सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता Subhadra Kumari Chauhan ki Kavita

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सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता  
Subhadra Kumari Chauhan ki Kavita

प्रभु तुम मेरे मन की जानो - सुभद्रा कुमारी चौहान

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥
मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥
Subadra-Kumari-Chauhanh
यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

नोट: यह कवयित्री की अंतिम रचना है।

प्रियतम से - सुभद्रा कुमारी चौहान

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो॥

जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
लो प्रसन्न हो जाओ
गलती मैंने अपनी सब मानी॥

मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥

फूल के प्रति - सुभद्रा कुमारी चौहान

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान॥

मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास॥

सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल॥

बादल हैं किसके काका ? - सुभद्रा कुमारी चौहान

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।

सूरज ने क्‍यों बन्द कर लिया
अपने घर का दरवाज़ा
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
बुला लिया कहकर आजा।

ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।

बालिका का परिचय - सुभद्रा कुमारी चौहान

यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली 

दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली 
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली 

सुधाधार यह नीरस दिल की, मस्ती मगन तपस्वी की 
जीवित ज्योति नष्ट नयनों की, सच्ची लगन मनस्वी की

बीते हुए बालपन की यह, क्रीड़ापूर्ण वाटिका है 
वही मचलना, वही किलकना,हँसती हुई नाटिका है 

मेरा मंदिर,मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी 
पूजा पाठ,ध्यान,जप,तप,है घट-घट वासी यह मेरी

कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को अपने आंगन में देखो 
कौशल्या के मातृ-मोद को, अपने ही मन में देखो

प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव-दया जिनवर गौतम की,आओ देखो इसके पास 

परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूँ इसका 
वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका

बिदाई - सुभद्रा कुमारी चौहान

कृष्ण-मंदिर में प्यारे बंधु
पधारो निर्भयता के साथ।
तुम्हारे मस्तक पर हो सदा
कृष्ण का वह शुभचिंतक हाथ॥

तुम्हारी दृढ़ता से जग पड़े
देश का सोया हुआ समाज।
तुम्हारी भव्य मूर्ति से मिले
शक्ति वह विकट त्याग की आज॥

तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें
दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान
तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज॥

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
युद्ध में वे निर्भय मर मिटें॥

हजारों हृदय बिदा दे रहे,
उन्हें संदेशा दो बस एक।
कटें तीसों करोड़ ये शीश,
न तजना तुम स्वराज्य की टेक॥

भैया कृष्ण! - सुभद्रा कुमारी चौहान

भैया कृष्ण! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज।
कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज॥
लो आओ, भुनदण्ड उठाओ, इस राखी में बँधवाओ।
भरत-भूमि की रनभूमी को एकबार फिर दिखलाओ॥
वीर चरित्र राजपूतों का पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।
पढ़ते-पढ़ते आँखों में छा जाता राखी का आख्यान॥
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह राखीबंद शत्रु-भाई॥
किन्तु देखना है, यह मेरी राखी क्या दिखलाती है।
क्या निस्तेज कलाई ही पर बँधकर यह रह जाती है॥
देखो भैया, भेज रही हूँ तुमको-तुमको राखी आज।
साखी राजस्थान बनाकर रख लेना राखी की लाज॥
हाथ काँपता हृदय धड़कता है मेरी भारी आवाज़।
अब भी चौंक-चौंक उठता है जलियाँ का वह गोलन्दाज़॥
यम की सूरत उन पतितों के पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है फिर मन को समझाऊँ कैसे?
बहिनें कई सिसकती हैं हा! उनकी सिसक न मिट पाई।
लाज गँवाई, गाली पाई तिस पर गोली भी खाई॥
डर है कहीं न मार्शलला का फिर से पढ़ जाये घेरा॥
ऐसे समय द्रोपदी-जैसा कृष्ण! सहारा है तेरा॥
बोलो, सोच-समझकर बोलो, क्या राखी बँधवाओगे?
भीर पड़ेगी, क्या तुम रक्षा-करने दौड़े आओगे?
यदि हाँ, तो यह लो इस मेरी राखी को स्वीकार करो।
आकर भैया, बहिन ‘‘सुभद्रा’’ के कष्टों का भार हरो॥

भ्रम - सुभद्रा कुमारी चौहान

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।
देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था॥
देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।
हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं॥

देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।
वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था॥
झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।
सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था॥

किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।
मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी॥

मधुमय प्याली - सुभद्रा कुमारी चौहान

रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।

हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।

युग-युग-सी बीत रही थीं
मेरे जीवन की घड़ियाँ।
सुलझाये नहीं सुलझती
उलझे भावों की लड़ियाँ।

जाने इस समय कहाँ से
ये चुपके-चुपके आए।
सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।

मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।

विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।

आओ हम उसी तरह से
सब भेद भूल कर अपना।
मिल जाएँ मधु बरसायें
जीवन दो दिन का सपना।।
फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।

मुरझाया फूल - सुभद्रा कुमारी चौहान

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी
पंखड़ियाँ बिखराना मत॥

गुजरो अगर पास से इसके
इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
देखो, इसे रुलाना मत॥

अगर हो सके तो ठंडी
बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!

मातृ-मन्दिर में - सुभद्रा कुमारी चौहान

वीणा बज-सी उठी, खुल गए नेत्र
और कुछ आया ध्यान।
मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा
उत्सव का प्यारा सामान ।।

जिनको तुतला-तुतला करके
शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको
प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

उस हिन्दू जन की गरीबिनी
हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की
उस प्यारी कालिन्दी का ।।

है उसका ही समारोह यह
उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य-भरी आँखों से
देख रही हूँ यह सारा ।।
जिस प्रकार कंगाल-बालिका
अपनी माँ धनहीना को।
टुकड़ों की मोहताज़ आजतक
दुखिनी को उस दीना को ।।

सुन्दर वस्त्राभूषण-सज्जित,
देख चकित हो जाती है।
सच है या केवल सपना है,
कहती है, रुक जाती है ।।

पर सुन्दर लगती है, इच्छा
यह होती है कर ले प्यार ।
प्यारे चरणों पर बलि जाए
कर ले मन भर के मनुहार ।।

इच्छा प्रबल हुई, माता के
पास दौड़ कर जाती है ।
वस्त्रों को सँवारती उसको
आभूषण पहनाती है ।

उसी भाँति आश्चर्य मोदमय,
आज मुझे झिझकाता है ।
मन में उमड़ा हुआ भाव बस,
मुँह तक आ रुक जाता है ।।

प्रेमोन्मत्ता होकर तेरे पास
दौड़ आती हूँ मैं ।
तुझे सजाने या सँवारने
में ही सुख पाती हूँ मैं ।।

तेरी इस महानता में,
क्या होगा मूल्य सजाने का ?
तेरी भव्य मूर्ति को नकली
आभूषण पहनाने का ?

किन्तु हुआ क्या माता ! मैं भी
तो हूँ तेरी ही सन्तान ।
इसमें ही सन्तोष मुझे है
इसमें ही आनन्द महान ।।

मुझ-सी एक-एक की बन तू
तीस कोटि की आज हुई ।
हुई महान, सभी भाषाओं 
की तू ही सरताज हुई ।।
मेरे लिए बड़े गौरव की
और गर्व की है यह बात ।
तेरे ही द्वारा होवेगा,
भारत में स्वातन्त्रय-प्रभात ।।

असहयोग पर मर-मिट जाना
यह जीवन तेरा होगा ।
हम होंगे स्वाधीन, विश्व का
वैभव धन तेरा होगा ।।

जगती के वीरों-द्वारा
शुभ पदवन्दन तेरा होगा !
देवी के पुष्पों द्वारा
अब अभिनन्दन तेरा होगा ।।

तू होगी आधार, देश की
पार्लमेण्ट बन जाने में ।
तू होगी सुख-सार, देश के
उजड़े क्षेत्र बसाने में ।।

तू होगी व्यवहार, देश के
बिछड़े हृदय मिलाने में ।
तू होगी अधिकार, देशभर 
को स्वातन्त्रय दिलाने में ।।

मेरा गीत - सुभद्रा कुमारी चौहान

जब अंतस्तल रोता है,
कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊँ?
इन टूटे से तारों पर,
मैं कौन तराना गाऊँ??

सुन लो संगीत सलोने,
मेरे हिय की धड़कन में।
कितना मधु-मिश्रित रस है,
देखो मेरी तड़पन में॥

यदि एक बार सुन लोगे,
तुम मेरा करुण तराना।
हे रसिक! सुनोगे कैसे?
फिर और किसी का गाना॥

कितना उन्माद भरा है,
कितना सुख इस रोने में?
उनकी तस्वीर छिपी है,
अंतस्तल के कोने में॥

मैं आँसू की जयमाला,
प्रतिपल उनको पहनाती।
जपती हूँ नाम निरंतर,
रोती हूँ अथवा गाती॥

मेरा जीवन - सुभद्रा कुमारी चौहान

मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।

मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।

जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।

उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।

सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।

मेरी टेक - सुभद्रा कुमारी चौहान

निर्धन हों धनवान, परिश्रम उनका धन हो।
निर्बल हों बलवान, सत्यमय उनका मन हो॥
हों स्वाधीन गुलाम, हृदय में अपनापन हो।
इसी आन पर कर्मवीर तेरा जीवन हो॥

तो, स्वागत सौ बार
करूँ आदर से तेरा।
आ, कर दे उद्धार,
मिटे अंधेर-अंधेरा॥

मेरी कविता - सुभद्रा कुमारी चौहान

मुझे कहा कविता लिखने को, लिखने मैं बैठी तत्काल।
पहिले लिखा- ‘‘जालियाँवाला’’, कहा कि ‘‘बस, हो गये निहाल॥’’
तुम्हें और कुछ नहीं सूझता, ले-देकर वह खूनी बाग़।
रोने से अब क्या होता है, धुल न सकेगा उसका दाग़॥
भूल उसे, चल हँसो, मस्त हो- मैंने कहा- ‘‘धरो कुछ धीर।’’
तुमको हँसते देख कहीं, फिर फ़ायर करे न डायर वीर॥’’
कहा- ‘‘न मैं कुछ लिखने दूँगा, मुझे चाहिये प्रेम-कथा।’’
मैंने कहा- ‘‘नवेली है वह रम्य वदन है चन्द्र यथा॥’’
अहा! मग्न हो उछल पड़े वे। मैंने कहा-

बड़ी-बड़ी-सी भोली आँखंे केश-पाश ज्यों काले साँप॥
भोली-भाली आँखें देखो, उसे नहीं तुम रुलवाना।
उसके मुँह से प्रेमभरी कुछ मीठी बतियाँ कहलाना॥
हाँ, वह रोती नहीं कभी भी, और नहीं कुछ कहती है।
शून्य दृष्टि से देखा करती, खिन्नमन्ना-सी रहती है॥
करके याद पुराने सुख को, कभी क्रोध में भरती है॥
भय से कभी काँप जाती है, कभी क्रोध में भरती है॥
कभी किसी की ओर देखती नहीं दिखाई देती है।
हँसती नहीं किन्तु चुपके से, कभी-कभी रो लेती है॥
ताज़े हलदी के रँग से, कुछ पीली उसकी सारी है।
लाल-लाल से धब्बे हैं कुछ, अथवा लाल किनारी है॥
उसका छोर लाल, सम्भव है, हो वह ख़ूनी रँग से लाल।
है सिंदूर-बिन्दु से सजति, जब भी कुछ-कुछ उसका भाल॥
अबला है, उसके पैरों में बनी महावर की लाली।
हाथों में मेंहदी की लाली, वह दुखिया भोली-भाली॥
उसी बाग़ की ओर शाम को, जाती हुई दिखाती है।
प्रातःकाल सूर्योदय से, पहले ही फिर आती है॥
लोग उसे पागल कहते हैं, देखो तुम न भूल जाना।
तुम भी उसे न पागल कहना, मुझे क्लेश मत पहुँचाना॥
उसे लौटती समय देखना, रम्य वदन पीला-पीला।
साड़ी का वह लाल छोर भी, रहता है बिल्कुल गीला॥
डायन भी कहते हैं उसका कोई कोई हत्यारे।
उसे देखना, किन्तु न ऐसी ग़लती तुम करना प्यारे॥
बाँई ओर हृदय में उसके कुछ-कुछ धड़कन दिखलाती।
वह भी प्रतिदिन क्रम-क्रम से कुछ धीमी होती जाती॥
किसी रोज़, सम्भव है, उसकी धड़कन बिल्कुल मिट जावे॥
उसकी भोली-भाली आँखें हाय! सदा को मुँद जावे॥
उसकी ऐसी दशा देखना आँसू चार बहा देना।
उसके दुख में दुखिया बनकर तुम भी दुःख मना लेना॥

मेरे पथिक - सुभद्रा कुमारी चौहान

हठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥

यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥

जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥

चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥

विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥

मेरे भोले सरल हृदय ने - सुभद्रा कुमारी चौहान

मेरे भोले सरल हृदय ने कभी न इस पर किया विचार-
विधि ने लिखी भाल पर मेरे सुख की घड़ियाँ दो ही चार!
छलती रही सदा ही आशा मृगतृष्णा-सी मतवाली,
मिली सुधा या सुरा न कुछ भी, दही सदा रीती प्याली।
मेरी कलित कामनाओं की, ललित लालसाओं की धूल,
इन प्यासी आँखों के आगे उड़कर उपजाती है शूल।
उन चरणों की भक्ति-भावना मेरे लिये हुई अपराध,
कभी न पूरी हुई अभागे जीवन की भोली-सी साध।
आशाओं-अभिलाषाओं का एक-एक कर हृास हुआ,
मेरे प्रबल पवित्र प्रेम का इस प्रकार उपहास हुआ!
दुःख नहीं सरबस हरने का, हरते हैं, हर लेने दो,
निठुर निराशा के झोंकों को मनमानी कर लेने दो।
हे विधि, इतनी दया दिखाना मेरी इच्छा के अनुकूल-
उनके ही चरणों पर बिखरा देना मेरा जीवन-फूल।
प्रियतम मिले भी तो हृदय में अनुराग की आग
लगाकर छिप गये, रूखा व्यवहार करने लगे
मेरी जीर्ण-शीर्ण कुटिया में चुपके चुपके आकर।
निर्मोही! छिप गये कहाँ तुम? नाइक आग लगाकर॥
ज्यों-ज्यों इसे बुझाती हूँ- बढ़ती जाती है आग।
निठुर! बुझा दे, मत बढ़ने दे, लगने दे मत दाग़॥
बहुत दिनों तक हुई प्ररीक्षा अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझ पर प्यार न हो॥
जिसकी होकर रही सदा मैं जिसकी अब भी कहलाती।
क्यों न देख इन व्यवहारों को टूक-टूक फिर हो छाती?

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग के लाते हैं॥
धूम-धाम से साज-बाज से वे मन्दिर में आते हैं।
मुक्ता-मणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥
मैं ही हूँ ग़रीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई।
फिर भी साहसकर मन्दिर में पूजा करने आई॥
धूप-दीप नैवेद्य नहीं है, झाँकी का शृंगार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥
मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी? है स्वर में माधुर्य नहीं।
मन का भाव प्रगट करने को, बाणी में चातुर्य नहीं॥
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आई।
पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आई॥
पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥
मैं उन्मत, प्रेम की लोभी हृदय दिखाने आई हूँ।
जो कुछ है, बस यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ॥
चरणों पर अर्पित है इसको चाहो तो स्वीकार करो।
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो॥

यह मुरझाया हुआ फूल है - सुभद्रा कुमारी चौहान

यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरनेवाली इसकी, पँखड़ियाँ बिखराना मत॥
गुज़रो अगर पास से इसके इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत॥
अगर हो सके तो ठंढी-बूँदे टपका देना प्यारे।
जल न जाय संतप्त हृदय, शीतलता ला देना प्यारे॥

डाल पर वे मुरझाये फूल! हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं हैं सुमनकुंज में अभी इसीसे है तेरा सम्मान॥
मधुप जो करते अनुनय विनय ने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख नहीं आवेंगे तेरे पास॥
सहेगा वह केसे अपमान? उठेगी वृथा हृदय मंे शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व, डाल पर के मुरझाये फूल!!

राखी - सुभद्रा कुमारी चौहान

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ।
भरत - भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ।।

वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।
पढ़ते - पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान।।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी - बन्द - शत्रु - भाई।।

किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है।।

देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाज।।

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज़।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज़।।

यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अँकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे?

बहिनें कई सिसकती हैं हा !
सिसक न उनकी मिट पाई ।
लाज गँवाई, ग़ाली पाई
तिस पर गोली भी खाई।।

डर है कहीं न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा।।

बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे?
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा
करने दौड़े आओगे?

यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो।
आकर भैया, बहिन 'सुभद्रा' 
के कष्टों का भार हरो।।

राखी की चुनौती - सुभद्रा कुमारी चौहान

बहिन आज फूली समाती न मन में।
तड़ित आज फूली समाती न घन में।।
घटा है न झूली समाती गगन में।
लता आज फूली समाती न बन में।।

कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर,
कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं।।

मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है।।
है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है।
नहीं है ख़ुशी पर रुलाई नहीं है।।

मेरा बन्धु माँ की पुकारो को सुनकर-
के तैयार हो जेलखाने गया है।
छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको
वह जालिम के घर में से लाने गया है।।

मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी।
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावें, वह तपता है धूनी।
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी।।

है आती मुझे याद चित्तौर गढ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला।
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती,
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला?।।

है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है।।
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है।।

आते हो भाई ? पुनः पूछती हूँ 
कि माता के बन्धन की है लाज तुमको?
- तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको।।

विजयी मयूर - सुभद्रा कुमारी चौहान

तू गरजा, गरज भयंकर थी,
कुछ नहीं सुनाई देता था।
घनघोर घटाएं काली थीं,
पथ नहीं दिखाई देता था॥

तूने पुकार की जोरों की,
वह चमका, गुस्से में आया।
तेरी आहों के बदले में,
उसने पत्थर-दल बरसाया॥

तेरा पुकारना नहीं रुका,
तू डरा न उसकी मारों से।
आखिर को पत्थर पिघल गए,
आहों से और पुकारों से॥

तू धन्य हुआ, हम सुखी हुए,
सुंदर नीला आकाश मिला।
चंद्रमा चाँदनी सहित मिला,
सूरज भी मिला, प्रकाश मिला॥

विजयी मयूर जब कूक उठे,
घन स्वयं आत्मदानी होंगे।
उपहार बनेंगे वे प्रहार,
पत्थर पानी-पानी होंगे॥

विदा - सुभद्रा कुमारी चौहान

अपने काले अवगुंठन को
रजनी आज हटाना मत।
जला चुकी हो नभ में जो
ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥

सजनि! विश्व में आज
तना रहने देना यह तिमिर वितान।
ऊषा के उज्ज्वल अंचल में
आज न छिपना अरी सुजान॥

सखि! प्रभात की लाली में
छिन जाएगी मेरी लाली।
इसीलिए कस कर लपेट लो,
तुम अपनी चादर काली॥

किसी तरह भी रोको, रोको,
सखि! मुझ निधनी के धन को।
आह! रो रहा रोम-रोम
फिर कैसे समझाऊँ मन को॥

आओ आज विकलते!
जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी।
मेरे आकुल प्राण जला दो,
आओ तुम बारी-बारी॥
ज्योति नष्ट कर दो नैनों की,
लख न सकूँ उनका जाना।
फिर मेरे निष्ठुर से कहना,
कर लें वे भी मनमाना॥

वेदना - सुभद्रा कुमारी चौहान

दिन में प्रचंड रवि-किरणें
मुझको शीतल कर जातीं।
पर मधुर ज्योत्स्ना तेरी,
हे शशि! है मुझे जलाती॥

संध्या की सुमधुर बेला,
सब विहग नीड़ में आते।
मेरी आँखों के जीवन,
बरबस मुझसे छिन जाते॥

नीरव निशि की गोदी में,
बेसुध जगती जब होती।
तारों से तुलना करते,
मेरी आँखों के मोती॥

झंझा के उत्पातों सा,
बढ़ता उन्माद हृदय का।
सखि! कोई पता बता दे,
मेरे भावुक सहृदय का॥

जब तिमिरावरण हटाकर,
ऊषा की लाली आती।
मैं तुहिन बिंदु सी उनके,
स्वागत-पथ पर बिछ जाती॥

खिलते प्रसून दल, पक्षी
कलरव निनाद कर गाते।
उनके आगम का मुझको
मीठा संदेश सुनाते॥

व्याकुल चाह - सुभद्रा कुमारी चौहान

सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
प्यास बुझाने आए हो??

रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥

झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
पल-पल विजन डुलाती उस पर
अकुलाए प्राणों की आह॥

रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥

सभा का खेल - सुभद्रा कुमारी चौहान

सभा सभा का खेल आज हम
खेलेंगे जीजी आओ,
मैं गाधी जी, छोटे नेहरू
तुम सरोजिनी बन जाओ।

मेरा तो सब काम लंगोटी
गमछे से चल जाएगा,
छोटे भी खद्दर का कुर्ता
पेटी से ले आएगा।

लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए
एक बहुत बढ़िया सारी,
वह तुम माँ से ही ले लेना
आज सभा होगी भारी।

मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे
हम भाषण करने वाले,
वे लाठियाँ चलाने वाले
हम घायल मरने वाले।

छोटे बोला देखो भैया
मैं तो मार न खाऊँगा,
मुझको मारा अगर किसी ने
मैं भी मार लगाऊँगा!

कहा बड़े ने-छोटे जब तुम
नेहरू जी बन जाओगे,
गांधी जी की बात मानकर
क्या तुम मार न खाओगे?

खेल खेल में छोटे भैया
होगी झूठमूठ की मार,
चोट न आएगी नेहरू जी
अब तुम हो जाओ तैयार।

हुई सभा प्रारम्भ, कहा
गांधी ने चरखा चलवाओ,
नेहरू जी भी बोले भाई
खद्दर पहनो पहनाओ।

उठकर फिर देवी सरोजिनी
धीरे से बोलीं, बहनो!
हिन्दू मुस्लिम मेल बढ़ाओ
सभी शुद्ध खद्दर पहनो।

छोड़ो सभी विदेशी चीजें
लो देशी सूई तागा,
इतने में लौटे काका जी
नेहरू सीट छोड़ भागा।

काका आए, काका आए
चलो सिनेमा जाएँगे,
घोरी दीक्षित को देखेंगे
केक-मिठाई खाएँगे!
जीजी, चलो, सभा फिर होगी
अभी सिनेमा है जाना,
आओ, खेल बहुत अच्छा है
फिर सरोजिनी बन जाना।

चलो चलें, अब जरा देर को
घोरी दीक्षित बन जाएँ,
उछलें-कूदें शोर मचावें
मोटर गाड़ी दौड़ावें!

समर्पण - सुभद्रा कुमारी चौहान

सूखी सी अधखिली कली है
परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग नहीं॥
तेरी अतुल कृपा का बदला
नहीं चुकाने आई हूँ।
केवल पूजा में ये कलियाँ
भक्ति-भाव से लाई हूँ॥

प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
मधुर वासनाएं प्यारी।
मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा
सजा रहीं थीं फुलवारी॥

किंतु गर्व का झोंका आया
यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥

बची हुई स्मृति की ये कलियाँ
मैं समेट कर लाई हूँ।
तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
तुझे मनाने आई हूँ॥

प्रेम-भाव से हो अथवा हो
दया-भाव से ही स्वीकार।
ठुकराना मत, इसे जानकर
मेरा छोटा सा उपहार॥

साध - सुभद्रा कुमारी चौहान

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।

वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।

कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।

सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।

सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।

रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।

तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।

साक़ी - सुभद्रा कुमारी चौहान

अरे! ढाल दे, पी लेने दे! दिल भरकर प्यारे साक़ी।
साध न रह जाये कुछ इस छोटे से जीवन की बाक़ी॥
ऐसी गहरी पिला कि जिससे रंग नया ही छा जावे।
अपना और पराया भूलँ; तू ही एक नजऱ आवे॥
ढाल-ढालकर पिला कि जिससे मतवाला होवे संसार।
साको! इसी नशे में कर लेंगे भारत-माँ का उद्धार॥

स्मृतियाँ - सुभद्रा कुमारी चौहान

क्या कहते हो? किसी तरह भी
भूलूँ और भुलाने दूँ?
गत जीवन को तरल मेघ-सा
स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?

शान्ति और सुख से ये
जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?
कोई निश्चित मार्ग बनाकर
चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?
कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन
समझ नहीं पाती हूँ मैं
वही समझने एक बार फिर
क्षमा करो आती हूँ मैं।

जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर
पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है
ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।

भूलो तो सर्वस्व ! भला वे
दर्शन की प्यासी घड़ियाँ
भूलो मधुर मिलन को, भूलो
बातों की उलझी लड़ियाँ।

भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को
आशाओं विश्वासों को
भूलो अगर भूल सकते हो
आंसू और उसासों को।
मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन
सुख या शांति नहीं होगी
यही बात तुम भी कहते थे
सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।

सुख को मधुर बनाने वाले
दुःख को भूल नहीं सकते
सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय
मुझको भूल नहीं सकते।

मुझको कैसे भूल सकोगे
जीवन-पथ-दर्शक मैं थी
प्राणों की थी प्राण ह्रदय की
सोचो तो, हर्षक मैं थी।

मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति
थी प्यारी अभिलाषाओं की
मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आशाओं की।

आओ चलो, कहाँ जाओगे
मुझे अकेली छोड़, सखे!
बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में
नहीं सकोगे तोड़, सखे!

स्वदेश के प्रति - सुभद्रा कुमारी चौहान

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा॥

आ, उस बालक के समान
जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
विपदाएं ही हैं प्यारी॥

आ, उस सेवक के समान तू
विनय-शील अनुगामी सा।
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥

आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
अत्याचारी की कृतियों को
निर्भयता से दरसाईं॥

हे काले-काले बादल - सुभद्रा कुमारी चौहान

हे काले-काले बादल, ठहरो, तुम बरस न जाना।
मेरी दुखिया आँखों से, देखो मत होड़ लगाना॥
तुम अभी-अभी आये हो, यह पल-पल बरस रही हैं।
तुम चपला के सँग खुश हो, यह व्याकुल तरस रही हैं॥
तुम गरज-गरज कर अपनी, मादकता क्यों भरते हो?
इस विधुर हृदय को मेरे, नाहक पीड़ित करते हो॥
मैं उन्हें खोजती फिरती, पागल-सी व्याकुल होती।
गिर जाते इन आँखों से, जाने कितने ही मोती॥

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Subhadra Kumari Chauhan) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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