एकांत-संगीत हरिवंशराय बच्चन Ekant-Sangeet Harivansh Rai Bachchan

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हरिवंशराय बच्चन - एकांत-संगीत (शेष भाग)
Harivansh Rai Bachchan-Ekant-Sangeet 

व्याकुल आज तन-मन-प्राण - Harivansh Rai Bachchan

व्याकुल आज तन-मन-प्राण!
तन बदन का स्पर्श भूला,
पुलक भूला, हर्ष भूला,
आज अधरों से अपरिचित हो गई मुस्कान!
व्याकुल आज तन-मन-प्राण!
मन नहीं मिलता किसी से,
मन नहीं खिलता किसी से,
आज उर-उल्लास का भी हो गया अवसान!
व्याकुल आज तन-मन-प्राण!
आज गाने का न दिन है,
बात करना भी कठिन है,
कंठ-पथ में क्षीण श्वासें हो रहीं लयमान!
व्याकुल आज तन-मन-प्राण

मैं भूला-भूला-सा जग में - Harivansh Rai Bachchan

मैं भूला-भूला-सा जग में!
अगणित पंथी हैं इस पथ पर,
है किंतु न परिचित एक नजर,
अचरज है मैं एकाकी हूँ जग के इस भीड़ भरे मग में।
मैं भूला-भूला-सा जग में!
अब भी पथ के कंकड़-पत्थर,
कुश, कंटक, तरुवर, गिरि गह्वर,
यद्यपि युग-युग बीता चलते, नित नूतन-नूतन ड़ग-ड़ग में!
मैं भूला-भूला-सा जग में!
कर में साथी जड़ दण्ड़ अटल,
कंधों पर सुधियों का संबल,
दुख के गीतों से कंठ भरा, छाले, क्षत, क्षार भरे पग में!
मैं भूला-भूला-सा जग में!

खोजता है द्वार बन्दी - Harivansh Rai Bachchan

खोजता है द्वार बन्दी!
भूल इसको जग चुका है,
भूल इसको मग चुका है,
पर तुला है तोड़ने पर तीलियाँ-दीवार बन्दी!
खोजता है द्वार बन्दी!
सीखचे ये क्या हिलेंगे,
हाथ के छाले छिलेंगे,
मानने को पर नहीं तैयार अपनी हार बन्दी!
खोजता है द्वार बन्दी!
तीलियो, अब क्या हँसोगी,
लाज से भू में धँसोगी,
मृत्यु से करने चला है अब प्रणय-अभिसार बन्दी!
खोजता है द्वार बन्दी!
HarivanshRai-Bachchan

मैं पाषाणों का अधिकारी - Harivansh Rai Bachchan

मैं पाषाणों का अधिकारी!
है अग्नि तपित मेरा चुंबन,
है वज्र-विनिंदक भुज-बंधन,
मेरी गोदी में कुम्हलाईं कितनी वल्लरियाँ सुकुमारी!
मैं पाषाणों का अधिकारी!
दो बूँदों से छिछला सागर,
दो फूलों से हल्का भूधर,
कोई न सका ले यह मेरी पूजा छोटी-सी, पर भारी!
मैं पाषाणों का अधिकारी!
मेरी ममता कितनी निर्मम,
कितना उसमें आवेग अगम!
(कितना मेरा उस पर संयम!)
असमर्थ इसे सह सकने को कोमल जगती के नर-नारी!
मैं पाषाणों का अधिकारी!

तू देख नहीं यह क्यों पाया - Harivansh Rai Bachchan

तू देख नहीं यह क्यों पाया?
तारावलियाँ सो जाने पर,
देखा करतीं तुझको निशि भर,
किस बाला ने देखा अपने बालम को इतने लोचन से?
तू देख नहीं यह क्यों पाया?
तुझको कलिकाएँ मुसकाकर,
आमंत्रित करती हैं दिन भर,
किस प्यारी ने चाहा अपने प्रिय को ऐसे उत्सुक मन से?
तू देख नहीं यह क्यों पाया?
तरुमाला ने कर फैलाए,
आलिंगन में बस तू आए,
किसने निज प्रणयी को बाँधा इतने आकुल भुज-बंधन में?
तू देख नहीं यह क्यों पाया?

दुर्दशा मिट्टी की होती - Harivansh Rai Bachchan

दुर्दशा मिट्टी की होती!
कर आशा, विचार, स्वप्नों से,
भावों से श्रृंगार,
देख निमिष भर लेता कोई सब श्रृंगार उतार!
आज पाया जो, कल खोती!
मिट्टी ले चलती है सिर पर,
सोने का संसार,
मंजिल पर होता है मिट्टी पर मिट्टी का भार!
भार यह क्यों इतना ढोती!
प्रति प्रभात का अंत निशा है,
प्रति रजनी का, प्रात,
मिट्टी सहती तोम तिमिर का, किरणों का आघात!
सुप्त हो जगती, जग सोती!
दुर्दशा मिट्टी की होती!

क्षतशीश मगर नतशीश नहीं - Harivansh Rai Bachchan

क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
बनकर अदृश्‍य मेरा दुश्‍मन,
करता है मुझपर वार सघन,
लड़ लेने की मेरी हवसें मेरे उर के ही बीच रहीं!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
मिट्टी है अश्रु बहाती है,
मेरी सत्‍ता तो गाती है;
अपनी? ना-ना, उसकी पीड़ा की ही मैंने कुछ बात कही!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
चोटों से घबराऊँगा कब,
दुनिया ने भी जाना है जब,
निज हाथ-हथौड़े से मैंने निज वक्षस्‍थल पर चोट सही!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!

यातना जीवन की भारी - Harivansh Rai Bachchan

यातना जीवन की भारी!
चेतनता पहनाई जाती
जड़ता का परिधान,
देव और पशु में छिड़ जाता है संघर्ष महान!
हार की दोनों की बारी!
तन मन की आकांक्षाओं का
दुर्बलता है नाम,
एक असंयम-संयम दोनों का अंतिम परिणाम!
पूण्य-पापों की बलिहारी!
ध्येय मरण है, गाओ पथ पर
चल जीवन के गीत,
जो रुकता, चुप होता, कहता जग उसको भयभीत!
बड़ी मानव की लाचारी!
यातना जीवन की भारी!

दुनिया अब क्या मुझे छलेगी - Harivansh Rai Bachchan

दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!
बदली जीवन की प्रत्याशा,
बदली सुख-दुख की परिभाषा,
जग के प्रलोभनों की मुझसे अब क्या दाल गलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!
लड़ना होगा जग-जीवन से,
लड़ना होगा अपने मन से,
पर न उठूँगा फूल विजय से और न हार खलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!
शेष अभी तो मुझमें जीवन,
वश में है तन, वश में है मन,
चार कदम उठ कर मरने पर मेरी लाश चलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन - Harivansh Rai Bachchan

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब रजनी के सूने क्षण में,
तन-मन के एकाकीपन में
कवि अपनी विह्वल वाणी से अपना व्‍याकुल मन बहलाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब उर की पीड़ा से रोकर,
फिर कुछ सोच-समझ चुप होकर
विरही अपने ही हाथों से अपने आँसू पोछ हटाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
पंथी चलते-चलते थककर
बैठ किसी पथ के पत्‍थर पर
जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पाँव दबाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

चाँदनी में साथ छाया - Harivansh Rai Bachchan

चाँदनी में साथ छाया!
मौन में डूबी निशा है,
मौन-डूबी हर दिशा है,
रात भर में एक ही पत्ता किसी तरु ने गिराया!
चाँदनी में साथ छाया!
एक बार विहंग बोला,
एक बार समीर डोला,
एक बार किसी पखेरू ने परों को फड़फड़ाया!
चाँदनी में साथ छाया!
होठ इसने भी हिलाए,
हाथ इसने भी उठाए,
आज मेरी ही व्यथा के गीत ने सुख संग पाया!
चाँदनी में साथ छाया!

सशंकित नयनों से मत देख - Harivansh Rai Bachchan

सशंकित नयनों से मत देख!
खाली मेरा कमरा पाकर,
सूखे तिनके पत्ते लाकर,
तूने अपना नीड़ बनाया कौन किया अपराध?
सशंकित नयनों से मत देख!
सोचा था जब घर आऊँगा,
कमरे को सूना पाऊँगा,
देख तुझे उमड़ा पड़ता है उर में स्नेह अगाध!
सशंकित नयनों से मत देख!
मित्र बनाऊँगा मैं तुझको,
बोल करेगा प्यार न मुझको?
और सुनाएगा न मुझे निज गायन भी एकाध!
सशंकित नयनों से मत देख!

ओ गगन के जगमगाते दीप - Harivansh Rai Bachchan

ओ गगन के जगमगाते दीप!
दीन जीवन के दुलारे
खो गये जो स्वप्न सारे,
ला सकोगे क्या उन्हें फिर खोज हृदय समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!
यदि न मेरे स्वप्न पाते,
क्यों नहीं तुम खोज लाते
वह घड़ी चिर शान्ति दे जो पहुँच प्राण समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!
यदि न वह भी मिल रही है,
है कठिन पाना-सही है,
नींद को ही क्यों न लाते खींच पलक समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!

ओ अँधेरी से अँधेरी रात - Harivansh Rai Bachchan

ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
आज गम इतना हृदय में,
आज तम इतना हृदय में,
छिप गया है चाँद-तारों का चमकता गात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
दिख गया जग रूप सच्चा
ज्योति में यह बहुत अच्छा,
हो गया कुछ देर को प्रिय तिमिर का संघात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
प्रात किरणों के निचय से,
तम न जाएगा हृदय से,
किसलिए फिर चाहता मैं हो प्रकाश-प्रभात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!

मेरा भी विचित्र स्वभाव - Harivansh Rai Bachchan

मेरा भी विचित्र स्वभाव!
लक्ष्य से अनजान मैं हूँ,
लस्त मन-तन-प्राण मैं हूँ,
व्यस्त चलने में मगर हर वक्त मेरे पाँव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
कुछ नहीं मेरा रहेगा,
जो सदा सबसे कहेगा,
वह चलेगा लाद इतना भाव और अभाव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
उर व्यथा से आँख रोती,
सूज उठती, लाल होती,
किन्तु खुलकर गीत गाते हैं हृदय के घाव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!

डूबता अवसाद में मन - Harivansh Rai Bachchan

डूबता अवसाद में मन!
यह तिमिर से पीन सागर,
तल-तटों से हीन सागर,
किंतु हैं इनमें न धाराएँ, न लहरें औ’, न कम्पन!
डूबता अवसाद में मन!
मैं तरंगों से लड़ा हूँ,
और तगड़ा ही पड़ा हूँ,
पर नियति ने आज बाँधे हैं हृदय के साथ पाहन!
डूबता अवसाद में मन!
डूबता जाता निरंतर,
थाह तो पाता कहीं पर,
किंतु फिर-फिर डूब उतराते उठा है ऊब जीवन!
डूबता अवसाद में मन!

उर में अग्नि के शर मार - Harivansh Rai Bachchan

उर में अग्नि के शर मार!
जब कि मैं मधु स्वप्नमय था,
सब दिशाओं से अभय था,
तब किया तुमने अचानक यह कठोर प्रहार,
उर में अग्नि के शर मार!
सिंह-सा मृग को गिराकर,
शक्ति सारे अंग की हर,
सोख क्षण भर में लिया निःशेष जीवन सार,
उर में अग्नि के शर मार!
हाय, क्या थी भूल मेरी?
कौन था निर्दय अहेरी,
पूछते हैं व्यर्थ उर के घाव आँखें फाड़!
उर में अग्नि के शर मार!

जुए के नीचे गर्दन डाल - Harivansh Rai Bachchan

जुए के नीचे गर्दन डाल!
देख सामने बोझी गाड़ी,
देख सामने पंथ पहाड़ी,
चाह रहा है दूर भागना, होता है बेहाल?
जुए के नीचे गर्दन डाल!
तेरे पूर्वज भी घबराए,
घबराए, पर क्या बच पाए,
इसमें फँसना ही पड़ता है, यह विचित्र है जाल!
जुए के नीचे गर्दन डाल!
यह गुरु भार उठाना होगा,
इस पथ से ही जाना होगा;
तेरी खुशी-नाखुशी का है नहीं किसी को ख्याल!
जुए के नीचे गर्दन डाल!

दुखी-मन से कुछ भी न कहो - Harivansh Rai Bachchan

दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना,
व्यर्थ उसे दर्शन समझाना,
उसके दुख से दुखी नहीं हो तो बस दूर रहो!
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
उसके नयनों का जल खारा,
है गंगा की निर्मल धारा,
पावन कर देगी तन-मन को क्षण भर साथ बहो!
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
देन बड़ी सबसे यह विधि की,
है समता इससे किस निधि की?
दुखी दुखी को कहो, भूल कर उसे न दीन कहो?
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!

आज घन मन भर बरस लो - Harivansh Rai Bachchan

आज घन मन भर बरस लो!
भाव से भरपूर कितने,
भूमि से तुम दूर कितने,
आँसुओं की धार से ही धरणि के प्रिय पग परस लो,
आज घन मन भर बरस लो!
ले तुम्हारी भेंट निर्मल,
आज अचला हरित-अंचल;
हर्ष क्या इस पर न तुमको-आँसुओं के बीच हँस लो!
आज घन मन भर बरस लो!
रुक रहा रोदन तुम्हारा,
हास पहले ही सिधारा,
और तुम भी तो रहे मिट, मृत्यु में निज मुक्ति-रस लो!
आज घन मन भर बरस लो!

स्वर्ग के अवसान का अवसान - Harivansh Rai Bachchan

स्वर्ग के अवसान का अवसान!
एक पल था स्वर्ग सुन्दर,
दूसरे पल स्वर्ग खँडहर,
तीसरे पल थे थकिर कर स्वर्ग की रज छान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
ध्यान था मणि-रत्न ढेरी
से तुलेगी राख मेरी,
पर जगत में स्वर्ग तृण की राख एक समान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
राख मैं भी रख न पाया,
आज अंतिम भेंट लाया,
अश्रु की गंगा इसे दो बीच अपने स्थान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!

यह व्यंग नहीं देखा जाता - Harivansh Rai Bachchan

यह व्यंग नहीं देखा जाता!
निःसीम समय की पलकों पर,
पल और पहर में क्या अंतर;
बुद्बुद की क्षण-भंगुरता पर मिटने वाला बादल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
दोनों अपनी सत्ता में सम,
किसमें क्या ज्यादा, किसमें कम?
पर बुद्बुद की चंचलता पर बुद्बुद जो खुद चंचल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
बुद्बुद बादल में अन्तर है,
समता में ईर्ष्या का डर है,
पर मेरी दुर्बलताओं पर मुझसे ज्यादा दुर्बल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!

तुम्‍हारा लौह चक्र आया - Harivansh Rai Bachchan

तुम्‍हारा लौह चक्र आया!
कुचल चला अचला के वन घन,
बसे नगर सब निपट निठुर बन,
चूर हुई चट्टान, क्षार पर्वत की दृढ़ काया!
तुम्‍हारा लौह चक्र आया!
अगणित ग्रह-नक्षत्र गगन के
टूट पिसे, मरु-सिसका-कण के
रूप उड़े, कुछ घुवाँ-घुवाँ-सा अंबर में छाया!
तुम्‍हारा लौह चक्र आया!
तुमने अपना चक्र उठाया,
अचरज से निज मुख फैलाया,
दंत-चिह्न केवल मानव का जब उस पर पाया!
तुम्‍हारा लौह चक्र आया!

हर जगह जीवन विकल है - Harivansh Rai Bachchan

हर जगह जीवन विकल है!
तृषित मरुथल की कहानी,
हो चुकी जग में पुरानी,
किंतु वारिधि के हृदय की प्यास उतनी ही अटल है!
हर जगह जीवन विकल है!
रो रहा विरही अकेला,
देख तन का मिलन मेला,
पर जगत में दो हृदय के मिलन की आशा विफल है!
हर जगह जीवन विकल है!
अनुभवी इसको बताएँ,
व्यर्थ मत मुझसे छिपाएँ;
प्रेयसी के अधर-मधु में भी मिला कितना गरल है!
हर जगह जीवन विकल है!

जीवन का विष बोल उठा है - Harivansh Rai Bachchan

जीवन का विष बोल उठा है!
मूँद जिसे रक्खा मधुघट से,
मधुबाला के श्यामल पट से,
आज विकल, विह्वल सपनों के अंचल को वह खोल उठा है!
जीवन का विष बोल उठा है!
बाहर का श्रृंगार हटाकर
रत्नाभूषण, रंजित अंबर,
तन में जहाँ-जहाँ पीड़ा थी कवि का हाथ टटोल उठा है!
जीवन का विष बोल उठा है!
जीवन का कटु सत्य कहाँ है,
यहाँ नहीं तो और कहाँ है?
और सबूत यही है इससे कवि का मानस ड़ोल उठा है!
जीवन का विष बोल उठा है!

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ - Harivansh Rai Bachchan

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी! -कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
यह महान दृश्‍य है-
चल रहा मनुष्‍य है
अश्रु-स्वेद-रक्‍त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!

जीवन भूल का इतिहास - Harivansh Rai Bachchan

जीवन भूल का इतिहास!
ठीक ही पथ को समझकर,
मैं रहा चलता उमर भर,
किंतु पग-पग पर बिछा था भूल का छल पाश!
जीवन भूल का इतिहास!
काटतीं भूलें प्रतिक्षण,
कह उन्हें हल्का करूँ मन,-
कर गया पर शीघ्रता में शत्रु पर विश्वास!
जीवन भूल का इतिहास!
भूल क्यों अपनी कही थी,
भूल क्या यह भी नहीं थी,
अब सहो विश्वासघाती विश्व का उपहास!
जीवन भूल का इतिहास!

नभ में वेदना की लहर - Harivansh Rai Bachchan

नभ में वेदना की लहर!
मर भले जाएँ दुखी जन,
अमर उनका आर्त क्रंदन;
क्यों गगन विक्षुब्ध, विह्वल, विकल आठों पहर?
नभ में वेदना की लहर!
वेदना से ज्वलित उडुगण,
गीतमय, गतिमय समीरण,
उठ, बरस, मिटते सजल घन;
वेदना होती न तो यह सॄष्टि जाती ठहर।
नभ में वेदना की लहर!
बन गिरेगा शीत जलकण,
कर उठेगा मधुर गुंजन,
ज्योतिमय होगा किरण बन,
कभी कवि-उर का कुपित, कटु और काला जहर?
नभ में वेदना की लहर!

छोड़ मैं आया वहाँ मुस्कान - Harivansh Rai Bachchan

छोड़ मैं आया वहाँ मुस्कान!
स्वार्थ का जिसमें न था कण,
ध्येय था जिसका समर्पण,
जिस जगह ऐसे प्रणय का था हुआ अपमान!
छोड़ मैं आया वहाँ मुस्कान!
भाग्य दुर्जम और दुर्गम
हो कठोर, कराल, निर्मम,
जिस जगह मानव प्रयासों पर हुआ बलवान!
छोड़ मैं आया वहाँ मुस्कान!
पात्र सुखियों की खुशी का,
व्यंग का अथवा हँसी का,
जिस जगह समझा गया दुखिया हृदय का गान!
छोड़ मैं आया वहाँ मुस्कान!

जीवन शाप या वरदान - Harivansh Rai Bachchan

जीवन शाप या वरदान?
सुप्‍त को तुमने जगाया,
मौन को मुखरित बनाया,
करुन क्रंदन को बताया क्‍यों मधुरतम गान?
जीवन शाप या वरदान?
सजग फिर से सुप्‍त होगा,
गीत फिर से गुप्‍त होगा,
मध्‍य में अवसाद का ही क्‍यों किया सम्‍मान?
जीवन शाप या वरदान?
पूर्ण भी जीवन करोगे,
हर्ष से क्षण-क्षण भरोगे,
तो न कर दोगे उसे क्या एक दिन बलिदान?
जीवन शाप या वरदान?

जीवन में शेष विषाद रहा - Harivansh Rai Bachchan

जीवन में शेष विषाद रहा!
कुछ टूटे सपनों की बस्‍ती,
मिटने वाली यह भी हस्‍ती,
अवसाद बसा जिस खँडहर में, क्‍या उसमें ही उन्‍माद रहा!
जीवन में शेष विषाद रहा!
यह खँडहर ही था रंगमहल,
जिसमें थी मादक चहल-पहल,
लगता है यह खँडहर जैसे पहले न कभी आबाद रहा!
जीवन में शेष विषाद रहा!
जीवन में थे सुख के दिन भी,
जीवन में थे दुख के दिन भी,
पर, हाय हुआ ऐसा कैसे, सुख भूल गया, दुख याद रहा!
जीवन में शेष विषाद रहा!

अग्नि देश से आता हूँ मैं - Harivansh Rai Bachchan

अग्नि देश से आता हूँ मैं!
झुलस गया तन, झुलस गया मन,
झुलस गया कवि-कोमल जीवन,
किंतु अग्नि-वीणा पर अपने दग्‍ध कंठ से गाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!
स्‍वर्ण शुद्ध कर लाया जग में,
उसे लुटाता आया मग में,
दीनों का मैं वेश किए, पर दीन नहीं हूँ, दाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!
तुमने अपने कर फैलाए,
लेकिन देर बड़ी कर आए,
कंचन तो लुट चुका, पथिक, अब लूटो राख लुटाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!

सुनकर होगा अचरज भारी - Harivansh Rai Bachchan

सुनकर होगा अचरज भारी!
दूब नहीं जमती पत्थर पर,
देख चुकी इसको दुनिया भर,
कठिन सत्य पर लगा रहा हूँ सपनों की फुलवारी!
सुनकर होगा अचरज भारी!
गूँज मिटेगा क्षण भर कण में,
गायन मेरा, निश्चय मन में,
फिर भी गायक ही बनने की कठिन साधना सारी!
सुनकर होगा अचरज भारी!
कौन देवता? नहीं जानता,
कुछ फल होगा, नहीं मानता,
बलि के योग्य बनूँ, इसकी मैं करता हूँ तैयारी!
सुनकर होगा अचरज भारी!

जीवन खोजता आधार - Harivansh Rai Bachchan

जीवन खोजता आधार!
हाय, भीतर खोखला है,
बस मुलम्मे की कला है,
इसी कुंदन के ड़ले का नाम जग में प्यार!
जीवन खोजता आधार!
बूँद आँसू की गलाती,
आह छोटी-सी उड़ाती,
नींद-वंचित नेत्र को क्या स्वप्न का संसार!
जीवन खोजता आधार!
विश्व में वह एक ही है,
अन्य समता में नहीं हैं,
मूल्य से मिलता नहीं, वह मृत्यु का उपहार!
जीवन खोजता आधार!

हा, मुझे जीना न आया - Harivansh Rai Bachchan

हा, मुझे जीना न आया!
नेत्र जलमय, रक्त-रंजित,
मुख विकृत, अधरोष्ठ कंपित
हो उठे तब गरल पीकर भी गरल पीना न आया!
हा, मुझे जीना न आया!
वेदना से नेह जोड़ा,
विश्व में पीटा ढिंढोरा,
प्यार तो उसने किया है, प्यार को जिसने छिपाया!
हा, मुझे जीना न आया!
संग मैं पाकर किसी का
कर सका अभिनय हँसी का,
पर अकेले बैठकर मैं मुसकरा अब तक न पाया!
हा, मुझे जीना न आया!

अब क्या होगा मेरा सुधार - Harivansh Rai Bachchan

अब क्या होगा मेरा सुधार!
तू ही करता मुझसे बिगाड़,
तो मैं न मानता कभी हार,
मैं काट चुका अपने ही पग अपने ही हाथों ले कुठार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!
संभव है तब मैं था पागल,
था पागल, पर था क्या दुर्बल,
चोटों में गाया गीत, समझ तू इसको निर्बल की पुकार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!
फिर भी बल संचित करता हूँ,
मन में दम साहस भरता हूँ,
जिसमें न आह निकले मुख से जब हो तेरा अंतिम प्रहार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!

मैं न सुख से मर सकूँगा - Harivansh Rai Bachchan

मैं न सुख से मर सकूँगा!
चाहता जो काम करना,
दूर है मुझसे सँवरना,
टूटते दम से विफल आहें महज मैं भर सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!
गलतियाँ-अपराध, माना,
भूल जाएगा जमाना,
किंतु अपने आपको कैसे क्षमा मैं कर सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!
कुछ नहीं पल्ले पड़ा तो,
थी तसल्ली मैं लड़ा तो,
मौत यह आकर कहेगी अब नहीं मैं लड़ सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!

आगे हिम्मत करके आओ - Harivansh Rai Bachchan

आगे हिम्मत करके आओ!
मधुबाला का राग नहीं अब,
अंगूरों का बाग नहीं अब,
अब लोहे के चने मिलेंगे दाँतों को अजमाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!
दीपक हैं नभ के अंगारे,
चलो इन्हीं के साथ सहारे,
राह? नहीं है राह यहाँ पर, अपनी राह बनाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!
लपट लिपटने को आती है,
निर्भय अग्नि गान गाती है,
आलिंगन के भूखे प्राणी, अपने भुज फैलाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!

मुँह क्यों आज तम की ओर? - Harivansh Rai Bachchan

मुँह क्यों आज तम की ओर?
कालिमा से पूर्ण पथ पर
चल रहा हूँ मैं निरंतर,
चाहता हूँ देखना मैं इस तिमिर का छोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!
ज्योति की निधियाँ अपरिमित
कर चुका संसार संचित,
पर छिपाए है बहुत कुछ सत्य यह तम घोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!
बहुत संभव कुछ न पाऊँ,
किंतु कैसे लौट आऊँ,
लौटकर भी देख पाऊँगा नहीं मैं भोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

विष का स्‍वाद बताना होगा - Harivansh Rai Bachchan

विष का स्‍वाद बताना होगा!
ढाली थी मदिरा की प्‍याली,
चूसी थी अधरों की लाली,
कालकूट आने वाला अब, देख नहीं घबराना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!
आँखों से यदि अश्रु छनेगा,
कटुतर यह कटु पेय बनेगा,
ऐसे पी सकता है कोई, तुझको हँस पी जाना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!
गरल पान करके तू बैठा,
फेर पुतलियाँ, कर-पग ऐंठा,
यह कोई कर सकता, मुर्दे, तुझको अब उठ गाना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!

कोई बिरला विष खाता है - Harivansh Rai Bachchan

कोई बिरला विष खाता है!
मधु पीने वाले बहुतेरे,
और सुधा के भक्त घनेरे,
गज भर की छातीवाला ही विष को अपनाता है!
कोई बिरला विष खाता है!
पी लेना तो है ही दुष्कर,
पा जाना उसका दुष्करतर,
बडा भाग्य होता है तब विष जीवन में आता है!
कोई बिरला विष खाता है!
स्वर्ग सुधा का है अधिकारी,
कितनी उसकी कीमत भारी!
किंतु कभी विष-मूल्य अमृत से ज्यादा पड़ जाता है!
कोई बिरला विष खाता है!

मेरा जोर नहीं चलता है - Harivansh Rai Bachchan

मेरा जोर नहीं चलता है!
स्वप्नों की देखी निष्ठुरता,
स्वप्नों की देखी भंगुरता,
फिर भी बार-बार आ करके स्वप्न मुझे निशिदिन छलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!
सूनेपन के सुंदरपन को,
कैसे दृढ़ करवा दूँ मन को!
उतनी शक्ति नहीं है मुझमें जितनी मन में चंचलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!
ममता यदि मन से मिट पाती,
देवों की गद्दी हिल जाती!
प्यार, हाय, मानव जीवन की सबसे भारी दुर्बलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!

मैंने शान्ति नहीं जानी है - Harivansh Rai Bachchan

मैंने शान्ति नहीं जानी है!
त्रुटि कुछ है मेरे अंदर भी,
त्रुटि कुछ है मेरे बाहर भी,
दोनों को त्रुटि हीन बनाने की मैंने मन में ठानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!
आयु बिता दी यत्नों में लग,
उसी जगह मैं, उसी जगह जग,
कभी-कभी सोचा करता अब, क्या मैंने की नादानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!
पर निराश होऊँ किस कारण,
क्या पर्याप्त नहीं आश्वासन?
दुनिया से मानी, अपने से मैंने हार नहीं मानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!

अब खँडहर भी टूट रहा है - Harivansh Rai Bachchan

अब खँडहर भी टूट रहा है!
गायन से गुंजित दीवारें,
दिखलाती हैं दीर्घ दरारें,
जिनसे करुण, कर्णकटु, कर्कश, भयकारी स्वर फूट रहा है!
अब खँडहर भी टूट रहा है!
बीते युग की कौन निशानी,
शेष रही थी आज मिटानी?
किंतु काल की इच्छा ही तो, लुटे हुए को लूट रहा है!
अब खँडहर भी टूट रहा है!
महानाश में महासृजन है,
महामरण में ही जीवन है,
था विश्वास कभी मेरा भी, किंतु आज तो छूट रहा है!
अब खँडहर भी टूट रहा है!

प्राथर्ना मत कर, मत कर, मत कर - Harivansh Rai Bachchan

प्राथर्ना मत कर, मत कर, मत कर!
युद्धक्षेत्र में दिखला भुजबल,
रहकर अविजित, अविचल प्रतिपल,
मनुज-पराजय के स्‍मारक हैं मठ, मस्जिद, गिरजाघर!
प्राथर्ना मत कर, मत कर, मत कर!
मिला नहीं जो स्‍वेद बहाकर,
निज लोहू से भीग-नहाकर,
वर्जित उसको, जिसे ध्‍यान है जग में कहलाए नर!
प्राथर्ना मत कर, मत कर, मत कर!
झुकी हुई अभिमानी गर्दन,
बँधे हाथ, नत-निष्‍प्रभ लोचन
यह मनुष्‍य का चित्र नहीं है, पशु का है, रे कायर!
प्राथर्ना मत कर, मत कर, मत कर!

कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा - Harivansh Rai Bachchan

कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा!
जिन चीजों की चाह मुझे थी,
जिनकी कुछ परवाह मुझे थी,
दीं न समय से तूने, असमय क्या ले उन्हें करूँगा!
कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा!
मैंने बाँहों का बल जाना,
मैंने अपना हक पहचाना,
जो कुछ भी बनना है मुझको अपने आप बनूँगा!
कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा!
व्यर्थ मुझे है अब समझाना,
व्यर्थ मुझे है अब फुसलाना,
अंतिम बार कहे देता हूँ, रूठा हूँ, न मनूँगा!
कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा!

मुझे न सपनों से बहलाओ - Harivansh Rai Bachchan

मुझे न सपनों से बहलाओ!
धोखा आदि-अंत है जिनका,
क्या विश्वास करूँ मैं इनका;
सत्य हुआ मुखरित जीवन में, 
मत सपनों का गीत सुनाओ!
मुझे न सपनों से बहलाओ!
जग का सत्य स्वप्न हो जाता,
सपनों से पहले खो जाता,
मैं कर्तव्य करूँगा लेकिन 
मुझमें अब मत मोह जगाओ!
मुझे न सपनों से बहलाओ!
सच्चे मन से मैं कहता हूँ,
नहीं भावना में बहता हूँ,
मैं उजाड़ अब चला, विश्व 
तुम अपना सुख-संसार बसाओ!
मुझे न सपनों से बहलाओ!

मुझको प्यार न करो, डरो - Harivansh Rai Bachchan

मुझको प्यार न करो, डरो!
जो मैं था अब रहा कहाँ हूँ,
प्रेत बना निज घूम रहा हूँ,
बाहर से ही देख न आँखों पर विश्वास करो!
मुझको प्यार न करो, डरो!
मुर्दे साथ चुके सो मेरे,
देकर जड़ बाहों के फेरे,
अपने बाहु पाश में मुझको सोच-विचार भरो!
मुझको प्यार न करो डरो!
जीवन के सुख-सपने लेकर,
तुम आओगी मेरे पथ पर,
है मालूम कहूँगा क्या मैं, मेरे साथ मरो
मुझको प्यार न करो डरो!

तुम गये झकझोर - Harivansh Rai Bachchan

तुम गये झकझोर!
कर उठे तरु-पत्र मरमर,
कर उठा कांतार हरहर,
हिल उठा गिरि, गिरि शिलाएँ कर उठीं रव घोर!
तुम गये झकझोर!
डगमगाई भूमि पथ पर,
फट गई छाती दरककर,
शब्द कर्कश छा गया इस छोर से उस छोर!
तुम गये झकझोर!
हिल उठा कवि का हृदय भी,
सामने आई प्रलय भी,
किंतु उसके कंठ में था गीतमय कलरोर!
तुम गये झकझोर!

ओ अपरिपूर्णता की पुकार - Harivansh Rai Bachchan

ओ अपरिपूर्णता की पुकार!
शत-शत गीतों में हो मुखरित,
कर लक्ष-लक्ष उर में वितरित,
कुछ हल्का तुम कर देती हो मेरे जीवन का व्यथा-भार!
ओ अपरिपूर्णता की पुकार!
जग ने क्या मेरी कथा सुनी,
जग ने क्या मेरी व्यथा सुनी,
मेरी अपूर्णता में आई जग की अपूर्णता रूप धार!
ओ अपरिपूर्णता की पुकार!
कर्मों की ध्वनियाँ आएँगी,
निज बल पौरुष दिखलाएँगी,
पर्याप्त, अखिल नभ मंड़ल में तुम गूँज उठी हो एक बार!
ओ अपरिपूर्णता की पुकार!

सुखमय न हुआ यदि सूनापन - Harivansh Rai Bachchan

सुखमय न हुआ यदि सूनापन!
मैं समझूँगा सब व्यर्थ हुआ-
लंबी-काली रातों में जग
तारे गिनना, आहें भरना, करना चुपके-चुपके रोदन,
सुखमय न हुआ यदि सूनापन!
मैं समझूँगा सब व्यर्थ हुआ-
भीगी-ठंढी रातों में जग
अपने जीवन के लोहू से लिखना अपना जीवन-गायन,
सुखमय न हुआ यदि सूनापन!
मैं समझूँगा सब व्यर्थ हुआ-
सूने दिन, सूनी रातों में
करना अपने बल से बाहर संयम-पालन, तप-व्रत-साधन,
सुखमय न हुआ यदि सूनापन!

अकेला मानव आज खड़ा है - Harivansh Rai Bachchan

अकेला मानव आज खड़ा है!
दूर हटा स्वर्गों की माया,
स्वर्गाधिप के कर की छाया,
सूने नभ, कठोर पृथ्वी का ले आधार अड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!
धर्मों-संस्थाओं के बन्धन
तोड़ बना है वह विमुक्त-मन,
संवेदना-स्नेह-संबल भी खोना उसे पड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!
जब तक हार मानकर अपने
टेक नहीं देता वह घुटने,
तब तक निश्चय महाद्रोह का झंड़ा सुदृढ़ गड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!

कितना अकेला आज मैं - Harivansh Rai Bachchan

कितना अकेला आज मैं!
संघर्ष में टूटा हुआ,
दुर्भाग्य से लूटा हुआ,
परिवार से छूटा हुआ, कितना अकेला आज मैं!
कितना अकेला आज मैं!
भटका हुआ संसार में,
अकुशल जगत व्यवहार में,
असफल सभी व्यापार में, कितना अकेला आज मैं!
कितना अकेला आज मैं!
खोया सभी विश्वास है,
भूला सभी उल्लास है,
कुछ खोजती हर साँस है, कितना अकेला आज मैं!
कितना अकेला आज मैं!

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