आकुल अंतर हरिवंशराय बच्चन Aakul Antar Harivansh Rai Bachchan

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हरिवंशराय बच्चन -आकुल अंतर
Harivansh Rai Bachchan -Aakul Antar

वह तितली है, यह बिस्तुइया - Harivansh Rai Bachchan

वह तितली है, यह बिस्तुइया।
यह काली कुरूप है कितनी!
वह सुंदर सुरूप है कितनी!
गति से और भयंकर लगती यह, उसका है रूप निखरता।
वह तितली है, यह बिस्तुइया।
बिस्तुइया के मुँह में तितली,
चीख हृदय से मेरे निकली,
प्रकृति पुरी में यह अनीति क्यों, बैठा-बैठा विस्मय करता
वह तितली थी, यह बिस्तुइया।
इस अंधेर नगर के अंदर
--दोनों में ही सत्य बराबर,
बिस्तुइया की उदर-क्षुधा औ' तितली के पर की सुंदरता।
वह तितली है, यह बिस्तुइया।

क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त - Harivansh Rai Bachchan

क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त?
तेरे जीवन की क्यारी में
कुछ उगा नहीं, मैंने माना,
पर सारी दुनिया मरुथल है
बतला तूने कैसे जाना?
तेरे जीवन की सीमा तक क्या जगती का आँगन समाप्त?
क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त?
तेरे जीवन की क्यारी में
फल-फूल उगे, मैंने माना,
पर सारी दुनिया मधुवन है
बतला तूने कैसे जाना?
तेरे जीवन की सीमा तक क्या जगती का मधुवन समाप्त?
क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त?
जब तू अपने दुख में रोता,
दुनिया सुख से गा सकती है,
जब तू अपने सुख में गाता,
वह दुख से चिल्ला सकती है;
तेरे प्राणों के स्पंदन तक क्या जगती का स्पंदन समाप्त?
क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त?

HarivanshRaiBachchan

कितना कुछ सह लेता यह मन - Harivansh Rai Bachchan

कितना कुछ सह लेता यह मन!
कितना दुख-संकट आ गिरता
अनदेखी-जानी दुनिया से,
मानव सब कुछ सह लेता है कह पिछले कर्मों का बंधन।
कितना कुछ सह लेता यह मन!
कितना दुख-संकट आ गिरता
इस देखी-जानी दुनिया से,
मानव यह कह सह लेता है दुख संकट जीवन का शिक्षण।
कितना कुछ सह लेता यह मन!
कितना दुख-संकट आ गिरता
मानव पर अपने हाथों से,
दुनिया न कहीं उपहास करे सब कुछ करता है मौन सहन।
कितना कुछ सह लेता यह मन!

हृदय सोच यह बात भर गया - Harivansh Rai Bachchan

हृदय सोच यह बात भर गया!
उर में चुभने वाली पीड़ा,
गीत-गंध में कितना अंतर,
कवि की आहों में था जादू काँटा बनकर फूल झर गया।
हृदय सोच यह बात भर गया!
यदि अपने दुख में चिल्लाता
गगन काँपता, धरती फटती,
एक गीत से कंठ रूँधकर मानव सब कुछ सहन कर गया।
हृदय सोच यह बात भर गया!
कुछ गीतों को लिख सकते हैं,
गा सकते हैं कुछ गीतों को,
दोनों से था वंचित जो वह जिया किस तरह और मर गया।
हृदय सोच यह बात भर गया!

करुण अति मानव का रोदन - Harivansh Rai Bachchan

करुण अति मानव का रोदन।
ताज, चीन-दीवार दीर्घ जिन हाथों के उपहार,
वही सँभाल नहीं पाते हैं अपने सिर का भार!
गड़े जाते भू में लोचन!
देव-देश औ' परी-पुरी जिन नयनों के वरदान,
जिनमें फैले, फूले, झूले कितने स्वप्न महान,
गिराते खारे लघु जल कण!
जो मस्तिष्क खोज लेता है अर्थ गुप्त से गुप्त,
स्रष्टा, सृष्टि और सर्जन का कहाँ हो गया लुप्त?
नहीं धरता है धीरज मन!
करुण अति मानव का रोदन।

अकेलेपन का बल पहचान - Harivansh Rai Bachchan

अकेलेपन का बल पहचान।
शब्द कहाँ जो तुझको, टोके,
हाथ कहाँ जो तुझको रोके,
राह वही है, दिशा वही, तू करे जिधर प्रस्थान।
अकेलेपन का बल पहचान।
जब तू चाहे तब मुस्काए,
जब चाहे तब अश्रु बहाए,
राग वही है तू जिसमें गाना चाहे अपना गान।
अकेलेपन का बल पहचान।
तन-मन अपना, जीवन अपना,
अपना ही जीवन का सपना,
जहाँ और जब चाहे कर दे तू सब कुछ बलिदान।
अकेलेपन का बल पहचान।

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी - Harivansh Rai Bachchan

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान,
हम हैं चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

उनके प्रति मेरा, धन्यवाद - Harivansh Rai Bachchan

उनके प्रति मेरा, धन्यवाद,
कहते थे मेरी नादानी
जो मेरे रोने-धोने को,
कहते थे मेरी नासमझी
जो मेरे धीरज खोने को,
मेरा अपने दुख के ऊपर उठने का व्रत उनका प्रसाद
उनके प्रति मेरा धन्यवाद।
जो क्षमा नहीं कर सकते थे
मेरी कुछ दुर्बलताओं को,
जो सदा देखते रहते थे
उनमें अपने ही दावों को,
मेरा दुर्बलता के ऊपर उठने का व्रत उनका प्रसाद;
उनके प्रति मेरा धन्यवाद।
कादरपन देखा करते थे
जो मेरी करुण कहानी में,
बंध्यापन देखा करते थे
जो मेरी विह्वल वाणी में,
मेरा नूतन स्वर में उठकर गाने का व्रत उनका प्रसाद;
उनके प्रति मेरा धन्यवाद।

जीवन का यह पृष्ठ पलट, मन - Harivansh Rai Bachchan

जीवन का यह पृष्ठ पलट, मन।
इसपर जो थी लिखी कहानी,
वह अब तुझको याद जबानी,
बारबार पढ़कर क्यों इसको व्यर्थ गँवाता जीवन के क्षण।
जीवन का यह पृष्ठ पलट, मन।
इसपर लिखा हुआ है अक्षर
जमा हुआ है बनकर 'अक्षर',
किंतु प्रभाव हुआ जो तुझपर उसमें अब कर ले परिवर्तन।
जीवन का यह पृष्ठ पलट, मन।
यहीं नहीं यह कथा खत्म है,
मन की उत्सुकता दुर्दम है,
चाह रही है देखें आगे,
ज्योति जगी या सोया तम है,
रोक नहीं तू इसे सकेगा, यह अदृष्ट का है आकर्षण।
जीवन का यह पृष्ठ पलट, मन!

काल क्रम से - Harivansh Rai Bachchan

काल क्रम से-
जिसके आगे झंझा रूकते,
जिसके आगे पर्वत झुकते-
प्राणों का प्यारा धन-कंचन
सहसा अपहृत हो जाने पर
जीवन में जो कुछ बचता है,
उसका भी है कुछ आकर्षण।
नियति नियम से-
जिसको समझा सुकरात नहीं-
जिसको बूझा बुकरात नहीं-
क़िस्मत का प्यारा धन-कंचन
सहसा अपहृत हो जाने पर
जीवन में जो कुछ बचता है,
उसका भी है कुछ आकर्षण।

यह नारीपन - Harivansh Rai Bachchan

यह नारीपन।
तू बन्द किये अपने किवाड़
बैठा करता है इन्तजार,
कोई आए,
तेरा दरवाजा खटकाए,
मिलने को बाहें फैलाए,
तुझसे हमदर्दी दिखलाए,
आँसू पोंछे औ' कहे, हाय, तू जग में कितना दुखी दीन।
ओ नवचेतन!
तू अपने मन की नारी को,
अस्वाभाविक बीमारी को,
उठ दूर हटा,
तू अपने मन का पुरुष जगा,
जो बे-शर्माए बाहर जाए,
शोर मचाए, हँसे, हँसाए,
छेड़े उनको जो बैठे हैं मुँह लटकाए, उदासीन।

वह व्यक्ति रचा - Harivansh Rai Bachchan

(१)
वह व्यक्ति रचा,
जो लेट गया मधुबाला की
गोदी में सिर धरकर अपना,
हो सत्य गया जिसका सहसा
कोई मन का सुंदर सपना,
दी डुबा जगत की चिंताएँ
जिसने मदिरा की प्याली में,
जीवन का सारा रस पाया
जिसने अधरों की लाली में,
मधुशाला की कंकण-ध्वनि में
जो भूला जगती का क्रंदन,
जो भूला जगती की कटुता
उसके आँचल से मूँद नयन,
जिसने अपने सब ओर लिया
कल्पित स्वर्गों का लोक बसा,
कर दिया सरस उसको जिसने
वाणी से मधु बरसा-बरसा।(२)
वह व्यक्ति रचा,
जो बैठ गया दिन ढ़लने पर
दिन भर चलकर सूने पथ पर,
खोकर अपने प्यारे साथी,
अपनी प्यारी संपति खोकर,
बस अंधकार ही अंधकार
रह गया शेष जिसके समीप,
जिसके जलमय लोचन जैसे
झंझा से हों दो बुझे दीप;
टूटी आशाओं, स्वप्नों से
जिसका अब केवल नाता है,
जो अपना मन बहलाने को
एकाकीपन में गाता है,
जिसके गीतों का करुण शब्द,
जिसके गीतों का करुण राग
पैदा करने में है समर्थ
आशा के मन में भी विराग।
(३)
वह व्यक्ति बना,
जो खड़ा हो गया है गया तनकर
पृथ्वी पर अपने पटक पाँव,
ड़ाले फूले वक्षस्थल पर
मांसल भुजदंडों का दबाव,
जिसकी गर्दन में भरा गर्व,
जिसके ललाट पर स्वाभिमान,
दो दीर्घ नेत्र जिसके जैसे
दो अंगारे जाज्वल्यमान,
जिसकी क्रोधातुर श्वासों से
दोनों नथने हैं उठे फूल,
जिसकी भौंहों में, मूछों में
हैं नहीं बाल, उग उठे शूल,
दृढ़ दंत-पंक्तियों में जकड़ा
कोई ऐसा निश्चय प्रचंड,
पड़ जाय वज्र भी अगर बीच
हो जाय टूट्कर खंड-खंड!

वेदना भगा - Harivansh Rai Bachchan

(१)
वेदना भगा,
जो उर के अंदर आते ही
सुरसा-सा बदन बढ़ाती है,
सारी आशा-अभिलाषा को
पल के अंदर खा जाती है,
पी जाती है मानस का रस
जीवन शव-सा कर देती है,
दुनिया के कोने-कोने को
निज क्रंदन से भर देती है।
इसकी संक्रामक वाणी को
जो प्राणी पल भर सुनता है,
वह सारा साहस-बल खोकर
युग-युग अपना सर धुनता है;
यह बड़ी अशुचि रुचि वाली है
संतोष इसे तब होता है,
जब जग इसका साथी बनकर
इसके रोदन में रोता है।
(२)
वेदना जगा,
जो जीवन के अंदर आकर
इस तरह हृदय में जाय व्याप,
बन जाय हृदय होकर विशाल
मानव-दुख-मापक दंड-माप;
जो जले मगर जिसकी ज्वाला
प्रज्जवलित करे ऐसा विरोध,
जो मानव के प्रति किए गए
अत्याचारों का करे शोध;
पर अगर किसी दुर्बलता से
यह ताप न अपना रख पाए,
तो अपने बुझने से पहले
औरों में आग लगा जाए;
यह स्वस्थ आग, यह स्वस्थ जलन
जीवन में सबको प्यारी हो,
इसमें जल निर्मल होने का
मानव-मानव अधिकारी हो!

भीग रहा है भुवि का आँगन - Harivansh Rai Bachchan

भीग रहा है भुवि का आँगन।
भीग रहे हैं पल्लव के दल,
भीग रही हैं आनत ड़ालें,
भीगे तिनकों के खोतों में भीग रहे हैं पंक्षी अनमन।
भीग रहा है भुवि का आँगन।
भीग रही है महल-झोपड़ी,
सुख-सूखे में महलों वाले,
किंतु झोपड़ी के नीचे हैं भीगे कपड़े, भीगे लोचन।
भीग रहा है भुवि का आँगन।
बरस रहा है भू पर बादल,
बरस रहा है जग पर, सुख-दुख,
सब को अपना-अपना, कवि को,
सब का ही दुख, सब का ही सुख,
जग-जीवन के सुख-दुःखों से भीग रहा है कवि का तन-मन।
भीग रहा है भुवि का आँगन।

तू तो जलता हुआ चला जा - Harivansh Rai Bachchan

तू तो जलता हुआ चला जा।
जीवन का पथ नित्य तमोमय,
भटक रहा इंसान भरा-भय,
पल भर सही, पल भर को ही कुछ को राह दिखा जा।
तू तो जलता हुआ चला जा।
जला हुआ तू ज्योति रूप है,
बुझा हुआ केवल कुरूप है,
शेष रहे जब तक जलने को कुछ भी तू जलता जा।
तू तो जलता जा, चलता जा।
जहाँ बनी भावों की क्यारी,
स्वप्न उगाने की तैयारी,
अपने उर की राख-राशि को वहीं-वहीं बिखराजा।
तू तो जलकर भी चलता जा।

मैं जीवन की शंका महान - Harivansh Rai Bachchan

मैं जीवन की शंका महान!
युग-युग संचालित राह छोड़,
युग-युग संचित विश्वास तोड़!
मैं चला आज युग-युग सेवित,
पाखंड-रुढ़ि से बैर ठान।
मैं जीवन की शंका महान!
होगी न हृदय में शांति व्याप्त,
कर लेता जब तक नहीं प्राप्त,
जग-जीवन का कुछ नया अर्थ,
जग-जीवन का कुछ नया ज्ञान।
मैं जीवन की शंका महान!
गहनांधकार में पाँव धार,
युग नयन फाड़, युग कर पसार,
उठ-उठ, गिर-गिरकर बार-बार
मैं खोज रहा हूँ अपना पथ,
अपनी शंका का समाधान।
मैं जीवन की शंका महान!

तन में ताकत हो तो आओ - Harivansh Rai Bachchan

तन में ताकत हो तो आओ।
पथ पर पड़ी हुई चट्टानें,
दृढ़तर हैं वीरों की आनें,
पहले-सी अब कठिन कहाँ है--ठोकर एक लगाओ।
तन में ताकत हो तो आओ।
राह रोक है खड़ा हिमालय,
यदि तुममें दम, यदि तुम निर्भय,
खिसक जाएगा कुछ निश्चय है--घूँसा एक लगाओ।
तन में ताकत हो तो आओ।
रस की कमी नही है जग में,
बहता नहीं मिलेगा मग में,
लोहे के पंजे से जीवन की यह लता दबाओ।
तन में ताकत हो तो आओ।

उठ समय से मोरचा ले - Harivansh Rai Bachchan

उठ समय से मोरचा ले।
जिस धरा से यत्न युग-युग
कर उठे पूर्वज मनुज के,
हो मनुज संतान तू उस-पर पड़ा है शर्म खाले।
उठ समय से मोरचा ले।
देखता कोई नहीं है
निर्बलों की यह निशानी,
लोचनों के बीच आँसू औ' पगों के बीच छाले!
उठ समय से मोरचा ले।
धूलि धूसर वस्त्र मानव--
देह पर फबते नहीं हैं,
देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रँगाले।
उठ समय से मोरचा ले।

तू कैसे रचना करता है - Harivansh Rai Bachchan

(१)
तू कैसे रचना करता है?
तू कैसी रचना करता है?
अपने आँसू की बूँदों में-
अविरल आँसू की बूँदों में,
विह्वल आँसू की बूँदों में,
कोमल आँसू की बूँदों में,
निर्बल आँसू की बूँदों में-
लेखनी डुबाकर बारबार,
लिख छोटे-छोटे गीतों को
गाता है अपना गला फाड़,
करता इनका जग में प्रचार।
(२)
इनको ले बैठ अकेले में
तुझ-से बहुतेरे दुखी-दीन
खुद पढ़ते हैं, खुद सुनते हैं,
तुझसे हमदर्दी दिखलाते,
अपनी पीड़ा को दुलराते,
कहते हैं, 'जीवन है मलीन,
यदि बचने का कोई उपाय
तो वह केवल है एक मरण।'
(३)
तू ऐसे अपनी रचना कर,
तू ऐसी अपनी रचना कर,
जग के आँसू के सागर में--
जिसमें विक्षोभ छलकता है,
जिसमें विद्रोह बलकता है,
जय का विश्वास ललकता है,
नवयुग का प्रात झलकता है--
तू अपना पूरा कलम डुबा,
लिख जीवन की ऐसी कविता,
गा जीवन का ऐसा गायन,
गाए संग में जग का कण-कण।
(४)
जो इसको जिह्वा पर लाए,
वह दुखिया जग का बल पाए,
दुख का विधान रचनेवाला,
चाहे हो विश्व-नियंता ही,
इसको सुनकर थर्रा जाए।
घोषणा करे इसका गायक,
'जीवन है जीने के लायक,
जीवन कुछ करने के लायक,
जीवन है लड़ने के लायक,
जीवन है मरने के लायक,
जीवन के हित बलि कर जीवन।'

पंगु पर्वत पर चढ़ोगे - Harivansh Rai Bachchan

पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!
चोटियाँ इस गिरि गहन की
बात करतीं हैं गगन से,
और तुम सम भूमि पर चलना अगर चाहो गिरोगे।
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!
तुम किसी की भी कृपा का
बल न मानोगे सफल हो?
औ' विफल हो दोष अपना सिर न औरों के मढ़ोगे?
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!
यह इरादा नप अगर सकता
शिखर से उच्च होता,
गिरि झुकेगा ही इसे ले जबकि तुम आगे बढ़ोगे।
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे।

गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर - Harivansh Rai Bachchan

गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!
जबकि ध्येय बन चुका,
जबकि उठ चरण चुका,
स्वर्ग भी समीप देख--मत ठहर, मत ठहर, मत ठहर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!
संग छोड़ सब चले,
एक तू रहा भले,
किंतु शून्य पंथ देख--मत सिहर, मत सिहर, मत सिहर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!
पूर्ण हुआ एक प्रण,
तन मगन, मन मगन,
कुछ न मिले छोड़कर--पत्थर, पत्थर, पत्थर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!

यह काम कठिन तेरा ही था

यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।
तूने मदिरा की धारा पर
स्वप्नों की नाव चलाई है,
तूने मस्ती की लहरों पर
अपनी वाणी लहराई है।
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।
तूने आँसू की धारा में
नयनों की नाव डुबाई है,
तूने करुणा की सरिता की
डुबकी ले थाह लगाई है।
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।
अब स्वेद-रक्त का सागर है,
उस पार तुझे ही जाना है,
उस पार बसी है जो दुनिया
उसका संदेश सुनाना है।
अब देख न ड़र, अब देर न कर,
तूने क्या हिम्मत पाई है!
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।

बजा तू वीणा और प्रकार - Harivansh Rai Bachchan

बजा तू वीणा और प्रकार।
कल तक तेरा स्वर एकाकी,
मौन पड़ी थी दुनिया बाकी,
तेरे अंतर की प्रतिध्वनि थी तारों की झनकार।
बजा तू वीणा और प्रकार।
आज दबा जाता स्वर तेरा,
आज कँपा जाता कर तेरा,
बढ़ता चला आ रहा है उठ जग का हाहाकार।
बजा तू वीणा और प्रकार।
क्या कर की वीणा धर देगा,
या नूतन स्वर से भर देगा,
जिसमें होगा एक राग तेरा, जग का चीत्कार?
बजा तू वीणा और प्रकार।

यह एक रश्मि - Harivansh Rai Bachchan

(१)
यह एक रश्मि-
पर छिपा हुआ है इसमें ही
ऊषा बाला का अरुण रूप,
दिन की सारी आभा अनूप,
जिसकी छाया में सजता है
जग राग रंग का नवल साज।
यह एक रश्मि!
(२)
यह एक बिंदु-
पर छिपा हुआ है इसमें ही
जल-श्यामल मेघों का वितान,
विद्युत-बाला का वज्र ज्ञान,
जिसको सुनकर फैलाता है
जग पर पावस निज सरस राज।
यह एक बिंदु!
(३)
वह एक गीत-
जिसमें जीवन का नवल वेश,
जिसमें जीवन का नव सँदेश,
जिसको सुनकर जग वर्तमान
कर सकता नवयुग में प्रवेश,
किस कवि के उर में छिपा आज?
वह एक गीत!

जब-जब मेरी जिह्वा डोले - Harivansh Rai Bachchan

जब-जब मेरी जिह्वा डोले।
स्वागत जिनका हुआ समर में,
वक्षस्थल पर, सिर पर, कर में,
युग-युग से जो भरे नहीं हैं मन के घावों को खोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।
यदि न बन सके उनपर मरहम,
मेरी रसना दे कम से कम
इतना तो रस जिसमें मानव अपने इन घावों को धोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।
यदि न सके दे ऐसे गायन,
बहले जिनको गा मानव मन;
शब्द करे ऐसे उच्चारण,
जिनके अंदर से इस जग के शापित मानव का स्वर बोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।

तू एकाकी तो गुनहगार - Harivansh Rai Bachchan

तू एकाकी तो गुनहगार।
अपने पर होकर दयावान
तू करता अपने अश्रुपान,
जब खड़ा माँगता दग्ध विश्व तेरे नयनों की सजल धार।
तू एकाकी तो गुनहगार।
अपने अंतस्तल की कराह
पर तू करता है त्राहि-त्राहि,
जब ध्वनित धरणि पर, अम्बर में चिर-विकल विश्व का चीत्कार।
तू एकाकी तो गुनहगार।
तू अपने में ही हुआ लीन,
बस इसीलिए तू दृष्टिहीन,
इससे ही एकाकी-मलीन,
इससे ही जीवन-ज्योति-क्षीण;
अपने से बाहर निकल देख है खड़ा विश्व बाहें पसार।
तू एकाकी तो गुनहगार।

गाता विश्व व्याकुल राग - Harivansh Rai Bachchan

गाता विश्व व्याकुल राग।
है स्वरों का मेल छूटा,
नाद उखड़ा, ताल टूटा,
लो, रुदन का कंठ फूटा,
सुप्त युग-युग वेदना सहसा पड़ी है जाग।
गाता विश्व व्याकुल राग।
वीण के निज तार कसकर
और अपना साधकर स्वर
गान के हित आज तत्पर
तू हुआ था, किंतु अपना ध्येय गायक त्याग।
गाता विश्व व्याकुल राग।
उँगलियां तेरी रुकेंगी,
बज नहीं वीणा सकेगी,
राग निकलेगा न मुख से,
यत्न कर साँसें थकेंगी;
करुण क्रंदन में जगत के आज ले निज भाग।
गाता विश्व व्याकुल राग।

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