम नहीं,
जो नहीं दिखाता सपने में।
नाई आता, धोबी आता,
माली आता सपने में।

कुंजड़िन आकर बेचा करती
आलू भंटा सपने में।
टन टन टन टन बज उठता
छुट्टी का घंटा सपने में।

डस लेती है कभी कभी
आ मुझे दतैया सपने में।
दुख के मारे चिल्लाता मैं
दैया ! दैया ! सपने में।

रोता हूँ, चिल्ला पड़ता हूँ
गिरकर लड़खड़ सपने में ।
आँख खुली, तब बात समझता,
था यह गड़बड़ सपने में।

तुम क्या करते, हम क्या करते ? - सोहन लाल द्विवेदी

लग जाते अंगूर नीम में
और कुए से दूध निकलता,
बिना तेल के डाले ही यदि
घर में दिया रात दिन जलता।

जोते बोये बिना खेत में गेहूँ,
धान, चना उग आते,
केला, सेब, नासपाती,
संतरा, आम हर ऋतु में आते ।

रुपया गिन्नी फैली होतीं
पृथ्वी पर जैसे हो गिट्टी,
छू लेते हम जिसे चाव से
सोना बन जाती वह मिट्टी !

इच्छा करते जहाँ ज़रा भी
तुरत वहीं पर जा सकते हम,
इच्छा करते जिसकी भी वह
चीज़ तुरत ही पा सकते हम!

बिना पढ़े ही विद्या आती
कभी न हम दुनिया में मरते,
तो क्या बतला सकते बच्चो!
हम क्या करते, तुम क्या करते ?

प्रयाण-गीत - सोहन लाल द्विवेदी

काम करेंगे हम हम हम !
नाम करेंगे हम हम हम !!

बढ़े चलेंगे,
चढ़े चलेंगे;
हिम्मत से
दिल मढ़े चलेंगे।

बोलेंगे हर हर बम बम !
काम करेंगे हम हम हम!

नहीं रुकेंगे,
नहीं झुकेंगे,
आये बला
चिनौती दंगे!

चले चलेंगे धम धम धम!
काम करेंगे हम हम हम !

अड़ जायेंगे,
लड़ जायेंगे,
भिड़े मौत आ
लड़ जायेंगे।

नहीं हरेंगे थम थम थम !
काम करेंगे हम हम हम!

वीर बनेंगे,
धीर बनेंगे,
हम बिजली के
तीर बनेंगे।

चमकेंगे जग में चम चम!
काम करेंगे हम हम हम!
नाम करेंगे हम हम हम!

प्रार्थना - सोहन लाल द्विवेदी

प्रभो,
न मुझे बनाओ हिमगिरि,
जिससे सिर पर इठलाऊँ।
प्रभो, न मुझे बनाओ गंगा,
जिससे उर पर लहराऊँ।

प्रभो,
न मुझे बनाओ उपवन,
जिससे तन की छबि होऊँ ।
प्रभो, बना दो मुझे सिंधु,
जिससे भारत के पद धोऊँ।

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