Hamkhurma Va Hamsawab Munshi Premchand (Novel) हमखुर्मा व हमसवाब मुंशी प्रेम चंद (उपन्यास)

Hindi Kavita

हिंदी उपन्यास
Hindi Novel

Hamkhurma Va Hamsawab Munshi Premchand (Novel) 
हमखुर्मा व हमसवाब मुंशी प्रेम चंद (उपन्यास)

सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

बेचारी पूर्णा पंडाइन व चौबाइन बगैरहूम के चले जाने के बाद रोने लगी। वो सोचती थी कि हाय, अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत से नफरत है। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना भाग में बदा है। या नारायण, तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मेरी शामत आयी थी कि खामखाह सर में तले डलवा लिया। यही बाल कमबख्त न होते तो काहे को आज इतना फजीता होता। इन्हीं बातो का ख्याल करते करते जब यह जुमला याद आ गया कि ‘बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं’ तो उसने सर पर हाथ मारकर कहा—
वो आते है तो मै कैसे मना करूँ। मैं तो उनका दिया खाती हूँ। सिवाय उनके अब मेरी खबर लेनेवाला और कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने मे हर्ज ही क्या है।बेचारे सीधे-सादे शरीफ आदमी है। कुछ शोहदे नहीं, आवारा नहीं, फिर उनके आने में क्या हर्ज है। नहीं-नहीं, मुझसे मना न किया जायेगा। अब तो मुझ पर मुसीबत आ हीपड़ी है। अब जिसके जी में जोआवे कहे। नहीं मालूम कल मुझे क्या हो गया। क्या भंग खा गयी थी कि प्रेमा के यहाँ जाकर आज इतनी फजीता करवायी। अब भूलकर भी उधर का रूख न करूँगी। मगर हाय, प्यारी प्रेमा के देखे बगैर क्योंकर रहा जायगा। मै नजाउंगी तो वो अपने दिल में क्या समझेगी। समझेगी क्या, उनकी माँ ने उनको पहले से ही मना कर दिया होगा।
इन ख्यालों से फुरसत पाकर उसने हस्बे मामूल गंगाजी का कस्द किया। तब से पंडितजी का इंतकाल हुआ था कि वो रोज बिला नागा गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अँधेरे जाती औरसूरज निकलते निकलते लौट आती। आज इनबिन बुलाये मेहमानो की वजह सेदेर हो गयी। थोड़ी दूर चली थी कि रास्ते में सेठानी जी की बहू से मुलाकात हो गयी। उसका नाम रामकली था। बेचारी दो बरस से रँडापा भोग रही थी। उसका सिन भी मुश्किल से सोलह सत्रह बरस होगा।चेहरा मोहरा भी बुरा न थ। खदो-खाल निहायत दिलफरेब। अगर पूर्णा आम की तरह तुर्द थी तो उसका चेहरा जोशे जवानी से गुलाबी हो रहा था। बाल मेंतेल न था। न आँखो में काजल। न माँग मेंसेंदुर। न दॉँतो पर मिस्सी। ताहम उसकी आँखो में वो शोखी थी, चाल में वो लचक और होंठो परवो तबस्सुम जिनसे इन बनावटी आराइशों की जरुरत बाकी न रही थी। वो मटकती, इधर-उधर ताकती, मुस्कराती चलो जा रहीथी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े अंदाज से हँसकर बोली—आओ बहन, आओ। तुम ऐसा चलती हो जानूँ बताशे पर पैर धर रही हो।
पूर्णा को ये जुमला नागवार मालूम हुआ। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिय—क्या करूँ बहन, मुझसे तो औरतेज नहीं चला जाता।
रामकली—सुनती हूँ, कल हमारी डायन कई चुडैलों के साथ तुमको जलाने गयी थी। मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। क्या कहूँ बहन। ये सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है जहर खा लूँ। और अगर यही हाल रहा तो एक न एक दिनयही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगड़ा था कि एक दिन भी जिंदगी का सुख न भोगने पायी। भला तुम तो अपने पति के साथ दो बरस रही भी। मैने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतो को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गयी, घर भर की लौड़ी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वो मै करूँ, उस पर रोज उठते जूती बैठते लात। काजल मत लगाओ, मिस्सी मत लगाओ, बाल मत गूँथाओ, रंगीन साड़ियाँ मत पहनो, पान मत खाओ। एक रोज एक गुलाबी साड़ी पहन ली थी तो वह चुडैल मारने उठी थी। जी मे तो आया कि सर के बाल नोच लूँ। मगर जहर का घूँट पी के रह गयी और वो तो वो उसकी बेटियाँ और दूसरी बहुऍ मेरी सूरत से नफरत रखती है। सुबह को कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस ही में एकशादी हुई थी। सब की सब गहने में लद कर गाती बजाती गई। एक मै ही अभागिन घर में पड़ी रोती रही। भला बहन, अब कहाँ तक कोई जब्त करे। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों की खुशी चहलपहल देख खामखाह दिल मे हौंसले होते है। जब भूख लगती है और खाना नहीं मिलता तो चोरी करनी पड़ती है।
ये कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपनेहाथ में ले लिया और मुस्कराकर आहिस्ता-आहिस्ता एक गीत गुनगुनाने लगी। पूर्णा को ये बेत कल्लुफियां सख्त नागवार मालूम होती थीं मगर मजबूर थी।,
munshiprem-chand-novel
रास्ते में हजारों ही आदमी मिले। सबकी नजरें इन दोनों औरतों की तरफ फिरती थी। फ़िके चुस्त किये जाते थे। मगर पूर्णा सर को ऊपर उठाती हीन थी। हाँ रामकली अलबत्ता मुस्करा-मुस्कराकर माशूकाना अंदाज से इधर उधर देखती थी। एक आध बरजस्ता जवाब भी देदेती। पूर्णा जब सड़क पर मर्दो को खड़े देखती तो बचाके कतराकर निकल जाती मगर रामकली को उनके बीच में घुसकर निकलने की जिंद थी। नहीं मालूम क्यूँ उसकी चादर सर से बार-बार ढलक जाती जिसको वो एक अंदाज से ओढ़ती थी। इसी तरह दरिया किनारे पहुँची। यहाँ हजारों मर्दऔर औरतें और बच्चे नहा रहे थे।
रामकली को देखते ही एक पंडित ने कहा—इधर सेठानी जी, इधर।
पंडा—(घूरकर)यह कौन है?
रामकली—(आँखे नचाकर)कोई होंगी। क्या तुम काजी हो क्या?
पंडा—जरा नाम सुन के कान खुस कर लें।
रामकली—ये मेरी सखी है। इनका नाम पूर्णा है।
पंडा—(हँसकर) अहा हा, क्या अच्छा नाम है। है भी तो पूरन चंद्रमा की तरह। अच्छा जोड़ा है।
पूर्णा बेचारी झेंपी। ये मजाक उसको निहायत नागवार मालूम हुआ। मगर रामकली ने अपने सर की लट एक हाथ से पकड़ औरदूसरे हाथ से छिटकाकर कहा—खबरदार, उनसे दिल्लगी मत करना।ये बाबू अमृतराय से पुजवाती है।
पंडा—ओ हो हो, खूब घर ताका है। है भी तो चंद्रमा की तरह। बाबू अमृतराय भी बड़े रसिया है, कभूँ-कभूँ यहाँ चले आते है। वो देखो जो नया घाट बन रहाहै वो बाबू साहब बनवा रहे है। फिर ऐसी मनोहर सूरतों का दशन हमको कैसे मिलेगा।
पूर्णा दिल में सख्त पशेमान थी कि काहे को इसके साथ आयी, अब तक तो नहा-धो के घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बहन, नहाना हो तो नहाओ। मुझको देर होती है। अगर तुम अभी देर में जाओ तो मै अकेली जाए।
पंडा—नहीं-नहीं रानी, हम गरीबों पर इतनी खपा(खफा) मत होओ। जाओ सेठानी जी इनको नहला लाओ। सुनता हूँ आज कचहरी बंद है। बाबू साहब घर होंगे।
पूर्णा ने चादर उतारकर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक सब पंडे उठ-उठकर खड़े होने लगे। और एक लमहे मे बाबू अमृतराय एक सादा कुरता पहने, सादी टोपी सर पररखे, चश्मा लगाये, हाथ में पैमाइश का फीता लिये, चंद ठेकेदारों के साथ इधर आते दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंबी घूँघट निकाल ली। उसने चाहा कि नीचे के जीने पर उतर जाऊँ। मगर शर्मो-हया ने उसके पैरों को वहीं बॉँध दिया। बाबू साहब को इन जीनों की चौड़ाई-लंबाई नापना थी, चुनांचे वह पूर्णा से दो कदम के फासले पर खड़े होकर नपवाने लगे और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते आगेको कदम जो बढ़ाया तो पैर जीने के नीचे जा पड़ा और करीब थाकि वो औंधे मुँह गिरें और उसी वक्त इस कीमती जिंदगी काखातमा हो जाय कि पूर्णा ने झपटकर उनको सम्हाल लिया। बाबूसाहब ने चौंककर देखा तो दाहिना हाथ एक नाज़नीन के हाथ में है। जब तक पूर्णा अपना घूघँट बढ़ाये वो उसको पहचान गये औरबोले—अख्वाह, ‘तुम होपूर्णा। तुमने मेरी जान बचा ली।
पूर्णा ने उसका कुछ जवाब न दिया, बल्कि सर नीचा किये हुए जीने से उतर गयी। जब तक बाबू साहब पैमाइश करवाते रहे वो गंगा की तरफ रूख किये खड़ी रही। जब वो चलो गये तो रामकली मुस्कराती हुई आयी और बोली—बहन, आज तो तुमने बाबू साहब को गिरते-गिरते बचा लिया। आज से तो वो और भी तुम्हारे पैरो पर सर रखेंगे।
पूर्णा—(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली, ऐसी बातें न करों। मुझे ऐसी फ़िजूल दिल्लगी भली नहीं मालूम होती। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैनें उनको बचा लिया तो इसमें क्या अनोखी बात हो गयी।
रामकली—ऐ लो, तुम तो जामे से बाहर हो गयी। बस इसी जरा-सी बात पर।
पूर्णा—नहीं, मैं गुस्से मेंनहीं हूँ। मगर ऐसी बातें मुझको अच्छी नहीं लगती। ले, नहाकर चलोगी भी या आज सारा दिन यहीं बिताओगी?
रामकली—जब तक इधर-उधर जी बहले अच्छा है। घर पर सिवाय जलते अंगारो के और क्या रक्खा है।
कुछ देर में दोनों सखियाँ यहाँ से रवाना हुई तो रामकली नेकहा—क्यूँ बहन, पूजा करने चलोगी?
पूर्णा—नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी और न मै कभी मंदिरों में पूजा करने गयी हूँ।
रामकली—आज तुमको चलना पड़ेगा, जरा देखो तो कैसी बहार की जगह है अगर दो-चार दिन जाओ तो फिर बिला गये तबीयत न माने। यही दो-तीन घंटे जो स्नान-पूजा में काटता है, मेरी खुशी का वक्त है। बाकी दिन-रात सिवाय गाली सुनने के और कोई काम नहीं।
पूर्णा—तुम जाओ। मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।
रामकली—चलो-चलो, नखरे न बघारो। दम की दम में तो लौटे आते है।
रास्ते में एक तमोली की दुकान पड़ी। काठ के जीनेनु मा तख्तों पर सफेद कपड़े पानी से भिगाकर बिछाये हुए थे। उस पर बँगला देसी व मघई पान बडी सफाई से चुने हुए थे। सामने दो बड़े-बड़े चौखटेदार आइने लगे हुए थे और एक छोटी सी चौकी पर खुशबूयात की शीशियाँ और मसालो की डिबियाँ खूबी से सजाकर धरी हुई थीं। तमोली एक सजीला जवान था। सर पर दुपल्ली टोपी चुनकर कज रखती थी, बदन में आबेरवाँ का चुन्नत पड़ा हुआ कुर्ता था। गले मेंसोने की ताबीजें, आंखो में सुर्मा, पेशानी पर सुर्ख टीका, होंठ पर पान की लाली नमूदार। इन दोनो औरतों को देखते ही बोला—सेठानी जी, सेठानी जी, आओ, पान खाती जाओ।
रामकली ने चट सर से चादर खिसका दी और फिर उसको एक अंदाज से ओढकर और दिलरूबायाना अंदाज से हंसकर कहा—अभी ठाकुरजी का परशाद नहीं पाया है।
तमोली—आओ, यह भी तो परशाद से कम नहीं। संतों के हाथ की चीज परशाद से बढ़कर होती है। आजकल तो कई दिन से तुम्हारे दर्शन ही नहीं हुए, ये तुम्हारे साथ कौन सखी है।
रामकली—(मटककर) ये हमारी सखी है, बेढब ताक रहे हो। क्या कुछ जी ललचा रहा है।
तमोली—वो तो हमारी तरफ ताकती ही नहीं। हाँ भाई, बड़े घर की है। हम जैसे तो तलुओं से सर रगड़ते होंगे।
यह कहकर तमोली ने बीड़े लगाये और एक पत्ते मे लपेटकर रामकली की तरफ तकल्लुफ से हाथ बढ़ाया। जब उसने लेने के लिए अपना हाथ फैलाया तो तमोली ने अपना हाथ खेंच लिया और हँसकर बोला—तुम्हारी सखी लें तो दें।
रामकली—लो सखी, पान खाओ।
पूर्णा—मैं न खाऊँगी।
रामकली—तुम्हारी कौन-सी सास बैठी है जो कोसेगी, मेरी तो सास मना करती है, उस पर भी हर रोज पान खाती हूँ।
पूर्णा—तुम्हारी आदत होगी। मैं पान नहीं खाती।
रामकली—आज मेरी खातिर से खाओ। तुम्हें हमारे सर की कसम लो।
लाचार पूर्णा ने गिलौरियाँ लीं और र्श्माते हुए खायी। अब जरा धूप तकलीफदेह मालूम होने लगी थी। उसने रामकली से कहा—किधर है तुम्हारा मंदिर। वहाँ तक चलते-चलते तो शायद शाम हो जावेगी।
रामकली—जितनी देर यहाँ हो, होने दो। घर पर क्या धरा है।
पूर्णा खामोश हो गयी। उसको बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ख्याल आ गया। हाय, जो कहीं वे आज गिर पड़ते तो दुश्मनों की जान परबन जाती। बड़ी खैरियत हो गयी। मैं बड़े मौके से आ गयी थी। आज देर मे आना सफल हो गया। इन्हीं ख्यालों में महत्व थी कि दफअतन रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंदिर।
पूर्णा ने चौंककर दाहिने जानिब देखा तो एक निहायत आलीशान संगीन इमारत है। दरवाजा सतहें जमीन से बहुत ऊँचा है और वहाँ तक जाने के लिए दस बारह जीने बने हुए है। रामकली को इस इमारत में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि एक पुश्ता वसीह सहन है जिसमे सैकड़ो मर्द और औरत जमा है। दाहिने जानिब एक बारदारी हैं जो तमाम तकल्लुफ़ात से आ रास्ता-ओ-पीरास्ता नज़र आती है। इस बारादरी में एक निहायत वजीह-ओ-शकील शख्स जर्द रेशम की मिर्जई पहने सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बांधे मसनद पर तकिया लागाये बैठा है। पेचवाना लगा हुआ है। उसके रुबरू साज़िन्दे बैठे सुर मिला रहे हैं और एक महपार नाज़नीन पेशवाज़ पहने बसद नाजो-अंदाजा जलवा अफ़रोज है। सैकड़ों आदमी इधर-उधर बैठे हैं और सैकड़ों खड़े हैं। पूर्णा ने अन्दाज़ की यह कैफियत देखी तो चौंककर बोली—क्यूँ, तो नाचघर मालूम होता है। कहीं भूल तो नहीं गयी?
रामकली—(मुस्कराकर) चुप, ऐसा भी कोई कहता है? यही देवी का मन्दिर है। वे महंत जी बैठे हैं। देखती हो कैसा सजीला जवान है। आज सोमवार हैं। हर सोमवार को यहाँ कंचानियों का नाच है।
इसी आसना में एक बुलन्द क़ामत शख्स आता दिखायी दिया। कोई छ: फ़ीट का कद था और निहायत लहीम-ओ शहीम। बालों में कंधी की हुई थी, मुँह पान से भरे, माथे पर भभूत रमायेख् गले में बड़े-बड़े दानों की रुद्राक्ष माला पहने, शानों पर एक रेशमी दोपट्टा रक्खें, बड़ी, और सुर्ख आँखें से इधर-उधर ताकत उन दोनों औरतों के क़रीब आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ़ एक अंदाज से देखकर कहा—क्यूँ बाबा इन्द्रदत्त, कुछ परशाद-वरशाद नहीं बनाया?
बाबा इन्द्रदत्त ने फरमाया—तुम्हारे ख़ातिर सब हाज़िर है। पहले चलकर नाच देखो। ये कंचनी से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे है। एक हजार रुपया इनाम दे चुके है।
रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की तरफ़ चली। बीचारी पूर्णा जाना न चाहती थी मगर वहाँ सबके सामने इन्कार करते भी न बन पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। बेशुमार औरतों जमा थी। एक से एक हसीन, गहने से गोंडनी की तरह लदी हुई थी। बेशुमार मर्द था। एक से एक खुशरु, आता दर्जे की पोशाकें पहने हुए, सब के सब एक ही जगह मिले-जुले खड़े थे। आपस में नजर-बाज़ियाँ हो रही थी। नज़रबाज़ियाँ ही नहीं, बल्कि दस्तदराज़ियाँ भी होती जाती थी, मुस्कार-मुस्कुरा राजो-नियाज़ की बातें की जा रही थी। औरतें मर्दो में, मर्द में, औरतों में ये मेलजोल, ख़िलत-मिलत, पूर्णा को कुछ ताज्जुबख़ेज मालूम हुआ। उसकी हिम्मत अन्दर घुसने की न पड़ी। एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुस गयी और वहाँ कोई आधा घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वो निकली है तो पसीने में ग़र्क थी। एक तमाम कपड़े मसल गये थे।
पूर्णा ने उसे देखते ही कहा—क्यूँ बहन, पूजा से ख़ाली हो गयी? अब भी घर चलोगी या नहीं।
रामकली—(हँसकर) अरे तुम बाहर ही खड़ी थीं क्या? ज़रा अन्दर चलकर देखो, क्या बहार है। ईश्वर जाने, कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती। अब आज उसकी चाँदी हैं हज़ारों रुपये ले जायगी।
पूर्णा—दर्शन भी किया या गाना ही सुनती रही?
रामकली—दर्शन करने आती है मेरी बला। यहाँ तो ज़रा दिल बहलने से काम है। तुम्हारे साथ न होती तो कहीं घंटों में घर जाती। बाबा इन्द्रदत्त राय ने ऐसा लज़ीज परशाद दिया है कि क्या बताऊँ।
पूर्णा—क्या है? चरनामृत है?
रामकली—(हँसकर) चनामृत का बाबा है—भंग।
पूर्णा—ऐ है, तुमने भंग पी ली?
रामकली-यही तो परशाद है देवी जी का इसके पीने में क्या हर्ज है? सभी पीते है, देवीजो को शराब भी चढ़ती है। कहो तुमको पिलाऊँ?
पूर्णा—नहीं बहन, मुझे मुआफ, रक्खो।
इधर यही बातें हो रही थीं कि दस-पन्द्रह आदमी बारदरी से आकर उन दोनों औरतों के इर्द-गिर्द खड़े हो गये।
एक—(पूर्णा की तरफ़ घूरकर) अरे यारो, ये तो कोई नया सुरुप है।
दूसरा—ज़रा बचकर चलो, बचकर
इतने में किसी ने पूर्णा के शाने को आहिस्ता से धक्का दिया वो बिचारी सख्त अजाब में मुबतला हैं। जिधर देखती है, आदमी ही आदमी नज़र आते है। कोई इधर से क़हकहा लगाता है, कोई उधर से आवाज़े कसता है। रामकली हँस रही हैं। मज़ाको का बरजस्ता जवाब देती है। कभी चादर को खिसकाती है, कभी दुपट्टे को सम्हालती है।
एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है?
रामकली—ये हमारी सखी हैं ज़रा दर्शन कराने लिवा लगी थी।
दूसरा—नहीं, ज़रुर लाया करो, ओ हो क्या रुप है
बारे ख़ुद-ख़ुद करके उन आदमियों से निजात मिली। पूर्णा बेतहाश भागी। रामकली भी उसके साथ हुई। घर पर आकर पूर्णा ने अहद किया कि अब कभी मन्दिर न जाऊँगी।

आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा

मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी।
बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन घर ही पर बैठी रहती। वक्त़ कटना पहाड़ हो जाता। न किसी के यहाँ आना न जाना। किसी से रब्त-जब्त, न कोई काम न धंधा। दिन कटे तो क्यूँ कर? पढ़े तो ज़रुर, मगर पढ़े क्या? दो-चार किस्से-कहानियाँ की किताबें पंडित जी के ज़माने की पड़ी हुई थीं मगर उनमें अब जी नहीं जगता था। बाज़ार जानेवाला कोई न था जिससे किताबें मंगवाती। ख़ुद जाते हुए उसकी रुह फ़ना होती थी। बिल्लो इस काम की न था। और सौदा-सुलफ़ तो वो बाज़ार से लाती मगर ग़रीब किताबों का मोल क्या जाने? दो-एक बार जी मे आया कि कोई किताब प्रेमा के घर से मँगवाऊँ मगर फिर कुछ समझकर खामोश हो रही। गुल-बूटे बनाने असके आते ही न थे। सीना जानती थी मगर सिये क्या?ये रोज़ बेशग़ली उसको बहुत खलती थी और हरदम उसको मुतफ़क्किर-ओ-मग़मूम रखती थी। ज़िन्दगी का चश्मा ख़ामोशी के साथ बहता चला जाता था। हाँ, कभी-पंडाइन व चौबाइन मय अपने चेले-चपाड़ों के आकर कुछ सिखावन की बातें सुनाती जाती थी। अब उनको पूर्णा से कोई शिकायत बाक़ी न रह गयी थी, बजुज इसके कि बाबू अमृतराय क्यूँ आया करते हैं। पूर्णा ने भी खुल्लम-खुल्ला कहा दिया था कि मैं उनको ओन से रोक नहीं सकती। और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ जिससे उनको मालूम हो कि मेरा इसको नागवार मालूम होता है। सच तो यह है कि पूर्णा को अब इन मुलाक़ातों में मज़ा आने लगा था। हफ्ते-भर किसी हमदर्द की सूरत नज़र न आती। किसी से हँसकर बोलने को जी तरस जात। पस, जब इतवार आता तो सुबह हीसे अमृतराय के ख़ैर मक़दम की तैयारियाँ होने लगतीं। बिल्लो बड़ी तंदिही से सारा मकान साफ़ करती, दरवाज़े के मक़बिल का सेहन भी साफ़ किया जाता। कमरे कुर्सियाँ, तसीवीरें बहुत क़रीने से आरास्ता की जाता। हफ्ते भर का जमा हुआ गर्दो-गुबार दूर किया जाता। पूर्णा ख़ुद भी मामूल से अच्छे और साफ़ कपड़े पहनती। हाँ, सर में तेल डालते या आइना—कंघी करती हुए वो डरती थी। जब बाबू अमृतराय आ जाते तो नहीं मालूम क्यूँ पूर्णा का मद्धम चेहरा कुन्दन की तरह दमकने लगता। उसकी प्यारी सूरत और ज़ियादा प्यारी मालूम होने लग़ती। जब तक बाबू साहब बैठे रहते, वो इसी कोशिश में रहती कि क्या बात करुं जिसमे ये यहाँ से खुश-खुश जावें। वो उनकी ख़ातिर से हँसती-बोलती। बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि कि रोते को भी एक बार जरुर हँस देते। यहाँ वो खूब बुलबुल की तरह चहते। कोई ऐसी बात न करते जिससे पूर्णा के दिल में रंजों मलाल का शयेबा भी पैदा हो। जब उनके चललने का वक्त़ तो पूर्णा नहीं मालूम क्यूँ कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसको इसको ताड़ जाते और पूर्णा के ख़ातिर से कुछ देर और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटों बैठ जाते। जब चिराग़ में बत्ती पड़ने का वक्त़ आ जाता, बाबू साहब चले जाते और पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती। जो-जो बातें हुई होती उनको फिर से दोहराती। ये वक्त़ उसको एक दिलख़ुशकुन ख़ाब-सा मालूम होता।
इसी तरह कई महीने गुजर गये और आख़िरश जो बात बाबू अमृतराय के दिल में थी वो क़रीब-करीब पूर हो गयी। यानी पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्बत समाती जाती है। अब बिचारी पूर्णा पहले से भी ज्यादा उदास रहने लगी। हाय, ओ दिल ख़ाना-ख़राब, क्या एक बार मुहब्बत करने से तेरा जी नहीं भरा जो तूने नपयी कुलफ़त मोल ली। वो बहुत कोशिश करती कि अमृतराय का ख़याल दिल में ने आने पाये मगर कुछ बस न चलता।
अपने दिल की हालत के अन्दाज करने का उसको यूँ मौका मिल कि एक राज बाबू अमृतराय वक्त़ मुअय्यना पर नहीं आये। थोड़ी देर तक तो ज़ब्त किये उनकी राह देखती रही मगर जब वो अब भी न आ़ये तब उसका दिल कुछ मसोसने लगा। बड़ी बेसब्री से दौड़ती हुई दरवाज़े पर आयी और कमिल आधा घण्टें तक कान लगाये खड़ी रही। कल्ब पर कुछ वही कैफियत तारी होने लगी जो पंडित जी के दौर पर जाने के वक्त़ हुआ करती। शुबहा हुआ कि कहीं दुश्मनों की तबीयत नासाज़ तो नहीं हो गयी। आंखें में आँसू भर आये। महरी से कहा—बिल्लो, ज़रा जाओ देखा तो बाबू साहब की तबीयत कैसी है? नहीं मालूम क्यूँ मेरा दिल बैठा जाता है। बिल्लो को भी बाबू साहब के बर्त्ताव ने गिरव़ादा बना लिया था और पूर्णा को तो वो अपनी लड़की समझती थी। उसको मालूम होता जाता था कि पूर्णा उनसे मुहब्बत करने लगी है। मगर उसकी समझ में नहीं आता था कि इस मुहब्बत का नतीजा क्या होगा। यही सोचते-विचारते के बाबू साहब के दौलतख़ाने पर पहुँची। मालूम हुआ कि वो आज दो-तीन ख़िद मतगारों के साथ लेकर बाज़ार गये हुए है। अभी तक नहीं आये। पुराने बूढ़ा कहार जो बावजूद बाबू साहब के मुतवारि तकाज़ों के आधी टॉँग की धोती बॉँधता था, बोला—बेटा, बड़ा खतब जमाना आवा है। हजार का सौदा होय तो, दुइ हजार का सौदा होय तो हम ही लियावत रहेन। आज खुद आप गये है। भला इतने बड़े आदमी का अस चाहत रहा। बाकी फिर अब अंग्रेजी जमाना आवा है। अंग्रेंजी-पढ़न-पढ़न के जन हुई जाय तौन अचरज नहीं है।
बिल्लो यहाँ से खुश-खुश बूढ़े कहार के सिर हिलाने पर हँसती हुई घर को वापस हुई। इधर जब से वो आयी थी पूर्णा की अजब कैफियत हो रही थी किसी पहल तैन ही नहीं आता था। उसे मालूम होता था कि बिल्लो की वापसी में भी देर रही है। इसी असना मैं जूतों की आवाज़ सुनायी दी। वो दौड़कर दरवाज़े पर आयी और बाबूसाहब को टहलते हुए पाया तो गोया उसको नेमत मिल गयी। झटपट अन्दर से दरवाज़ा खोला दिया, कुर्सी करीने से रख दी, और अन्दरुनी दरवाज़े पर सर नीचा करके खड़ी हो गयी। बाबू साहब लबाद पहने हुए थे। एक कुर्सी पर लबादा रक्खा और बोल-बिल्लो कहीं गयी है क्या?
पूर्णा—(लजाते हुए), जी हाँ, आप ही के यहाँ तो गयी है।
अमृतराय-मेरे यहाँ कब गयी? क्यूँ, कोई जरुरत थी?
पूर्णा—आपके आने में बहुत देर हुई तो मैंने समझा शायद दुश्मनों की तबीयत कुछ नासाज़ हो गयी हो, उसको भेजा कि जाकर देख आ।
अमृतराय—(प्यार की निगाहों से देखकर) मुझे सख्त अफ़सोस हुआ कि मेरे देर करने से तुमको तकलीफ़ उठानी पड़ी। फिर अब ऐसी ख़ता न होगी। मैं जरा बाज़ार चला गया था।
ये कहकर उन्होंने एक बार ज़ोर से पुकार—सुखई, अन्दर आओ।
और एक लमहे में दो-तीन आदमी कमरे में दाखिल हुए। एक के हाथ में ख़ूबसूरत लोहे का सन्दूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े थे। सब सामान तख्त़ पर धर दिया गया। बाबू साहब ने फ़रमाया—पूर्णा, मुझे उम्मीद है कि तुम ये सब चीज़े कबूल करोगी। चन्द रोज़ाना जरुरियात की चीजें है (हँसकर) ये देर में आने का जुर्माना है।
पूर्णा उन लोगो में न थी जो किसी चीज़ को लेना तो चाहते हैं मगर वज़ा की पाबन्दी के लिहाज से दो-चार बार ‘नहीं’ करना फ़र्ज समझते है। हाँ उसने इतना कहा—बाबू साहब, मैं आपका इस इनायत के लिए शुक्रिया अदा करती हूँ। मगर मेरे पास तो जो कुछ आपकी फय्याज़ी के बदौलत है वही जरुरत से ज्यादा है। मैं इतनी चीज़ें लेकर क्या करुँगी’’
अमृतरारय—जो तुम्हारा जी चाहे करो। तुमने क़बूल कर लिया और मेरी मेहनत ठिकाने लगी।
इसी असना में बिल्लो पहुँची। कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब तख्त पर निगाह पहुँची और उन चीज़ों को देखा तो बोली—क्या इसके लिए आप बाज़ार गये थे? क्या नौकर-चाकर नहीं थे? बूढ़ा कहार रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।
अमृतराय—(हँसकर दबी ज़बान से) वो सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाज़ार से चीज़ें लाते है। तुम्हारी सरकार का मैं नौकर हूँ।
बिल्लो यह सुनकर मुस्कराती हुई अन्दर चली गयी तो पूर्णा ने कहा—आप बज़ा फ़रमाते है, मैं तो खुद आपकी लौंडियों की लौंडी हूँ।
इसके बाद चन्द और बातें हुई। माघ-पूस का ज़माना था। सर्दी सख्त पड़ रही थी। बाबू अमृतराय ज्यादा देर तक बैठा न सके। आठ बजते-बजते दौलखाने की तरफ़ रवाना हुए। उनके जाते ही पूर्णा ने फ़र्तें इश्तियाक़ से लोहे का सन्दूक खोला तो दंग रह गयी। उसमें ज़नाने सिंगार की तमाम चीजें मौजूद थीं, आला दर्जे की—खुशनुमा आइना, कंघी, खुशबूदार तेलों की शीशियाँ, मूबाफ़ हाथों के कंगन और गले का हार जड़ाऊँ, नगीनेदार चूड़ियाँ, एक निहायत नफ़ीस पायदान, रुहपरवर इतरियात से भरी हुई एक छोटी-सी सन्दूक़ची, लिखने-पढ़ने के सामान, चन्द क़िस्सा-कहानी की किताबें, अलावा इनके चन्दू और तकल्लुफ़ात की चीज़ें क़रीने से सजाकर धरी हुई थीं। कपड़े खोले तो अच्छी से अच्छी साड़ियाँ नज़र आयी। शर्बती, गुलनारी, धानी, गुलाबी, उन पर रेशमी गुलबूटे बने हुए:चादरे, खुशनुमा, बारीक, खुशवज़ा—बिल्लो इनको देख-देख जामे में फूली न समाती थी—वह ये सब चीज़ें जब तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी, रानी।
पूर्णा—(गिरी हुई आवाज) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लोख् मैं ये चीज़ें पहनूँगी तो जीती बचूँगी चौबाइन व सेठाइन ताने दे-देकर मार डालेगी।
बिल्लो-ताने क्या देंगी, कोई दिल्लगी है, उनके बाप का इसमें क्या इजारा। कोई उनसे कुछ माँगने जाता हैं।
पूर्णा ने बिल्लो को हैरत और इस्तेजाब की निगाहों से देखा। यही बिल्लो है जो अभी दो घझ्टे पहले चौबाइन और पंडाइन की हमख़ायल थी, मुझको पहने-ओढ़ने से बार-बार मना किया करती थी। यकायक ये क्या कायपलट हो गयी, बोली—मगर ज़माने के नेको-बद का भी ख्याल होता है।
बिल्लो—मैं यह थोड़ी कहती हूँ कि हरदम ये चीज़ें पहना करो। बल्कि जब बाबू साहब आवे।
पूर्णा-(शर्माकर) यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्योंकर आया जायागा। तुम्हें याद है एक बार प्रेमा ने मेरे बाल गूँथ दिये थे जिसको आज महीनों बीत गये। उस दिन वो मेरी तरफ ऐसा ताकते थे कि बेअख्त़ियार क़ाबू से दिल बाहर हुआ जाता था। मुझसे फिर ऐसी भूल न होगी।
बिल्लो—नहीं बहूं उनकी मर्जी यही है तो क्या करोगी। इन्हीं चीज़ो के लिए वो बाज़ार गये थे। सैकड़ों नौकर-चाकर हैं मगर इन चीज़ें को खुद जाकर लाये। तुम उनकासे पहनोगी तो वो क्या कहेंगे?
पूर्णा(चश्मेपुरआब होकर) बिल्लो, बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करानेवाला हैं। कुछ तुम्हीं बतलाओ मैं क्या करुँ। वो मुझसे दिन-दिन ज़ियादा मुहब्बत जताते है मैं अपने दिल को क्या कहूँ। तुमसे कहते शर्म आती है। वो भी कुछ बेबस हुआ जाता है। मोहल्लेवाले अलग बदनाम कर रहे है। नहीं मालूम ईश्वर को क्या करना मंजूर है।
बिल्लो—बहू, बाबू साहब का मिज़ाज ही ऐसा है कि दूसरों को लुभी लेता हैं। इसमें तुम्हारा क्या कुसूर है। इस गुफ्तगू के बाद पूर्णा तो सोने चली गयी और बिल्लो ने तमाम चीज़ें उठाकर करीने से रक्खी। सुबह उठकर पूर्णा ने जो किताबें पढ़ाना शुरु की जो बाबू साहब लाये थे। और ज्यूँ-ज्यूँ पढ़ती उसको मालूम होता कि कोई मेरा ही किस्सा कह रहा है। जब दो-एक सफ़े पढ़ लेती तो एक महबियत के आलम में घंटों दीवार की तरफ ताकती और रोती। उसको बहुत-सी बातें अपनी हालत से मिलती हुई नजर आयी। इन किस्सों में जो जी लगा तो इधर-उधर के तफ़क्कुरख़ेज ख्य़ालात दूर हो गये। और वो हफ्ता उसने पढ़ने में कटा। फिर आखिर इतवार का दिन आया। सुबह होते ही बिल्लो ने हँसकर कहा—आज साहब के आने का दिन है। आज जरुर से जरुर तुमको गर्हन पहनने पड़ेंगे।
पूर्णा—(दबी हुई आवाज़ से) आज तो मेरे सर में दर्द होता है।
बिल्लो—नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द न करे जो तुमको देख न सके। इस बानेसे पीछा न छूटेगा।
पूर्णा—और जो किसी ने मुझे तना दिया तो जानना।
बिल्लो—जाने भी दो बहू, कैसी बात मुँह से निकालती हो। कौन है कहनेवाला।
सुबह ही से बिल्लो ने पूर्णा का बयान-सिंगार शुरु किया। महीनों से सर न मला गया था, आज खुशबूदार मसाले से मला गया। तेल डाला गया। कंघी की गयी। रेशमी मूबाफ़ लगाकर बाल गूँथे गय। और जब सेह-पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उसपर रेशमी काम की शर्बती साड़ी, पहनी, हाथों में चूड़ियाँ कंगन सजाये तो वो बिलकुल हूर होने लगी। कभी उसने ऐसे बेशक़ीमत और पुरतकल्लुफ़ कपड़े न पहने थे और न वह कभी ऐसी सुघड़ मालूम हुई थी। वो अपनी सूरत आप देख-देख कुछ खुश भी होती थी, कुछ शर्माती भी थी और कुछ अफ़सोस भी करती थी। जब शाम का वक्त़ आया तो पूर्णा कुछ उदास मालूम होने लगी। ताहम उसकी आँखें दरवाज़े पर लगी हुई थीं। पाँच बजते-बजते मामूल से सबेर बाबू अमृतराय तशरीफ़ लाये। बिल्लो से ख़ैरोआफ़ियत पूछी और कुर्सी पर बैठ के किसी के दीदार के इश्तियाक़ में अन्दरुनी दरवाज़ें के तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे। मगर पूर्णा वहाँ न थी। कोई दस मिनट तक तो बाबू साहब ने खामोशी से इन्तज़ार किया। बाद में अज़ॉँ बिल्लो से पूछा –क्यूँ महरिन, आज तुम्हारी सरकार कहाँ हैं?
बिल्लो—(मुस्कराकर) घर ही में तो है।
अमृतराय—तो आयीं क्यूँ नही? आज कुछ नारज़ हैं क्या?
बिल्लो—(हँसकर) उनका मन जाने।
अमृतराय—ज़रा जाकर लिवा आओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।
ये सुनकर बिल्लो हँसती हुई अन्दर गयी और पूर्णा से बोली—बहू, उठोगी या वो आप ही मनाने आते है।
पूर्णा ने अब कोई चारा न देखा तो उट्टी और शर्म से सर झुकाये और घूँघट निकाले बदन को चुराती, लजाती, बल-खाती, एक हाथ मे गिलौरीदान लिये दरवाज़ें पर आकर खड़ी हो गयी। अमृतराय ने मुतहैयर होकर देखा। आँखें चुँधिया गयीं। एक लमहे तक महवियत का आलम तारी रहा। बाद अज़ॉँ मुस्कराकर बोले—चश्मे बद दूर।
पूर्णा—(लजाती हुई) मिज़ाज तो आपका अच्छा है?
अमृतराय—(तिरछी निगाहों से देखकर) अब तक अच्छा था। मगर अब ख़ैरियत नहीं नज़र आती।
पूर्णा समझ गयी। अमृतराय के संजीदा मज़ाक का मज़ा लेते-लेते वो कुछ हाज़िरजवाब हो गयी। है। बोली—अपने किये का क्या इलाज?
अमृतराय—क्या से किसी को ख़ामाख़ाह की दुश्मनी है।
पूर्णा ने शर्मा के मुँह फेरा लिया। बाबू अमृतराय हँसने लगे और पूर्णा की तरफ़ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी हाज़िरजवाबी उनको बहुत भायी। कुछ देर तक और ऐसे ही लुत्फआमोज़ बातों का मज़ा लेते रहे। पूर्णा को भी ख्याल न था कि मेरी ये बेतकल्लुफ और बज़लासंजी मेरे लिए मौजूँ नहीं है। उसको इस वक्त़ न पंडाइन का ख़ौफ़ था। न पड़ोसियों का डर। बातों ही बातों में उसने मुस्कराहट अमृतराय से पूछा-आपके आजकल प्रेमा की कुछ ख़बर मिली है?
अमृतराय—नहीं, पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ ख़बर नही थी। हाँ, इतना अलबत्ता जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से क़राबत की बातचीत हो रही है।
पूर्णा—सख्त अफ़सोस है कि उनकी किस्मत में आपकी बीवी बनना नहीं लिखा है। मगर उनका जोड़ है तो आप ही से। हाँ, आपसे भी कहीं बातचीत हो रही थी। फ़रामाइए वो कौन खुशनसीब है। वो दिन जल्द आता कि मैं आपकी माशूक से मिलती।
अमृतराय—(पुरहसरत लहजे में) देखें कब किस्मत यावरी करती है। मैंने अपनी कोशिश में तो कुछ उठा नहीं रक्खा।
पूर्णा—तो क्या उधर ही से खिंचाव है, ताज्जबु है
अमृतराय—नही पूर्णा, मैं जरा बदक़िस्मत हूँ, अभी तक कोई कोशिश कारागर नहीं हुई। मगर सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर कामयाबी का सेहरा बहुत जल्दी बँध सकता है। मैंने पहले कहा था और अब भी कहता हूँ कि तुम्हारी ही रज़ामन्दी पर मेरी कामयाबी का दारोमदार है।
पूर्णा हैरत से अमृतराय की तरफ देखने लगी। उसने अब की बार भी उनका मतलब साफ़-साफ़ न समझा। बोली—मेरी तरफ़ से आप ख़ातिर जमा रखिये। मुझसे जहाँ तक हो सकेगा उठान रखूँगी।
अमृतराय—इन अलफ़ाज का याद रखना पूर्णा, ऐसा न हो कि भूल जाओ। नहीं तो मुझ बेचारे के सब अरमान खाक में मिल में मिल जायेंगे।
ये कहकर बाबू अमृतराय उट्ठे और चलते वक्त़ पूर्णा की तरफ़ देखा। बेचारी पूर्णा की आँखें डबडबायी हुई थी गोया इल्तिजा कर रही थी कि जरा देर और बैठिये मगर अमृतराय को कोई ज़रुरी काम था। उन्होंने उसका हाथ अहिस्ता से लिया और डरते-डरते उसको चूमकर बोले—प्यारी पूर्णा, अपनी बातों को याद रखना।
ये कहा और दम के दम में गायब हो गये। पूर्णा खड़ी रहती रह गयी और एक दम में ऐसा मालूम हुआ कि कोई दिलखुशकुन ख्वाब था जो आँख खुलते ही ग़ायब हो गया।

नवाँ बाब-तुम सचमुच जादूगार हो

बाबू अमृतराय के चले जाने के बाद पूर्णा कुछ देर तक बदहवासी के आलम में खड़ी रही। बाद अज़ॉँ इन ख्यालात के झुरमुट ने उसको बेकाबू कर दिया।
आखिर वो मुझसे क्या चाहते है। मैं तो उनसे कह चुके कि मै आपकी कामयाबी की कोशिश में कोई बात उठा न रखूँगी। फिर यह मुझसे क्यूँ इस क़दर मुहब्बत जताते है क्यूँ ख़ामाख़ाह मुझको गुनाहागार करते है। मैं उनकी उस मोहनी सूरत को देखकर बेबस हो जाती हूँ। हाय-आज उन्होंने चलते वक्त़ मुझको प्यारी पूर्णा कहा था और मेरे हाथों के बोस लिये थे, नारायन वह मुझसे क्या चाहते है? अफ़सोस इस मुहब्बत का नतीजा क्या होगा?
यही ख्याल करते-करते उसने नतीजा जो सोचा तो मारे शर्म के चेहरा छुपा लिया। और खुद ब खुद बोल:
ना-ना, मुझसे ऐसा होगा। अगर उनका यह बर्ताव मेरे साथ बढ़ता गया तो मेरे लिए सिवाय जान देने के और कोई इलाज नहीं है। मैं ज़रुर ज़हर खा लूँगी।
इन्हीं ख्यालात में गलताँ थी कि नींद आ गयी। सबेरा हुआ, अभी नहाने जाने की तैयारी कर ही रही थी कि बाबू अमृतराय के आदमी ने आकर बिल्लो को बाहर से ज़ोर से पुकारा और उसको एक सरबमोहर लिफ़फ़ा मय छोटे-से बक्स के दकर अपनी राह लगा। बिल्लो ताज्जुब करती हुई अन्दर आयी और पूर्णा को वह बक्स दिखाकर ख़त पढ़ने को दिया। उसने काँपते हुए हाथों से ख़त को खोला तो यह लिखा था।
प्यारी पूर्णा, जिस दिन से मैंने तुमको पहले देखा है उसी दिन से तुम्हारा शैदाई हो रहा हूँ और यह मुहब्बत अब इन्तिहा तक पहुँच गयी है। मैंन नहीं मालूम कैसे इस आग को अब तक छुपाया है। पर अब यह सुलगापा नहीं सहा जात। मैं तुमको सच्चे दिल से प्यार करता हूँ और अब मेरी तुमसे यह इल्तिजा है कि मुझको अपनी गुलामी में कुबूल करो। मैं कोई नाजयज़ इरादा नहीं रखता। नारायन, हरगिज नहीं। तुमसे बाक़ायदा तौर पर शादी किया चाहता हूँ। ऐसी शादी बेशक अनोखी मालूम होगी। मगर मेरी बात यकीन मानो की अब इस देश में ऐसी शादी कहीं-कहीं होने लगी है। इस ख़त के साथ मैं तुम्हारे लिए एक जड़ाऊ कंगन भेजता हूँ। शाम को मैं तुम्हारे दर्शन को आऊँगा। अगर कंगन तुम्हरी कलाईयों पर नज़र आया तो समझ जाऊँगा कि मेरी दरख़ास्त कुबूल हो गयी, वर्ना दूसरे दिन शायद अमृतराय फिर तुमसे मुलाकात करने के लिए जिन्दा न रहे।
तुम्हारी शैदाई
अमृतराय

पूर्णा ने इस ख़त को गौर से पढ़ा। उसको उससे ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। ऐसा मालूम होता था कि किसी की मुन्तज़िर थी। उसने ठान लिया था कि जिस दिन बाबू साहब मुझसे खुल्लमखुल्ला तअश्शुक जातायेंगे और नाजायाज़ पेश करेंगे उसी दिन मै उनसे बिलकुल क़ता कर लूँगी। उनकी तमाम चीज़े उनके हवाले कर दूँगी और फिर जैसे बीतेगा बिताऊँगी। मगर इस खत को पढ़कर उसको अपने इरादे में कमज़ोरी मालूम होने लगी। क्योंकि उसको ख्वाब में भी ख्याल न था कि बाबू साहब बाक़ायदा शादी करेगे और न उसको वहम ही था कि बेवाओं की शादियाँ होती है सबसे बढ़कर यह बात थी बरहमन और छत्री में ताल्लुक क्या? मैं बिरहमनी वो छत्री, पस मेरा उनका क्या इलाका कुछ नहीं। उनकी चालाकी है। वो मुझे घर रखा चाहते है। मगर यह मुझसे न होगा। मेरे दिल में मुहब्बत ज़रुर है। मुझे आज तक ऐसी मुहब्बत किसी और की नहीं मालूम हुई। मगर मुझसे मुहब्बत की ख़ातिर इतना बड़ा पाप न उठाया जाएगा। मेरी खुशी तो इसमें है कि उनको नज़र भर के देखा करुँ और उनकी सेहत की खुशखबर पाया करुँ। मगर हाय, इस खत के आखिर जुमले ग़ज़ब के है। कहीं मेरे इनकार से उनके दुशमनों का बाल भी बीका हुआ तो मैं बेमौत मर जाऊँगी। या ईश्वर मैं क्या करुँ मेरी तो कुछ अक़ल काम नहीं करती।
बिल्लो पूर्णा के चेहरे का चढ़ाव-उतार बड़े ग़ौर से देख रही थी। जब वो ख़त को पढ़ चुकी तो उसने पूछा—क्यूँ बहू, क्या लिखा है?
पूर्णा—(संजीदा आवाज से) क्या बताऊँ क्या लिखा है।
बिल्लो—क्यूँ ख़ैरियत तो है, काई बुरी सुनावनी तो नहीं है?
पूर्णा—हाँ बिल्लो, इससे ज़ियाद बुरी सुनावानी हो ही नहीं सकती। अमृतराय कहते हैं कि मुझसे..
उससे और कुछ न कहा गया। बिल्लो समझ गयी मगर वहीं तक पहुँची जहाँ तक उसकी अक्ल ने मदद की। वो अमृतराय की बढ़ती हुई मुहब्बत को देख-देख दिल में समझ गयी थी कि वो एक न एक दिन पूर्णा को अपने घर जरुर डालेंगे। पूर्णा उनसे मुहब्बत करती है। उन पर जान देती है। वो पहले बहुत पसोपेश करेगी। मगर आख़िर मान जाएगी। उसने सैकड़ों रईसों को देखा था कि नाइनो, कहारियों को घर डाल लिया करते है। ग़ालिबन इस हालत में भी ऐसा होगा। इसमें उसको कोई बात अनोखी नहीं मालूम होती थी। क्योंकि उसको यकीन न था कि बाबू साहब पूर्णा से सच्ची मुहब्बत करते है। मगर बेचारे सिवाय इसके और कर ही क्या सकते हैं कि उसको घर में डाल लें। चुनांचे जब उसने पूर्णा को यूँ बातें करते देखा तो ताड़ गयी कि आज़माईश का मौका है वो जानती थी कि अगर पूर्णा राज़ी हुई तो उसकी बकिया जिन्दगी बड़े आराम से कटेंगी। बाबू साहब भी निहाल हो जाएँगे और मैं बूढ़ी भी उनकी बदौलत आराम करुँगी। मगर कहीं उसने इनकार किया तो दोनों की जिन्दगी का तल्ख हो जाएगी। यह बातें सोचकर उसने पूर्णा से पूछा—तुम क्या जवाब दोगी?
पूर्णा—जवाब, इसका जवाब सिवाय इनकार के और हो ही क्या सकता है? भला विधवाओं की शादी कहीं हुई और वो भी बरहमनी की छत्री से। मैंने इस किस्म के किस्से उन किताबों में पढ़े थे जो बाबू अमृतराय मुझे दे गये हैं। मगर वो किस्से हैं, तुमने कभी ऐसा होते भी देखा है।
बिल्लो समझी थी कि बाबू अमृतराय उसको घर डालने की कोशिश में हैं। शादी का तजकिरा सूना तो हैरत में आ गयी। बोली—भला ऐसा कहीं भया है? बाल सफेद हो गयो मगर ऐसा ब्याह नहीं देखा।
पूर्णा—बिल्लो, ये शादी—ब्याह सब बहानेबाजी हैं। उनका मतलब मैं समझ गयी। मुझसे ऐसा न होगा। मैं जहर खा लूँगी।
बिल्लो—बहू, ऐसी बातें जबान से मत निकालो। वो बेचारा भी तो अपने दिल से नाचार हैं, क्या करे?
पूर्णा—हाँ बिल्लो, उनको नहीं मालूम क्यूँ मुझसे मुहब्बत हो गयी है। और मेरे दिल का हाल तो तुमसे छिपा नहीं मगर काश वो मेरी जान माँगते तो मैं अभी दे देती। ईश्वर जानता है, मैं उनके जरा-से इशारे पर अपने को निछावर कर सकती हूँ। मगर वो जो चाहे चाहते हैं, वो मुझसे नहीं होने का। उसका ख़याल करते ही मेरा कलेजा काँपने लगाता है।
बिल्लो—हाँ भलेमानुसों में तो ऐसा नहीं होता। कमीनों में डोला आता है। मगर बहूत सच तो यह है, अगर तुम इन्कार करते हो उनका दिल टूट जाएगा। मुझे तो डर है कि कहीं वो जान पर न खेल जाएँ। और ये तो मैं कह सकती हूँ कि उनसे बिछड़ने के बाद तुमसे एक दम बेरोये न रहा जाएगा। चाहे तुमको बुरा लागे या भला।
पूर्णा—यह बस तो तुम सच कहती हो पर आखिर मैं क्या करुँ। वो मुझसे झूठ-सच शादी कर लेगे। शादी क्या करेंगे, शादी का नाम करेंगे। मगर ज़माना क्या कहेगा। लोग अभी से बदनातम कर रहे है, तब तो नहीं मालूम क्या हो जायेगा। सबसे बेहतर यही है कि जान दे दूँ। न रहे बॉँस न बजे बॉँसुरी। उनको दो-चार दिन तक अफ़सोस होगा आख़िर भूल जाएँगे। मेरी तो इज्ज़त बच जाएगी। वो कहते है कि ऐसी शादियाँ कहीं-कहीं होती है। जाने कहाँ होती है, यहाँ तो होती नहीं। यहाँ की बात यहाँ है, ज़माने की बात जमाने में है।
बिल्लो—ज़रा इस बक्स को तो खोलो, देखो इसमें क्या है।
पूर्णा खत पढ़कर परेशान हो रही थी कि अभी तक बक्स को छुआ भी न था। अब जो उसको खोला तो अन्दर सब्ज मख़मल में लिपटा हुआ एक क़ीमती कंगन पाया।
बिल्लो—ओ हो, इस पर तो जड़ाऊ काम किया हुआ है
पूर्णा—उन्होंने इस ख़त में लिखा है कि मैं शाम को आऊँगा और अगर तुमको यह कंगन पहने देखूँगा तो समझ जाऊँगा कि मेरी मंजूर है नहीं तो दूसरे दिन दुश्मन जिन्दा न रहेगे।
बिल्लो—क्या आज ही शाम को आवेगे?
पूर्णा—हाँ, आज ही शाम को तो आयेगे। अब तुम्हीं बतलाओ क्या करुँ। किससे जाकर इलाज पूछूँ।
यह कहकर पूर्णा ने दोनों हाथों से अपनी परेशानी ठोंक और ख़ामोश बैठकर सोचने लगी। नहाने कौन जाता है, खाने-पीने की किसको सुध है। दोपहर तक बैठी सोचा की मगर दिमाग ने कोई क़तराई फैसला न किया। हाँ ज्यूँ-ज्यूँ शाम का वक्त़ करीब आता था त्यूँ-त्यूँ उसका दिल धड़-धड़ करता था कि उसके सामने कैसे जाऊँगी। अगर वो कलाईयों पर कंगन न देखेगे तो क्या करेंगे। कहीं जान पर न खेल ज़ायँ। मगर तबीयत का कायदा है कि जब कोई बात हद से ज़ियादा महव करनेवाली होती है तो उस पर थोड़ा देर ग़ौर करने के बाद दिमाग बिलकुल बेकार हो जाता है। पूर्णा से अब सोचा भी न जाता था। वो पेशानी पर हाथ दिये बैठी दीवार की तरफ़ ताकती रही। बिल्लो भी खामोश मन मारे हुई थी। तीन बजे होगें कि यकायक बाबू अमृतराय की मानूस आवाज़ दरवाज़े पर ‘बिल्लो—बिल्लो’ कहते हुए सुनायी दी। बिल्लो बाहर दौड़ी और पूर्णा अपने कमरे में घुस गयी और दरवाज़े भेड़ लिया और उस वक्त़ उसका दिल भर आया और ज़ारो क़तार रोने लगी। इधर बाबू अमृतराय अज़हद बेचैन थे। बिल्लो को देखते ही उनकी मुश्ताक़ निगाहें बड़ी तेजी से उसके चेहरे की तरफ़ उठीं मगर उस पर अपनी कामयाबी की कोई बाउम्मीद झलक न पाकर ज़मीन की तरफ़ गड़ गयीं दबी हुई आवाज़ में बोले—बिल्लो, तुम्हारी उदासी देखकर मेरा दिल बैठा जाता है। क्या कोई खुशख़बरी न सुनाओगी?
बिल्लो ने हसरत से आँखें नीची कर लीं और अमृतराय ने आबदीद होकर कहा—मुझे तो इसका ख़ौफ पहले ही था, किस्मत को कोई क्या करे मगर ज़रा तुम उनसे मेरी मुलाकत करा देती, मुझे उम्मीद है कि वो मुझ पर अपनी इनायत ज़रुर करेंगी। मैं उनको आख़िरी बार देख लेता।
यह कहते—कहते अमृतराय की आवाज़ बेअख्तियार काँपने लगी। बिल्लो ने उनको रोते देखा तो घर में दौड़ी गयी और बोली—बहू, बहू बेचारी खड़े रो रहे है। कहते है कि मुझसे एक दम के लिए मिल जायँ।
पूर्णा—नहीं बिल्लो, मैं उनके सामने न जाऊँगी। हाय राम—क्या वो बहुत रो रहे है?
बिल्लो—क्या बताऊँ, बेचारों की दोनों आँखें लाल हैं। रुमाल भीगा गया है, कहा है कि हमको आखिरी बार अपनी सूरत दिखा जाए।
हाय, ये वक्त़ बेचारी कमज़ोर दिलवाली पूर्णा के लिए निहायत नाजुक था। अगर कंगन पहनकर अमृतराय के सामने जाती है कि जिन्दगी के सारे अरमान पूरे होते है, सारी अम्मेदे बर आती है। अगर बिला कंगन पहने जाती है तो उनके अरमानो का खून करती है और अपनी ज़िन्दगी को तलख़। उस हालत में बदनामी है और रुसवाई, इस हालत में हसरत है और नाकामी। उसका दिल दुबधे में है। आखिर बदनामी का ख़याल ग़ालिब आया। वो घूँघट निकालकर निशस्तगाह की तरफ़ चली। बिल्लो ने देखा कि उसकी हाथ पकड़कर खेंचा और चाहा कि कंगन पहना दे मगर पूर्णा ने हाथ को झटका देकर छुड़ा लिया और दम के दम में वो बाहरवाले कमरे के अन्दरुनी दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी। उसने अमृतराय की तरफ़ देखा। आँखें लाल थीं। उन्होंने उसकी तरफ देखा। चेहरे से हसरत बरस रही थीं। दोनों निगाहें मिली। अमृतराय बेअख्तियाराना जोश से उसकी तरफ़ बढ़े और उसका हाथ लेकर कहा—पूर्णा, ईश्वर के लिए मुझ पर रहम करो।
उनके मुँह से कुछ न लिकाला। आवाज़ हलक़ में फँसकर रह गयी। पूर्णा की खुद्दारी आज़ तक कभी ऐसी इम्तिहान में न पड़ी थी। उसने रोते—रोते अपना सर अमृतराय के कंधे पर रख दिया कुछ कहना चाहा मगर आवाज़ न निकली। हाय खुद्दारी का बॉँध टूट गया और वह तमाम जोश जो रुका हुआ था उबल पड़ा। अमृतराय ग़ज़ब के नब्ज़शनास थे। समझ गये कि अब म़ौका है। उन्होंने आँखें के इशारे से बिल्लो से कंगन मँगवाया। पूर्णा को आहिस्ता से कुर्सी पर बिठा दिया। वो ज़रा भी न झिझकी। उसके हाथों में कंगन पहनाया। पूर्णा ने ज़रा भी हाथ न खींचा। तब अमृतराय ने जुरअत करके उसके हाथों को चूम लिया और उनकी आँखें मारे खुशी के जगमगाने लगीं। रोती हुई पूर्णा ने मुहब्बत निगाहों से उनकी तरफ़ और बोली—प्यारे अमृतराय, तुम सचमुच जादूगर हो।

दसवाँ बाब-शादी हो गयी

तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतराय इसलिए बिरहमनी के घर आया-जाया करते हैं। सारे शहर के लोग हलफ़ उठाने को तैयार रहते कि दोनों में नाज़ायज़ ताल्लुकात है। कुछ अर्से से चौबाइन व पंडाइन ने भी पूर्णा के शौको-सिंगारो पर हाशिया चढ़ाना छाड दिया था। चूँकि वा अब उनकी दानिश्त में उन कुयूद की पाबन्द न थी जिनका हर एक बेवा को पाबन्द होना चाहिए। जो लोग तालीमयाफ्त़ा थे और हिन्दुस्तान के दीगर सूबेजात की भी कुछ खबर रखते थे वे इन किस्सों को सुन-सुनकर ख़याल करते थे। शायद इसका नतीजा नकली शादी होगी हज़ारो बाअसर आशख़ास घात में थे कि अगर यह हज़रत रात को पूर्णा के मकान की तरफ जाने लगें तो जिन्दा वापस न जाए। अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयती की सफ़ाई पर एतबार करता था तो वो प्रेमा थी। वा बेचारी वफ़ादार लड़की ग़म पर ग़म और दुख पर दुख सहती थी। मगर अमृतराय की मुहब्बत उस पर सादिक़ थी। उसकी आस अभी तक बँधी हुई थी। उसके दिल में कोई बैठा हुआ कहता था कि तुम्हारी शादी ज़रुर अमृतराय से होगी। इसी उम्मीद पर वो जीती थी। और जितनी ख़बरें अमृतराय की निस्तबध मशहूर होती थी उनपर वो कुछ यूँ ही-सा यक़ीन लाती थी। हाँ, अक्सर उसको यह ख्याल पैदा होता था कि पूर्णा के घर बार-बार क्यों आते है? और शायद देखते-देखते, अपनी भावज और सारे घर की बातें सुनते-सुनते वह अमृतराय को बेवफ़-बदखुल्क समझने लगी है। मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में बजिन्सेही मौजूद थी। वो उन लोगों मे थी जो एक बार दिल का सौदा चुका लेते है तो फिर अफ़सोस नहीं करते।
आज बाबू अमृतराय मुश्किल से बँगले पर पहुँचे होंगे कि उनकी शादी की ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी। और शाम होत-होते सारे शहर में यही ख़बर गूँज रही थी। जो शख्स पहले सुनता तो एकबार न करता और जब उसको इस ख़बर की सेहत का य़कीन हो जाता है तो अमृतराय को सलवाते सुनाता। रात तो किसी तरह कटी। सुबह होते ही मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दौलतख़ाने पर शहर के शुरफ़ा व उलमा उमरा व गुरबा मय कई हज़ार बिरहनों और शोहदो के जमा हुए और तजवीज़ होने लगी कि ये शादी क्यूँकर रोकी जावे।
पण्डित भृगुदत्त—विधवा विवाह वर्जित है। कोई हमसे शास्त्रार्थ कर ले।
कई आवारों ने मिलकर हाँक लगायी—हाँ, जरुर शास्त्रार्थ हो। अब इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी दबाये, सर घुटाये, और अँगोछा काँधे पर रखे मुँह में तम्बाकू को भरे एक जा-जमा हो गये और आपस में झकझक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रार्थ हो। यह श्लोक पूछा जावे और उसके जवाब का यों जवाब दिया जावे। अगर जवाब में व्याकरण की एक ग़लती भी निकलते तो फिर फ़तह हमारे हाथ हैं। बहुत से कठमुल्ले गँवारे भी इसी जमाते में शरीक होकर शास्त्रार्थ चिल्ला रहे थे। बदरीप्रसाद साहब जहाँदीदा आदमी थे। जब उन आदमियों को शास्त्रार्थ पर आमादा देखा तो फ़रमाया, किससे शास्त्रार्थ किया जाएगा। मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?
सेठ धूनीमल—बिला शास्त्रर्थ किए ब्याह कर लेंगे? (धोती सम्हालकर)—थानों में रपट कर दूँगा।
ठाकुर ज़ोरावर सिंह (मूँछों पर ताव देकर)—कोई ठट्ठा है ब्याह करना। सर काट लूँगा। खून की नदियाँ बह जाएगी।
राव साहब-बारात की बारात काट डाली जाएगी।
उस वक्त़ सैकड़ों आवारा शोहदे वहाँ आ डटे और आग में ईंधन लगाना शुरु किया।
एक—जरुर से जरुर सर काट डालूँगा।
दूसरा—घर में आग लगा देंगे, बारात जल-भुन जाएगी।
तीसरा—पहले उसे औरत का गला घोंट देंगे।
इधर तो ये हड़बोंग मचा हुआ था, खस निशस्तगाह में वोकला बैठ हुए शादी के नाज़ायज़ होने पर क़ानूनी बहस रहे थे। बड़ी गर्मी सी ज़खीम जिल्दों की वरक़गिरदानी हो रही थी। साल की पुरानी नज़ीरें पढ़ी जा रही थी ताकि कोई क़ानूनी गिरफ्त़ हाथ आ जाये। कई घण्टे तक यही चह-पहल रहा। आखिर खूब सर खपने के बाद यह राय हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय को धमका दें। अगर वो इस पर भी न मानें तो जिस दिन बारात निकले सरे बाज़ार मारपीट हो और ये रेज़ोलूशन पास करने के बाद जलसा बर्खास्त हुआ। बाबू अमृतराय शादी की तैयारियों में मसरुफ़ थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का शुक्क़ा पहुँचा। लिखा था—
‘अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह की सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे। आग हमन सुना है कि आप किसी विधवा बिरहमनी से ब्याह करनेवाली है। हम आपस कहे देते है कि भूलकर भी ऐसा न कीजिएगा बर्ना आप जाने और आपका काम।

ज़ोरावर सिंह अलावा एक मुतमव्विल और बाअसर आदमी होने के शहर के लठैतों और शोहदो का सरदार था और बारहा बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। उसकी धमकी ऐसी न थी जिसका अमृतराय पर कुछ असर न होता। इस रुक्के को पढ़ते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचने लगे कि उसको किसी हिकमत से पेर लूँ कि एक दूसरा रुक्का फिर पहुँचा, ये गुमनाम था और मजमून भी पहले ही रुक्के से मिलता-जुलता था। उसके बाद शाम होते-होते हज़ारों ही गुमनाम पुरजे आये। कोई कहता था अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लया देगें काई सर काटने को धमकाता है, कोई पेट में लेगा भौकने के लिए तैयार बैठा था और कोई मूँछ के बाल उखाड़ने के लिए चुटकियाँ गर्म कर रहा था। अमृतराय ये तो जानते थे कि शरावाले मुख़ालिफ़त जरुर करेगे मगर इस किस्सम की मुख़ालिफत का उनको वहमोगुमान भी न था। इन धमकियों ने उन्हें वाक़ई खौफ़जदा कर दिया था और अपने से ज़ियादा अन्देशा उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं ज़ालिम उस बेचारी को कोई अज़ीयत न पहुँचा दें। चुनांचे वो वक्त़ कपड़े पहन बाइसिकिल पर सवार हो चटपट मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाजिर हुए और उससे तमामो-कमाला वाकया बयान किया। अंग्रेंजों में उनका अच्छा रूसूख़ था। न इसलिए कि वो खुशामदी थे इसलिए कि वो रौनशख़याल और साफ़गो थे। मजिस्ट्रेट साहब उनके साथ बड़े अखलाक़ से पेश ओय। उनसे हमदर्दी जतायी और उसी वक्त़ सुपररिण्टेडेण्ट पुलिस को तहरीर किया कि आप बाबू अमृतराय की मुहाफिज़त के लिए पुलिस का एक गारद रवाना कर दे और त़ाक्कते कि शादी न हो जाय ख़बर लेते रहें ताकि मारपीट और खून-ख़राब न हो जाये। शाम होते-होते तीस मुसल्ला सिपाहियों की एक जमात उनकी मदद के लिए आ गयी जिनमें से पाँच मजबूत और ज़सीम जवानों को उन्होंने पूर्णा के मकान की हिफ़ज़त के लिए रवाना कर दिया।
शहरवालों ने जब अमृतराय की पेशबन्दियाँ देखी तो निहायत—बर-अफ़रोख्ता हूए और मुंशी बदरीप्रसाद ने मय कई बुजुर्गां के मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाज़िर होकर फ़रियाद मचायी कि अगर सरकार दौलत मदार ने इस शादी के रोकन को कोई बन्दोबस्त न किया तोबलवा हो जाने को अंदेशा है। मगर मजिस्ट्रेटे से साफ़-साफ़ कह दिया कि सरकार को किसी शख्स के फेल में दस्तन्दाज़ी करना मंजूर नहीं है तावक्त़े कि अवाम को उसे फ़ेल से कोई नुकसान न पहुँचे। यह टका-सा ज़वाब पाकर मुंशी जी सख्त महजूब हुए। वहाँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने मुशारों के साथ बैठकर क़तई फ़ैसला किया कि जिस वक्त़ बारात चले उसी वक्त़ पचास आदमी टूट पड़ें। पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की हड्डी-पसली भी तोड़ के धर दें।
बाबू अमृमतराय के लिए वाक़ई यह नाजुक वक्त़ था मगर वो क़ौम का दिलदादा बड़े इस्तिक़लाल व जाँफ़िशानी से तैयारियों में मसरुफ था। शादी की तारीख़ आज से एक हफ्ते पर मुकर्रर की गयी चूँकि जिसादा ताख़ीर करना ख़तरे से खाली न था और यह हफ्ता बाबू साहब ने ऐसी परेशानी में कटा जिसका सिर्फ़ ख़याल किया जा सकता है। अलस्सबाह दो कानिटिस्ब्लों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगाये रोज़ एक बार पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा बेचारी मारे डर के के मरी जाती थी। वो अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यूँ उनको उम्मीद दिलाकर ज़हमत मोल ली। अगर ज़ालिमों ने कहीं उनके दुश्मनों को कोई गजन्द पहुँचाया तो उसका कफ्फ़ारा मेरी ही गर्दन पर होगा। गो उसकी मुहाफ़िज़त के लिए कानस्टिबिल मामूर थे मगर वो रात-भर जागा करती। पत्ता भी खड़कता तो वह चौककर उठ बैठती। जब बाबू साहब को आकर उसके तसकीन देते तब ज़रा उसके जान में ज्ञान आती।
अमृतराय ने खुतूत इधर-उधर रवाना कर ही दिये थे, शादी की तारीख से चार दिन पहले से शुरफा आने शुरु हुए। कोई बम्बई से आता था, कोई मद्रास, कोई पंजाब कोई बंगाल से। बनारस में रिफार्म से इन्तिहा दर्जे का इखतिलाफ था और सारे हिन्दोस्तान के रिफ़ार्मरों के जी से लगी हुई थी कि चाहे हो, बनारस में रिफ़ार्म को रोशनी फैलाने का ऐसा नादिर मौक़ा हाथ से न देना चाहिए। वो इतनी दूर की मंजिले तय करके इसीलिए आये थे कि शादी का कामयाबी के साथ अंजाम तक पहुँचाये। वो जानते थे कि अगर इस शहर में ये शादी हो गयी तो फिर इस सूबे के दूसरे शहरों के रिफ़ार्मरों के लिए बड़ी आसानी हो जाएगी। अमृतराय मेहमानों की आवभगत में मशगूल थे और उनके पुरजोश पैरो जिनकी तादाद कलिज के दस-बारह तुलबा पर महदूद थी, साफ-सुथरी पोशाक पहने स्टेशन पर जाकर मेहमानो की तक़दीम करते और उनके तवाज़ो-तकरीम में बड़ी सरगर्मी दिखाते थे। शादी के दिन तक यहाँ कोई डेढ़ सौ शुरफा मुजतमा हो गये। अगर कोई शख्स हिन्दोस्तान की रौशनी, हुब्दुल वतनीव जोशे कौम को यकजा देखपना चाहता हो इस वक्त़ बाबू अमृत राय के माकन पर देख सकता था। बनारस के पुराने खयालवाले अहसहाब इन तैयारियों और मेहमानों की कसरत को देख-देकर दिल में हैरानी होते थे। मुंशी बदरीप्रसाद साहब और उनके हमख़याल आदमियों में कई बार मशवरे हुए हुए और हर बार कतई फ़ैसला हुआ कि चाहे जो हो मगर मारपीट ज़रुरी की जाए। चुनांचे सारा शहर आमादये जंगोकारज़ार था।
शादी के क़ब्ल को बाबू अमृतराय अपने पुरजोश पैरवों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहाँ उनको बारतियों की खातिर व तवाज़ो करने के लिए मामूर किया। बाद अज़ॉँ पूर्णा के पास गये। वो उनको देखते ही आबदीदा हो गयी।
अमृतराय—(गले से लगाकर) प्यारी पूर्णा, डरो मत। ईश्वर चाहेगा तो दुश्मन हमारे बाल भी बीका न कर सकेगे। हम कोई गुनाह नहीं कर रहे है। कल जो बारात तुम्हारे दरवाज़े पर आएगी वैसी बारात आज तक शहर में किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी।
पूर्णा—मगर मैं क्या करुँ? मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि कल ज़रुर मारपिट होगी। मैं चारों तरफ़ यह ख़बर सुन रही हूँ। इस वक्त़ भी मुंशी बदरीप्रसाद के यहाँ लोग, जमा है।
अमृतराय—प्यारी, तुम इन बातों का जरा भी अन्देशा न करो। मुंशी जी के यहाँ तो ऐसे मशवरे महीनों से हो रहे है और हमेशा हुआ करेगे। इसका क्या खौफ है? तुम दिल को मज़बूत रखो। बस यह रात और दरमियान है। कल प्यारी पूर्णा मेरे ग़रीबख़ाने पर होगी। हाय, वो मेरे लिए कैसा खुशी का वक्त़ होगा।
पूर्णा यह सुनका वाक़ई अपने खौफ को भूल गयी। उसने अमृतराय को प्यार की निग़ाहों से देखा और जब बाबू साहब चलने लगे तो उनके गले से लिपट गयी और बोली—प्यारी अमृतराय, तुमको मेरी क़सम इन जालिमों से बचते रहना। आफ़वहों को सुन-सुन के मेरी रुह फ़ना हुई जाती है।
अमृतराय ने उसे सीने से लशफ्फी व दिलासा देकर अपने मकान को रवाने हुए। शाम के वक्त़ पूर्णा के मकान पर कई पंडित जिनकी शक्ल से शराफत बरस रही थी, रेश्मी मिर्जाइयाँ पहने, गले में फूलों का हार डाले, आये और वेद की रीति से रसूमात अदा करने लगे। पूर्णा दुलहिन की तरह सजायी गयी। भीतर-बाहर गैस की रोशनी से मुनव्वर हो रहा था। कानिस्टिबिल दरवाजे पर टहल रहे थे। वो नये खून और नयी रोशनी के तुलाब जिनको अमृतराय यहाँ पर तैनात कर गये थे, तैयारियों में मसरूफ थे। दरवाज़े का सेहन साफ़ किया जा रहा था। फ़र्श बिछाया जा रहा था। कुर्सियाँ आ रही थी। सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और अलस्सबाह बारात अमृतराय के घर से रवाना हुई।
माशेअल्ला, क्या महज्जब बारात था और कैसे महज्जब बाराती, न बाज़ो का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगलों की घो-पों, -पो न पालकियों का झुरमुट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेल-पेल, न वर्दीपोश असबरदारों की कतार, न गुल न गुलदस्ते। बल्कि सफेदपोशों की एक जमात थी जो आहिस्ता-आहिस्ता चहलकदमी करती अपनी संजीदा रफ्तार से अपनी मुस्त किलमिज़ाजी का सुबूत देती हुई चली जा रही थी। हाँ, ई जाद यह थी की दोरुया जंगी पुलिस के आदमी वर्दियाँ डाले सीटे लिये खड़े थे। सड़क के इधर-उधर जा-बजा झुंड के झुंड आदमी लाठियाँ लिये जमा नज़र आते थे और बारात की तरफ देख-देखकर दॉँत पीसते।
मगर पुलिस का वो रोब था कि किसी क़दम हिलाने की जुरअत न पड़ती। बारातियों के पचास क़दम के फ़सले पर रिज़र्व पुलिस के सवार हथियारों से लैंस घोड़े पर रनपटरी जमाये भाले चमकाते और घोड़ों को उछालते चले जाते थे। ताहम हा लम्हा ये अन्देशा था कि कहीं पुलिस के खौफ का ये तिलिस्म टूट न जाए। बारातीयों के चेहरे से भी कामिल इत्मीनान नहीं जाहिर होता था और बाबू अमृतराय जो इस वक्त़ निहायत खूबसूरत वज़ा की शेरावानी पहने हुए थे, चौंक-चौंक कर इधर-उधर देखते थे। ज़रा भी खटपट होती तो सबके कान खड़े होते। एक मर्तबा ज़ालिमों ने वाकई धावा बोल दिया। फौरन चौतरफ़ा सन्नाटा छा गया मगर मिलिटरी पुलिस ने क्विक मार्च किया और दम के दम में चन्द शोरापुश्तों की मुश्के कस ली गयीं। फिर किसी को अपनी मुफ़सितापरदाज़ी को अमली सूरत में लाने का गुर्दा न हुआ। बारे खुदा-खुदा करके कोई आधा घण्टे मे बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची। वहाँ पहले ही बाराती असहाब के खैर मक़दम का सामान किया गया था। सेहन में फ़र्श लगा हुआ था। कुर्सियों करीने मसरुफ़ थे और कुंड के इर्द-गिर्द चन्द पंडितो बैठे हुए वेद के श्लोक बड़ी खुशइलहानी से गा रहे थे। हवन की खुशबू से सारा मुहल्ला मुअत्तर हा रहा था। बारातियों के आते हीसब की परेशानी पर चन्दन और जफ़रान मला गया, सबके गलों में खूबसुरत हार पहनाये गये। बाद अज़ॉँ दूल्हा मय चन्द असहाब के मकान के अन्दर गया और वहाँ वेद रीति से शादी का रस्म अदा किया गया। न गीत हुआ न नाच न गाली-गलौज। बेचारी पूर्णा को सम्हालनेवाली कोई न था, सिर्फ बिल्लों मश्शाता का काम भी करती थी और ज़लीस का भी। अन्दर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियाँ और सोटे लिए गुल मचा रहे थे। पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के गिर्द एक हलका बॉँध खड़े थे। तमाम बाराती दम ब खुद थ। इसी वक्त़ में पुलिस का कप्तान भी आ पहुँचा। उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जए और दम के दम में पुलिसवालों ने सोटो से मार-मारकर उस तूफ़ाने बेतमीज़ी को हटना शुरु किया। जंगी पुलिस ने डरने-के लिए बन्दूकों की दो-चार बाढ़े हवा मे सर कर दी। अब क्या था चौतरफ़ा भगदड़ मच गयी। मगर हमे उसी वक्त़ ठाकुर ज़ोरावर सिंह दोहरी पिस्तौल बॉँधे नजर पड़ा। उसकी मूँछे खड़ी थीं। आँखें से अंगारे उड़ रहे थे। उसको देखते देखते ही वो बेकायदा जो तित्तर-बित्तर हो रही थी फिर जमा होने लगी, जिस तरह सरदार को देखकर भागती हुई फौज दम पकड़ ले। एक लमहे में कोई हज़ारहा आदमी इकट्ठा हो गये और दिलावर ठाकुर ने ज्यूँ ही एक नारा मारा ‘जय दुर्गा जी की’ त्यूँ ही सारी जमात के दिलो में गोया कोई ताजा रुह आ गयी। जोश भड़कर उठा। खून में हरकत पैदा हुई और सब के सब दरियाकी तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े। मिलिटरी पुलिसवाला भी संगीन खोले हुए कतार के कतार हमले के मुन्तजिर खड़े थे। चौतरफ़ा एक खौफ़नाक सन्नाटा छाया हुआ था कि अब कोई दम में खून की नदी बहा चाहती है। पुलिस कप्तान बड़ी पामर्दी से अपने आदमियों का उभार रहा था कि दफ़अतन पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी जमीन पर गिर पड़ी, मगर जख्म नहीं लगा। कप्तान ने देख लिया था कि पिस्तौल ज़ोरावर सिंह ने सर किया है। उसने भी चट अपनी बन्दूक सम्हाली और बन्दूक का शाने तक लाना था कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहा। उसका गिरना था कि दिलावर सिपाहियों ने धावा किया और वो जमाता बदहवास होकर भागी। जिसके जहाँ सींग समये, चल निकला। कोई आधा घण्टे में चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया। बाहर तो यह तूफान बर्पा था, अन्दर दूल्हा और दुल्हन मारे डर के सूखे जाते। पूर्णा थर-थर काँप रही थी। उसको बार-बार रोना आता था कि ये मुझ अभागिनी के लिए इतना खून-ख़च्चर हो रहा है। अमृतराय के ख़यालात कुछ और ही थे। वो सोचते थे कि काश मैं पूर्णा के साथ किसी तरह बख़ैरियत मकान तक पहुँच जाता तो दुश्मनों के हौंसले पस्त हो जाते। पुलिस है तो काफ़ी। अरे ये बन्दूके चलाने लगी लीजिये, बेचारा ज़ोरावर सिंह मर गया। आधा घण्टे के ही अन्दर, जो अमृतराय को कई बरसों के बाराबर होता था, मियाँ-बीवी हमेशा के लिए एक-दूसरे से मिला दिये गये और तब यहाँ से बारात की रुखसनी की ठहरी।
पूर्णा एक फ़िनिस में बिठायी गयी और जिस तराह बारात आयी थी उसी तरह रवाना हुई। अब की मुख़लिफौन को सर उठानेकी जुरत न हुई। आदमी इधर-उधर जरुर जमा थे और क़ह़रआलूद निगाहों से इन जमात का देखते थे। इधर-उधर से पत्थर भी चलायये जा रहे थे तालियाँ बजायी जा रही थी, मुँह चिढ़ाया जा रहा था मगर उन शरारतों से ऐसे मुस्तक़िलमिजाज रिफ़ार्मरोकी संजीदगी में क्या खलल आ सकता था। हाँ, अन्दर फिनिस में बैठी हुई पूर्णा रो रही थी। ग़लिबन इसलिए कि दुल्हन दूल्हा के घर जाते वक्त़ जरुर रोया करती है। बारे खुदा-खुदा करके बारात ठिकाने पहुँची। दुल्हन उतारी गई। बारातियों की जान में जान आयी। अमृतराय की खुशी का क्या पूछना। दोड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे। बॉँछ खिली जाती थी। ज्योंही पूर्णा उस सजे हुए कमरे में रौनक अफ़रोज हुई, जो खुद भी दुल्हन की तरह सजा हुआ था, अमृतराय ने उसे आकर कहा—‘प्यारी, लो हम बख़ैरियत पहुँच गये। ऐ, तुम तो रो रही हो’ यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके आँसू पोंछे और उसको गले से लगाया।
पूर्णा को कुछ थोड़ी-सी खूशी महसूस हुई। उसकी तबीयत खुद-ब-खुद सम्हल गयी। उसने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली—अब यहीं मेरे पास बैठिए आपको बाहर न जाने दूँगी। ओफ, जालिमों ने कैसा ऊधम मयाचा।
इस मुबारक रस्म के बाद बारातियों के चलने की तैयारियाँ होने लगी। मगर सबने इसरार किया कि लाला धनुखधारीलाल सबको अपनी तकरीर से एक बार फ़ैजियाब करें। चुनांचे दूसरे दिन अमृतराय के बँगले के मुकाबिलवाले सेहन मे एक शामियाना नसब कराया और बड़े धूमधाम का जलसा हुआ। वो धुँआधार तकरीरे हुई कि सैकड़ों आदमियों के कुफ्र टूट गये। एक जलसे की कामयाबी ने हिम्मत बढ़ायी, दो जलसे और हुए और दूनी कामयाबी के साथ। सारा शहर टूट पड़ता था। पुलिस का बराबर इन्तज़ाम रहा। वही लोग जो कल रिफ़ार्म के ख़िलाफ लाठियाँ लिय हुए थे, आज इन तक़रीरों को गौर से सुनते थे और चलते वक्त़ गो उन बातों अमल करने के लिए तैयार न हों मगर इतना जरुर कहते थे कि यार, यह सब बातें तो ठीक कहते हैं। इन जलसों के बाद दो बेवाओं की और शादियाँ हुई। दोनों दूल्हे अमृतराय के पुरजोश पैरवों मे से थे और दुल्हनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहाने वाली रामकली थी। चौथे दिन तमाम हज़रात रूखसत हुए। पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी। मगर ताहम बारातियों से मिज़ाजपुर्सी करनी पड़ी और लाला धनुखधारी ने तो तीन फिर आध-आध घंटे तक उसके अख़लाकी तलकीन की।
शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसको एक सर-ब-मोहर लिफ़ाफा दिया। पढ़ा तो प्रेमा का खत था। उसने उसको मुबारकबाद दी थी और बाबू अमृतराय की वह तसवीर, जो बरसों से उसके गले का हार थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी। उस खत की आखिरी संतरे ये थी—
‘’सखी, तुम बड़ी भाग्यवान हो। ईश्वर सदा तुम्हारा सुहाग कायम रक्खे। मेरी हजारों उम्मीदें इस तसवीर से वाबस्ता थीं। तुम जानती हो कि मैंने उसको जान से ज़ियादा अज़ीज रख्रा मगर अब मैं इस काबिल नहीं कि इसकों अपने सीने पर रक्खूँ। अब ये तुमको मुबारक हो। प्यारी, मुझे भूलना मत। अपने प्यारे पति को मेरी तरफ से मुबारकबाद देना। अगर जिंदा रही तो तुमसे ज़रूर मुलाकात होगी।
तुम्हारी अभागी सखी
प्रेमा’’
पूर्णा ने इसको बार-बार पढ़ा। उसकी आँखों में आँसू भर आये। इस तसवीर को गले में पहन लिया और निहायत हमदर्दाना लहजे में इस खत का जवाब लिखा।
अफ़सोस, आज के पन्द्रहवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बॉँध दी गयी। बड़े धूमधाम से बारात निकली। हज़ारों रूपया लूटा दिया गया। कई दिन तक साराशहर मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दरवाजे परनाच देखतर रहा। लाखों का वारा-न्यारा हो गया। शादी के तीसरे ही दिन बाद मुंशी जी रहिये मुल्के बक़ा हुए। खुद उनको म़गफिरत करे।

ग्यारहवाँ बाब-दुश्मन चे कुनद चु मेहरबाँ बाशद दोस्त

मेहमानों की रूखमती के बाद ये उम्मीद की जाती थी कि मुखालिफीन अब सर न उठायेगें। खूसूसन इस वजह से कि उनकी ताकत मुशी बदरीप्रसाद और ठाकुर जोरावर सिंह के मर जाने से निहायत कमजोर-सी हो रही थी। मगर इत्तफाक में बड़ी कूवत है। एक हफ्ता भी न गुजरने पाया था, अन्देशा कुछ-कुछ कम ही चला था कि एक रोज सुबह को बाबू अमृतराय के तमाम शार्गिदपेशे उनकी खिदमत में हाजिर हुए और अर्ज किया कि हमारा इस्तीफा ले लिया जाए। बाबू सहाब अपने नौकरों से बहुत अच्छा बर्ताव रखते थे। पस उनको इस वक्त सख्त ताज्जुब हुआ। बोले—तुम लोग क्या चाहते हो? क्यूँ इस्तीफा देते हो?
नौकर—अब हुजूर हम लोग नौकरी न करेंगे।
अमृतराय—आखिर इसकी कोई वजह भी है। अगर तुम्हारी तनख्वाह कम हो तो बढ़ायी जा सकती है। अगर कोई दूसरी शिकायत हो तो रफा की जा सकती है। ये इस्तीफे की बातचीत कैसी औरफिर सब के सब एक साथ।
नौकर—हुजूर, तनख़ा की हमको जरा भी शिकायत नहीं। हुजूर तो हमका माई बाप की तरह मानत है। मुदा अब हमार कुछ बस नाहीं। जब हमारे बिरादरी जात से बाहर करत है, हुक्का-पानी बंद करत है, सब कहते है किउनके इहाँ नौकरी मत करों।
बाबू अमृतराय बात की तह तक पहुँच गये। मुख़ालिफ़ीन ने अपना और कोई बस चलता न देखकर सताने का ढ़ंग निकाला है। बोले—हम तुम्हारी तनख्वाह दूनी कर देंगे, अगर अपना इस्तीफा फेर लोगे। वर्ना तुम्हारा इस्तीफा नामजूर, तावक्ते कि हमको और कहीं खिदमतगार न मिल जाये।
नौकर—(हाथ जोड़कर) सरकार, हमारे ऊपर मेहरबानी की जाए। बिरादरी हमको आज ही खरिज कर देगी।
अमृतराय—(डॉँटकर) हम कुछ नहीं जानते, जब तक हमको नौकर न मिलेंगे, हम हरगिज इस्तीफा मंजूर न करेंगे। तुम लोग अंधे हो, देखते नहीं हो कि बिला नौकरों के हमारा काम क्यूँकर चलेगा?
नौकरों ने देखा कि ये इस तरह हरगिज छुटटी न देंगे चुनांचे उस वक्त तो वहाँ से चले आये। दिन-भर खूब दिल लगाकर काम किया। आठ बजे रात के करीब जब बाबू अमृतराय सैर करके आये तो कोई टमटम थामनेवाला न था। चारों तरफ घूम-घूमकर पुकारा। मगर सदाये ना बरखास्त। समझ गये कस्बख्तों ने धोखा दिया। खुद घोड़े को खोला, फेरने की कहाँ फुरसत। साज़ उतार अस्तबल में बॉँध दिया। अंदर गये तो क्या देखते है कि पूर्णा बैठी खाना पका रही है और बिल्लो इधर-उधर दौड़ रही है। नौकरों पर दातँ पीसका रह गये। पूर्णा से कहा—प्यारी, आज तुमको बड़ी तकलीफ़ हो रही है। कम्बख्तों ने सख्तधोखा दिया।
पूर्णा—(हँसकर) आज आपको अपने हाथ की रसोई खिलाऊँगी। कोई भारी इनाम दीजिएगा।
अमृतराय को उस वक्त दिल्लगी कहाँ सूझती थी, बेचारे चावल-दाल खाना भूल गये थे। कश्मीरी बिरहमन निहायत नफ़ीस खाने तैयार करता था। उस शहर में ऐसा बाहुनर बावर्ची कहीं न था। कितने शुरफां उसको नौकर रखने के लिए मुँह फैलाये हुए थे। मगर कोई ऐसी दरियादिली से तनखाह नहीं दे सकता था। उसके जाने काबाबू साहब को सख्त अफसोस हूआ।
अमृतराय ने बीवी से पूछा—ये बदमाश तुमसे पूछने भी आये थे या यूँ ही चले गये?
पूर्णा—मुझसे तो कोई भी नहीं पूछने आया। महराज अलबत्ता आया और रोता था कि मुझे लोग मरने को धमका रहे है।
अमृतराय—(गुस्से से हाथ मलकर) नहीं मालूम ये जालिम क्या करनेवाले है। ये कहकर बाहर आये, कपड़े उतारे। कहाँ तो रोज खिदमतगार आकर कपड़े उतारता था, जूते खोलता था, हाथ-मुहँ धुलवाता और महराज अच्छे से अच्छे खाने तैयार रखता और कहाँ यकायक आज सन्नाटा हो गया। बेचाने नाक-भौ सिकोड़े अंदर फिर गये। पूर्णा साफ थालियों मे खाना परोसे बैठी हुई थी औरदिल मेंखुश भी थी कि आज मुझे उनकी यह खिदमत करनेका मौका मिला। मगर जब उनका चेहरा देखा तो सहम गयी। कुछ बोलने की जुर्रत न पड़ी। हाँ, बिल्ला ने कहा—सरकार आप खामखा उदास होते है। नौकर-चाकर तो पैसे के यार है। यहीसब दो एक रोज इधर उधर रहेंगे फिर आप ही झख मारकर आयेंगे।
अमृतराय—(गुस्से को जब्त करके) नहीं मालूम बिल्लो, ये उन्हीं लोगो की शरारत है, उन्हीं जलिमों ने तमाम नौकरों को उभारकर भगा दिया है। और अभी नहीं मालूम क्या करनेवाले है। मुझे तो खौफ़ है किसारे शहर में कोई आदमी हमारे यहाँ नौकरी करने न आयेगा। हाँ, इलाके पर से कहार आ सकते है मगर वो सब देहाती गँवार होते है। बुजुज़ बार बरदारी के और किसी काम के नहीं होते। ये कहकर खाने बैठे। दो-चार निवाले खाये तो खाना मजेदार मालूम हुआ। पूर्णा निहायत लज़ीज खाने बना सकती थी। इस फन में उसको ख़ास मलका था, मगर जल्दी में बजुज मामूली चीजों के और कुछ न बना सकी थी। ताहम बाबू साहब ने खाने की बड़ी तारीफ की औरआला तौर परउसका सबूत भी दिया। रात तो इस तरह काम चला, अलस्सबा वो बाइसिकिल पर सवार होकर चंद अंग्रेजो से मिलने गये। और बिल्लो बाजार सौदा खरीदने गयी। मगर उसे कितना ताज्जुब हुआ जब कि बनियों ने उसको कोई चीज़ भी न दी। जिस दुकान पर जाती वहीं टका-सा जवाब पाती। सारा बाजार छ़ान डाला। मगर कहीं सौदा नमिला। नाचार मायूस होकर लौटी और पूर्णा से सारा किस्सा बयान किया। पूर्णा ने आज इरादा किया थाकि जरा अपने फन के जौहर दिखलाऊँगी, चीजों के न मिलने से दिल में ऐंठकर रह गयी। नाचार सादे खाने पकाकर धर दिये।
इसी तरह दो-तीन दिन गुजरे। चौथे दिन बाबू साहब के इलाके परसे चंद मोटे-ताजे हटटे-कटटे कहार आये जिनके भद्दे-भद्दे हाथ-पाँव और फूले हुए कंधे इस काबील न थे जो एक तहजीबायाफ्ता जटुलमैन की ख़िदमत कर सकें। बाबू साहब उनकोदेखकर खूब हँसे और कुछ ज़ादेराह देकर उल्टे कदम वापस किया और उसी वक्त मुशी धनुखधारी लाल के पास तार भेजा कि मुझको चंद खिदमतगारों की अशद ज़रूरत है। मुंशी जी साहब पहले हीसे सोचे हुए थे किबनारस जैसे शहर में जिस क़दर मुखालिफत हो थोड़ी है। तार पाते ही उन्होंने अपने होटल से पाँच ख़िदमतगारों को रवाना किया जिनमें एक कश्मीरी महराज भी था। दूसरे दिन ये नये खादिम आ पहुँचे। सब केसब पंजाबी थे जो न बिरादरी के गुलाम थे और न जिनको बिरादरी से ख़ारिज होने का खौफ़ था। उनको भी मुख़ालिफीन ने बरअंगेख्ता करना चाहा। मगर कुछ दॉँव न चला। नौकरों का इंतजाम तो इस तरह हुआ। सौदे का ये बंदोबस्त किया गया कि लखनऊ सेतमाम रोजाना जरूरियात की चीजें इकटठी मँगा ली जो कई महीनों के लिए काफी थी। मुख़ालिफों ने जब देखा कि इन शरारतों से बाबू साहब को कोई गजंद न पहूंचा तो और ही चाल चले। उनके मुवक्किलों को बहकाना शुरू किया कि वो तो ईसाई हो गये है। विधवा विवाह किया है। सब जानवरों का गोश्त खाते है। छूत-विचार नहींमानते। उनको छूना गुनाह है। गो देहात में भी रिफ़ार्म के लेक्चर दिये गये थे और अमृतराय के पुरजोश पैरो मुतवातिर दौरे कर रहे थे मगर इन लेक्चरों में अभी तक विधवा विवाह का जिक्र मसलहतन नहीं किया गया था। चुनांचे जब उनके मुवक्तिलो ने, जिनमें ज़ियादार राजपूत और भूमिहार थे, ये हालात सुने तो कसम खाई कि उनको अपना मुकद्दमा न देंगे। राम-राम, विधवा से विवाह कर लिया। अनकरीब दो हफ्ते तक बाबू अमृतराय साहब के मुवक्किलों में येबातें फैली और मुख़ालिफीन ने उनके खुब कान भरे जिसका नतीजा ये हुआ कि बाबू साहब की वकालत की सर्दबाज़ारी शुरू हो गयीं। जहाँ मारे मुकद्दमों के सॉँस लेने की फुर्सत न मिलती थी वहाँ अब दिन भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी। हत्ता कि तीसरे हफ्ते में एक मुकद्दमा भी न मिला। उनकी बाज़ार ठंडी हुई तो मुशी गुलज़ारीलाल, बाबू दाननाथ साहब की चाँदी हो गयी। जब तीन हफ्ते तक बाबू अमृतराय साहब को इलजाम पर जाने की नौबत न आयी तो जज साहब को ताज्जुब हुआ। वो बाबू अमृतराय साहब की जेहानत व तब्बाई की बड़ी कद्र करते थे और अक्सर उनको अपने मकान पर बुलाकर पेचीदा मुक़द्दमा में उनकी राय लिया करते थे और बारहा उनको संगीन मुकद्दमों की तहक़ीकाती कमीशन का प्रेसीडेंट बनाया था। उन्होंने सरिश्तेदार से उनके इस तरह मफकूद होने का सबब पूछा। सरिश्तेदार साहब कौम के मुसलमान और निहायत रास्तबाज़ आदमी थे। उन्होंने मिन्नोइन सब हाल कह सुनाया। दूसरे दिन अमृतराय को इजलाम परखुद-ब-खुद बुलाया और देहाती ज़मींदारों के रूबरू उनसे देर तक आहिस्ता-आहिस्ता गुफ्तगू की। अमृतराय भी बेतकल्लफी से मुस्करा-मुस्कराकर उनकी बातों का जवाब देते थे। कई वकील उस वक्त साहब व बहादुर के पास काग़जात मुलाहिजे के लिए लाये मगर साहब बहादुर ने जरा भी तवज्जों न की। जब अमृतराय चले गये तो साहब ने कुर्सी से उठकर उनसे हाथ मिलाया औरजरा (ऊँची)आवाज में बोले—अच्छा बाबू साहब, जैसा आप कहता है हम इस मुकद्दमें में उसी माफ़िक करेगा।
जज साहब ये चाल चलकर मुन्तजिर थे कि देखे इसका क्या असर होता है। चुनांचे जब कचहरी बर्खासत हुई तो उन जमींदारों में जिनके मुकद्दमें आज पेश थे यूँ बातें होने लगीं—
ठाकुर साहब—(पगड़ी, बॉँधे, मूछे ऐठे, मिर्जई पहने, गले में बड़े-बड़े दानों का माला डाले) आज जज साहब अमृतराय से खूब-खूब बात करत रहेन। जरूर से जरूर उन्हीं की राय के मुताबिक फैसला होये।
मिश्र जी—(सर घुटाये, टीका लगाये, बरहना तन, अँगौछा कंधे पर रक्खे हुए) हाँ जान तो ऐसे पड़त है। जब बाबू साहब चले लागल तो जज साहब बोलेन किआप जैसा कहेंगे वैसा किया जायगा।
ठाकुर—काव कहीं अमृतराय समान वकील पिरथीमाँ नाहीं बा, बाकी फिर ईसाई होय गवा, रॉँड से बियाह किहेसि।
मिश्र जी—इतने तोपेंच पड़ा है। हमका तो जान पड़त है कि जरूरत मुकद्दमा हार जायें। इतना वकील हते बाकी उनको बराबरी कोऊ नाहीं ना। कइस बहस करत है, मानों सरसुती जिभ्या पर बैठी है। सो अगर उनका वकील किये होइत तो जरूर हमार जीत हुई जात।
इसी तरह की बातें दोनो में हुई चिराग जलते-जलते दोंनो बाबू अमृतराय के पास आये और मुकद्दमें की रूएदाद बयान की और अपने ख़ताओं की मुआफी चाही। बाबू साहब ने पहले ही समझ लिया था कि मुक़द्दमे बहस की कि फरीके सानी के वोकला खड़े मुँह ताका किये और शाम होते-होते मैदान अमृतराय के हाथ जा। इस मुकद्दमे का जीतना कहिए और कचहरी बर्खास्त होने के बादजज साहब का उनको मुबारकबाद देना कहिए कि घर जाते-जाते बाबू साहब के दरवाजे पर मुवक्किलों की भीड़ लग गयी और एक हफ्ते के अंदर-अंदर उनकी वकालत दूनी आबो-ताब से चमकी। मुख़ालिफो को फिर नीचा देखना पड़ा। सच है खुदा मेहरबान होतो कुल मेहरबान।
इसी असना में वो घाट जो बाबू साहब सरफे कसीर से बनवा रहे थे तैयार हो गया और मुख़ालिफीन को भी मजबूरन मोतरिफ़ होना पड़ा कि ऐसा खूबसूरत घाट इस सूबे में कहीं नहीं। चौतरफा संगीन चारदीवारी खिंची हुई थी। और दरिया से नहरों केरास्सते पानी आता था। अनाथालय भी तैयार हो गया। अख्खा कैसी आलीशान पुख्ता इमारत थी। ऐन दरिया के किनारे पर। उसके चारों तरफ अहाता घेरकर फूल लगा दिया था। फाटक पर संगमरमर के दो तख्ते वस्ल किये हुए थे। एक पर उन असहाब के असमाये गिरामी खुदे हुए थे। जिनकी फय्याजी से वो इमारत तामीर हुई थीऔर दूसरे पर इमारत का नाम और उसके अग़राज जली हुरूफ़ में लिखे हुए थे। गो इमारत तामीर हो चुकी थी मगर अभी तक दस्तूर-उल-अमल की पूरी पैरवी न हो सकी थी। दिक्कत यह थी कि सीना-पिरोना, गुल-बूटे काढ़ना, जुर्रब वगैरह बनाना सिखाने के लिए हिन्दुस्तानियाँ न मिलती थीं, हाँ, लाला धनुखधारीलाल साहब पर उनके मुहैया करने का बार डाला गया था और बहुत जल्द कामयाबी की उम्मीद थी। इस इमारत का इफ्तिताही जलसा बड़े धूमधाम से हुआ। दिलदारनगर के महाराजा साहब ने जो खुद भी निहायत फ़य्याज और नेक मर्द थे इमारत कोदस्ते मुबारक से खोला औरगो खुद विधवा विवाह के मुखालिफीन में थे, मगर इस अनाथालय के साथ सच्ची हमदर्दी जाहिर कीऔर बाबू अमृतराय के मसाइए जमीला की क़रार वाक़ई दाद दी। शहर के तमाम शुरफ़ा बिला इस्तस्ना इस जलसे में शरीक हुए और महाराजा साहब की बामौक़ा फय्याजी ने दम की दम में कई हजार रूपया वसूल करा दिया। और आज अमृतराय को मालूम हुआ कि मैंने अपनी ज़िंदगी में कुछ काम किया है।
जब से शादी हुई थी, पूर्णा नेबाबू साहब को कभी इतना खुश न पाया था जितना शादी से पहले पाती थी। इस पूरे महीने भर बेचारे तरद्दुदात में मुबतला थे। एक हफ्ता मेहमानों की रूखमती में लगा। एक हफ्ते तक नौकरों ने तकलीफ दी। बाद अजाँ दो-तीन हफ्ते तक वकालत की सर्दबाज़ारी रही जो इस वजह से और भी तफ़क्कुर का बाइस हो रही थी किघाट और अनाथलय के ठेकेदारों के बिल अदा करने थे। जब जरा वकालत सुधरी तो इस इफ्तिताही जलसे की तैयारियाँ शुरू हुई। गरज़ इस डेढ़ महीने तक उनको तफ़क्कुरात से आजादी न मिली। आज जब वह आये तो अज़हद खुश थे। चेहरा मुनव्वर हो रहा था। पूर्णा उनको मुतफक्किर देखती तो उसको निहायत रंज होता था और उनकी फ़िक्र दूर करने की बराबर कोशिश किया करती थी। आज उनको खुश देखा तो निहाल हो गयी। बाबू साहब ने उसे गले से लगाकर कहा—प्यारी पूर्णा, हमको आज मालूम होता है कि जिंदगी में कोई काम किया।
पूर्णा—ईश्वर आपके इरादों में बरकत दे। अभी आप न मालूम क्या-क्या करेंगे?
अमृतराय—तुमको इस अनाथालय की निगरानी करनी होगी। क्यों अच्छी होगा न?
पूर्णा—(हँसकर) तुम मुझे सिखा देना।
अमृतराय—मैं तुमको लेकर मद्रास और पूना चलूँगा। वहाँ के खैरातखानों का इंतजाम देखूँगा। और जरूरत के मुआफ़िक तरमीम करके वही कवाइद यहाँ भी जारी करूँगा। प्यारी, कल से तुमको मिस विलियम गाना सिखाने आया करेंगी।
पूर्णा—(हँसकर)तुम मुझे क्या-क्या सिखलाओगे। मुझसे ब्याह करने में नुमने धोखा खाया।
अमृतराय—बेशक धोखा खाया। मुहब्बत की बला अपने सर ली। इसी तरह देर तक बातें होती रहीं। आज दोनां मियाँ-बीवी बड़े चैन से बसर करने लगे। ज्यूँ-ज्यूँ दोनो की फ़ितरती खूबियाँ एक-दूसरे पर जाहिर होती थीं, उनकी मुहब्बत बढ़ती जाती थी। बीवी शौहर बीवी का दिलदादा, दोनों एकजान दो कालिब थे। जब बाबू अमृतराय कचहरी जाते तो पूर्णा गाना सीखती। जब वह कचहरी से आ जाते तो उनको गाना सुनाती। बाद अजाँ दोनो शाम को बाग़ में सैर करते। इसी तरह हँसी-खुशी एक महीना तय हो गया। खुशी के अय्याम जल्द कट जाते है।

बारहवाँ बाब-शिकवए ग़ैर का दिमाग किसे

यार से भी मुझे गिला न रहा।
प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, परीशान, उसके दिल मेंअभी तक बाबू अमृतराय की मुहब्ब्त बाकी है। वह हर चंद चाहती है कि दिल से उनकी सूरत निकाल डाले मगर उसका कुछ काबू नहीं चलता। गो बाबू दाननाथ उसके साथ सच्ची मुहब्बत ज़ाहिर करते हैं और अलावा वजीह-ओ-शकील नौजवान होने के निहायत हँसमुख, जरीक़तबा व मिलनसार आदमीहै मगर प्रेमा का दिल उनसे नहीं मिलता। वो उनकी खातिर करने में कोई दकीका नहीं फ़रोगुज़ाश्त करती। जब वे मौजूद होते है तो वो हँसती भी है, बातचीत भी करती है, मुहब्बत भी जताती है मगर जब वो चले जाते है तो फिर वो ग़मगीन होती है। अपने मौके में उसको रोने की आजादी थी। यहाँ रो भी नहीं सकती। या रोती है तो छुपकर। उसकी बूढ़ी सास उसको पान की तरह फेरा करती है न सिर्फ इस वजह सेकि वो उसका पास-ओ-लिहाज़ करती है। बल्कि इस वजह से कि वो अपने साथ निहायत बेशक़ीमत चीज लायी है। बेचारी प्रेमा की जिंदगी वाक़ई नाकाबिले रश्क है। उसकी हँसी जहरखंद होती है। वो कभी-कभी सास के तक़ाजे से सिंगार भी करती हैमगर उसके चेहरे पर वो रौनक़ और चमक-दमक नहीं पायी जाती जो दिली इत्मीनान का परतौ होती है। वो ज़ियादातर अपने ही कमरे में बैठी रहती है। हाँ कभी-कभी गाकर दिल बहलाती है। मगर उसका गाना इसलिए नहीं होता कि उसको खुशी हासिल हो। बरअक्स इसके वो दर्दनाक नग़मे गाती है और अक्सर रोती है। उसको मालूम होता है किमेरे दिल पर कोई बोझ धरा हुआ है।
बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे। कि प्रेमा अमृतराय पर जान देती है। मगर उन्होने समझा था किउसकी मुहब्बत मामूली मुहब्बत होगी। जब मैं उसको ब्याह कर लाऊँगा और उसके साथ इख़लाम व प्यार से पेश आऊँगा तो वो सब भूल जायगी और फिर हमारी ज़िंदगी बड़े इत्मीनान से बसर होगी। चुनांचे एक महीने तक उन्होंने उसकी दिलगिरफ्तगी की बहुत ज्यादा परवा न की। मगर उनको क्या मालूम था कि वो मुहब्बत का पौधा जो पाँच बरस तक खूने दिल से सींच-सींचकर परवान चढ़ाया गया है महीने-दो-महीने में हरगिज नहीं मुरझा सकता। उन्होंने दूसरे महीने भर भी जब्त किया मगर जब अब भी प्रेमा के चेहरे पर शिगुफ्त़गी व बशाश्त न नजर आयी तब तो उनको सदमा होने लगा। मुहब्बत और हसद का चोली-दामन का साथ है। दाननाथ सच्ची मुहब्बत करते थे मगर सच्ची मुहब्बत के एवज सच्ची मुहब्बत चाहते भी थे। एक रोज वो मामूल से सबेरे मकान पर वापस आये और प्रेमा के कमरे मे गये तो देखा कि वो सर झुकाये बैठी है। उनको देखते ही उसने सर उठाया, हाय। मुहब्बत के लहजे में बोली—मुझे आज न मालूम क्यूँ लाला जी की याद आ गयी थी। बड़ी देर से रो रही हूँ।
दाननाथ ने उसको देखते ही समझ लिया था कि अमृतराय के फ़िराक में ये आँसू बहाये जा रहे है। उस प्रेमा ने जो यूँ हवा बतलायी तो उनको निहायत नागवार मालूम हुआ। रूखे लहजे में बोले—तुम्हारी आँखे है, तुम्हारे आँसू भी, जितना रोया जाय रो लो। चाहे ये रोना किसी ज़िदा आदमी के लिए हो या मुर्दा के लिये।
प्रेमा इस आखिरी जुमले पर चौंक पड़ी और बिला जवाब दिये शौहर की तरफ मुस्तफ़सिराना निगाहों से देखने लगी। दाननाथ ने फिर कहा—क्या ताकती हो प्रेमा, मैं ऐसा अहमक़ नहीं हूँ।मैने भी आदमी देखे है और आदमी पहचानता हूँ। गो तुमने मुझको बिलकुल घोंघा समझ रखा होगा। मैं तुम्हारी एक-एक हरकत को गौर से देखता हूँ, मगर जितना ही देखता हूँ उतना ही ज्यादा सदमा दिल को होता है क्योंकि तुम्हारा बर्ताव मेरे साथ फीका है। गौ तुमको ये सुनना नागवार मालूम होगा मगर मजबूरन कहना पड़ता है कि तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करती। मैंने अब तक इस नाजुक मुआमले परज़बान खोलने की जुर्रत नहीं की। और ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हारी किस कदर मुहब्बत करता हूँ। मगर मुहब्बत चाहे जो कुछ भी बर्दाश्त करे, बेनियाजी बर्दाश्त नहीं कर सकती, और वे भी कैसी बेनियाजी, जिसका वजूद किसी रकीब के फ़िराक से हो। कोई आदमी खुशी से नहीं देख सकतर कि उसकी बीवी दूसरे के फ़िराक़ में आँसू बहाये। क्या तुम नहीं जानती हो कि हिन्दू औरत को शास्त्र के मुताबिक अपने शौहर के अलावा किसी दूसरे का ख्याल करना भी गुनाहगार बना देता है। प्रेमा, तुम एक आला दर्जे के शरीफ़ खानदान कीबेटी हो औरजिस खानदान की तुम बहू हो वो भी इस शहर में किसी से हेठा नहीं। क्या तुम्हारे लिए ये बाइसे नंग वशर्म नहीं है कि तुम उस आदमी के फ़िराक में आँसू बहाओ जिसने बावजूद तुम्हारे वालिद के मुतवातिर तकीज़ों के एक आवारा रॉँड बरहमनी को तुम परतरजीह दी। अफ़सोस है कि तुम उस आदमी को दिल में जगह देती हो जो तुम्हारा भूलकर भी ख्याल नहीं करता। इन्हीं आँखो ने अमृतराय को तुम्हारी तस्वीर पुरजा-पुरजा करके पैरों तले रौंदते देखा है। इन्हीं कानों ने उनको तुम्हारी शान में जा-ओ-बेजा बातें कहते सुना है। तुमको ताज्जुब क्यों होता है प्रेमा, क्या मेरी बातों का यकीन नहीं आया? क्या अमृतराय ने उन सर्दमेरियों काआला सुबूत नहीं दे दिया? क्या उन्होंने डंके की चोट नहीं साबित कर दिया कि वो खाक बराबर तुम्हारी कद्र नहीं करते? माना कि कोई जमाना वो था जब वो भी तुमसे शादी करने का अरमान रखते थे मगर अब वो अमृतराय नहीं रह गया। अब वो अमृतराय है, जिसकी आवारगी और बदचलनी की शहर का बच्चा-बच्चा कसम खा सकता है। मगर अफ़सोस तुम अभी तक उस नंगे खानदान के फ़िराक में आँसू बहा-बहाकर अपने और मेरे ख़ानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती हो।
दाननाथ गुस्से के जोश में थे। चेहरा तमतमाया हुआ था और आँखो से शोले न निकलते हो मगर इन्तिहा दर्जे की रोशनी जरूर पायी जाती थी। प्रेमा बेचारी सर नीचा किये खड़ी रो रही थी। शौहर की एक-एक बात उसके सीने के पार हुई जाती थी। सुनते-सुनते कलेजा मुँह को आ गया आखिर जब्त न हो सका, न रहागया। दाननाथ के पैरों पर गिर पड़ी और गर्म-गर्म अश्क के क़तरों से उनको भिगो दिया। दाननाथ ने फौरन पैर खिसका लिया। प्रेमा को चारपाई परबिठा दिया और बोले—प्रेमा, रोओ मत, तुम्हारे रोने से मेरे दिल को सदमा होता है। मैं तुमको रूलाना नहीं चाहता था मगर उन बातों को कहे बिना रह भी नहीं सकता था तो अगर दिल में रह गयीं तो नतीजा बुरा होगा। कान खोलकर सुनों। मैं तुमको जान से जियादा अजीज़ रखता हूँ। तुम्हारी आसाइश के लिए मै अपनी जान निछावर करने के लिए हाजिर हूँ। मैं तुम्हारे ज़रा से इशारे पर अपने को सदके कर सकता हूँ, मगर तुमको सिवाय अपने किसी और का ख़याल करते नहीं देख सकता। हाँ प्रेमा, मुझसे अब यह नहीं देखा जा सकता। एक महीने से मुझको यही दिक्कत हो रही है। मगर अब दिल पक गया है। अब वो जरा-सी ठेस भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर इस अगाहीं पर भी तुम अपने दिल परकाबू न पा सको तो मेरा कुछ कुसुर नहीं। बस इतना कहे देता हूँ कि एक औरत के दो शौहर नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहते हुए बाबू दाननाथ गुस्से में भरें बाहर चले आये। बेचारी प्रेमा को ऐसा मालूम हुआ गोया किसी ने कलेजे में छुरी मार दी। उसको आज तक किसी ने भूलकर भी कोई कड़ी बात नहीं सुनायी थी। उसकी भावज कभी-कभी ताने दिया करती थीं मगर वो ऐसे सख्त नहीं मालूम होते थे। वो घण्टों रोती रही। बाद अज़ॉँ उसने शौहार की सारी बातों को सोचना शुरू किया और उसके कानों में यह आखिरी अलफाज़ गूँजने लगे, ‘एक औरत के दो शौहर जिंदा नहीं रह सकते।‘
इनका क्या मतलब है?

तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय कचहरी चले जाते तो अकेले उसका जी घबराता। पस उसने एक रोज़ उनसे कहा—कि अगर कोई हर्ज न हो तो रामकली और लछमी को इसी जगह बुला लीजिए ताकि उनकी सोहबत में वक्त कट जाया करे। रामकली को नाज़रीन जानते है। लछमी भी एक कायस्थ की लड़की थी और गौने के ही दिन बेवा हो गयी थी। इन दोनों औरतों ने पूर्णा की शादी हो जाने के बाद अपनी रजामंदी से दूसरी शादियाँ की थीं और बाबू अमृतराय ने उनके लिए मकान किराए पर लिया था और उनकी ख़ानादारी के एखराजात के मुतहम्मिल भी होते थे। बाबू साहब को पूर्णा की तजवीज़ बहुत अच्छी मालूम हुई और दूसरे ही दिन रामकली और लछमी इसी बँगले के एक हिस्से में ठहरा दी गयीं। पूर्णा ने इन दोनों औरतों को शादी होने के बाद नदेखा था। अब रामकली को देखा तो पहचानी न जाती थी और लछमी ने भी खूब रंग-रूप निकाले थे। दोनो औरतें पूर्णा के साथ हँसी-खुशी रहने लगी। बाबू साहब की तजबीज थी कि इन औरतों की तालीम अच्छी हो जाय तो अनाथलय की निगरानी उन्हीं के सुपुर्द रि दूँ। चुनांचे एक हुनरमंद लेड़ी अपनी सास को कोसा करतीथी। एक रोज पूर्णा ने उससे मुस्कराकर पूछा—क्यूँ रमन, आजकल मंदिर पूजा करने नहीं जाती हो?
रामकली ने झेंपकर जवाब दिया—सखी, तुम भी कहाँ का जिक्र ले बैठी। अब तो मुझको मंदिर के नाम से नफ़रत है।
लछमी को रामकली के पहले हालात मालूम थे। वो अक्सर उसको छेड़ा करती। उस वक्त् भी न रहा गया। बोल उठी—हाँ बुआ, अब मंदिर काहे का जाओगे। अब तो हँसने-बोलने का सामान घर ही पर मौजूद है।
रामकली—(तुनककर) तुमसे कौन बोलता है, जो लगीं ज़हर उगलने। बहन, इनको मना कर दो, ये हमारी बातों में न दखल दिया करें नहीं तो मै कभी कुछ कह बैठूँगी तो रोती फिरेंगी।
लछमी—(मुस्कराकर) मैंने झूठ थोंड़े कहा था जो तुमको ऐसा कड़वा मालूम हुआ। सो अगर सच बात कहने में ऐसी गर्म होती हो तो झूठ ही बोला करूँगी। मगर एक बात बतला दो। महतजी ने मंतर देते वक्त तुम्हारे कान में क्या कहा था। हमारी भती खाये जो झूठ बोले।
पूर्णा हँसने लगी मगर रामकली रूआँसी होकर बोली—सुनो लछमी, हमसे शरारत करोगी तो ठीक न होगा। मैं जितना तरह देती हूँ तुम उतना ही सर चढ़ी जाती हो। आपसे मतलब: महंत ने मेरे कान में कुछ ही कहा था। बड़ी आयी वहाँ से सीता बन के।
पूर्णा—लछमी, तुम हमारी सखी को नाहक सताती हो। जो पूछना हो ज़र मुलायमत से पूछना चाहिए कि यूँ। हाँ बुआ, तुम उनसे न बोलो, मुझको बतला दो उस तमोली ने तुमको पान खिलाते वक्त क्या कहा था?
रामकली—(बिगड़कर) अब तुम्हें भी छेड़खानी की सूझी। मैं कुछ कह बैठूगी तो बुरा मान जाओगी।
इसी तरह तीनों सखियों में हॅसी-मजाक, बोली-ठोली हुआ करती थी। साथ पढ़तीं साथ हवा खाने जाया करतीं, कई मर्तबा-गंगा स्नान को गयीं। मगर उस जनाने घाट पर जो अमृतराय ने बनवाया था। मालूम होता थाकि तीनों बहनें है। इन्हीं खुशियों में एक महीना गुजर गया। गोया वक्त़ भागा जाता था। मगर फ़लके नाहजा से किसी की खुशी कब देखी जाती है। एक रोज पूर्णा अपनी सखियों के साथ बाग में टहल-टहल के गहने बनाने के लिए फूल चुन रही थी कि एकऔरत ने आके उसके हाथ मे एक खत दिया। पूर्णा ने हर्फ पहचाना। प्रेमा का खत। ये लिखा हुआ था-
‘प्यारी पूर्णा, तुमसे मुलाकात करने का बहुत जी चाहता है। मगर यहाँ घर से पाँव बाहर निकालने की मुमानियत है। इसलिए मजबूरन यह ख़त लिखती हूँ। मुझे तुमसे एक बात कहनी है जो खत में नहीं लिख सकती। अगर तुम किसी मोतबर औरत को इस खत का जवाब देकर भेजो तो उससे जबानी कह दूँगी। निहायत जरूरीबात है।

तुम्हारी सखी,
प्रेमा
ख़त पढ़ते ही पूर्णा का चेहरा जर्द हो गया। उसको इस ख़त की मुख्तसर इबारत नहीं मालूम क्यूँ खटकने लगी। फौरन बिल्लों को बुलाया और प्रेमा के ख़त का जवाब देकर उधर रवाना किया। और उसके वापस आने में आध घंटा जो लगा वो पूर्णा ने निहायत बेचैनी से काटा। नौ बजते-बजते बिल्लों वापस आयी।
चेहरा ज़र्द, रंग फ़क, बदहवास, पूर्णा ने उसको देखते ही पूछा—क्यूँ बिल्लों खैरियत तोहै।
बिल्लों—(परेशानी ठोंककर) क्या कहूँ बहू, कुछ नहीं बनता। न जाने अभी क्या होनेवाला है।
पूर्णा—(घबराकर) क्या कहा, कुछ ख़त-वत तो नहीं दिया?
बिल्लों—ख़त कहाँ से देतीं। हमको अंदर बुलाते डरती थी। देखते ही रोने लगीं और कहा—बिल्लो, मैं क्या करूँ, मेरा जी यहाँ बिलकुल नहीं लगता। मैं अक्सर पिछली बातें याद करके रोया करती हूँ। एक दिन उन्होंने (बाबू दाननाथ) मुझे रोते देख लिया, बहुत बिगड़े, झल्लाये और चलते वक्त धमकाकर कहा कि एक औरत के दो चाहने वाले नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहकर बिल्लो ख़ामोश हो गयी। पूर्णा की समझ मे पूरी बात न आयी। उसने कहा—हाँ-हाँ, खामोश क्यूँ हुई। जल्दी कहो, मेरा दम रूका हुआ है।
बिल्लों ने रोकर जवाब दिया—बहू, अब और क्या कहूँ। दाननाथ की नीयत बुरी है। वो समझते है किप्रेमा बाबू अमृतराय की मुहब्बत में रोती है।
इतना सुनना था कि पूर्णा पर सारी बातें रोशन हो गयीं। पैर तले से मिटटी निकल गयी। कुछ ग़शी-सी आ गयी। दोनों सखियाँ दौड़ी हुई आयीं, उसको संभाला, पूछने लगीं क्या हुआ, क्या हुआ। पूर्णा ने बहाना करके टाल दिया। मगर ये मनहूस खबर उसके कलेजे में तीर की तरह चुभ गयी। ईश्वर से दुआ माँगने लगी कि आज किसी तरह वो सही सलामत घर वापस आ जाते तो सब बातें कहती। फिर ख़याल आया कि अभी उनसे कहना मुनासिब नहीं, घबरा जायेंगे। इसी हैस-बैस में पड़ी थी। शाम के वक्त जब बाबू अमृतराय हस्बे मामूल कचहरी से आये तो देखा कि पूर्णा पिस्तौल लिये खिड़की से किसी चीज पर निशाना लगा रही है। उनको देखते ही उसने पिस्तौला अलग रख दिया। अमृतराय ने हँसकर कहा—शिकार के लिए नजरें काफी है, पिस्तौल पर मश्क करने की क्या जरूरत है।
पूर्णा ने अपनी सरासीमगी को छुपाया और बोली—मुझे पिस्तौल चलाना सिखा दो। मैंने दो-तीन बार चलाया मगर निशाना ठीक नहीं पड़ता।
बाबू साहब को पूर्णा के इस शौक पर अचम्भा हुआ। कहाँ तो रोज उनको देखते ही सब धंधा छोड़कर खिदमत के लिए दौड़ती थी और कहाँ आज पिस्तौल चलाने की धुन सवार है। मगर हसीनों के अंदाज कुछ निराले होते है, ये सोचकर उन्होंने पिस्तौल को हाथ में लिया और दो-तीन मर्तबा निशाना लगाकर उसको चलाना सिखाया। और अब पूर्णा ने फायर किया तो निशाना ठीक पड़ा। दूसरा फायर किया वो भी ठीक, चेहरा खुशी से चमक गया। पिस्तौल रख दिया और शौहर की खातिर व मुदारात में मसरूफ हो गयी।
अमृतराय—प्यारी, आज मैंने एक निहायत होशियार मुसव्विर बुलाया है जो तुम्हारी पूरे क़द की तसवीर बनायेगा।
पूर्णा—मेरी तस्वीर खिंचाकर क्या करोगे?
अमृतराय—कमरे में लगाऊँगा।
पूर्णा—तुम भी मेरे साथ बैठो।
अमृतराय—आज तुम अपनी तसवीर खिंचवा लो, फिर दूसरे दिन हम दोनों साथ बैठेंगे।
पूर्णा तसवींर खिंचाने की तैयारियाँ करने लगी। उसकी दोनों सखियाँ उसका बनाव-सँवार करने लगे। मगर उसका दिल आज बैठा जाता था। किसी नामालूम हादसे का खौफ़ उसके दिल पर गालिब होता जाता था। चार बजे के करीब मुसव्विर आया और डेढ़ घण्टे तक पूर्णा की तसवीर का ख़ाका खींचता रहा। उसके चले जाने के बाद गरूबे आफ़ताब के वक्त बाबू अमृतराय हस्बे मामूल सैर के लिए जाने लगे तो पूर्णा ने पूछा—कहाँ जा रहे हो?
अमृतराय—जरा सैर करता आऊँ, दो-चार साहबों से मुलाकात करना है।
पूर्णा—(प्यार से हाथ पकड़कर) आज मेरे साथ बाग में सैर करों। आज न जाने दूँगी।
अमृतराय—प्यारी, मैं अभी लौट आता हूँ। देर न होगी।
पूर्णा—नहीं, मैं आज न जाने दूँगी।
यह कहकर पूर्णा ने शौहार का हाथ पकड़कर खींच लिया। वो बीवी की इस भोली ज़िद पर बहुत खुश हुए। गले लगाकर कहा—अच्छा लो, प्यारी, आज न जायेंगे।
बड़ी देर तक पूर्णा अपने प्यारे पति के हाथ में हाथ दिये रविशो में टहलती रही और उनकी प्यारी बातों को सुन-सुन अपने कानों को खुश करती रही। वह बार-बार चाहती कि उनसे दाननाथ का सारा भेद खोल दूँ। मगर फिर सोचती कि उनको ख़ामखा तकलीफ होगी। जो कुछ सर पे आयेगी। उनकी खातिर से मै अकेले भुगत लूँगी।
सैर करने के बाद थोड़ी देर तक सखियों ने चंद नगमें अलापे। बाद अजाँ कई साहब मुलाकात के लिए आ गये। उनसे बातें होने लगी। इसी असना में नौ बजने को आए।बाबू साहब ने खाना खाया और अखबार लेकर लेटे। और पढ़ते-पढ़ते सो गये। मगर गरीब पूर्णा की आँखो मेंनींद कहाँ। दस बजे तकवो उनके सिरहानों बैठी एक किस्से की किताब पढ़ती रही। जब तमाम कुनबे के लोग सो गये और चारों तरफ सन्नाटा छा गया तो उसे अकेले डर मालूम होने लगा। वो डरते-डरते उठी और चारों तरफ के दरवाजे बंद कर लिये। अब जरा इत्मीनान हुआ तो पंखा लेकर शौहार को झलने लगी। जवानी की नींद, हजार जब्त करने पर भी एक झपकी आ ही गयी। मगर ऐसा डरावना खाब देखा कि चौंक पडी। हाथ-पाँव थर-थर काँपने लगे। दिल धड़कने लगा, बेअख्तियार शौहर का हाथ पकड़ा कि जगा दो मगर फिर यह समझकर कि उनकी प्यारी नींद उचट जायगी तो उनको तकलीफ़ होगी, उनका हाथ छोड़ दिया, अब इस वक्त उसकी हालत नागुफ्ताबेह है। चेहरा ज़र्द हो रहा है। डरी हुई निगाहों से इधर-उधर ताक रही है। पत्ता भी खड़कता है तो चौंक पड़ती है। लैम्प में शायद तेल नहीं है, उसकी धुँधली रोशनी में वो सन्नाटा और भी खौफ़नाक हो रहा है। तसवीरें जो दीवारों को जीनत दे रही है इस वक्त उसको घूरती हुई मालूम होती है।
यकायक घंटे की आवाज कान में आयी। घड़ी की सुइयों पर निगाह पड़ी। बारह बजे थे। वो उठी कि लैम्प गुल कर दे। दफअतन उसको कई आदमियों के पाँव की आहट मालूम हुई। उसका दिल बॉँसो उछलने लगा। झट पिस्तौल हाथ मे लिया और जब तक वो बाबू अमृतराय को जगाये कि वो मज़बूत दरवाजा आप ही खुल गया और कई आदमी धड़बडाते अंदर घुस आये। पूर्णा ने फौरन पिस्तौल सर किया। तड़ाके की आवाज़ आयी और उसके साथ ही कुछ खटपट की आवाजें भी सुनायी दीं। दो आवाजें पिस्तौल के छुटने की और हुई। फिर धमाके की आवाज़ आयी। इतने में बाबू अमृतराय चिल्लाये—दौड़ो दौड़ो। चोर, चोर।
हम आव़ाज के सुनते ही दो आदमी उनकी तरफ लपके मगर इतने में दरवाजे पर लालटेन की रोशनी नजर आयी और कई सिपाही वर्दियाँ डाले कमरे में दाखिल हो गये। चोर भागने लगे मगर दोनो पकड़े गये। सिपाहियों ने लालटेन लेकर ज़मीन पर देखा तो दो लाशें नज़र आयीं, एक पूर्णा की लाश थी। उसको देखते ही बाबू सिपाहियों ने गौर से देखा तो चौंककर बोले—अरे, यह तो बाबू दाननाथ है। सीने में गोली लग गयी।

ख़ात्मा

पूर्णा को दुनिया से उठे एक बरस बीत गया है। शाम का वक्त़ है। ठंडी, रूहपरवर हवा चल रही है। सूरज की रूखसती निगाहें खिड़की के दरवाजों से बाबू अमृतराय के आरास्ता-ओ-पीरास्ता कमरे में जाती और पूर्णा की कदे आदम तसवीर के क़दमों का चुपके से बोसा लेकर खिसक जाती है। सारा कमरा जगमगा रहा है। रामकली और लछमी जिनके चेहरे इस वक्त़ खिले जाते है, कमरे की आराइश में मसरूक है और रह-रहकर खिड़की की ओट से ताकती हैं, गोया किसी के आने का इंतजार कर रही है। दफ़अतन रामकली ने खुश होकर कहा—सखी, वो देखो, वो आ रहे है। इस वक्त़ उनके लिबास कैसे खुशनुमा होते है।
एक लमहे में एक निहायत खूबसूरत फिटन फाटक के अंदर दाखिल हुई और बरामदे में आकर रूकी। उसमें से बाबू अमृतराय उतरे मगर तनहा नहीं। उनका एक हाथ प्रेमा के हाथ में था। बाबू अमृतराय का वजीह चेहरा गो ज़र्द था मगर उस वक्त़ होंठो पर एक हल्का सा तबस्सुम नुमायाँ था। और गुलाबी रंग की नौशेरवानी और धानी रंग का बनारसी दोपटटा और नीले किनारे की रेशमी धोती उस वक्त़ उन पर कयामत का फबन पैदा कर रही थी। पेशानी पर जाफ़रान का टीका और गले में खूबसूरत हार इस जेबाइश के और भी पर लगा रहे थे।
प्रेमा हुस्न की तसवीर और जवानी की तसवीर हो रही थी। उसके चेहरे पर वह जर्दी और नकाहत, वह पजमुर्दगी और खामोशी न थी जो पहले पायी जाती थी बल्कि उसका गुलाबी रंग, उसका गदराया हुआ बदन, उसका अनोखा बनाव-चुनाव उसे नजरों में खुबाये देते है। चेहरा कुदंन की तरह दमन रहा है। गुलाबी रंग की सब्ज हाशिये की साड़ी और ऊदे रंग की कलाइयों पर चुनत की हुई कुर्ती इस वक्त़ ग़ज़ब ढा रही है। उस पर हाथों में जड़ाऊ कड़े, सर पर आड़ी रक्खी हुई झूमर और पाँव में ज़रदोजी के काम की खुशनुमा जूती और भी सोने में सुहागा हो रही है। इस वजा और इस बनाव से बाबू साहब को ख़ास उल्फत है क्यूँकि पूर्णा की तसवीर भी यही लिबास पहले दिखायी देती है और नजरें अव्वल में कोई मुश्किल से कह सकता है कि इस वक्त़ प्रेमा ही की सूरत मुनअकिस होकर आईने में यह जोबन नहीं दिखा रही है।
बाबू अमृतराय ने प्रेमा को उस कुर्सी पर बिठा दिया जो ख़ास इसीलिए बड़े तकल्लुफ़ से सजायी गयी थी और मुसमराकर बोले—प्यारी प्रेमा, आज मेरी जिंदगी का सबसे मुबारक दिन है।
प्रेमा ने पूर्णा की तसवीर की तरफ़ हसरत-आलूद निगाहों से देखकर कहा—हमारी जिंदगी का क्यों नहीं कहते।
प्रेमा ने यह जवाब दिया ही था कि उसकी नज़र एक सुर्ख चीज़ पर जा पड़ी जो पूर्णा की तसवीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीरी पर धरी हुई थी। उसने फ़र्ते शौक़ से उसे हाथ में ले लिया, देखा तो पिस्तौल था।
बाबू अमृतराय ने गिरी हुई आवाज़ में कहा—ये प्यारी पूर्णा की आखिरी यादगार है। उस देवी ने इसी से मेरी जान बचायी थी।
ये कहते-कहते आवाज़ काँपने लगी और आँखो में आँसू डबडबा आये।
ये सुनकर प्रेमा ने उस पिस्तौल का बोसा लिया और फिर बड़े अदब के साथ उसको उसी मुकाम पर रख दिया।


(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(हिंदी उपन्यास) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=() #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!