Shri Krishna Bal-Madhuri-Bhakt Surdas Ji श्रीकृष्ण बाल-माधुरी-भक्त सूरदास जी

Hindi Kavita

Shri Krishna Bal-Madhuri-Bhakt Surdas Ji
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी-भक्त सूरदास जी

251. हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ - सूरदास

हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।
प्रातहि तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ॥
काहू के लरिकहि हरि मार्‌यौ, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।
तबही तैं बाँधे हरि बैठे, सो तुमकौं आनि जनायौ ॥
हम बरजी बरज्यौ नहिं मानति, सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।
सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर-तनु अतिहिं त्रसायौ ॥

252. यह सुनि कै हलधर तहँ धाए - सूरदास

यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।
देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहीं दोउ लोचन भरि आए ॥
मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।
अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोरि जननि पै आए ॥
स्यामहि छोरि मोहि बाँधै बरु, निकसत सगुन भले नहिं पाए ।
मेरे प्रान जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहि बँधे दिखाए ॥
माता सौं कहा करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।
सूरदास तब कहति जसोदा, दोउ भैया तुम इक-मत पाए ॥

253. एतौ कियौ कहा री मैया - सूरदास

एतौ कियौ कहा री मैया ?
कौन काज धन दूध दही यह, छोभ करायौ कन्हैया ॥
आईं सिखवन भवन पराऐं स्यानि ग्वालि बौरैया ।
दिन-दिन देन उरहनों आवतीं ढुकि-ढुकि करतिं लरैया ॥
सूधी प्रीति न जसुदा जानै, स्याम सनेही ग्वैयाँ ।
सूर स्यामसुंदरहिं लगानी, वह जानै बल-भैया ॥

254. काहे कौं कलह नाथ्यौ - सूरदास

काहे कौं कलह नाथ्यौ, दारुन दाँवरि बाँध्यौ, कठिन लकुट लै तैं, त्रास्यौ मेरैं भैया ।
नाहीं कसकत मन, निरखि कोमल तन, तनिक-से दधि काज, भली री तू मैया ॥
हौं तौ न भयौ री घर, देखत्यौ तेरी यौं अर, फोरतौ बासन सब, जानति बलैया ।
सूरदासहित हरि, लोचन आए हैं भरि,बलहू कौं बल जाकौ सोई री कन्हैया ॥

राग केदारौ
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255. काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया - सूरदास

काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया,
मोहन हमारौ भैया, केतौ दधि पियतौ ।
हौं तौ न भयौ री घर, साँटी दीनी सर-सर,
बाँध्यौ कर जेंवरिनि, कैसें देखि जियतौ ॥
गोपाल सबनि प्यारौ, ताकौं तैं कीन्हौ प्रहारो,
जाको है मोहू कौं गारौ, अजगुत कियतौ ।
और होतौ कोऊ, बिन जननी जानतौ सोऊ,
कैसैं जाइ पावतौ, जौ आँगुरिनि छियतो ॥
ठाढ़ौ बाँध्यौ बलबीर, नैननि गिरत नीर,
हरि जू तैं प्यारौ तोकौं, दूध-दही घियतौ ।
सूर स्याम गिरिधर, धराधर हलधर,
यह छबि सदा थिर, रहौ मेरैं जियतौ ॥

राग सोरठ

256. जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ - सूरदास

जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ ।
कसक्यौ नाहिं नैकु मन तेरौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
सिव-बिरंचि महिमा नहिं जानत, सो गाइनि सँग धायौ ।
तातैं तू पहचानति नाहीं, कौन पुण्य तैं पायौ ॥
कहा भयौ जो घरकैं लरिका, चोरी माखन खायौ ?
इतनी कहि उकसारत बाहैं, रोष सहित बल धायौ ॥
अपनैं कर सब बंधन छोरे, प्रेम सहित उर लायौ ।
सूर सुबचन मनोहर कहि-कहि अनुज-सूल बिसरायौ ॥

राग बिलावल

257. काहे कौ हरि इतनौ त्रास्‍यौ - सूरदास

काहे कौ हरि इतनौ त्रास्‍यौ।
सुनि री मैया, मेरैं भैया कितनी गोरस नास्‍यौ।
जब रजु सौं कर गाढ़ैं बांधे, छर-छर मारी सांटी।
सूनैं घर बाबा नँद नाहीं, ऐसैं करि हरि डांटी।
और नैकु छूवै देखै स्‍यामहि, ताकौ करौ निपात।
तू जो करै बात, सोइ सांची, कहा कहौं तोहिं मात।
ठाढ़े बदत बात सब हलधर, माखन प्‍यारौ तोहि।
ब्रज-प्‍यारौ, जाकौ मोहि गारौ, छोरत काहे न आहि।
काकौ ब्रज, माखन दधि काकौ, बांधे जकरि कन्‍हाई।
सुनत सूर हलधर की बानी जननी सैन बताई।।

राग सोरठ

258. सुनहु बात मेरी बलराम - सूरदास

सुनहु बात मेरी बलराम ।
करन देहु इन की मोहि पूजा, चोरी प्रगटत नाम ॥
तुमही कहौ, कमी काहे की, नब-निधि मेरैं धाम ।
मैं बरजति, सुत जाहु कहूँ जनि, कहि हारी दिन-जाम ॥
तुमहु मोहि अपराध लगायौ, माखन प्यारौ स्याम ।
सुनि मैया, तोहि छाँड़ि कहौं किहि, को राखै तेरैं ताम ॥
तेरी सौं, उरहन लै आवतिं झूठहिं ब्रज की बाम ।
सूर स्याम अतिहीं अकुलाने, कब के बाँधे दाम ॥

राग सारंग

259. कहा करौं हरि बहुत खिझाई - सूरदास

कहा करौं हरि बहुत खिझाई ।
सहि न सकी, रिसहीं रिस भरि गई, बहुतै ढीठ कन्हाई ॥
मेरौ कह्यौ नैकु नहिं मानत, करत आपनी टेक ।
भोर होत उरहन लै आवतिं, ब्रज की बधू अनेक ॥
फिरत जहाँ-तहँ दुंद मचावत, घर न रहत छन एक ।
सूर स्याम त्रीभुवन कौ कर्ता जसुमति गहि निज टेक ॥

260. जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ - सूरदास

जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ ।
डारि देहि कर मथत मथानी, तरसत नंद-दुलारी ॥
दूध-दही-मक्खन लै वारौं, जाहि करति तू गारौ ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद देखि छबि, कोह न नैकु निवारौ ॥
ब्रह्म, सनक, सिव ध्यान न पावत, सो ब्रज गैयनि चारौ ।
सूर स्याम पर बलि-बलि जैऐ, जीवन-प्रान हमारौ ॥

राग गूजरी

261. जसोदा ऊखल बाँधे स्याम - सूरदास

जसोदा ऊखल बाँधे स्याम ।
मन-मोहन बाहिर ही छाँड़े, आपु गई गृह-काम ॥
दह्यौ मथति, मुख तैं कछु बकरति, गारी दे लै नाम ।
घर-घर डोलत माखन चोरत, षट-रस मेरैं धाम ॥
ब्रज के लरिकनि मारि भजत हैं, जाहु तुमहु बलराम ।
सूरि स्याम ऊखल सौं बाधै, निरखहिं ब्रजकी बाम ॥

राग रामकली

262. निरखि स्याम हलधर मुसुकाने - सूरदास

निरखि स्याम हलधर मुसुकाने।
को बाँधे, को छोरे इनकौं, यह महिमा येई पै जाने ॥
उपतपति-प्रलय करत हैं येई, सेष सहस मुख सुजस बखाने ।
जमलार्जुन-तरु तोरि उधारन पारन करन आपु मन माने ॥
असुर सँहारन, भक्तनि तारन, पावन-पतित कहावत बाने ।
सूरदास-प्रभु भाव-भक्ति के अति हित जसुमति हाथ बिकाने ॥

राग गौरी

263. जसुमति, किहिं यह सीख दई - सूरदास

जसुमति, किहिं यह सीख दई ।
सुतहि बाँधि तू मथति मथानी, ऐसी निठुर भई ॥
हरैं बोलि जुवतिनि कौं लीन्हौं, तुम सब तरुनि नई ।
लरिकहि त्रास दिखावत रहिऐ, कत मुरुझाइ गई ॥
मेरे प्रान-जिवन-धन माधौ, बाँधें बेर भई ।
सूर स्याम कौं त्रास दिखावति, तुम कहा कहति दई ॥

राग धनाश्री

264. तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई - सूरदास

तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई ।
जुवती गई घरनि सब अपनैं, गृह-कारज जननी अटकाई ॥
आपु गए जमलार्जुन-तरु तर, परसत पात उठे झहराई ।
दिए गिराइ धरनि दोऊ तरु, सुत कुबेर के प्रगटे आई ॥
दोउ कर जोरि करत दोउ अस्तुति, चारि भुजा तिन्ह प्रगट दिखाई ।
सूर धन्य ब्रज जनम लियौ हरि, धरनि की आपदा नसाई ॥

265. धनि गोबिंद जो गोकुल आए - सूरदास

 धनि गोबिंद जो गोकुल आए ।
धनि-धनि नंद , धन्य निसि-बासर, धनि जसुमति जिन श्रीधर जाए ॥
धनि-धनि बाल-केलि जमुना -तट, धनि बन सुरभी-बृंद चराए ।
धनि यह समौ, धन्य ब्रज-बासी, धनि-धनि बेनु मधुर धुनि गाए ॥
धनि-धनि अनख, उरहनौ धनि-धनि, धनिमाखन, धनि मोहन खाए ।
धन्य सूर ऊखल तरु गोबिंद हमहि हेतु धनि भुजा बँधाए ॥

राग बिलावल

266. मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी - सूरदास

मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी ।
कंठ लगाइ लिये, मुख चूमति, सुंदर स्याम बिहारी ॥
काहे कौं ऊखल सौं बाँध्यौ, कैसी मैं महतारी ।
अतिहिं उतंग बयारि न लागत, क्यौं टूटे तरु भारी ॥
बारंबार बिचारति जसुमति , यह लीला अवतारी ।
सूरदास स्वामी की महिमा, कापै जाति बिचारी ॥

राग नट

267. अब घर काहू कैं जनि जाहु - सूरदास

 अब घर काहू कैं जनि जाहु ।
तुम्हरैं आजु कमी काहे की , कत, तुम अनतहिं खाहु ॥
बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधे, परैं हाथ भहराइ ।
नंद मोहि अतिहीं त्रासत हैं, बाँधे कुँवर कन्हाइ ॥
रोग जाऊ मेरे हलधरके, छोरत हौ तब स्याम ।
सूरदास-प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम ॥

राग सारंग

268. ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं - सूरदास

ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं ।
बारंबार निरखि कोमल तनु, कर जोरतिं, बिधि कौं जु मनावतिं ॥
कैसैं बचे अगम तरु कैं तर, मुख चूमतिं, यह कहि पछितावतिं ।
उरहन लै आवतिं जिहिं कारन, सो सुख फल पूरन करि पावतिं ॥
सुनौ महरि, इन कौं तुम बाँधति, भुज गहि बंधन-चिह्न दिखावतिं ।
सूरदास प्रभु अति रति-नागर, गोपी हरषि हृदय लपटावतिं ॥

269. मोहि कहतिं जुबती सब चोर - सूरदास

मोहि कहतिं जुबती सब चोर ।
खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ॥
बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं, भरि लेतिं अँकोर ।
माखन हेरि देतिं अपनैं कर, कछु कहि बिधि सौं करति निहोर ॥
जहाँ मोहि देखतिं, तहँ टेरतिं , मैं नहिं जात दुहाई तोर ।
सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥

राग कान्हरौ

270. जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे - सूरदास

जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरौ कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ॥
ब्रज-बनिता सब चोर कहति तोहिं, लाजनि सकचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहि बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरौ ॥
जब मोहि रिस लागति तब त्रासति, बाँधति मारति जैसैं चेरौ ।
सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी, चोर नाम कैसैहुँ सुत फेरौ ॥

राग केदारौ

271. धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि - सूरदास

 धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि ।
आपुन बैठि गए तिन कैं सँग, सिखवहु मोहि कहत गोपालनि ॥
काल्हि तुम्हैं गो दुहन सिखावैं, दुहीं सबै अब गाइ ।
भौर दुहौ जनि नंद-दुहाई, उन सौं कहत सुनाई ॥
बड़ौ भयौ अब दुहत रहौंगौ, अपनी धेनु निबेरि ।
सूरदास प्रभु कहत सौंह दै, मोहिं लीजौ तुम टेरि ॥

राग बिलावल

272. मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु - सूरदास

मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु ।
कैसैं गहत दोहनी घुटुवनि, कैसैं बछरा थन लै लावहु ॥
कैसै लै नोई पग बाँधत, कैसैं लै गैया अटकावहु ।
कैसैं धार दूध की बाजति, सोइ-सोइ बिधि तुम मोहि बतावहु ॥
निपट भई अब साँझ कन्हैया, गैयनि पै कहुँ चोट लगावहु ।
सूर स्याम सों कहत ग्वाल सब, धेनु दुहन प्रातहिं उठि आवहु ॥

राग कान्हरू

273. जागौ हो तुम नँद-कुमार - सूरदास

जागौ हो तुम नँद-कुमार !
हौं बलि जाउँ मुखारबिंद की, गो-सुत मेलौ खरिक सम्हार ॥
अब लौं कहा सोए मन-मोहन, और बार तुम उठत सबार ।
बारहि-बार जगावति माता, अंबुज-नैन! भयौ भिनुसार ॥
दधि मथि खै माखन बहु दैहौं, सकल ग्वाल ठाढ़े दरबार ।
उठि कैं मोहन बदन दिखावहु, सूरदास के प्रान-अधार ॥

राग बिलावल

274. जागहु हो ब्रजराज हरी - सूरदास

जागहु हो ब्रजराज हरी !
लै मुरली आँगन ह्वै देखौ, दिनमनि उदित भए द्विघरी ॥
गो-सुत गोठ बँधन सब लागे, गोदोहन की जून टरी ।
मधुर बचन कहि सुतहि जगावति, जननि जसोदा पास खरी ॥
भोर भयौ दधि-मथन होत, सब ग्वाल सखनि की हाँक परी ।
सूरदास-प्रभु -दरसन कारन, नींद छुड़ाई चरन धरी ॥

275. जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत - सूरदास

जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत ।
कबहुँ पितंबर डारि बदन पर, कबहुँ उघारि जननि तन हेरत ॥
सोवत मैं जागत मनमोहन, बात सुनत सब की अवसेरत ।
बारंबार जगावति माता, लोचन खोलि पलक पुनि गेरत ॥
पुनि कहि उठी जसोदा मैया, उठहु कान्ह रबि -किरनि उजेरत ।
सूर स्याम , हँसि चितै मातु-मुख , पट करलै, पुनि-पुनि मुख फेरत ॥



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