Vardaan Munshi Premchand वरदान (उपन्यास) मुंशी प्रेमचंद

Hindi Kavita
Vardaan-Munshi-Premchand

(‘वरदान’ दो प्रेमियों की दुखांत कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएं संजोईं, जिनके सुन्दर घर के निर्माण के अपने सपने थे और भावी जीवन के निर्धारण के लिए अपनी विचारधारा थी। किन्तु उनकी कल्पनाओं का महल शीघ्र ढह गया। विश्व के महान कथा-शिल्पी प्रेमचन्द के उपन्यास वरदान में सुदामा अष्टभुजा देवी से एक ऐसे सपूत का वरदान मांगती है, जो जाति की भलाई में संलग्न हो। इसी ताने-बाने पर प्रेमचन्द की सशक्त कलम से बुना कथानक जीवन की स्थितियों की बारीकी से पड़ताल करता है। सुदामा का पुत्र प्रताप एक ऐसा पात्र है जो दीन-दुखियों, रोगियों, दलितों की निस्वार्थ सहायता करता है।
इसमें विरजन और प्रताप की प्रेम-कथा भी है, और है विरजन तथा कमलाचरण के अनमेल विवाह का मार्मिक प्रसंग। इसी तरह एक माधवी है, जो प्रताप के प्रति भाव से भर उठती है, लेकिन अंत में वह सन्यासी जो मोहपाश में बांधने की जगह स्वयं योगिनी बनना पसंद करती हैं।)

1. वरदान

विन्ध्याचल पर्वत मध्य रात्रि के निविड़ अन्धकार काले देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दृष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं हैं और अष्टभुजा देवी का मन्दिर, जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों से लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है। मन्दिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का भान हो जाता था।
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों ओर भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखाई देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाए रहने के पश्चात् कहा-
‘माता ! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जब कि मैंने तुम्हारे चरणों पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मन की अभिलाषा पूरी न हुई ! मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं ?’
‘माता ! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं कीं, तीर्थयात्राएं कीं, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आई। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं ? तुमने सदा अपने भक्तों की इच्छाएं पूरी की हैं। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं ?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात् उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आई-
‘सुवामा ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है ?’
सुवामा रोमांचित हो गई। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात् महारानी ने उसे दर्शन दिए। वह कांपती हुई बोली-जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी ?
‘हा, मिलेगा।’
‘क्या लेगी ? कुबेर का धन ?’
‘नहीं।’
‘इन्द्र का बल !’
‘नहीं।’
‘सरस्वती की विद्या ?’
‘नहीं।’
‘फिर क्या लेगी ?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’
‘वह क्या है ?’
‘सपूत बेटा।’
‘जो कुल का नाम रोशन करे ?’
‘नहीं।’
‘जो माता-पिता की सेवा करे ?
‘नहीं।’
‘जो विद्वान और बलवान हो ?’
‘नहीं।’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं ?’
‘जो अपने देश का उपकार करे।’
‘तेरी बुद्धि को धन्य है ! जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

2. वैराग्य

मुंशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वाषिर्क आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राहमणों के बड़े श्रद्धावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह स्वयं ब्रह्रमभोज और साधुओं के भंडारे एवं सत्यकार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई साधु-महात्मा आ जाये, वह मुंशी जी का अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान कि बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे वेदान्तीय सिद्धान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृति वैराग्य की ओर थी।
मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत प्रेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिंचित होते रहते थे। जब वे घर से निकलते थे तब बालकों का एक दल उसके साथ होता था। एक दिन कोई पाषाण-हृदय माता अपने बच्चे को मार रही थी। लड़का बिलख-बिलखकर रो रहा था। मुंशी जी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद में उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर झुका दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली जो मनुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को कितना प्यार करेगा, सो अनुमान से बाहर है। जब से पुत्र पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कार्यो से अलग हो गये। कहीं वे लड़के को हिंडोल में झुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। कहीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी में बैठाकर स्वयं खींच रहे हैं। एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से दूर नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह में अपने को भूल गये थे।
सुवामा ने लड़के का नाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ही उसमें गुण भी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली और रुपवान था। जब वह बातें करता, सुनने वाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट कि द्विगुण डीलवाले लड़कों को भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था कि यदि वह अचानक किसी अपरिचित मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह विस्मय से ताकने लगता था।
इस प्रकार हँसते-खेलते छह वर्ष व्यतीत हो गये। आनंद के दिन पवन की भाँति सन्न-से निकल जाते हैं और पता भी नहीं चलता। वे दुर्भाग्य के दिन और विपत्ति की रातें हैं, जो काटे नहीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी कितने दिन हुए। बधाई की मनोहारिणी ध्वनि कानों मे गूँज रही थी कि छठी वर्षगांठ आ पहुंची। छठे वर्ष का अंत दुर्दिनों का श्रीगणेश था। मुंशी शालिग्राम का सांसारिक सम्बन्ध केवल दिखावटी था। वह निष्काम और निस्सम्बद्ध जीवन व्यतीत करते थे। यद्यपि प्रकट वह सामान्य संसारी मनुष्यों की भांति संसार के क्लेशों से क्लेशित और सुखों से हर्षित दृष्टिगोचर होते थे, तथापि उनका मन सर्वथा उस महान और आनन्दपूर्व शांति का सुख-भोग करता था, जिस पर दख के झोंकों और सुख की थपकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
माघ का महीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भाँति भर-भरकर प्रयाग पहुँचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्ध-जिनके लिए वर्षो से उठना कठिन हो रहा था–लंगड़ाते, लाठियां टेकते मंज़िल तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु-महात्मा, जिनके दर्शनो की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफ़ाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले–कल स्नान है।
सुवामा–सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।
मुंशी–तुम चलना स्वीकार नहीं करती, नहीं तो बड़ा आनंद होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा।
सुवामा–ऐसे मेले से मेरा जी घबराता है।
मुंशी–मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना कि स्वामी परमानन्द जी आए हैं तब से उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।
सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गयी। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेत्र सजल हैं। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कॉंपने लगता है, उसी भाँति मुंशीजी ने नेत्रों का अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदें वैराग्य और त्याग का अगाघ समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हे जल के कण थीं, पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।
उधर मुंशी जी घर के बाहर निकले और इधर सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गयी, यहाँ तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशी जी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुंशी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गयी। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए ही नहीं, वरन सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में दुकानों पर, हथाइयो में अर्थात चारों और यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता–क्या धनी, क्या निर्धन। यह शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्साह फैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहाँ अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गयी है। उनकी माताएँ आँचल से मुख ढाँप-ढाँपकर रोतीं मानों उनका सगा प्रेमी मर गया है।
वैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े आँसू, उन आढतियों और महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेने-देने का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रहनभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं दिया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है। मन्दिर बनवाते समय एक महाजन के बीस सहस्र ऋण लिया था, वह अभी वैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और तत्सम्बन्धिनी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्तु न थी, जिससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।
बेचारी सुवामा सिर नीचा किए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन में टख-टख कर रहा था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री –जो कुल के पुरोहित थे –मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि शायद यह कोई शुभ समाचार लाये हैं। उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी। पण्डितजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले तुमने महाजनों का लेखा देखा?
सुवामा ने निराशापूर्ण शब्दों में कहा–हां, देखा तो।
मोटेराम–रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहाँ कुछ हिसाब-किताब न रखा।
सुवामा–हाँ, अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।
मोटेराम–सब दिन समान नहीं बीतते।
सुवामा–अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हूँ।
मोटेराम–हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है?
सुवामा–हाँ, गाँव बेच डालूंगी।
मोटेराम–राम-राम। यह क्या कहती हो? भूमि बिक गयी, तो फिर बात क्या रह जाएगी?
मोटेराम–भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन निर्वाह कैसे होगा?
सुवामा–हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।
मोटेराम–यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दख भोगें।
सुवामा–ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?
मोटेराम–भला, मैं एक युक्ति बता दूँ कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
सुवामा–हाँ, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।
मोटेराम–पहले तो एक दरख़्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो कि मालगुज़ारी माफ़ की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आँच ना आने पाएगी।
सुवामा–कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहाँ से लायेंगे?
मोटेराम–तुम्हारे लिए रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के नाम पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुँह से ‘हाँ’ निकलने की देरी है।
सुवामा–नगर के भद्र-पुरुषों ने एकत्र किया होगा?
मोटेराम–हाँ, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का इशारा बहुत था।
सुवामा–कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पञ मुझसे न लिखवाया जाएगा और न मैं अपने स्वामी के नाम पर ऋण ही लेना चाहती हूँ। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ही से चुका दूंगी।
यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुँह फेर लिया और उसके पीले तथा शोकान्वित बदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात बिगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले–अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दुख उठाते देखा, तो उस दिन प्रलय हो जायेगा। बस, इतना समझ लो।
सुवामा–तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूँ? मैं इसी घर में जल मरुंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर किसी की उपकृत न बनूंगी।
मोटेराम–छि:छि:। तुम्हारे ऊपर निहोरा कौन कर सकता है? कैसी बात मुख से निकालती है? ऋण लेने में कोई लाज नहीं है। कौन रईस है जिस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?
सुवामा–मुझे विश्वास नहीं होता कि इस ऋण में निहोरा है।
मोटेराम–सुवामा, तुम्हारी बुद्धि कहाँ गयी? भला, सब प्रकार के दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर दया नहीं आती?
मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा। इस बच्चे के लिए मैंने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की? क्या उसके भाग्य में दुख ही बदा है। जो अमोला जलवायु के प्रखर झोंकों से बचाता जाता था, जिस पर सूर्य की प्रचण्ड किरणें न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभी सिंचित रहता था, क्या वह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुरझायेगा? सुवामा कई मिनट तक इसी चिन्ता में बैठी रही। मोटेराम मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि अब सफलीभूत हुआ। इतने में सुवामा ने सिर उठाकर कहा-जिसके पिता ने लाखों को जिलाया-खिलाया, वह दूसरों का आश्रित नहीं बन सकता। यदि पिता का धर्म उसका सहायक होगा, तो स्वयं दस को खिलाकर खाएगा। लड़के को बुलाते हुए–‘बेटा। तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो जाएंगे। रोओगे तो नहीं?’ यह कहकर उसने बेटे को प्यार से बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया।
प्रताप–क्या कहा? कल से मिठाई बन्द होगी? क्यों क्या हलवाई की दुकान पर मिठाई नहीं है?
सुवामा–मिठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा?
प्रताप–हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा तेज घोड़ा है।
सुवामा की आँखों में फिर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस सौन्दर्य और सुकुमारता की मूर्ति पर अभी से दरिद्रता की आपत्तियाँ आ जाएंगी। नहीं नहीं, मैं स्वयं सब भोग लूंगी। परन्तु अपने प्राण-प्यारे बच्चे के ऊपर आपत्ति की परछाहीं तक न आने दूंगी।’ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अपने हठी और मुँहजोर घोड़े पर चढ़ने में पूर्ण शक्ति से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।
अभिप्राय यह कि मोटेराम ने बहुत जाल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं करके ‘हाँ’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के मन में उसकी प्रतिष्ठा दूनी हो गयी। उसने वही किया, जो ऐसे संतोषपूर्ण और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित था।
इसके पन्द्रहवें दिन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास सहस्र रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका दिया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच दिया गया। मकान में भी सुवामा ने भीतर से ऊँची-ऊँची दीवारें खिंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर दिये। एक में आप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा दिया।

3. नये पड़ोसियों से मेल-जोल

मुंशी संजीवनलाल, जिन्होंने सुवाम का घर भाड़े पर लिया था, बड़े विचारशील मनुष्य थे। पहले एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे, किन्तु अपनी स्वतंत्र इच्छा के कारण अफसरों को प्रसन्न न रख सके। यहां तक कि उनकी रुष्टता से विवश होकर इस्तीफा दे दिया। नौकर के समय में कुछ पूंजी एकत्र कर ली थी, इसलिए नौकरी छोड़ते ही वे ठेकेदारी की ओर प्रवृत्त हुए और उन्होंने परिश्रम द्वारा अल्पकाल में ही अच्छी सम्पत्ति बना ली। इस समय उनकी आय चार-पांच सौ मासिक से कम न थी। उन्होंने कुछ ऐसी अनुभवशालिनी बुद्धि पायी थी कि जिस कार्य में हाथ डालते, उसमें लाभ छोड़ हानि न होती थी।
मुंशी संजीवनलाल का कुटुम्ब बड़ा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दीं, पर इस समय माता-पिता के नयनों की पुतली केवल एक पुञी ही थी। उसका नाम वृजरानी था। वही दम्पति का जीवनाश्राम थी।
प्रतापचन्द्र और वृजरानी में पहले ही दिन से मैत्री आरंभ हा गयी। आधे घंटे में दोनों चिड़ियों की भांति चहकने लगे। विरजन ने अपनी गुड़िया, खिलौने और बाजे दिखाये, प्रतापचन्द्र ने अपनी किताबें, लेखनी और चित्र दिखाये। विरजन की माता सुशीला ने प्रतापचन्द्र को गोद में ले लिया और प्यार किया। उस दिन से वह नित्य संध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों भाई-बहिन है। सुशीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घंटों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को देखा करती, विरजन भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। विपत्ति की मारी सुवामा उसे देखकर अपना दु:ख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन बहलाती।
एक दिन मुंशी संजीवनलाल बाहर से आये तो क्या देखते हैं कि प्रताप और विरजन दोनों दफ्तर में कुर्सियों पर बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और विरजन ध्यान लगाये सुन रही है। दोनों ने ज्यों ही मुंशीजी को देखा उठ खड़े हुए। विरजन तो दौड़कर पिता की गोद में जा बैठी और प्रताप सिर नीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा गुणवान बालक था। आयु अभी आठ वर्ष से अधिक न थी, परन्तु लक्षण से भावी प्रतिभा झलक रही थी। दिव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव्र चितवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल उस पर स्वच्छ कपड़े मुंशी जी ने कहा–यहां आओ, प्रताप।
प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता-सकुचाता समीप आया। मुंशी जी ने पितृवत् प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा–तुम अभी कौन-सी किताब पढ़ रहे थे।
प्रताप बोलने ही को था कि विरजन बोल उठी–बाबा। अच्छी-अच्छी कहानियां थीं। क्यों बाबा। क्या पहले चिड़ियां भी हमारी भांति बोला करती थीं।
मुंशी जी मुस्कराकर बोले-हां। वे खूब बोलती थीं।
अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि प्रताप जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला–नहीं विरजन तुम्हें भुलाते हैं ये कहानिया बनायी हुई हैं।
मुंशी जी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हंसे।
अब तो प्रताप तोते की भांति चहकने लगा-स्कूल इतना बड़ा है कि नगर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीवारें इतनी ऊंची हैं, जैसे ताड़। बलदेव प्रसाद ने जो गेंद में हिट लगायी, तो वह आकाश में चला गया। बड़े मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात बिछी हुई है। उस पर फूलों से भरे गिलास रखे हैं। गंगाजी का पानी नीला है। ऐसे जोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाये। वहां एक साधु बाबा है। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इंजिन बोलता है झक-झक। इंजिन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखायी देते हैं।
इस भांति कितनी ही बातें प्रताप ने अपनी भोली-भाली बोली में कहीं विरजन चित्र की भांति चुपचाप बैठी सुन रही थी। रेल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञात न था कि उसे किसने बनाया और वह क्यों कर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया भी था परन्तु उन्होंने यही कह कर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाडियों को सन-सन खींचे।
लिए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजन ने पिता के गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी प्रताप की किताब पढ़ेंगे।
मुंशी-बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह तो भाषा है।
विरजन-तो मैं भी भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियां हैं। मेरी किताब में तो भी कहानी नहीं। क्यों बाबा, पढ़ना किसे कहते है ?
मुंशी जी बंगले झांकने लगे। उन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नही दिया था कि पढ़ना क्या वस्तु है। अभी वे माथ ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा–मुझे पढ़ते देखा, उसी को पढ़ना कहते हैं।
विरजन–क्या मैं नहीं पढ़ती? मेरे पढ़ने को पढ़ना नहीं कहतें?
विरजन सिद्धान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप ने कहा-तुम तोते की भांति रटती हो।

4. एकता का संबंध पुष्ट होता है

कुछ काल से सुवामा ने द्रव्याभाव के कारण महाराजिन, कहार और दो महरियों को जवाब दे दिया था क्योंकि अब न तो उसकी कोई आवश्यकता थी और न उनका व्यय ही संभाले संभलता था। केवल एक बुढ़िया महरी शेष रह गयी थी। ऊपर का काम-काज वह करती रसोई सुवामा स्वयं बना लेगी। परन्तु उस बेचारी को ऐसे कठिन परिश्रम का अभ्यास तो कभी था नहीं, थोड़े ही दिनों में उसे थकान के कारण रात को कुछ ज्वर रहने लगा। धीरे-धीरे यह गति हुई कि जब देखें ज्वर विद्यमान है। शरीर भुना जाता है, न खाने की इच्छा है न पीने की। किसी कार्य में मन नहीं लगता। पर यह है कि सदैव नियम के अनुसार काम किये जाती है। जब तक प्रताप घर रहता है तब तक वह मुखाकृति को तनिक भी मलिन नहीं होने देती परन्तु ज्यों ही वह स्कूल चला जाता है, त्यों ही वह चद्दर ओढ़कर पड़ी रहती है और दिन-भर पड़े-पड़े कराहा करती है।
प्रताप बुद्धिमान लड़का था। माता की दशा प्रतिदिन बिगड़ती हुई देखकर ताड गया कि यह बीमार है। एक दिन स्कूल से लौटा तो सीधा अपने घर गया। बेटे को देखते ही सुवामा ने उठ बैठने का प्रयत्न किया पर निर्बलता के कारण मूर्छा आ गयी और हाथ-पांव अकड़ गये। प्रताप ने उसं संभाला और उसकी और भर्त्सना की दृष्टि से देखकर कहा-अम्मा तुम आजकल बीमार हो क्या? इतनी दुबली क्यों हो गयी हो? देखो, तुम्हारा शरीर कितना गर्म है। हाथ नहीं रखा जाता।
सुवाम ने हंसने का उद्योग किया। अपनी बीमारी का परिचय देकर बेटे को कैसे कष्ट दे? यह नि:स्पृह और नि:स्वार्थ प्रेम की पराकाष्टा है। स्वर को हलका करके बोली नहीं बेटा बीमार तो नहीं हूं। आज कुछ ज्वर हो आया था, संध्या तक चंगी हो जाऊंगी। आलमारी में हलुवा रखा हुआ है निकाल लो। नहीं, तुम आओ बैठो, मैं ही निकाल देती हूं।
प्रताप-माता, तुम मुझ से बहाना करती हो। तुम अवश्य बीमार हो। एक दिन में कोई इतना दुर्बल हो जाता है?
सुवाता–(हंसकर) क्या तुम्हारे देखने में मैं दुबली हो गयी हूं।
प्रताप–मैं डॉक्टर साहब के पास जाता हूं।
सुवामा–(प्रताप का हाथ पकड़कर) तुम क्या जानों कि वे कहां रहते हैं?
ताप–पूछते-पूछते चला जाऊंगा।
सुवामा कुछ और कहना चाहती थी कि उसे फिर चक्कर आ गया। उसकी आंखें पथरा गयीं। प्रताप उसकी यह दशा देखते ही डर गया। उससे और कुछ तो न हो सका, वह दौड़कर विरजन के द्वार पर आया और खड़ा होकर रोने लगा।
प्रतिदिन वह इस समय तक विरजन के घर पहुंच जाता था। आज जो देर हुई तो वह अकुलायी हुई इधर-उधर देख रही थी। अकस्मात द्वार पर झांकने आयी, तो प्रताप को दोनों हाथों से मुख ढांके हुए देखा। पहले तो समझी कि इसने हंसी से मुख छिपा रखा है। जब उसने हाथ हटाये तो आंसू दीख पड़े। चौंककर बोली–लल्लू क्यों रोते हो? बता दो।
प्रताप ने कुछ उत्तर न दिया, वरन् और सिसकने लगा।
विरजन बोली–न बताओगे! क्या चाची ने कुछ कहा? जाओ, तुम चुप नही होते।
प्रताप ने कहा–नहीं, विरजन, मां बहुत बीमार है।
यह सुनते ही वृजरानी दौड़ी और एक सांस में सुवामा के सिरहाने जा खड़ी हुई। देखा तो वह सुन्न पड़ी हुई है, आंखे मुंद हुई हैं और लम्बी सांसे ले रही हैं। उनका हाथ थाम कर विरजन झिंझोड़ने लगी–चाची, कैसी जी है, आंखें खोलों, कैसा जी है?
परन्तु चाची ने आंखें न खोलीं। तब वह ताक पर से तेल उतारकर सुवाम के सिर पर धीरे-धीरे मलने लगी। उस बेचारी को सिर में महीनों से तेल डालने का अवसर न मिला था, ठण्डक पहुंची तो आंखें खुल गयीं।
विरजन–चाची, कैसा जी है? कहीं दर्द तो नहीं है?
सुवामा–नहीं, बेटी दर्द कहीं नहीं है। अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं। भैया कहां हैं?
विरजन-वह तो मेर घर है, बहुत रो रहे हैं।
सुवामा–तुम जाओ, उसके साथ खेलों, अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं।
अभी ये बातें हो रही थीं कि सुशीला का भी शुभागमन हुआ। उसे सुवाम से मिलने की तो बहुत दिनों से उत्कष्ठा थी, परन्तु कोई अवसर न मिलता था। इस समय वह सात्वना देने के बहाने आ पहुंची।विरजन ने अपन माता को देखा तो उछल पड़ी और ताली बजा-बजाकर कहने लगी–मां आयी, मां आयी।
दोनों स्त्रीयों में शिष्टाचार की बातें होने लगीं। बातों-बातों में दीपक जल उठा। किसी को ध्यान भी न हुआकि प्रताप कहां है। थोड़ देर तक तो वह द्वार पर खड़ा रोता रहा,फिर झटपट आंखें पोंछकर डॉक्टर किचलू के घर की ओर लपकता हुआ चला। डॉक्टर साहब मुंशी शालिग्राम के मिञों में से थे। और जब कभी का पड़ता, तो वे ही बुलाये जाते थे। प्रताप को केवल इतना विदित था कि वे बरना नदी के किनारे लाल बंगल में रहते हैं। उसे अब तक अपने मुहल्ले से बाहर निकलने का कभी अवसर न पड़ा था। परन्तु उस समय मातृ भक्ती के वेग से उद्विग्न होने के कारण उसे इन रुकावटों का कुछ भी ध्यान न हुआ। घर से निकलकर बाजार में आया और एक इक्केवान से बोला-लाल बंगल चलोगे? लाल बंगला प्रसाद स्थान था। इक्कावान तैयार हो गया। आठ बजते-बजते डॉक्टर साहब की फिटन सुवामा के द्वार पर आ पहुंची। यहां इस समय चारों ओर उसकी खोज हो रही थी कि अचानक वह सवेग पैर बढ़ाता हुआ भीतर गया और बोला-पर्दा करो। डॉक्टर साहब आते हैं।
सुवामा और सुशीला दोनों चौंक पड़ी। समझ गयीं, यह डॉक्टर साहब को बुलाने गया था। सुवामा ने प्रेमाधिक्य से उसे गोदी में बैठा लिया डर नहीं लगा? हमको बताया भी नहीं यों ही चले गये? तुम खो जाते तो मैं क्या करती? ऐसा लाल कहां पाती? यह कहकर उसने बेटे को बार-बार चूम लिया। प्रताप इतना प्रसन्न था, मानों परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। थोड़ी देर में पर्दा हुआ और डॉक्टर साहब आये। उन्होंने सुवामा की नाड़ी देखी और सांत्वना दी। वे प्रताप को गोद में बैठाकर बातें करते रहे। औषधियॉ साथ ले आये थे। उसे पिलाने की सम्मति देकर नौ बजे बंगले को लौट गये। परन्तु जीर्णज्वर था, अतएव पूरे मास-भर सुवामा को कड़वी-कड़वी औषधियां खानी पड़ी। डॉक्टर साहब दोनों वक्त आते और ऐसी कृपा और ध्यान रखते, मानो सुवामा उनकी बहिन है। एक बार सुवाम ने डरते-डरते फीस के रुपये एक पात्र में रखकर सामने रखे। पर डॉक्टर साहब ने उन्हें हाथ तक न लगाया। केवल इतना कहा-इन्हें मेरी ओर से प्रताप को दे दीजिएगा, वह पैदल स्कूल जाता है, पैरगाड़ी मोल ले लेगा।
विरजन और उनकी माता दोनों सुवामा की शुश्रूषा के लिए उपस्थित रहतीं। माता चाहे विलम्ब भी कर जाए, परन्तु विरजन वहां से एक क्षण के लिए भी न टलती। दवा पिलाती, पान देती जब सुवामा का जी अच्छा होता तो वह भोली-भोली बातों द्वारा उसका मन बहलाती। खेलना-कूदना सब छूट गया। जब सुवाम बहुत हठ करती तो प्रताप के संग बाग में खेलने चली जाती। दीपक जलते ही फिर आ बैठती और जब तक निद्रा के मारे झुक-झुक न पड़ती, वहां से उठने का नाम न लेती वरन प्राय: वहीं सो जाती, रात को नौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। न जाने उसे कौन-सी धुन सवार हो गयी थी।
एक दिन वृजरानी सुवामा के सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी। न जाने किस ध्यान में मग्न थी। आंखें दीवार की ओर लगी हुई थीं। और जिस प्रकार वृक्षों पर कौमुदी लहराती है, उसी भांति भीनी-भीनी मुस्कान उसके अधरों पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी ध्यान न था कि चाची मेरी और देख रही है। अचानक उसके हाथ से पंखा छूट गया। ज्यों ही वह उसको उठाने के लिए झुकी कि सुवामा ने उसे गले लगा लिया। और पुचकार कर पूछा-विरजन, सत्य कहो, तुम अभी क्या सोच रही थी?
विरजन ने माथा झुका लिया और कुछ लज्जित होकर कहा–कुछ नहीं, तुमको न बतलाऊंगी।
सूवामा–मेरी अच्छी विरजन। बता तो क्या सोचती थी?
विरजन-(लजाते हुए) सोचती थी कि.....जाओ हंसो मत......न बतलाऊंगी।
सुवामा-अच्छा ले, न हसूंगी, बताओ। ले यही तो अब अच्छा नही लगता, फिर मैं आंखें मूंद लूंगी।
विरजन-किस से कहोगी तो नहीं?
सुवामा–नहीं, किसी से न कहूंगी।
विरजन-सोचती थी कि जब प्रताप से मेरा विवाह हो जायेगा, तब बड़े आनन्द से रहूंगी।
सुवामा ने उसे छाती से लगा लिया और कहा–बेटी, वह तो तेरा भाई हे।
विरजन–हां भाई है। मैं जान गई। तुम मुझे बहू न बनाओगी।
सुवामा–आज लल्लू को आने दो, उससे पूछूँ देखूं क्या कहता है?
विरजन–नहीं, नहीं, उनसे न कहना मैं तुम्हारे पैरों पडूं।
सुवामा–मैं तो कह दूंगी।
विरजन–तुम्हे हमारी कसम, उनसे न कहना।

5. शिष्ट जीवन के दृश्य

दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटेराम नित्य प्रात: काल आत और सिद्धान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था, क्योकि इस पुस्तक के पढ़न में अब विरजन का जी न लगता था। एक दिन मुंशी जी इंजीनियर के दफतर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूत का फीता खोल रहा था कि रधिया महर मुस्कराती हुई घर में से निकली और उनके हाथ में मुह छाप लगा हुआ लिफाफा रख, मुंह फेर हंसने लगी। सिरना पर लिखा हुआ था-श्रीमान बाबा साह की सेवा में प्राप्त हो।
मुंशी-अरे, तू किसका लिफाफा ले आयी? यह मेर नहीं है।
महरी–सरकार ही का तो है, खोले तो आप।
मुंशी-किसने हुई बोली–आप खालेंगे तो पता चल जायेगा।
मुंशी जी ने विस्मित होकर लिफाफा खोला। उसमें से जो पञ-निकला उसमें यह लिखा हुआ था-
बाबा को विरजन क प्रमाण और पालागन पहुंचे। यहां आपकी कृपा से कुशल-मंगल है आपका कुशल श्री विश्वनाथजी से सदा मनाया करती हूं। मैंने प्रताप से भाषा सीख ली। वे स्कूल से आकर संध्या को मुझे नित्य पढ़ाते हैं। अब आप हमारे लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंकि पढ़ना ही जी का सुख है और विद्या अमूल्य वस्तु है। वेद-पुराण में इसका महात्मय लिखा है। मनुषय को चाहिए कि विद्या-धन तन-मन से एकञ करे। विद्या से सब दुख हो जाते हैं। मैंने कल बैताल-पचीस की कहानी चाची को सुनायी थी। उन्होंने मुझे एक सुन्दर गुड़िया पुरस्कार में दी है। बहुत अच्छी है। मैं उसका विवाह करुंगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पण्डितजी से न पढूंगी। मां नहीं जानती कि मैं भाषा पढ़ती हूं।
आपकी प्यारी
विरजन

प्रशस्ति देखते ही मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद होने लगी।फिर तो उन्होंने एक ही सांस में भारी चिट्रठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के हंसते हुए नंगे-पांव भीतर दौड़े। प्रताप को गोद में उठा लिया और फिर दोनों बच्चों का हाथ पकड़े हुए सुशीला के पास गये। उसे चिट्रठी दिखाकर कहा-बूझो किसी चिट्ठी है?
सुशीला-लाओ, हाथ में दो, देखूं।
मुंशी जी-नहीं, वहीं से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।
सुशीला-बूझ् जाऊं तो क्या दोगे?
मुंशी जी-पचास रुपये, दूध के धोये हुए।
सुशीला–पहिले रुपये निकालकर रख दो, नहीं तो मुकर जाओगे।
मुंशी जी–मुकरने वाले को कुछ कहता हूं, अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपुँजिया समझ लिया है?
यह कहकर दस रुपये का एक नोट जेसे निकालकर दिखाया।
सुशीला–कितने का नोट है?
मुंशीजी–पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।
सुशीला–ले लूंगी, कहे देती हूं।
मुंशीजी–हां-हां, ले लेना, पहले बता तो सही।
सुशीला–लल्लू का है लाइये नोट, अब मैं न मानूंगी। यह कहकर उठी और मुंशीजी का हाथ थाम लिया।
मुंशीजी–ऐसा क्या डकैती है? नोट छीने लेती हो।
सुशीला–वचन नहीं दिया था? अभी से विचलने लगे।
मुंशीजी–तुमने बूझा भी, सर्वथा भ्रम में पड़ गयीं।
सुशीला–चलो-चलो, बहाना करते हो, नोट हड़पन की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी ही चिट्ठी है न?
प्रताप नीची दृष्टि से मुंशीजी की ओर देखकर धीरे-से बोला-मैंने कहां लिखी?
मुंशीजी–लजाओ, लजाओ।
सुशीला–वह झूठ बोलता है। उसी की चिट्ठी है, तुम लोग गँठकर आये हो।
प्रताप-मेरी चिट्ठी नहीं है, सच। विरजन ने लिखी है।
सुशीला चकित होकर बोली–विजरन की? फिर उसने दौड़कर पति के हाथ से चिट्ठी छीन ली और भौंचक्की होकर उसे देखने लगी, परन्तु अब भी विश्वास आया।विरजन से पूछा–क्यें बेटी, यह तुम्हारी लिखी है?
विरजन ने सिर झुकाकर कहा-हां।
यह सुनते ही माता ने उसे कष्ठ से लगा लिया।
अब आज से विरजन की यह दशा हो गयी कि जब देखिए लेखनी लिए हुए पन्ने काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उस पहले ही कुछ प्रयोज न था, लिखने का आना सोने में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती पिता हर्ष से फूला न समाता, नित्य नवीन पुस्तकें लाता कि विरजन सयानी होगी, तो पढ़ेगी। यदि कभी वह अपने पांव धो लेती, या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती तो माता महरियों पर बहुत कुद्र होती-आंखें फूट गयी है। चर्बी छा गई है। वह अपने हाथ से पानी उंड़ेल रही है और तुम खड़ी मुंह ताकती हो।
इसी प्रकार काल बीतता चला गया, विरजन का बारहवां वर्ष पूर्ण हुआ, परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल्हे के सामने बैठन का कभी अवसर ही न आया। सुवामा ने एक दिन उसकी माता ने कहा–बहिन विरजन सयानी हुई, क्या कुछ गुन-ढंग सिखाओगी।
सुशीला-क्या कहूं, जी तो चाहता है कि लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हूं।
सुवामा-क्या सोचकर रुक जाती हो?
सुशीला-कुछ नहीं आलस आ जाता है।
सुवामा-तो यह काम मुझे सौंप दो। भोजन बनाना स्त्रियों के लिए सबसे आवश्यक बात है।
सुशीला-अभी चूल्हे के सामन उससे बैठा न जायेगा।
सुवामा-काम करने से ही आता है।
सुशीला-(झेंपते हुए) फूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।
सुवामा–(हंसकर) बिना फूल के मुरझाये कहीं फल लगते हैं?
दूसरे दिन से विरजन भोजन बनाने लगी। पहले दस-पांच दिन उसे चूल्हे के सामने बैठने में बड़ा कष्ट हुआ। आग न जलती, फूंकने लगती तो नेञों से जल बहता। वे बूटी की भांति लाल हो जाते। चिनगारियों से कई रेशमी साड़ियां सत्यानाथ हो गयीं। हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दूर हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला स्ञी थी कि कभी रुष्ट न होती, प्रतिदिन उसे पुचकारकर काम में लगाय रहती।
अभी विरजन को भोजन बनाते दो मास से अधिक न हुए होंगे कि एक दिन उसने प्रताप से कहा–लल्लू,मुझे भोजन बनाना आ गया।
प्रताप-सच।
विरजन-कल चाची ने मेर बनाया भोजन किया था। बहुत प्रसन्न।
प्रताप-तो भई, एक दिन मुझे भी नेवता दो।
विरजन ने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।
दूसरे दिन नौ बजे विरजन ने प्रताप को भोजन करने के लिए बुलाया। उसने जाकर देखा तो चौका लगा हुआ है। नवीन मिट्टी की मीटी-मीठी सुगन्ध आ रही है। आसन स्वच्छता से बिछा हुआ है। एक थाली में चावल और चपातियाँ हैं। दाल और तरकारियॉँ अलग-अलग कटोरियों में रखी हुई हैं। लोटा और गिलास पानी से भरे हुए रखे हैं। यह स्वच्छता और ढंग देखकर प्रताप सीधा मुंशी संजीवनलाल के पास गया और उन्हें लाकर चौके के सामने खड़ा कर दिया। मुंशीजी खुशी से उछल पड़े। चट कपड़े उतार, हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी विरजन क्या जानती थी कि महाशय भी बिना बुलाये पाहुने हो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के लिए भोजन बनाया था। वह उस दिन बहुत लजायी और दबी ऑंखों से माता की ओर देखने लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुस्कराकर मुंशीजी से बोली-तुम्हारे लिए अलग भोजन बना है। लड़कों के बीच में क्या जाके कूद पड़े?
वृजरानी ने लजाते हुए दो थालियों में थोड़ा-थोड़ा भोजन परोसा।
मुंशीजी-विरजन ने चपातियाँ अच्छी बनायी हैं। नर्म, श्वेत और मीठी।
प्रताप-मैंने ऐसी चपातियॉँ कभी नहीं खायीं। सालन बहुत स्वादिष्ट है।
‘विरजन! चाचा को शोरवेदार आलू दो,’ यह कहकर प्रताप हँने लगा। विरजन ने लजाकर सिर नीचे कर लिया। पतीली शुष्क हो रही थी।
सुशीली-(पति से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अड़े बैठे हो!
मुंशीजी-क्या तुम्हारी राल टपक रही है?
निदान दोनों रसोई की इतिश्री करके उठे। मुंशीजी ने उसी समय एक मोहर निकालकर विरजन को पुरस्कार में दी।

6. डिप्टी श्यामाचरण

डिप्टी श्यामाचरण की धाक सारे नगर में छाई हुई थी। नगर में कोई ऐसा हाकिम न था जिसकी लोग इतनी प्रतिष्ठा करते हों। इसका कारण कुछ तो यह था कि वे स्वभाव के मिलनसार और सहनशील थे और कुछ यह कि रिश्वत से उन्हें बडी घृणा थी। न्याय-विचार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे कि दस-बाहर वर्ष के भीतर कदाचित उनके दो-ही चार फैसलों की अपील हुई होगी। अंग्रेजी का एक अक्षर न जानते थे, परन्तु बैरस्टिरों और वकीलों को भी उनकी नैतिक पहुंच और सूक्ष्मदर्शिता पर आश्चर्य होता था। स्वभाव में स्वाधीनता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के अतिरिक्त किसी ने उन्हें और कहीं आते-जाते नहीं देखा। मुशीं शालिग्राम जब तक जीवित थे, या यों कहिए कि वर्तमान थे, तब तक कभी-कभी चितविनोदार्थ उनके यह चले जाते थे। जब वे लप्त हो गये, डिप्टी साहब ने घर छोडकर हिलने की शपथ कर ली। कई वर्ष हुए एक बार कलक्टर साहब को सलाम करने गये थे खानसामा ने कहा–साहब स्नान कर रहे हैं दो घंटे तक बरामदे में एक मोढे पर बैठे प्रतीक्षा करते रहे। तदनन्तर साहब बहादुर हाथ में एक टेनिस बैट लिये हुए निकले और बोले-बाबू साहब, हमको खेद है कि आपको हामारी बाट देखनी पडी। मुझे आज अवकाश नहीं है। क्लब-घर जाना है। आप फिर कभी आवें।
यह सुनकर उन्होंने साहब बहादुर को सलाम किया और इतनी-सी बात पर फिर किसी अंग्रेजी की भेंट को न गये। वंश, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव पर उन्हें बडा अभिमान था। वे बडे ही रसिक पुरूष थे। उनकी बातें हास्य से पूर्ण होती थीं। संध्या के समय जब वे कतिपय विशिष्ट मित्रों के साथ द्वारांगण में बैठते, तो उनके उच्च हास्य की गूंजती हुई प्रतिध्वनि वाटिका से सुनाई देती थी। नौकरो-चाकरों से वे बहुत सरल व्यवहार रखते थे, यहां तक कि उनके संग अलाव के बेठने में भी उनको कुछ संकोच न था। परन्तु उनकी धाक ऐसी छाई हुई थी कि उनकी इस सजनता से किसी को अनूचित लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोअ-पतलून से उन्हें घृणा थी। बटनदार ऊंची अचकयन, उस पर एक रेशमी काम की अबा, काला श्मिला, ढीला पाजामा और दिल्लीवाला नोकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके दुहरे शरीर, गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर जितनी यह पोशाक शोभा देती थी, उनकी कोट-पतलूनसे सम्भव न थी। यद्यपि उनकी धाक सारे नगर-भर में फैली हुई थी, तथापि अपने घर के मण्डलान्तगर्त उनकी एक न चलती थी। यहां उनकी सुयोग्य अद्वांगिनी का साम्राज्य था। वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूर्वक शासन करती थी। कई वर्ष व्यतीत हुए डिप्टी साहब ने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक महराजिन नौकर रख ली थी। महराजिन कुछ रंगीली थी। प्रेमवती अपने पति की इस अनुचित कृति पर ऐसी रूष्ट हुई कि कई सप्ताह तक कोपभवन में बैठी रही। निदान विवश होकर साहब ने महराजिन को विदा कर दिया। तब से उन्हें फिर कभी गृहस्थी के व्यवहार में हस्तक्षेप करने का साहस न हुआ।
मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका साधाचरण गत वर्ष डिग्री प्राप्त करके इस समय रूडकी कालेज में पढाता था। उसका विवाह फतहपुयर-सीकरी के एक रईस के यहां हआ था। मंझली लडकी का नाम सेवती था। उसका भी विवाह प्रयाग के एक धनी घराने में हुआ था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक अविवाहित था। प्रेमवती ने बचपन से ही लाड-प्यार करके उसे ऐसा बिगाड दिया था कि उसका मन पढने-लिखने में तनिक भी नहीं लगता था। पन्द्रह वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक सीधा-सा पत्र भी न लिख सकता था। इसलिए वहां से भी वह उठा लिया गया। तब एक मास्टर साहब नियुक्त हुए और तीन महीने रहे परन्तु इतने दिनों में कमलाचरण ने कठिनता से तीन पाठ पढे होंगें। निदान मास्टर साहब भी विदा हो गये। तब डिप्टी साहब ने स्वयं पढाना निश्चित किया। परन्तु एक ही सप्ताह में उन्हें कई बार कमला का सिर हिलाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। साक्षियों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं के तत्व को समझना कठिन नहीं है, जितना किसी निरूत्साही लडके के यमन में शिक्षा-रूचित उत्पन्न करना है।
प्रेमवती ने इस मारधाड पर ऐसा उत्पात मचाया कि अन्त में डिप्टी साहब ने भी झल्लाकर पढाना छोड दिया। कमला कुछ ऐसा रूपवान, सुकुमार और मधुरभाषी था कि माता उसे सब लडकों से अधिक चाहती थी। इस अनुचित लाड-प्यार ने उसे पंतंग, कबूतरबाजी और इसी प्रकार के अन्य कुव्यसनों का प्रेमी बना दिया था। सबरे हआ और कबूतर उडाये जाने लगे, बटेरों के जोड छूटने लगे, संध्या हुई और पंतग के लम्बे-लम्बे पेच होने लगे। कुछ दिनों में जुए का भी चस्का पड चला था। दपर्ण, कंघी और इत्र-तेल में तो मानों उसके प्राण ही बसते थे।
प्रेमवती एक दिन सुवामा से मिलने गई हुई थी। वहां उसने वृजरानी को देखा और उसी दिन से उसका जी ललचाया हआ था कि वह बहू बनकर मेरे घर में आये, तो घर का भाग्य जाग उठे। उसने सुशीला पर अपना यह भाव प्रगट किया। विरजन का तेरहँवा आरम्भ हो चुका था। पति-पत्नी में विवाह के सम्बन्ध में बातचीत हो रही थी। प्रेमवती की इच्छा पाकर दोनों फूले न समाये। एक तो परिचित परिवार, दूसरे कलीन लडका, बुद्धिमान और शिक्षित, पैतृक सम्पति अधिक। यदि इनमें नाता हो जाए तो क्या पूछना। चटपट रीति के अनुसार संदेश कहला भेजा।
इस प्रकार संयोग ने आज उस विषैले वृक्ष का बीज बोया, जिसने तीन ही वर्ष में कुल का सर्वनाश कर दिया। भविष्य हमारी दृष्टि से कैसा गुप्त रहता है ?
ज्यों ही संदेशा पहुंचा, सास, ननद और बहू में बातें होने लगी।
बहू(चन्द्रा)-क्यों अम्मा। क्या आप इसी साल ब्याह करेंगी ?
प्रेमवती-और क्या, तुम्हारे लालाली के मानने की देर है।
बहू-कूछ तिलक-दहेज भी ठहरा
प्रेमवती-तिलक-दहेज ऐसी लडकियों के लिए नहीं ठहराया जाता।
जब तुला पर लडकी लडके के बराबर नहीं ठहरती,तभी दहेज का पासंग बनाकर उसे बराबर कर देते हैं। हमारी वृजरानी कमला से बहुत भारी है।
सेवती-कुछ दिनों घर में खूब धूमधाम रहेगी। भाभी गीत गायेंगी। हम ढोल बजायेंगें। क्यों भाभी ?
चन्द्रा-मुझे नाचना गाना नहीं आता।
चन्द्रा का स्वर कुछ भद्दा था, जब गाती, स्वर-भंग हो जाता था। इसलिए उसे गाने से चिढ थी।
सेवती-यह तो तुम आप ही करो। तुम्हारे गाने की तो संसार में धूम है।
चन्द्रा जल गई, तीखी होकर बोली-जिसे नाच-गाकर दूसरों को लुभाना हो, वह नाचना-गाना सीखे।
सेवती-तुम तो तनिक-सी हंसी में रूठ जाती हो। जरा वह गीत गाओं तो—तुम तो श्याम बडे बेखबर हो’। इस समय सुनने को बहुत जी चाहता है। महीनों से तुम्हारा गाना नहीं सुना।
चन्द्रा-तुम्ही गाओ, कोयल की तरह कूकती हो।
सेवती-लो, अब तुम्हारी यही चाल अच्छी नहीं लगती। मेरी अच्छी भाभी, तनिक गाओं।
चन्द्रमा-मैं इस समय न गाऊंगी। क्यों मुझे कोई डोमनी समझ लिया है ?
सेवती-मैं तो बिन गीत सुने आज तुम्हारा पीछा न छोडूंगी।
सेवती का स्वर परम सुरीला और चिताकर्षक था। रूप और आकृति भी मनोहर, कुन्दन वर्ण और रसीली आंखें। प्याली रंग की साडी उस पर खूब खिल रही थी। वह आप-ही-आप गुनगुनाने लगी:
तुम तो श्याम बडे बेखबर हो...तुम तो श्याम।
आप तो श्याम पीयो दूध के कुल्हड, मेरी तो पानी पै गुजर-
पानी पै गुजर हो। तुम तो श्याम...
दूध के कुल्हड पर वह हंस पडी। प्रेमवती भी मुस्कराई, परन्तु चन्द्रा रूष्ट हो गई। बोली–बिना हंसी की हंसी हमें नहीं आती। इसमें हंसने की क्या बात है ?
सेवती-आओ, हम तुम मिलकर गायें।
चन्द्रा-कोयल और कौए का क्या साथ ?
सेती-क्रोध तो तुम्हारी नाक पर रहता है।
चन्द्रा-तो हमें क्यों छेडती हो ? हमें गाना नहीं आता, तो कोई तुमसे निन्दा करने तो नहीं जाता।
‘कोई’ का संकेत राधाचरण की ओर था। चन्द्रा में चाहे और गुण न हों, परन्तु पति की सेवा वह तन-मन से करती थी। उसका तनिक भी सिर धमका कि इसके प्राण निकला। उनको घर आने में तनिक देर हुई कि वह व्याकुल होने लगी। जब से वे रूडकी चले गये, तब से चन्द्रा यका हँसना-बोलना सब छूट गया था। उसका विनोद उनके संग चला गया था। इन्हीं कारणों से राधाचरण को स्त्री का वशीभूत बना दिया था। प्रेम, रूप-गुण, आदि सब त्रुटियों का पूरक है।
सेवती-निन्दा क्यों करेगा, ‘कोई’ तो तन-मन से तुम पर रीझा हुआ है।
चन्द्रा-इधर कई दिनों से चिट्ठी नहीं आई।
सेवती-तीन-चार दिन हुए होंगे।
चन्द्रा-तुमसे तो हाथ-पैर जोड़ कर हार गई। तुम लिखती ही नहीं।
सेवती-अब वे ही बातें प्रतिदिन कौन लिखे, कोई नई बात हो तो लिखने को जी भी चाहे।
चन्द्रा-आज विवाह के समाचार लिख देना। लाऊं कलम-दवात ?
सेवती-परन्तु एक शर्त पर लिखूंगी।
चन्द्रा-बताओं।
सेवती-तुम्हें श्यामवाला गीत गाना पड़ेगा।
चन्द्रा-अच्छा गा दूंगी। हँसने को जी चाहता है न ?हँस लेना।
सेवती-पहले गा दो तो लिखूं।
चन्द्रा-न लिखोगी। फिर बातें बनाने लगोगी।
सेवती–तुम्हारी शपथ, लिख दूंगी, गाओ।
चन्द्रा गाने लगी-
तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो।
तुम तो श्याम पीयो दूध के कूल्हड़, मेरी तो पानी पै गुजर
पानी पे गुजर हो। तुम तो श्याम बडे बेखबर हो।
अन्तिम शब्द कुछ ऐसे बेसुरे निकले कि हँसी को रोकना कठिन हो गया। सेवती ने बहुत रोका पर न रुक सकी। हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गया। चन्द्रा ने दूसरा पद गाया:
आप तो श्याम रक्खो दो-दो लुगइयाँ,
मेरी तो आपी पै नजर आपी पै नजर हो।
तुम तो श्याम....
‘लुगइयाँ’ पर सेवती हँसते-हँसते लोट गई। चन्द्रा ने सजल नेत्र होकर कहा-अब तो बहुत हँस चुकीं। लाऊं कागज ?
सेवती-नहीं, नहीं, अभी तनिक हँस लेने दो।
सेवती हँस रही थी कि बाबू कमलाचरण का बाहर से शुभागमन हुआ, पन्द्रह सोलह वर्ष की आयु थी। गोरा-गोरा गेहुंआ रंग। छरहरा शरीर, हँसमुख, भड़कीले वस्त्रों से शरीर को अलंकृत किये, इत्र में बसे, नेत्रो में सुरमा, अधर पर मुस्कान और हाथ में बुलबुल लिये आकर चारपाई पर बैठ गये। सेवती बोली’-कमलू। मुंह मीठा कराओं, तो तुम्हें ऐसे शुभ समाचार सुनायें कि सुनते ही फड़क उठो।
कमला-मुंह तो तुम्हारा आज अवश्य ही मीठा होगा। चाहे शुभ समाचार सुनाओं, चाहे न सुनाओं। आज इस पठे ने यह विजय प्राप्त की है कि लोग दंग रह गये।
यह कहकर कमलाचरण ने बुलबुल को अंगूठे पर बिठा लिया।
सेवती-मेरी खबर सुनते ही नाचने लगोगे।
कमला-तो अच्छा है कि आप न सुनाइए। मैं तो आज यों ही नाच रहा हूं। इस पठे ने आज नाक रख ली। सारा नगर दंग रह गया। नवाब मुन्नेखां बहुत दिनों से मेरी आंखों में चढ़े हुए थे। एक पास होता है, मैं उधर से निकला, तो आप कहने लगे-मियाँ, कोई पठा तैयार हो तो लाओं, दो-दो चौंच हो जायें। यह कहकर आपने अपना पुराना बुलबुल दिखाया। मैने कहा–कृपानिधान। अभी तो नहीं। परन्तु एक मास में यदि ईश्वर चाहेगा तो आपसे अवश्य एक जोड़ होगी, और बद-बद कर आज। आगा शेरअली के अखाड़े में बदान ही ठहरी। पचाय-पचास रूपये की बाजी थी। लाखों मनुष्य जमा थे। उनका पुराना बुलबुल, विश्वास मानों सेवती, कबूतर के बराबर था। परन्तु वह भी केवल फूला हुआ न था। सारे नगर के बुलबुलो को पराजित किये बैठा था। बलपूवर्क लात चलाई। इसने बार-बार नचाया और फिर झपटकर उसकी चोटी दबाई। उसने फिर चोट की। यह नीचे आया। चतुर्दिक कोलाहल मच गया–मार लिया मार लिया। तब तो मुझे भी क्रोध आया डपटकर जो ललकारता हूं तो यह ऊपर और वह नीचे दबा हआ है। फिर तो उसने कितना ही सिर पटका कि ऊपर आ जाए, परन्तु इस शेयर ने ऐसा दाबा कि सिर न उठाने दिया। नबाब साहब स्वयं उपस्थित थे। बहुत चिल्लाये, पर क्या हो सकता है ? इसने उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज चिडिया को। आखिर बगटुट भागा। इसने पानी के उस पार तक पीछा किया, पर न पा सका। लोग विस्मय से दंग हो गये। नवाब साहब का तो मुख मलिन हो गया। हवाइयाँ उडने लगीं। रूपये हारने की तो उन्हें कुछ चिंन्ता नहीं, क्योंकि लाखों की आय है। परन्तु नगर में जो उनकी धाक जमी हुई थी, वह जाती रही। रोते हुए घर को सिधारे। सुनता हूं, यहां से जाते ही उन्होंने अपने बुलबुल को जीवित ही गाड़ दिया। यह कहकर कमलाचरण ने जेब खनखनाई।
सेवती-तो फिर खड़े क्या कर रहे हो ? आगरे वाले की दुकान पर आदमी भेजो।
कमला-तुम्हारे लिए क्या लाऊं, भाभी ?
सेवती-दूध के कुल्हड़।
कमला-और भैया के लिए ?
सेवती-दो-दो लुगइयाँ।
यह कहकर दोनों ठहका मारकर हँसने लगे।

7. निष्ठुरता/निठुरता और प्रेम

सुवामा तन-मन से विवाह की तैयारियां करने लगीं। भोर से संध्या तक विवाह के ही धन्धों में उलझी रहती। सुशीला चेरी की भांति उसकी आज्ञा का पालन किया करती। मुंशी संजीवनलाल प्रात:काल से सांझ तक हाट की धूल छानते रहते। और विरजन जिसके लिए यह सब तैयारियां हो रही थी, अपने कमरे में बैठी हुई रात-दिन रोया करती। किसी को इतना अवकाश न था कि क्षण-भर के लिए उसका मन बहलाये। यहॉ तक कि प्रताप भी अब उसे निठुर जान पड़ता था। प्रताप का मन भी इन दिनों बहुत ही मलिन हो गया था। सबेरे का निकला हुआ सॉझ को घर आता और अपनी मुंडेर पर चुपचाप जा बैठता। विरजन के घर जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी। वरन जब कभी वह आती हुई दिखई देती, तो चुपके से सरक जाता। यदि कहने-सुनने से बैठता भी तो इस भांति मुख फेर लेता और रूखाई का व्यवहार करता कि विरजन रोने लगती और सुवामा से कहती-चाची, लल्लू मुझसे रूष्ट है, मैं बुलाती हूं, तो नहीं बोलते। तुम चलकर मना दो। यह कहकर वह मचल जाती और सुवामा का ऑचल पकड़कर खींचती हुई प्रताप के घर लाती। परन्तु प्रताप दोनों को देखते ही निकल भाग्ता। वृजरानी द्वार तक यह कहती हुई आती कि-लल्लू तनिक सुन लो, तनिक सुन लो, तुम्हें हमारी शपथ, तनिक सुन लो। पर जब वह न सुनता और न मुंह फेरकर देखता ही तो बेचारी लड़की पृथ्वी पर बैठ जाती और भली-भॉती फूट-फूटकर रोती और कहती-यह मुझसे क्यों रूठे हुए है ? मैने तो इन्हें कभी कुछ नहीं कहा। सुवामा उसे छाती से लगा लेती और समझाती-बेटा। जाने दो, लल्लू पागल हो गया है। उसे अपने पुत्र की निठुरता का भेद कुछ-कुछ ज्ञात हो चला था।
निदान विवाह को केवल पांच दिन रह गये। नातेदार और सम्बन्धी लोग दूर तथा समीप से आने लगे। ऑगन में सुन्दर मण्डप छा गया। हाथ में कंगन बॅध गये। यह कच्चे घागे का कंगन पवित्र धर्म की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से न निकलेगी और मंण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक है, जो जीवनपर्यन्त सिर से न उठेगी। आज संध्या को सुवामा, सुशीला, महाराजिनें सब-की-सब मिलकर देवी की पूजा करने को गयीं। महरियां अपने धंधों में लगी हुई थी। विरजन व्याकुल होकर अपने घर में से निकली और प्रताप के घर आ पहुंची। चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। केवल प्रताप के कमरे में धुंधला प्रकाश झलक रहा था। विरजन कमरे में आयी, तो क्या देखती है कि मेज पर लालटेन जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा है। धुंधले उजाले में उसका बदन कुम्हलाया और मलिन नजर आता है। वस्तुऍ सब इधर-उधर बेढंग पड़ी हुई है। जमीन पर मानों धूल चढ़ी हुई है। पुस्तकें फैली हुई है। ऐसा जान पड़ता है मानों इस कमरे को किसी ने महीनों से नहीं खोला। वही प्रताप है, जो स्वच्छता को प्राण-प्रिय समझता था। विरजन ने चाहा उसे जगा दूं। पर कुछ सोचकर भूमि से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रखने लगी। मेज पर से धूल झाडी, चित्रों पर से गर्द का परदा उठा लिया। अचानक प्रतान ने करवट ली और उनके मुख से यह वाक्य
निकला-‘विरजन। मैं तुम्हें भूल नहीं सकता’’। फिर थोडी देर पश्चात-‘विरजन’। कहां जाती हो, यही बैठो ? फिर करवट बदलकर-‘न बैठोगी’’? अच्छा जाओं मैं भी तुमसे न बोलूंगा। फिर कुछ ठहरकर-अच्छा जाओं, देखें कहां जाती है। यह कहकर वह लपका, जैसे किसी भागते हुए मनुष्य को पकड़ता हो। विरजन का हाथ उसके हाथ में आ गया। उसके साथ ही ऑखें खुल गयीं। एक मिनट तक उसकी भाव-शून्य दृषिट विरजन के मुख की ओर गड़ी रही। फिर अचानक उठ बैठा और विरजन का हाथ छोड़कर बोला-तुम कब आयीं, विरजन ? मैं अभी तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।
विरजन ने बोलना चाहा, परन्तु कण्ठ रूंध गया और आंखें भर आयीं। प्रताप ने इधर-उधर देखकर फिर कहा-क्या यह सब तुमने साफ किया ?तुम्हें बडा कष्ट हुआ। विरजन ने इसका भी उतर न दिया।
प्रताप-विरजन, तुम मुझे भूल क्यों नहीं जातीं ?
विरजन ने आद्र नेत्रों से देखकर कहा-क्या तुम मुझे भूल गये ?
प्रतान ने लज्जित होकर मस्तक नीचा कर लिया। थोडी देर तक दोनों भावों से भरे भूमि की ओर ताकते रहे। फिर विरजन ने पूछा-तुम मुझसे क्यों रूष्ट हो ? मैने कोई अपराध किया है ?
प्रताप-न जाने क्यों अब तुम्हें देखता हूं, तो जी चाहता है कि कहीं चला जाऊं।
विरजन-क्या तुमको मेरी तनिक भी मोह नहीं लगती ? मैं दिन-भर रोया करती हूं। तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ? तुम मुझसे बोलते तक नहीं। बतलाओं मैने तुम्हें क्या कहा जो तुम रूठ गये ?
प्रताप-मैं तुमसे रूठा थोडे ही हूं।
विरजन-तो मुझसे बोलते क्यों नहीं।
प्रताप-मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। तुम धनवान हो, तुम्हारे माता-पिता धनी हैं, मैं अनाथ हूं। मेरा तुम्हारा क्या साथ ?
विरजन-अब तक तो तुमने कभी यह बहाना न निकाला था, क्या अब मैं अधिक धनवान हो गयी ?
यह कहकर विरजन रोने लगी। प्रताप भी द्रवित हुआ, बोला-विरजन। हमारा तुम्हारा बहुत दिनों तक साथ रहा। अब वियोग के दिन आ गये। थोडे दिनों में तुम यहॉ वालों को छोड़कर अपने सुसुराल चली जाओगी। इसलिए मैं भी बहुत चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। परन्तु कितना ही चाहता हूं कि तुम्हारी बातें स्मरण में न आये, वे नहीं मानतीं। अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्वस्पन देख रहा था।

8. सखियाँ

डिप्टी श्यामाचरण का भवन आज सुन्दरियों के जमघट से इन्द्र का अखाड़ा बना हुआ था।
सेवती की चार सहेलियॉ-रूक्मिणी, सीता, रामदैई और चन्द्रकुंवर-सोलहों सिंगार किये इठलाती फिरती थी। डिप्टी साहब की बहिन जानकी कुंवर भी अपनी दो लड़कियों के साथ इटावे से आ गयी थीं। इन दोनों का नाम कमला और उमादेवी था। कमला का विवाह हो चुका था। उमादेवी अभी कुंवारी ही थी। दोनों सूर्य और चन्द्र थी। मंडप के तले डौमनियां और गवनिहारिने सोहर और सोहाग, अलाप रही थी। गुलबिया नाइन और जमनी कहारिन दोनों चटकीली साडियॉ पहिने, मांग सिंदूर से भरवाये, गिलट के कड़े पहिने छम-छम करती फिरती थीं। गुलबिया चपला नवयौवना थी। जमुना की अवस्था ढल चुकी थी। सेवती का क्या पूछना?
आज उसकी अनोखी छटा थी। रसीली आंखें आमोदाधिक्य से मतवाली हो रही थीं और गुलाबी साड़ी की झलक से चम्पई रंग गुलाबी जान पड़ता था। धानी मखमल की कुरती उस पर खूब खिलती थी। अभी स्नान करके आयी थी, इसलिए नागिन-सी लट कंधों पर लहरा रही थी। छेड़छाड़ और चुहल से इतना अवकाश न मिलता था कि बाल गुंथवा ले। महराजिन की बेटी माधवी छींट का लॅहगा पहने, ऑखों में काजल लगाये, भीतर-बाहर किये हुए थी।
रूक्मिणी ने सेवती से कहा-सितो। तुम्हारी भावज कहॉ है ? दिखायी नहीं देती। क्या हम लोगों से भी पर्दा है ?
रामदेई-(मुस्कराकर)परदा क्यों नहीं है ? हमारी नजर न लग जायगी?
सेवती-कमरे में पड़ी सो रही होंगी। देखों अभी खींचे लाती हूं।
यह कहकर वह चन्द्रमा से कमरे में पहुंची। वह एक साधारण साड़ी पहने चारपाई पर पड़ी द्वार की ओर टकटकी लगाये हुए थी। इसे देखते ही उठ बैठी। सेवती ने कहा-यहॉ क्या पड़ी हो, अकेले तुम्हारा जी नहीं घबराता?
चन्द्रा-उंह, कौन जाए, अभी कपड़े नहीं बदले।
सेवती-बदलती क्यों नहीं ? सखियॉ तुम्हारी बाट देख रही हैं।
चन्द्रा-अभी मैं न बदलूंगी।
सेवती-यही हठ तुम्हारा अच्छा नहीं लगता। सब अपने मन में क्या कहती होंगी ?
चन्द्रा-तुमने तो चिटठी पढी थी, आज ही आने को लिखा था न ?
सेवती-अच्छा,तो यह उनकी प्रतीक्षा हो रही है, यह कहिये तभी योग साधा है।
चन्द्रा-दोपहर तो हुई, स्यात् अब न आयेंगे।
इतने में कमला और उपादेवी दोनों आ पहुंची। चन्द्रा ने घूंघट निकाल लिया और र्फश पर आ बैठी। कमला उसकी बड़ी ननद होती थी।
कमला-अरे, अभी तो इन्होंने कपड़े भी नहीं बदले।
सेवती-भैया की बाट जोह रही है। इसलिए यह भेष रचा है।
कमला-मूर्ख हैं। उन्हें गरज होगी, आप आयेंगे।
सेवती-इनकी बात निराली है।
कमला-पुरूषों से प्रेम चाहे कितना ही करे, पर मुख से एक शब्द भी न निकाले, नहीं तो व्यर्थ सताने और जलाने लगते हैं। यदि तुम उनकी उपेक्षा करो, उनसे सीधे बात न करों, तो वे तुम्हारा सब प्रकार आदर करेगें। तुम पर प्राण समर्पण करेंगें, परन्तु ज्यो ही उन्हें ज्ञात हुआ कि इसके हृदय में मेरा प्रेम हो गया, बस उसी दिन से दृष्टि फिर जायेगी। सैर को जायेंगें, तो अवश्य देर करके आयेगें। भोजन करने बैठेगें तो मुहं जूठा करके उठ जायेगें, बात-बात पर रूठेंगें। तुम रोओगी तो मनायेगें, मन में प्रसन्न होंगे कि कैसा फंदा डाला है। तुम्हारे सम्मुख अन्य स्त्रियों की प्रशंसा करेंगें। भावार्थ यह है कि तुम्हारे जलाने में उन्हें आनन्द आने लगेगा। अब मेरे ही घर में देखों पहिले इतना आदर करते थे कि क्या बताऊं। प्रतिक्षण नौकरो की भांति हाथ बांधे खड़े रहते थे। पंखा झेलने को तैयार, हाथ से कौर खिलाने को तैयार यहॉ तक कि (मुस्कराकर) पॉव दबाने में भी संकोच न था। बात मेरे मुख से निकली नहीं कि पूरी हुई। मैं उस समय अबोध थी। पुरुषों के कपट व्यवहार क्या जानूं। पटी में आ गयी। जानते थे कि आज हाथ बांध कर खड़ी होगीं। मैने लम्बी तानी तो रात-भर करवट न ली। दूसरे दिन भी न बोली। अंत में महाशय सीधे हुए, पैरों पर गिरे, गिड़गिड़ाये, तब से मन में इस बात की गांठ बॉध ली है कि पुरूषों को प्रेम कभी न जताओं।
सेवती-जीजा को मैने देखा है। भैया के विवाह में आये थे। बड़ं हॅसमुख मनुष्य हैं।
कमला-पार्वती उन दिनों पेट में थी, इसी से मैं न आ सकी थी। यहॉ से गये तो लगे तुम्हारी प्रशंसा करने। तुम कभी पान देने गयी थी ? कहते थे कि मैने हाथ थामकर बैठा लिया, खूब बातें हुई।
सेवती-झूठे हैं, लबारिये हैं। बात यह हुई कि गुलबिया और जमुनी दोनों किसी कार्य से बाहर गयी थीं। मॉ ने कहा, वे खाकर गये हैं, पान बना के दे आ। मैं पान लेकर गयी, चारपाई पर लेटे थे, मुझे देखते ही उठ बैठे। मैने पान देने को हाथ बढाया तो आप कलाई पकड़कर कहने लगे कि एक बात सुन लो, पर मैं हाथ छुड़ाकर भागी।
कमला-निकली न झूठी बात। वही तो मैं भी कहती हूं कि अभी ग्यारह-बाहरह वर्ष की छोकरी, उसने इनसे क्या बातें की होगी ? परन्तु नहीं, अपना ही हठ किये जाये। पुरूष बड़े प्रलापी होते है। मैने यह कहा, मैने वह कहा। मेरा तो इन बातों से हृदय सुलगता है। न जाने उन्हें अपने ऊपर झूठा दोष लगाने में क्या स्वाद मिलता है ? मनुष्य जो बुरा-भला करता है, उस पर परदा डालता है। यह लोग करेंगें तो थोड़ा, मिथ्या प्रलाप का आल्हा गाते फिरेगें ज्यादा। मैं तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य नहीं मानती।
इतने में गुलबिया ने आकर कहा-तुमतो यहॉ ठाढी बतलात हो। और तुम्हार सखी तुमका आंगन में बुलौती है।
सेवती-देखों भाभी, अब देर न करो। गुलबिया, तनिक इनकी पिटारी से कपड़े तो निकाल ले।
कमला चन्द्रा का श्रृगांर करने लगी। सेवती सहेलियों के पास आयी। रूक्मिणी बोली-वाह बहि, खूब। वहॉ जाकर बैठ रही। तुम्हारी दीवारों से बोले क्या ?
सेवती-कमला बहिन चली गयी। उनसे बातचीत होने लगीं। दोनों आ रही हैं।
रूक्मिणी-लड़कोरी है न ?
सेवती-हॉ, तीन लड़के हैं।
रामदेई-मगर काठी बहुत अच्छी है।
चन्द्रकुंवर-मुझे उनकी नाक बहुत सुन्दर लगती है, जी चाहता है छीन लूं।
सीता-दोनों बहिने एक-से-एक बढ़ कर है।
सेवती-सीता को ईश्वर ने वर अच्छा दिया है, इसने सोने की गौ पूजी थी।
रूक्मिणी-(जलकर)गोरे चमड़े से कुछ नहीं होता।
सीता-तुम्हें काला ही भाता होगा।
सेवती-मुझे काला वर मिलता तो विष खा लेती।
रूक्मिणी-यो कहने को जो चाहे कह लों, परन्तु वास्तव में सुख काले ही वर से मिलता है।
सेवती-सुख नहीं धूल मिलती है। ग्रहण-सा आकर लिपट जाता होगा।
रूक्मिणी-यही तो तुम्हारा लड़कपन है। तुम जानती नहीं सुन्दर पुरुष अपने ही बनाव-सिंगार में लगा रहता है। उसे अपने आगे स्त्री का कुछ ध्यान नहीं रहता। यदि स्त्री परम-रूपवती हो तो कुशल है। नहीं तो थोडे ही दिनों वह समझता है कि मैं ऐसी दूसरी स्त्रियों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता हूं। उससे भागने लगता है। और कुरूप पुरूष सुन्दर स्त्री पा जाता है तो समझता है कि मुझे हीरे की खान मिल गयी। बेचारा काला अपने रूप की कमी को प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है कि मैं तनिक भी इससे खटा पड़ा तो यह मुझसे घृणा करने लगेगी।
चन्द्रकुंव-दूल्हा सबसे अच्छा वह, जो मुंह से बात निकलते ही पूरा करे।
रामदेई-तुम अपनी बात न चलाओं। तुम्हें तो अच्छे-अच्छे गहनों से प्रयोजन है, दूल्हा कैसा ही हो।
सीता-न जाने कोई पुरूष से किसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या संकोच नहीं होता ?
रूक्मिणी-तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे ?
सीता-मेरी तो उन्हें देखने से ही तृप्ति हो जाती है। वस्त्राभूषणों पर जी नहीं चलता।
इतने में एक और सुन्दरी आ पहुंची, गहने से गोंदनी की भांति लदी हुई। बढ़िया जूती पहने, सुगंध में बसी। ऑखों से चपलता बरस रही थी।
रामदेई-आओ रानी, आओ, तुम्हारी ही कमी थी।
रानी-क्या करूं, निगोडी नाइन से किसी प्रकार पीछा नहीं छूटता था। कुसुम की मॉ आयी तब जाके जूड़ा बॉधा।
सीता-तुम्हारी जाकिट पर बलिहारी है।
रानी-इसकी कथा मत पूछो। कपड़ा दिये एक मास हुआ। दस-बारह बार दर्जी सीकर लाया। पर कभी आस्तीन ढीली कर दी, कभी सीअन बिगाड़ दी, कभी चुनाव बिगाड़ दिया। अभी चलते-चलते दे गया है।
यही बातें हो रही थी कि माधवी चिल्लाई हुई आयी-‘भैया आये, भैया आये। उनके संग जीजा भी आये हैं, ओहो। ओहो।
रानी-राधाचरण आये क्या ?
सेवती-हॉ। चलू तनिक भाभी को सन्देश दे आंऊ। क्या रे। कहां बैठे है ?
माधवी-उसी बड़े कमरे में। जीजा पगड़ी बॉधे है, भैया कोट पहिने हैं, मुझे जीजा ने रूपया दिया। यह कहकर उसने मुठी खोलकर दिखायी।
रानी-सितो। अब मुंह मीठा कराओ।
सेवती-क्या मैने कोई मनौती की थी ?
यह कहती हुई सेवती चन्द्रा के कमरे में जाकर बोली-लो भाभी। तुम्हारा सगुन ठीक हुआ।
चन्द्रा-कया आ गये ? तनिक जाकर भीतर बुला लो।
सेवती-हॉ मदाने में चली जाउं। तुम्हारे बहनाई जी भी तो पधारे है।
चन्द्रा-बाहर बैठे क्या यकर रहे हैं ? किसी को भेजकर बुला लेती, नहीं तो दूसरों से बातें करने लगेंगे।
अचानक खडाऊं का शब्द सुनायी दिया और राधाचरण आते दिखायी दिये। आयु चौबीस-पच्चीस बरस से अधिक न थी। बडे ही हॅसमुख, गौर वर्ण, अंग्रेजी काट के बाल, फ्रेंच काट की दाढी, खडी मूंछे, लवंडर की लपटें आ रही थी। एक पतला रेशमी कुर्ता पहने हुए थे। आकर पंलंग पर बैठ गए और सेवती से बोले-क्या सितो। एक सप्ताह से चिठी नहीं भेजी ?
सेवती-मैनें सोचा, अब तो आ रहें हो, क्यों चिठी भेजू ? यह कहकर वहां से हट गयी।
चन्द्रा ने घूघंट उठाकर कहा-वहॉ जाकर भूल जाते हो ?
राधाचरण-(हृदय से लगाकर) तभी तो सैकंडों कोस से चला आ रहा हूँ।

9. ईर्ष्या

प्रतापचन्द्र ने विरजन के घर आना-जाना विवाह के कुछ दिन पूर्व से ही त्याग दिया था। वह विवाह के किसी भी कार्य में सम्मिलित नहीं हुआ। यहॉ तक कि महफिल में भी न गया। मलिन मन किये, मुहॅ लटकाये, अपने घर बैठा रहा, मुंशी संजीवनलाला, सुशीला, सुवामा सब बिनती करके हार गये, पर उसने बारात की ओर दृष्टि न फेरी। अंत में मुंशीजी का मन टूट गया और फिर कुछ न बोले। यह दशा विवाह के होने तक थी। विवाह के पश्चात तो उसने इधर का मार्ग ही त्याग दिया। स्कूल जाता तो इस प्रकार एक ओर से निकल जाता, मानों आगे कोई बाघ बैठा हुआ है, या जैसे महाजन से कोई ऋणी मनुष्य ऑख बचाकर निकल जाता है। विरजन की तो परछाई से भागता। यदि कभी उसे अपने घर में देख पाता तो भीतर पग न देता। माता समझाती-बेटा। विरजन से बोलते-चालत क्यों नहीं ? क्यों उससे यसमन मोटा किये हुए हो ? वह आ-आकर घण्टों रोती है कि मैने क्या किया है जिससे वह रूष्ट हो गया है। देखों, तुम और वह कितने दिनों तक एक संग रहे हो। तुम उसे कितना प्यार करते थे। अकस्मात् तुमको क्या हो गया? यदि तुम ऐसे ही रूठे रहोगे तो बेचारी लड़की की जान पर बन जायेगी। सूखकर कॉटा हो गया है। ईश्वर ही जानता है, मुझे उसे देखकर करूणा उत्पन्न होती है। तुम्हारी र्चचा के अतिरिक्त उसे कोई बात ही नहीं भाती।
प्रताप ऑखें नीची किये हुए सब सुनता और चुपचाप सरक जाता। प्रताप अब भोला बालक नहीं था। उसके जीवनरूपी वृक्ष में यौवनरूपी कोपलें फूट रही थी। उसने बहुत दिनों से-उसी समय से जब से उसने होश संभाला-विरजन के जीवन को अपने जीवन में र्शकरा क्षीर की भॉति मिला लिया था। उन मनोहर और सुहावने स्वप्नों का इस कठोरता और निर्दयता से धूल में मिलाया जाना उसके कोमल हृदय को विदीर्ण करने के लिए काफी था, वह जो अपने विचारों में विरजन को अपना सर्वस्व समझता था, कहीं का न रहा, और अपने विचारों में विरजन को अपना सर्वस्व समझता था, कहीं का न रहा, और वह, जिसने विरजन को एक पल के लिए भी अपने ध्यान में स्थान न दिया था, उसका सर्वस्व हो गया। इस विर्तक से उसके हृदय में व्याकुलता उत्पन्न होती थी और जी चाहता था कि जिन लोगों ने मेरी स्वप्नवत भावनाओं का नाश किया है और मेरे जीवन की आशाओं को मिटटी में मिलाया है, उन्हें मैं भी जलाउं। सबसे अधिक क्रोध उसे जिस पर आता था वह बेचारी सुशीला थी।
शनै:-शनै: उसकी यह दशा हो गई कि जब स्कूल से आता तो कमलाचरण के सम्बन्ध की कोई घटना अवश्य वर्णन करता। विशेष कर उस समय जब सुशीला भी बैठी रहती। उस बेचारी का मन दुखाने में इसे बडा ही आनन्द आता। यद्यपि अव्यक्त रीति से उसका कथन और वाक्य-गति ऐसी हृदय-भेदिनी होती थी कि सुशीला के कलेजे में तीर की भांति लगती थी। आज महाशय कमलाचरण तिपाई के ऊपर खड़े थे, मस्तक गगन का स्पर्श करता था। परन्तु निर्लज्ज इतने बड़े कि जब मैंने उनकी ओर संकेत किया तो खड़े-खड़े हॅसने लगे। आज बडा तमाशा हुआ। कमला ने एक लड़के की घडी उड़ा दी। उसने मास्टर से शिकायत की। उसके समीप वे ही महाशय बैठे हुए थे। मास्टर ने खोज की तो आप ही फेटें से घडी मिली। फिर क्या था ? बडे मास्टर के यहॉ रिपोर्ट हुई। वह सुनते ही झ्ल्ला गये और कोई तीन दर्जन बेंतें लगायीं, सड़ासड़। सारा स्कूल यह कौतूहल देख रहा था। जब तक बेंतें पड़ा की, महाश्य चिल्लाया किये, परन्तु बाहर निकलते ही खिलखिलानें लगे और मूंछों पर ताव देने लगे। चाची। नहीं सुना ? आज लडको ने ठीक सकूल के फाटक पर कमलाचरण को पीटा। मारते-मारते बेसुध कर दिया। सुशीला ये बातें सुनती और सुन-सुसनकर कुढती। हॉ। प्रताप ऐसी कोई बात विरजन के सामने न करता। यसदि वह घर में बैठी भी होती तो जब तक चली न जाती, यह चर्चा न छेडता। वह चाहता था कि मेरी बात से इसे कुछ दुख: न हो।
समय-समय पर मुंशी संजीवनलाल ने भी कई बार प्रताप की कथाओं की पुष्टि की। कभी कमला हाट में बुलबुल लड़ाते मिल जाता, कभी गुण्डों के संग सिगरेट पीते, पान चबाते, बेढंगेपन से घूमता हुआ दिखायी देता। मुंशीजी जब जामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही स्त्री पर क्रोध निकालते–यह सब तुम्हारी ही करतूत है। तुम्ही ने कहा था घर-वर दोनों अच्छे हैं, तुम्हीं रीझी हुई थीं। उन्हें उस क्षण यह विचार न होता कि जो दोषारोपण सुशील पर है, कम-से-कम मुझ पर ही उतना ही है। वह बेचारी तो घर में बन्द रहती थी, उसे क्या ज्ञात था कि लडका कैसा है। वह सामुद्रिक विद्या थोड ही पढी थी ? उसके माता-पिता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर सहमत हो गयी। पर मुंशीजी ने तो अकर्मण्यता और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुंशीजी के अगणित बान्धव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान है जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करकेक कुए में ढकेल दिया करते हैं।
सुशीला के लिए विरजन से प्रिय जगत में अन्य वस्तु न थी। विरजन उसका प्राण थी, विरजन उसका धर्म थी और विरजन ही उसका सत्य थी। वही उसकी प्राणाधार थी, वही उसके नयनों को ज्योति और हृदय का उत्साह थी, उसकी सर्वौच्च सांसारिक अभिलाषा यह थी कि मेरी प्यारी विरजन अच्छे घर जाय। उसके सास-ससुर, देवी-देवता हों। उसके पति शिष्टता की मूर्ति और श्रीरामचंद्र की भांति सुशील हो। उस पर कष्ट की छाया भी न पडे। उसने मर-मरकर बड़ी मिन्नतों से यह पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कि इन रसीले नयनों वाली, अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पर्यन्त आंखों से अदृश्य न होने दूंगी। अपने जामाता को भी यही बुलाकर अपने घर रखूंगी। जामाता मुझे माता कहेगा, मैं उसे लडका समझूगी। जिस हृदय में ऐसे मनोरथ हों, उस पर ऐसी दारूण और हृदयविदारणी बातों का जो कुछ प्रभाव पड़ेगा, प्रकट है।
हां। हन्त। दीना सुशीला के सारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये। उसकी सारी आशाओं पर ओस पड़ गयी। क्या सोचती थी और क्या हो गया। अपने मन को बार-बार समझाती कि अभी क्या है, जब कमला सयाना हो जाएगी तो सब बुराइयां स्वयं त्याग देना। पर एक निन्दा का घाव भरने नहीं पाता था कि फिर कोई नवीन घटना सूनने में आ जाती। इसी प्रकार आघात-पर-आघात पडते गये। हाय। नहीं मालूम विरजन के भाग्य में क्या बदा है ? क्या यह गुन की मूर्ति, मेरे घर की दीप्ति, मेरे शरीर का प्राण इसी दुष्कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत करेगी ? क्या मेरी श्यामा इसी गिद्ध के पाले पडेगी ? यह सोचकर सुशीला रोने लगती और घंटों रोती रहती है। पहिले विरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी दिया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न कहती। उसका मंह देखते ही उसे याद आ जाती। एक क्षण के लिए भा उसे सामने से अदृश्य न होने देगी। यदि जरा देर के लिए वह सुवामा के घर चली जाती, तो स्वयं पहुंच यजाती। उसे ऐसा प्रतीत होता मानों कोई उसे छीनकर ले भागता है। जिस प्रकार वाधिक की छुरी के तले अपने बछड़े को देखकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता है, उसी प्रकार विरजन के दुख का ध्यान करके सुशीला की आंखों में संसार सूना जाना पडता था। इन दिनों विरजन को पल-भर के लिए नेत्रों से दूर करते उसे वह कष्ट और व्याकुलता होती,जो चिडिया को घोंसले से बच्चे के खो जाने पर होती है।
सुशीला एक तो यो ही जीर्ण रोगिणी थी। उस पर भविष्य की असाध्य चिन्ता और जलन ने उसे और भी धुला डाला। निन्दाओं ने कलेजा चली कर दिया। छ: मास भी बीतने न पाये थे कि क्षयरोग के चिहृन दिखायी दिए। प्रथम तो कुछ दिनों तक साहस करके अपने दु:ख को छिपाती रही, परन्तु कब तक ? रोग बढने लगा और वह शक्तिहीन हो गयी। चारपाई से उठना कठिन हो गया। वैद्य और डाक्टर औषघि करने लगे। विरयजन और सुवामा दोनों रात-दिन उसके पांस बैठी रहती। विरजन एक पल के लिए उसकी दृष्टि से ओझल न होती। उसे अपने निकट न देखकर सुशीला बेसुध-सी हो जाती और फूट-फूटकर रोने लगती। मुंशी संजीवनलाल पहिले तो धैर्य के साथ दवा करते रहे, पर जब देखा कि किसी उपाय से कुछ लाभ नहीं होता और बीमारी की दशा दिन-दिन निकृष्ट होती जाती है तो अंत में उन्होंने भी निराश हो उद्योग और साहस कम कर दिया। आज से कई साल पहले जब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-शुश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था, अब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सुश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था,अब सुवामा की बारी आयी। उसने पडोसी और भगिनी के धर्म का पालन भली-भांति किया। रूगण-सेवा में अपने गृहकार्य को भूल-सी गई। दो-दों तीन-तीन दिन तक प्रताप से बोलने की नौबत न आयी। बहुधा वह बिना भोजन किये ही स्कूल चला जाता। परन्तु कभी कोई अप्रिय शब्द मुख से न निकालता। सुशीला की रूग्णावस्थ ने अब उसकी द्वेषारागिन को बहुत कम कर दिया था। द्वेष की अग्नि द्वेष्टा की उन्नति और दुर्दशा के साथ-साथ तीव्र और प्रज्जवलित हो जाती है और उसी समय शान्त होती है जब द्वेष्टा के जीवन का दीपक बुझ जाता है।
जिस दिन वृजरानी को ज्ञात हो जाता कि आज प्रताप बिना भोजन किये स्कूल जा रहा है, उस दिन वह काम छोड़कर उसके घर दौड़ जाती और भोजन करने के लिए आग्रह करती, पर प्रताप उससे बात न करता, उसे रोता छोड बाहर चला जाता। निस्संसदेह वह विरजन को पूर्णत:निर्दोष समझता था, परन्तु एक ऐसे संबध को, जो वर्ष छ: मास में टूट जाने वाला हो, वह पहले ही से तोड़ देना चाहता था। एकान्त में बैठकर वह आप-ही-आप फूट-फूटकर रोता, परन्तु प्रेम के उद्वेग को अधिकार से बाहर न होने देता।
एक दिन वह स्कूल से आकर अपने कमरे में बैठा हुआ था कि विरजन आयी। उसके कपोल अश्रु से भीगे हुए थे और वह लंबी-लंबी सिसकियां ले रही थी। उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी निराशा छाई हुई थी और उसकी दृष्टि कुछ ऐसी करूणोंत्पादक थी कि प्रताप से न रहा गया। सजल नयन होकर बोला-‘क्यों विरजन। रो क्यों रही हो ? विरजन ने कुछ उतर न दिया, वरन और बिलख-बिलखकर रोने लगी। प्रताप का गाम्भीर्य जाता रहा। वह निस्संकोच होकर उठा और विरजन की आंखों से आंसू पोंछने लगा। विरजन ने स्वर संभालकर कहा-लल्लू अब माताजी न जीयेंगी, मैं क्या करूं ? यह कहते-कहते फिर सिसकियां उभरने लगी।
प्रताप यह समाचार सुनकर स्तब्ध हो गया। दौड़ा हुआ विरजन के घर गया और सुशीला की चारपाई के समीप खड़ा होकर रोने लगा। हमारा अन्त समय कैसा धन्य होता है। वह हमारे पास ऐसे-ऐसे अहितकारियों को खींच लाता है, जो कुछ दिन पूर्व हमारा मुख नहीं देखना चाहते थे, और जिन्हें इस शक्ति के अतिरिकत संसार की कोई अन्य शक्ति पराजित न कर सकती थी। हां यह समय ऐसा ही बलवान है और बडे-बडे बलवान शत्रुओं को हमारे अधीन कर देता है। जिन पर हम कभी विजय न प्राप्त कर सकते थे, उन पर हमको यह समय विजयी बना देता है। जिन पर हम किसी शत्रु से अधिकार न पा सकते थे उन पर समय और शरीर के श्क्तिहीन हो जाने पर भी हमको विजयी बना देता है। आज पूरे वर्ष भर पश्चात प्रताप ने इस घर में पर्दापण किया। सुशीला की आंखें बन्द थी, पर मुखमण्डल ऐसा विकसित था, जैसे प्रभातकाल का कमल। आज भोर ही से वह रट लगाये हुए थी कि लल्लू को दिखा दो। सुवामा ने इसीलिए विरजन को भेजा था।
सुवामा ने कहा-बहिन। आंखें खोलों। लल्लू खड़ा है।
सुशीला ने आंखें खोल दीं और दोनों हाथ प्रेम-बाहुल्य से फैला दिये। प्रताप के हृदय से विरोध का अन्तिम चिहृन भी विलीन हो गया। यदि ऐसे काल में भी कोई मत्सर का मैल रहने दे, तो वह मनुष्य कहलाने का हकदार नहीं है। प्रताप सच्चे पुत्रत्व-भाव से आगे बढ़ा और सुशीला के प्रेमांक में जा लिपटा। दोनों आधे घंण्टे तक रोते रहे। सुशीला उसे अपने दोनों बांहों में इस प्रकार दबाये हुए थी मानों वह कहीं भागा जा रहा है। वह इस समय अपने को सैंकडों घिक्कार दे रहा था कि मैं ही इस दुखिया का प्राणहारी हूं। मैने ही द्वेष-दुरावेग के वशीभूत होकर इसे इस गति को पहुंचाया है। मैं ही इस प्रेम की मूर्ति का नाशक हूं। ज्यों-ज्यों यह भावना उसके मन में उठती, उसकी आंखों से आंसू बहते। निदान सुशीला बोली-लल्लू। अब मैं दो-एक दिन की ओर मेहमान हूं। मेरा जो कुछ कहा-सुना हो, क्षमा करो।
प्रताप का स्वर उसके वश में न था, इसलिए उसने कुछ उतर न दिया।
सुशीला फिर बोली-न जाने क्यों तुम मुझसे रूष्ट हो। तुम हमारे घर नही आते। हमसे बोलते नहीं। जी तुम्हें प्यार करने को तरस-तरसकर रह जाता है। पर तुम मेरी तनिक भी सुधि नहीं लेते। बताओं, अपनी दुखिया चाची से क्यों रूष्ट हो ? ईश्वर जानता है, मैं तुमको सदा अपना लड़का समझती रही। तुम्हें देखकर मेरी छाती फूल उठती थी। यह कहते-कहते निर्बलता के कारण उसकी बोली धीमी हो गयी, जैसे क्षितिज के अथाह विस्तार में उड़नेवाले पक्षी की बोली प्रतिक्षण मध्यम होती जाती है-यहां तक कि उसके शब्द का ध्यानमात्र शेष रह जाता है। इसी प्रकार सुशीला की बोली धीमी होते-होते केवल सांय-सांय रह गयी।

10. सुशीला की मृत्यु

तीन दिन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न रही। तीनों दिन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देते रहे। वह तनिक देर के लिए भी वहां से किसी काम के लिए चले जाते, तो वह व्याकुल होने लगती और रो-रोकर कहने लगती-मुझे छोड़कर कहीं चले गये। उनको नेत्रों के सम्मुख देखकर भी उसे संतोष न होता। रह-रहकर उतावलेपन से उनका हाथ पकड़ लेती और निराश भाव से कहती-मुझे छोड़कर कहीं चले तो नहीं जाओगे ? मुंशीजी यद्यपि बड़े दृढ-चित मनुष्य थे, तथापि ऐसी बातें सुनकयर आर्द्रनेत्र हो जाते। थोडी-थोडी देर में सुशीला को मूर्छा-सी आ जाती। फिर चौंकती तो इधर-उधर भौंजक्की-सी देखने लगती। वे कहां गये? क्या छोड़कर चले गयें ? किसी-किसी बार मूर्छा का इतना प्रकोप होता कि मुन्शीजी बार-बार कहते-मैं यही हूं,घबराओं नहीं। पर उसे विश्वास न आता। उन्हीं की ओर ताकती और पूछती कि–कहां है ?
यहां तो नहीं है। कहां चले गये ? थोडी देर में जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती और रोने लगती। तीनों दिन उसने विरजन, सुवामा, प्रताप एक की भी सुधि न की। वे सब-के-सब हर घडी उसी के पास खडे रहते, पर ऐसा जान पडता था, मानों वह मुशींजी के अतिरिक्त और किसी को पहचानती ही नहीं है। जब विरजन बैचैन हो जाती और गले में हाथ डालकर रोने लगती, तो वह तनिक आंख खोल देती और पूछती-‘कौन है, विरजन ? बस और कुछ न पूछती। जैसे, सूम के हृदय में मरते समय अपने गडे हुए धन के सिवाय और किसी बात का ध्यान नहीं रहयता उसी प्रकार हिन्दू-सत्री अन्त समय में पति के अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं कर सकती।
कभी-कभी सुशीला चौंक पड़ती और विस्मित होकर पूछती-‘अरे। यह कौन खडा है ? यह कौन भागा जा रहा है ? उन्हें क्यों ले जाते है ? ना मैं न जाने दूंगी। यह कहकर मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लेती। एक पल में जब होश आ जाता, तो लजिजत होकर कहती, 'मैं सपना देख रही थी, जैसे कोई तुम्हें लिये जा रहा था। देखो, तुम्हें हमारी सौहं है, कहीं जाना नहीं। न जाने कहां ले जायेगा, फिर तुम्हें कैसे देखूंगी ? मुन्शीजी का कलेजा मसोसने लगता। उसकी ओर पति करूणा-भरी स्नेह-दृष्टि डालकर बोलते-‘नहीं, मैं न जाउंगा। तुम्हें छोड़कर कहां जाउंगा ? सुवामा उसकी दशा देखती और रोती कि अब यह दीपक बुझा ही चाहता है। अवस्था ने उसकी लज्जा दूर कर दी थी। मुन्शीजी के सम्मुख घंटों मुंह खोले खड़ी रहती।
चौथे दिन सुशीला की दशा संभल गयी। मुन्शीजी को विश्वास हो गया, बस यह अन्तिम समय है। दीपक बुझने के पहले भभक उठता है। प्रात:काल जब मुंह धोकर वे घर में आये, तो सुशीला ने संकेत द्वारा उन्हें अपने पास बुलाया और कहा-‘मुझे अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दो’’। आज वह सचेत थी। उसने विरजन, प्रताप, सुवामा सबको भली-भांति पहिचाना। वह विरजन को बड़ी देर तक छाती से लगाये रोती रही। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली-‘बहिन। तनिक हमको उठाकर बिठा दो, स्वामी जी के चरण छूं लूं। फिर न जाने कब इन चरणों के दर्शन होंगे। सुवामा ने रोते हुए अपने हाथों से सहारा देकर उसे तनिक उठा दिया। प्रताप और विरजन सामने खड़े थे। सुशीला ने मुन्शीजी से कहा-‘मेरे समीप आ जाओ’। मुन्शीजी प्रेम और करूणा से विहृल होकर उसके गले से लिपट गये और गदगद स्वर में बोले-‘घबराओ नहीं, ईश्वर चाहेगा तो तुम अच्छी हो जाओगी’। सुशीला ने निराश भाव से कहा-‘हॉ’ आज अच्छी हो जाउंगी। जरा अपना पैर बढ़ा दो। मैं माथे लगा लूं। मुन्शीजी हिचकिचाते रहे। सुवामा रोते हुए बोली-‘पैर बढ़ा दीजिए, इनकी इच्छा पूरी हो जाये। तब मुंशीजी ने चरण बढा दिये। सुशीला ने उन्हें दोनों हाथों में पकड कर कई बार चूमा। फिर उन पर हाथ रखकर रोने लगी। थोड़े ही देर में दोनों चरण उष्ण जल-कणों से भीग गये। पतिव्रता स्त्री ने प्रेम के मोती पति के चरणों पर निछोवर कर दिये। जब आवाज संभली तो उसने विरजन का एक हाथ थाम कर मुन्शीजी के हाथ में दिया और अति मन्द स्वर में कहा-स्वामीजी। आपके संग बहुत दिन रही और जीवन का परम सुख भोगा। अब प्रेम का नाता टूटता है। अब मैं पल-भर की और अतिथि हूं। प्यारी विरजन को तुम्हें सौंप जाती हूं। मेरा यही चिहृन है। इस पर सदा दया-दृष्टि रखना। मेरे भाग्य में प्यारी पुत्री का सुख देखना नहीं बदा था। इसे मैने कभी कोई कटु वचन नहीं कहा, कभी कठोर दृष्टि से नहीं देखा। यह मरे जीवन का फल है। ईश्वर के लिए तुम इसकी ओर से बेसुध न हो जाना। यह कहते-कहते हिचकियां बंध गयीं और मूर्छा-सी आ गयी।
जब कुछ अवकाश हआ तो उसने सुवामा के सम्मुख हाथ जोड़े और रोकर कहा–‘बहिन’। विरजन तुम्हारे समर्पण है। तुम्हीं उसकी मता हो। लल्लू। प्यारे। ईश्वर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी विरजन को भूलना मत। यह तुम्हारी दीना और मातृहीना बहिन है। तुममें उसके प्राण बसते है। उसे रूलाना मत, उसे कुढाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत कहना। उससे कभी न रूठना। उसकी ओर से बेसुध न होना, नहीं तो वह रो-रो कर प्राण दे देगी। उसके भाग्य में न जाने क्या बदा है, पर तुम उसे अपनी सगी बहिन समझकर सदा ढाढस देते रहना। मैं थोड़ी देर में तुम लोगों को छोडकर चली जाऊंगी, पर तुम्हें मेरी सोह, उसकी ओर से मन मोटा न करना तुम्हीं उसका बेड़ा पार लगाओगे। मेरे मन में बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं थीं, मेरी लालसा थी कि तुम्हारा ब्याह करूंगी, तुम्हारे बच्चे को खिलाउंगी। पर भाग्य में कुछ और ही बदा था।
यह कहते-कहते वह फिर अचेत हो गयी। सारा घर रो रहा था। महरियां, महराजिनें सब उसकी प्रशंसा कर रही थी कि स्त्री नहीं, देवी थी।
रधिया-इतने दिन टहल करते हुए, पर कभी कठोर वचन न कहा।
महराजिन-हमको बेटी की भांति मानती थीं। भोजन कैसा ही बना दूं पर कभी नाराज नहीं हुई। जब बातें करतीं, मुस्करा के। महराज जब आते तो उन्हें जरूर सीधा दिलवाती थी।
सब इसी प्रकार की बातें कर रहे थे। दोपहर का समय हुआ। महराजिन ने भोजन बनाया, परन्तु खाता कौन ? बहुत हठ करने पर मुंशीजी गये और नाम करके चले आये। प्रताप चौके पर गया भी नहीं। विरजन और सुवामा को गले लगाती, कभी प्रताप को चूमती और कभी अपनी बीती कह-कहकर रोती। तीसरे पहर उसने सब नौकरों को बुलाया और उनसे अपराध क्षमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से कहा–बहिन प्यास बहुत लगती है। उनसे कह दो अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दें। मुंशीजी पानी लाये। सुशीला ने कठिनता से एक घूंट पानी कण्ठ से नीचे उतारा और ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे अमृत पिला दिया हो। उसका मुख उज्जवल हो गया आंखों में जल भर आया। पति के गले में हाथ डालकर बोली—मै ऐसी भाग्यशालिनी हूं कि तुम्हारी गोद में मरती हूं। यह कहकर वह चुप हो गयी, मानों कोई बात कहना ही चाहती है, पर संकोच से नहीं कहती। थोडी देर पश्चात् उसने फिर मुंशीजी का हाथ पकड़ लिया और कहा-‘यदि तुमसे कुछ मांगू,तो दोगे ?
मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा-तुम्हारे लिए मांगने की आवश्यकता है? नि:संकोच कहो।
सुशीला-तुम मेरी बात कभी नहीं टालते थे।
मुन्शीजी-मरते दम तक कभी न टालूंगा।
सुशीला-डर लगता है, कहीं न मानो तो ?
मुन्शीजी-तुम्हारी बात और मैं न मानूं ?
सुशीला-मैं तुमको न छोडूंगी। एक बात बतला दो-सिल्ली(सुशीला)मर
जायेगी, तो उसे भूल जाओगे ?
मुन्शीजी-ऐसी बात न कहो, देखो विरजन रोती है।
सुशीला-बतलाओं, मुझे भूलोगे तो नहीं ?
मुन्शीजी-कभी नहीं।
सुशीला ने अपने सूखे कपोल मुशींजी के अधरों पर रख दिये और दोनों बांहें उनके गले में डाल दीं। फिर विरजन को निकट बुलाकर धीरे-धीरे समझाने लगी-देखो बेटी। लालाजी का कहना हर घडी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना। गृह का सारा भर अब तुम्हारे ही माथे है। अब तुम्हें कौन सभांलेगा ? यह कह कर उसने स्वामी की ओर करूणापूर्ण नेत्रों से देखा और कहा–मैं अपने मन की बात नहीं कहने पायी, जी डूबा जाता है।
मुन्शीजी-तुम व्यर्थ असमंजस में पडी हो।
सुशीला-तुम मरे हो कि नहीं ?
मुन्शीजी-तुम्हारा और आमरण तुम्हारा।
सुशीला–ऐसा न हो कि तुम मुझे भूल जाओं और जो वस्तु मेरी थी वह अन्य के हाथ में चली जाए।
सुशीला ने विरजन को फिर बुलाया और उसे वह छाती से लगाना ही चाहती थी कि मूर्छित हो गई। विरजन और प्रताप रोने लगे। मुंशीजी ने कांपते हुए सुशीला के हृदय पर हाथ रखा। सांस धीरे-धीरे चल रही थी। महराजिन को बुलाकर कहा-अब इन्हें भूमि पर लिटा दो। यह कह कर रोने लगे। महराजिन और सुवामा ने मिलकर सुशीला को पृथ्वी पर लिटा दिया। तपेदिक ने हडिडयां तक सुखा डाली थी।
अंधेरा हो चला था। सारे गृह में शोकमय और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। रोनेवाले रोते थे, पर कण्ठ बांध-बांधकर। बातें होती थी, पर दबे स्वरों से। सुशीला भूमि पर पडी हुई थी। वह सुकुमार अंग जो कभी माता के अंग में पला, कभी प्रेमांक में प्रौढा, कभी फूलों की सेज पर सोया, इस समय भूमि पर पडा हुआ था। अभी तक नाडी मन्द-मन्द गति से चल रही थी। मुंशीजी शोक और निराशानद में मग्न उसके सिर की ओर बैठे हुए थे। अकस्समात् उसने सिर उठाया और दोनों हाथों से मुंशीजी का चरण पकड़ लिया। प्राण उड़ गये। दोनों कर उनके चरण का मण्डल बांधे ही रहे। यह उसके जीवन की अंतिम क्रिया थी।
रोनेवालो, रोओ। क्योंकि तुम रोने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हो? तुम्हें इस समय कोई कितनी ही सान्त्वना दे, पर तुम्हारे नेत्र अश्रु-प्रवाह को न रोक सकेंगे। रोना तुम्हारा कर्तव्य है। जीवन में रोने के अवसर कदाचित मिलते हैं। क्या इस समय तुम्हारे नेत्र शुष्क हो जायेगें ? आंसुओं के तार बंधे हुए थे, सिसकियों के शब्द आ रहे थे कि महराजिन दीपक जलाकर घर में लायी। थोडी देर पहिले सुशीला के जीवन का दीपक बुझ चुका था।

(वरदान (उपन्यास) मुंशी प्रेमचंद का शेष भाग) 

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!